Saturday, April 24, 2010

(३०) बच्चों की परवरिश और शिक्षा-दीक्षा

इस सम्बन्ध में प्रचलित धार्मिक / आध्यात्मिक अवधारणा
आरंभ में भारत में वर्तमान समय में प्रचलित धार्मिक बल्कि आध्यात्मिक अवधारणा की ओर ध्यान आकृष्ट कराना चाहूँगा जो मैंने कई धार्मिक गुरुओं व साधकों के मुख से सुनी है। उनका कहना है कि - "हमें अपने बच्चों पर विशेष ध्यान देने या चिंता करने की आवश्यकता नहीं है, जो उनके भाग्य में होगा उसी अनुसार वे अपने जीवन में प्राप्त कर लेंगे।" .. कुछ का कहना है कि - "अभिभावक होने के नाते हमें बच्चों को उनकी आवश्यकताओं के अनुसार सुख-सुविधाएं या साधन आदि उपलब्ध करा देने चाहियें बस! आगे जैसा उनका भाग्य होगा, वे बन जायेंगे।"

... उपरोक्त बात कुछ सीमा तक सही है और यह बात भी सही है कि मैं भी कर्मफल, भाग्य (प्रारब्ध), पुनर्जन्म आदि पर विश्वास करता हूँ, ... परन्तु फिर भी मैं भाग्यवादी कतई नहीं हूँ। पिछले लेखों से भी यह स्पष्टतया विदित होगा कि किसी वांछित परिणाम के लिए केवल भाग्य पर आश्रित रहना मूर्खता ही है। ... और एक बार को हम यह मान सकते हैं कि अनायास या किसी विशेष परिस्थिति (घोर लाचारगी) में किया गया कार्य संभवतः भाग्यवश (प्रारब्धवश) हो सकता है, परन्तु हमारा क्रियमाण (विवेकानुसार प्रयत्नपूर्वक किया गया कार्य) हमारे भाग्य के ऊपर बिलकुल भी आश्रित नहीं होता है। ... यहाँ मैं क्रियमाण से उत्पन्न परिणाम (फल) की बात नहीं कर रहा हूँ। फल तो क्रियमाण और प्रारब्ध के संयोग (दोनों के गुणनफल) से प्राप्त होता है (कर्मxप्रारब्ध = फल)|

यदि हम कर्मफल के सिद्धांत को पुनः देखें तो पायेंगे कि वस्तुतः भाग्य तो हमारे पिछले कर्मों के फलस्वरूप ही निर्मित होता है। इसका निर्माण ईश्वरेच्छा से नहीं वरन हमारे ही कर्मों के कारण होता है। क्रिया के फलस्वरूप प्रतिक्रिया के सिद्धांत पर आधारित है यह। ... और जब तक आत्मा का प्रवास देह में होता रहता है, यह 'भाग्य' भी परिवर्तनीय दशा में उस जीव के साथ बना रहता है। इस विषय पर विस्तारपूर्वक चर्चा हम पहले के अनेक लेखों में कर ही चुके हैं। फिर भी पुनः कहूँगा कि सब कुछ या अधिकांश बातें भाग्य के भरोसे छोड़कर निश्चिन्त हो जाना, यह पलायनवादिता है; यह नकारात्मक सोच है। हाँ, सामर्थ्यानुसार भरसक योग्य 'कर्म' (क्रिया) करने के उपरांत 'फल' (प्रतिक्रिया) के प्रति निश्चिन्तता अर्थात् फल मिलने के समय के विषय में निर्विचार अवस्था या फल के प्रति तटस्थता आदि का भाव इस बात का द्योतक है कि व्यक्ति वास्तव में संतुलित है।

