Thursday, May 6, 2010

(३१) शरीर और उसके अंगों का महत्त्व

कुछ दिन पहले श्री हनुमानप्रसाद पोद्दार जी की एक पुस्तक पढ़ रहा था। उसमें उन्होंने शरीर के विभिन्न अंगों के महत्त्व के विषय में बहुत सुन्दर लिखा था। उनका आशय कुछ इस प्रकार से था कि - "शरीर के अंगों के आकार-प्रकार तथा उनके कार्यों में बड़ा भेद है। हाथ का कार्य कुछ है, पैरों का कार्य उससे भिन्न है, आँखों, कानों, दांतों, जीभ, मुख, जननेंद्रिय, गुदा आदि के कार्य भी परस्पर भिन्न हैं, उनका आकार-प्रकार भी एक-दूसरे से बिलकुल भिन्न है; फिर भी अपनी-अपनी जगह सबका अपना निराला ही महत्त्व है। व्यक्ति भी इस बात को जानता है, तभी तो वह दांतों के द्वारा जीभ कट जाने पर दांतों को दंड नहीं देता है वरन भविष्य में सावधानी बरतता है; किसी भी अंग को छोटा-बड़ा न समझते हुए सबका समान रूप से ध्यान रखता है। इसी प्रकार व्यक्ति को यह भी समझना चाहिए कि समाज के अन्य व्यक्ति, संप्रदाय, संघ आदि भी वाह्य विषमताएं रखते हैं; उनके रंग-रूप, प्रकृति, स्वभाव, रुचि-अरुचि, संस्कृति आदि में भिन्नता होती है। फिर भी इन अनिवार्य विषमताओं में भी जो व्यक्ति आत्मिक समता देखता है, व्यवहार-भेद होने पर भी जिसके मन में राग-द्वेष या मोह-घृणा का अभाव है; देश, जाति, व्यक्ति, योनि आदि विभिन्न भेदों को जो एक ही शरीर के विभिन्न अवयवों के भेदों की भांति मानकर सबका समान रूप से ध्यान रखता है - वही सही अर्थों में मानव है।"

इसी बात पर हम यहाँ कुछ और विस्तार से चर्चा करेंगे, कुछ अन्य पहलुओं को भी देखेंगे। ... बात बिलकुल ठीक है, जितना ध्यान हम अपने मुख का रखते हैं उतना गुदा का भी रखते हैं, कोई भेद-भाव नहीं रखते। किसी भी अंग को जब कष्ट होता है तो 'हमें' यानी 'देह की नियंत्रक-सत्ता' यानी 'सूक्ष्म जीव' (आत्मा+अविद्या) को 'स्थूल कार्य' निर्विघ्न रूप से सम्पादित करने में बाधा पहुँचती है। इससे उसे (हमें) दुःख भी होता है और यह दुःख अधिकांशतः प्रत्येक अंग के कष्ट के लिए समान रूप से होता है। इसी कारण बहुधा हम विभिन्न अंगों के कष्टों या बीमारियों को अनदेखा नहीं करते और उनके समाधान, चिकित्सा आदि पर समान रूप से ध्यान देते हैं। यह बात तो उस परिपेक्ष्य की हो गयी जब हमारा 'स्व' केवल हम तक ही सीमित है। आगे जब हम अपने 'स्व' को विस्तृत करते हैं, तो हममें उदारता बढ़ती है और तब हमारी देह या शरीर का आकार बढ़ जाता है। तब हम अपने संघ को एक बड़ा शरीर मानते हैं तथा स्वयं व अन्य नागरिकों को उसका एक अंग। हम विभिन्न सामाजिक एवं सांस्कृतिक विषमताओं को गहराई से समझने लगते हैं, हमारी सोच की परिधि बड़ी हो जाती है। अपनी परिपक्वता एवं प्रौढ़ बुद्धि-विवेक की मदद से हम उन वाह्य विषमताओं की जड़ तक पहुँचने में समर्थ होते हैं। जड़ तक पहुँचने पर हमें उन विषमताओं का ठोस एवं तार्किक कारण समझ में आता है। परिणामतः हमारे समाज रूपी देह की परिधि बड़ी हो जाती है। तब हम विश्व के समस्त लोगों को बाहरी भिन्नताएं होने के बावजूद बराबरी का दर्जा देते हैं। तब वह स्थिति बनती है कि हम अन्यों के सुख-दुःख को भी अपना समझने लगते हैं।

