Monday, March 30, 2009

(४) आध्यात्मिक रूप से स्वस्थ अर्थात्

आध्यात्मिक रूप से स्वस्थ अर्थात्, .... समझना बहुत आसान है। जो निज संस्कृति-अनुसार कुछ भी खाता-पीता है, भाषा बोलता है, रहन-सहन कैसा भी है; परन्तु जिसके विचार पवित्र हैं, कामी, क्रोधी, लालची, दुराचारी, भ्रष्ट आदि नहीं है, जो दुर्भावनावश किसी अन्य को शारीरिक या मानसिक क्षति पहुँचाने की नहीं सोचता, यश-कीर्ति आदि की बहुत अधिक अभिलाषा नहीं रखता, विनम्र है, दूसरों का भी अत्यधिक ध्यान रखने वाला है, सत्य-प्रेमी है, कुटिल नहीं है, वह आध्यात्मिक रूप से स्वस्थ है।

आध्यात्मिक स्वस्थता का स्तर मनुष्य दर मनुष्य भिन्न-भिन्न हो सकता है। पर मोटे तौर पर देखा गया है कि संघ दर संघ यह भिन्न-भिन्न होता है। क्योंकि मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है, उसे संघ में रहना आवश्यक होता है, संघ और व्यक्ति में एकता न हो तो उस व्यक्ति का अस्तित्व खतरे में होता है। अतः किसी एक संघ (समुदाय, प्रान्त या देश) के लोगों का आध्यात्मिक स्तर थोड़ी-बहुत भिन्नता के बावजूद कमोवेश एक समान ही होता है।

पुनः, जो व्यक्ति अपने आचरण द्वारा आत्मा के मूल गुणधर्म जितने अधिक प्रकट करता है, वह उतना ही अधिक आध्यात्मिक है। आत्मा के मूल गुणधर्म अर्थात् विभिन्न धर्मग्रंथों के नीति-वचनों में बताये गए विभिन्न नैतिक गुण ही। हम देखते हैं कि बहुत से विरोधाभासों के बावजूद, विभिन्न समुदायों के ग्रंथों में बताये गए अच्छे गुण (नैतिकता का पाठ) लगभग समान ही हैं। वस्तुतः यही गुण ईश्वर, परमात्मा या आत्मा के हैं। ये गुण हम सब मनुष्यों में भी अविद्या के आवरण के भीतर विद्यमान हैं। आवश्यकता है तो बस उन्हें अपने आचरण द्वारा प्रकट करने की। जो व्यक्ति या जो संघ इन्हें जितनी अधिक मात्रा में प्रकट कर रहा है, वह आध्यात्मिक रूप से उतना ही अधिक स्वस्थ है। अन्य शब्दों में, .. जो जितना धार्मिक (righteous) है, वह उतना ही अधिक आध्यात्मिक भी है।

आध्यात्मिक रूप से स्वस्थ होने का पैमाना (मापदंड) वाह्य स्थूल कृत्य, जैसे - खान-पान, बोली, भाषा, रहन-सहन आदि नहीं हैं, बल्कि व्यक्ति के आत्मिक गुणों का उसके आचरण द्वारा प्रकटीकरण है। सच्ची धार्मिकता या आध्यामिकता, स्थूल रिलीजियस (religious) यंत्रवत कर्मकांड आदि करने से भी प्रकट नहीं होती, वरन हमारी सच्ची विनम्रता, कोमलता, वैचारिक पवित्रता व अपने समान दूसरों का भी ख्याल रखने वाली भावनाओं आदि से प्रकट होती है। ... इसे समझना आसान है, पर जीवन में लागू करना जरा सा मुश्किल। आइये कोशिश करते रहें। इति।

Sunday, March 29, 2009

(३) धर्म और अध्यात्म


(धर्म और अध्यात्म) पृष्ठ-१

यदि हम वर्तमान तक उपलब्ध प्रामाणिक या अप्रामाणिक इतिहास को देखें, तो हमें ज्ञात होता है कि काल के या समय के प्रत्येक चरण में अच्छे और बुरे लोग थे। हाँ, इनका प्रतिशत भिन्न-भिन्न युगों में भिन्न-भिन्न हो सकता है, पर ऐसा नहीं था कि हम किसी भी युग को परिपूर्ण अर्थात् केवल अच्छा या सात्त्विक कह सकें। जब हम बात करते हैं अच्छाई या बुराई की, तो अच्छे या बुरे का निर्णय हम किस आधार पर करते हैं? क्या अच्छे या बुरे की पहचान के लिए प्रत्येक पंथ या समुदाय में कोई स्पष्ट नियम बनाये गए हैं? यदि हैं भी, तो क्या वे नियम समर्थ हैं, या थे, प्रत्येक प्रसंग या घटना के लिए? यदि कोई पंथ यह कहता है कि हाँ, तो फिर भी वहां की सरकारों ने इतने नियम व कानून क्यों बनाये हैं न्याय करने के लिए, जो वहां के धार्मिक ग्रंथों में दिए गए नियमों से कदाचित् भिन्न ही हैं? अर्थात् अच्छे और बुरे के ज्ञान के लिए हम 'सर्वकाल' किसी एक धार्मिक ग्रन्थ में दिए गए नियमों का सहारा लेते हैं, या ले सकते हैं, यह कहना अविवेकपूर्ण साहस ही होगा। यहाँ तक कि यदि हम अत्यंत प्राचीन जातियों के अति प्राचीन ग्रंथों का अवलोकन करें तो पता चलता है कि समय के साथ नियम व नीतियां बदलती गयीं। यानी उन ग्रंथों में भी कालानुसार नीतियों और नियमों या आज्ञाओं में परिवर्तन आते चले गए।

तो हमें पता चलता है कि तत्कालीन ग्रन्थ लेखकों को भी समयानुसार या आवश्यकतानुसार नीति-परिवर्तन की आवश्यकता पड़ी। या किसी पंथ के एक ग्रन्थ में यदि कुछ नियम प्रतिपादित किये गए, तो कुछ वर्षों के बाद उसी पंथ के अगले किसी ग्रन्थ में कुछ नए नियम या पुराने नियमों में बदलाव दिखाई पड़ता है। या किसी पंथ में यदि एक ही ग्रन्थ लिखा गया और उसमें प्रारंभ से अंत तक नीतियों, नियमों, या आज्ञाओं में कोई परिवर्तन नहीं दिखाई देता, तो यह कहना भी बड़े साहस की बात है कि उस पंथ के सभी लोग आज भी उस ग्रन्थ की सभी आज्ञाओं, नियमों, सिद्धांतों या नीतियों का अक्षरशः पालन करते ही हैं। ऐसे में तो प्रत्येक व्यक्ति दिग्भ्रमित हो सकता है कि कैसे मैं वर्तमान में अच्छे और बुरे की सही-सही पहचान कर तदनुसार आचरण करूँ? वस्तुतः ऐसे सभी धार्मिक ग्रन्थ, जिनमें कुछ स्पष्ट नियम, नीतियाँ या आज्ञाएँ दी गयी हों, धार्मिक ग्रन्थ न होकर केवल नीति-विषयक ग्रन्थ ही हैं, या वे धर्म और नीति के मिश्रित स्वरूप हैं। तो फिर प्रश्न यह उठता है कि धर्म क्या है? यह भी प्रश्न उठता है कि अच्छे व बुरे की पहचान हमें कैसे हो सकती है? वर्तमान में कैसे हम श्रेष्ठ कर्म कर पाएं या कैसे हम आनंदित रह सकें? क्या इन सब के निर्धारण के लिए कोई परिपूर्ण ग्रन्थ है? आदि।

(धर्म और अध्यात्म) पृष्ठ-२

तो मन के इस भटकाव व उलझन को विराम देने के लिए सर्वप्रथम कुछ मूलभूत बातें जानना हमारे लिए बहुत आवश्यक हो जाता है। पहले हम शब्दों के माध्यम से 'धर्म' को समझने का प्रयास करते हैं। शास्त्रकारों ने 'धर्म' शब्द की अनेकों परिभाषाएं दी हैं, उनको पढ़ने से 'धर्म' शब्द का अर्थ यह समझ में आता है कि 'धर्म' अर्थात् योग्य एवं न्यायपूर्ण आचरण या कार्य, जिनके माध्यम से हम ऐहिक एवं पारलौकिक उन्नति कर सकें। 'धर्म' अर्थात् ऐसा योग्य आचार अथवा कार्य, जो हमें वाह्य (भौतिक) एवं आन्तरिक सुख प्रदान करा सके। श्रेयस्कर आचरण कौन सा है, इसे निर्धारित करने का कार्य मानवीय बुद्धि का नहीं, बल्कि केवल एक दिव्य अलौकिक शक्ति का है, ऐसा सभी पंथ मानते हैं।

और सभी पंथ यह दावा भी करते हैं कि उनके धार्मिक ग्रन्थ उसी दिव्य अलौकिक शक्ति द्वारा या उसकी प्रेरणा द्वारा लिखे गए हैं, अतः जो भी उनमें है वही धर्म है।

यदि हम यह मानते हैं कि सभी धार्मिक पंथों का ईश्वर एक ही है और वह वही अलौकिक दिव्य शक्ति है, तो फिर उनके ग्रंथों में दी गयीं धर्म नीतियाँ या सिद्धांत भिन्न-भिन्न क्यों? जब यह प्रश्न जोर देकर उठाया जाता है तो उन पंथों के सभी वर्तमान धर्मगुरु यही कहते हैं कि उनके पंथ का ग्रन्थ एवं ईश्वर ही प्रामाणिक है, श्रेष्ठ है; अन्य सब निम्न श्रेणी के या झूठे हैं। केवल उन्हीं के धर्मसिद्धांत व नियम सत्य हैं, शेष के मानवीय बुद्धि द्वारा ही रचित हैं।

वस्तुतः प्रत्येक पंथ के शीर्ष स्तर पर जब ऐसी सोच या मनोवृत्ति होती है, तो परस्पर धार्मिक द्वेष या पंथिक द्वेष जन्म लेता है। यही द्वेष विश्व भर में फ़ैली अनेक बुराइयों व वैमनस्य की जड़ है। अपने-अपने ईश्वर को एवं धार्मिक ग्रन्थ को ही श्रेष्ठतम कहने का दावा करना (बिना यह समझे कि भिन्नता क्यों है?) अहं सूचक है। अहं का यह पर्दा जब तक हमारे मन की आँखों पर पड़ा रहेगा, हमें वास्तविक ज्ञान नहीं मिल सकता। केवल स्वयं को ही श्रेष्ठतम समझना व अन्य को कनिष्ठ, सभी पंथों की यह सोच बहुत खतरनाक है। वस्तुतः सभी धर्मग्रन्थ नीतियों के माध्यम से हमें धर्ममार्ग पर चलने के लिए प्रेरित करते हैं।

आज हम विज्ञान के क्षेत्र में देखते हैं, तो बहुत हद तक सभी नियमों व सिद्धांतों में विश्व स्तर पर एकरूपता है। यानी हम कह सकते हैं कि विज्ञान के क्षेत्र में सभी नियमों व सिद्धांतों का वैश्वीकरण हो चुका है। यद्यपि शोध एवं अनुसंधान लगातार चलता रहता है, पर विज्ञान के कुछ नियमों या सिद्धांतों में यदि इन शोधों के फलस्वरूप कुछ परिवर्तन आता है या कोई नयी बात पता चलती है, तो वह बात या खोज या परिवर्तन विश्व स्तर पर मान्य होता है, दुनिया भर के वैज्ञानिक उसे मान्यता देते हैं। पर धर्म के क्षेत्र में भी क्या ऐसा ही है? बिलकुल भी नहीं। क्यों? क्योंकि विज्ञान तो तथ्यों और प्रमाणों पर आधारित है, जबकि धर्म तो वास्तव में अनुभूति पर ही आधारित है, जो शब्दों या शाब्दिक व्याख्या से परे है। अर्थात् किसी अनुभूति को हम शब्दों के माध्यम से परिपूर्णता की हद तक व्यक्त नहीं कर सकते।

जो बात किसी को अनुभूति द्वारा पता चली है, वह बात किसी अन्य को भी ठीक-ठीक तभी पता चल सकती है जब उसको भी वही अनुभूति हो।

पुनः हम मूल विषय पर आते हैं कि जब ईश्वर या परमेश्वर एक ही हैं तो फिर उनके द्वारा या उनकी प्रेरणा द्वारा रचे गए ग्रंथों में असमानताएं क्यों? क्योंकि अधर्म को दूर करने के लिए ये कालानुसार, स्थानानुसार, व समुदायानुसार लिखे गए। इनके लिखने का आशय यही था कि इनमें बताई गयी नीतियों पर चल कर तत्कालीन लोग पुनः धर्म की ओर मुड़ें।

ये असमानताएं इसलिए भी हैं, क्योंकि 'धर्म' (एवं ईश्वर) तथा सभी 'धार्मिक ग्रन्थ', ये दोनों अलग-अलग विषय हैं। समझने के लिए आगे चर्चा करते हैं।

(धर्म और अध्यात्म) पृष्ठ-३

'धर्म' (एवं ईश्वर) अनुभूति का विषय है, तथा 'धार्मिक ग्रन्थ' वस्तुतः किसी धर्म की व्याख्या या निर्धारण कर सकने में असमर्थ हैं क्योंकि वास्तव में लगभग सभी 'धार्मिक ग्रन्थ', धार्मिक ग्रन्थ हैं ही नहीं, वरन मात्र नीतिविषयक ग्रन्थ ही हैं। सभी धार्मिक ग्रंथों में कुछ विशेष नीतियां, सिद्धांत या नियम प्रतिपादित किये गए हैं। ये सभी नियम उस काल के (जिस काल में वह ग्रन्थ लिखा गया) लोगों के आचरण को ध्यान में रख कर अर्थात् तत्कालीन धर्म को ध्यान में रख कर बनाये गए थे। इनको बनाने का आशय यही था कि तत्कालीन लोग कम से कम गलतियाँ कर केवल यथासंभव श्रेष्ठ आचरण करें अर्थात् धर्म का निर्वाह करें। पर प्रत्येक युग या काल में लोगों की मानसिक क्षमता व संस्कार भिन्न रहे होंगे आज की तुलना में या किसी और युग (या काल) की तुलना में या अन्य किसी स्थान की तुलना में। तो फिर इन धर्मग्रंथों में समानता कैसे संभव हो सकती है, क्योंकि प्रत्येक ग्रन्थ अपने-अपने समय में उस काल के लोगों की बौद्धिक क्षमता, आचरण, स्थान विशेष आदि को ध्यान में रख कर लिखे गए।

पहले से ही विश्व अनेक टुकड़ों में विभाजित था। अलग-अलग स्थान पर अलग-अलग ढंग से मानव सभ्यता का विकास या पराभव चरणबद्ध ढंग से हुआ। हमारे पास उपलब्ध प्रामाणिक इतिहास से ही हमें यह जानने को मिलता है कि विश्व के अनेक हिस्सों पर बसे लोग किन्हीं अन्य हिस्सों पर बसे लोगों की जानकारी में धीरे-धीरे ही आये। विभिन्न देशों के व्यक्तियों ने जब लम्बी यात्राएं कीं, तो उन्हें अन्य देशों व संस्कृतियों के विषय में पता चला। यही कारण है, प्रत्येक देश के ईश्वर व ग्रन्थ भिन्न-भिन्न हैं। यही नहीं किसी एक ही देश में भी (जैसे भारत में) अनेक भाषाएं, पंथ एवं 'ईश्वर के रूप' हैं। आज हम भौतिक रूप से तो बहुत विकसित हो गए हैं पर धर्म के सम्बन्ध में अभी भी इतनी संकुचितता रखते हैं और उपरोक्त बातें जानते हुए भी आँखें मूंदे हुए हैं और केवल अपने ईश्वर, पंथ और ग्रन्थ को ही श्रेष्ठतम का दर्जा देते हैं व अन्य को कनिष्ठ (निम्न) घोषित करते हैं। हम यह क्यों नहीं समझते कि प्रत्येक धर्मग्रन्थ (?) वस्तुतः स्थानविशेष, समुदाय विशेष, समय विशेष, परिस्थिति विशेष आदि को ध्यान में रख कर रचे गए नीतिशास्त्रक या पथप्रदर्शक ग्रन्थ ही हैं मात्र। 'धर्म' तो शब्द, समय, स्थान, समुदाय आदि से परे है, केवल किसी विशेष परिस्थिति में भिन्न आकार ले सकता है बस, वह भी असामान्य परिस्थिति के सामान्य होने तक के समय के लिए। पूरे विश्व में, प्रत्येक काल में, प्रत्येक स्थान पर यह एक ही था व अभी भी एक ही है व सदैव एक ही रहेगा। अतः शब्दों में सरलता से समझने व समझाने के लिए हम इसे 'सनातन विश्व धर्म' कह सकते हैं।

(धर्म और अध्यात्म) पृष्ठ-४

सनातन शब्द का अर्थ है - सदैव रहने वाला,शाश्वत व चैतन्यमय। जिसका कोई आदि-अंत न हो। अर्थात् धर्म का इतिहास अनंत है और यह (धर्म) विश्व के समस्त मनुष्यों में समान रूप से विद्यमान है। धर्म अर्थात् योग्य व न्यायपूर्ण आचरण के निर्धारण के पीछे एक ही दिव्य अलौकिक शक्ति का हाथ है, जो संभवता अदृश्य व निराकार है, पर उसका वर्णन भिन्न-भिन्न पंथों व समुदायों में ईश्वर के भिन्न-भिन्न नामों व रूपों के द्वारा मिलता है। पर फिर से बात वहीं पर आ जाती है कि प्रत्येक समुदाय व जाति अज्ञानवश या अहंवश अपने ही ईश्वर को श्रेष्ठतम व अन्य को कनिष्ठ या अयोग्य या झूठा ठहराती है। विभिन्न कालों में धार्मिक व्यक्तियों एवं विद्वानों द्वारा लिखे गए नीति ग्रंथों को वे धार्मिक ग्रन्थ कहते हैं और उनकी सभी बातों को वे श्रेष्ठतम कहते हैं व अन्य को कनिष्ठ।

मैं फिर से कहूँगा कि किसी के लिए यह कहना बड़े साहस कि बात है कि किसी एक ग्रन्थ में लिखी गयी सभी नीतियाँ 'सर्वकाल' में वैसे की वैसे ही (अर्थात् जैसे मूल रूप में लिखी गयी थीं) अपनाना संभव या लाभकारी हो सकता है। अर्थात् समयानुसार, कालानुसार, स्थानानुसार, सभ्यता व संस्कृति अनुसार नीतियों को कुछ न कुछ बदलने की आवश्यकता पड़ती रही है व आगे भी पड़ती रहेगी, जब तक कि प्रत्येक मनुष्य धार्मिक न हो जाये। तो क्या अभी सब धार्मिक नहीं हैं? वे धार्मिक क्यों नहीं हैं? वे धार्मिक कैसे हो सकते हैं? धर्म का ज्ञान हमें कैसे संभव हो पायेगा? सब धार्मिक हो जायेंगे, तो नीति ग्रंथों की आवश्यकता क्यों नहीं पड़ेगी? धर्म अपरिवर्तनशील क्यों है? केवल विशेष परिस्थिति में धर्म के स्वरूप का कुछ समय के लिए बदलना क्या उसके मूल गुण 'अपरिवर्तनीय' के विरुद्ध नहीं है? क्या हम धर्म की संस्थापना पूरे विश्व में कर पुनः धर्म राज्य या ईश्वरीय राज्य स्थापित कर सकते हैं? इन सभी व अन्य प्रश्नों के उत्तर पर हम आगे मनन करेंगे ....।

(धर्म और अध्यात्म) पृष्ठ-५

चूँकि ऐसे योग्य व न्यायपूर्ण आचरण, कार्य, या कृत्यों को 'धर्म' कहा गया है जो मनुष्य को वाह्य (भौतिक) समृद्धि एवं साथ ही आन्तरिक आनंद दे पाएं। तो यह कहा जा सकता है कि जब तक उपरोक्त दोनों (वाह्य तथा आन्तरिक सुख समृद्धि) प्रत्येक मानव को प्राप्त नहीं होते, तब तक अधर्म जीवित है। जब तक योग्य व अयोग्य दोनों तरह के कार्य मनुष्य कर रहा है, तब तक सब लोग धार्मिक नहीं हैं। योग्य व अयोग्य के निर्णय जब तक होते रहेंगे, अच्छे व बुरे पर बहस जब तक चलती रहेगी, एक-दूसरे के कार्यों / आचरण को जब तक लोग सही या गलत ठहराते रहेंगे, तब तक यह माना जा सकता है कि सब धार्मिक नहीं हैं।