फिर से इस लेख के मूल विषय पर आते हैं। ... हमें यह पता होना चाहिए कि प्रत्येक आत्मा का किसी देह के माध्यम से इस धरा पर पदार्पण किसी विशेष कारण से ही होता है, वह है - उस जीव का अपने प्रारब्ध यानी पिछले शेष कर्मफलों को भोगना एवं कोई विशिष्ट साधना कर ईश्वरीय तत्त्व के और समीप जाना। 'विशिष्ट साधना' से तात्पर्य है कि पिछले संस्कारों के अनुसार एवं उनकी सहायता से, वर्तमान संस्कारों व क्रियमाण की सहायता से तथा आत्मिक प्रकाश का मार्गदर्शन लेते हुए ईश्वरीय गुणों व ज्ञान की ओर अग्रसर होना। जीव का किसी अमुक परिवार में जन्म उस जीव एवं उस जीव से जुड़े अन्य व्यक्तियों के प्रारब्ध के कारण ही होता है। तब एक काम तो यह हो सकता है कि हम सबसे ऊपर वर्णित भ्रान्ति के चलते लगभग कर्महीन हो प्रारब्ध के भरोसे बैठे रहें और उस जीव के संस्कार स्वतः निर्मित होने दें; वह अच्छा या बुरा जैसा भी विकसित होने को हो, बस हम उसे पोषण देते रहें! ... कहते हैं कि दुर्गुणी व कायर अपने कर्मों से अपने प्रारब्ध को खराब करते है। ... तो इस बात का विपरीत भी संभव है कि योग्य व साहसी व्यक्ति अपने गुणों और सत्-कर्मों से अपने अथवा किसी अन्य के प्रारब्ध के कारण उत्पन्न होने वाले प्रतिकूल परिणाम को परिवर्तित कर सकते हैं, आगामी कर्मफलों को बेहतर बना सकते हैं। इसमें तनिक भी संशय नहीं है!

इस सम्बन्ध में प्रचलित मनोवैज्ञानिक अवधारणा
मैंने वर्तमान समय के बहुत से मनोवैज्ञानिकों को भी यह कहते सुना है कि - "माता-पिता को अपनी इच्छाएं एवं संस्कार (impressions) आदि अपने बच्चों पर लादने नहीं चाहियें, उन्हें उनकी इच्छानुसार निर्मित होने देना चाहिए। जिस दिशा में बच्चे का मानसिक व आध्यात्मिक ढांचा उसे ले जाना चाहेगा, जिस ओर उसकी वृत्ति बनेगी, रुझान बनेगा, उस ओर वह स्वतः ही अग्रसर हो जायेगा।"

... बात सुनने में बहुत अच्छी और व्यावहारिक जान पड़ती है, परन्तु है वास्तव में कायरतापूर्ण व अपने दायित्वों से बचने का प्रयास ही! अब सोचिये उपरोक्त बात पर चलकर हमने बच्चे को ठीक उस समय उसके भाग्य के सहारे छोड़ दिया जब उसकी कर्मेन्द्रियाँ, ज्ञानेन्द्रियाँ अभी ठीक से विकसित ही नहीं हो पायी हैं, मानसिक विकास तो अभी शैशवावस्था में ही है! यह सब तो हम भौतिक शास्त्रानुसार कह रहे हैं; और आध्यात्मिक दृष्टिकोण से भी हम यह मान कर चलते हैं कि बच्चा जब पैदा होता है तब उसका मस्तिष्क या मन इस जन्म के दृष्टिकोण से संस्कारविहीन (impressionless / blank) होता है। पिछले जन्मों के संस्कार होते तो अवश्य हैं, परन्तु सुप्तावस्था में ही। जैसे-जैसे बच्चा बड़ा होना शुरू होता है, क्रमशः उसके मन पर नए संस्कारों का बनना प्रारंभ होता है; और प्रसंगानुसार या किन्हीं विशिष्ट घटनाक्रमों का साक्षी या दृष्टा होने पर उसके मन पर विद्यमान कुछ पुराने सुप्त संस्कारों का भी जागना प्रारंभ होता है। ... हम देखते हैं कि बच्चा कुछ बातों को तुरंत कम प्रयास या लगभग बिना प्रयास के ही सीख जाता है और कुछ बातों को बहुत कठिनाई से सीख पाता है। विभिन्न प्रसंगों में परस्पर उलट परिणाम भी दृष्टिगोचर हो सकते हैं, उदाहरणार्थ - 'अ' बात को यदि एक बच्चा 'क' कठिनाई से सीख रहा होता है और दूसरा बच्चा 'ख' सरलता से, तो एक अन्य बात 'ब' को 'क' सरलता से सीख लेता है और 'ख' कठिनाई से! बहुत जल्दी सीखने के पीछे का कारण मन पर अंकित पुराने संस्कार व विचार-केन्द्र हैं, और कठिनाई से सीखने का कारण है - उस प्रसंग से सम्बंधित कोई पुराना ठोस संस्कार न होना या उसका ठीक से जागृत न होना, उस प्रसंग से सम्बंधित नए संस्कारों का प्रथमतः निर्माण होना व उसके अनुरूप ग्रहण करने की क्षमता का शनैः-शनैः विकास होना।

