Wednesday, April 1, 2009

(५) रिलीजन, धर्म, संस्कृति ...


(रिलीजन, धर्म, संस्कृति ...) पृष्ठ-१

अंग्रेजी शब्दकोष में रिलीजन (religion) शब्द का अर्थ मिलता है - prevailing system of faith in and worship of. अर्थात् विश्वास (आस्था) और पूजा का प्रचलित तरीका। संभवतः अमुक रिलीजन, किसी अमुक समुदाय या संघ के ईश्वरीय विश्वास, आस्था और पूजा के आंतरिक व वाह्य (सूक्ष्म व स्थूल) आचारों-विचारों का सम्मिलित रूप है। अर्थात् उस समुदाय की विभिन्न स्थूल-सूक्ष्म उपासना पद्धतियाँ, ईश्वर के साकार-निराकार नाम एवं रूप, कर्म-काण्ड, तीज-त्यौहार व पारंपरिक उत्सव आदि उसमें शामिल हैं। यह सब समुदाय दर समुदाय भिन्न-भिन्न होता है, अतः यही कारण है कि विश्व भर में इतने सारे रिलीजन हैं। जबकि धर्म / धार्मिकता शब्द का अंग्रेजी भाषा में समानार्थी शब्द है - righteousness. अर्थात् सत्यनिष्ठा, योग्य एवं न्यायपूर्ण आचार-विचार। संभवतः हिन्दू शास्त्रों या तत्त्वज्ञान के अनुसार भी धर्म का कमोवेश यही अर्थ निकलता है, इसलिए हिंदी शब्द 'धर्म' का अंग्रेजी में अनुवाद रिलीजन (religion) बिलकुल गलत है। हमारे पहले के अध्ययन से भी यही निष्कर्ष निकला था कि आत्मानुभूति ही धर्म है। धर्म तो प्रत्येक जगह पर एक ही है। अतः विभिन्न रिलीजनों में इसके भिन्न-भिन्न होने का प्रश्न ही नहीं उठता। जबकि अन्य स्थूल-सूक्ष्म अनुष्ठानों को हम अंग्रेजी में 'religious activities' या 'religious rituals' कह सकते हैं। .... एक दूसरे को अपनी बात संप्रेषित करने के लिए हमारे पास भाषा व शब्दों की सीमितता है, और जब विषय अनुभूति से सम्बंधित हो तो मुश्किल और भी बढ़ जाती है। अतः इस विषय को हम आगे धीरे-धीरे असहाय शब्दों के माध्यम से जारी रखेंगे।

वर्तमान में हिंदी भाषा में 'रिलीजन' के समानार्थी कोई शब्द नहीं है। प्राचीन भारत में पहले 'धर्म' शब्द में सब निहित हो जाता था। अर्थात् पहले 'धर्म' शब्द का अर्थ 'रिलीजन' शब्द के बहुत निकट था। पर कालांतर में, ज्ञान की अगली कक्षाओं या अवस्थाओं में पहुँचने पर पता चला कि आत्मानुभूति ही सही मायनों में धर्म है, यही righteousness है। आज धर्म या righteousness शब्द से तो सभी परिचित हैं परन्तु आत्मानुभूति से नहीं, जो धर्म या righteousness तक पहुँचने का मूल कारण है। चूँकि इतना वृहद सूक्ष्म आध्यात्मिक ज्ञान सहज ही हम भारतीयों को विरासत में मिला है आत्मानुभूति के ज्ञान के रूप में; अतः इस बदलते दौर में हम इसको मात्र आधुनिक शब्द 'रिलीजन' के दायरे में नहीं जाने दे सकते। यदि कोई नया शब्द 'रिलीजन' सृजित हुआ है तो प्राचीन 'धर्म' की केवल वही बातें 'रिलीजन' शब्द के अंतर्गत जायेंगी, जो उस शब्द के भावात्मक अर्थ की परिधि में आतीं हों। अर्थात् समस्त वाह्य आचार-विचार हम 'रिलीजन' शब्द में स्थानांतरित कर सकते हैं। ध्यान रहे कि शब्दों का, भाषा का महत्त्व मात्र भाव-भावनाएं समझने-समझाने के लिए है, अतः उनसे मोह उचित नहीं। वैश्वीकरण के इस दौर में विभिन्न संस्कृतियों व भाषाओँ के आपस में घुल-मिल जाने से कई शब्दों के अर्थ बदल चुके हैं व कई के बदल रहे हैं। हमें भी वैश्वीकरण के इस दौर में अपने को लगातार 'अपडेट' रखने की आवश्यकता है। यदि हम जिद में आ जाएँ कि हम तो अभी भी अपने 'धर्म' शब्द को उसी 'प्राचीन अर्थ' में ही प्रयुक्त करेंगे, तो हम अपनी बात, खरे धर्म की बात, अन्यों को नहीं समझा पायेंगे। 'यह विश्व ही मेरा घर है' के अनुसार हमें लचीलापन लाना ही पड़ेगा। मत भूलिए कि शब्द, भाषा आदि मात्र माध्यम हैं अपने विचार संप्रेषित करने हेतु। बाद में तो सब बंधुओं को आत्मिक स्तर पर आना ही है, तब भाषा की कोई समस्या नहीं रहेगी।

ऐसे ही 'संस्कृति' या culture शब्द भी बहुत पुराना नहीं है। हमारे "समस्त वाह्य आचार" जैसे - भाषा, रहन-सहन, वेशभूषा, तीज-त्यौहार, रीति-रिवाज आदि इस शब्द की परिधि में आ जाते हैं। एक तरह से 'रिलीजन' भी इसी में आ जाता है। 'रिलीजन' के लिए हम 'पंथ' शब्द प्रयुक्त कर सकते हैं।