जैसे मानव शरीर की नियंत्रक-सत्ता हम स्वयं हैं, उसी प्रकार किसी विद्यालय रूपी शरीर की नियंत्रक-सत्ता वहाँ का प्रधानाचार्य या प्रबंधक है, उसी प्रकार और अधिक बड़े शरीर अर्थात् किसी समुदाय, प्रदेश, देश आदि की नियंत्रक-सत्ता वहाँ की सरकारें और उनके अध्यक्ष आदि हैं। इसी प्रकार सम्पूर्ण सृष्टि रूपी शरीर की नियंत्रक-सत्ता परमेश्वर है। ध्यान से देखें तो प्रत्येक शरीर के मामले में हमें कुछ न कुछ नियमों-सिद्धांतों आदि का अस्तित्व नजर आता है; प्रत्येक नियंत्रक-सत्ता भी उन नियमों-सिद्धांतों से बद्ध नजर आती है। किसी भी नियंत्रक-सत्ता के लिए उससे सम्बंधित शरीर के सभी अंग समान रूप से महत्त्वपूर्ण होते हैं।

... अतः किसी भी शरीर की नियंत्रक-सत्ता (जैसे केवल हमारी देह के मामले में हमारा निज-विवेक, किसी राष्ट्र के परिपेक्ष्य में वहाँ का राष्ट्राध्यक्ष, ब्रह्माण्ड के सन्दर्भ में परमेश्वर) का यह प्रमुख कार्य होता है कि वह ध्यान रखे कि उसके सब अंग-प्रत्यंग स्वस्थ रहें; भौतिक रूप से सामर्थ्यवान रहने व निरंतर उन्नत होने तथा सभी कार्यों को निर्विघ्न रूप से सम्पादित करने हेतु यह परम आवश्यक है। सब अंग-प्रत्यंग सही होते हैं तभी शरीर स्वस्थ माना जाता है। इसके लिए सबसे बढ़िया उपाय है - अपने भीतर जबरदस्त प्रतिरोधक क्षमता का विकास करना। जब शरीर उत्तम प्रतिरोधक क्षमता से युक्त होगा तो आसपास के दूषित वातावरण से उसके अवयवों पर कोई विपरीत प्रभाव नहीं पड़ेगा। दूसरा उपाय यह हो सकता है कि अंगों का बराबर ध्यान रखा जाये, उनकी उचित सफाई आदि नियमित रूप से होती रहे, उन्हें पुष्ट करने का प्रयास किया जाये, उचित व्यायाम आदि की मदद भी ली जाये। तीसरा उपाय यह हो सकता है कि शरीर व उसके अंग गंदगी और अस्वच्छ वातावरण से दूर ही रहें, जिससे किसी रोग के संक्रमण की सम्भावना कम से कम रहे। चौथा उपाय यह कि सभी सावधानियों के बावजूद भी यदि शरीर के किसी अंग में कोई रोग हो जाये तो उसका उचित इलाज समय से किया जाये, उसे उपेक्षित न किया जाये। रोग को अनदेखा कर देने से या इलाज में हीला-हवाली करने से रोग धीरे-धीरे बढ़ता जाता है और अंत में वह असाध्य हो सकता है। ... प्रयास यही होना चाहिए कि रोग प्राकृतिक रूप से ठीक हो जाये, परन्तु यदि ऐसा संभव न हो तो कड़वी दवा का प्रयोग भी होना चाहिए और यदि उससे भी काम न बने तो शल्यचिकित्सा यानी ऑपरेशन का विकल्प भी खुला रखना चाहिए; और यदि उससे भी बात न बने तो कई बार अंततः वह अंग काटना ही पड़ता है अन्यथा रोग का जहर शरीर के शेष अंगों में फैलने का खतरा बन जाता है।