... अर्थात् हम यह मान कर चलते हैं कि जीवन में आने वाले प्रसंगों और उन्हीं के अनुसार निर्मित या विकसित संस्कारों से बच्चे का मानसिक विकास होता है। अब ये प्रसंग अच्छी शिक्षा के स्वरूप में होंगे तो बच्चा सकारात्मक दिशा में अग्रसर होगा अन्यथा नकारात्मक दिशा में बढ़ेगा। .. अब यदि हम अभिभावक तटस्थ रवैया अपना लेंगे अर्थात् बच्चे के समक्ष अच्छा या बुरा कोई भी दृष्टिकोण प्रस्तुत नहीं करेंगे, कोई भी सैद्धांतिक या व्यावहारिक शिक्षा नहीं देंगे तो भी बच्चा आगे तो बढ़ेगा ही अपने हिसाब से! उसके मन-मस्तिष्क पर संस्कारों का निर्माण या जागरण तो तब भी होगा ही! अब यह निर्माण हमारे तटस्थ या मूक रहने पर कहीं बाहर से होगा, अन्य समाज से होगा। कोई आवश्यक नहीं कि अन्य समाज उस पर सकारात्मक संस्कार बनने या सकारात्मक संस्कार जागृत करने में ही मदद करे। हो सकता है हमारे आसपास रज-तम युक्त समाज हो और उसका उसके मन पर नकारात्मक असर पड़े और फलस्वरूप उसके मन में विद्यमान सुप्त संस्कारों में से नकारात्मक संस्कार पहले जागें और सक्रिय हों। इसका परिणाम यह होगा कि उसके मन पर नकारात्मक संस्कारों का प्रभुत्व होकर उसकी वृत्ति का निर्माण भी तदनुसार ही होने की संभावनाएं प्रबल हो जायेंगी। तब वे तथाकथित मनोवैज्ञानिक कुछ न कुछ और तर्क देने लगेंगे। तर्कों और तार्किक लड़ाई का अंत नहीं! आप जीत न पायेंगे उनसे! पर सत्य तो यही है कि अंततः हम हाथ मलेंगे और अपने व बच्चे के प्रारब्ध को कोसेंगे। मनोवैज्ञानिक यही कहेंगे कि आपके बच्चे का मानसिक ढांचा ही ऐसा था, इसमें कुछ भी अटपटा नहीं!!

... लेकिन जरा दूसरा पक्ष लें जो आध्यात्मिक दृष्टिकोण रखता है। वह यह कि - यद्यपि हम सामान्य अभिभावक इतने समर्थ नहीं कि अपने बच्चे का आदर्श मानसिक विकास करने में सक्षम हों अर्थात् उसे आत्मिक स्तर तक ले जा कर उसके मन पर आत्मा का प्रभुत्व स्थापित करने में योग्य मदद कर पाएं, तदपि इतना तो हम कर ही सकते हैं कि उसके मन पर स्वयं ही अच्छे से अच्छे संस्कार डालने का प्रयास करें, जो ईश्वरीय गुणों के बहुत समीप हों। इससे होगा यह कि बचपन से ही उसके मन पर योग्य व सकारात्मक संस्कारों का बनना आरंभ होगा तथा पुरातन मिले-जुले सुप्त संस्कारों में से केवल अच्छे संस्कारों को ही पोषण मिलेगा और प्रथमतः वे योग्य संस्कार ही जागृत होंगे। अब स्थिति क्या हो जायेगी कि मन पर वर्तमान व पुरातन योग्य संस्कारों का प्रभुत्व हो जायेगा, परिणामतः उसकी वृत्ति सकारात्मक एवं सत्त्वप्रधान होगी। रज-तम का भी उसमें समावेश होगा, परन्तु उसका प्रयोग आपातकाल हेतु या विशिष्ट परिस्थिति अनुसार करने हेतु सत्त्व-वृत्ति रूपी नियंत्रक लगाम रहेगी ही। इससे शैशवावस्था या बाद में भी बच्चा अपनी सत्त्व-वृत्ति के कारण योग्य गुरु के दिशानिर्देशन में शीघ्र आध्यात्मिक प्रगति कर सकता है। वह योग्य गुरु उसके अभिभावक भी हो सकते हैं, इसमें कोई भी संदेह नहीं।