कोई अच्छा नीति विषयक ग्रन्थ बुराइयों को काफी हद तक नियंत्रित कर सकने में समर्थ तो अवश्य हो सकता है, पर उस ग्रन्थ के मनन से, चिंतन से, या उसमें बताई गयी बातों को अक्षरशः अमल में लाने से सभी बुराइयाँ विश्व से समाप्त हो सकती हैं इसमें संदेह है, क्योंकि मनुष्य का अहं ऐसा होने न देगा। और दूसरी बात यह कि धर्मग्रंथों में उपलब्ध अधिकाँश नीतियाँ व नियम, दंड या प्रलोभन पर आधारित हैं। दंड या प्रलोभन के द्वारा यदि मनुष्य ने धर्माचरण स्थाई रूप से अपनाना होता, तो वह अब तक हो चुका होता; अर्थात् दंड या प्रलोभन अस्थाई रूप से तो धर्माचरण के लिए बाध्य कर सकते हैं पर स्थाई रूप से यह प्रक्रिया कारगर नहीं। फिर पहले तो मानव भौतिक रूप से इतना विकसित नहीं था अर्थात् पहले मन, बुद्धि और वैज्ञानिक दृष्टिकोण इतना अधिक नहीं अपनाता था, जितना आधुनिक युग में अपनाता है। अब इस वैज्ञानिक युग में केवल प्रमाण को ही आधार मानने वाले मनुष्य के लिए तो उन प्राचीन ग्रंथों की दंड या प्रलोभन पर आधारित शिक्षाओं (नीतियों) को मानना और भी अधिक दुरूह हो गया है। तभी तो आज हम सर्वत्र गलत कामों को धड़ल्ले के साथ होता हुआ देखते हैं। आज की पीढ़ी साकार या निराकार ईश्वर के दंड या प्रलोभन की उन पुरानी नीतियों पर विश्वास नहीं करती या बहुत कम करती है जो विभिन्न ग्रंथों के माध्यम से बतायी गयी हैं।

तो यह कहा जा सकता है कि वर्तमान में सभी लोग पुनः धर्माचरण की ओर उन्मुख हों, अर्थात् योग्य व न्यायपूर्ण मार्ग पर चलें, इसके लिए आवश्यकता है कि पुरानी नीतियों में समयानुसार शोधन एवं संशोधन कार्य किया जाये क्योंकि जब तक धर्म पुनर्स्थापित नहीं होता, किसी न किसी नीति की आवश्यकता पड़ेगी ही तब तक। उदाहरणार्थ - यदि कोई व्यक्ति धार्मिक हो, तो वह योग्य कार्य जैसे बुजुर्गों का आदर स्वतः ही करेगा। यदि कोई व्यक्ति ऐसा नहीं करता तो उसे समझाना पड़ता है कि प्रेम करना, आदर करना अच्छी बात है। 'प्रेम करो, बड़ों का आदर करो' यह समझाना नीति ही हुई। ऐसे ही सत्य बोलने के विषय में समझाना भी नीति विषयक ही है। धार्मिक तो स्वतः ही सत्य बोलेगा, उसे नीतिशास्त्र की आवश्यकता नहीं। तो क्या हम ऐसे छोटे-छोटे कृत्यों के लिए भी असंख्य नीति वचन पुनः लिखेंगे जो पहले भी अनेक ग्रंथों में विस्तार से लिखे ही हुए हैं? या विभिन्न कर्मकांडों पर पुनः शोध कर उन्हें नए स्वरूप में लोगों के सामने लायेंगे? मेरा मानना है कि जिन प्राचीन कर्मकांडों से पहले ही नयी पीढ़ी का मोह भंग हो चुका है या वे कुछ कर्मकांड करते भी हैं तो बस यंत्रवत ही, उन कर्मकांडों का कोई नया सुधरा स्वरूप उन्हें स्थाई रूप से पुनः धर्म के मार्ग पर ले जा सकता है इसमें १००% संदेह है। यदि हम एक बार को मान भी लें कि कोई अमुक कर्मकांड किसी अभीष्ट फल की प्राप्ति करा सकता हो, पर कोई कर्मकांड मनुष्य को धर्माचरण के मार्ग पर स्थाई रूप से चला सके, ऐसा नहीं हो सकता अब।

(धर्म और अध्यात्म) पृष्ठ-६

तो वर्तमान युग व परिस्थितियों को देखते हुए धर्म की पुनर्स्थापना के लिए एक ही नीति शेष बचती है, वह है मानव में आन्तरिक चेतना का विकास। आन्तरिक चेतना या चैतन्य को जागृत करने के लिए एक ही विषय या नीति का सहारा लिया जा सकता है, वह है - अध्यात्मशास्त्र का अभ्यास व इसका व्यापक प्रसार। अध्यात्मशास्त्र बिलकुल भी कठिन नहीं है, नीतियों या आज्ञाओं पर आधारित नहीं है और आजकल की वैज्ञानिक दृष्टिकोण अपनाने वाली नयी पीढ़ी व पुराने लोग भी सरलता से इसे समझ-समझा सकते हैं।

वास्तव में अध्यात्म चेतना पर आधारित शास्त्र है। हमने पहले भी कहा था कि सही और गलत आचरण का निर्णय करने वाली शक्ति कोई दिव्य या अलौकिक ही है, मानवीय बुद्धि नहीं। अध्यात्म के द्वारा हम इस दिव्य अलौकिक शक्ति से साक्षात्कार करते हैं। जब यह साक्षात्कार होता है तो हमारा चैतन्य जागृत होता है और तब हमें स्वयं ही समझ में आता है कि धर्म अर्थात् क्या। और तब हम स्वतः ही धार्मिकता के मार्ग पर चलने लगते हैं। यदि अध्यात्म का व्यापक प्रसार हो तो अवश्य ही एक दिन ईश्वरीय राज्य की स्थापना निश्चित है। अब हम अध्यात्म के विषय में सरल शब्दों में चर्चा करेंगे।

(धर्म और अध्यात्म) पृष्ठ-७

कई बार कोई कार्य करते समय, जो समाज के अन्य लोग भी करते रहते हैं, आपको भीतर से यानी मन या हृदय से यह आवाज़ आती है कि अमुक कार्य गलत है। आप कुछ क्षण सोचते हैं, फिर सिर झटक कर वह कार्य पुनः करने लगते हैं यह सोच कर कि बहुत से अन्य लोग भी तो ऐसा कर रहे हैं। ऐसा अनेक लोगों के साथ अनेक कार्य करते समय होता है। आपको इतना तो पता चलता ही है कि अंतर्मन से कभी-कभी या अक्सर ही ऐसी कानों से न सुनाई देने वाली आवाज़ आया करती है जो सही लगती है, पर बहुधा लोग इसे अनदेखा कर पुनः उसी कार्य में प्रवृत्त हो जाते हैं। कभी-कभी ऐसा भी होता है कि आप मन की उस आवाज़ पर ध्यान देते हैं और तदनुसार कार्य करते हैं जैसा कि अंतर्मन का आदेश होता है। जब आप ऐसा करते हैं कि अंतर्मन की उस आवाज़ को सुन कर तदनुसार कार्य (सही कार्य) करते हैं तो आपको एक अनोखे आनंद का अनुभव होता है या शान्ति महसूस होती है।

वस्तुतः यह आवाज़ अंतर्मन की न होकर उसी दिव्य अलौकिक शक्ति की होती है जो सही व गलत का निर्णय लेती है। ऎसी आनंद देने वाली घटनाएं सम्पूर्ण विश्व में प्रत्येक पंथ व समुदाय के लोगों व नास्तिकों के साथ भी होती हैं। उपरोक्त आवाज़ या आदेश ही धर्म की आवाज़ है। पर फिर भी सबकी वृत्ति सर्वकाल सत्य की ओर ही झुकती हो यह कहना बड़े साहस की बात है। क्योंकि किसी भी कार्य को करने के लिए आपके मन में जो निर्देश आता है वह उस दिव्य शक्ति का भी हो सकता है और आपके मन में बने हुए किसी संस्कार का भी। उदाहरण के लिए - राह में चलते-चलते आपने अचानक कोई आईसक्रीम का ठेला देखा और आपके मन से यह आवाज़ आयी कि चलो आईसक्रीम खाएं, तो आप यह नहीं कह सकते कि यह आवाज़ आपकी चेतना (या चैतन्य) की है या दिव्य शक्ति की है, बल्कि यह आवाज़ तो आपके मन में बने आईसक्रीम के संस्कार (impression) द्वारा आयी, क्योंकि जब भी आपने अपने जीवन में पहली बार आईसक्रीम को देखा या खाया तो उसी समय आपके मन में उसका एक संस्कार (impression) अंकित हो गया, और संस्कार जल्दी मिटते नहीं वरन बढ़ते ही हैं।

अतः हम यह कह सकते हैं कि सामान्यतः, एक सामान्य व्यक्ति के मन में आने वाला विचार संस्कार-जनित ही होता है। हाँ कुछ एक अवसरों पर गलत कार्य के विरुद्ध चेतावनी या अच्छे कार्य के प्रति प्रेरणा हमें काफी भीतर से और जोरदार ढंग से आती प्रतीत होती है, यही हमारी चेतना या चैतन्य की ध्वनि होती है। यही धर्माचरण के लिए आदेश होता है उस दिव्य शक्ति का। और यदि हम उस जोरदार व मजबूत ध्वनि या आदेश के अनुसार कार्य करते हैं तो एक अनोखे आत्मसंतोष की अनुभूति करते हैं। तब आप कभी-कभी यह भी कहते हैं कि मैं अपने आनंद या ख़ुशी को शब्दों में व्यक्त नहीं कर सकता। वास्तव में अनुभूति होती ही है शब्दों से परे।

पर जो कभी-कभी होता है वह निरंतर हो, तो क्या हम यह नहीं कह पाएंगे कि हाँ, अब नीतियों की आवश्यकता नहीं, अब धर्माचरण तो स्वतः ही हो रहा है। चैतन्य की दिव्य वाणी सदैव सुनाई देने पर सदैव ही अच्छे कार्य संपादित होंगे व सदैव ही हम आनंदमय रहेंगे। अतः ऐसा निरंतर होता रहे इसके लिए आवश्यकता है कि हम अपने आपको, इस सृष्टि को व उस परम शक्ति को जानें, जो इन सब का कारण है।

(धर्म और अध्यात्म) पृष्ठ-८

कुछ लोग कहेंगे, या कहते ही हैं कि बुद्धिजीवी वर्ग धर्म व अध्यात्म का शत्रु है। या कुछ यह भी कहते हैं कि विज्ञान ही अध्यात्म व धर्म के पराभव का कारण है। वास्तव में ये सब बातें वर्तमान समयानुसार धार्मिक शिक्षा के अभाव या कमज़ोरियों को ढकने के लिए बहाना मात्र है। विज्ञान के अध्ययन से तो आज की पीढ़ी में जिज्ञासा व कारणभाव जानने की लालसा बढ़ गयी है। इसी जिज्ञासा व खोजी-वृत्ति से सत्य का आंकलन और अच्छी तरह से हो सकता है। कारणभाव जानने पर श्रद्धा का निर्माण होगा ही। यही जिज्ञासा, खोजी-वृत्ति, सत्य का आंकलन करने की क्षमता; तदुपरांत श्रद्धा व भाव, ये सब मिलकर दिव्य शक्ति से साक्षात्कार करायेंगे व लोग धर्मी बनेंगे। अंध-भक्ति व खोखले विश्वास को हम श्रद्धा नहीं कह सकते। अतः विषय को ठीक से समझने व जानने के लिए जिज्ञासु बुद्धिजीवी या वैज्ञानिक दृष्टिकोण होना तो और भी अच्छा है। वास्तव में अध्यात्म बुद्धि व शब्दों से परे का ही शास्त्र है पर उसे चरणबद्ध ढंग से समझने के लिए सर्वप्रथम बुद्धि का उपयोग आवश्यक है। समझने व अध्ययन-उपरांत; साधना व निरंतर अभ्यास से ही बुद्धि से परे शब्दातीत आत्मानुभूति संभव हो सकती है।

अध्यात्म अर्थात् आत्मा के विषय में। अब अगला प्रश्न या जिज्ञासा यह कि आत्मा अर्थात् क्या? आत्मा हम उसी चेतना या चैतन्य को कह सकते हैं, जिसका हमने पहले वर्णन किया था। यह वही दिव्य शक्ति है जिसके कारण हम जीवित हैं या अस्तित्व में हैं। यही वह शक्ति है जो हमें वास्तविक धर्म का परिचय कराती है या करा सकती है। यदि हम एक शब्द में आत्मा के मूल गुण को बताएं तो वह है - सच्चिदानंद अर्थात सत्+चित्+आनंद। सत् अर्थात् सदैव रहने वाली (सनातन) तथा शुद्ध, चित् अर्थात् चैतन्यमय, आनंद अर्थात् आनंदमय। यह निर्गुण व निराकार है, अर्थात् इसका कोई आकार या स्वरूप नहीं है जिसे हम आँखों से देख सकें। आँखों से न दिखायी देने वाली पर फिर भी अतिमहत्त्वपूर्ण; विज्ञान की भाषा में बोलें तो यह हमारे भौतिक (स्थूल) शरीर का सॉफ्टवेयर है। हमारा भौतिक स्थूल शरीर यानी हार्डवेयर व आत्मा यानी सॉफ्टवेयर। यह हार्डवेयर व सॉफ्टवेयर एक-दूसरे के पूरक हैं। पर अधिक महत्त्वपूर्ण सॉफ्टवेयर ही है क्योंकि यदि यह निकल गया तो ऊपर से ठीक-ठाक दिखने वाला शरीर वस्तुतः मृत ही हो जाता है कंप्यूटर की तरह ही। यह तो मात्र सरलता से समझने के लिए उदाहरण था। वास्तव में आत्मा का महत्त्व कहीं अधिक है और पूरी तरह से आत्मा को जानने व इसे शुद्ध रूप में प्रकट करने का (यानी इसके ऊपर जमी धूल-गर्त साफ़ करने का) कार्य ही हम अध्यात्मशास्त्र के द्वारा करते हैं। अध्यात्म की भाषा में आत्मा-विषयी अध्ययन को सूक्ष्म का अध्ययन भी कहते हैं व विज्ञान को स्थूल का अध्ययन। अर्थात् शारीरिक व्याधियों या समस्याओं का समाधान हम अधिकांशतः विज्ञानशास्त्र द्वारा करते हैं व आध्यात्मिक (सूक्ष्म की) समस्याओं का समाधान हम अध्यात्मशास्त्र द्वारा करते हैं। अब हम अध्यात्मशास्त्र के विषय को ही आगे बढ़ाते हैं ....

(धर्म और अध्यात्म) पृष्ठ-९

प्रत्येक मानव का प्राथमिक लक्ष्य और अंतिम लक्ष्य क्या है? केवल और केवल सुख-प्राप्ति। व्यक्ति अपने जीवनकाल में जो कुछ भी करता है, वह सुख पाने के लिए ही। पढ़ाई-लिखाई करता है, व्यवसाय करता है, नौकरी करता है, बड़ा घर बनता है, अच्छा खाता-पीता है; सब इसलिए कि सुख-प्राप्ति हो सके। कुछ लोग सुख पाने के लिए गलत कार्य भी करते हैं (जिनको शायद उनका मन सही समझता है पर अंतरात्मा गलत)। अर्थात् प्रत्येक प्राणी का हर कार्य करने का मूल उद्देश्य सुख-प्राप्ति ही होता है। शायद कुछ लोग कहें कि हम अपने से अधिक दूसरों का ध्यान रखते हैं, हमेशा दूसरों के लिए ही कर्म करते हैं। तो यदि उनसे पूछा जाये, "आप ऐसा क्यों करते हैं?", तो उनका जवाब यही होगा कि मानसिक या आत्मिक सुख पाने के लिए। अर्थात् सभी कृत्यों का मूल उद्देश्य सुख पाना ही है, चाहे वह शारीरिक सुख हो अथवा मानसिक सुख। जैसे टी वी पर कोई फिल्म या कार्यक्रम हम मानसिक प्रसन्नता पाने के लिए देखते हैं। ... पर यदि गंभीरता से विचार किया जाये तो इतने प्रयास करने के बाद भी क्या स्थाई सुख-शांति हमें मिल पाती है? या क्या वास्तविक सुख-शांति हमें मिल पाती है? बहुत से लोगों का अब यह प्रश्न होगा कि स्थाई सुख-शांति और वास्तविक सुख-शांति, यह सब क्या होता है? अरे हमें सुख तो मिलता ही है बराबर, थोड़ी-थोड़ी देर का सही, पर मिलता तो रहता है।

पर आप सोचिये कि जब आप सोते हैं, छह-आठ घंटे की नींद लेते हैं, तो निद्रावस्था में संभवतः आप तुलनात्मक रूप से अधिक सुख व चैन का अनुभव करते हैं। जब उठते (जागते) हैं तो एक नयी स्फूर्ति व ताजगी का अनुभव करते हैं। अब आप कहेंगे, "क्या अधिक सुख पाने के लिए हमें अधिक सोना पड़ेगा? सोते ही रहेंगे तो स्थूल शरीर की भौतिक आवश्यकताएं हम कैसे पूरी करेंगे? नौकरी-व्यवसाय आदि करना है या नहीं?" .... यह उदाहरण तो केवल समझने हेतु ही था वस्तुतः। यदि हम थोड़ा वैज्ञानिक दृष्टिकोण लगायें समझने के लिए, तो हमें पता चलेगा कि सोते समय हम अपेक्षाकृत अधिक सुख महसूस कर पाए, वह इसलिए क्योंकि निद्रावस्था के दौरान हमारे मन में आने वाले विचारों का प्रवाह थम सा गया था। विचारों का यह अभाव ही हमारे अधिक सुख का कारण था। विचारों का प्रवाह छह-आठ घंटे थमा रहा, तो हम पुनः स्फूर्त या चार्ज हो गए, तरोताजा हो गए। यदि छह-आठ घंटे सोने के बजाय इतनी ही अवधि हम केवल लेटे ही रहें तो क्या हम इतने तरोताजा हो सकते हैं? कभी नहीं। अर्थात् पहली बात यह सिद्ध हुई कि मन में आने वाले विचारों में कमी लाकर हम अधिक स्फूर्ति व चेतना का अनुभव कर सकते हैं। क्या ऐसा जागृत अवस्था में भी संभव हो सकता है? बिल्कुल हो सकता है जब हम आत्मा के स्वरूप को पूरी तरह से जानें, समझें। आगे इसका अध्ययन हम चरणबद्ध ढंग से इस प्रकार से करेंगे - (१) परमात्मा, (२) आत्मा, (३) सूक्ष्म देह या लिंगदेह, (४) इन्द्रिय, आदि के विषय में। क्रम में कुछ बदलाव हो सकता है।

(धर्म और अध्यात्म) पृष्ठ-१०

वैसे तो धर्म पूरी तरह से अनुभूति का विषय है, शब्दों से परे है। फिर भी हम 'सचेतक ब्लॉग' के इस लेख में व अन्य लेखों में भी 'धर्म और अध्यात्म' को शब्दों के माध्यम से समझने का यथासम्भव प्रयास करेंगे। यह ऐसा ही होगा जैसे हम किसी एक ही वस्तु की विभिन्न कोणों से कई तस्वीरें लेकर उसे समझने-समझाने का प्रयास करते हैं। कोण भिन्न-भिन्न होने से किसी को वे तस्वीरें भिन्न-भिन्न वस्तुओं की भी प्रतीत हो सकती हैं, पर वस्तुतः वे एक ही वस्तु की होंगी।

परमात्मा यानी विश्व बल्कि ब्रह्माण्ड की सर्वोच्च शक्ति, जिसे हम पंथानुसार अलग-अलग नामों से जानते हैं। मूल रूप से यह दिव्य शक्ति निर्गुण निराकार ही है, पर समय-समय पर विश्व के विभिन्न स्थानों पर दुष्टों के नाश व मानव जाति के हितार्थ यह साकार रूप में अनेक बार, अनेक जगह, भिन्न-भिन्न नामों से पृथ्वी पर अवतरित हुई। उनके उपकारों से अभिभूत तत्कालीन लोग या समुदाय तदनुसार उनकी साकार पूजा-उपासना करने लगे और समय बीतते-बीतते लोगों की यह आस्था आगे की पीढ़ियों में भी जारी रही। शायद यही एकमात्र कारण है कि आज उस एक परमात्मा की इतने साकार रूपों में उपासना होती है। हर समुदाय व पंथ अपने-अपने इष्ट को ही अधिक महत्त्व देता है। पर यदि तटस्थ भाव से, साक्षीभाव से, और वैज्ञानिक दृष्टिकोण से सोचें तो इतने सारे इष्ट देवता, सब एक ही हैं, उनमें कोई अंतर नहीं, सिवाय उनके नाम व स्थूल गुणों के।

वास्तव में परमात्मा, परमेश्वर, ईश्वर या प्रभु; शब्दों में हम उसे जो भी कहें, पुकारने के लिए या समझने के लिए, वह एक ही है। हम उसे प्रकृति भी कह सकते हैं। वही इस सृष्टि का रचयिता है। उसकी कृतियों में से एक हम भी हैं। मानव द्वारा बनायी गयी हर वस्तु भी इसी सृष्टि या प्रकृति के पदार्थों से बन पायी है। अबतक प्राप्त ज्ञान के आधार पर हम कह सकते हैं कि संभवतः मानव उसकी सर्वश्रेष्ठ कृति है। संभवतः मानव को ही इतना अधिक सोचने-समझने की शक्ति, मन व बुद्धि आदि मिले हैं। यदि हम गंभीरता से स्वयं के बारे में सोचें कि ईश्वर ने हमें विभिन्न ज्ञानेन्द्रियाँ, कर्मेन्द्रियाँ, मन व बुद्धि क्यों प्रदान किये हैं? तो अन्दर से यही उत्तर मिलेगा कि निश्चित तौर पर केवल अच्छा सोचने, समझने, देखने, सुनने व करने के लिए। क्योंकि अच्छे या सही कार्य अथवा आचरण ही हमें वास्तविक सुख का अनुभव कराते हैं। अध्यात्म में इसी सर्वोच्च सुख को अर्थात् अंतरात्मा को होने वाली अनुकूल संवेदना को हम आनंद कहते हैं। दुःख अर्थात् मन, बुद्धि व शरीर यानी हार्डवेयर को होने वाली प्रतिकूल संवेदना तथा सुख अर्थात् इस हार्डवेयर को ही होने वाली अनुकूल संवेदना। ये स्थायी नहीं होते। पर अंतरात्मा को होने वाली अनुकूल संवेदना को ही हम वास्तविक आनंद कहते हैं, जैसे निद्रावस्था का सुख। अंतरात्मा (आत्मा) का मूल गुण ही सच्चिदानंद है तो फिर प्रतिकूल संवेदना अर्थात् दुःख का अनुभव हमें क्यों होता है? यह समझते हुए भी कि प्रकृति या परमात्मा को हमसे केवल अच्छे कार्य ही अपेक्षित हैं, हम बुरे कार्य भी क्यों करते हैं? इन प्रश्नों का समाधान अब हम खोजते हैं ....