(रिलीजन, धर्म, संस्कृति ...) पृष्ठ-२

ऊपर हमने जो विश्लेषण किया, वह कोई नया नहीं है। सभी समझदार (?) लोग जानते हैं। परन्तु फिर भी हममें व्यापकता का अभाव है। हम सब कुएं के मेंढक हैं, अधिक से अधिक तालाब के मेंढक बन जायेंगे, पर समुद्र में जाने से हमें भय लगता है। भय इस बात का, कि हम अपनी व्यक्तिगत पहचान खो देंगे। विज्ञान और अध्यात्म की दुनिया या शिक्षा का यही बुनियादी फर्क है कि विज्ञानी व्यापक बने, पर तथाकथित आध्यात्मिक व्यक्ति अपने खोलों (shells) में ही रह गए। कारण हैं - ईर्ष्या, द्वेष, स्वार्थ व इन सब से बढ़ कर अहंकार। कई प्राचीन ग्रन्थ भी नियम, उपदेशों व आलोचनाओं का संमिश्रण हैं। कहीं वे सदाचार, आपसी प्रेम, सौहार्द और प्रीति के लिए प्रेरित करते हैं और कहीं घृणा, द्वेष, जलन, वैमनस्य फैलाते दीखते हैं। मेरे विचार से घृणा, द्वेष, जलन, वैमनस्य आदि गुणधर्म परमेश्वर के नहीं हो सकते। परमेश्वरीय शब्दकोष में इनका कोई स्थान नहीं। अतः यदि किसी ग्रन्थ में ऐसे शब्दों का उल्लेख या इस प्रकार के अवगुण दीखते हों, तो निश्चित ही वह ग्रन्थ परमेश्वर की प्रेरणा द्वारा रचित नहीं हो सकता।

क्योंकि यह एक शाश्वत सत्य है कि कोई भी अपनी स्वयं की श्रेष्ठता दूसरे की आलोचना या बुराई करने से नहीं सिद्ध कर सकता। अपनी अच्छाई या श्रेष्ठता हम केवल स्वयं के कार्यों के द्वारा ही प्रस्तुत कर सकते हैं। तो फिर असली परमेश्वर आलोचना या बुराई करने वाला हो ही नहीं सकता। यदि किसी ग्रन्थ में अन्य पंथों की व उनके इष्टों की द्वेषपूर्ण आलोचना दिखाई पड़ती है, तो निश्चित ही वह ग्रन्थ किसी अपरिपूर्ण मनुष्य ने ही लिखा है।

पर देखा जाये तो यह सब महत्त्वपूर्ण नहीं कि कौन सा पंथ या उसका ग्रन्थ मौलिक है और कौन सा नहीं। इससे तो व्यर्थ की बहस ही बढ़ेगी। फिर भी देखने में आता है कि धर्म (रिलीजन) या ग्रंथों की मौलिकताओं के लिए बहस और झगड़े होते रहते हैं, क्योंकि लगभग प्रत्येक मानव अहं का शिकार है। हमारे लिए महत्त्वपूर्ण यह है कि हम ईमानदारी से स्वयं के चैतन्य को जागृत करें, तो हमें स्वयं ही पता चलेगा कि परमेश्वर को सबसे पहले हमसे क्या अपेक्षित है?

लगभग सभी धर्मी लोगों को भीतर से, अपने चैतन्य से यही जवाब आएगा कि अच्छे कर्म, उदारता, सत्य-निष्ठा, नम्रता व अन्य सभी नैतिक गुण; पहले पायदान पर परमेश्वर हमसे इन्हीं सब की मांग करता है। वर्तमानकाल में हम परमेश्वर की इस प्रथम अपेक्षा पर तो खरे उतरते नहीं, और अन्य आचरणों जैसे - मूर्तिपूजा, ग्रन्थ-विश्वसनीयता, इतिहास आदि पर पहले बहस करने लगते हैं। यह सब हमारे खोखले अहं का द्योतक है। वैचारिक प्रौढ़ता का अभाव दर्शाता है यह सब। अधिकांश धार्मिक पंथ या समुदाय आज अपनी-अपनी श्रेष्ठता साबित करने के लिए आपस में तर्कों की लड़ाई लड़ रहे हैं। शायद कोई पंथ इन तर्कों की लड़ाई जीत भी जाये, क्योंकि जब भी इस प्रकार की बहस या तर्क-वितर्क होते हैं, तो अंततः कोई एक पक्ष कमजोर पड़ता ही है तर्कों की कसौटी पर। इस प्रकार तर्कों की लड़ाई जीत कर क्या हम धार्मिक हो जाते हैं? ... सत्य तो यह है कि इस प्रकार के झगड़ों-झमेलों से हम आध्यात्मिक रूप से और अधिक कमजोर व खोखले होते जाते हैं। दूसरों को नीचा या गलत दिखाने की प्रवृत्ति हमारे अहंकार को और अधिक बढ़ायेगी ही।

हमारी सबसे बड़ी गलती यह है कि हम 'संस्कृति' और 'धर्म' को एक ही मानते हैं, अर्थात् संस्कृति को ही धर्म का दर्जा देते हैं। जबकि वास्तव में हमारी भाषा, हमारा रहन-सहन, हमारी वेश-भूषा, हमारे त्यौहार, हमारे रीति-रिवाज यानी एक शब्द में कहें तो हमारे समस्त 'वाह्य-आचार' हमारी संस्कृति का हिस्सा हैं, धर्म से इनका कोई लेना देना नहीं।

