Saturday, August 29, 2009

(२०) 'सांसारिक मनोकामनाएं/बाधाएं' बनाम 'कर्मकाण्ड'

आजकल बहुत से धार्मिक संगठन व सम्बद्ध मार्गदर्शक वैयक्तिक सांसारिक कामनाओं की पूर्ति या बाधाओं के निवारण हेतु विभिन्न कर्मकाण्ड बताते हैं, विशेषकर भारत व कुछ अन्य विकासशील या अविकसित देशों में।

मैंने पहले के अनेक लेखों में भी कहा था, वही बात फिर से दोहरा रहा हूँ कि, पूर्वकाल में आम जन को वास्तव में धार्मिक (righteous) बनाने व ईश्वर के गुणों के समीप लाने हेतु तत्कालीन ज्ञानी व्यक्तियों ने अनेक शिक्षाओं को कुछ वाह्य धार्मिक स्थूल कृत्यों से जोड़ा। फलस्वरूप समाज-अनुरूप नाना प्रकार के कर्मकांडों को जन्म दिया। आशय या मंतव्य केवल यही था कि उन स्थूल कृत्यों में ही किसी प्रकार से लोगों का मन रम जाये, जिससे व्यक्ति का रुझान अधर्म से हट कर धर्म (righteousness) की ओर उन्मुख हो जाये, सत्त्व का पलड़ा भारी रहे, समाज का संतुलन बना रहे। सांसारिक लोभ व यश को महत्त्वहीन बताते व सिखाते हुए यह प्रक्रिया त्याग व निरपेक्ष प्रेम की शिक्षा के ऊपर आधारित थी। सरलता व सहजता हेतु सगुण भक्ति का सुन्दर आलंबन था इस प्रक्रिया में। लेकिन मात्र ज्ञान की प्रारंभिक अवस्थाओं हेतु ही। आगे की अवस्थाओं में आवश्यकतानुसार और अधिक परिपक्व ज्ञान भी मार्गदर्शक सर्वसाधारण को देते थे।

जब तक धार्मिक या श्रेष्ठ मार्गदर्शकों में धन या सांसारिक यश का लोभ नहीं उपजा था, तब तक इसी पद्धति से लोगों या समाज का संतुलन ठीक रखने में सफलता मिलती रही। 'जहां भाव वहां देव' के सिद्धांत के ऊपर ही आधारित थी यह प्रक्रिया।

परन्तु बाद में तथाकथित ज्ञानी मार्गदर्शकों का अपना ही स्वरूप बदलता गया। वे निरंतर नीचे की ओर जाने लगे, धन व यश के लोभ ने उन्हें आ घेरा। वे स्वयं तो पतित हुए ही, उन्होंने अन्यों को (अनुयायियों को) भी भ्रमित करना प्रारंभ कर दिया। तदुपरांत यह परंपरा पीढ़ी दर पीढ़ी आगे बढ़ती जा रही है। वर्तमान में कुछ मार्गदर्शक लोभवश और कुछएक भ्रष्ट गुरु की शिक्षा से उपजी अज्ञानतावश यह बात प्रचारित कर रहे हैं कि विभिन्न कर्मकांडों से, लॉकेटों, तावीजों, पत्थरों आदि को धारण करने से सभी सांसारिक मनोकामनाएं पूर्ण होती हैं व जीवन में आने वाले कष्ट-बाधाएं आदि दूर भाग जाते हैं!

आजकल टेलिविज़न के धार्मिक चैनलों पर ऐसे भ्रामक कार्यक्रमों व विज्ञापनों की बाढ़ से सभी जागरूक जन परिचित ही होंगे। हम सभी ईमानदारी से विचार करने पर यह तो मानेंगे ही कि हमारा वर्तमान भारत भौतिक व आध्यात्मिक रूप से बहुत अधिक विकसित नहीं है। अनेक राष्ट्र हमसे बहुत-बहुत आगे हैं, लगभग हर क्षेत्र में। हम विकासशील देशों की श्रेणी में ही हैं और बहुत से कई अन्य राष्ट्र हमारे सामने ही सही मायनों में विकसित हुए हैं, अर्थात् वहां भौतिकता के अतिरिक्त नैतिक गुण भी हमारे यहाँ से बहुत बेहतर हैं। ... और नैतिक रूप से श्रेष्ठ होने का सीधा सा अर्थ है कि वे सही मायनों में धार्मिक (righteous) हैं। क्या वे विभिन्न स्थूल धार्मिक कर्मकांडों का अवलंबन लेकर अभ्युदय अर्थात् चतुर्मुखी विकास या उत्तरोत्तर समृद्धि को प्राप्त हुए??

