Wednesday, April 8, 2009

(९) व्यवहार व अध्यात्म

जब एक साथ कुछ लोग बैठते हैं, तो परस्पर रचनात्मक व सकारात्मक विचारों का भी आदान-प्रदान होता है। और इसी माध्यम से हम एक-दूसरे से प्रेरित होकर कुछ न कुछ सीखते हैं। .... मेरे एक मित्र कुछ समय पहले कनाडा और अमेरिका की यात्रा पर गए थे। लौट कर आये तो ऐसी ही एक बैठक में पुनः उनसे भेंट हुई। विदेश का हाल पूछने पर वह बोले कि "कनाडा, अमेरिका में उपभोक्तावाद का बहुत जोर है। बड़े-बड़े विशालकाय स्टोर्स, दुकानें, मॉल आदि जगह-जगह खुले हुए हैं। बहुत अधिक चकाचौंध, तड़क-भड़क व भव्यता है। सभी तरह के उपभोक्ता सामान की खरीदारी पर लोगों का बहुत अधिक जोर है। पर वहां आम लोगों की आध्यात्मिक गतिविधियाँ लगभग शून्य हैं। चर्च वगैरह भी शायद कभी-कभार ही जाते होंगे।" तब मेरे मित्र से एक प्रश्न किया गया कि "यह तो वहां का एक पहलू हो गया। अब यह बताएं कि वहां नैतिकता का प्रतिशत कितना है? यानी ईमानदारी, कर्तव्यपालन, कानून व न्याय व्यवस्था, राजकीय गतिविधियाँ, प्रशासन, आदि के विषय में भी कुछ बताएं।" ... मेरे वह मित्र कुछ देर खामोश रहे, फिर बोले कि "यह सब तो बहुत ही अच्छा है। ईमानदारी, कर्तव्यपरायणता और अनुशासन-बद्धता, प्रशंसायोग्य है वहां की। कोई दुर्घटना वगैरह हो जाये तो कुछ ही क्षणों में पुलिस व एंबुलेंस आदि पहुँच जातीं हैं। शीघ्र चिकित्सालय पहुँचाया जाता है। जीवन की रक्षा करने में कोई कसर नहीं छोड़ी जाती है। इसके अलावा विभिन्न कार्यालयों आदि में भी समय-पालन, कर्तव्य-पालन आदि के विषय में सभी लोग स्वयं ही बहुत जागरुक रहते हैं। जो भी नागरिक वहां के बने कानूनों के अंतर्गत रहता है, वह लगभग पूरी तरह से सुरक्षित है; उसको कोई भी परेशानी हो, ऐसा लगभग असंभव ही है। व्यक्तिगत रूप से एक-दूसरे से मिलने में वहां के लोग थोड़े औपचारिक हैं, पर सामान्यतः शांत, हंसमुख व एक-दूसरे का ध्यान रखने वाले हैं। काम-काज में उत्साही हैं और इसमें किसी प्रकार की हिचक या हीन-भावना नहीं रखते हैं। चोरी, डकैती या लूट-पाट, भ्रष्टाचार आदि लगभग नहीं के बराबर हैं। लोगों के पास सब सुख-सुविधाएं हैं, पर वे उनको संतुलित ढंग से प्रयोग करते हैं, उनसे चिपकना अर्थात् तीव्र-आसक्ति नहीं है, जैसी अपने यहाँ कम्प्यूटर, मोबाइल-फोन, बाईक, अत्याधुनिक इलेक्ट्रॉनिक गेजेट्स, आदि के प्रति है। हर चीज को उतना ही महत्त्व दिया जाता है जितने के योग्य वह वास्तव में है। इसीलिए वहां खोखली भागम-भाग नहीं है। कार्यालय आदि का फोन अलग है और काम के समय के अतिरिक्त यानी छुट्टियों आदि में वह लगभग बंद रहता है। अवकाश में खूब जिंदादिली के साथ लोग परिवार सहित मजा करते हैं या किसी मित्र-रिश्तेदार आदि से मिलने जाते हैं। यानी काम के समय डट कर काम व उसके अतिरिक्त शेष समय में जीवन को खुशनुमा ढंग से जीना। सत्य व न्याय-प्रियता (righteousness) तथा देश-प्रेम कूट-कूट कर भरा है। पर मानवता (righteousness) थोड़ी सी ऊपर है। उसको चोट लगते देख वे राष्ट्रपति तक की खिंचाई करने से बाज नहीं आते। वैसे नेता, सरकार आदि सब अच्छे हैं।"

