Friday, May 7, 2010

(३२) गतांक से आगे

पिछले लेख में एक महत्त्वपूर्ण बिंदु पर चर्चा छूट गयी थी - वह थी ब्रह्माण्ड रूपी शरीर की नियंत्रक-सत्ता या विश्व की समस्त नियंत्रक सत्ताओं से ऊपर की नियंत्रक-सत्ता यानी परमेश्वर के विषय में। बहुत से लोगों का विचार होगा कि "मानवीय सरकारों से भूलें कदाचित संभव हैं, लेकिन परिपूर्ण परमेश्वर परिस्थितियों को क्यों बिगड़ने देता है? वह समय पर क्यों नहीं उचित नियंत्रण स्थापित करता जिससे विश्व या ब्रह्माण्ड रूपी शरीर व उसके अंग स्वस्थ रहें?" प्रश्न बिलकुल प्रासंगिक जान पड़ता है और इसके उत्तर भी पिछले कुछ लेखों में टुकड़ों-टुकड़ों में विद्यमान हैं। फिर भी पुनः इस बिंदु पर मनन कर लेते हैं।

जैसा कि वैज्ञानिक भी मानते हैं कि इस प्रकृति के कुछ अकाट्य नियम हैं, सिद्धांत हैं। उन्हीं नियमों-सिद्धांतों के अंतर्गत समस्त घटनाएं व गतिविधियां घटित होती हैं; जैसे - मौसम में परिवर्तन, वर्षा, बाढ़, भूस्खलन, ज्वारभाटा आदि। गुरुत्वाकर्षण का नियम, क्रिया के फलस्वरूप प्रतिक्रिया, ऊर्जा की अक्षुण्णता आदि जैसे अनेकों सैद्धांतिक नियम भी इसमें शामिल हैं ही। विभिन्न अन्वेषणों तथा प्रयोगों के पश्चात् जिन-जिन घटनाओं का कारणभाव हमारी समझ में आता चला गया, वे विज्ञान की परिधि में आ गयीं और कुछ घटनाओं का कारण अभी भी ठीक से ज्ञात न हो पाने के कारण वे अभी भी अध्यात्म के अंतर्गत ही हैं। यद्यपि विज्ञान आज भी बहुत सी घटनाओं को समझने-समझाने के लिए विभिन्न संकल्पनाओं का सहारा लेता है, कोई ठोस तथ्य नहीं होते उसके पास। उसी प्रकार अनेकों अनबूझी घटनाओं को 'भौतिक रूप से' समझाने के लिए अध्यात्मशास्त्र को भी अनेकों संकल्पनाओं का आश्रय लेना पड़ता है, यद्यपि है तो यह अनुभूतिजन्य शास्त्र ही!

इन्हीं में सर्वप्रथम बात आती है - प्रकृति के नियमों की। संकल्पना यही है कि परमेश्वर ने सभी घटनाओं के निमित्त कुछ अकाट्य नियम-सिद्धांत बनाये। देखा जाता है कि जब व्यक्ति उन नियम-सिद्धांतों के अनुरूप कार्य करता है तो खरा सुख प्राप्त करता है अन्यथा दुःख। वैज्ञानिक भी जानते हैं कि पर्वतों पर जब पेड़-पौधों का रक्षण किया जाता है तो पर्वतीय क्षेत्र मजबूत रहता है, वहीं उनकी अंधाधुंध कटान से भूस्खलन होता है, दुर्घटनाएं होती हैं। इस प्रकार के सैकड़ों अन्य प्रसंग हैं, सब जानते ही होंगे। तो फिर से हम वहीं पर आते हैं कि - परमेश्वर भी उन नियम-सिद्धांतों से बद्ध है; उसकी भूमिका इतनी है कि योग्य या अयोग्य कर्मानुसार सभी को यथायोग्य परितोष या दंड मिले, यह सुनिश्चित करना। दंड या परितोष के पीछे कोई राग-द्वेष नहीं छुपा है, वरन सिद्धांतों से बद्धता के कारण ऐसा होता है।

