Saturday, September 26, 2009

(२१) मार्गदर्शकों का आचरण

  • आज गुरु-शिष्य संबंधों पर आधारित एक आध्यात्मिक लेख पढ़ रहा था। उसमें दिया था कि "शिष्य बनने का अर्थ यह नहीं है कि गुरु के सभी कृत्यों का अन्धानुकरण किया जाये। बल्कि शिष्य द्वारा केवल वह किया जाना चाहिए, जिसको करने का उपदेश गुरु दे रहे हों। गुरु तो पूर्णतया सिद्ध होते हैं, परम-ज्ञानी होते हैं, अतः उनपर कोई बंधन लागू नहीं होता है। परन्तु शिष्य को पूर्णत्व या परिपक्वता प्राप्त कर लेने से पूर्व कुछ मर्यादाओं, बंधनों या निश्चित सीमा के अंतर्गत रहना आवश्यक होता है। अतः शिष्य को गुरु द्वारा बताया गया मर्यादित आचरण ही करना कल्याणकारी सिद्ध होगा। उदाहरण के लिए -- ज्ञान की प्रारंभिक अवस्थाओं में जब शिष्य गुरु-आज्ञानुसार मर्यादापुरुषोत्तम 'राम' की भांति आचरण करेगा, तभी वह ज्ञान के चरमोत्कर्ष पर पहुँचने पर मर्यादा से परे गए 'कृष्ण' की लीला समझ सकेगा।"

  • 'पवित्र बाइबल' में एक स्थान पर लिखे उपदेश का आशय कुछ इस प्रकार से है "स्वयंभू ज्ञानी, गुरु एवं उपदेशक जो कुछ बोलते हैं उसको सुनो, समझो व यथाशक्ति करो, पर वह बिलकुल न करो जो आचरण वे स्वयं करते हैं! उनकी कथनी और करनी में भेद रहता है, अंतर रहता है!"

  • राम, युधिष्ठिर, गांधी आदि कट्टर सत्यवादी थे, मर्यादा में रहते थे; परन्तु इनके विपरीत कृष्ण ने सत्य व मर्यादा का समर्थन तो किया, परन्तु आवश्यकतानुसार इनको तिलांजलि भी दी!

  • दो दिन पूर्व 'राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ' के संस्थापक डॉ. हेडगेवार जी का जीवन-चरित्र पढ़ रहा था। उसमें उनके मानसिक व आध्यात्मिक बल के साथ-साथ उनकी विनम्रता व परिपक्वता के दर्शन हुए। उन्होंने 'राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ' की स्थापना के कुछ समय बाद जब गुरुपूर्णिमा के अवसर पर 'संघ' में गुरु-पूजन व गुरु-दक्षिणा की परम्परा आरम्भ की, तो 'संघ' के सर्वेसर्वा होने के बावजूद उन्होंने 'भगवा ध्वज' को प्रतीक-स्वरूप 'गुरु' का स्थान दिया। इसके समर्थन में उन्होंने बहुत सुन्दर कारण बताया, जिसका आशय इस प्रकार था कि "सभी व्यक्ति अपूर्ण हैं (कम-ज्यादा हो सकते हैं), व्यक्ति के स्वभाव में कभी भी परिवर्तन आ सकता है, उसमें अहम् आ सकता है, धन-पद-यश आदि की अभिलाषा जाग सकती है, राग-द्वेष में पड़ सकता है अर्थात वह या भविष्य के उसके उत्तराधिकारियों में से कोई कभी भी पतनोन्मुख हो सकता है; परन्तु अपना 'भगवा ध्वज' इन सब से परे है तथा तेज एवं सात्त्विकता का प्रतीक है। अतः 'संघ' में 'व्यक्ति-निष्ठा' न होकर केवल विशुद्ध 'तत्त्व-निष्ठा' ही रहेगी तथा इसके प्रतीक-स्वरूप गुरु-स्थान पर केवल 'ध्वज-पूजन' होगा।"