(धर्म और अध्यात्म) पृष्ठ-११

वास्तव में हमारी आत्मा, परमात्मा का ही एक छोटा सा अंश है। जैसे सागर की एक बूँद। समझने के लिए यहाँ हम शाब्दिक कल्पना का सहारा लेंगे। पृथ्वी या भूलोक पर सृष्टि की रचना हेतु परमात्मा ने अपने विभिन्न चैतन्यमय अंशों को अर्थात् आत्माओं को उसने विभिन्न जीवों को जन्म देकर उनके सॉफ्टवेयर के रूप में उनके स्थूल शरीरों में स्थापित किया। परमात्मा का अभिप्राय यही रहा होगा कि प्रत्येक आत्मा जीव रूप में इस भूलोक पर, जो उसने निर्मित किया, जाकर रहे व आनंदपूर्वक रह कर कुछ सीखे और भूलोक को जीवंत रखे। यानी परमेश्वर ने अपने ही अंशों को, जो निराकार व अदृश्य ही हैं, शरीर रूपी साकार व इन्द्रियों सहित एक साधन प्रदान किया, जिससे वह सूक्ष्म अंश (या आत्मा), स्थूल या भौतिक कार्य करने में समर्थ हो सके। साथ ही साथ वह इस भौतिक जगत् के बारे में जानकारी भी प्राप्त कर सके। वास्तव में इस आत्मा का मूल गुणधर्म भी वही है जो परमात्मा का है अर्थात् सच्चिदानंद (सत्+चित्+आनंद)। पर चूँकि इसे इस भौतिक भूलोक पर भेजा गया, तो एक भौतिक देह भी प्रदान की गयी जिसमें ज्ञानेन्द्रियों और कर्मेन्द्रियों के अतिरिक्त मन व बुद्धि भी हैं। पर इस भौतिक शरीर में जीवन होने, या इसके चमत्कारी रूप से सामर्थ्यवान होने के पीछे कारण वह आत्मा ही है, वह सॉफ्टवेयर ही है, जो अब तक विज्ञान के लिए भी पहेली ही है।

वस्तुतः इस पहेली को हम समझते नहीं, आत्मा या परमात्मा के बारे में अधिक कुछ भी नहीं जानते या जानना भी नहीं चाहते और अपने इस भौतिक शरीर के सामर्थ्य के नशे (अहं) में डूबे रहते हैं। जबकि हमको भी भीतर से यह पता होता है कि यह शरीर भी अन्य भौतिक वस्तुओं की तरह ही है और एक दिन समाप्त होना ही है। फिर भी हम राग-द्वेष और अहं के मद् में इतना डूबे रहते हैं कि अपने-आप को यानी इस शरीर को अमर ही समझते हैं या बल्कि यही समझते हैं कि यह भौतिक शरीर यानी मैं। परन्तु वास्तव में मैं तो वह सूक्ष्म शक्ति या आत्मा है जो परमात्मा का ही एक अंश है। यह सब न समझते हुए दिन प्रतिदिन हम स्वार्थी और लोभी होते जा रहे हैं उन सुखों की प्राप्ति के लिए, जो वास्तव में भौतिक व अस्थायी हैं और प्रतिफल में उसी मात्रा में दुःख भी देते हैं, जिनको शायद हम भांप नहीं पाते या ऐसा करना ही नहीं चाहते। क्योंकि हमारा सम्पूर्ण ध्यान या एकाग्रता भौतिक रूप से उन्नति करने में है। भौतिक उन्नति करने में कोई बुराई नहीं, पर पागलों समान उसी के पीछे भागना हमें आनंद की या सर्वोच्च श्रेणी के आत्मिक सुख की प्राप्ति नहीं करा सकता। यदि बहुत अधिक भौतिक सुख हमें वास्तविक आनंद देने में समर्थ होता, तो बड़े-बड़े नेता, व्यावसायिक या नौकरशाह रात में चैन से सोने लिए नींद की गोलियां नहीं लेते या उच्च रक्तचाप, मधुमेह या विभिन्न मानसिक रोगों से पीड़ित नहीं होते, उनकी आकस्मिक मृत्यु न हुआ करती, आदि-आदि। यानी जो जितना भौतिक सुखों के पीछे पागल, उतना ही त्रस्त भी बैचेनी से।

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... पर फिर भी कुछ ऐसे लोग होते हैं जो भौतिक रूप से समृद्ध भी हैं और शांत व सुखी भी। इस प्रकार के लोग बहुधा धर्म मार्ग पर चलते हैं, तभी वे सदैव सहज रह पाते हैं। ऐसे सहज व आनंदित व्यक्ति आपको मध्यम व निम्न वर्ग में भी मिलेंगे। अर्थात् सहजता व आनंदित रहने के लिए धनी होना या कम धनी होना या निर्धन होना, यह सब कुछ भी महत्त्व नहीं रखता। अर्थात् दुःखी लोग भी सभी वर्गों में होते हैं व सुखी लोग भी। अर्थात् अधिक भौतिक समृद्धि इस बात का ठोस आश्वासन नहीं देती कि आप वास्तव में सुखी व आनंदित रहेंगे ही। और साथ ही इनका (धन आदि का) अभाव भी सदैव दुःखों का कारण नहीं होता। अधिकांश व्यक्ति जीवन भर अपने सामर्थ्य, राग-द्वेष तथा दूसरे और भी अहमों के नशे में चूर तो रहते हैं पर वास्तविकता से उनका सामना तब होता है जब वे मृत्युशैया पर होते हैं। यह वह समय होता है जब उनकी आत्मा का साथ भौतिक संसार से, धन से, वैभव से छूट रहा होता है। उस अल्पकाल में उनको यह अहसास होता है कि 'अरे! जीवन भर, इतने वर्ष हम क्या करते रहे; जिनके पीछे पागलों समान दौड़ते रहे वे सब यहीं छूटे जा रहे हैं। वर्षों जिस धन व समृद्धि के लिए मैंने दिन-रात एक कर दिया, वह सब तो यहीं छूटा जा रहा है। इस समय कुछ भी मेरे काम नहीं आ पा रहा है। आह ... यह मैं क्या करता रहा? ... पर तब तक बहुत देर हो चुकी होती है और व्यक्ति को कुछ की आशीषों व कुछ की अनिष्ट-कामनाओं के बीच यह नश्वर शरीर छोड़ना ही पड़ता है।

तो क्या अब भी आपको यह महसूस नहीं होता कि हम परमात्मा और आत्मा के स्वरूप को और नज़दीक से जानें। सही व न्यायपूर्ण कार्यों के सम्बन्ध में जानें, जो ईश्वर या प्रकृति हमसे चाहती है, जिसे हम धर्म कहते हैं, धार्मिकता कहते हैं।

हमने कई प्राचीन ग्रंथों में पढ़ा ही है कि पहले मनुष्य की आयु बहुत अधिक होती थी। कुछ ऋषि-मुनियों के सैकड़ों-हजारों वर्ष तप करने व जीवित रहने के भी कुछ दृष्टांत मिलते हैं; पर समय व काल बीतते-बीतते मानव की आयु शनैः-शनैः कम होती गयी और आज वर्तमान कलयुग में तो बहुत कम हो चुकी है। साथ ही हमें यह भी पढ़ने को मिलता है कि पहले के मानव (भारत के) बौद्धिकता व आचरण की दृष्टि से अत्यंत उच्चकोटि के थे, दुष्ट लोग भी थे पर अच्छाई सदैव बुराई पर हावी रही। पर काल बीतते-बीतते अच्छाइयों में, सादगी व सरलता में कमी आती गयी तथा दुष्टता, लोभ, स्वार्थ, द्वेष आदि अवगुण बढ़ते चले गए, जिसके कारण अराजकता बढ़ती चली गयी और आज अब तक के सर्वोच्च शिखर पर है। ये उपरोक्त बातें बुद्धिजीवी व वैज्ञानिक दृष्टिकोण रखने वाले मानते ही हैं। अर्थात् हमने यह पाया कि आदिकाल से वर्तमान काल तक एक चीज़ बढ़ी और एक चीज़ घटी। यानी अराजकता बढ़ती गयी और आयु घटती गयी। इसका तात्पर्य यही है कि दोनों में कुछ पारस्परिक सम्बन्ध है। यदि हम शुद्ध मन व गंभीरता से विचार करते हैं तो यह बात उभर कर सामने आती है -

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सृष्टि की रचना करने वाले परमेश्वर ने मानव को भी बनाया और उसको चलायमान करने के लिए उसके सॉफ्टवेयर के रूप में अपने ही अंशों यानी आत्माओं को उनमें स्थापित किया। जब हम यह कहते हैं कि आत्मा परमात्मा का ही अंश है तो यह भी कह सकते हैं कि इस आत्मा के मूल गुणधर्म परमात्मा के समान ही हैं - सच्चिदानंद। तो हम यह भी कह सकते हैं कि ईश्वर ने मानव को मूल रूप से अपने गुणों के अनुरूप ही बनाया था प्रारंभ में। अर्थात् उत्पत्ति के समय संभवतः ईश्वर ने अपने ही साकार रूप मानव को अमरत्व प्रदान कर चिरकाल के लिए इस भूलोक पर भेजा था। इस साकार रूप को ज्ञानेन्द्रियाँ, कर्मेन्द्रियाँ, मन एवं बुद्धि भी प्रदान की थी। और फिर इन सब की मदद से कार्य करने के लिए स्वतंत्र छोड़ दिया था अर्थात् कार्यों में कोई हस्तक्षेप नहीं। मानव स्वतंत्र था, और है भी, सभी प्रकार के कार्य करने के लिए। पर उस समय एक ही प्रकार के कार्य होते थे या होते होंगे, केवल अच्छी प्रकृति के ही। परमात्मा का यद्यपि कोई भी हस्तक्षेप नहीं था, तदपि वह मानव से केवल अच्छे कार्यों की ही अपेक्षा करता था क्योंकि मानव उसी का साकार रूप जो था।

एक बात और, कि परमेश्वर ने या प्रकृति ने इस ब्रह्माण्ड में हर चीज, हर क्रिया पूरी तरह से नियमबद्ध कर रखी थी / है। यह बात विज्ञान भी पूरी तरह से मानता है। इसी नियमबद्धता को जानने का प्रयास हम निरंतर करते रहते हैं। जो हम प्रामाणिक रूप से जान जाते हैं, वह विज्ञान की परिधि में आ जाता है। प्रकृति के इन नियमों के अंतर्गत ही हमारी हर क्रिया के फलस्वरूप हमें प्रतिक्रिया प्राप्त होने का नैसर्गिक प्रावधान है। इस भूलोक पर रहते-रहते मानव ने अपनी इन्द्रियों, मन व बुद्धि की मदद से जब प्राकृतिक नियमों के अनुकूल भौतिक रूप से उन्नति करनी आरम्भ की, तो ईश्वर को खुशी ही हुई क्योंकि भौतिक उन्नति होने से अनेक सुख व साधन उपलब्ध हो रहे थे। ये साधन मानव जीवन के लिए अतिउपयोगी थे। इन साधनों से व नित्य नवीन खोजों से मानव को भूलोक पर अधिक सुख-सुविधाएं प्राप्त हो रहीं थीं। प्रारंभिक काल (जिसे हम सतयुग भी कह सकते हैं) में मानव यथासंभव प्राकृतिक नियमों के अनुकूल कार्य करता था। पर कालांतर में उसके मन पर आगंतुक संस्कारों का बनना आरम्भ हो गया और इन प्राकृतिक गुणों के विपरीत संस्कारों से बहुत सी इच्छाएं उठनी शुरू हो गयीं व धीरे-धीरे मानव में अहंकार ने जन्म लिया। इन संस्कारों व अहंवश मानव भ्रम में फंस गया व आत्मा के मूल गुणधर्म के विपरीत आचरण करने लग गया। प्रकृति-नियम विरुद्ध जाने की प्रतिक्रिया स्वरुप परमेश्वरी नियमों ने मानव जीवनकाल को सीमित कर दिया अर्थात् एक आयु के पश्चात् मानवों की मृत्यु होने लगी।

पर चूँकि परमेश्वर बहुत दयालु व न्यायप्रिय है अतः कुछ योग्य (या अयोग्य भी) आत्माओं को पुनर्जन्म के रूप में यह मानव योनि दोबारा या कई बार पुनः प्राप्त होती है, जिससे वे पुनः अपने कर्मों एवं प्रारब्ध की सहायता से उन्नति कर सकें (नोट - प्रारब्ध या भाग्य का निर्माण संस्कारजनित कार्यों पर निर्भर करता है, यह प्रकृति के नियमों के अंतर्गत ही होता है। इनमें से एक नियम है - क्रिया के फलस्वरूप प्रतिक्रिया)। पहले के मानव धार्मिक अर्थात् ईश्वरीय गुणों के अनुरूप कर्म करने वाले थे तो दीर्घायु थी, पर कालांतर में गलतियाँ बढ़ने के साथ-साथ मनुष्य की आयु भी कम होती जा रही है। मन पर अंकित अप्राकृतिक व आगंतुक संस्कारों द्वारा नियंत्रित व घटित कार्य ही इसका व अन्य दुःखों का मूल कारण हैं। अधर्म (प्रकृति-विरुद्ध कार्यों) को कम करने, लोगों को अपने आचरण व उपदेशों द्वारा शिक्षित करने व दुष्टों का नाश करने हेतु परमात्मा (pure soul या शुद्ध आत्मा) ने विभिन्न साकार रूपों में समयानुसार, स्थानानुसार, व समुदायानुसार अनेक बार इस भूलोक पर अवतरण किया, जिन्हें ईश्वर के भिन्न-भिन्न रूपों या नामों से हम आज भी जानते हैं। अधर्म को कम करने के लिए ही समयानुसार, स्थानानुसार, व समुदायानुसार ईश्वरीय प्रेरणा से अनेक धार्मिक ग्रन्थ भी रचित हुए, जो वास्तव में नीति-विषयक ग्रन्थ ही थे और वे सभी तत्कालीन परिस्थितियों के अनुसार लिखे गए। अतः वे सभी ग्रन्थ व ईश्वरीय रूप हमारे लिए समान रूप से पूजनीय हैं; वे सभी समान रूप से श्रेष्ठ भी हैं।

पर पुनः हमें यह ध्यान रखना चाहिए कि धर्म का स्वरूप तो आरम्भ से एक ही है और वह शुद्ध रूप से चेतना या चैतन्य पर आधारित है व अपरिवर्तनीय है। यह केवल विशेष परिस्थिति में अर्थात् आपद्काल में ही परिवर्तनीय होता है पर अस्थाई रूप से ही, केवल कुछ समय के लिए ही (धर्म रक्षा हेतु, प्राकृतिक संतुलन को पुनर्स्थापित करने हेतु)। अतः यदि हम विभिन्न धर्म-ग्रंथों को देखें, तो वे सभी अलग-अलग तरह के आपद्कालों में मानव के मार्गदर्शन के लिए लिखे गए। अतः वे सभी ग्रन्थ, धर्म और नीति के सम्मिश्रण से बने हैं तथा सर्वकाल हमें कतिपय परिस्थितियों में प्रेरणा तो दे सकते हैं, पर चिरकाल हर परिस्थिति में मार्गदर्शन करने में असमर्थ ही हैं। धार्मिकता को नीति की आवश्यकता नहीं और विभिन्न नीतियाँ अधर्म के प्रकारानुसार ही बनायी जाती हैं। अधर्म अनेकों प्रकार का हो सकता है। यही कारण है कि प्राचीन ग्रंथों में कई विरोधाभास मिलते हैं। धर्म के विषय में वे लगभग एक ही बात कहते हैं, पर नीतियों या नियमों के विषय में अलग-अलग।

(धर्म और अध्यात्म) पृष्ठ-१४

हम फिर से अपने मूल विषय पर आ जाते हैं। .... परमेश्वर ने मानव को प्रथम जन्म में प्रारब्ध-रहित ही भूलोक में भेजा और हमें अपने मन, बुद्धि व इन्द्रियों की मदद से कर्म करने की पूरी स्वतन्त्रता दी (यह स्वतन्त्रता आज भी है)। कालांतर में हमारे अप्राकृतिक कार्यों के कारण धनात्मक व ऋणात्मक संचित का निर्माण हुआ। तो फिर आगामी जन्मों में, हमारे कर्मों द्वारा जनित संचित के अनुसार हमारे अच्छे व बुरे भाग्य (प्रारब्ध) का निर्माण हुआ। यानी अपने भाग्य के निर्माण के लिए हम स्वयं ही उत्तरदायी हैं। इसे अधिक समझने के लिए हमें यह भी जानना उचित होगा कि पूर्व जन्मों के संचित के कारण प्रत्येक अभीष्ट फल के लिए हमारा वर्तमान प्रारब्ध पूर्वनिर्धारित है। सभी प्रकार के अभीष्ट फलों के लिए प्रारब्ध का प्रतिशत अलग-अलग होता है, जिसे कोई भी किसी माध्यम से नहीं जान सकता। और प्रत्येक अभीष्ट फल की प्राप्ति हेतु कुछ कर्म करना भी आवश्यक होता है। तो प्रारब्ध की मात्रा का हमें पता नहीं, कर्म करना हमारे वश में है, तो अभीष्ट फल प्राप्ति के लिए हमें हमारे कर्मों पर ही निर्भर रहना पड़ता है। कभी-कभी थोड़ा सा प्रयास या कर्म करने पर ही अभीष्ट फल की प्राप्ति हो जाती है, तो कभी-कभी लाख प्रयास करने पर भी हम अभीष्ट फल नहीं प्राप्त कर पाते। यह सब ईश्वरेच्छा नहीं, हमारे अपने ही पूर्व कर्मों द्वारा बने भाग्य का खेल है; हाँ, इसके नियम अवश्य ही ईश्वर या प्रकृति द्वारा लागू किये गए हैं।

किसी भी अभीष्ट फल की प्राप्ति के लिए कर्म और प्रारब्ध में गुणात्मक सम्बन्ध होता है; पर कर्मों के अनुसार संचित का भी प्रावधान है, जो बाद में प्रारब्ध के साथ ही सम्मिलित हो जाता है। अर्थात् गणित की भाषा में उपरोक्त कथन को हम यूं लिख सकते हैं - [कर्मxप्रारब्ध = फल] या 'कर्म गुणा प्रारब्ध बराबर फल'।

उपरोक्त सूत्र के अनुसार हम एक उदाहरण देखते हैं - मान लीजिये 'अ' और 'ब' दो युवक हैं, दोनों एक ही साथ पढ़ाई कर रहे हैं और लगभग समान अंकों से उत्तीर्ण भी हो रहे हैं हैं। उनका मानसिक व बौद्धिक स्तर भी उनके अध्यापक लगभग एक जैसा बताते हैं। वे दोनों ही डॉक्टर बनना चाहते हैं। वे दोनों मेडिकल प्रवेश परीक्षा में बैठते हैं। 'अ' का चयन पहले प्रयास में ही हो जाता है, पर 'ब' का चयन लगातार पांच प्रयासों के बाद होता है और मान लीजिये उनके समतुल्य कोई 'स' भी है, अथक प्रयासों के बाद भी जिसका चयन नहीं हो पाता; और बाद में आयु-सीमा निकल जाने के बाद वह स्वयं का एक व्यवसाय खोलता है और उसकी दाल-रोटी उसी से चलने लगती है। तीन लगभग एक से मेधावी छात्रों के साथ यह अलग-अलग न्याय क्यों हुआ? 'अ' का प्रारब्ध डॉक्टर बनने के १००% था, अतः उसे एक ही प्रयास या कर्म करना पड़ा अर्थात् [१x१०० = १००] सूत्र [कर्मxप्रारब्ध = फल] के अनुसार; 'ब' का प्रारब्ध २०% था, अतः उसे पॉँच गुना प्रयास या कर्म करना पड़ा अर्थात् [५x२० = १००]; 'स' का प्रारब्ध इस जन्म में डॉक्टर बनने के लिए संभवतः शून्य था, अतः अथक परिश्रम व अनेक प्रयास (माना १० प्रयास) करने बाद भी वह डॉक्टर नहीं बन पाया अर्थात् [१०x० = ०].

