Sunday, May 10, 2009

(१५) मन

हमारे पूर्व अध्ययन के अनुसार हमें ज्ञात हुआ था कि अविनाशी आत्मा न केवल हमारा ऊर्जा-स्रोत है, वरन हमारा सच्चा ज्ञान-स्रोत भी है। फिर भी हमें इस आत्मा से ज्ञान-प्रकाश नहीं मिल पाता है, क्योंकि इस आत्मा के प्रकाश-पुंज के चारों ओर "अविद्या" का आवरण है। "अविद्या" के प्रमुख घटक हैं -- मन (वाह्यमन), चित्त (अंतर्मन), विभिन्न संस्कार (विचार-केन्द्र), वृत्ति, बुद्धि, व अहं।

साधारण भाषा में जिसे हम 'मन' कहते हैं, वह दो भागों में बँटा है - (१) वाह्यमन, (२) अंतर्मन या चित्त। वाह्यमन का आकार छोटा व अंतर्मन (चित्त) का आकार अपेक्षाकृत काफी बड़ा होता है। वर्तमान काल में सामान्य व्यक्ति की कर्मेन्द्रियों द्वारा किये जाने वाले अधिकांश कार्य अविद्या के घटक 'मन' के निर्देशानुसार ही होते हैं। अविद्या के घने आवरण के कारण आत्मा से निर्देश-स्पंदन कर्मेन्द्रियों तक जा ही नहीं पाते। तो फिर मन से हमारी कर्मेन्द्रियों को कार्य करने का निर्देश कैसे जाता है?, वह इस प्रकार -

क्रिया का स्वरूप --
(१) बाहर से स्पंदन ज्ञानेन्द्रियों (आँख, नाक, कान, जीभ, त्वचा) के माध्यम से अंतर्मन में जाते हैं (वाह्यमन से होते हुए)। इन्हें सूचना स्पंदन कह सकते हैं।
(२) स्पंदन भीतर पहुँचने पर तदनुसार अंतर्मन में "संस्कार" (impression) बनता है (संस्कार पहले से भी हो सकता है)।
(३) अंतर्मन में बने संस्कार से पुनः स्पंदन (विचार) वाह्यमन में जाते हैं। इन्हें क्रिया-विचार स्पंदन कह सकते हैं।
(४) क्रिया-विचारों के वाह्यमन में पहुँचने के बाद, तदनुसार यहाँ से कर्मेन्द्रियों को कार्य हेतु निर्णायक निर्देश जाता है। और फिर उन्हीं निर्देशों के अनुसार कार्य होता है।

हमारे अंतर्मन में अनेक छोटे-बड़े संस्कार हैं, लगातार कुछ नए भी बनते रहते हैं। महत्त्वपूर्ण बात यह है कि किसी भी कार्य के लिए जिम्मेदार संस्कार, उस कार्य के समाप्त होने के बाद नष्ट नहीं होता; तथा बाद में जब-जब उस संस्कारानुरूप स्पंदनों का आदान-प्रदान पुनः होता है, तो वह संस्कार और भी अधिक बड़ा हो जाता है।

अंतर्मन में जिन संस्कारों का प्रभुत्व (अधिकता) होता है, उनके गठजोड़ को ही हम "वृत्ति" कहते हैं या हम यह कह सकते हैं कि 'वृत्ति' बड़े संस्कारों पर निर्भर करती है। अब यदि बड़ा संस्कार ईश्वरीय (सात्त्विक) होगा तो तदनुसार वृत्ति भी सात्त्विक होगी। अर्थात् वृत्ति, हमारे अंतर्मन के बड़े संस्कारों से ही बनती है।

"चित्त" (अंतर्मन) का कार्य है - नए "संस्कार" बनाना या/और संस्कारों में से अनेक विकल्प (options) खोजना/सुझाना, और "बुद्धि" का कार्य है - योग्य निर्णय लेना अर्थात् उन विकल्पों में से किसी एक को चुनना, तदुपरांत उस चुने हुए विकल्प को "वृत्ति" की सहमति से 'वाह्यमन' में भेजना। बुद्धि, 'वृत्ति' के ऊपर निर्भर करती है। अंततः "वाह्यमन" से कर्मेन्द्रियों को कृत्य हेतु निर्णायक निर्देश जाता है।

