Thursday, February 4, 2010

(२५) धार्मिक कर्मकाण्ड - अपनाएं, छोड़ें या बदलें ?

समय के साथ-साथ हिंदू समाज में बहुत से कर्मकाण्डों का प्रवेश हो चुका है। गर्भ में आगमन से लेकर मृत्युपरांत तक नाना प्रकार के कर्मकाण्ड चलते ही रहते हैं। इसके अतिरिक्त तीज-त्यौहारों पर एवं प्रतिदिन किये जाने वाले धार्मिक अनुष्ठानों की संख्या भी बहुत अधिक है। इनमें से केवल कुछ धार्मिक कृत्य ही साधारण व्यक्ति स्वयं कर पाता है, शेष कृत्य पण्डित, पण्डे, पुरोहित या आचार्य आदि द्वारा संपन्न कराए जाते हैं। कर्मकाण्ड करते या करवाते समय बहुतों के मन में यह प्रश्न उठता होगा कि 'क्या ये कर्मकाण्ड वास्तव में औचित्यपूर्ण हैं?' यदि उनसे पूछा जाए या वे स्वयं से ही पूछें तो व्यक्ति-अनुसार कई प्रकार के उत्तर मिलेंगे। कुछ का कथन होगा कि इससे उन्हें अच्छा लगता है। कुछ का कथन होगा कि 'हम यह नहीं करेंगे तो भगवान् नाराज हो जाएंगे।' कुछ का कथन होगा कि 'भगवान् इन सब कृत्यों के करने से प्रसन्न हो जाएंगे।' परन्तु अधिकांश का कथन होगा कि 'हमारे यहाँ ऐसी ही परम्परा चली आ रही है, उसी का निर्वाह हम भी कर रहे हैं, समाज में रहना है तो सामाजिक परम्पराओं का निर्वाह करना ही होगा।' .... अर्थात् हम देखते हैं लोग किसी न किसी भावनावश, भयवश, लोभवश या जगनिन्दा से बचने हेतु धार्मिक कृत्य कर-करवा रहे हैं और इनके करने का कोई ठोस औचित्य बताने में स्वयं को असमर्थ पाते हैं। बहुत ही कम ऐसे लोग होते हैं जिनको इन कृत्यों से वास्तव में कोई आध्यात्मिक अनुभूति होती है, वैसे किसी मनोवैज्ञानिक प्रभाव को अनुभूति समझ लेना बहुत आम बात है।

यद्यपि विभिन्न मनोवैज्ञानिक एवं मानसिक कारणों से आज समाज में धार्मिकता की सूजन बहुत बढ़ी हुई दिखती है पर समानान्तर रूप से यह भी कटु सत्य है कि कर्मकाण्डों के प्रति लोगों की आस्था कम हुई है या कम से कम अनिश्चय की स्थिति तो निरंतर बढ़ ही रही है। 'धार्मिकता की सूजन' कहा, इसी से यह स्पष्ट हो जाता है कि धार्मिक कृत्य तो अब बहुत हैं पर वे प्राण-विहीन हैं। यह जानने के पश्चात् मनन करना आवश्यक प्रतीत होता है कि जीवन के लगभग हर मोड़ पर आने वाले ये धार्मिक कृत्य क्या अत्यावश्यक हैं? इन धार्मिक कर्मकाण्डों को अपनाया जाए, छोड़ा जाए या बदला जाए?