पर पहले से प्रारब्ध किसी को पता नहीं चल सकता। केवल अभीष्ट कार्य के हो सकने की निश्चित समय सीमा निकल जाने के बाद ही यह पता चल पाता है कि वस्तुतः यह तो मेरे भाग्य में था ही नहीं। डॉक्टरी की प्रवेश परीक्षा हेतु अधिकतम आयु सीमा निकल जाने के बाद ही 'स' को ज्ञात हो पाया कि डॉक्टर बनना उसके भाग्य में नहीं इस जन्म में।

'ब' को भी पहले से प्रारब्ध का कोई भान नहीं था। यदि तीन-चार प्रयासों के बाद वह हिम्मत हार जाता, तो वह भी डॉक्टर न बन पाता, क्योंकि प्रारब्धानुसार उसे पांच प्रयास करने ही थे।

अतः हमने यह पाया कि किसी भी अभीष्ट फल की प्राप्ति के लिए हम कर्म और प्रारब्ध, दोनों पर समान रूप से आश्रित हैं। पर चूँकि प्रारब्ध हमें ज्ञात नहीं हो सकता और कर्म करना हमारे हाथ में है, तो फिर हमें कर्म को ही अधिक महत्त्व देना अनिवार्य हो जाता है। हमारे समस्त कर्म हमारे दिव्य स्वरूप के मूल गुणों के अनुरूप कैसे संभव हों, यह हम बाद में देखेंगे।

(धर्म और अध्यात्म) पृष्ठ-१५

... इससे पहले हमने चर्चा की थी मन, बुद्धि, अहं व संस्कारों की। अब हम इनके बारे में और गहराई से जानने का प्रयत्न करते हैं - ... ईश्वर ने हमें ज्ञानेन्द्रियों, कर्मेन्द्रियों, मन एवं बुद्धि के साथ यह जो भौतिक शरीर प्रदान किया है, समझने के लिए उसे दो भागों में विभक्त करके देखते हैं - (१) स्थूल देह, (२) लिंग देह (आन्तरिक देह) या जीव; ... स्थूल देह में वे सारी चीजें आ जाती हैं जिन्हें हम परोक्ष रूप से देख सकते हैं, छू सकते हैं, व अनुभव कर सकते हैं; जैसे हमारा स्थूल शरीर, इसकी पॉँच कर्मेन्द्रियाँ - हाथ, पांव, वाणी या मुख, जननेंद्रिय एवं गुदा। पांच ज्ञानेन्द्रियाँ - कान, नाक, आँख, जीभ एवं त्वचा। तथा इस शरीर के भीतर स्थित सभी अंग-प्रत्यंग आदि भी स्थूल देह के अंतर्गत ही आते हैं। स्थूल देह से सम्बंधित लगभग सभी बातों से हम भली-भांति परिचित हो चुके हैं, अर्थात् यह विज्ञान की परिधि में आ चुका है व वैज्ञानिक उपायों से इनकी देख-रेख हम भली-भांति कर सकते हैं।

अब हम चर्चा करते हैं लिंग देह की, जो सूक्ष्म है, आँखों से नहीं दिखाई पड़ती और विभिन्न अनुसंधानों व खोजों से इसे थोड़ा-बहुत जान पाए हैं। सूक्ष्म देहों में केवल मन एवं बुद्धि ही ऐसे हैं, जिन्हें विज्ञान आंशिक रूप से समझ पाया है, क्योंकि कुछ हद तक ये स्थूल मस्तिष्क (brain) से सम्बन्ध रखते हैं। अतः हम देखते हैं कि अनेक मानसिक कष्टों / बीमारियों का इलाज हम वैज्ञानिक रीतियों से कर सकते हैं। पर लिंग देह के कई और भी भाग हैं, जिन्हें हम केवल अध्यात्म अर्थात् सूक्ष्म के ज्ञान से ही समझने का प्रयास कर सकते हैं। शब्दों में व्यक्त करें तो - .. वर्तमान में लिंग देह के दो घटक हैं - (१) आत्मा, (२) अविद्या (सृष्टि के आरम्भ में एक ही घटक था - वह था आत्मा)।

'आत्मा' लिंगदेह या आतंरिक देह का प्रमुख घटक है। आत्मा का मूल गुणधर्म है - सच्चिदानंद (सत्+चित्+आनंद)। सत् अर्थात् सदैव रहने वाला, चित् अर्थात् चैतन्यमय तथा आनंद अर्थात् सुखमय। यह परमात्मा का ही एक अंश है। वर्तमान में इस आत्मा के चारों ओर जो एक आवरण है, उसे अविद्या कहते हैं। पुनः अविद्या के चार प्रमुख घटक हैं - (१) मन (वाह्य मन), (२) चित्त (अंतर्मन), (३) बुद्धि, (४) अहं। अहं अर्थात् जीव को परमेश्वर से भिन्न समझना। मन का कार्य संकल्प या विकल्प तलाशना है व बुद्धि उनमें से एक को चुनती है। बुद्धि को हम विवेक भी कहते हैं। बुद्धि अंतर्मन में विद्यमान बड़े संस्कारों या वृत्ति पर निर्भर है। अध्यात्म में मन एवं बुद्धि को भी वाह्य माना जाता है, बस आत्मा को ही आन्तरिक माना जाता है। पर चूँकि मन एवं बुद्धि आत्मा के चारों ओर अविद्या का आवरण निर्माण करने के लिए उत्तरदायी हैं, अतः इनका भी अध्ययन हम अध्यात्म के अंतर्गत करते हैं, जिससे इनके कुप्रभावों को हम आध्यात्मिक उपायों द्वारा कम या दूर कर सकें। इनका प्रभाव दूर करने पर ही वस्तुतः हमारी सूक्ष्म देह (या आत्मा) अपने शुद्ध मूल दिव्य रूप में प्रकट होगी; तब हम वास्तव में धर्म मार्ग पर चल सकेंगे, क्योंकि आत्मा के तीन मूल गुणधर्म में एक 'चैतन्य' है। यह चैतन्य ही हमारे स्थूल देह के माध्यम से धर्म का पालन कराने में समर्थ है। केवल यह चैतन्य ही स्वतः धर्म या धार्मिकता को प्रकट करता है। आगे हम लिंगदेह-अंतर्गत अविद्या के उपरोक्त उल्लिखित घटकों, विशेषतः मन के विषय में और जानकारी लेते हैं ....।

(धर्म और अध्यात्म) पृष्ठ-१६

शाब्दिक कल्पना के अनुसार, हम जिसे मन कहते हैं, वह दो भागों में बँटा है - (१) वाह्य मन, (२) अंतर्मन या चित्त। वाह्य मन का आकार छोटा व अंतर्मन (चित्त) का आकार अपेक्षाकृत काफी बड़ा होता है। वर्तमान काल में सामान्य व्यक्ति की आत्मा के चारों ओर अविद्या का घना आवरण होने के कारण हमारी कर्मेन्द्रियों द्वारा किये जाने वाले अधिकांश कार्य इस अविद्या के घटक 'मन' के निर्देशानुसार ही होते हैं। आत्मा से निर्देश-स्पंदन कर्मेन्द्रियों तक जा ही नहीं पाते, क्योंकि अविद्या का घना आवरण जो है आत्मा के चारों ओर। तो फिर मन से हमारी कर्मेन्द्रियों को कार्य करने का निर्देश कैसे जाता है?, अब हम यह देखेंगे -

क्रिया का स्वरूप -

(१) बाहर से स्पंदन ज्ञानेन्द्रियों (आँख, नाक, कान, जीभ, त्वचा) के माध्यम से अंतर्मन में जाते हैं (वाह्य मन से होते हुए)। इन्हें सूचना स्पंदन कह सकते हैं।
(२) स्पंदन भीतर पहुँचने पर तदनुसार अंतर्मन में संस्कार (impression) बनता है (संस्कार पहले से भी हो सकता है)।
(३) अंतर्मन में बने संस्कार से पुनः स्पंदन (विचार) वाह्य मन में जाते हैं। इन्हें क्रिया-विचार स्पंदन कह सकते हैं।
(४) क्रिया-विचारों के वाह्य मन में पहुँचने के बाद, तदनुसार यहाँ से कर्मेन्द्रियों को कार्य हेतु निर्णायक निर्देश जाता है। और फिर उन्हीं निर्देशों के अनुसार कार्य होता है।

हमारे अंतर्मन में अनेक छोटे-बड़े संस्कार हैं, लगातार कुछ नए भी बनते रहते हैं। महत्त्वपूर्ण बात यह है कि किसी भी कार्य के लिए जिम्मेदार संस्कार, उस कार्य के समाप्त होने के बाद नष्ट नहीं होता; तथा बाद में जब-जब उस संस्कार-अनुरूप स्पंदनों का आदान-प्रदान पुनः होता है, तो वह संस्कार और भी अधिक बड़ा हो जाता है।

अब हम यह सोचेंगे कि यदि हम अपनी ज्ञानेन्द्रियों से काम लेना बंद कर दें यानी आँख, कान, नाक आदि बंद कर लें, तो क्या किसी कार्य के लिए विचार नहीं आयेंगे? ... विचार तो अब भी आयेंगे, क्योंकि अब वे अंतर्मन में विद्यमान संस्कारों (impressions) से आ रहे हैं। अविद्या का तीसरा घटक 'बुद्धि' बड़े संस्कारों व उनसे बनी वृत्ति के ऊपर निर्भर है। वे जैसे होंगे, सात्त्विक, राजसिक या तामसिक, हमारी बुद्धि भी कमोवेश वैसी ही होगी। उपरोक्त घटकों के कारण अविद्या का चौथा घटक अहं बना, अर्थात् स्वयं को परमात्मा से भिन्न मानना। मन के विषय में और अधिक जानकारी हम इस ब्लॉग के ही एक अन्य लेख "मन" में लेंगे।

(धर्म और अध्यात्म) पृष्ठ-१७

अब प्रश्न यह उठता है कि जब तक आत्मा के चारों ओर अविद्या का घना आवरण है, हमारी चैतन्यमय आत्मा के निर्देश (जो वस्तुतः धर्म ही है) हमारी कर्मेन्द्रियों तक कैसे पहुँचेंगे? ये निर्देश केवल तब ही पहुँच सकते हैं जब अविद्या का आवरण टूटे। एकाग्रता व अन्य साधन-साधनाओं से यह बीच-बीच में थोड़ा टूटता भी है, जब हमें यह अनुभूति होती है कि काफी भीतर से कोई दिव्य सन्देश आ रहा है, जो हमें सत्य (धर्म) प्रतीत होता है। पर चूँकि हमारी वृत्ति इसके विपरीत है, अतः हम ऎसी अनुभूतियाँ बहुत कम ही ले पाते हैं। आत्मा के चारों ओर जो अविद्या का आवरण है, उसके घटकों का नाश करना ही प्रथम आवश्यक है। यदि यह कार्य चरणबद्ध व नियोजित ढंग से किया जाए, तो सभी के लिए यह संभव है। यह सब केवल गहन आत्मिक चिंतन-मनन व शुद्ध आध्यात्मिक साधना करने अर्थात् चिंतन-मनन के बाद तदनुसार प्रभावी रूप से कृत्य करने अर्थात् उसे रोजमर्रा के जीवन में कड़ाई से लागू करने से ही संभव हो सकता है। अध्यात्म केवल पढ़ने, सुनने या समझने का शास्त्र नहीं है, बल्कि यह सब करके अमल में लाने का शास्त्र है। यही यथार्थ आध्यात्मिक साधना है। इसलिए मैंने पहले भी चर्चा की थी कि अन्य नीतियाँ, जो पहले प्रभावी थीं, वर्तमान समय में लगभग निष्प्रभावी हैं। वर्तमान काल में संभवतः एक ही नीति प्रभावी हो सकती है, वह है अध्यात्म-प्रसार की नीति। ऎसी शुद्ध नीति, जो मानव को उसकी आत्मा (वास्तविक अस्तित्व) से परिचित करा सके। क्योंकि धर्म उसी में निहित है, या वह साक्षात् धर्म ही है। आत्म-साक्षात्कार से ही वस्तुतः धर्म की पुनर्स्थापना होगी। मैं मानता हूँ कि यह एक कठिन कार्य है, पर असंभव नहीं। इति।

Friday, March 20, 2009

(२) समष्टि हेतु प्रथम प्रबोधन

आज हम सभी को अपनी अतिव्यस्त दिनचर्या में से कुछ क्षण निकाल कर यह विचार करना चाहिए कि क्या हमारे देश में, प्रदेश में या हमारे अपने ही नगर में सब कुछ ठीक-ठाक चल रहा है? क्या हम अपने आज के वर्तमान जीवन से पूर्णतया संतुष्ट हैं?? गम्भीरता एवं ईमानदारी से विचार करने पर हमें यह महसूस होगा कि हाँ, वस्तुतः सब कुछ ठीक-ठाक नहीं चल रहा। ... आज प्रत्येक व्यक्ति भौतिकता के पीछे अन्धा होकर दौड़ रहा है पागलों की भाँति। आज हमने अपनी भौतिक आवश्यकताएं इतनी अधिक बढ़ा लीं हैं कि उनको पूरा करते-करते कैसे सुबह से रात हो जाती है, पता ही नहीं चलता। क्या इस हद तक मशीनी ज़िन्दगी से उच्च कोटि का सुख हमें वास्तव में प्राप्त हो रहा है? आज एक आवश्यकता या लालसा पूरी करते हैं, तो कल कोई दूसरी लालसा जाग जाती है, और परसों कोई अन्य। इच्छाओं, लालसाओं व आवश्यकताओं का अंत ही नहीं होता है। अंत तभी तो नहीं होता क्योंकि ये सब हमारे मन द्वारा ही तो उपजती हैं। भौतिक लालसाओं और सुख-सुविधाओं को जल्दी से जल्दी पा लेने की कोशिश में लोग अंधे होते जा रहे हैं। तनिक भी विचार नहीं करते कि उनको पाने का मार्ग सही है या नहीं, कहीं दूसरों के अधिकारों पर अतिक्रमण तो नहीं हो रहा है? अपने लक्ष्यों यानी सुख-सुविधाओं को पाने के लिए लोग सभी पुरानी मान्यताओं व नैतिकता को तिलांजलि देने में कतई देर नहीं करते। आज का प्रचलित सिद्धाँत यही हो गया है कि भौतिक रूप से ऊँचा उठने के सभी कुछ उचित है, जायज है। भौतिक प्रगति की राह पर चलते-चलते, मार्ग में यदि कोई अपना सगा-संबंधी, मित्र या कोई नैतिक मूल्य आड़े आता है, तो लोग उनको नजरंदाज करने में भी कतई नहीं हिचकते। निज स्वार्थ सिद्धि के लिए हममें से अधिकांश, सभी नैतिक मूल्यों को ताक पर रखने के अतिरिक्त अन्यों के प्रति द्वेष को भी बढ़ाते हैं। दूसरे की प्रगति पर हमें जलन होती है, नफरत होती है, द्वेष होता है, भले ही वह परोक्ष हो अथवा अपरोक्ष। हममें स्पर्धा की भावना भर जाती है व हम दूसरों से आगे निकलने के लिए किसी जंगली जानवर की तरह नथुने फुला कर तैयार हो जाते हैं। इस प्रकार अपनी आवश्यकताएं बढ़ने या बढ़ाने हेतु हम स्वयं ही उत्तरदायी हैं।

गंभीरता से विचार करें तो हमारी मूलभूत भौतिक आवश्यकताएं आखिर हैं क्या? शरीर का पोषण, सर ढकने के लिए छत, व थोड़ा-बहुत स्वस्थ मनोरंजन, .. बस। यानी रोटी, कपडा और मकान व थोड़ा स्वस्थ मनोरंजन। अब लोग इन तीन-चार मूलभूत आवश्यकताओं को ही अत्यधिक विस्तार दे देते हैं सर्वप्रथम। फिर इनके अतिरिक्त न जाने कितनी ही आवश्यकताएं स्वयं ही सृजित कर लेते हैं। लालसाओं का कहीं कोई अंत भी होता है? अब लालसा जाग ही गयी तो पूर्ति जरुरी है, तो पूर्ति हेतु जो भी सही-गलत मार्ग मिला वह अपना लिया, ऊपर से शर्त यह कि 'शॉर्टकट' होना चाहिए, अधिक विलंब अब बर्दाश्त नहीं। कितना एकत्रित करेंगे, कितना संग्रह करेंगे?? ध्यान से देखें तो अधिकाँश बड़े-बड़े घरों में ज्यादातर सामान मात्र शोभा या संग्रह की वस्तु बन कर रह जाता है। उनका सदुपयोग तो छोड़िये, साधारण प्रयोग भी नहीं होता होगा शायद। प्रत्येक व्यक्ति प्रथम यह विचार क्यों नहीं करता कि अमुक वस्तु या सुविधा क्या वास्तव में मेरी आवश्यकता है?? क्या उसके बिना भी काम चल सकता है? ... मेरे ऐसा कहने पर अधिकाँश लोग कहेंगे कि क्या साधु-फकीर आदि बन जायें? क्या संसार, सांसारिक वस्तुएं, विलासिता आदि त्याग दें? उत्तर होगा -- कतई नहीं। ... अपनाने में कतई हर्ज़ नहीं, भोगने में कोई हर्ज़ नहीं, पर पागलों समान उनमें आसक्ति रखना .. यह गलत है। विलासिता को जल्दी से जल्दी पा लेने के लिए सफेदपोश वहशी बन जाना गलत है। सही तरीके से, सही मार्ग अपनाया जाये, मिले तो ठीक, न मिले तो ठीक, इस प्रकार की संतुलित अवस्था रखी जाये मन की, तो सब ठीक है। अन्यों के साथ राग-द्वेष न पालें व किसी के अधिकारों का हनन न करें, लूटें नहीं, खसौटे नहीं, बेवकूफ न बनाएं किसी को, सबके प्रति सच्चा प्यार रखें, ईमानदारी रखें, तो सब जायज है, सब विलासिता ठीक है। क्या हम यह सब कर सकते हैं या करते हैं वास्तव में?? उदाहरण के लिए -- आज के या सर्व कालीन सबसे 'नोबेल प्रोफेशन' को ही ले लें यानी कि 'डॉक्टरी'। पढ़ाई समाप्त होते ही शपथ लेने वाला डॉक्टर यानी आज का भगवान् क्या शपथानुसार समर्पित है अपने पेशे के प्रति?? ... इसी प्रकार शपथ लेने वाले वकील, जज, गवाह, नेता, समाज-सेवी आदि क्या अपने कर्तव्यों के प्रति वास्तव में ईमानदार हैं?? ... अब आप यह कहेंगे कि जब शपथ लेने वाले ही ईमानदार नहीं, तो साधारण व्यक्ति से कैसी अपेक्षा?? ... अरे! आपने मान तो लिया कि आप भी कहीं न कहीं से गलत हैं, तभी तो साधारण व्यक्ति से अपेक्षा पर प्रश्नचिह्न उठाया। जरा विचार कीजिये कि भौतिकता की इस प्रकार की अंधाधुंध दौड़ में शामिल होकर हम अपनी अगली पीढ़ी को विरासत में क्या दे रहे हैं? देखा जाये तो आज की पीढ़ी कम्प्यूटर, मोबाइल फोन, बाईक, अत्याधुनिक इलेक्ट्रॉनिक गेजेट्स, विचित्र परिधानों, पार्टियों आदि में ही उलझती जा रही है। विलासिता का ज्वर नयी पीढ़ी को और अधिक तीव्रता से चढ़ रहा है। इस ज्वर का पोषण करने वाले उनके माता-पिता ही हैं, जो इस समय सिर्फ और सिर्फ संसाधन जुटाने में लगे हैं, विलासिता का अम्बार लगाने में लगे हैं। कर्तव्यों का, मानवता का, प्रेम का, नैतिकता का बोध ही नहीं है उन्हें। सबसे बढ़ कर जीवन की नश्वरता का बोध भी नहीं है उन्हें। अरे 70-75 साल की जिंदगी है मात्र। यह जीवन मानव की तरह जियें, मशीन की तरह नहीं। अपने नैसर्गिक गुण - सच्चे आपसी प्रेम को जिंदा रखें। अच्छाई कमाएं, बुराई नहीं। ऐसे कर्म करें कि जीते जी भी दूसरों की प्रशंसा के पात्र बनें, व मरणोपरांत भी। दूसरों की प्रशंसा छोडें, वह शायद न भी मिले, पर अपनी आत्मा से यदा-कदा पूछें कि क्या वह भी प्रशंसा करती है हमारी?? ... एक बार सोच लें कि अब से कोई तो साधना करनी है, धर्म यानी righteousness के मार्ग पर चलना है, न कुछ गलत करना है और न कुछ गलत होने देना है, व्यर्थ के दिखावों और ढकोसलों से दूर रहना है, यथासंभव संतुलित रहना है। एक बार सभी लोग मिल कर एकत्रित प्रयास करें उपरोक्त साधनाओं का, कर्तव्य पालन का, दृढ़ता का, ईमानदारी का, धार्मिकता (righteousness) का, फिर महसूस करें कि पहले अच्छा था या अब ...?