मैंने अपने सहित बहुत से अभिभावकों को देखा है कि शैशवावस्था में तो वे ठीकठाक थे, पर किशोरावस्था में कोई भी योग्य मार्गदर्शन न मिलने के कारण मध्य की आयु में वे दिग्भ्रमित रहे, फलतः आध्यात्मिक व व्यावहारिक उन्नति करने में अक्षम रहे। बाद में प्रौढावस्था में संभवतः प्रारब्धवश उन्हें योग्य मार्गदर्शन मिला और उनके नेत्र कुछ खुले; उन्हें अब सब कुछ साफ-साफ़ नजर आने लगा और महसूस हुआ कि योग्य मार्गदर्शन के अभाव में उन्होंने बीते वर्षों में कितना कुछ खो दिया, समय बर्बाद कर दिया और गया वक्त लौट कर नहीं आता! हमारी आयु कम ही है, कितनी? यह हम नहीं जानते। पर जीवन का एक बड़ा और महत्त्वपूर्ण हिस्सा यूं ही व्यर्थ गँवा देने पर समझ में आया कि हमने जो किया या हमारे साथ जो घटित हुआ, वह हमारे बच्चों के साथ न घटित हो अर्थात् हमारे बच्चे योग्य मार्गदर्शन से वंचित न रहें। ... तो अब स्थिति क्या बन गयी कि हमने जो भी इधर-उधर भटक कर अंततः अपने प्रारब्धवश जो सीखा, जाना, वह अपने बच्चे को उसके शैशवकाल से सिखाना प्रारंभ कर दिया। हमारे अभिभावक सचेत नहीं थे, पर हम समय से सचेत हो गए अपने बच्चों के प्रति कि हमारे समान उनका जीवन असमंजस की स्थिति में न रहे और यथासंभव उन पर योग्य संस्कार शुरुआती अवस्था से ही अंकित होने प्रारंभ हो जायें।

... यह कतई आवश्यक नहीं कि हर कोई गिर कर ही सीखे। ... किसी दूसरे को गड्ढे में गिरता देख भी यह जाना जा सकता है कि वहाँ खतरा है, .. थोड़ा मार्ग बदल कर सावधानीपूर्वक निकला जा सकता है। अतः सावधानीपूर्वक चलने से हम असीमित ऊर्जा बचा सकते हैं। आत्मा को स्थूल देह के रूप में कोई अक्षुण्ण भौतिक ऊर्जा का स्रोत नहीं मिल गया है; यह सीमित ही है। अतः बुद्धिमानी यही है कि यदि अभिभावक को पर्याप्त व्यावहारिक व आध्यात्मिक ज्ञान हो, तो बच्चे के विकासक्रम में उसे 'मौनी बाबा' की भूमिका न निभा एक कर्मठ व योग्य मार्गदर्शक की भूमिका निभानी चाहिए। यदि अभिभावक पर्याप्त ज्ञान नहीं रखता तो उसे परिवार या मित्रमंडली में किसी ऐसे सदस्य की पहचान कर उसकी मदद लेनी चाहिए जो एक योग्य मार्गदर्शक की भूमिका निभा पाए। यदि अभिभावक बिलकुल ही जड़बुद्धि का, निरा भौतिकवादी या मात्र अपने में ही मस्त स्वार्थी व्यक्ति है, तो फिर बात ही अलग है; तब तो सकारात्मक या नकारात्मक दिशा में अग्रसारित होने हेतु केवल बच्चे का ही क्रियमाण व प्रारब्ध कार्य करेगा।

... ऊपर जो बात हमने की, वह बच्चे की शैशवावस्था की थी। अब जब बात आती ही किशोरावस्था की, तो वर्तमान मनोवैज्ञानिक और अधिक मजबूती से कहते हैं कि - "किशोरावस्था में तो बच्चे को अपने अनुसार मार्गदर्शित करने का प्रयास घातक होगा, उसे उसी की इच्छानुसार विकसित होने देना चाहिए।" यहाँ मनोवैज्ञानिकों की बात बहुत हद तक ठीक है। फिर भी यदि अभिभावकों में पर्याप्त योग्यता है और वे बच्चे के साथ अच्छा सामंजस्य बैठाने में कामयाब हैं, तो निश्चित रूप से वे किशोरावस्था के बच्चे को भी मार्गदर्शन दे सकते हैं। वे उसे भविष्य की योजनाएं बनाने व उन्हें क्रियान्वित करने हेतु परामर्श व सहायता दोनों प्रदान कर सकते हैं; एक मित्र की भूमिका बखूबी निभा सकते हैं। ऐसी अवस्था निर्मित होने के लिए यह परम आवश्यक है कि अभिभावक समय के अनुरूप निरंतर स्वयं को अद्यतन (update) रखते हों और वर्तमान सभी बदलावों तथा समय की मांग को भली-भांति समझते हों; तभी वे आज के वर्तमान एवं आने वाले भविष्य के परिपेक्ष्य में अपनी संतान का योग्य मार्गदर्शन कर सकेंगे। यहाँ अभिभावक को कई भूमिकाओं को एक साथ निभाना होता है - एक मित्र की, एक मार्गदर्शक की, एक मनोवैज्ञानिक की, एक आध्यात्मिक गुरु की, एक भौतिक संसाधन प्रदाता की, और हर स्थिति में साथ खड़े होने वाले एक समझदार अभिभावक की।