अब हम यह सोचेंगे कि यदि हम अपनी ज्ञानेन्द्रियों से काम लेना बंद कर दें यानी आँख, कान, नाक आदि बंद कर लें, तो क्या किसी कार्य के लिए विचार नहीं आयेंगे? ... विचार तो अब भी आयेंगे, क्योंकि अब वे अंतर्मन में विद्यमान संस्कारों (impressions) से आ रहे हैं। उपरोक्त घटकों के कारण अविद्या का अंतिम महत्त्वपूर्ण घटक "अहं" बना, अर्थात् इन उपर्लिखित घटकों को ही सर्वस्व व अपना मानना और इनके कारण ही स्वयं को परमात्मा से भिन्न मानना।

तो उपरोक्त अध्ययन से हमारी समझ में एक नयी बात यह आयी कि किसी भी कृत्य के लिए अंतर्मन से वाह्यमन में जाने वाले निर्देशों पर 'वृत्ति' का नियंत्रण होता है; वृत्ति द्वारा नियंत्रण यानी बड़े संस्कार का प्रभाव। अतः हमने यह पाया कि अंतर्मन में विद्यमान बड़े संस्कारों का प्रभाव 'वृत्ति' पर, तदनुसार हमारी प्रत्येक क्रिया पर पड़ता है। अब यदि वह बड़ा संस्कार ईश्वरीय गुणों का होगा तो हमारे कार्य स्वतः अच्छे ही होंगे। अब तक के विश्लेषणों से, अब मन की गतिविधियों व हमारे कृत्यों के क्रमबद्ध कारण व चरण निम्नलिखित हैं --

(१) बाहर से सूचना-स्पंदन ज्ञानेन्द्रियों के माध्यम से वाह्यमन में से होते हुए अंतर्मन में जाते हैं।
(२) स्पंदन भीतर पहुँचने पर तदनुसार अंतर्मन में "संस्कार" (impression) बनता है, यदि वह संस्कार पहले से है तो वह संस्कार कुछ और बड़ा होता है।
(३) अंतर्मन में बने संस्कार से या अन्य संस्कारों से क्रिया-विचार स्पंदन निर्माण होते हैं। बुद्धि इनमें से एक या अधिक विकल्प चुनती है, तदुपरांत चुने हुए विचार निर्णायक अनुमोदन हेतु 'वृत्ति' के पास जाते हैं। यदि ये वृत्ति के अनुरूप हुए, तो पुनः ये स्पंदन (विचार) 'वाह्यमन' में जायेंगे अन्यथा वहीं नष्ट हो जायेंगे।
(४) क्रिया-विचारों के वाह्यमन में पहुँचने के बाद, तदनुसार वहां से कर्मेन्द्रियों को कार्य हेतु निर्णायक निर्देश जाता है। और फिर उन्हीं निर्देशों के अनुसार कर्मेन्द्रियों के माध्यम से कार्य होता है।

अर्थात् हमारे समस्त कृत्य अंतर्मन से आने वाले विचारों तदनुसार वाह्यमन में निर्मित निर्णायक निर्देशों के अनुसार ही होते हैं। अर्थात् कोई भी कार्य हम अंतर्मन की सहमति के बिना, अपितु वृत्ति की सहमति के बिना नहीं कर सकते।

नयी वृत्ति कैसे बनती है या वृत्ति कैसे बदलती है?
त्रिगुणों में से जिस गुण के संस्कार व्यक्ति के मन में सबसे अधिक होंगे, व्यक्ति की वृत्ति वैसी ही होगी या त्रिगुणों में जिस गुण के अनुरूप संस्कार सबसे बड़ा होगा, उसी संस्कार का मन पर आधिपत्य होगा। कर्मेन्द्रियाँ, यहाँ तक कि ज्ञानेन्द्रियाँ भी यथासाध्य उसी के अनुसार ही कृत्य करेंगी। इस प्रकार कर्मेन्द्रियाँ लगभग पूरी तरह से वृत्ति पर, या कृत्य वृत्ति पर निर्भर है। परन्तु ज्ञानेन्द्रियाँ फिर भी पूरी तरह से मन के अधीन नहीं हैं, यदि हैं भी तो एक सीमा तक ही (आँख, नाक, कान आदि कब तक बंद रखे जा सकते हैं?)। अतः ज्ञानेन्द्रियाँ वाह्य स्पंदनों को अंतर्मन तक पहुंचाती अवश्य हैं; पहुंचेंगे तो नया संस्कार बनेगा ही, या यदि पहले से है तो थोड़ा सा और बड़ा होगा। पर अभी यह नया संस्कार इतना बड़ा नहीं हो पाया है कि इस संस्कारानुसार कृत्य संभव हो सके। पर धीरे-धीरे वह प्रसंग बार-बार सामने आने पर ज्ञानेन्द्रियाँ उस प्रसंग के स्पंदन बार-बार अंतर्मन तक पहुंचाती रहती हैं और प्रत्येक बार सम्बंधित स्पंदन अंतर्मन तक पहुँचने पर वह नया संस्कार बड़ा होता जाता है। एक दिन वह इतना बड़ा हो जाता है कि वह पुराने बड़े संस्कार से भी बड़ा हो जाता है। ऐसा हो जाने पर व्यक्ति की वृत्ति उस नए व सबसे बड़े संस्कार के अनुरूप हो जाती है। तदुपरांत व्यक्ति की कर्मेन्द्रियों को नयी वृत्ति के अनुरूप ही निर्देश जाते हैं और तदनुसार व्यक्ति के कृत्य भी बदल जाते हैं। कुछ इसी प्रकार से ही सत्संग या योग्य मार्गदर्शन द्वारा हमारे मन में नामजप या ईश्वरीय गुणों का संस्कार बनता है, बढ़ता है, और एक दिन इतना बड़ा हो जाता है कि पूरे मन पर आधिपत्य कर लेता है। तब मनानुसार ही सही, पर कम से कम हमारे अधिकांश कार्य यथासंभव अच्छी प्रकृति के तो होने ही लगते हैं।