आज वास्तव में धार्मिक (righteous) व्यक्ति असंगठित हैं व अधार्मिक संगठित हैं, इसीलिए इतना भ्रष्टाचार पनप रहा है। यदि धार्मिक (righteous) भी संगठित हो जायेंगे तो अधर्म को भागना ही पड़ेगा। प्रकाश के आगे अन्धकार का अस्तित्व नहीं होता। स्वयं में बदलावों के लिए निरंतर कुछ न कुछ सीखने की आवश्यकता होती है। तो सीखने के लिए आवश्यकता है कि हम स्वयं जैसी विचारधारा वाले व्यक्तियों को संगठित कर आपस में नियमित रूप से मिलें, सप्ताह में कम से कम एक बार तो अवश्य। अच्छी तरह से नियोजन कर एक निश्चित समय पर नियमित रूप से बैठक करें। नियमित बैठक के कुछ लाभ इस प्रकार से हैं -- बैठक में शामिल होने वाला प्रत्येक व्यक्ति नम्रता से, लचीलेपन के साथ, कुछ सीखने की दृष्टि से ही आता है, जिससे व्यक्ति का अहम् कुछ कम हो जाता है। जब बैठक में सभी व्यक्तियों का उद्देश्य यही होता है तो एक-दूसरे को देख कर धर्ममार्ग पर चलने के लिए सभी का हौसला बढ़ता है। यह सहारा मिलता है व ढाढ़स बंधता है, कि इस पथ पर मैं अकेला ही नहीं हूँ और भी बहुत से हैं। बैठक में कई ऐसे प्रगति-प्राप्त व्यक्तियों का साथ मिलता है, जो प्रेरणा-स्रोत बनते हैं हमारे लिए। ऐसी बैठक के वातावरण में चैतन्य रहता है; अतः वहां पर, उस वातावरण में, अन्य लोगों का भी सोया चैतन्य जागृत होता है या हो सकता है। चैतन्य जागृत होने पर ही हमें यह पता चलता है कि वास्तविक जीवन अर्थात् क्या, वास्तविक सुख या आनंद अर्थात् क्या! ये दोनों ही अनुभूति के विषय हैं, शाब्दिक व्याख्या से बिलकुल परे। केवल इस प्रकार की सात्त्विक बैठक में ही या बैठक के पश्चात् ही अधिकांश लोगों को इसकी अनुभूति संभव है। एक बार जब हमारा चैतन्य जागृत होने लगेगा, तदनुसार हम धर्म (righteousness) के मार्ग पर चलने लगेंगे, तो फिर हमें वस्तुतः सब कुछ ठीक-ठाक लगने लगेगा। समझ में आ जायेगा कि साधना अर्थात् क्या, सही व न्यायपूर्ण आचरण अर्थात् क्या, धर्माचरण अर्थात् क्या, प्रेम अर्थात् क्या, मन की संतुलित अवस्था अर्थात् क्या! जीवन का वास्तविक उद्देश्य पता चलेगा, जीने की कला आयेगी, वास्तविक कर्तव्य का बोध होगा। यह प्रथम सोपान होगा सही मायनों में मानव बनने के लिए। ... यहाँ तक की स्थिति के लिए हम सब को स्वयं ही प्रयास करना पड़ेगा क्योंकि ईश्वर की ओर से प्रत्येक मनुष्य स्वतंत्र है अपनी इच्छानुसार कर्म करने के लिए। परन्तु ईश्वर या प्रकृति की अपेक्षा यही है कि प्रत्येक मानव धर्ममार्ग पर चले। एक बार जब हम ईश्वरेच्छानुरूप इस प्रकार की बैठक की शुरुआत करेंगे तो आगे के लिए आवश्यक ऊर्जा हमें स्वयं ईश्वर ही प्रदान करेंगे। इति।

Thursday, March 19, 2009

(१) मेरी डायरी का शैशवकाल

आगे प्रस्तुत लेखन लगभग छः वर्ष पहले जुलाई, २००३ में हुआ था। किसी भी श्रेणी में मेरे द्वारा हुआ यह पहला लेखन था। यह लेखन मेरे पहली बार किसी गुरुपूर्णिमा समारोह में शामिल होने मात्र से आरम्भ हुआ, तत्पश्चात् केवल दो-तीन बार ही सत्संग में जाने पर आगे बढ़ा। इसमें 'शास्त्रीय' भाषा का अभाव आपको लगभग हर स्थान पर खटकेगा, विशेषकर अध्यात्मशास्त्र से सम्बंधित शब्दों का चयन ठीक नहीं है। किसी को वह बचकाना भी लग सकता है। पर फिर भी शब्दों से परे का भाव व भावार्थ स्पष्ट रूप से अनुभूत होगा। .... वर्षों से 'माया' के पाश में कैद किसी शिशु का, अचानक ही परतंत्रता का भान व स्वतंत्रता की झलक मिलने के पश्चात्, सविद्रोह रुदन समान है यह।

इसके पश्चात् भी काफी लेखन कार्य हुआ, पर मजबूती से यही लगता है कि जैसे शेष सब लेखन इसी वृक्ष की ही कुछ और शाखाएं हैं मात्र। आज उसी अपरिपक्व लेखन को लगभग ज्यों का त्यों आपसे साझा कर रहा हूँ। कुछ शीर्षक बैठा कर क्रमबद्ध करने का प्रयास किया है बस।

(मेरी डायरी का शैशवकाल) -- (१) प्रस्तावना

सर्वप्रथम गुरु, तत्पश्चात् परम पिता परमेश्वर के चरणों में नमन कर मैं विचार-माला आरम्भ करता हूँ। मैं एक साधारण सा व्यक्ति हूँ, जो कभी मंदिर नहीं जाता था, पूजा-पाठ नहीं करता था, कोई धार्मिक ग्रन्थ अब तक नहीं पढ़ा, किसी सत्संग तक में कभी नहीं गया, हर चीज का तार्किक प्रमाण मांगने वाला था, और है भी, तथा कुछ तामसिक व्यसनों का भी आदी था। सारांश में यह कि एक भी आध्यात्मिक गुण मेरे भीतर नहीं था। हाँ बस एक परम शक्ति या अलौकिक शक्ति पर विश्वास करता था और अब भी करता हूँ। संभवतः इस गुरुपूर्णिमा के दिन मुझ पर गुरु एवं ईश्वर की कृपादृष्टि हुई, जिससे मेरे मन-मस्तिष्क में बहुत से विचार घुमड़ने लगे, और मैं मनन एवं लेखन कार्य में स्वतः ही जुट गया। प्रत्येक तथ्य को यथार्थ के तराजू में तौलना, सत्य की कसौटी पर कसना, किसी बात को समझने या समझाने के लिए तार्किक दर्शनशास्त्र की मदद लेना, निर्भीकता से सत्य का समर्थन व तर्कहीन बातों का विरोध करना आदि गुण या अवगुण मेरे भीतर हैं। आज मैं यह सोच रहा हूँ कि मैं क्या हूँ, मैं क्या चाहता हूँ, यह मनन एवं लेखन कार्य क्यों कर रहा हूँ? कोई ग्रन्थ आदि ही क्यों नहीं पढ़ लेता, वह अधिक आसान रहेगा? पर मेरी अंतरात्मा इसके लिए तैयार नहीं। वह मुझसे कहती है कि यदि मैंने इस समय कोई धार्मिक ग्रन्थ आदि पढ़े, तो वे मेरे स्वतंत्र मनन पर हावी हो सकते हैं, उनके विचार हावी हो सकते हैं, और तब यह मनन स्वतंत्र न रह कर उन ग्रंथों से प्रभावित हो सकता है। चूँकि यह मनन एवं लेखन कार्य अंतरात्मा की आवाज से स्वतः ही हो रहा है, अतः इसको निर्बाधित एवं स्वतंत्र रूप से चलने दे रहा हूँ। शायद मौलिक विचार इसी प्रकार उत्पन्न होते हों। ऐसा भी संभव है कि मैंने जो कुछ लिखा, वह पहले भी कुछ अन्य लोग लिख चुके हों, या ऐसा भी हो सकता है कि ये विचार आपको विरोधी या विद्रोही प्रकार के लगें। पर इतना अवश्य है कि मैंने अपने द्वारा लिखे सभी तथ्य व्यावहारिक और तार्किक दर्शनशास्त्र की कसौटी पर कसे हैं। अब यह भी हो सकता है कि उपरोक्त-कथित व्यावहारिक और तार्किक दर्शनशास्त्र भी मेरी मौलिक अवधारणाओं द्वारा ही रचित हों। तो यह सब जो मैंने लिखा है, वह आपको ग्राह्य हो अथवा नहीं, इसमें भी संदेह है।

आरंभ करता हूँ विश्व की दो महान शक्तियों के तुलनात्मक विश्लेषण से।

(मेरी डायरी का शैशवकाल) -- (२) विज्ञान और अध्यात्म

विज्ञान और अध्यात्म विश्व की दो बड़ी शक्तियां हैं। जड़ या स्थूल के ज्ञान के ज्ञान के लिए हमें विज्ञान का सहारा लेना पड़ता है, जबकि चेतन या सूक्ष्म का अनुभव हमें अध्यात्म ही करा सकता है। जड़ शरीर या स्थूल शरीर में जब कोई रोग हो जाता है या स्थूल भाग पर कोई चोट या घाव हो जाता है, तो उसके इलाज के लिए हम डॉक्टर के पास जाते हैं अर्थात् स्थूल के इलाज के लिए हमें चिकित्सा विज्ञान का सहारा लेना पड़ता है। और सत्य यही है कि स्थूल वस्तुएं विज्ञान के ही नियंत्रण में हैं, केवल विज्ञान ही उनका इलाज कर सकता है। स्थूल वस्तुएं जैसे - स्थूल शरीर की चिकित्सा, दूरभाष, मोटरगाडी़, मोबाइलफ़ोन, कम्प्यूटर, छपाई प्रेस, हवाईजहाज, लेखन के लिए कलम, पेंसिल या चाक, वस्त्र, सिलाई-कढ़ाई, भवन-निर्माण आदि के लिए हम विज्ञान पर ही निर्भर हैं; यह हम नहीं नकार सकते हैं। और साथ ही यह भी कि चेतन या सूक्ष्म का अध्ययन केवल और केवल अध्यात्म द्वारा ही संभव है। अर्थात् सूक्ष्म का सम्पूर्ण नियंत्रण अध्यात्म के द्वारा ही संभव है, विज्ञान द्वारा कतई नहीं। अमर है तो केवल सूक्ष्म, महत्त्वपूर्ण है तो केवल सूक्ष्म। स्थूल का जीवन अल्प होता है, और समय के साथ उसकी आयु, गुणवत्ता व स्तर घटता जाता है और विज्ञान किसी भी प्रयास से उसको अमर नहीं कर सकता। जबकि सूक्ष्म का स्तर अध्यात्म की मदद से समय के साथ-साथ बढ़ता है, अमर तो वह पहले से है ही। परतु फिर भी ये दोनों शक्तियां एक-दूसरे की पूरक हैं, क्योंकि सूक्ष्म का निवास इस स्थूल में है अर्थात् सूक्ष्म को भौतिक क्रियाएं करने हेतु स्थूल की अवलंबना चाहिए और स्थूल बिना सूक्ष्म के बेजान ही है; और दोनों ईश्वर की ही कृतियाँ हैं। अतः दोनों के बीच एकीकरण होना चाहिए। एकीकरण तब ही संभव है, जब हम इनमें से किसी एक को श्रेष्ठतम कहने का राग अलापना छोड़ देंगे। हम अपना अहम् भी त्याग देंगे, स्वयं को या अपने से जुड़ी किसी भी प्रकार की वस्तु जैसे धर्म, समाज या अध्यात्म-मार्ग को श्रेष्ठ तो समझ सकते हैं, पर उसे श्रेष्ठतम या सर्वश्रेष्ठ समझने की भूल हमें कभी भी नहीं करनी होगी, क्योंकि यह एक शाश्वत व स्थापित सत्य है कि इस संसार में ईश्वर के अतिरिक्त कुछ भी श्रेष्ठतम नहीं है।

अगला विषय, जिस पर मनन हुआ, वह है - प्रारब्ध एवं कर्म।

(मेरी डायरी का शैशवकाल) -- (३) प्रारब्ध एवं कर्म

प्रायः हम देखते हैं कि जब किसी व्यक्ति के साथ कुछ अच्छा या बुरा घटित होता है विशेषकर बुरा, तब लोग टिप्पणी करते हैं कि उसके प्रारब्ध में संभवतः कुछ ऐसा ही लिखा था। अर्थात् हम लोग उसके साथ घटित हुई घटनाओं की जिम्मेदारी उसके प्रारब्ध पर डाल देते हैं। संभवतः सबका ऐसा विचार करना स्वाभाविक भी है, क्योंकि बहुतायत घटनाओं पर मनुष्य का नियंत्रण नहीं होता है, और उन घटनाओं के घटित हो जाने के बाद प्रारब्ध को उसके लिए उत्तरदायी मान कर हम अपने अस्थिर एवं विचलित मन को स्थिर एवं शांत कर सकते हैं। जब हम यह मान कर चलते हैं कि अमुक का प्रारब्ध ऐसा ही था व नियति को संभवतः यही स्वीकार्य था, और इस प्रकार का विचार मन ही मन करते हुए जब हम शांत होते हैं, तो यह एक प्रकार से ईश्वर के प्रति हमारी आस्था का द्योतक है। तो हम सब यह मानते हैं कि प्रारब्ध होता है। परन्तु कभी-कभी हमें लगता है कि अमुक दुर्घटना रोकी जा सकती थी यदि पहले से सावधानी बरती गयी होती। कभी हमें लगता है कि अमुक घायल व्यक्ति बच सकता था यदि उसे समय से चिकित्सीय सहायता मिल गयी होती, या काश अमुक व्यक्ति अत्यधिक सिगरेट न पीता होता तो उसकी कैंसर से मृत्यु न हुई होती। ऐसे अनेक प्रकार से हम सोचते हैं कि यदि ऐसा न हुआ होता या वैसा न हुआ होता आदि-आदि। तो यदि हम गहराई से इस विषय का मनन करें तो हमें लगेगा कि प्रारब्ध एवं कर्म एक-दूसरे के पूरक हैं, उनके बीच समन्वय होता है और जो व्यक्ति उनके बीच सही समन्वय रखने में सफल होता है, वह ही अधिक सुखी रहता है, कम कष्टों को प्राप्त करता है। उदाहरणार्थ, यदि हम यह सोचें कि हमारे प्रारब्ध में यदि हमें खाना मिलना लिखा है तो वह हमें मिलेगा ही, यदि हमारे प्रारब्ध में नामजप करना लिखा है तो वह हम स्वतः करेंगे ही, हमारे प्रारब्ध में डॉक्टर बनना लिखा होगा तो वह हम बन ही जायेंगे, आदि-आदि।

पर जरा यह विचार कीजिये कि क्या उपरोक्त सभी घटनाएं या बातें बिना कर्म किये घटित हो सकतीं हैं? प्रारब्ध के प्रति अतिआस्थावान लोगों का विचार सामने आएगा कि यदि हमारे प्रारब्ध में यह सब लिखा होगा तो ईश्वर हमसे कर्म स्वतः ही करायेंगे। इस प्रकार हमने देखा कि प्रारब्ध के प्रति अतिआस्थावान लोगों ने सब कुछ या सभी घटनाओं का उत्तरदायित्व प्रारब्ध एवं ईश्वर इच्छा पर छोड़ दिया। तो क्या हम यह मान लें कि बिना कर्म किये ही हमको भाग्यवश सब कुछ मिल सकता है जैसे - भोजन, जल, घर, शिक्षा, चिकित्सीय सहायता, उच्च पद, धन, यश, नाम-स्मरण, ईश्वर-प्राप्ति, आदि? यदि ऐसा हो तो कोई भी व्यक्ति किसी भी कार्य को करने की चेष्टा ही न करे, और निष्क्रिय एक स्थान पर पड़ा रहे। मेरा ऐसा विचार है कि यदि अत्यंत ज्ञानी महापुरुष किसी व्यक्ति का प्रारब्ध बता दें कि यह अवश्य डॉक्टर बनेगा या अमुक अवश्य उच्च स्तर का साधक बनेगा; तो डॉक्टरी के प्रारब्ध वाला व्यक्ति यदि विद्यालय जाना छोड़ दे, पढ़ाई-लिखाई बंद कर दे, तो क्या वह डॉक्टर बन पायेगा? या साधक के प्रारब्ध वाला व्यक्ति यदि नामजप छोड़ दे, सत्संग छोड़ दे, अध्ययन-मनन छोड़ दे, भक्ति, आस्था, विश्वास सब छोड़ दे, तो ऐसे ही निष्क्रिय रहने पर क्या वह उच्च कोटि का साधक बन पायेगा? उत्तर होगा - नहीं। क्योंकि निर्विवादित रूप से यह बात मान्य होगी कि जीवन में कर्म का बहुत अधिक महत्त्व है।

परन्तु कुछ जगह हमें उपरोक्त बातों का बिलकुल उलट दिखाई पड़ता है। जैसे हम देखते हैं कि कोई व्यक्ति सचमुच डॉक्टर बनाने की इच्छा रखता है, बचपन से वह कठिन अभ्यास करता है, दिमाग भी बहुत तेज है, फिर भी अथक प्रयासों के बावजूद वह डॉक्टर की उपाधि प्राप्त करने में असफल रहता है। उसके प्रयासों, उसकी पढाई में हमेशा कोई न कोई बाधा पहुँचती ही रहती है। वह एक बाधा दूर करता है तो दूसरी आ जाती है, दूसरी दूर करता है तो चार और आ जाती हैं। अर्थात् अनवरत कर्म करने पर भी वह असफल ही रहता है। यह तो मात्र एक उदाहरण था, जीवन के हर क्षेत्र में हम देखते हैं कि कुछ लोगों की अभिलाषा उनके अथक प्रयासों व कर्मों के बाद भी पूरी नहीं हो पाती। यह भी देखने में आता है कि कई बार उनके बौद्धिक स्तर से नीचे के व्यक्ति भी साधारण प्रयासों से ही वह सब कुछ प्राप्त कर लेते हैं जो दूसरे व्यक्ति कठिन श्रम से भी प्राप्त नहीं कर पाए।

ज्ञान और भक्ति के क्षेत्र में भी हमें कुछ ऐसा ही देखने को मिलता है। कोई खरा संत है, वह निर्विकार भाव से समष्टि साधना करना चाहता है, बिना लोभ या लालसा के अपना ज्ञान और भक्ति समष्टि के लिए अर्पित करना चाहता, तो उसे खरे साधकों व श्रोताओं का अभाव हो जाता है। लाख चाहने पर भी वह अपनी बातें और ज्ञान व भक्ति को दूसरों के हितार्थ बाँटने में असमर्थ रहता है। वहीं दूसरी तरफ कई अज्ञानी, पाखंडी साधु-संतों ने बड़े-बड़े मठ, आश्रम आदि बना रखे हैं। उनके व्यर्थ के प्रवचनों में सैकड़ों-हजारों लोग जुटते हैं, धन की कोई कमी नहीं है। असफलताओं की उपरोक्त दोनों घटनाओं में, असफलता का प्रमुख कारण कमजोर प्रारब्ध ही हुआ।

'प्रारब्ध एवं कर्म' इस विषय के उपरोक्त विश्लेषण एवं शोधन के पश्चात् यह बात उभर कर सामने आती है, यह निष्कर्ष निकलता है, कि निश्चित रूप से प्रारब्ध एवं कर्म एक-दूसरे के पूरक हैं। यदि हम 'प्रारब्ध एवं कर्म' को यथार्थ के तराजू में तौलें तो स्वतः हमें ज्ञात होगा कि प्रत्येक का प्रारब्ध पहले से या पूर्वजन्म से निर्धारित है, परन्तु उस प्रारब्ध की सहायता से फल प्राप्ति हेतु कर्म परम आवश्यक हैं। अर्थात् गणितीय भाषा में -- प्रारब्धxकर्म = फल। इसमें हमने गुणात्मक सम्बन्ध ही क्यों लिया? वह इसलिए कि यदि गुणात्मक सम्बन्ध न लेकर हम धनात्मक या ऋणात्मक सम्बन्ध लेते हैं तो कर्म शून्य रहने पर भी हमें कुछ न कुछ फल की प्राप्ति अवश्य होती। अभी हम यह मान लेते हैं कि यह सूत्र यानी [प्रारब्धxकर्म = फल] सही है। अब आगे इसकी समीक्षा करते हैं। उदाहरणार्थ -- यदि हम कोई अभीष्ट फल १०० अंकों का चाहते हैं और हमारे प्रारब्ध का अंक १० है, तो हमें अभीष्ट फल यानी कि १०० अंक प्राप्त करने हेतु १० कर्म करने अनिवार्य हैं, क्योंकि १०x१० = १००. दूसरे उदाहरण में हम यह मान लें कि किसी व्यक्ति का प्रारब्ध बहुत बलवान है यानी वह १०० अंकों का है, तो क्या उसे बिना किसी प्रयास के ही फल की प्राप्ति हो जायेगी? उत्तर होगा नहीं। क्यों कि उपरोक्त सूत्र के अनुसार ही -- प्रारब्धxकर्म = फल; १००x० = ०. अर्थात् प्रारब्ध अत्यंत बलवान होते हुए भी यदि व्यक्ति ने कोई कर्म नहीं किया तो उसको शून्य फल की प्राप्ति हुई अर्थात् कोई फल प्राप्त नहीं हुआ। तो यह समझ में आया कि सर्वश्रेष्ठ प्रारब्ध वाले व्यक्ति के लिए भी कुछ न कुछ कर्म करना अनिवार्य होता है। ठीक इसी प्रकार एक दूसरा उदाहरण -- यदि किसी का प्रारब्ध किसी विषय में शून्य है, तो अथक (अनन्त) प्रयासों के बाद भी फल शून्य ही रहेगा, क्योंकि उपरोक्त गणितीय सूत्र के अनुसार ही, शून्यxअनंत = शून्य। हाँ किसी का प्रारब्ध यदि शून्य से तनिक सा भी अधिक है, दशमलव में ही है, तो वह अपने कर्मों या प्रयासों में अत्यधिक वृद्धि कर अभीष्ट फल प्राप्त कर सकता है। जैसे ०.५x२०० = १००.