वास्तविक 'धर्म' तो दूसरों के प्रति हमारी सोच, हमारी भावनाओं और हमारे भावों से प्रकट होता है। तो संस्कृति और धर्म को अलग-अलग परिभाषाओं व पहचान के अनुसार जानने के बाद भी क्या यह उचित होगा कि हम किसी व्यक्ति की धार्मिकता का अंदाजा उसकी संस्कृति से लगायें?? या क्या यह उचित होगा कि किसी व्यक्ति से हम इसलिए घृणा करें, क्योंकि उसकी संस्कृति हमसे अलग है?? विश्व में सबसे अधिक प्रकाशित हुए ग्रन्थ 'बाइबल' के 'नये नियम' में भी परमेश्वर द्वारा सभी जातियों, धर्मों (पंथों) के लोगों के पुनरुत्थान की बात कही गयी है, सभी धर्मी लोगों को अनंत जीवन वचन भी दिया है। तो जब परमेश्वर विभिन्न जातियों, भाषाओँ, संस्कृतियों, पंथों, समुदायों, रीति-रिवाजों आदि में भेद नहीं रखता, तो हम भेद-भाव को बढ़ावा देने वाले कौन होते हैं? परमेश्वर तो केवल लोगों के दिलों की गहराई से जाँच करता है, क्योंकि सच्ची धार्मिकता केवल उसी में वास करती है। ... लेकिन ध्यान देने वाली बात यह है कि 'पुराने नियम' में बहुत सारी ऐसी बातें हैं, जो संभवतः 'नये नियम' से मेल नहीं खातीं। परन्तु 'नया नियम' अपेक्षाकृत काफी बदलाव, नम्रता व लचीलापन लिए है। क्या यह अंतर समय के साथ आयी आध्यात्मिक परिपक्वता (प्रौढ़ता) को नहीं दर्शाता? अनेक हिन्दू ग्रंथों में भी विधि-निषेधों में बहुत से विरोधाभास दिखाई देते हैं। शायद ये विरोधाभास या अंतर कालानुसार नीति-परिवर्तन ही हैं।

(रिलीजन, धर्म, संस्कृति ...) पृष्ठ-३

अतः स्पष्ट हो जाता है कि हमारे वाह्य आचार (बाहरी रहन सहन या जीवन पद्धति) हमारी वास्तविक धार्मिकता को नहीं दर्शाते, बल्कि दूसरों के प्रति हमारे दिल की गहराइयों में छुपी भावना व उसके निर्देशानुसार हमारे कर्म ही हमारी धार्मिकता को प्रकट करते हैं। और सच्चा परमेश्वर केवल यही देखता है। हम असिद्ध इंसानों से उसे प्रथम यही धार्मिकता अपेक्षित है।

एक बात और ... कि परमेश्वर की विभिन्न उपासना पद्धतियाँ भी लोगों की संस्कृति का ही एक भाग हैं। चूँकि परमेश्वर यानी ब्रह्माण्ड की सर्वोच्च सत्ता निर्गुण, निराकार, अदृश्य है, अतः विभिन्न उपासना-पद्धतियाँ केवल माध्यम ही हैं, उस तक पहुँचने के लिए। अतः हमने देखा कि विभिन्न धार्मिक कृत्य तथा कर्मकांड आदि लोगों की संस्कृति का ही एक हिस्सा हैं, तभी तो ये स्थानानुसार व जाति-अनुसार भिन्न-भिन्न होते हैं। ...... बस एक ही चीज पूरे संसार में, सब लोगों में, सब पंथों में, समुदायों में एक सी ही पायी जाती है, वह है एक सर्वोच्च अद्भुत शक्ति को मान्यता, जो अदृश्य व निराकार है, पर सर्वत्र विद्यमान है। ईश्वर या परमेश्वर की इस प्रकार की मान्यता लगभग हर स्थान पर है। ...... एक और चीज पूरे संसार में, सब लोगों में, पंथों में एक सी ही पायी जाती है, वह है यथासंभव विभिन्न नैतिक मूल्यों को अपनाना। ईमानदारी, नम्रता, प्रीति, प्रार्थना, कृतज्ञता आदि गुण हर जगह के मानव को 'नैसर्गिक रूप से' प्रिय हैं, ... यह अलग बात है कि वह इनमें से कितने गुणों को अपनाता है। ...... तथा एक चीज अस्थाई है और सब जगह अलग-अलग पायी जाती है, वह है - ईश्वर के विभिन्न नाम, रूप, उपासना पद्धतियाँ यानी अलग-अलग संस्कृतियाँ।

अतः ईश्वर व धर्म स्थाई व सर्वत्र है तथा सूक्ष्म रूप में एक सा है, पर वाह्य आचार यानी संस्कृतियाँ भिन्न-भिन्न हैं, तथा ये कालानुसार, स्थानानुसार, समुदायानुसार परिवर्तनशील हैं, अस्थाई हैं।

इसी प्रकार से दुनिया में विद्यमान प्रत्येक समुदाय का धार्मिक ग्रन्थ, उस समुदाय विशेष की संस्कृति को चिन्हित करता है मात्र। प्रत्येक समुदाय के धार्मिक ग्रन्थ में उपासना पद्धतियाँ भिन्न हो सकती हैं, ईश्वर के नाम, रूप, रंग भिन्न हो सकते हैं, साकार या निराकार अर्थात् सगुण या निर्गुण की भिन्न अवधारणा हो सकती हैं। ..... पर मूल तत्त्व, मूल सन्देश एक सा है। वह है - साकार या निराकार परमेश्वर को सर्वगुण सम्पन्न, परिपूर्ण व सर्वाधिक सामर्थ्यवान मानना तथा भक्तजनों के लिए भी एक ही सन्देश, कि सबसे पहले धार्मिकता यानी अच्छे, योग्य व न्यायप्रिय आचरण का निर्वाह करने हेतु आह्वान।