सर्वप्रथम तो यह जानना बहुत आवश्यक हो जाता है कि कर्मकाण्डों की उत्पत्ति कैसे व क्यों हुई? जैसा कि हमने पहले के लेखों में भी इससे मिलते-जुलते अनेक विषयों पर चर्चा की ही है, उन्हीं को कुछ दोहराते व आगे बढ़ाते हुए चलते हैं।

मनुष्य एक आत्मिक प्राणी है। आत्मा के स्वरूप व गुणों पर हम पहले भी बहुत चर्चा कर चुके हैं। हम जानते हैं कि विश्व के सभी स्थानों पर मान्य सर्वोत्कृष्ट मानवीय गुण ही वस्तुतः आत्मा के मूल गुणों के बहुत समीप हैं। अतः प्रत्येक काल में तत्कालीन ज्ञानी महापुरुषों ने जनसाधारण को उन गुणों के समीप लाने हेतु उस समय के लोगों की बौद्धिक क्षमता के अनुसार अनेक शिक्षाओं को कुछ वाह्य धार्मिक स्थूल कृत्यों से जोड़ा। फलस्वरूप समाज-अनुरूप नाना प्रकार के कर्मकाण्डों को जन्म दिया। वस्तुतः ये सब क्रिया-कलाप ईश्वरीय गुणों को जानने व आत्मसात् करने हेतु माध्यम या साधन ही थे, साध्य नहीं। आशय केवल यही था कि कुछ स्थूल कृत्यों में ही किसी प्रकार से लोगों का मन रम जाए, जिससे लोगों के आचरण में धार्मिकता (righteousness) का समावेश सुनिश्चित हो सके, समाज का संतुलन बना रहे। सरल स्वभाव होने के कारण पहले लोग इन धार्मिक कृत्यों के प्रति आस्थावान थे। इन्हीं से उनका अंतःकरण शुद्ध हो जाता था, भक्तिभाव जागृत हो जाता था और नीतिपूर्ण कार्य करते थे अर्थात् आध्यात्मिक स्तर ऊंचा हो जाने से नैतिक मूल्य भी स्वतः बलिष्ठ हो जाते थे। विभिन्न कर्मकाण्ड न केवल व्यक्ति के अंतःकरण को शुद्ध करने का कार्य करते थे अपितु उसके मन में सम्बंधित कार्य एवं व्यक्ति के प्रति सम्मान एवं कृतज्ञता का भाव भी उत्पन्न करते थे, उदाहरणार्थ - जन्म, विवाह और मृत्यु पर किए जाने वाले कर्मकाण्ड। कुल मिलाकर सभी ज्ञानी महापुरुषों का मंतव्य यही था कि कर्मकाण्डों का आधार लेकर साधारण जनमानस शुद्ध व सात्त्विक रहे व समाजव्यवस्था उत्तम बनी रहे। सरलता व सहजता हेतु सगुण भक्ति का सुन्दर आलंबन लिए यह प्रक्रिया बहुत कारगर थी, लेकिन मात्र ज्ञान की प्रारंभिक अवस्थाओं हेतु ही। आगे की अवस्थाओं में आवश्यकतानुसार और अधिक परिपक्व ज्ञान भी मार्गदर्शक सर्वसाधारण को देते थे।

धीरे-धीरे समय ने करवट ली और माया से संबद्ध आत्मिक प्राणी ने माया के विषय में अपने ज्ञान को बढ़ाना आरंभ किया। व्यक्ति में मानसिक व बौद्धिक परिवर्तन होना आरंभ हुआ। सरलता और भोलापन पहले की अपेक्षा कम होता गया। व्यक्ति हर बात, हर घटना का प्रमाण खोजने लगा। अनेक स्थानों पर उसे आशातीत सफलता प्राप्त भी हुई, विशेषकर स्थूल खोजों में। विज्ञान की शिक्षा-पद्धति में वैश्विक स्तर पर क्रान्तिकारी परिवर्तन आए। आध्यात्मिक रूप से उन्नत होने के लिए भी व्यक्ति ने अपने सामर्थ्यानुसार प्रयास किए, कारणभाव जानने के प्रयास किए। अतः समानान्तर रूप से आध्यात्मिक शिक्षा के तौर-तरीकों में भी परिवर्तन आना अपेक्षित था। परन्तु दुर्भाग्य से भारत आध्यात्मिक शिक्षा-पद्धति में परिवर्तन करने में असफल रहा। तथाकथित ज्ञानी मार्गदर्शकों का अपना ही स्वरूप बदलता गया। वे निरंतर नीचे की ओर जाने लगे, धन व यश के लोभ ने उन्हें आ घेरा। वे स्वयं तो पतित हुए ही, उन्होंने अन्यों को भी भ्रमित करना प्रारंभ कर दिया। तदुपरांत यह परंपरा पीढ़ी दर पीढ़ी आगे बढ़ती जा रही है।