यहाँ हमें यह ध्यान रखना होगा कि प्रारब्ध का अंक हमको किसी भी माध्यम से ज्ञात नहीं हो सकता और साथ ही कर्म करना सर्वथा हमारे हाथ में है। किसी का प्रारब्ध पहले से जानना या बताना असंभव ही है, वैसे तुक्के तो कभी-कभी किसी के भी लग सकते हैं। वास्तव में किसी कार्य के हो सकने की समय सीमा निकल जाने के पश्चात् ही मनुष्य को यह पता चल पाता है कि अमुक कार्य अथवा वस्तु उसके भाग्य में थी अथवा नहीं। उदाहरण के लिए -- कोई व्यक्ति सेना में भर्ती होना चाहता है। वह हाईस्कूल के बाद, फिर इंटरमीडिएट के बाद, फिर उसके बाद भी विभिन्न प्रवेश परीक्षाओं में बैठता है, कड़ी मेहनत करता है, कर्म की दृष्टि से कोई कसर नहीं छोड़ता। पर फिर भी वह निरंतर अनेक बाधाओं का सामना करता रहता है। कभी लिखित परीक्षा, कभी साक्षात्कार, तो कभी मेडिकल जाँच में असफल हो जाता है। अथक प्रयासों के बाद, अंततः सेना में भर्ती हेतु निर्धारित अधिकतम आयु सीमा निकल जाने के बाद वह यह जान पाता है कि सेना में भर्ती होना कम से कम इस जन्म में तो उसके प्रारब्ध में नहीं।

तो हमने देखा कि कालावधि बीत जाने के बाद ही वह जान पाया कि अभीष्ट फल उसके प्रारब्ध में फ़िलहाल नहीं, पर पहले से कोई प्रारब्ध को जान ले, यह लगभग असंभव ही है। अतः प्रारंभ से हमें हर कार्य के प्रति सचेत रहना चाहिए एवं सदैव प्रयासरत रहना चाहिए, यह सोच कर कि हर उचित चीज मेरे भाग्य में संभवतः है ही। ... कालान्तर के बाद ही हम यह जान पाते हैं कि हम क्या चाहते थे?, किसके लिए कितनी मात्रा में प्रयास किया?, अंततः हमने कब और क्या फल पाया?, आदि। तभी हमको यह अहसास भी होता है कि यदि उचित समय पर कुछ अधिक प्रयास किये होते तो संभवतः अधिक फल की प्राप्ति संभव थी। अतः हमको जीवन के प्रत्येक चरण में यथासंभव मन लगा कर अधिकाधिक सत्कर्म करने चाहियें, जिससे अंत में कोई पछतावा न हो सके। सदैव अनुमानित प्रारब्ध से अधिक, कर्म को महत्त्व देना चाहिए।

(मेरी डायरी का शैशवकाल) -- (४) विश्वास या आस्था

हम जब किसी पर पूर्ण विश्वास करते हैं, उसकी कही हर बात का पालन करते हैं, तब हम यह कह सकते हैं कि हमें उस पर पूर्ण आस्था है। जैसे बीमार पड़ने पर जब हम डॉक्टर के पास जाते हैं, तो डॉक्टर पर हमें पूर्ण-विश्वास होता है, आस्था होती है। वह जो भी दवा हमें देता है, वह हम विश्वास के साथ लेते हैं और ठीक हो जाते हैं। इसी प्रकार हमें जब सूक्ष्म-सम्बन्धी किसी समस्या का समाधान चाहिए होता है, तो हम पूरी आस्था के साथ किसी संत के पास या किसी सत्संग आदि में जाते हैं।

आस्था में कितना बल होता है इसका एक विचित्र सा उदाहरण देता हूँ। ... एक बार मेरे एक डॉक्टर मित्र के पास गाँव का एक भोला-भाला व्यक्ति आया और बोला कि "मुझे बुखार है और चक्कर भी आ रहे हैं, मेरा इलाज करने की कृपा करें। गाँव के सभी लोग आपके पास इलाज कराने आते हैं और आपकी दवा, इंजेक्शन आदि से ठीक हो जाते हैं, इसीलिए मैं भी आपके पास आया हूँ।" डॉक्टर ने उस ग्रामीण का पूरा निरीक्षण किया। पर हर प्रकार से निरीक्षण करने बाद भी डॉक्टर को वह ग्रामीण कहीं से भी बीमार नहीं लगा। इसके बाद उस डॉक्टर ने उसे विटामिन का एक इंजेक्शन तुंरत लगा दिया और कुछ विटामिन की गोलियां भी खाने के लिए दीं। इंजेक्शन लगने के पांच मिनट बाद ही वह ग्रामीण बोला कि "लोग ठीक ही कहते थे कि आपकी दवा में जादू है, अब मैं बेहतर महसूस कर रहा हूँ।" और वह ग्रामीण चला गया।

बाद में मेरी जिज्ञासा शांत करता हुआ मेरा डॉक्टर मित्र बोला कि "वस्तुतः उस ग्रामीण को स्थूल का कोई कष्ट था ही नहीं, उसे सिर्फ वहम था। उसे मेरे इलाज पर पूर्ण आस्था थी, तभी तो वह साधारण विटामिन का इंजेक्शन देने पर ही ठीक हो गया।" अर्थात् यहाँ बीमारी मनोवैज्ञानिक थी, पर आस्था बलवान थी। यह उदाहरण आपको अन्धविश्वास का भी लग सकता है, पर यह अन्धविश्वास न होकर आस्था ही थी। और यह आस्था डॉक्टर ने लोगों का लगातार अच्छा व उचित इलाज करके ही अर्जित की थी। अब यदि हम यह कहें कि डॉक्टर ग्रामीण को यह बता देता कि उसे कुछ भी नहीं है, सब उसका वहम है, तो परिणाम क्या होता? वह यह कि पहले तो ग्रामीण की डॉक्टर के प्रति आस्था विखण्डित होती, फिर वह अपने इलाज के लिए कहीं और जाता। हो सकता है कि उसके मनोविज्ञान या सूक्ष्म की समस्या समझने वाला कोई अन्य उसे कई दिन तक न मिलता, और उसका रोग धीरे-धीरे बढ़ता जाता। तो कुल मिलाकर सत्य को बता देने पर संभवतः उस ग्रामीण का कष्ट दूर तो नहीं होता, वरन बढ़ ही सकता था। यहाँ यह भी हो सकता है कि उस ग्रामीण का समझने का स्तर ऊंचा होता, तो डॉक्टर उसे अवश्य ही सत्य बता देता। जब मैंने यह विकल्प डॉक्टर के सामने रखा, तो वह साफगोई से बोला कि "देखो वह एक भोला-भाला आस्थावान ग्रामीण था, और किसी प्रकार की पीड़ा से तो ग्रसित था ही। उस समय आवश्यक था उसका इलाज, न कि यह कि मैं सत्य बता कर उसके स्तर को जांचता। अब सोचो यदि वह निम्न बुद्धि स्तर का होता तो वह मेरे सत्य पर विश्वास न करता और यत्र-तत्र कहीं और जाता व अपना रोग और अधिक बढ़ा लेता। इसीलिए मैं इन सब झमेलों में नहीं पड़ा। सर्वप्रथम आवश्यकता थी कि वह ठीक हो जाता, और वह ठीक हो गया।" मेरे विचार से डॉक्टर ईमानदार था, स्वभाव से भी और अपने व्यवसाय के प्रति भी। क्योकि मरीजों के स्थूल रोगों को वह उचित दवा द्वारा तथा मनोवैज्ञानिक वहमों को विटामिन देकर दूर करता था। अर्थात् बीमारी के स्तर के अनुसार ही उसका इलाज करता था।

यहाँ यह भी विकल्प उठता है कि यदि समस्या सूक्ष्म या मनोविज्ञान आदि से सम्बंधित थी, तो ग्रामीण को उनके तज्ञ (विशेषज्ञ) के पास भी भेजा जा सकता था। पर संभवतः वहां जाकर भी वह ठीक न हो पाता क्योकि उसे पूरा विश्वास था कि उसका कष्ट स्थूल का ही है और उसके इलाज के लिए उसे डॉक्टर पर ही सम्पूर्ण आस्था थी। एक महत्त्वपूर्ण बात और, कि डॉक्टर को भी अपने द्वारा किये जाने वाले इलाज पर पूर्ण विश्वास था - वैज्ञानिक, मनोवैज्ञानिक, व परावैज्ञानिक दृष्टि से। वैज्ञानिक यानी विज्ञान की दृष्टि से उसे यह पता था कि विटामिन का इंजेक्शन कोई कुप्रभाव नहीं डाल सकता। मनोवैज्ञानिक यानी मनोविज्ञान की दृष्टि से उसे यह पता था कि ग्रामीण को मात्र मन का वहम है, वह विटामिन का इंजेक्शन लगते ही दूर हो जायेगा। परावैज्ञानिक यानी विज्ञान से परे उसे यह पता था कि वास्तव में ग्रामीण की आस्था ही काम करने वाली है, यह विटामिन का इंजेक्शन नहीं।

यह आस्था होती ही परावैज्ञानिक अर्थात् स्थूल विज्ञान से बिलकुल परे, थोडी सी मनोविज्ञान से जुड़ी हुई। जिस प्रकार उस ग्रामीण को डॉक्टर पर पूर्ण आस्था व विश्वास था, उसी प्रकार से लोगों की आस्था गुरु के प्रति, ईश्वर के प्रति एवं साधु-संतों के प्रति भी होनी चाहिए। यह आध्यात्मिक आस्था हमारे सूक्ष्म के स्वस्थ एवं उन्नत होने के लिए परम आवश्यक है। तभी वास्तविक आनंद की प्राप्ति संभव है। खरे साधु-संत और गुरु सूक्ष्म के डॉक्टर ही हैं। अब प्रश्न यह उठता है कि हम कैसे पहचानेंगे कि खरा डॉक्टर कौन है या खरा गुरु या साधु-संत कौन सा है? तो पहले के अध्ययन के अनुसार अच्छे डॉक्टर या गुरु की प्राप्ति के लिए प्रारब्ध एवं कर्म का समन्वय ही कार्य करता है।

(मेरी डायरी का शैशवकाल) -- (५) अन्धविश्वास

विश्वास और अन्धविश्वास के बीच विभाजन रेखा बहुत ही महीन है। मेरे विचार से अन्धविश्वास उस विश्वास को कह सकते हैं जिसका कोई आधार नहीं है, अर्थात् वैज्ञानिक, मनोवैज्ञानिक, परावैज्ञानिक तथा आध्यात्मिक रूप से आधारहीन विश्वास को ही अन्धविश्वास कह सकते हैं। एक उदाहरण -- सभी को पता होगा कि कुछ वर्ष पहले एक खबर जंगल की आग की तरह फ़ैल गयी थी कि मंदिरों में शिवजी साक्षात् दूध का सेवन कर रहे हैं। लाखों लीटर दूध लोगों ने शिवालयों में अर्पित कर दिया। यदि भगवान दूध पी रहे होते तो शिवालय से बाहर निकलने वाली नलिका से दूध बहता हुआ क्यों दिखायी देता?, इस तरफ किसी ने ध्यान दिया ही नहीं। जिसने ध्यान दिया या जिसने कोई तथ्य लोगों के सामने रखना चाहा, उसे लोगों ने नास्तिक करार दे कर उसे बुरी तरह से धिक्कारा। परन्तु कुछ समय पश्चात् लोगों की समझ में यह आया कि यह सब तो शायद उनका वहम था। पर अभिमान और अहम् भाव देखिये कि किसी ने भी इस वहम की चर्चा खुलकर किसी से भी नहीं की। धीरे-धीरे स्वतः शिवालयों पर भीड़ घटने लगी और लोग यह घटना भूल गए। पर उनके अन्धविश्वास के कारण लाखों लीटर दूध यूं ही व्यर्थ में बह गया। इसी प्रकार का कुछ प्रसंग कई वर्ष पहले दिल्ली और उसके आस-पास के क्षेत्रों में वनमानुषों के आतंक का भी फैला था, पर अंततः सब मिथ्या ही निकला। इसी प्रकार के अन्धविश्वास जादू-टोने, भूत-पिशाच आदि के सम्बन्ध में भी हैं।

मेरा विचार है कि सूक्ष्म यानी जीवात्मा का अस्तित्व है, परन्तु मृत्यु के बाद जब वह स्थूल शरीर छोड़ देती है, तो वह कोई लीला दिखा सकती बिना किसी स्थूल अवलंबना के, मेरे लिए यह मानना अभी असंभव है। फिल्मों में, कहानियों में, यहाँ तक कि कुछ ग्रंथों में भी भूत, प्रेत, पिशाच आदि का वर्णन मिलता है। लम्बे-लम्बे नाखून, बड़े-बड़े दांत, विकृत और भयानक मुख, उल्टे पैर, गर्दन का पूरा ३६० डिग्री के कोण पर घूम जाना आदि कितने ही रूप बताते हैं लोग भूत-प्रेतों के। कई लोग तथा कुछ साधु-संत भी भूतों के इन रूपों को देखने का दावा करते हैं। यदि उनकी बात का विरोध करो तो वे कहते हैं कि तुम्हारा स्तर ही अभी क्या है, कुछ भी नहीं; आत्मा भी शुद्ध नहीं होगी, अनेक पाप किये होंगे, झूठे होगे, ... तभी तुम्हें पारलौकिक शक्तियां अर्थात् भूत-प्रेत नज़र नहीं आते; साधना करो, हमारी तरह स्तर ऊंचा उठाओ, तभी यह सब कुछ देख पाओगे। तो, मेरा .. तथाकथित ज्ञानी लोगों से एक ही प्रश्न है कि क्या मुझ जैसे एक सामान्य व्यक्ति का आध्यात्मिक स्तर इतना निम्नकोटि का है कि उसे यदा-कदा ईश्वरीय अनुभूति तो हो सकती है, पर उन विकृत रूपों वाले भूतों की नहीं। मेरी बात छोड़ दीजिये, मैं तो एक अत्यंत साधारण व्यक्ति हूँ, पर बड़े-बड़े वैज्ञानिकों को भी भूतों का दर्शन आज तक नहीं हुआ। क्या भूत सिर्फ और सिर्फ आध्यात्मिक रीति से साधना करने वालों को ही दिखायी देते हैं? मेरे विचार से सभी महान भारतीय वैज्ञानिक ईश्वर या एक निर्गुण, निर्विकार परम शक्ति पर अगाध आस्था व विश्वास रखते हैं और उचित रीति से नियमित पूजा भी करते हैं, तामसिक चीजों का सेवन भी नहीं करते हैं। बस एक बात उनमें अलग है कि वे विज्ञान को भी मानते हैं। क्या यही एकमात्र कारण है कि उनको ईश्वरीय अनुभूतियाँ तो होतीं हैं, परन्तु भूत-प्रेतों के विकराल और विकृत रूप नहीं दिखायी पड़ते। यदि ऐसा है, तो तथाकथित साधु-संतों को भी विज्ञान में रुचि रखनी चाहिए। आध्यात्मिक गुण उनमें पहले से हैं ही, उससे उनको ईश्वर प्राप्ति तो होगी ही, पर एक अतिरिक्त लाभ उन्हें यह होगा कि भूत-प्रेत, पिशाच आदि दिखाई देने बंद हो जायेंगे। तो मेरा व्यक्तिगत निष्कर्ष यह है कि भूत-प्रेत आदि नहीं होते। यदि उनका अस्तित्व है भी, तो वे बिना स्थूल का अवलम्ब लिए कोई भौतिक लीला दिखा सकते हैं, इसमें शत-प्रतिशत संदेह है। हाँ, किसी के शरीर पर भूतों के अतिक्रमण की बात भी यदा-कदा सुनने में आती है, और उस दुर्लभ सी घटना का यदि हम अपने विवेक या वैज्ञानिक और मनोवैज्ञानिक आधार पर निरीक्षण करें, तो बात अंततः मिथ्या निकलती है। अफवाहों के बीच धीरे ऐसे दुर्लभ भुक्तभोगी व्यक्तियों को मैंने मानसिक अस्पताल में उचित चिकित्सा एवं मनोवैज्ञानिक तरीकों से ठीक होते देखा है। हाँ, कुछ भुक्तभोगी ऐसे होते हैं, जिनका इलाज विज्ञान और मनोविज्ञान द्वारा नहीं हो पाता क्योंकि उनकी समस्या उनके अतिसूक्ष्म की या जीवात्मा के स्तर की होती है। ऐसे व्यक्ति उचित सत्संगों में जाकर या खरे साधु-संतों की शरण में जाकर गुरु या ईश्वर कृपा से ठीक हो सकते हैं, परन्तु उनका प्रतिशत बहुत कम है। लेकिन इन भ्रांतियों का प्रतिशत बहुत अधिक है कि उपरोक्त-कथित प्रकार के भूत-प्रेत होते हैं।

उपरोक्त मनन से यह निष्कर्ष निकला कि ये सब अन्धविश्वास और असत्य ही है। सत्य है तो केवल ईश्वर और सूक्ष्म, अमर है तो वह भी केवल ईश्वर और सूक्ष्म, स्थूल शरीर मात्र सहायता निमित्त है और नश्वर है। अंधविश्वास की व्याख्या के लिए उपरोक्त उदाहरण पर्याप्त नहीं हैं। व्यक्ति को स्वयं अपने विवेक एवं बुद्धि से यह विचार सदैव करना होगा कि उसका विश्वास कहीं अन्धविश्वास तो नहीं है? यदि किसी विषय में उसे विश्वास और अन्धविश्वास में भेद करना दुष्कर प्रतीत हो, तो उसे अपने किसी खरे मित्र या गुरु की मदद लेनी चाहिए।

(मेरी डायरी का शैशवकाल) -- (६) छल

किसी भी व्यक्ति को जानबूझ कर धोखा देना, उसके साथ किया गया छल कहलाता है। यदि अनजाने में कोई धोखा हो जाए, परन्तु मन में कोई खोट न हो, तो किया गया यह छल क्षमा योग्य होगा। अनजाने में जब कोई किसी के साथ छल कर बैठता है, तो यथार्थ के पता चलने पर छल करने वाले व्यक्ति के मन मे ग्लानि और पश्चात्ताप की भावना उत्पन होती है। ग्लानि और पश्चात्ताप की यह भावना ही उसके द्वारा किये गए छल का दुष्प्रभाव कम करती है और छलित व्यक्ति भी उसे क्षमा कर सकता है। यह तो हुई अनजाने में धोखा हो जाने वाली बात। दूसरी बात यह आती है कि किसी के हितार्थ किया गया छल भी क्षमा योग्य ही है, जैसा पूर्व लिखित घटना में डॉक्टर ने ग्रामीण के साथ किया था। परन्तु कभी-कभी हम यह देखते हैं कि कोई व्यक्ति किसी और व्यक्ति को, या जन समूह को जानबूझ कर धोखा देता है केवल अपनी स्वार्थ पूर्ति के लिये, तो उसके द्वारा किया गया यह छल क्षमा योग्य नहीं है। उस व्यक्ति का कम से कम सामाजिक बहिष्कार तो होना ही चाहिए। परन्तु ऐसे छल करने वाले व्यक्ति तो बहुत चतुर होते हैं। मानव मनोविज्ञान को भी वो भली-भांति समझते हैं। समाज में फैली हुई अज्ञानता व अंधविश्वासों का भी उन्हें पता होता है। लोगों की इसी अज्ञानता का लाभ उठा कर वे पहले तो जनसमूह को अपनी ओर आकृष्ट करते हैं, प्रसिद्धि बटोरते हैं, फिर मनचाहे ढंग से अपनी स्वार्थपूर्ति करते हैं। लोग जान भी नहीं पाते कि वस्तुतः उनके साथ छल हो रहा है क्योंकि उनकी आँखों पर तो अज्ञान और अन्धविश्वास का पर्दा पड़ा होता है।