(रिलीजन, धर्म, संस्कृति ...) पृष्ठ-४

हाँ लोगों में धार्मिकता को बढ़ाने हेतु विभिन्न समुदायों में विभिन्न कालों में अनेकों उपासना पद्धतियाँ, व्रत-कथा, त्यौहार आदि सृजित हुए, जो तत्कालीन ज्ञानी परन्तु अपरिपूर्ण (क्योंकि परिपूर्ण केवल परमेश्वर ही है) जनों द्वारा आरंभ किये गए। पर वस्तुतः ये सब क्रिया-कलाप, ईश्वरीय गुणों को जानने व आत्मसात् करने हेतु माध्यम या साधन ही थे / हैं, परन्तु ये साध्य नहीं हैं। ये सब कालानुसार, समुदायानुसार भिन्नता लिए हुए थे। धीरे-धीरे ये सब उन समुदाय-विशेष की पहचान या संस्कृति बनते गए। कालांतर में संचार एवं आवागमन साधनों के विकसित होने पर जब विभिन्न क्षेत्रों के लोग एक-दूसरे के संपर्क में आये, तो सभी को इतने पंथों व संस्कृतियों के बारे में पता चला। ... और तब यह स्थिति आ गयी कि अपने पास उपलब्ध ज्ञान को ही प्रत्येक मनुष्य या पंथ सही साबित करने में लग गया और अन्य को झूठा या निम्न। अहं के कारण मनुष्य में लचीलेपन का अभाव हो गया। कट्टरपन के कारण दूसरों से कुछ सीखने की लालसा तो जैसे समाप्त ही हो गयी, बल्कि अपने आप को अधिक बेहतर साबित करने की चाह में अन्यों के प्रति घृणा व वैमनस्य को अधिक बढ़ा लिया। प्रेम व शांति खोती चली गयी।

वास्तव में दूसरे के ज्ञान की भरपूर आलोचना व उसकी अच्छाइयों को सिरे से नकारना ही हमारी सबसे बड़ी गलती है। यदि कोई वास्तव में गलत हो भी, तो बजाए उसको धिक्कारने के क्या यह उचित नहीं कि हम सही (?) बात उसके सामने रखें? धिक्कारने से, घृणा करने से तो वह हतोत्साहित होकर हमसे और अधिक दूर ही जायेगा (क्योंकि कोई भी व्यक्ति अपनेआप को ही सही मानता है )। पर यदि हम बिना धिक्कारे, बिना घृणा किये उससे अपनत्व दिखायेंगे, और अपनी सही (?) बात उससे कहेंगे तो शायद वह तटस्थ भाव से दोनों (स्वयं व दूसरे) के विचारों को तौले और शायद फिर वह दूसरे की विवेकपूर्ण बात मान ले। अनेक समुदायों के वर्तमान साहित्य में मैंने ऐसी ही धिक्कारने वाली व घृणा करने वाली बातों का उल्लेख देखा है। इस प्रकार की बातों का उल्लेख किसी को भी हतोत्साहित कर सकता है नयी मित्रता बनाने के लिए, नयी बातें (ज्ञान) जानने के लिए। ... घृणा परमेश्वर का गुण नहीं हो सकता। परमेश्वर तो अत्यंत व्यापक व नम्र है।

अब हम थोड़ी सी चर्चा विभिन्न संस्कृतियों के अंतर्गत होने वाले कर्मकांडों, त्यौहारों और उत्सवों के विषय में भी कर लेते हैं। ... ये सभी या अधिकांश विभिन्न कालखंडों में तत्कालीन ज्ञानी (परन्तु अपरिपूर्ण) व्यक्तियों द्वारा बनाये गए थे, लोगों को धार्मिकता के लिए उन्मुख करने हेतु। अतः वर्तमानकाल में ये सब अत्यधिक सांसारिक बदलावों के साथ हमारे समक्ष और अधिक अपरिपूर्ण (जीर्ण-शीर्ण) अवस्था में हैं। आज मानव भौतिक रूप से अत्यधिक विकसित हो गया है व और अधिक हो भी रहा है। पर इस भौतिक दौड़ में वह आध्यात्मिक रूप से कमजोर होता जा रहा है। पहली बात तो यह कि उसे अपने आध्यात्मिक विकास की चिंता ही नहीं है, समय ही नहीं है और दूसरी बात यह कि अध्यात्म के क्षेत्र में उसे केवल अपनी ही शेखी बघारने वाले लोग मिलते हैं, सही ज्ञान कोई नहीं देता। वर्तमान में वह अपने पुराने तीज-त्यौहारों को (जिनका स्वरूप वह स्वयं ही बिगाड़ चुका है) ईश्वर की भक्ति या उपासना के तौर पर बस किसी तरह आधे-अधूरे मन से मना रहा है। ... तो उसे तो यही लगता है कि प्राचीन साँस्कृतिक विरासत के रूप में बस यही शेष है उसके पास। अतः इन तीज-त्यौहारों से उसका ऊपरी मोह साधारण मानवीय गुण के अनुरूप ही है। जब अन्य समुदाय उससे यह कहते हैं कि ये तीज-त्यौहार, रीति-रिवाज झूठे धर्मों की उपज हैं, तो उसको यह वाक्य तिरस्कारपूर्ण, घृणापूर्ण लगता है। और यह वाक्य वास्तव में है भी ऐसा ही। किसी के लिए भी उसके पूर्वसंस्कार समाप्त करना, सांस्कृतिक विरासत को तिलांजलि देना इतना सरल नहीं। वास्तव में सही और नेक प्रयास यही होना चाहिए कि कोई भी पंथ या समुदाय अन्य पंथ या समुदायों के मध्य परमेश्वर की प्राथमिक अपेक्षा अर्थात् धार्मिकता (righteousness) का 'प्रसार' करे, निज संस्कृति का 'प्रचार' नहीं। जब कोई व्यक्ति परमेश्वर तक पहुँचने का यह प्रथम लक्ष्य साध्य कर लेगा, तो उसकी अन्य वास्तव में गलत गतिविधियाँ स्वयं बंद हो जायेंगी।