आगे का स्तर
यथोचित साधना से जब एक बड़ा सा ईश्वरीय संस्कार हमारे अंतर्मन में बन जाता है तो आगे के स्तर पर अन्य सभी संस्कार एक-एक करके नष्ट हो जाते हैं। इस प्रकार अंतर्मन में केवल ईश्वरीय गुणों का संस्कार ही शेष रह जाता है। साधना और बढ़ने पर यह संस्कार इतना बलिष्ठ हो जाता है कि ज्ञानेन्द्रियों से आने वाले अन्य स्पंदन (ईश्वरीय गुणों के विपरीत स्पंदन) वाह्यमन तक पहुँचते तो अवश्य हैं, परन्तु वहीं पर नष्ट हो जाते हैं; वे अंतर्मन में प्रविष्ट हो ही नहीं पाते। वाह्यमन और अंतर्मन के बीच की दीवार (परत) गर्म तवे के समान हो जाती है, उस पर पड़ते ही या छूते ही अवांछित स्पंदन तुरन्त वाष्पित हो जाते हैं। तो स्थिति अब यह हो गयी कि, ज्ञानेन्द्रियाँ अब भी स्वतंत्र हैं स्पंदन ग्रहण करने के लिए, मन तक भेजने के लिए; परन्तु अंतर्मन तक अब केवल योग्य स्पंदन ही जा पा रहे हैं। कर्मेन्द्रियाँ तो पहले भी और अब भी अंतर्मन या वृत्ति के अधीन ही हैं और वृत्ति तो अब अति सात्त्विक है, तो स्पष्ट हो जाता है कि कर्मेन्द्रियों द्वारा अब केवल अच्छे कार्य ही संपादित होंगे। ईश्वर का संस्कार मनुष्य की वृत्ति, विचार और कृत्य ऐसे ही बदलता है।

पुनरवलोकन
हममें से कुछ लोग जब बुद्धि का प्रयोग कर मनन करेंगे व निष्कर्ष निकालेंगे तो वे यह कह सकते हैं कि नया (ईश्वरीय) संस्कार बनने के लिए बार-बार नामजप करना या सत्संग में जाना या धार्मिक पुस्तकें पढ़ना आदि, ये सब भी तो कृत्य ही हैं, और पहले के अध्ययन / मनन के अनुसार सभी कृत्य तो 'वृत्ति' के अधीन हैं; तो फिर नया संस्कार बनने के लिए आवश्यक ये कृत्य हो पाना कैसे सम्भव होगा? ... इसका उत्तर यह है कि, जिसकी वृत्ति बिलकुल ही आसुरी (तामसिक) होगी, उसके लिए उपरोक्त कृत्यों के लिए तैयार हो पाना लगभग असम्भव ही या अत्यंत दुरूह होगा, परन्तु बहुधा यह पाया जाता है कि प्रत्येक व्यक्ति की वृत्ति में कुछ न कुछ सात्त्विक गुण तो पहले से विद्यमान रहते ही हैं, भले ही वे सुप्तावस्था में क्यों न हों! गुरु या मार्गदर्शक मानव के उन सुप्त सात्त्विक गुणों को संकल्प, सम्पर्क या सत्संग द्वारा जगाते हैं। वृत्ति का यह कोमल कोना (soft corner) तब कर्मेन्द्रियों को इतनी छूट दे देता है कि हमारा नामजप, सत्संग आदि यंत्रवत ही आरम्भ हो जाता है, यदाकदा ही सही। तो इस क्रिया से अंतर्मन में एक नया संस्कार (ईश्वर का) बन ही जाता है। परन्तु वृत्ति तो इसके विपरीत है; वह इस संस्कार को कोई स्पंदन पुनः अंतर्मन से वाह्यमन में नहीं भेजने देती अर्थात् प्रारंभ में अन्य सात्त्विक कृत्य हम नहीं कर पाते। पर संतोष की बात यही है कि वृत्ति हमें कर्मेन्द्रियों से कार्य करने की "कुछ छूट" तो कम से कम दे ही रही है। फिर वही, पहले बताये क्रम के अनुसार ही सब कुछ होता है। सत्संग, नामजप आदि यंत्रवत, यदाकदा करने से ही उनका संस्कार अंतर्मन में बनता है; फिर धीरे-धीरे वह बड़ा हो जाता है, और एक दिन इतना बड़ा हो जाता है कि अन्य सभी संस्कार उसके सामने छोटे (गौण) हो जाते हैं। तब यह संस्कार ही हमारी वृत्ति बन जाता है। इस प्रकार वृत्ति में परिवर्तन होता है।