एक कुशल अभिभावक बनने के लिए आवश्यक है कि वह स्वयं अपने भीतर भी संतुलित रवैया विकसित करे, अपनी महत्त्वाकांक्षाओं को सीमित करे और उन्हें अपने बच्चे पर लादे नहीं। देखा जाता है कि बहुत से अभिभावक अति महत्त्वाकांक्षी होने के कारण अपने कच्चे विवेक से स्वयं ही यह तय कर लेते हैं कि उनका बच्चा भविष्य में क्या बने?! वे संसाधनों का तो अम्बार लगा देते हैं परन्तु बच्चे के रुझान, प्रतिभा व सामर्थ्य आदि पर गौर नहीं करते हैं; फलतः अपेक्षाओं से दबा उनका बच्चा निराशा व अवसाद की स्थिति में जा सकता है। ... आम के पेड़ से सेब की आशा रखने वाला अंततः खुद को निराशा में खड़ा पाता है और ... ! यदि फिर भी कोई अभिभावक मजबूती से पक्का इरादा कर ले कि उसे अपनी संतान को विशिष्ट ही बनाना है, तो फिर इसके लिए उसे बहुत श्रम करना पड़ेगा, बचपन से ही संतान के बेहद करीब रह कर मित्रवत कड़ा अभ्यास कराना होगा, स्वयं भी उस विधा में पारंगत होना पड़ेगा; यह सब बहुत कठिन और जोखिम भरा तो है पर शायद असंभव नहीं। इस पर एक विशेष टिप्पणी मैं अवश्य करना चाहूँगा कि असफल होने की दशा में कुछ भी अनहोनी या नकारात्मक घटना होना अवश्यम्भावी है यदि वहाँ आध्यात्मिक समझ का अभाव है!!

एक बात पर मैं बहुत अधिक जोर देना चाहता हूँ कि एक 'संतुलित' अभिभावक को अपने बच्चे को पूरी तरह से 'संतुलित' अर्थात् शारीरिक, मानसिक, सामाजिक एवं आध्यात्मिक रूप से स्वस्थ नागरिक बनाने का गंभीर प्रयास करना होगा। विशेषकर आध्यात्मिकता का पक्ष मजबूती से दृढ़ करना होगा क्योंकि बच्चे की शांत, सरल, सरस व वास्तव में आनंददायक जीवनशैली निर्मित होने के लिए 'स्वस्थ आध्यात्मिकता' की बुनियाद अत्यावश्यक है। पुनः, 'स्वस्थ आध्यात्मिकता' अर्थात् स्वाभाविक सच्ची धार्मिकता (righteousness) की ओर उन्मुखता।

यदि हम अच्छे माली (बागबान) हैं तो हम कोई पौधा रोप कर उसे उसके प्रारब्ध पर नहीं छोड़ देते। हम उस पौधे के आसपास की भूमि की नियमित निराई-गुडाई करते हैं, उसे पानी देते हैं, खाद देते हैं, कीड़ों से बचाते हैं। जब उसकी जड़ें जम जाती हैं, वह बड़ा होना शुरू होता है, तब भी उसकी देखभाल करते ही हैं, परजीवी बेलों से उसे बचाते हैं, सावधानी से कीटनाशक आदि भी डालते हैं, अच्छे विकास के लिए कटिंग आदि करते हैं, बेल हो तो उसे योग्य स्थान पर फैलने देने के लिए रस्सी या सुतली आदि बांध कर सहारा व दिशा देते हैं। इन सब कृत्यों का उद्देश्य यही होता है कि वह पौधा योग्य रीति से विकसित हो अपना जीवन सुदृढ़ करे और उससे अन्यों को भी लाभ पहुंचे अर्थात् वह सुन्दर तथा पुष्ट फल प्रदान करे। ... यह बात अलग है कि कुछ पेड़-पौधे बिना देखभाल के ही बहुत अच्छी तरह से विकसित होते हैं और लाभदायी फल प्रदान करते हैं; दूसरी ओर कुछ पेड़-पौधे हमारी अथक देखभाल के बावजूद भी मुरझा जाते हैं और अंततः नष्ट हो जाते हैं। ... लेकिन यह सब देखते हुए क्या लोग बागबानी या किसानी छोड़ देते हैं? .. या सब कुछ प्रकृति या प्रारब्ध आदि पर ही छोड़ देते हैं?? ... नहीं, बिलकुल भी नहीं।