अतः ऊपर हमने जो विभिन्न पंथिक धार्मिक-कृत्यों (साधनों) की बात की थी, तो यह उनकी व्यष्टि साधना का मुद्दा है, इसमें अधिक हस्तक्षेप उचित नहीं। प्रत्येक की कक्षा व स्तर भिन्न होता है। प्राथमिक या बीच की अवस्थाओं में साधना संस्कार-जनित ही होती है, और अधिकांश जन इन दोनों अवस्थाओं में ही होते हैं। इन अवस्थाओं में कृत्यों में परिपूर्णता या यथार्थ-बोध लगभग असंभव है। हाँ, उनको यह भान अवश्य होना चाहिए कि एक कक्षा से अगली कक्षा में जाना आवश्यक होता है। उन्हें यह भान हम मित्रवत् करा सकते हैं। पर फिर भी सही और नेक प्रयास यही होना चाहिए कि हम परमेश्वर की प्राथमिक अपेक्षा यानी धार्मिकता (righteousness) का प्रसार करें। सबके लिए धर्म जानना सहज हो, इसके लिए चैतन्यपूर्ण सरल आध्यात्मिक साधना के लिए प्रेरित करें। नम्रतापूर्वक यह प्रयास करने पर जब उनको थोड़ी-बहुत आत्मानुभूति होनी शुरू होगी, तो उनके अन्य वास्तव में गलत कृत्य स्वयं ही बंद हो जायेंगे। अतः लोगों के गलत या सही धार्मिक कृत्यों (संस्कृति) को धिक्कारना या उनसे घृणा करना विवेकपूर्ण नहीं।

वास्तव में कोई भी संस्कृति अधर्म के लिए उत्तरदायी नहीं, बल्कि उसके कुछ-एक दोष उत्तरदायी हैं, जो समयानुसार आगे की कक्षा में न जाने के कारण उत्पन्न हुए। संस्कृतियों के यह दोष हम तभी दूर कर पायेंगे जब हम प्रेम को बढावा देंगे, घृणा को नहीं। संस्कृतियों के दोष हम धार्मिकता और अध्यात्म का शुद्ध 'प्रसार' करके ही दूर कर सकते हैं, किसी अन्य संस्कृति का 'प्रचार' करके नहीं।

(रिलीजन, धर्म, संस्कृति ...) पृष्ठ-५

विषय को पुनः धर्म और संस्कृति की ओर मोड़ते हैं। 'धर्म' मूलभूत सिद्धांत हैं तथा संस्कृति उनका वाह्य आचार। मूलभूत सिद्धांत सदैव एक थे, एक हैं और एक रहेंगे; परन्तु कृत्य (वाह्य स्वरूप / आचार) सदैव परिवर्तनशील होते हैं। समस्या तब आ जाती है जब हम वाह्य आचारों / कृत्यों को ही धर्म समझने लगते हैं और उन्हें सर्वकाल वैसा का वैसा अपनाने पर जोर देते हैं। हमारी इस प्रकार की सोच हमें रूखा व कठोर बनाती है, हममें लचीलेपन का अभाव हो जाता है। लचीलेपन का यह अभाव हमारे आध्यात्मिक उत्थान को रोकता है तथा आध्यात्मिक उन्नति में बाधक बन जाता है।

इसे और अधिक समझने के लिए हम धर्म की तुलना विज्ञान से करते हैं। संसार में मूलतः दो तत्व हैं जिन्हें हम मुख्यतः अपनाते हैं या जिनका हम प्रयोग करते हैं या जिनके बारे में हम जानते हैं / विचार करते हैं। वे हैं - विज्ञान व अध्यात्म। विज्ञान हमें भौतिक जगत से परिचित कराता है व अध्यात्म हमें 'धर्म' से परिचित कराता है। धर्म के सिद्धांत अटल व अडिग हैं और बहुत से ज्ञानियों को पहले से ज्ञात होते हैं, या वे विभिन्न आध्यात्मिक साधनाओं द्वारा धर्म को जानने का प्रयास करते रहते हैं। पर धर्म के विषय में अंततः उन सब को वही मूलभूत सिद्धांत व तत्त्व पुनः-पुनः पता चलते हैं, जो सैकड़ों साल पहले कुछ अन्यों को भी पता चले थे। 'धर्म' तो निश्चित, कसाव लिए हुए (सुगठित, compact), अटल, अति विशाल, पर बहुत सरल है। प्रत्येक मानव में यह जन्म से विद्यमान रहता है, भले ही वह सुप्तावस्था में या अविद्या के विभिन्न आवरणों में लिपटा हुआ क्यों न हो। जब-जब हम लचीले होकर अविद्या का आवरण हटाने का प्रयास करते हैं, तब-तब हमें अपने ही भीतर विद्यमान धर्म के स्वरूप के दर्शन होते हैं। लचीलेपन का अभाव या अहं ही हमें धर्म का दर्शन नहीं होने देता। स्मरण रहे कि विभिन्न आध्यात्मिक साधनायें भी हमें धर्म नहीं सिखातीं, वरन वे हमारे अविद्या के आवरण को नष्ट करती हैं। आवरण नष्ट होने या क्षतिग्रस्त होने से ही हमें वास्तविक धर्म का पता स्वयं ही चलता है। हमारे समस्त धार्मिक वाह्य आचार हमारी धार्मिक संस्कृति है। यह भिन्न-भिन्न, सही व गलत हो सकती है। यानी सिद्धांत तो अटल हैं पर वाह्य आचार भिन्न-भिन्न।