हिंदू समाज में समय के साथ-साथ धर्म-शिक्षा के स्तर में कोई परिवर्तन या सुधार तो हुआ नहीं, बल्कि अनेकों दोष ही घुस आये। देखा जाए तो कर्मकाण्डों का आरंभ त्रेतायुग से हुआ था और द्वापर युग में ये अपने चरम पर थे। तब तक इनका स्वरूप शुद्ध था। उस कालखण्ड तक पण्डितों या पुरोहितों का आध्यात्मिक स्तर ऊंचा था, अंतःकरण स्वच्छ था, वर्णाश्रम व्यवस्था का समुचित पालन करते-करवाते थे, समाज व्यवस्था उत्तम रखने का भान था, जीवनशैली सात्त्विक व साधारण थी। पर कलियुग आते-आते वह बात न रही। संभवतः इस स्थिति का पूर्वाभास तत्कालीन ज्ञानियों को हो गया था, इसीलिए अनेक हिंदू धर्मग्रंथों में कलियुग में 'कर्मकाण्ड साधना' का परित्याग कर उससे सूक्ष्मतर 'नामजप साधना' करने के लिए कहा गया है। कारण खोजें तो अनेक हैं। उनमें से प्रमुख हैं - कालानुसार लोगों की मानसिक एवं बौद्धिक क्षमता में परिवर्तन आना, जिज्ञासु वृत्ति का बढ़ना, भोलापन कम होना, मनुष्य की आयु का कम होते जाना, भाषा संबंधी परिवर्तन होना (संस्कृत भाषा का धीरे-धीरे लोप होना), ज्ञानियों में अहंभाव व विभिन्न प्रकार के लोभ पनपना, समाज का विभिन्न संप्रदायों में बंटना, जनसंख्या बढ़ना, कर्मकाण्डों में प्रयुक्त होने वाली सामग्रियों एवं उनकी गुणवत्ता का ह्रास होना आदि।

इतिहास को भी यदि हम समग्र रूप से बिना किसी पूर्वाग्रह के देखें तो यह पाएंगे कि द्वापरयुग तक सब कुछ संतुलित था, पर उसके पश्चात् हिंदू समुदाय में विद्यमान कर्मकाण्डों का स्वरूप बिगड़ता चला गया। हजारों प्रकार की जातियां तदनुसार देवी-देवता, दान के नाम पर निकम्मे लोगों का पालन-पोषण, अनगिनत हानिकारक रूढियों, रस्म-रिवाजों, पूजा-उपासना पद्धतियों, अनुष्ठानों, कर्मकाण्डों आदि की भरमार ने हिंदुओं को दिग्भ्रमित तथा मानसिक व आध्यात्मिक रूप से पंगु सा कर दिया। आज भाव को तो छोड़ दीजिए कोरा विश्वास भी दुर्लभ है, फिर भी लोक-निंदा से बचने के लिए लोग अंधाधुंध ये उपर्लिखित कृत्य बस आँख मूँद कर किए जा रहे हैं। जैसे-तैसे सब निपटाते हुए कामकाज चल रहा है। पण्डित भी मस्त यजमान भी मस्त! क्या इस प्रकार की अंधी दौड़ का कोई औचित्य है? मैं तो कहता हूँ कि इस प्रकार अपनी आँखों में स्वयं धूल झोंकने से अच्छा है कि ये सब करना बंद किया जाए या वर्तमान ज्ञानी महापुरुष आगे आएं और जनसाधारण का निःस्वार्थ मार्गदर्शन करें, स्थिति में शीघ्र व ठोस परिवर्तन लाने का प्रयास करें।