... प्रारब्ध का हमें पता नहीं, कर्म करना हमारे वश में है, और हमारा कर्म कब और कितना फलीभूत होगा, हमें नहीं पता! ... फिर भी हम आशावादी हैं, क्योंकि हम अच्छे से जानते हैं कि प्रारब्ध कोई ऊपर से टपकी चीज नहीं है, वरन वह तो हमारे ही पूर्वकर्मों से निर्मित है। हम सभी कर्मफल से बंधे हैं। नियम ही यही है - क्रिया के फलस्वरूप प्रतिक्रिया; कब, कैसे और किस रूप में? .. इसकी यथार्थ व्याख्या करने में वैज्ञानिक भी असमर्थ हैं। फिर भी वैज्ञानिक मानते ही हैं कि ऊर्जा अक्षुण्ण होती है, मात्र उसका स्वरूप बदल जाता है और क्रिया के फलस्वरूप प्रतिक्रिया अटल है। तो फिर हम कर्मफल व संचित की आध्यात्मिक अवधारणा बल्कि सिद्धांत मानने में क्यों संकोच करें, और क्यों योग्य क्रिया करने में पीछे रहें जबकि हमको यह पता है कि योग्य क्रिया के फलस्वरूप योग्य प्रतिक्रिया अवश्यम्भावी है। फिर भी यदि हम अपने संघ की वर्तमान परिस्थितियों से उकता कर अवसाद की स्थिति में पहुँच गए हों, समष्टि के उत्कर्ष के कोई आसार न दीख रहे हों, केवल अपने या अपने पारिवारिक वर्तुल के अच्छे बनने का कोई भी प्रत्यक्ष लाभ न दीख रहा हो, तिस पर भी प्रयत्नपूर्वक क्रियमाण कर हमें स्वयं व अपनी संतानों को 'कमल' की स्थिति में तो ले जाना ही होगा; तब हमें कम से कम इस कहावत से तो संतोष की अनुभूति होगी ही कि - "कीचड़ में कमल भी खिलते हैं"। ... आगे कभी न कभी हमारे योग्य प्रयत्नों को योग्य प्रतिक्रिया अवश्य मिलेगी, यह अटल सत्य है। इति।

Tuesday, April 13, 2010

(२९) स्वस्थ आलोचना

पहली बात तो यह कि आलोचना की ही क्यों जाती है? आलोचना का मूल कारण 'सत्य (!?) का आग्रह' करना होता है। यहाँ 'सत्य का आग्रह' से तात्पर्य 'आलोचक द्वारा मापदंडित सत्य' से है। यद्यपि जो आलोचक के लिए सत्य व सही है वह किसी अन्य के लिए असत्य व गलत भी हो सकता है, इसकी सम्भावना भी रहती ही है। पर फिर भी एक स्वस्थ आलोचक का मंतव्य यही रहता है कि उचित आलोचना से लोकहित साधा जाये।

मनुष्य एक सांघिक प्राणी है। एक जागरूक सांघिक प्राणी को जब भी उसके संघ में या आसपास के वातावरण में कुछ गलत होते दिखाई पड़ता है तो वह संघ के हितार्थ कुछ न कुछ बोलता अवश्य है। उसका बोलना, आलोचना या सुझाव आदि उसके सामर्थ्य यानी बुद्धि-विवेकानुसार होते हैं।