(मेरी डायरी का शैशवकाल) -- (७) अहम्

अपने बल पर, बुद्धि पर, कार्य पर अथवा सामर्थ्य पर अत्यधिक गर्व करना और सदैव अपने को दूसरे से श्रेष्ठ समझना, यही अहम्-भाव (अहंभाव) है। यह तो अहंभाव की बहुत ही संक्षिप्त परिभाषा हुई। वास्तव में अहम् मनुष्य का ऐसा दुर्गुण है, जो किसी न किसी रूप में हमारे विचारों, बुद्धि और कर्मों पर हावी होने की कोशिश करता ही रहता है। अहंभाव की व्याख्या बहुत विस्तार से की जाने की आवश्यकता है। संक्षेप में अहम्-भावों के कुछ उदाहरण प्रस्तुत हैं -- जैसे मनुष्य जब शैशवकाल में होता है तो उसकी वृत्ति अत्यंत सरल होती है, अहंभाव बिलकुल भी नहीं होता है, या बहुत कम होता है। पर जैसे-जैसे वह बड़ा होने लगता है, उसमें अहंभाव जागृत होने लगता है तथा धीरे-धीरे वह बढता जाता है। इसके दो मूल कारण हैं - ज्ञान-प्राप्ति (बुद्धि का विकास) व धन-प्राप्ति। ये दोनों चीज़ें प्राप्त करते-करते वह अपने ज्ञान और धन के भंडार की दूसरों से तुलना करने लगता है। और जब वह दूसरे कुछ लोगों को अपने से तुच्छ समझने लगता है तो यह उसमें अहंभाव निर्माण होना ही हुआ। यदि इस प्रकार का अहंभाव जागृत हो गया तो यह कम कैसे हो?, इसका एक ही उपाय है कि मनुष्य को अपनी तुलना सदैव स्वयं से उन्नत व्यक्तियों से करनी चाहिए। यह प्रक्रिया व्यक्ति को उसके स्वयं के वास्तविक स्तर का भान कराती है और अहंभाव कम होता है। अहंभाव निर्माण के अन्य कारकों में प्रमुख हैं - स्वार्थी होना, आत्ममुग्ध होना, स्वाभिमान भी अधिक बढ़ जाना, सदैव स्वेच्छा से ही वर्तन करना, अपनी व्यक्तिगत मान्यताओं को, धर्म को, भाषा को, उपासना को, समाज को, देश को, संस्कृति को सदैव दूसरों से श्रेष्ठ समझना आदि। अहंभाव से ही जुड़े हैं हमारे आगे के दो विषय - भारतीयों के पराभव के कारण तथा समयानुसार शोधन एवं संशोधन की आवश्यकता।

(मेरी डायरी का शैशवकाल) -- (८) भारतीयों के अपकर्ष के कारण

हम सभी लोग इस तथ्य से परिचित हैं कि प्राचीन काल में भारतीय संस्कृति संभवतः विश्व की सर्वश्रेष्ठ संस्कृति थी। किसी समय हमारा देश आध्यात्मिक, व्यापारिक, राजनैतिक, आर्थिक, वैज्ञानिक, प्रौद्योगिकी, सांस्कृतिक, आदि क्षेत्रों में विश्व-विख्यात था। विश्व के गिने-चुने उन्नत देशों में भारत की गिनती होती थी, परन्तु समय बीतते-बीतते अन्य अनेक देश कई क्षेत्रों में भारत से आगे निकल गए। संभवतः इस बहुकोणीय अपकर्ष के कारण हम भारतीय स्वयं ही हैं। भारत के उस स्वर्णकाल से अभिभूत होकर तत्कालीन विचारक संभवतः आत्ममुग्ध हो गए थे और उनमें अहंकार आ गया था कि हमारा सब कुछ ही श्रेष्ठतम है, अन्य देश, संस्कृतियाँ आदि उन्हें तुच्छ प्रतीत होने लगे थे। यद्यपि ऐसा ही था भी, परन्तु अन्य देश, दूसरे अन्य देशों की संस्कृति, विज्ञान और समाज से कुछ न कुछ ग्रहण करते रहे तथा अपने राष्ट्र को और अधिक उन्नत करने में जुटे रहे। बहुत से विदेशी लोग व्यापार व ज्ञानार्जन हेतु भारत आये। स्वयं को और अधिक उन्नत व सुसंस्कृत बनाने हेतु उन्होंने अनवरत शोध कार्य जारी रखा और स्वयं में, संस्कृति में व विज्ञान में समयानुसार बड़े परिवर्तन भी किये। ये उपक्रम करते हुए अन्य कुछ देश धीरे-धीरे अत्यंत विकसित हो गए। हम भारतीय तो आत्ममुग्ध होकर एक ही स्थान पर बैठे रह गए या शायद हमारा स्तर कुछ और कम ही हुआ, परन्तु विश्व व समय हमसे आगे निकल गया। हमारा केवल तकनीकी या वैज्ञानिक अपकर्ष ही नहीं हुआ बल्कि सांस्कृतिक एवं आध्यात्मिक पतन भी हुआ।

सम्पूर्ण विश्व का दर्शनशास्त्र विशेष रूप से तार्किक एवं व्यावहारिक दर्शनशास्त्र बदल गया, परन्तु हम भारतीय आज भी इन दर्शनशास्त्रों से कतराते हैं। प्राचीनकाल में भारत में धर्म और अध्यात्म के ऊपर कितने ही ग्रंथों की रचना हुई थी, उनकी बातें आज भी ग्रहण-योग्य हैं, पर यह भी विचार करें कि प्राचीनकाल में सभी ग्रन्थ एक साथ नहीं लिखे गए थे, परन्तु समय-समय पर आवश्यकतानुसार व कालानुसार लिखे गए। अर्थात् प्राचीनकाल में भारत के तत्कालीन विचारकों ने भी निरंतर शोधन एवं संशोधन के पश्चात् समय-समय पर नई अवधारणाओं की रचना की।

... लेकिन एक समय प्रगति का यह दौर जैसे थम सा गया। दूसरों से कुछ और ऊंचाई पर पहुँच जाने के कारण आत्ममुग्धता व अहंकार ने हमें आ घेरा। बस तभी से हमारे से जुडी हर चीज का पतन शुरू हो गया। लम्बे समय तक शोधन एवं संशोधन कार्य थमे रहने के कारण हमारी श्रेष्ठता तो वहीं थमी रही, परन्तु दूसरे कई अन्य देश हमसे अधिक श्रेष्ठ हो गए। आज भी हम अहंकार व आत्ममुग्धता की उन्हीं बेड़ियों में जकड़े हुए हैं। यहाँ अब हर कोई अपने को श्रेष्ठतम व अन्यों को तुच्छ समझता है, अपने-आप में किसी प्रकार का परिवर्तन कोई करना ही नहीं चाहता है। इतना आत्माभिमानी होना भी किसी भी समाज के लिये व उसके अस्तित्व के लिये एक बड़ा खतरा है। हमारा सामाजिक, धार्मिक एवं आध्यात्मिक इतिहास इतना श्रेष्ठ है कि विदेशों के लोग आज भी इनका अध्ययन करते हैं और वर्तमान काल के अनुसार जो बातें उन्हें ग्रहण-योग्य लगतीं हैं, वह बातें ही वे ग्रहण करते हैं और स्वयं को पहले से अधिक श्रेष्ठ व परिष्कृत बनाने में लगे हैं। और हम भारतीय हैं कि बस लकीर के फकीर बने हुए हैं, अर्थात् समयानुसार कोई परिवर्तन न लाते हुए हम उस अध्यात्मशास्त्र को वैसा का वैसा, जैसा प्राचीन काल में उचित था, अपनाने की चेष्टा करते हैं। न तो अब वह समय रहा न स्थितियां, अतः व्यावहारिक एवं तार्किक दर्शनशास्त्र हमें स्पष्ट संकेत दे रहा है कि हम गलत हैं। अहंकार छोड़ कर हमें यह संकेत समझना चाहिए और हमारे महान अध्यात्मशास्त्र की बुनियादी बातों को कायम रखते हुए, इसमें आवश्यकतानुसार व समयानुसार परिवर्तन करके इसे और अधिक श्रेष्ठ बनाने का प्रयास करना चाहिए। अतः प्राचीन आधारभूत परम्पराओं, विचारों एवं पद्धतियों का अत्यधिक सम्मान करते हुए, उनको भली-भांति आत्मसात् करते हुए, यदि हम उनमें कुछ परिवर्तन समयानुसार करते हैं, तो यह परिवर्तन पुरानी परम्परा या पद्धति को ठेस नहीं पहुंचा सकता। परिवर्तन तो जीवन का शाश्वत सत्य है ही।

(मेरी डायरी का शैशवकाल) -- (९) साधना या अध्यात्म के वर्तमान प्रारूप पर विचार

वर्तमान काल में विज्ञान की प्रगति का रथ द्रुत गति से भागा जा रहा है। विज्ञान की उन्नति व विकास कार्य होना अच्छी बात है, पर कहते हैं कि कमी और अति सदैव बुरी होती है। इस समय हमारे भारत में विज्ञान की अति व आध्यात्मिक साधना की कमी हो गयी है और ये दोनों बातें हमारे लिये बहुत घातक हैं। विज्ञान द्वारा उपलब्ध करा दिए गए भौतिक साधनों एवं आराम व विलासिता की चीजों की जैसे बाढ़ आ गयी है। यह सब कुछ पा लेने के पश्चात् या पा लेने की लालसा के कारण सर्वत्र भ्रष्टाचार, स्वार्थ, ईर्ष्या, हिंसा, द्वेष एवं अहंकार का बोलबाला है। यह सब ही तो आसुरीय राज्य का प्रतीक है। इस आसुरीय राज्य का विखंडन केवल ईश्वरीय राज्य की स्थापना द्वारा ही संभव है। और यह भी शाश्वत सत्य है कि ईश्वरीय राज्य की पुनर्स्थापना केवल अध्यात्म या साधना द्वारा ही संभव है। अतः इसके उचित प्रसार की भी परम आवश्यकता है। पर यह संभव कैसे होगा?, क्योंकि आजकल कोई भी सामान्य व्यक्ति साधकों की या अध्यात्म-प्रसारकों की बात सुनने के लिये तैयार नहीं है। बहुत प्रयास से यदि कुछ लोग सत्संग में आ भी जाते हैं तो ढेर सारी आशंकायें उनके मस्तिष्क में रहतीं हैं। कभी वे सत्संग में आते हैं, तो कभी नहीं आते। अधिकांश नामजप तक शुरू नहीं कर पाते या करना ही नहीं चाहते। यह सब देख कर तो लगता है कि अध्यात्म पर से लोगों का विश्वास ही उठ गया है। पर चूँकि यह विज्ञान और उसकी निरंकुशता का दौर है, अतः साधकों को भी इसका मुकाबला करने एवं इसका आवरण लोगों की आँखों से उतारने हेतु तार्किक दर्शनशास्त्र व मनोविज्ञान का सहारा लेना पड़ेगा।

यह ऐसे कि विज्ञान के इस युग में लोग आध्यात्मिक साधना को भूल चुके हैं। अतः हमें उनको यह साधना बहुत बुनियादी स्तर पर सिखानी पड़ेगी, और इसके लिये कुछ वाह्य कृत्यों को समयानुसार बदलना पड़ेगा। साधना की शुरुआत के लिये ऐसा उचित प्रतीत हो रहा है। दूसरी महत्त्वपूर्ण बात यह कि विज्ञान के इस युग में हर व्यक्ति आप पर या आपकी किसी बात पर विश्वास करने के लिये सबूत मांगता है। विज्ञान तो अपने पक्ष में साक्ष्य दे सकता है, पर केवल अनुभूति पर आधारित होने के कारण अध्यात्म अपने पक्ष में कुछ प्रत्यक्ष प्रमाण देने में असफल रहता है। परन्तु एक और तरीके से अध्यात्म अपना पक्ष स्पष्ट करता है।

साधना के अनेक रूपों में एक रूप है - सत्संग के द्वारा आचरण-शुद्धि या आचरण-उन्नति की साधना। सर्वप्रथम यदि सत्संगों में लोग उचित परामर्श व उपदेशों द्वारा या अन्य साधनों से आचरण-शुद्धि, सदाचरण आदि के लिये प्रेरित हो सकें, तो उसके फलस्वरूप कुछ लोगों में आये आचरण परिवर्तन को कुछ अन्य लोग प्रत्यक्षतः देख सकते हैं, महसूस कर सकते हैं। जिनका आचरण उन्नत हो गया, वे वस्तुतः वर्तमान के साधक हो गए और जिन्होंने आचरण-उन्नति के इस प्रमाण को देखा या महसूस किया, वे भविष्य के साधक हो सकते हैं। अतः एक और सत्य यह सामने उभर कर आया कि सत्संग रूपी साधना से अंतःकरण स्वस्थ होता है, अंतःकरण के स्वस्थ होने पर ही व्यक्ति सदाचरण को अपनाता है, शांत, सरल व सौम्य हो जाता है, और अनेक विकारों को त्याग देता है। आचरण व व्यवहार संबंधी यह उन्नति दूसरों को भी दिखाई देती है। इस प्रकार जब लोगों के सोचने का दृष्टिकोण बदले, और उनका रुझान विज्ञान से कुछ हट कर अध्यात्म पर केन्द्रित होने लगे, तभी हमें उनसे साधना के अन्य रूपों की चर्चा करनी चाहिए। आज के समय में ग्राह्यता का भी बहुत अधिक महत्त्व है। लोगों की ग्रहण करने की क्षमता के अनुसार ही हमें साधना को सरल व सरस बनाना होगा। या दूसरे शब्दों में कि हमें अपने अध्यात्म में आवश्यक परिवर्तन करके उसे सरलता से ग्रहण योग्य बनाना होगा।

सभी सगुण उपासक, निर्गुण उपासक, विज्ञानवेत्ता, यहाँ तक कि नास्तिक भी यह स्वीकार करते हैं कि कोई तो परम शक्ति इस ब्रह्माण्ड में विद्यमान है, जो और कुछ करे न करे, हमारा यह नश्वर शरीर चला ही रही है। इस स्थूल जीवन का नियंत्रण उसी परम शक्ति के पास है, ऐसा सभी मानते हैं। तो अगले चरण में हमें उस परम दिव्यशक्ति के अस्तित्व पर पूर्ण विश्वास करना होगा और इस प्रकार का विचार मस्तिष्क में धारण करना होगा कि हम मन से अथवा तन से जो भी कार्य करते हैं, वह उस दिव्य-शक्ति से छुपा नहीं है। कोई और देखे न देखे, समझे न समझे, ईश्वर सब देख रहा है, सुन रहा है और समझ भी रहा है। यह ध्यान रखना चाहिए कि हमारा वर्तमान प्रारब्ध, हमारे पूर्व कर्मों की प्रतिक्रियाओं का संचित कोष है। और वर्तमान में हम जो फल प्राप्त करने वाले हैं वह हमारे वर्तमान कर्मों एवं वर्तमान प्रारब्ध (पूर्व-संचित) का गुणनफल है; अगले जन्म का प्रारब्ध इसी फल पर निर्भर करेगा। अतः गणितीय रूप से..., कर्मxप्रारब्ध = फल अर्थात् कुल मिलाकर हमने जो किया, जो पाया और अंततः जो मनःस्थिति बनी, जो संस्कार हमने निर्माण किए. ... यही वर्तमान फल अगले जन्म का पूर्व-नियत प्रारब्ध होगा और आगामी कर्मों के साथ गुणा होकर फल प्रदान करेगा। तत्पश्चात् प्राप्त किया फल पुनः, और अगले जन्म का पूर्व-नियत प्रारब्ध बन जायेगा और उस जन्म के कर्मों के साथ गुणा होकर फल प्रदान करेगा। तो यह क्रम क्रमशः जन्म दर जन्म चलता ही जायेगा। तो हमें अभीष्ट क्या है?, उत्तम फल ...। उत्तम फल की प्राप्ति चूँकि प्रारब्ध और कर्म पर निर्भर है, तथा प्रत्येक वर्तमान में प्रारब्ध तो पूर्व-निर्मित है, तो जो हमारे पास अब बचता है, वह है - कर्म। हम कर्म की मात्रा व गुणवत्ता को बढ़ा कर अधिक व अच्छा फल प्राप्त कर सकते हैं। यह भी साधना का एक रूप है। अब प्रश्न यह उठता है कि कर्म-वृद्धि किस प्रकार करें?

कर्म-वृद्धि से तात्पर्य केवल अधिक कार्य ही नहीं, वरन सत्कार्य, सदाचरण व धर्माचरण करना है। हमारे द्वारा किया जाने वाला कार्य अब उत्तम ही हो, इसके लिये हमें और अधिक मानसिक बल, आध्यात्मिक बल सात्त्विकता व आत्मिक बल की आवश्यकता पड़ती है। यह सब हमें प्राप्त हो, इसके लिये कुछ स्थूल या मानसिक साधना की आवश्यकता पड़ती है, जैसे - ईश्वर भक्ति, भजन, यथोचित स्थूल कर्मकांड, नामजप, आदि। तो अब यह प्रश्न उठता है कि पूजा-भक्ति व नामजप आदि किस प्रकार से, या किसका किया जाये? वस्तुतः सभी देवी-देवता एक ही ईश्वर के अनेक रूप हैं, समयानुसार, आवश्यकतानुसार, मानवहितार्थ संभवतः ईश्वर अनेक जन्म लेते गए होंगे, अतः हमें किसी भी रूप को श्रेष्ठतम या किसी भी रूप को तुच्छ नहीं समझना है। पर पारिवारिक संस्कारों या हमारे आस-पास के समाज के कुछ प्रभाव के कारण ईश्वर के किसी एक रूप की ओर सहज ही हमारा कुछ झुकाव तो होता ही है। तो आरंभ में उसी अनुसार ही किसी एक रूप का सच्चे मन से नामजप करना चाहिए, साथ ही उसके रूप व विशेषताओं को स्मरण करना चाहिए। और यदि आप एक निर्गुण उपासक हैं, तो एक परम शक्ति को तो मानते ही हैं, उसी का ध्यान करें। धीमी आवाज में या मन ही मन नामजप या ध्यान जिस समय भी संभव हो, करते रहे। उस समय आपके भीतर आपके आराध्य के प्रति पूर्ण समर्पण का भाव व कृतज्ञता होनी आवश्यक है अन्यथा नामजप का कोई अर्थ नहीं होगा। केवल दिखावे के लिए नामजप करना बेकार है। भावपूर्ण नामजप हो तभी उसका कुछ लाभ है। इस साधना से हमें जो प्रेरणा व आध्यात्मिक बल मिलेगा, उसकी सहायता से हम अन्य साधनायें भी भली-भांति करने में समर्थ होंगे।

अन्य साधनाओं में सर्व प्रथम आती है, अपने-आप में निरंतर सुधार की साधना यानी अपने मन को अहम्-रहित, स्वच्छ, निष्कपट, निर्मल, निष्पक्ष, धैर्यवान और सौम्य बनाने की चेष्टा करना एवं ऐसे ही विचारों के साथ उत्तम कार्य करना। तो यह साधना कैसे आरंभ हो, इसके लिए एक बहुत आसान सा मार्ग है कि सुबह से लेकर शाम तक आप विभिन्न क्रिया-कलापों में व्यस्त रहते हैं, बीच-बीच में नामस्मरण आदि भी करते रहते हैं, परन्तु रात में जब आप सोने लगते हैं तो वह समय ऐसा होता है कि आप कुछ सोच सकते हैं। रात्रि में सोने से पूर्व, एकांत में, लेटे-लेटे ही आप दिन भर के कार्यों या घटनाओं के बारे में पुनः सोचिये। विचार कीजिये कि आज मैंने दिन भर क्या उत्तम कार्य किया और कौन-कौन सी गलतियाँ कीं। यदि आप स्वच्छ व निष्पक्ष रूप से चिंतन करेंगे तो आपका अंतर्मन ईमानदारी से आपको सब कुछ बताएगा। परन्तु केवल चिंतन मात्र से ही कुछ नहीं होगा। आप अपनी गलतियों को भविष्य में न दोहराने और अपनी कमियों या बुराइयों को धीरे-धीरे समाप्त करने का दृढ़ संकल्प लेंगे और ऐसा वस्तुतः करेंगे ही, तब ही यह साधना पूर्ण हो पायेगी। इस साधना से आप स्वयं के मन एवं कार्यों को परिष्कृत कर आध्यात्मिक उन्नति की और अग्रसर होंगे।