अब बात आती है कि "वह अपने शरीर के अंगों को यानी मानव को मनमानी करने ही क्यों देता है? क्यों नहीं यह सुनिश्चित करता कि सभी के मन में केवल सिद्धांतों के अनुरूप ही विचार जन्म लें, इससे सदैव खुशहाली रहेगी?!" इसे समझने के लिए हमें फिर से मनुष्य के आध्यात्मिक प्रारूप पर गौर करना पड़ेगा। आध्यात्मिक रूप से मनुष्य 'आत्मा' है और आत्मा रूपी ऊर्जा परमात्मा रूपी बड़े ऊर्जा-स्रोत का एक छोटा सा भाग है; उसके गुण-विशेषताएं बिलकुल परमेश्वर के समतुल्य हैं। तो फिर मनुष्य से गलती होने की कोई गुंजाईश ही नहीं! फिर भी गलतियाँ होती हैं; क्योंकि इस आत्मा पर मन, बुद्धि, संस्कारों आदि का आवरण है। ये सब उस प्रकाशवान आत्मा का प्रकाश बाहर आने ही नहीं देते। इसी मन, बुद्धि व संस्कारों के कारण मनुष्य गलतियाँ करता है, गिरता है, भुगतता है। अब अच्छी मानवीय सरकारें या राष्ट्राध्यक्ष आदि अपने अंगों यानी प्रजा को लगातार मानसिक रूप से समझाते रहते हैं, उन्हें नियंत्रित करने के लिए संविधान, नियम, कानून आदि बनाते रहते हैं, जिससे वे प्यार से अथवा भय से नियंत्रण में रहें एवं खुशहाली बनी रहे। इसमें वे काफी हद तक सफल भी हुए हैं। ... परन्तु परमेश्वर ने क्या किया? ... परमेश्वर के भी तो कुछ नियम हैं जिन्हें हम प्राकृतिक एवं उपरोक्त वर्णित वैज्ञानिक नियमों-सिद्धांतों के रूप में प्रत्यक्षतः देखते हैं। इसके अतिरिक्त जो सबसे बड़ी चीज परमेश्वर ने हमें प्रदान की है वह है - साक्षात् धर्म (righteousness) रूपी आत्मा। इसका प्रज्ञावान प्रकाश कुछ भी गलत होते समय हमें संकेत भी देता रहता है, जिससे हम सचेत हो जायें। कई बार हम सचेत हो जाते हैं, कई बार हम गलत तो काम कर बैठते हैं पर बाद में पश्चात्ताप करते हैं और कई बार हम धड़ल्ले से गलत काम कर आंतरिक चेतावनी को हवा में उड़ा देते हैं।

मानुषिक शरीर में सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह है कि अब तक ज्ञात जीव प्रजातियों में मनुष्य का मन-मस्तिष्क सबसे अधिक विकसित माना गया है और प्रकृति या परमेश्वर का यह सिद्धांत भी हमें ज्ञात है ही कि कर्म करने के लिए हम पर कोई प्राकृतिक प्रतिबन्ध नहीं है। हाँ, कर्मानुसार (क्रिया के अनुसार) संचित या प्रतिफल (प्रतिक्रिया) का प्रावधान अवश्य है, ... और इसका कोई प्रत्यक्ष प्रमाण न होने के कारण इस पर हम विश्वास करते नहीं! कितना त्रासद है यह कि वैज्ञानिक समर्थन होते हुए भी हम इस तथ्य को अनदेखा करते हैं! अब वस्तुस्थिति से परिचित होते हुए भी हम क्यों वर्तमान अराजक स्थिति के लिए परमेश्वर पर दोष मढ़ते हैं कि उसने समय पर हमें मार्गदर्शित नहीं किया और हम भटक गए, अब भुगत रहे हैं?! ... सही में हम बहुत चतुर हैं! हमारा मन व बुद्धि बहुत बड़े और विकसित हैं, इसीलिए न। .... परमेश्वर ने भी हमारा पर्याप्त मार्गदर्शन किया है। अव्वल तो हम सब भेदों से परिचित हैं ही, बस बनते हैं कि हम अनभिज्ञ हैं; तदपि समय-समय पर ईश्वरीय प्रेरणा से लिखे गए अनेकों नीति व धर्म सम्बन्धी साहित्य हम सबको सहज उपलब्ध है। 'बाइबल का नया नियम' तो विश्व का नंबर एक ग्रन्थ है और ध्यान से देखें तो चेतने के लिए उसके तीन-चार शुरुआती लेख ही पर्याप्त हैं। विश्व में बाइबल के अनुयायी सर्वाधिक हैं, फिर भी पूछा जाता है कि क्यों परमेश्वर ने इतनी अव्यवस्था फैलने दी? हम भारतीयों को तो वैदिक व पौराणिक वृहद आध्यात्मिक ज्ञान सहज ही उपलब्ध है, स्वामी विवेकानंद जी ने वेदांत की कितनी सरल व्याख्या की है तदपि हम अनेकों प्रश्न उठाते हैं! गलतियाँ हम करते हैं, हमें पता होता है कि हम गलती कर रहे हैं; और नकारात्मक नतीजा सामने आने पर दोष परमेश्वर पर मढ़ने लगते हैं, उसपर जिम्मेदारी डालने लगते हैं।