विज्ञान के सिद्धांतों की चर्चा करें तो परमेश्वर ने आरम्भ से ही इसकी कोई शिक्षा हमें नहीं दी और हमें स्वतंत्र छोड़ दिया कि हम स्वयं ही भौतिक शरीर व इसके कलपुर्जों की मदद से आवश्यकतानुसार भौतिक जगत् की खोज करें। खोज की इस प्रक्रिया में हम लचीला रवैया अपनाते हैं। इस लचीले दृष्टिकोण की वजह से ही विज्ञान के जो भी सिद्धांत पता चलते जाते हैं, वे सब हम विश्व स्तर पर मान्य करते हैं। अर्थात् अन्यों द्वारा प्रतिपादित किये गए सिद्धांतों को भी मानते हैं। विज्ञान में अनुसंधान, शोधन एवं संशोधन कार्य अनवरत चलता ही रहता है। कई पुराने सिद्धांत टूटते हैं, नए सिद्धांतों का सृजन होता है; यह सब हम साक्षी भाव से स्वीकार करते हैं।

अर्थात् हम विज्ञान की विभिन्न खोजों और सिद्धांतों को 'वैश्विक स्तर' पर मान्यता देते हैं, स्वीकार करते हैं। यह हो गया विज्ञान रूपी धर्म का स्वरूप। अब बात आती है संस्कृति की। संस्कृति यानी वाह्य आचार। विज्ञान की खोजों को, सिद्धांतों को अपने-अपने ढंग से निज-जीवन के विभिन्न कार्य-कलापों में अपनाने का तरीका हमारी वैज्ञानिक संस्कृति है। जैसे कपड़ा एक वैज्ञानिक खोज है; हमने इसे माना तो यह सिद्ध हुआ कि हमने विज्ञान धर्म को माना। इसके बाद कोई उस कपड़े की जींस / पेंट बनाता है तो कोई साड़ी या अन्य परिधान। तो प्रयोग करने के ये विभिन्न ढंग वैज्ञानिक संस्कृति हुए। ऐसे ही परमाणु शक्ति के सम्बन्ध में भी ...। ऐसे ही टेलीविजन, मोबाइलफोन, कम्प्यूटर आदि के विषय में भी, कि खोज तो एक पर प्रयोग अनेक। धर्म तो एक पर संस्कृतियाँ अनेक।

तो कहीं भी कोई दोष या विकृति उत्पन्न होती है, तो वह हमारे गलत प्रयोग द्वारा ही होती है। अर्थात् बुराई वाह्य आचारों में हो सकती है , मूलभूत सिद्धांतों में नहीं। यहाँ ध्यान देने वाली बात यह है कि हम वैज्ञानिक खोजों या सिद्धांतों को (वैज्ञानिक धर्म को) वैश्विक स्तर पर मान्य करते हैं और कोई कार्य संबंधी गलती हो जाने पर दोष स्वयं के अपनाने के ढंग को ही देते हैं या दोष वैज्ञानिक संस्कृति को ही देते हैं, खोज या सिद्धान्त (अर्थात् वैज्ञानिक धर्म) को नहीं कोसते हम। यानी हम वैज्ञानिक धर्म और वैज्ञानिक संस्कृति में अंतर जानते हैं।

(रिलीजन, धर्म, संस्कृति ...) पृष्ठ-६

'धर्म' के क्षेत्र में भी, अज्ञानवश जब कोई किसी की संस्कृति को धर्म, या धर्म (सिद्धांत) को संस्कृति समझने लगता है तो एक-दूसरे के लिए गलतफहमियों का अम्बार लग जाता है। चूँकि हममें से अधिकांश अज्ञानी हैं, अतः हम सबको किसी दूसरे की त्वरित आलोचना करने से यथासंभव बचना चाहिए। हमें पहले अन्य या दूसरे व्यक्ति को, उसके कृत्यों को, उसके मंतव्य को गहराई से समझना चाहिए, उसके सिद्धांतों की भी परख करनी चाहिए; तब धर्म व संस्कृति को अलग-अलग जानकर उसी के अनुसार आलोचना या भर्त्सना करने का साहस करना चाहिए।