कल पं. श्रीराम शर्मा आचार्य जी द्वारा लिखित एक पुस्तक पढ़ रहा था। उसमें उन्होंने कहा था कि 'आध्यात्मिकता न वेश से सम्बन्ध रखती है, न पूजा-पाठ से, न जप-तप से। इन सब को करते हुए भी मनुष्य एक नंबर का पाखंडी, आडम्बरी और स्वार्थपरायण हो सकता है। यह नकली अध्यात्मवाद समाज के लिए अभिशाप सिद्ध हो रहा है और लोगों में अंधविश्वास तथा झूठी श्रद्धा का एक बड़ा कारण बना हुआ है। गुरुनानकदेव जी की तरह सभी हिंदुओं को इस ठग-विद्या को जड़ से समाप्त करना होगा।' यह कार्य हमारे अगुवों यानी अभिजात वर्ग द्वारा पहले किए जाने पर समाज में शीघ्र क्रांति आयेगी। आगे एक और स्थान पर वह कहते हैं कि 'हमें खेद के साथ यह कहना पड़ता है कि हिंदुओं के धार्मिक संस्कारों तथा अन्य जातीय कृत्यों को संस्कृत भाषा में ही किए जाने का आग्रह, एक वर्ग विशेष के स्वार्थ की दृष्टि से ही किया जाता है। वह वर्ग चाहता था कि धर्मकृत्य सदैव एक ऐसी भाषा में कराये जाएं, जिसका ज्ञान अन्यों को बहुत कम है, उससे सब उनके ऊपर ही निर्भर रहेंगे और उनको सहज में ही सुखपूर्वक निर्वाह करने का अवसर प्राप्त हो सकेगा।'

निश्चित रूप से समाज व्यवस्था को उत्तम रखने और लोगों की भाव-भावनाओं को उच्च स्तर पर बनाए रखने के लिए कर्मकाण्डों का एक बड़ा महत्त्व था। परन्तु हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि उपरोक्त अभीष्ट साध्य करने हेतु यह (कर्मकाण्ड) एक साधन मात्र था। समयानुसार सामाजिक एवं बौद्धिक परिवर्तन होने के साथ तत्कालीन ज्ञानियों द्वारा इसका परिष्कार व संशोधन आदि किया जाना अत्यावश्यक था (जैसे - भाषा के सम्बन्ध में ही ऊपर के परिच्छेद में पं. श्रीराम शर्मा आचार्य जी का कथन देखें)। श्रद्धा पहले संस्कृत भाषा में व्यक्त होती थी, कालांतर में वही श्रद्धा हिंदी या किसी क्षेत्रीय भाषा में व्यक्त करने-करवाने में ज्ञानी मार्गदर्शकों को क्या आपत्ति थी? कर्मकाण्ड करना है तो लोग संस्कृत सीख लें, इस प्रकार का आग्रह अब अप्रासंगिक होगा। समय के साथ-साथ अन्य बहुत सी बातों के समान भाषा में भी परिवर्तन आया। कर्मकाण्ड सबकी समझ में आएं और सब सरलता से इन्हें कर सकें, इसके लिए संस्कृत भाषा से हिंदी व अन्य भाषाओं में इनका अनुवाद करना लाभकारी रहता। मैं तो कहता हूँ कि अब भी देर नहीं हुई है, समाज के अगुवे ज्ञानी महापुरुष आगे आएं और निःस्वार्थ भाव से इस कार्य को आगे बढ़ाकर समाज को दिग्भ्रमित और पथभ्रष्ट होने से बचाएं। व्यक्ति जब स्वयं कोई कृत्य करेगा तब ही उसमें खरा श्रद्धाभाव उत्पन्न होगा। स्वयं कसरत करने से ही शरीर स्वस्थ बनेगा, कोई और कसरत करे और आपका शरीर पुष्ट हो, यह नहीं हो सकता। अर्थात् जब मनुष्य स्वयं अपनी भाषा में भली-भांति समझते हुए कर्मकाण्डों को संपन्न करेगा तभी उसे सच्ची अनुभूति होगी। किसी भी कर्मकाण्ड या पूजा-उपासना का सच्चा लक्ष्य है भाव जागृत कर आपको ईश्वर के समीप ले जाना। यह तभी संभव है जब आप अपनी भाषा में, अपने शब्दों में स्वयं यह सब करें। आरंभ में घर के सब सदस्य नहीं तो केवल एक-दो सदस्य ही यदि यह सब स्वयं करने में सक्षम होंगे तो अन्यों का उत्साह स्वयं ही बढ़ेगा। पर फिर से दोहराऊंगा कि समाज में प्रतिष्ठित ज्ञानियों व अभिजातवर्ग के पहल करने पर ही कर्मकाण्डों का स्वरूप सुधरेगा, अन्यथा मात्र लकीर के फकीर बने रहने से उत्तम होगा कि व्यर्थ का दिखावा त्याग कर इन प्राण-विहीन कर्मकाण्डों का परित्याग करें।