अब यह आलोचना भी कई प्रकार की होने लग गयी है -- एक तो वह जो स्वतः ही यानी स्वाभाविक रूप से व्यक्ति की जागरूकतानुसार प्रकट होती है, और दूसरी वह जो कुछ व्यक्ति व्यवसाय या शौक के तौर पर करते हैं। व्यवसाय के तौर पर आलोचना करना अर्थात् जैसे आजकल अधिकांश प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया वाले कर रहे हैं - 24x7. ... आलोचनाएं गढ़ी जाती हैं, किस्से-कहानियों के रूप में! ... कुछ लोग शौक या सनक के कारण भी आलोचना करते हैं, क्योंकि शायद वे अक्सर असंतुष्ट ही रहते हैं या हर बात में विरोधी तर्क देना उनका स्वभाव होता है। ऐसे लोग सत्य के व्यर्थ के ठेकेदार बनकर समाज के लिए नासूर से बन जाते हैं। कोरी शेखी बघारने के अतिरिक्त उनके पास कोई दूसरा काम नहीं होता। अच्छा हो कि हम उपरोक्त वर्णित व्यावसायिक और शौकिया आलोचकों से परे ही रहें एवं उनके प्रभाव में न आयें।

.... अब हम यहाँ स्वस्थ आलोचना के ऊपर ही चर्चा करेंगे। ... जैसे कि हमने ऊपर भी चर्चा की थी - एक स्वस्थ एवं जागरूक सांघिक व्यक्ति असत्य व गलत कृत्यों को होते नहीं देख पाता। वस्तुस्थिति के पता होने पर भी धृतराष्ट्र व गांधारी समान आचरण उसे नहीं भाता है। वह कुछ न कुछ आलोचना या तत्सम्बन्धी क्रिया करने पर बाध्य होता है। शास्त्रों में भी कहा गया है - "सत्य के समान धर्म नहीं है और असत्य के समान पाप नहीं है, इसलिए सत्य का लोप कभी नहीं करना चाहिए।" ... सत्य के सम्बन्ध में यदि शास्त्रों और ज्ञानियों के वाक्य उद्धृत किये जायें तो एक बड़ा सा ग्रन्थ बन जायेगा। परन्तु यहाँ विचारणीय यह है कि सत्य क्या है और इसका प्रयोग कैसे हो सकता है?

जब भी कोई व्यक्ति किसी घटनाक्रम का तटस्थ रूप से, स्वस्थ एवं सरल हृदय से अवलोकन करता है, तब उसे उस घटनाक्रम से जुड़े सत्य व असत्य पहलुओं का अहसास होता है। सत्यप्रिय और जागरूक होने के कारण वह व्यक्ति उस घटनाक्रम के स्वस्थ पहलुओं को तो सराहता है, परन्तु गलत पहलुओं पर अपने हिसाब से विरोध दर्शाता है। वह आलोचना भी करता है और साथ ही सुझाव भी देता है। इस क्रम में गलत के विरुद्ध वह सात्त्विक क्रोध भी प्रकट करता है, जो स्वाभाविक है।

यह बात ठीक है कि सब लोग आपके मनानुसार या सुझावानुसार नहीं चल सकते। जब आप अन्यों के मनानुसार आचरण नहीं कर सकते तो फिर दूसरों से अपने अनुसार कृत्य की अपेक्षा क्यों रखी जाये? .... पर फिर भी मैं यह कहूँगा कि देख कर भी मक्खी निगलना या निगलने देना ठीक नहीं!

यदि कोई इतना सामर्थ्यवान है कि किसी घटनाक्रम को सही-सही भांप पाए और सही या गलत के निष्कर्ष पर ईमानदारी से पहुँच पाए, तो अवश्य ही उसे सत्य का साथ देते हुए अन्यों से भी सत्य के समर्थन का आग्रह करना चाहिए, चाहे आज कोई अच्छा समझे या बुरा! उसकी आलोचना में निर्भीकता के साथ यथासंभव विनम्रता एवं स्वस्थ तार्किक दृष्टिकोण का होना बहुत आवश्यक है। इसी की मदद से हम प्रतिकूल भाव रखने वाले को भी धीरे-धीरे अनुकूल बना सकते हैं। सबसे बड़ी बात जो आलोचक को ध्यान में रखनी चाहिए, वह यह कि उसे गलती पर क्रोध आना चाहिए, गलती करने वाले पर नहीं! गलत बात का विरोध होना चाहिए, व्यक्ति या विशिष्ट संघ का नहीं! अज्ञान का विरोध होना चाहिए, अज्ञानी का नहीं! .... स्वस्थ आलोचक गलत कृत्यों से द्वेष रखता है, कर्ता से नहीं! कर्ता का कृत्य परिवर्तनीय होता है और वह हमारे या उसके क्रियमाण से बदला जा सकता है!