यह ध्यान रखना चाहिए कि ऊपर दिए उपाय क्रमानुसार यानी चरणबद्ध ढंग से किये जायें। पहले हम सरल या नम्र तरीका अपनाते हैं और फिर व्याधि या परिस्थिति अनुसार क्रमशः कठोर होते जाते हैं और अगले-अगले उपाय पर आते जाते हैं। किसी अंग में कोई भी व्यवधान आने पर नियंत्रक-सत्ता यह प्रयास करती है कि शीघ्र से शीघ्र उस अंग की व्याधि दूर हो ताकि सब काम कुशलता से चलते रहें। फिर भी किसी दांत में यदि कीड़ा लग जाता है और अथक प्रयासों के बाद भी वह ठीक नहीं होता वरन यह आशंका जन्म लेती है कि शेष दांत भी उसके कारण खराब हो सकते हैं या खाने-पीने में बहुत कष्ट होता है, तो नियंत्रक-सत्ता उस दांत को निकलवाने में ही भलाई समझती है और वह दांत उखड़वा दिया जाता है। कुछ ऐसा ही हम अन्य कुछ व्याधियों के सम्बन्ध में भी करते हैं। पहले तो हम प्रयास करते हैं कि आवश्यक सावधानी बरती जाये जिससे वह व्याधि जन्म ही न ले, फिर भी यदि किसी कारणवश वह व्याधि उत्पन्न हो जाती है तो उसे दूर करने के लिए अथक गंभीर प्रयास करते हैं जिससे वह ठीक हो जाती है; फिर भी कभी-कभी अथक प्रयास करने पर भी वह बीमारी ठीक नहीं होती बल्कि सम्बंधित अंग में 'कैंसर' का रूप ले लेती है, तब हम शेष शरीर की रक्षा हेतु उस अंग को कटवाने में भी हिचकिचाते नहीं हैं। यद्यपि यह कार्य अत्यंत मजबूरी में किया जाता है, फिर भी देखा जाये तो अति विकट स्थिति आ जाने पर इसका अन्य कोई विकल्प भी नहीं बचता।

यह तो हो गया हमारे अपने शरीर यानी स्थूल देह के अंगों की देखभाल के विषय में। अब सोच को व्यापक कर देश रूपी शरीर के विषय में समझने के लिए प्रथमतः भारत को ही उदाहरणस्वरूप ले लें, तो यहाँ संस्कृतियों और भाषाओँ आदि में विभिन्नताएं लिए अलग-अलग प्रकृति के लोग भारत रूपी शरीर के अंग-प्रत्यंग हुए। सभी का अपना-अपना रंग-रूप, आकार-प्रकार, कार्य व महत्त्व है। सभी की कुछ न कुछ आवश्यकताएं भी हैं। अब यदि हम किसी एक की भी उपेक्षा करेंगे तो बात नहीं बनेगी, शरीर का संतुलन बिगड़ जायेगा। खुशहाली के लिए शरीर बलिष्ठ रहना अत्यंत आवश्यक है। ऐसा तभी संभव है जब नियंत्रक-सत्ता सभी अंगों का समान रूप से ध्यान रखे और उनके मध्य सौहार्द बना रहे। परन्तु भारत में शायद ऐसा नहीं हो रहा है। हमारे यहाँ आज जो इतनी आर्थिक व सामाजिक समस्याएं हैं, नक्सलवाद है, क्षेत्रीय आतंकवाद है, भ्रष्टाचार है, धार्मिक क्षेत्र में भी भारी असहिष्णुता है, लोलुपता है; इन सबका कारण रोग की आरंभिक अवस्था में विभिन्न नियंत्रक-सत्ताओं द्वारा बरती गयी लापरवाही है। ग्राम, शहर, प्रदेश और देश की नियंत्रक-संस्थाएं जब ढीली-ढाली या पक्षपाती हो जाती हैं, सामान्य नीति-आचार से दूर चली जाती हैं, तो समाज के कुछ अंग उपेक्षित हो जाते हैं। तदुपरांत इन उपेक्षित अंगों में विभिन्न प्रकार के रोग लगने शुरू हो जाते हैं। समस्या की लगातार उपेक्षा से अंग विशेष में हुआ रोग असाध्य रूप धारण कर लेता है, और फिर एक दिन वह धरना-प्रदर्शन, आगजनी, लूटपाट, बमविस्फोट, क्षेत्रीय आतंकवाद, नक्सलवाद आदि के भयावह रूप में सामने आता है, और तब स्थिति यह बन जाती है कि तथाकथित नियंत्रक-सत्ता का उस पर कोई नियंत्रण नहीं रह जाता है तथा शरीर का वह रोगग्रस्त अंग शेष आबादी यानी अन्य अंगों को कष्ट पहुँचाने लगता है। प्रदेश या देश रूपी सारा शरीर दुखने लगता है, भयंकर कष्ट में आ जाता है, त्राहि-त्राहि कर उठता है। तब जाकर सरकार की नींद खुलती है; मगर तब तक बहुत देर हो चुकी होती है और उस समय यही उपाय दिखाई पड़ रहा होता है कि उस अंग की शल्यचिकित्सा की जाये। वह की जाती है। शल्यचिकित्सा सफल हो जाती है, परन्तु हाथ क्या आता है? शरीर का एक अंग कम हो जाता है, शरीर की क्षमता कम हो जाती है, शरीर कमजोर हो जाता है। काफी खून बह जाने से क्षतिपूर्ति हेतु बहुत उपाय करने पड़ते हैं। काफी धन एवं समय खर्च होता है। सब कुछ ठीक हो जाने पर भी अंततः निशान बाकी रह ही जाते हैं। न जाने ऐसे कितने ही प्रसंगों से इतिहास भरा पड़ा है। वर्तमान में तो स्थिति और भी शोचनीय है, फिर भी हमारी नियंत्रक-सत्ता सावधान होकर प्रारंभिक उपाय समय से नहीं अपनाती! आखिर इतनी उपेक्षा क्यों?? क्यों हम सचेत नहीं होते हैं?? ... ऐसा नहीं कि विश्व की सभी नियंत्रक सत्ताएं ऐसी ही अचेतावस्था में हों! बहुत सी सत्ताएं सचेत हैं। हमें उनसे सीखना होगा। हमें उनकी व्यापक सोच व समय से उठाये गए सावधानी भरे क़दमों को देखना आना चाहिए। अधिकांश बुद्धिजीवी व नेता यह कहेंगे - "अजी हर जगह यही हाल है।" यह वाक्य वे नहीं वरन उनका खिसियाया दंभ बोलता है। सीखने वाले के लिए आज भी ऐसे असंख्य प्रसंग हैं जिनसे सीखकर वह जागृत हो सकता है और समय से अपने शरीर व उसके अंगों को पुष्ट एवं निरोगी बना सकता है।