सत्य तो यह है कि द्वापरयुग से अब तक के लंबे समय में हमें आध्यात्मिक रूप से अत्यधिक उन्नत हो जाना चाहिए था, परन्तु हम भारतवासी निरन्तर नीचे की ओर ही गए। ऐसा इसीलिए हुआ क्योंकि हम ज्ञान की अगली अवस्थाओं में जाना ही भूल गए, हमारे पथप्रदर्शक भी सोते रहे। विद्यालय में भी तो एक कक्षा उत्तीर्ण कर अगली कक्षा में जाते हैं, पुनः उसी कक्षा में बैठने की गलती नहीं करते। प्रथम कक्षा में 'अ' से अनार जानने के लिए हमें अनार का चित्र या मूर्ति दिखाई जाती है, जबकि अगली कक्षाओं में ऐसा नहीं होता। कक्षा दर कक्षा क्रमशः हमारा ज्ञान विस्तृत एवं सूक्ष्मतर होता चला जाता है। विज्ञान के क्षेत्र में हम व हमारे मार्गदर्शक जितने चौकन्ने और गतिशील रहे उतनी प्रगति दिखाई पड़ती है, पर अध्यात्म के क्षेत्र में स्थूल कर्मकाण्डों से सूक्ष्मतर जाने के बजाय हम वह स्थूल ज्ञान भी विस्मृत कर बैठे। अब यदि कुछ लोग कहते हैं कि वे अपेक्षाकृत सूक्ष्मतर आध्यात्मिक जगत में पहुंच चुके हैं, तो मैं बेहिचक उनसे कहूँगा कि वे अब कर्मकाण्डों का परित्याग कर दें, परन्तु उन कर्मकाण्डों के प्रति हीन भावना न रखें, क्योंकि आज भी कई व्यक्ति उसी या उससे नीचे की कक्षा में होंगे और कभी आप भी वहां रहे होंगे। अतः मेरा वैयक्तिक निष्कर्ष यह है कि भौतिक जीवन में आने वाले कुछ विशेष अवसरों पर लोग अपनी श्रद्धा व सामर्थ्यानुसार स्थूल अथवा सूक्ष्म कर्मकाण्ड करें, श्रद्धा-विहीन यंत्रवत कुछ करने से उत्तम है कि कुछ न करें। भाव जागृत होने की आशा या इच्छा हो तो यंत्रवत करते रहने में भी कोई बुराई नहीं है। स्मरण रहे कि भाव सर्वोपरि है और यह किसी विशिष्ट भाषा या विधि पर तनिक भी आश्रित नहीं है। इति।