यह प्रश्न या कोई अन्य मत जब उन तथाकथित धार्मिक मार्गदर्शकों के समक्ष उठाया जाता है, तो अधिकांशतः वे खामोश ही रहते हैं, कोई संतोषजनक ठोस उत्तर नहीं होता है उनके पास। फिर भी कुछ ज्ञानी (?) साहस करते हैं सुन्दर तर्क देने का! वे कहते हैं कि "जीवन में सांसारिक इच्छापूर्ति के लिए प्रयत्न करते समय मनुष्य किसी को दुःख पहुंचाता है, कई बार किसी को लूटता है, अनुचित विकारों व इच्छाओं का शिकार बनता है, तो कई बार अपने लिए शत्रु निर्माण करता है। इससे सत्त्व की हानि होती है। परन्तु आधिदैविक उपायों अर्थात् विभिन्न कर्मकांडों या अनुष्ठानों आदि से इन बाधाओं से बचते हुए सांसारिक इच्छाओं की पूर्ति संभव है।"

कोई मुझे बता सकता है कि क्या तथाकथित अनुष्ठानों से यदि यह सब संभव होता तो बिना प्रयास के ही हमारा भारत आज शीर्ष पर होता, क्योंकि निःसंदेह भारत के पास आज इन उपायों की कोई कमी नहीं है। ज्ञान व उपाय का सामान ऑनलाइन मौजूद है चौबीसों घंटे व सातों दिन! व्यर्थ में ही हम इतना श्रम कर रहे हैं या इसके लिए नियोजन कर रहे हैं!

हम जानते हैं कि हमारे आज के जीवन-संघर्ष का मुख्य कारण इनमें से ही है -- नैतिकता का पतन, राग-द्वेष, लोभ, अंहकार, आलस्य, अज्ञान, अनुशासनहीनता, स्वार्थ, प्रारब्ध, आदि-आदि। इनमें से सभी हमारे कर्म पर ही निर्भर हैं, प्रारब्ध भी पूर्वकर्मों पर ही निर्भर होता है। नैसर्गिक रूप से प्राप्त शारीरिक, मानसिक व आध्यात्मिक शक्ति का सदुपयोग ही हमें यथार्थ सुख व समृद्धि प्रदान कर सकता है न कि विभिन्न कर्मकांडों से प्राप्त रिद्धि-सिद्धि! प्रथमतः रिद्धि-सिद्धि के अस्तित्व पर ही प्रश्नचिन्ह है! क्योंकि पहली बात तो यह कि इसका कोई ठोस स्थूल प्रमाण आज तक देखने में नहीं आया, अधिकतर सब सुनी-सुनाई बातें ही हैं; और दूसरी यह कि रिद्धि-सिद्धि में यदि इतना बल है, तो भारत इस विधा में इतना पारंगत होते हुए भी आज लगभग सभी क्षेत्रों में इतना पिछडा हुआ क्यों है?!

सभी जागरूक लोग इस बात से सहमत होंगे कि भारत का विकास ठोस नहीं हो रहा है, सूजन ही अधिक है!! और ये अंधविश्वासी कृत्य अर्थात् रिद्धि-सिद्धि प्राप्ति (shortcut) का लॉलीपॉप हमें और अधिक अकर्मण्य बनाएगा। आज इन कर्मकांडों की ओर अधिक जन-झुकाव के दो मुख्य कारण हैं -- पहला यह कि, साधारणतया लोग सरलता अर्थात् किसी शार्टकट के माध्यम से अपनी इच्छापूर्ति करना चाहते हैं; और दूसरा कारण मनोवैज्ञानिक है कि, व्यक्ति को अपने प्रत्येक कृत्य का परिणाम ज्ञात नहीं होता है, सफलता भी मिलती है व असफलता भी। जब व्यक्ति इन रिद्धि-सिद्धि प्राप्ति के अनुष्ठानों के चक्कर में फंस जाता है, तो सफलताओं का श्रेय वह इन अनुष्ठानों को देता है, निहाल हो जाता है तथा असफलता के लिए उसे समझाया जाता है कि अनिष्ट शक्तियों के बहुत प्रभावी (भारी) होने के कारण ऐसा हुआ! ... व्यक्ति संतुष्ट हो जाता है, ... मार्गदर्शकों की रोटियां सिकती रहती हैं।

आज के विकसित देश इस विधा के बिना ही बहुत सी ठोस उपलब्धियों को प्राप्त कर गए, जिन पर वे गर्व कर सकते हैं, प्रसन्न हो सकते हैं। उनके नागरिक समृद्ध हैं, साथ ही शांत भी। बहुत से अन्य कमजोर, अविकसित या विकासशील राष्ट्रों को यह बात नहीं जमती, ईर्ष्या होती है, तभी तो वे इन कुछेक अच्छे राष्ट्रों की टांग खींचते ही रहते हैं। अरे! वे उन्नति को प्राप्त हुए अपने वर्तमान श्रम व पूर्व कर्मफल अर्थात् प्रारब्ध से, इस बात से तो हम ज्ञानी भारतीय कभी इनकार नहीं कर सकते, तो फिर हम क्यों कुढ़ें? ... और यदि हमें अपनी इस आधिभौतिक उपायों की विधा पर पूर्ण विश्वास है, तो तनिक यह विचार करें कि यह इतनी प्रभावहीन क्यों है? यदि प्रभावहीन नहीं, तो ठोस व स्थायी परिणाम निरंतरता से क्यों नहीं दृष्टिगोचर होते??

हमें ठोस व टिकाऊ भौतिक एवं आध्यात्मिक प्रगति हेतु सचेत होना ही पड़ेगा, वास्तव में अच्छा बनना ही पड़ेगा, योग्य साधन-साधना अपनाने ही पडेंगे। इसका अन्य कोई सरल विकल्प नहीं। मेरी ईश्वर से यही प्रार्थना है कि योग्य, अधिकारी व समर्थ जन इसके लिए गंभीर एवं ईमानदार प्रयत्न निरंतरता से करते रहें। इति।