.... राष्ट्रीय या अंतर्राष्ट्रीय आतंकवाद तो रोग की पराकाष्ठा है। उसकी जड़ में जाने में समय गंवाने से बेहतर है कि उसका समूल नाश किया जाये और आज अनेक राष्ट्र इसके लिए प्रयत्नशील हैं। राम ने रावण को मारा या कृष्ण ने महाभारत रचा या आज के कुछ राष्ट्र आतंकवाद के विरुद्ध लड़ रहे हैं और खून बहा रहे हैं, इन सब प्रसंगों के समर्थन या विरोध में कोई कुछ भी कहे मगर यह सत्य है कि इन सब का कारण वही है कि योग्य नियंत्रक-सत्ता का प्रयास यही होता है कि सब कार्य सुचारू ढंग से चलें, स्वस्थ अंगों का स्वास्थ्य अक्षुण्ण रहे; यह सब सुनिश्चित करने हेतु यदि कुछ हिंसा भी होती है तो वह सामाजिक रूप से सदा से मान्य है। पर यह अच्छे से ध्यान में रखना होगा कि अंतिम इलाज के रूप में यह हिंसात्मक कार्रवाई केवल योग्य हाथों द्वारा संपन्न हो। जैसे शल्यचिकित्सा केवल योग्य शल्यचिकित्सक ही कर सकता है, अन्य कोई और नहीं। इसी प्रकार समाज रूपी शरीर के किसी सड़े अंग को काटने का निर्णय व इस कार्य का संपादन किसी योग्य व्यक्ति के द्वारा ही होना चाहिए। कोई भी साधारण व्यक्ति शल्यचिकित्सक बनने का यूं ही प्रयास न करे। बाइबल में भी कहा गया है जिसका आशय यह है कि - वैसे तो परमेश्वर के राज्य से बढ़कर कुछ और नहीं, वही सर्वश्रेष्ठ एवं परम है; फिर भी जब तक वह नहीं आता, तब तक हमें मानव निर्मित सरकारों व राष्ट्राध्यक्षों के बनाये कानूनों को मानना और उनके अनुसार चलना होगा; क्योंकि वर्तमान स्थिति में शायद वे ही श्रेष्ठ हैं!

इस बात का निचोड़ यह कि शरीर के विभिन्न अंगों के प्रति सहिष्णुता का भाव तो सर्वोपरि है ही, इसमें कोई संदेह नहीं; हमें सभी अंगों के स्वास्थ्य के प्रति सतत जागरूक रहना होगा और यह ध्यान रखना होगा कि उनमें कोई रोग न पनपे। स्थूल कार्यों की सूची में यह सबसे ऊपर होना चाहिए। पर इसके साथ ही निकृष्ट स्थिति में यदि शेष शरीर की रक्षा हेतु किसी अंग विशेष को कटवाना या निकलवाना पड़े, तो इसके लिए मन में किसी राग या रोष की भावना नहीं आनी चाहिए। ऐसा समझना चाहिए कि इस स्थिति में यही आवश्यक था। इस स्थिति में हमें तटस्थता या दृष्टा का भाव रखना आना चाहिए। क्रमशः ...