  • कुछ वर्षों से एक आध्यात्मिक संस्था से जुड़ा हुआ हूँ, बल्कि यह कहना अधिक उचित होगा कि उस संस्था के एक साधक के अपेक्षारहित अथक नम्र प्रयासों व अपने प्रारब्ध के योग से अल्पकाल में मैं कुछ परिपक्वता को प्राप्त हुआ। उसी संस्था के संस्थापक का सभी साधकों को यह स्पष्ट निर्देश था कि "उनका चित्र पूजाघर में न रखकर अन्यत्र रखा जाये व उसकी पूजा आदि न की जाये। पारंपरिक ईश्वरीय अवतारों के चित्रों के साथ संस्थापक के दिवंगत गुरु जी का चित्र पूजाघर में रखा जा सकता है।" ... परन्तु मैंने उसी काल में यह देखा कि संस्था के केन्द्रों व साधकों के घर पर संस्थापक जी का चित्र पूजाघर में उपस्थित था और उनकी विधिवत पूजा भी होती थी, अब तो यह और भी बढ गयी है! संस्थापक जी को यह सब पता न हो ऐसा नहीं है, बल्कि यहाँ कुछ ऐसा ही हो रहा है, जिसकी डॉ. हेडगेवार जी को आशंका थी!

..... ऊपर दिए गए विचार-बिन्दुओं से हमारे समक्ष कुछ असमंजस की स्थिति आ जाती है कि वास्तव में क्या योग्य है या होना चाहिए? वैसे एक बात तो सबको निर्विवादित रूप से मान्य होगी कि किसी भी महापुरुष, मार्गदर्शक या अवतारी पुरुष ने कभी भी अपने महान होने का दावा स्वयं नहीं किया और न ही अपने जीते जी अपनी पूजा करवाने की चेष्टा या आग्रह किया। ऐसा आग्रह जिसने भी किया, वह अंततः गुमनामी के अंधकार में खो गया, क्योंकि वैयक्तिक अहम्, पाखण्ड व अन्य अनुचित रीतियों से उपजी प्रतिष्ठा खोखली होती है तथा उसकी आयु बहुत कम होती है। गीता प्रेस से सम्बंधित अनेक गुरु-पद योग्य व्यक्तियों, 'राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ' के द्वितीय सरसंघचालक श्री गोलवरकर जी तथा अन्य कई ज्ञात-अज्ञात महापुरुषों ने अपना अंतिम संस्कार भी बड़ी सादगी से करने व उनकी याद में किसी प्रकार का स्मारक आदि न बनवाने की वसीयत की थी। यह अलग बात है कि बाद में लोग उनके त्याग व विनम्रता से अभिभूत हो उन्हें आदर्श रूप में स्वीकार कर उनके अनुयायी हो गए। पर उन महापुरुषों ने अपने जीते जी किसी को अपनी पूजा नहीं करने दी। सदैव स्वयं को आम जनसाधारण के तुल्य रखा, सबको सहज उपलब्ध होते थे, स्वयं सबकी सेवा-सत्कार आदि करते थे, उदाहरणार्थ -- साईं बाबा, यीशु मसीह, हनुमानप्रसाद पोद्दार।

जिन महापुरुषों या अवतार तुल्य महान व्यक्तियों का जन्म राजसिक परिवारों में हुआ, उनमें भी विनम्रता कूट-कूट कर भरी थी, अहम् छू तक नहीं गया था। सबको सहज उपलब्ध रहते थे, व्यर्थ के आडम्बरों से दूर रहते हुए अपने जीवनकाल में निज पूजा करवाने में कभी रुचि नहीं दिखाई, बल्कि ऐसा पता चलने पर वे लोगों पर बिगड़े भी।