हमें यह भली-भांति समझ लेना चाहिए कि ईश्वर हमसे केवल अपने नामस्मरण की चाहत नहीं रखता, वह केवल अच्छे विचारों व कार्यों की अपेक्षा रखता है। नामस्मरण तो हम अपना भाव-निर्माण करने व मानसिक रूप से मजबूत बनने के लिए करते हैं। वस्तुतः ईश्वर कोई तानाशाह, अहंकारी, और अपनी ही प्रशंसा या गुणगान सुनने का आदी राजा नहीं है। वह तो कोमल हृदय, निष्पक्ष राजा है, जो अपनी प्रजा को भी ऐसा ही देखना चाहता है। अतः साधना में नामजप का प्रयोजन केवल ईश्वर को प्रसन्न करना ही नहीं, वरन भाव-निर्माण, भाव-वृद्धि, इच्छा-शक्ति एवं मानसिक बलिष्ठता बढ़ाने हेतु है। इससे हमारे भीतर एक प्रेरणा-स्रोत जन्म लेता है, जो हमारी हर प्रकार की साधना के क्रियान्वयन में सहायक सिद्ध होता है। धैर्य एवं सौम्यता का विकास करता है, सात्त्विक गुण उत्पन्न करता है। अपने समस्त अवगुणों को आत्म-चिंतन, आत्म-मंथन तत्पश्चात् कर्म द्वारा धीरे-धीरे जड़ से समाप्त करना, यह भी एक प्रकार की साधना ही है। केवल अपने गुणों को देखकर इन पर आत्ममुग्ध होने की आवश्यकता नहीं है। दूसरे के गुणों को भी सदैव देखिये, सदैव उनका अवलोकन कीजिये। अन्यों के गुणों को भी आत्मसात् करने का प्रयास होना चाहिए। इसी प्रकार अन्यों के धर्म, संस्कृति, समाज, देश आदि को भी अपने से तुच्छ न समझते हुए उनका अध्ययन व अवलोकन कर उनके गुणों को भी आत्मसात् करना चाहिए। कभी भी कुछ भी श्रेष्ठतम नहीं हो सकता ईश्वर के अतिरिक्त; यह बात सदैव ध्यान में रखनी चाहिए। अतएव अपने हर गुण को परिष्कृत व परिमार्जित कर, उसे श्रेष्ठ से और अधिक श्रेष्ठ बनाने की कोशिश सदैव करनी चाहिए।

जिस प्रकार शरीर के विकास व उन्नति के लिए हमें नियमित रूप से भोजन की आवश्यकता पड़ती है, उसी प्रकार सूक्ष्म के विकास और उन्नति के लिए हमें उपरोक्त तरह की साधनाओं की आवश्यकता पड़ती है। यदि हम दो दिन भी भोजन नहीं करते तो हमारा शरीर शिथिल पड़ने लगता है; वैसे ही उचित साधना के अभाव में हमारे सूक्ष्म का पोषण भी रुक जाता है और वह शिथिल होने लगता है। उचित साधना का अभाव ही तो आज विश्व में ईश्वरीय राज्य न दिखाई देने का कारण है। इसी के अभाव के कारण ही आज हर जगह भ्रष्टाचार, कुःशासन, अराजकता का ही बोलबाला है। अतः स्वयं भी साधना प्रारंभ करें व दूसरों को इसके लिए प्रेरित करें, क्योंकि हम एक सामाजिक प्राणी हैं। अपनी प्राचीन भारतीय संस्कृति को जीवित रखते हुए दूसरों के भी विचार अवश्य सुनें, उनमें से श्रेष्ठ एवं तार्किक बातें अपनाएं भी। अर्थात् एक ही परिपाटी पर चलने के बंधन में न पड़ते हुए, स्वयं के भीतर निष्पक्ष दृष्टिकोण एवं लचीलापन लाते हुए, अपने आप को परिष्कृत करने की सदैव चेष्टा करते रहे। यह भी हमारा अहम्-भाव कम करेगा।

चूँकि मैं पहले भी बारम्बार यह दोहरा चुका हूँ कि ईश्वर के अतिरिक्त और कुछ भी श्रेष्ठतम नहीं, अतः जहाँ कहीं भी आप मेरे विचारों से असहमत हों, वहाँ संशोधन कर सकते हैं। क्योंकि किसी अवगुण या कमी को जान कर भी उसे बिना संशोधित किये पुरानी परिपाटी पर ही आँख मूँद कर चलना बुद्धिमत्ता नहीं है। निज-स्वार्थ रहित और अहंकार रहित मन से जब कोई संशोधन किया जाता है तो वह संशोधन उस विषय को और अधिक श्रेष्ठ ही बनाता है।

कुछ पहले हमने बात की थी, दूसरों को भी साधना के लिए प्रेरित करने की अर्थात् समष्टि साधना की; तो उसमें एक बात छूट गयी थी - सत्संग की। सत्संग का अर्थ मात्र प्रवचन, श्रवण करना ही नहीं है, बल्कि आप सत्संग में कुछ और साधकों के साथ भी बैठते हैं, तो एक-दूसरे की साधना-पद्धतियों, अनुभूतियों आदि से भी परिचित होते हैं, विचार-विमर्श भी होता है। इससे आत्ममंथन बढता है, तथा आत्मज्ञान और अधिक बढता है। अध्ययन और प्रवचन-श्रवण से सम्बंधित एक और बात है, जो मैं आपको एक उदाहरण द्वारा बताता हूँ -- हम सब लोगों को भूख लगती है, तो हम खाना खाते हैं। इधर-उधर घूमने जाते हैं अलग-अलग प्रदेशों में, तो वहाँ भिन्न-भिन्न प्रकार के व्यंजन खाते हैं। कुछ व्यंजन हमें पसंद आते हैं तो कुछ नहीं। जब हम घर वापस लौटते हैं तो चखे हुए उन व्यंजनों में से कुछ को, जो हमें अच्छे लगे थे, अपने घर पर भी बनाते हैं। और धीरे-धीरे वे व्यंजन हमारे खान-पान में शामिल हो जाते हैं। इसी प्रकार अब बात करते हैं - भूख व हाजमे की। किसी की भूख दो रोटी खाने पर बुझ जाती है, कोई चार रोटी खाता है, तो कोई छः। इसी प्रकार, किसी को चना या राजमाह जैसी कठोर दालें भी हजम हो जाती है, तो कोई मूंग जैसी हल्की दाल भी नहीं पचा पाता है, या सिर्फ खिचड़ी ही पचा पाता है। ... यही सब बातें साधना के अध्ययन व प्रवचन-श्रवण भाग पर भी लागू होतीं हैं। अर्थात् हमें सभी धर्मों, समाजों और गुरुओं के प्रवचन का श्रवण निष्पक्ष भाव से करना चाहिए। जो बातें हमें अच्छी लगें, वे अवश्य अपनानी चाहियें। इससे हमारे विचारों का भण्डार व उनकी श्रेष्ठता बढ़ेगी। अब बात करें भूख की, तो जितने प्रकार के लोग उतने प्रकार की भूख। कुछ का पेट पंद्रह मिनट प्रवचन सुनने से ही भर जाता है, कुछ तीस मिनट तक सुन सकते हैं, कुछ दो घंटे, कुछ बारह घंटे, तो कुछ कई दिन तक लगातार भी। तो उतना ही खायें जितना हजम हो जाये, अन्यथा बीमार पड़ जायेंगे। अर्थात् उतना ही श्रवण-चिंतन करें जितना आपका मस्तिष्क सह सकता है। प्रवचन आदि में किसी के दबाव या झिझक के मारे जबरदस्ती न बैठे रहें, अन्यथा आपके मानसिक स्तर की क्षमता से अधिक आत्मसात् करने का प्रयास में आप दिग्भ्रमित हो सकते हैं, मानसिक संतुलन भी खो सकते हैं। यदि आप किसी ऐसे स्थान पर हैं जहाँ बीच में उठना आपको शिष्टाचार के विरुद्ध लगता है, तो आप शब्दों पर अधिक ध्यान न देकर मन ही मन केवल नामस्मरण आदि ही करें। अब बात आती है हाजमे की, तो सत्सगों में कभी सरल विषय पर तो कभी दुरूह विषयों पर व्याख्यान होते हैं, ... तो जिस श्रेणी का व्याख्यान आपको आसानी से समझ में आये, वह ही आत्मसात् करने का प्रयास करें। अतः आरंभ के दिनों में सत्संग में अपनी भागेदारी अपने स्वाद, भूख व हाजमे के अनुसार ही करें। कालांतर में अभ्यास से, साधना से धीरे-धीरे सत्संग व प्रवचन के प्रति आपके स्वाद, भूख एवं हाजमे में निरंतर निखार आता जायेगा और आप अधिक श्रेष्ठता की ओर अग्रसर होते जायेंगे।

इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि साधना के किसी प्रचलित दुरूह मार्ग अपनाने से श्रेयस्कर है कि आरम्भ में व्यर्थ के झमेलों में पड़े बिना, ऊपर सुझाये अनुसार साधना के लिए कुछ अत्यंत सरल तरीके अपनाएं जायें और प्रगति प्रारंभ होने पर आवश्यकता एवं समयानुसार स्वयं या दूसरे के विवेक से साधना मार्गों को और अधिक श्रेष्ठ बनाने की चेष्टा की जाये, बिना स्वार्थ व अहंभाव के। क्योंकि शरीर के पोषण एवं उन्नति के लिए भी हम अत्यंत सरल एवं पोषक भोजन का सेवन पसंद करते हैं, उसी प्रकार हमारा मुख्य ध्येय होना चाहिए - हमारी आत्मा यानी सूक्ष्म का विकास एवं प्रगति सरलता व शीघ्रता से हो, हमारे अवगुणों का शीघ्र नाश हो, और हम सत्कर्म, सदाचरण व धर्माचरण में जुट जायें, जिससे हमें असली आनंद की अनुभूति हो सके। हम एक-एक सीढ़ी चढ़ कर सरलता से ऊपर पहुँच सकते हैं, पर यदि हम उछल कर अनेक सीढियां एक साथ चढ़ने की चेष्टा करेंगे, तो हम गिर भी सकते हैं और पुनः वापस धरातल पर पहुँच सकते हैं। मूलतः यही सिद्धांत साधना का भी होना चाहिए या है ही। सर्वप्रथम आवश्यकता है भाव-जागृति की, इसके बाद भाव-उन्नति की। दृढ़ इच्छा-शक्ति व प्रतिबद्धता के साथ चरण-बद्ध साधना करने से हम शीघ्र प्रगति करेंगे एवं अवश्य ही अलौकिक आनन्द को प्राप्त करने में सफल होंगे।

(मेरी डायरी का शैशवकाल) -- (१०) कुछ और लहरें ...

ज्ञानी लोग कहते हैं कि आत्मा, परमात्मा का ही एक अंश है। इसी अवधारणा को ध्यान में रखते हुए यह कहा जा सकता है कि ईश्वर तो एक ही है, पर विभिन्न युगों में जब भी किसी विलक्षण प्रतिभा के धनी व्यक्ति ने समाज सुधार, समाज उत्थान या किसी वैचारिक क्रांति को जन्म दिया, या किन्हीं उपद्रवी शक्तियों का, दुर्जनों का अंत किया, तो वह व्यक्ति उस समय का भगवान् कहलाया। इसी प्रकार एवं इसी आधार पर ईश्वर के अनेक रूपों की परिकल्पना की गयी। अर्थात् ईश्वर एक ही है - निर्गुण, निराकार, परब्रह्म; पर उपरोक्त धारणा के कारण ईश्वर के इतने रूपों की रचना या परिकल्पना संभव हुई। पीड़ित लोगों के संकटमोचन व्यक्ति को तत्कालीन लोगों ने ईश्वर का रूप बताया, और अति सरल स्वभाव होने के कारण हमारे तत्कालीन पूर्वज उस विलक्षण व्यक्ति को कृतज्ञता-पूर्वक पूजने लगे। कालांतर में संभवतः ऐसे विलक्षण व्यक्तित्व ही ईश्वर के विभिन्न अवतारों के रूप में जाने गए।

चूँकि समय बदलने के साथ-साथ लोगों की सरलता कम हुई है, और मानव अब बुद्धि से कुछ अधिक ही काम लेता है, अतः अब काफी समय से ईश्वर किसी अन्य नए रूप की अवधारणा नहीं बन पायी है। अब उसका स्थान युग-पुरुष जैसे अलंकरणों ने ले लिया है। ईश्वर एक ही है - निर्गुण, निराकार, निर्विकार, परब्रह्म। इसकी पुष्टि इस काल के एक युग-पुरुष स्वामी विवेकानंद जी भी करते हैं, पर वे सगुण उपासना या मूर्ति-पूजा के भी विरोधी नहीं। उनके अनुसार, "मूर्ति-पूजा कोई गलत नहीं। मूर्ति-पूजा दुर्बल साधकों को भी धर्म के उच्च भावों का आंकलन करने के लिए समर्थ बनाती है।" ... वैदिक धर्म में मूर्ति-पूजा विहित नहीं थी। साधारण मानव को अमूर्त, निर्गुण, निराकार परमेश्वर की उपासना कठिन जान पड़ता था इसलिए सगुण साकार परमेश्वर की उपासना करने वालों को मूर्ति की आवश्यकता जान पड़ी और उन्होंने मूर्ति-पूजा के मार्ग का अनुसरण किया। उपनिषदों में तो मात्र परब्रह्म की कल्पना दृढ़ कर उसी का निज-ध्यास ही पूजा का स्वरुप बन गया था। अर्थात् उपनिषदों में निर्गुण, निराकार, अमूर्त, अदृश्य, शब्दातीत ईश्वर की उपासना बताई गयी है। कालांतर में आर्यों व अनार्यों की मिश्रित अवधारणाओं से ही हिन्दू धर्म का उदय हुआ, तभी से विभिन्न रूपों में मूर्ति-पूजा एवं देव-पूजा आरम्भ हुई।

तो ऊपर दिए गए उदाहरणों से एक निष्कर्ष तो निकलता ही है कि ईश्वर के तैंतीस करोड़ रूप मात्र कोरी कल्पना नहीं हैं। वे तो उस समय के युग-पुरुष थे। तब वे युग-पुरुष ईश्वर अवतार कहलाये थे। और आज के युग में संकटमोचन, अतिप्रतिभाशाली व्यक्ति युग-पुरुष कहलाते हैं, जैसे - महात्मा गाँधी जी, स्वामी विवेकानंद जी, शिवाजी आदि।

अतः यदि हम तटस्थ एवं तार्किक दृष्टिकोण से सोचें, तो सभी देवी-देवता हमारे तत्कालीन युग-पुरुष थे और आज भी वन्दनीय होने चाहियें। उनका किसी भी प्रकार से उपहास करना निंदनीय है। निःसंदेह वे सब हमारे पूज्यनीय हैं। आज भी हम देखते हैं कि कोई व्यक्ति, जो बहुत अनैतिक कार्य करता है, दुष्ट है, अत्याचारी है, भ्रष्ट है, उसे लोग यही कहते हैं कि यह तो राक्षस (असुर) है; और मन ही मन यह प्रार्थना करते हैं कि हे ईश्वर इस दुष्ट राक्षस का अंत करो। और जब कोई वास्तव में उस दुष्ट का अंत करता है, तो लोग ईश्वर की भांति उसे पूजते हैं। इसका ज्वलंत उदहारण कुछ वर्ष पहले मिली आजादी है। एक समय अंग्रेजी सरकार के गुलाम भारतीयों के लिए अंग्रेज, अत्याचारी राक्षस या असुर का ही रूप थे। और स्वतंत्रता संग्राम के नायक जैसे - शिवाजी, रानी लक्ष्मीबाई, महाराणा प्रताप, भगत सिंह, चंद्रशेखर आजाद, लाला लाजपत राय, सुभाषचन्द्र बोस, गाँधी जी व ऐसे ही अनेक कई और स्वतंत्रता-सेनानी, जनसाधारण के लिए देवता समान थे। वे इस युग के युग पुरुष कहलाये और हमेशा हमारे लिए पूज्यनीय व वन्दनीय रहेंगे। इसी प्रकार प्राचीन काल में भी घटनाएं होती होंगी। तब भी दुर्जन, अत्याचारी, विध्वंसक लोग होंगे ही; और वे ही तत्कालीन असुर, राक्षस, दैत्य आदि कहलाये। और उनसे मुक्ति दिलाने वाले महा योद्धा, महा-पुरुष, युग-पुरुष आदि हमारे देवताओं की सूची में शामिल हो गए। और इस प्रकार वे सब देवी-देवता हमारे लिए पूजनीय ही हैं और सदैव रहेंगे। चूँकि यह कहा जाता है कि आत्मा, परमात्मा का ही एक अंश है, अतः हमारे सभी देवी-देवता ईश्वर का रूप कहलाये।

और सत्य यह भी है कि परमात्मा, जिसका एक छोटा सा अंश हम भी हैं, वह निर्गुण, निराकार ही है। वही समस्त जीवों को चला रहा है अर्थात् प्रत्येक जीवित वस्तु जैसे - मानव, जीव-जंतुओं, वनस्पतियों, आदि के भीतर जीवन होने, उनके चलायमान होने, उनके बढ़ने और अंततः उनके समाप्त होने के पीछे केवल वह ही है। उसकी सृष्टि में सब कुछ नियम-बद्ध है। हम सब भी प्रकृति या परमात्मा के नियमों में बद्ध हैं। उदाहरण के लिए -- "परमात्मा इस विश्व-रूपी विद्यालय का प्रधानाचार्य है; विद्यालय के कुछ पूर्व-निर्धारित नियम हैं; हम सब इस विद्यालय के छात्र-छात्राएं, शिक्षक व अन्य कर्मचारी हैं; हम सब विद्यालय के नियमों में बद्ध हैं व प्रधानाचार्य भी। नियमों के अंतर्गत हम सब के कुछ न कुछ कर्तव्य हैं। प्रधानाचार्य का भी कुछ कर्तव्य है; वह है कि यह देखना कि सब कुछ नियमानुसार हो, नियमानुसार अनुशासन बना कर रखना। ऐसा भी होता है कि कभी किसी को दंड मिलता है, तो किसी को परितोष, और कभी किसी को विद्यालय से निष्काषित करने तक की नौबत भी आ जाती है। अलग-अलग निर्णयों का कारण प्रधानाचार्य का पक्षपाती होना नहीं है, वरन वह तो नियमों से बद्ध होने के कारण कर्तव्य रूप में यह सब कर रहा है। नियमों से तो अन्य लोग भी कमोवेश परिचित ही हैं, और उन्हीं नियमों के अनुसार या विपरीत कार्य करने पर ही वे सब परितोष के अधिकारी या दंड के भागी हो रहे हैं।" ... तो इसी उदाहरण के अनुसार ही परमात्मा को इस ब्रह्माण्ड में हो रही हर गतिविधि की जानकारी है। कुछ भी उससे छुपा नहीं है। वर्तमान कर्मों को, आचरण को वह भली-भांति देख रहा है। और उन्हीं कर्मों के अनुसार हम इस जन्म में या आगामी जन्मों में परितोष या दंड प्राप्त करते हैं। तो हमारे कार्य उत्तम ही हों इसके लिए आवश्यक है कि हमारे विचारों का शुद्धिकरण हो। हम पारदर्शी, निष्कपट, सरल, द्वेष रहित, अहंकार रहित विचार अपने भीतर विकसित कर सकें तो निश्चित रूप से हमसे अच्छे कार्य ही संपादित होंगे। अर्थात् ईश्वर केवल नामजप करने से नहीं, वरन सद्कार्यों से प्रसन्न होता है। वर्तमान में ईश्वर ने हमें यह स्थूल भौतिक देह दी है, और इस देह से ईश्वर को अपेक्षा है - केवल अच्छे कार्यों की।

अतः यहां पुनः दोहराया जा सकता है कि वर्तमान जीवन में प्रारब्धवश जो घटनाएं होती हैं अर्थात् जिन घटनाओं पर हमारा कोई भी अंकुश नहीं है, वस्तुतः ऐसी घटनाओं या प्रारब्ध के लिए हमारे पूर्व कर्म ही जिम्मेदार हैं, परमात्मा नहीं। क्योंकि हम जानते हैं कि हमारे कर्मों रूपी क्रियाओं से उपजा प्रतिक्रियात्मक कोष ही प्रारब्ध है। अतः वर्तमान में अपने क्रियमाण कर्म द्वारा हम जो संचित करेंगे, धनात्मक या ऋणात्मक, उसी के अनुसार हमें आगे भोगना पड़ेगा। अतः कर्म ही सर्वोपरि हुआ। अच्छा हो कि हम प्रकृति या परमात्मा के शाश्वत नियमों को ध्यान में रख कर ही कर्म करें और किसी त्रासदी के लिए भगवान् को जिम्मेदार न ठहरायें। इति।