वृत्ति बदलने के अन्य उपाय
अन्य उपायों में सबसे प्रमुख व अलग सा उपाय है - "हठयोग" द्वारा। ... प्रत्येक व्यक्ति में सत्त्व, रज, तम तीनों गुण होते ही हैं, परन्तु इनका प्रतिशत प्रत्येक व्यक्ति में भिन्न-भिन्न होता है। तीनों में जिस गुण का प्रभाव जिस क्षण सबसे अधिक होता है, हमारी वृत्ति, तदनुसार कृत्य, वैसा ही होता है। वृत्ति के मूल गुणों के विपरीत कुछ कार्य करना ही "हठयोग" है। आगे हम देखेंगे कि वृत्ति के विपरीत क्रिया करने (हठयोग) से वृत्ति में बदलाव कैसे आता है --

मान लीजिये कि हमारे भीतर बहुत सारे दोष हैं और हम उनको एक-एक करके दूर करना चाहते हैं। हमारे भीतर साधना का एक भी संस्कार नहीं है; वह हम बनाना चाहते हैं। परन्तु हमारी वृत्ति तो ऐसी है कि वह हमसे बुरे कार्य ही करवा रही है और साधना भी नहीं करने देती। तो बदलाव की क्रिया कैसे आरम्भ होती है? वह ऐसे --

यदि हमें अपने दोषों के बारे में पहले से पता है और हम इनको गलत समझते ही हैं तथा साधना करने के भी इच्छुक हैं, तो इसका तात्पर्य यह हुआ कि हमारे भीतर अच्छाई का व साधना का तत्व या संस्कार पहले से ही विद्यमान है। क्योंकि इस प्रकार का कोई विचार मन में आने का मतलब ही यही हुआ कि उपरोक्त दोनों अच्छे संस्कार पहले से हैं ही। यदि उपरोक्त विचार (बुराइयाँ त्यागने के व साधना करने के) किसी सात्त्विक व्यक्तित्व से मिलने के पश्चात् या सत्संग आदि में जाने के बाद मन में आये, तो भी समझिये कि इनका छोटा सा संस्कार मन में बन ही गया। अब आवश्यकता है इसको बड़ा करने की, जिससे उपरोक्त दोनों कृत्य संभव हो सकें (व्यसन त्याग व साधना )। अगला चरण -- यह कि हम 'हठयोग' द्वारा वृत्ति के विपरीत जा कर उपरोक्त दोनों क्रियाएं करना आरम्भ कर देते हैं, तो धीरे-धीरे अच्छाइयों का (अर्थात् बुराई त्यागने का) व साधना का, दोनों संस्कार बढ़ने लगते हैं और एक दिन इतने बड़े हो जाते हैं कि बुरे संस्कार उनके सामने गौण हो जाते हैं। इस प्रकार वृत्ति बदलती है और बुद्धि भी सात्त्विक हो जाती है।

परन्तु अब प्रश्न यह उठता है कि हठयोग की क्रिया या हठयोग द्वारा वृत्ति के विपरीत क्रिया सम्भव कैसे हुयी? क्योंकि पहले के विश्लेषणों से तो यह पता चलता है कि प्रत्येक कृत्य के पीछे वृत्ति है। तो इस "वृत्ति विपरीत कृत्य" के सम्भव हो पाने का कारण और प्रक्रिया इस प्रकार से है --