देखा जाये तो उन महान विभूतियों के जीवनकाल में यदि जन-साधारण ने उनकी थोड़ी-बहुत पूजा-उपासना की भी, तो वह केवल उनके आचरण से अभिभूत होकर, स्वेच्छा से, बिना किसी दबाव या बहकावे के, बिना उनके संज्ञान में लाये! मरणोपरांत उनकी ख्याति और अधिक फैली, जनसाधारण को उनके कृत्य अब और अधिक अच्छी तरह से समझ में आये, असंदिग्ध व निर्विवादित रूप से श्रेष्ठता की कसौटी पर वे खरे उतरे, फलस्वरूप बाद में उनको आदर्श व आराध्य रूप में पूजा जाने लगा। प्रेरित होने के उद्देश्य से इस प्रकार की पूजा में कोई दोष नहीं, पर फिर भी अपने आराध्य के आचरण की गरिमा को ध्यान में रखते हुए व्यर्थ के दिखावों से परे रहने में ही बुद्धिमानी है।

अब बात आती है उनके आचरण की, तो यह बात निःसंदेह रूप मान्य है कि आम जन को महापुरुषों का आचरण कभी-कभी अटपटा या धर्म-विपरीत भी प्रतीत हो सकता है, क्योंकि एक आम व्यक्ति का मानसिक व आध्यात्मिक स्तर इतना ऊंचा नहीं होता कि वह मार्गदर्शक स्तर के व्यक्ति का असली मंतव्य या हेतु समझ पाए। पर फिर भी मैं यह अवश्य कहूँगा कि मार्गदर्शक की कथनी व करनी में भेद नहीं होना चाहिए। यथासंभव उसका यह प्रयास होना चाहिए कि शिष्य या अनुयायी को भ्रम की स्थिति का सामना न करना पड़े। क्योंकि भ्रम की स्थिति आने पर विश्वास या आस्था का पक्ष कमजोर पड़ता है, फलस्वरूप ज्ञान प्राप्ति या उन्नति के मार्ग में अवरोध उत्पन्न होता है। शिष्य या अनुयायी अपूर्ण ही होता है, तभी तो वह शिष्य या अनुयायी के रूप में होता है और यह एक शाश्वत सत्य है कि आचरण के माध्यम से ही शिक्षा प्रभावी रूप से संचारित होती है, केवल कथनी से नहीं ।

हम अपने बच्चों को भी कई बातें सिखाते हैं। माना कि हम परिपक्व हैं , अच्छा-बुरा समझते हैं, नीतिशास्त्र का बढ़िया ज्ञान है, धर्म का योग्य अर्थ भी समझते हैं, श्री कृष्ण कि भांति आपद्-धर्म की भी गहरी समझ है यानी योग्य (धर्मानुकूल) परिणाम प्राप्त करने हेतु हम अस्थाई रूप से परोक्षतः अधर्म का अवलम्ब ले सकते हैं / लेते हैं, विधि-निषेधों से ऊपर उठ चुके हैं; .... तब भी अपने बच्चों को सिखाते समय हम उनकी बाल्यावस्था व अबोधता को ध्यान में रखते हुए आरम्भ में उनको मर्यादा का पाठ ही पढ़ते हैं, सचेत रहते हैं कि उनके कोमल मन-मस्तिष्क पर कोई अयोग्य संस्कार न अंकित हो जाये। इसके लिए यदि हम अपरोक्ष रूप से कोई अयोग्य कृत्य कर रहे होते हैं तो उसे बच्चे से दूर ही रखने का प्रयास करते हैं। दूसरे शब्दों में हम अपनी गलत गतिविधियाँ बच्चे से छुपाते हैं। क्योंकि हम जानते हैं कि वे गलत हैं व बच्चे के लिए घातक हो सकतीं हैं। पर सोचिये कि बच्चे के अपरिपक्वकाल में ही हमसे चूक हो गयी और हमारी वह अयोग्य गतिविधि बच्चे को पता चल गयी, तो किसी भी यत्न से हम उसे यह नहीं समझा सकते कि परिस्थिति-अनुसार संभवतः यह कृत्य योग्य हो सकता है! क्यों? क्योंकि वह बच्चा अभी अपरिपक्व है, मर्यादा का पाठ पढ़ रहा है, कोमल व स्वच्छ हृदय है, अतः मर्यादा विरुद्ध बात उसे गलत ही लगेगी। चरण दर चरण जब वह बड़ा और कुछ परिपक्व होने लगता है तो तदनुसार उसको आगे के स्तर का व्यापक ज्ञान देते हैं।