हमने पहले मनन किया था कि 'धर्म' अर्थात् 'योग्य एवं न्यायपूर्ण आचरण'। पर बाद में हमने पाया कि वस्तुतः योग्य व न्यायपूर्ण आचरण भी तो हमारे वाह्य आचार का ही एक हिस्सा है। तो फिर 'धर्म' का एक और संशोधित अर्थ उभर कर आता है अगले स्तर पर, कि 'धर्म' अर्थात् हमारी ज्ञानेन्द्रियों एवं कर्मेन्द्रियों तक आने वाला दिव्य निर्देश। इस दिव्य निर्देश या ज्ञान-ज्योति का मुख्य स्रोत है - हमारी सच्चिदानंद आत्मा। पर अज्ञान व अविद्या के घने आवरण के कारण हमारी आत्मा का प्रकाश तो हमारी कर्मेन्द्रियों तक पहुँच ही नहीं पाता। अतः ज्ञानी पुरुषों द्वारा आत्मिक प्रेरणा से रचित, लेकिन अविद्या पर अवलंबित साहित्य / ग्रन्थ हमारा मार्गदर्शन करने हेतु एक कामचलाऊ व्यवस्था है। क्योंकि शब्द स्थाई नहीं और न ही परिपूर्ण, संस्कार भी स्थाई नहीं, मन एवं बुद्धि भी स्थाई नहीं; सभी कमोवेश परिवर्तनशील हैं। मात्र आत्मा एवं परमात्मा ही अपरिवर्तनशील हैं, उनसे आने वाला प्रकाश ही अपरिवर्तनशील है। परिपूर्णता हेतु इस प्रकाश का अन्य कोई विकल्प नहीं। अतः सच्चे धर्म (ज्ञान प्रकाश) की प्राप्ति हेतु चैतन्यमय आत्मा के चारों ओर का अविद्या का घना आवरण हटाना ही अनिवार्य है।

तो प्रश्न यह उठता है कि आत्मा के चारों ओर का घना आवरण हटे कैसे? हमने पूर्व में भी चर्चा की थी कि परमेश्वर ने पहले मनुष्य की भौतिक देह को सृजा, फिर उसमें जीव की लिंगदेह (अविद्या के घटक एवं आत्मा) प्रत्यारोपित की अर्थात् मन, बुद्धि एवं इन्द्रियां देकर जीव को कर्मों के लिए स्वतंत्र छोड़ दिया। भौतिक शरीर के साथ-साथ ज्ञानेन्द्रियाँ, मन एवं बुद्धि भी एक प्रकार से वाह्य ही हैं, केवल छठी इन्द्रिय अथवा जीवात्मा ही आन्तरिक है। वास्तविक ज्ञान इसी आत्मा में निहित है। पर मन में उपस्थित विभिन्न संस्कारों के कारण हमारे अधिकांश कार्य इन संस्कारों द्वारा ही सम्पन्न होते हैं। जब हम एकाग्रावस्था में या ध्यानावस्था में होते हैं तो मन के संस्कारों का घना आवरण बीच-बीच में टूटता है व हमें हमारी छठी इन्द्रिय का सन्देश या निर्देश प्राप्त होता है। हमें सर्वदा यही अपेक्षित है। अतः हमें सर्वप्रथम मन को ही नियंत्रित या निर्देशित करने की आवश्यकता है कि वह भीतर के प्रकाश को बाहर आने दे। ज्ञान-ज्योति का प्रकाश तो भीतर विद्यमान है, आवश्यकता है तो बस खिड़की-दरवाजे खोलने की, परदे हटाने की। विभिन्न आध्यात्मिक साधनाओं के द्वारा हम मन को समझाने, नियंत्रित करने का प्रयास करते हैं - प्रार्थना से, ध्यान से, ज्ञान से, भक्ति से, विभिन्न कर्मकांडों से, नामजप से आदि-आदि। तो उपरोक्त ये सब साधनायें एक प्रकार से साधन ही हैं और साध्य है - आत्मिक / परमात्मिक ज्ञान प्रकाश। उपरोक्त 'साध्य' के अतिरिक्त शेष सब (साधनायें आदि) महत्त्वपूर्ण होते हुए भी परिवर्तनशील व अस्थाई हैं।

(रिलीजन, धर्म, संस्कृति ...) पृष्ठ-७

हममें से अधिकांश अपने मन के अधीन हैं, साथ ही कुछ सलाह अन्यों से भी लेते हैं। तो पहले मनानुसार, संस्कारानुसार या किसी योग्य (? ) व्यक्ति की सलाह से ही कोई साधना शुरू करें, पर लक्ष्य एक ही होना चाहिए - वह है - आत्मिक प्रकाश को पाना। सम्पूर्ण एकाग्रता व प्रयास इसी बात के होने चाहियें कि हमें उस साधना के द्वारा उच्च नैतिक मूल्यों को अपने जीवन में उतारते हुए धीरे-धीरे भीतरी ध्वनि को सुनने-समझने की कोशिश करते रहना है। बाद में कई उतार-चढ़ाव आयेंगे, पर धैर्य न छोड़िये। लचीलापन लाते हुए आवश्यकतानुसार निज विवेक एवं अन्य किसी ज्ञानी की सलाह से साधनों में उचित बदलाव लाइये, पर ढीले नहीं पड़िये, लगे रहिये साध्य के पीछे। अनवरत प्रयासों के बाद धीरे-धीरे आत्मिक प्रकाश का मिलना आरंभ होगा। आगे के स्तर पर यही मंद आत्मिक प्रकाश आपका मार्गदर्शन करेगा। पुनः शायद कुछ कृत्य (साधना पद्धतियाँ) बदलें, पर विचलित न हों, उस प्रकाश स्रोत के मद्धम प्रकाश में आगे को बढ़ते चलें। अंततः निश्चित ही आप लक्ष्य तक पहुँचेंगे, जहाँ पर प्रकाश ही प्रकाश होगा। उस अवस्था में पहुँच कर आपको पूरी तरह से यह अहसास होगा कि साधन महत्त्वपूर्ण नहीं थे बल्कि साध्य ही महत्त्वपूर्ण था। लक्ष्य एक ही होता है, पर उस तक पहुँचने के मार्ग कई होते हैं। कोई मार्ग छोटा, तो कोई लम्बा; कोई सरल, तो कोई कठिन। कोई मार्ग भटकाने वाला भी होता है, जो कहीं ओर ही जाता है। तो साधन का सही होना प्रथम आपके मन एवं बुद्धि द्वारा किये गए चयन पर करता है, और फिर बाद का सफ़र इस पर निर्भर करता है कि आप कितने धैर्यवान व कर्मशील हैं। प्रारब्ध की सहभागिता भी इसमें रहती ही है, पर वह हमें पता नहीं होती।