स्वस्थ आलोचक का काम है कि प्रसंग आने पर गलत का विरोध और सत्य का समर्थन किये जाये बिना किसी परिणाम की अपेक्षा के। जब योग्य समय आयेगा तब उसके स्वस्थ आलोचना रूपी बीज में अंकुरण स्वतः ही हो जायेगा। इस प्रकार की आलोचना को हम आलोचना नहीं बल्कि 'सचेतना' कहेंगे। बीज डालना हमारा कार्य है, उसे संरक्षण व पोषण देना भी कुछ हद तक हमारे हाथ में है, .. पर उसके अंकुरण को या अंकुरण के समय को सुनिश्चित करना हमारे हाथ में नहीं!

विपरीत विचारधारा रखने वाले व्यक्ति सरलता से तुरंत हमारी बात मान लेंगे यह कतई संभव नहीं, बल्कि यह आशंका अवश्य संभव है कि वे नाराज होकर आवेश में आ जायें। यह एक स्वाभाविक प्रक्रिया है। कोई भी वस्तु अपनी वर्तमान अवस्था में ही रहना चाहती है। उसके स्वभाव में रासायनिक परिवर्तन करना बहुत कठिन होता है। फिर मन के संस्कारों व वृत्ति के विरुद्ध जाना इतना आसान नहीं। अतः आलोचक को उनकी तीष्ण प्रतिक्रिया को सहर्ष सहन करने हेतु तैयार रहना चाहिए। ... ऐसी अवस्था के लिए श्री हनुमानप्रसाद पोद्दार जी ने बहुत सुन्दर मार्गदर्शन किया है -- "ऐसी अवस्था में उचित यह है कि अपनी शुद्ध नीयत के सच्चे विचारों का प्रचार करने वाले उनके (प्रतिकूल भाव रखने वालों के) क्रोध को शांति और सुख के साथ सहन करते हुए उनसे प्रेम करें, उनके क्रोध का बदला क्षमा और सेवा से दें, उनकी गालियों का और मार का बदला परमेश्वर से उनका कल्याण चाहने की प्रार्थना के रूप में दें, वह भी ढोंग या उन्हें चिढ़ाने के लिए नहीं, पर सच्चे हृदय से। यदि ऐसा होगा तो हमारे विचारों का प्रचार होना बड़ी बात नहीं, आज नहीं तो कुछ दिनों बाद होगा।"

अब हम इस विषय के कुछ महत्त्वपूर्ण बिंदुओं पर भिन्न कोण से मनन करते हैं -- ... मनुष्य एक सांघिक प्राणी है, उसे समाज से सरोकार होता है। समाज-व्यवस्था उत्तम हो, समाज में धार्मिकता (righteousness) का पलड़ा भारी हो, तो ही वह खरा सुख पा सकता है। अतः सभी को अपने समाज या संघ को परिष्कृत करने का प्रयास करते रहना चाहिए, जिसके भीतर इसका सामर्थ्य हो उसे तो अवश्य ही! अपने परिवार को सुदृढ़ व आनंदित रखने हेतु भी तो हम ऐसा ही करते हैं। हमारे परिवार का मुखिया या अन्य समझदार व्यक्ति भी तो यही करता है कि सभी को प्यार से कुछ न कुछ समझाता रहता है, डांटता भी है, और मौका पड़ने पर विरोध भी दर्शाता है। यह सब वह इसलिए करता है कि परिवार में सुख-शांति बनी रहे, सौहार्दपूर्ण व धार्मिक (righteous) वातावरण बना रहे।

.... ठीक इसी प्रकार यदि कुछ जिम्मेदार व सामर्थ्यवान व्यक्ति 'अपने परिवार' का वर्तुल क्रमशः बड़ा करते हैं अर्थात् निज परिवार की परिधि समुदाय, संघ, देश, विश्व आदि तक विस्तारित करते हैं तो निश्चित ही उनके ऊपर यह दायित्व आ जाता है कि लोकहित या समष्टि हितार्थ कुछ न कुछ कृत्य करते रहें। वे गांधारी व धृतराष्ट्र समान मूक दर्शक न रहें। और कुछ नहीं तो कम से कम स्वस्थ व ईमानदार आलोचना करके वे दिग्भ्रमितों को मानसिक रूप से झिंझोड़ने का कार्य तो कर ही सकते हैं। समाज का एक अंग होने के नाते यह हमारे लिए कर्तव्य समान है। लोकहितार्थ जो भी न्यूनतम करना हमारे वश में है वह तो हमें अवश्य करना होगा, साहसी तो अधिकतम के लिए जायेंगे। इति।