पर हमारा यह समझना या मानना गलत है कि अयोग्य दीखने वाले कृत्य बच्चे के सामने ही करते रहो उसकी अपरिपक्व अवस्था में भी, .. समय आने पर वह स्वयं जान जायेगा कि योग्य माने क्या?! मेरे विचार से तो वह बालक इन कृत्यों से नकारात्मक ही ग्रहण करेगा और भविष्य में जब कभी वह परिपक्व होगा तो पश्चात्ताप करेगा कि अनावश्यक ही वह इतने अयोग्य कृत्य गलत मार्गदर्शन के फलस्वरूप करता रहा। अब आप कहेंगे कि मैंने तो उसे ऐसा करने के लिए नहीं कहा था, बल्कि मैं तो उसे मर्यादा व धर्म का पाठ ही पढ़ाता रहा। पर तनिक यह विचार कीजिये कि हमारे दृश्य कर्म या कृत्य ही उसके लिए प्रेरणा बन गए, क्योंकि हम उसके लिए आदर्श-स्वरूप थे। यह तो गलत हो गया न! मैं यह कदापि नहीं मान सकता कि हम अपरिपक्व बच्चों को मर्यादा का पाठ पढाएं एवं स्वयं अमर्यादित कृत्य भी उनके समक्ष करें और वे केवल पढाया गया पाठ ही सीखेंगे, प्रत्यक्ष किया गया नहीं! आध्यात्मिक गुरुओं व अपरिपक्व साधकों के बीच भी कुछ ऐसा ही घटित होने की सम्भावना बनी रहती है। अतः सिखाने वाले की भूमिका में व्यक्ति को यथासाध्य सचेत व अधिकतम मर्यादित रहने की आवश्यकता होती है। गुरु की कथनी और करनी में भेद या किसी भी कारण से किया गया विषम आचरण अबोध अनुयायियों के लिए अति घातक सिद्ध हो सकता है।

आप अब शायद यह कहें कि श्री कृष्ण ने भी गलत नीतियों का सहारा अनेक बार लिया था। तो इसके उत्तर में मैं यही कहूँगा कि उनमें अनंत गुण थे, जो औरों के लिए प्रेरणादायी थे / हैं। कतिपय परिस्थितियों में उन्होंने धर्म की रक्षा हेतु आपद्-धर्म अंतर्गत अस्थाई रूप से कुछ गलत दिखने वाली नीतियों का अवलम्ब यदा-कदा अवश्य लिया; पर सम्बंधित व्यक्तियों / मित्रों का यथायोग्य मार्गदर्शन करते हुए। मर्यादा की रक्षा हेतु उन्होंने मर्यादा का प्रबल समर्थन ही अधिकांशतः किया, पर दुष्टों को उन्हीं की भाषा में उत्तर देने में वह कभी कम भी नहीं पड़े! यह बात किसी के लिए भी प्रेरणादायी हो सकती है, बच्चों के लिए भी। क्योंकि उनके कृत्य अपने निजी हित के लिए न होकर व्यापक हित हेतु थे, निःस्वार्थ थे। क्या आपद्-धर्म के नाम पर हमारे अधिकतर कृत्य परहित, जनहित हेतु ही निःस्वार्थ भाव से होते हैं?? या मात्र वैयक्तिक हित ही निहित होता है उनमें?? इति।