साध्य को पाने के लिए एक चीज बहुत ही महत्त्वपूर्ण है, वह है - जिज्ञासा, तीव्र इच्छा, उत्कंठा, मुमुक्षुत्व ओर तड़प। कमोवेश ये सब एक ही हैं, मात्र शब्द भिन्न-भिन्न हैं। इसके अलावा धैर्य, दृढ़ता, नियोजन, अनुशासन, नम्रता व सम्पूर्ण समर्पण भाव भी आवश्यक तत्व हैं साधना हेतु।

(रिलीजन, धर्म, संस्कृति ...) पृष्ठ-८

समष्टि अर्थात् समाज यानी पूरे विश्व के लोग सच्ची धार्मिकता की ओर मुड़ें, धर्मी बनें; तो वस्तुतः यही परमेश्वर के राज्य की शुरुआत होगी, बुनियाद होगी। सभी लोगों को धार्मिकता की ओर मोड़ने लिए यदि हम सिर्फ एक ग्रन्थ या पंथ का सहारा लेंगे, तो शायद आशा के अनुरूप सफलता न मिल सके, क्योंकि आज विश्व के प्रत्येक हिस्से में लोग अलग-अलग प्रकार की रिलीजियस (सांस्कृतिक) मान्यतायें रखते हैं। यानी सभी की उपासना पद्धतियाँ (साँस्कृतिक ढांचा व साधन) भिन्न-भिन्न हैं। यह एक शाश्वत सत्य है कि वस्तुतः परमेश्वर बहुत अधिक व्यापक है। हम यदि परमेश्वर को किसी एक नाम (यह आग्रह कि केवल वही सच्चा ईश्वर है, जिसे मैं पूजता हूँ) के दायरे में रखते हैं तो यह हमारी संकुचितता का द्योतक होगा। किसी एक नाम व एक साकार रूप तक सीमित रख हम उसके अनंत गुणों एवं विशेषताओं को मर्यादित करने का दुस्साहस नहीं कर सकते। इसका प्रमुख कारण यह है कि अनादि एवं सनातन परमेश्वर ही है, तदुपरांत यह सृष्टि एवं मानव, और उसके बाद वाणी, शब्द, भाषाएँ आदि ...। भाषायें, शब्द, लिपियाँ यानी परस्पर संवाद के सभी साधन बाद में मानव ने ही सृजित किये। सभी मानव सीमित बुद्धि तथा सीमित सामर्थ्य वाले हैं और परमेश्वर से बहुत पीछे। अतः मानव निर्मित भाषाएँ, लिपियाँ, शब्द आदि असमर्थ हैं शब्दातीत परमेश्वर की सम्पूर्ण व्याख्या करने के लिए। और दूसरी बात यह कि विकास के विभिन्न चरणों में अपरिपूर्ण मानवों ने ज्ञान प्राप्त करने लिए या अपने आध्यात्मिक उत्थान हेतु विभिन्न मार्गदर्शनों, साधनाओं का सहारा लिया और आज भी ले रहे हैं। ये सब हमारी संस्कृति व संस्कारों का हिस्सा ही हैं। हम इनको शायद एकाएक समाप्त करने में असमर्थ हैं। प्राचीन व दृढ़ संस्कारों को समाप्त करना इतना सरल नहीं, साधनों का नवीनीकरण साधारण मानव के लिए अत्यंत दुरूह होगा। तो फिर हल क्या है? शायद यही कि सभी नामों को एक कर दें यानी ईश्वर के सभी नाम एक ही ईश्वर के हैं। हम सभी परिपक्व बनें और मात्र अपने द्वारा पूजित किसी एक नाम, रूप व ग्रन्थ के ही सच्चे होने का राग अलापना छोड़ दें। हम सभी सच्चे मन से, भाव से यह स्वीकारें कि सभी नाम, रूप व धर्मग्रंथ अपनी-अपनी जगह श्रेष्ठ हैं। हम न भूलें कि ईश्वर के विभिन्न नाम, सभी मार्गदर्शक ग्रन्थ व सभी उपासना पद्धतियाँ केवल साधन मात्र हैं। साध्य है ईश्वर या ईश्वरीय गुण। सभी लोग आज ईश्वर के जिन भिन्न-भिन्न नामों, रूपों और साधनों की सहायता ले रहे हैं, वे सब जब उन्हीं के अनुसार ही दृढ़ता, लगन, तड़प व समर्पण भाव से साधना करेंगे तो ज्ञान के अगले चरणों पर उन्हें स्वयं ही पता चलेगा कि सर्वशक्तिशाली व सार्वभौमिक परमेश्वर इन सब नामों, शब्दों, रूपों व साधनों से कहीं आगे व कहीं व्यापक है। तब वे सभी मनुष्य स्वयं ही अपना-अपना अहम् त्याग देंगे। यह राग अलापना भी छोड़ देंगे कि उस सच्चे परमेश्वर का केवल वही नाम है जिसे वे जानते थे। तब सभी नाम उन्हें समान रूप से प्रिय लगेंगे। ईश्वरप्राप्ति के पश्चात् ऐसी अनुभूति होना स्वाभाविक ही है, क्योंकि ईश्वर हैं ही शब्दों से परे। इति।