मेरे मित्र का यह वक्तव्य सुन कर आप बखूबी समझ गए होंगे कि यथार्थ आध्यात्मिकता कहाँ छुपी है! दिखाई देने वाले कर्म-कांडों व उपासना-पद्धतियों में नहीं, वरन असली आध्यात्मिकता हमारे रोजमर्रा के कार्यों में झलकती है, यदि वह वहां हो तो। मेरा अनुमान ही है कि अमेरिका के लोग भले ही दिखावी उपासना नहीं करते हैं, पर वे ईश्वर से हम भारतीयों की अपेक्षा अधिक डरते हैं, नम्रता से ईश्वर का दिल ही दिल में सम्मान करते हैं। ईश्वर के प्रति यथार्थ प्रार्थना व कृतज्ञता व्यक्त करने का प्रतिशत भी हम लोगों से अधिक है। हम लोग ऊपर से पाखण्ड अधिक करते हैं पर भीतर से खोखले होते जा रहे हैं। यह हमारे व्यावहारिक कृत्यों व मानसिकता से सबको विदित है ही, चाहे हम अहंवश इसे स्वीकार न करें। हमारे यहाँ के आश्रम, मठ आदि भी इससे अछूते नहीं हैं। ऊपर से तो सब वैराग्य का, सादगी का नारा लगाते हैं, पर बात जब स्वयं पर आती है तो सबको मालूम ही है कि हमारे धार्मिक गढ़ कितने वैभवशाली हैं। कहाँ हैं आज चाणक्य या समर्थ गुरु रामदास जैसे निकट इतिहास के ही संत महापुरुष, जिनको सत्ता, धन, सांसारिक यश आदि एक इशारे पर ही मिल सकता था या यह सब उनके क़दमों के नीचे था ही, पर वे इन सब से वास्तव में मुक्त रहे और सदैव मात्र मार्गदर्शक की ही भूमिका में रहे। इनके अतिरिक्त भी निकट इतिहास में ऐसे बहुत से संत हुए, जिन पर दिखावा या सांसारिकता अपना कोई असर नहीं छोड़ पायी थी, जिनमें से कुछ हैं - श्री रामकृष्ण परमहंस, संत तुकाराम, गुरुनानक देव, महर्षि दयानंद, स्वामी विवेकानंद, महात्मा गाँधी, आदि। प्राचीनकाल में तो खरे संतों की बात ही कुछ और थी। बड़े-बड़े चक्रवर्ती राजा भी उनके आने पर राज-गद्दी तुंरत छोड़ देते थे, पर उन संतों ने कभी भी राज-महल का सुख नहीं लिया। अल्प-काल का आतिथ्य स्वीकार कर व राजा का मार्ग-दर्शन कर, पुनः वे अपनी साधारण कुटिया में लौट जाते थे। धन आदि व अन्य चल-अचल सम्पत्ति के संग्रह से वे कोसों दूर रहते थे। पर आज के समय में .....!! फिर भी एक आम भारतीय यही कहता है कि मेरा भारत महान है। महान है नहीं, महान था कभी।

हमें वर्तमान में जीना होगा। हमारी वर्तमान श्रेष्ठता केवल हमारी वर्तमान मनोदशा व वर्तमान आध्यात्मिक स्तर पर निर्भर करती है, न कि हमारे सुनहरे अतीत पर। यदि हमें कुछ सीखना है, उन्नत होना है, तो हमें धरातल पर (down to the earth) आना पड़ेगा। यदि हम स्वयं को जबरदस्ती श्रेष्ठ घोषित करने की चेष्टा करते हैं तो हमें पहले अपना आंकलन स्वयं ही करना होगा, स्वयं की तुलना अपने से उन्नत राष्ट्रों के साधारण नागरिकों से ही करनी होगी। मात्र अपनी व्यावहारिकता की ही तुलना विकसित राष्ट्रों के नागरिकों की व्यावहारिकता से कर के देख लें तो हम जमीन-आसमान का अंतर पायेंगे। यहाँ एक ही उदाहरण पर्याप्त होगा -- हमारे भारत में विशेष तौर पर उत्तरी, मध्य, व पूर्वी भारत में जो व्यक्ति कानून का शत-प्रतिशत पालन करता है, वही सबसे अधिक भुक्तभोगी (sufferer) है; और किसी भी विकसित देश में जो व्यक्ति कानून का शत-प्रतिशत पालन करता है, वह सबसे अधिक सुरक्षित व सुख से है। ... जो व्यवहार में साफ-सुथरा है, जिसकी मानसिकता स्वस्थ है, वह निश्चित रूप से आध्यात्मिक रूप से भी काफी हद तक स्वस्थ होगा। क्योंकि आध्यात्मिकता प्रत्यक्ष रूप से हमारे योग्य व्यवहार व स्वस्थ मानसिकता में ही प्रतिबिंबित होती है। कह सकते हैं कि व्यवहार, आध्यात्मिक-स्तर का दर्पण है। एक अटल सिद्धांत है कि जब सीखने वाले की भूमिका में हों तो हम केवल अपनी बुराइयाँ देखें व दूसरों की केवल अच्छाइयाँ। और जब सिखाने वाले की भूमिका में हों तो सीखने वाले की बुराइयाँ उसे अवश्य बताएं। इसी में सर्व-हित है। तो हम तो परिपूर्णता से अभी कोसों दूर हैं, अतः हम सब अधिकांश भारतीय अभी सीखने की ही प्रक्रिया में हैं। इति।