हमसे कहीं अच्छे तो पशु ही हैं, जिनके पास दिमाग कम है, लगभग संस्कारविहीन व बुद्धिविहीन हैं। तभी तो वे जो करते हैं, उसे कहा जाता है कि यह उनकी सहज बुद्धि या स्वाभाविक वृत्ति (innate intelligence or natural instinct) है। ... सही बात है कि वे आत्मिक या प्राकृतिक निर्देशों का पालन ही बहुधा करते हैं क्योंकि संस्कारों, मन एवं बुद्धि का आवरण उनकी आत्मा पर होता ही नहीं! मनुष्य की तरह वे पैसे, जमीन-जायदाद आदि के भक्त नहीं हैं। वे अपनी स्वाभाविक वृत्ति के अनुरूप कार्य करते हैं और उससे उन्हें यथायोग्य पोषण प्राप्त हो जाता है। संग्रह में उनकी कोई रुचि नहीं होती। अपने जीवन में जो कष्ट वे उठाते हैं, अधिकतर मामलों में उसका कारण हम मनुष्य ही होते हैं। स्वार्थी होते हैं न हम! यह सब राग-द्वेष, स्वार्थ, लालच, संग्रह की वृत्ति आदि इसीलिए कि हमारे पास दिमाग है, भौतिक ज्ञान है, मन है, बुद्धि है, विवेक है!

पर हम भूल जाते हैं कि हम एक सर्वाधिक प्रज्ञावान आत्मिक प्राणी हैं; हमारे पास आत्मिक ज्ञान का ठोस स्रोत भी है, जो परमेश्वर या प्रकृति द्वारा प्रदत्त है। क्या हम उसका प्रयोग निरंतरता से करते हैं? हम जानते हैं और हमारे प्राचीन ग्रन्थ भी हमें सचेत करते ही हैं कि हम उस आत्मिक स्तर तक पहुंचें, अविद्या का आवरण नष्ट करें। परन्तु हम इस बात को हंसी में उड़ा देते हैं और मनमानी करते हैं तथा अंत में विपदाओं से घिर जाने के बाद हम परमेश्वर की ओर निहारते हैं, उससे शिकायत करते हैं, प्रार्थना भी करते हैं - एक अबोध बच्चे की भांति। आखिर कब हम परिपक्व होंगे? क्रिया के फलस्वरूप प्रतिक्रिया के सिद्धांत से हम भलीभांति परिचित हैं और यह भी जानते हैं कि प्रतिक्रिया का सही समय व स्वरूप जानने में हम लगभग असमर्थ हैं। सिद्धांत विरुद्ध कार्यों का अम्बार लग जाने पर युद्धों और विनाश के अनेकों प्रसंग पौराणिक ग्रंथों में मिलते हैं। विभिन्न प्राकृतिक आपदाएं और बड़े विनाश भी शायद उसी प्रतिक्रिया का हिस्सा हैं। कोई भी घटना अकारण नहीं होती, उसके पीछे कोई न कोई ठोस कारण होता है, यह हमें पता है। सब कुछ पता होने पर भी जाने क्यों ...?? ... कोई सरकारी कानून जानता हो और तब भी वह कोई अपराध करे; इसपर पुलिस गिरफ्तार करके ले जाये और सजा हो जाये, तिसपर भी वह यह कहे कि नियंत्रक-सत्ता (सरकार) ने मेरे अपराध करने से पहले मुझे चेताया क्यों नहीं?, तो इस प्रकार के वक्तव्य को हम हास्यास्पद ही कहेंगे।

फिर भी मैं पुनः इस बात को दोहराना चाहूँगा कि एक मानवीय नियंत्रक-सत्ता को यह नहीं भूलना चाहिए कि वह इसीलिए अस्तित्व में है क्योंकि सभी लोग शिक्षित, ज्ञानी और अपने कर्तव्यों के प्रति जागरूक नहीं हैं। जब तक सब लोग भीतर से जागरूक नहीं हो जाते तब तक समाज-व्यवस्था को उत्तम बनाये रखने के लिए वह एक वैकल्पिक व्यवस्था के तौर पर है क्योंकि मेधा और ज्ञान में कदाचित् वह औरों से ऊपर है। अतः उसका यह कर्तव्य हो जाता है कि वह अपने शरीर के अबोध अंगों (प्रजा) को सहेज कर रखे और उनमें कोई रोग पनपने ही न दे। कितना अच्छा हो कि एक नियंत्रक-सत्ता स्वयं को इस धरा पर परमेश्वर के सगुण दूत समान समझे। इति।