यदि हममें पहले से ही साधना करने की चाह है या किसी के मार्गदर्शन के फलस्वरूप यह चाह उत्पन्न हुयी, तथा व्यसन त्यागने की भी चाह है - अर्थात् अपनी बुराइयों का भान हुआ है, तो इन सब बातों का यह अर्थ हुआ कि हमारी आत्मा पर पड़ा हुआ अविद्या और माया का जाल कहीं से तो टूट गया है या उसमें कोई छिद्र हो गया है। इस घोर कलियुग में इस प्रकार का विचार (बुराई त्यागने का व साधना करने का) मन में आना अर्थात् प्राथमिक स्तर की अनुभूति। अनुभूति आत्मिक ही होती है। इस प्रकार के विचार या अनुभूति से आत्मा की शक्ति अर्थात् आत्मबल बढ़ा। इस बढ़े हुए आत्मबल ने वृत्ति में विद्यमान सत्त्व अंश व अंतर्मन में विद्यमान अन्य छोटे-छोटे सात्त्विक संस्कारों का एकत्रीकरण किया और वृत्ति के मूल गुण के विपरीत क्रिया करने का निर्देश वाह्यमन में भेजना आरम्भ किया। इस क्रिया में मन में अत्यधिक अंतर्द्वंद होता है; अंततः शक्तिशाली की जीत होती है, परन्तु यह जीत टिकाऊ (स्थाई) नहीं होती। अतः हठयोग द्वारा हम बुरे व्यसन छोड़ते हैं व साधना भी करते हैं; परन्तु कम समय के लिए। जब-जब आत्मिक बल पराजित होता है, बुरी वृत्ति हावी होती है; तब-तब साधना छूटती है व पुनः बुराइयों में फंसते हैं। परन्तु कभी-कभी आत्मिक बल जीतता भी है। तो इस प्रकार थोड़ी-थोड़ी मात्रा में व्यसन त्याग व साधना के कृत्य होते रहते हैं। हठयोग द्वारा बारम्बार ऐसा होते रहने से धीरे-धीरे ईश्वरीय संस्कारों का आकार बढ़ने लगता है और अंततः एक दिन हमारी वृत्ति ईश्वरीय गुणों के अनुरूप हो जाती है। यद्यपि हठयोग से फल की प्राप्ति (वृत्ति परिवर्तन) सम्भव हो सकती है, फिर भी कदाचित् यह सबके लिए सम्भव नहीं है। साधारण मनुष्य अधिक मानसिक द्वंद नहीं झेल सकता। अतः वृत्ति बदलने के लिए पहले वाला तरीका अर्थात् नियमित रूप से सत्संग में रहना अर्थात् आध्यात्मिक लोगों से मित्रता बढ़ाना, उनकी संगति में अधिकाधिक रहना, आध्यात्मिक ग्रंथों को पढ़ना आदि ये सब कृत्य करना सर्वप्रथम आवश्यक है और वृत्ति इसके लिए छूट भी दे रही है। इसके साथ ही यदि 'हठयोग' द्वारा भी ये सब कृत्य किये जायें, तो यह अतिरिक्त प्रयास हुआ; इससे ईश्वरीय गुणों का संस्कार शीघ्र उन्नत होगा, फलस्वरूप वृत्ति में परिवर्तन शीघ्र आयेगा, हमारी आध्यात्मिक उन्नति शीघ्र होगी। इस प्रकार अपने सामर्थ्य के अनुसार 'हठयोग' द्वारा किया गया अतिरिक्त प्रयास (अधिक क्रियमाण) हमारी शीघ्र प्रगति होने का मार्ग प्रशस्त करेगा।

साधना के अगले चरणों में माया (अविद्या) का आवरण झीना व पारदर्शी होता जायेगा, फलतः हमें आत्मिक प्रकाश की अधिकाधिक प्राप्ति होती जायेगी। आज के समय में यदि व्यावहारिकता एवं आध्यात्मिकता में सामंजस्य बैठाना हो तो आवश्यकता है कि साधना द्वारा किसी प्रकार से वृत्ति का नाश करके (विचारों या विचार-केन्द्रों का नहीं) उसका स्थान आत्मा (धर्म) ले ले। तब मन के प्रत्येक विचार के अनुरूप कृत्य के संपादन से पूर्व आत्मा से अनुमति लेना आवश्यक होगा और आत्मा तो सदैव धर्मानुकूल कृत्य हेतु ही अनुमति देगी। इति।