Saturday, August 28, 2010

(३५) प्रगति की दौड़

आज सांसारिक प्रगति का रथ पूरी रफ़्तार से भागता दीख रहा है। नित्य नवीन अन्वेषण किये जा रहे हैं, खोजें की जा रहीं हैं। प्रतिदिन हम अनेकों नए उपभोक्ता सामानों के विषय में पढ़ते, सुनते और देखते हैं। पहले से उपलब्ध उपभोक्ता वस्तुओं में भी नित नए-नए सुधार कर उनमें और अधिक वैशिष्ट्‍य (features) डालने का निरंतर प्रयास किया जा रहा है। आज विभिन्न सेवा-प्रदाताओं (service providers) और उनके प्रबंधकों का एक ही नारा है कि - "नित नवीन परिवर्तन करो, अन्यथा मिट जाओगे"; अर्थात् आज सभी कम्पनियाँ अपने उत्पादों में रोज ही कुछ न कुछ परिवर्तन करने हेतु प्रयासरत हैं और उनको लगता है कि यदि वे कुछ नया नहीं देंगे तो उनकी प्रतिद्वन्दी कम्पनी उनसे बाजी मार ले जायेगी। सभी उत्पादकों एवं सेवा-प्रदाताओं को प्रतिद्वंदिता का भय निरंतर सताता रहता है, इसीलिए वे अपने उत्पादों या सेवाओं में नित नए बदलाव करते रहते हैं।

अर्थात् नित नवीन परिवर्तन का कारण समाज-सहाय्य नहीं वरन निज-सहाय्य है, उत्पादकों एवं सेवा-प्रदाताओं का अपना ही स्वार्थ छुपा है रोजाना के बदलावों के पीछे। इसके लिए वे व्यवसाय-प्रबंधन एवं कंप्यूटर-सॉफ्टवेयर से सम्बंधित प्रतिभाओं की मदद लेते हैं। इसीलिए MBA और CS के कोर्स की आज बड़ी धूम है! इनसे जुड़ी प्रतिभाएं अपनी नियोक्ता कम्पनियों के लिए यह सुनिश्चित करती हैं कि कम समय में अधिक मुनाफा हो! हाँ, यह बात अलग है कि इस प्रतिस्पर्धी दौड़ में कभी-कभी उपभोक्ताओं का फायदा भी हो जाता है। समझने के लिए एक उदाहरण ही पर्याप्त होगा - वह है मोबाइल फोन का! इस क्षेत्र में चाहे आप मोबाइल सेट की बात करें या फिर इससे जुडी सेवाओं की, दोनों ही मामलों में रोजाना नयी-नयी बातें जानने को मिलती हैं; नित्यप्रति मोबाइल-सेट में कोई न कोई विशिष्टता जुड़ जाती है या फिर किसी सेवा-प्रदाता द्वारा किसी नयी योजना की घोषणा की जाती है। यह अलग बात है कि इन घोषणाओं के पीछे कुछ न कुछ शर्तें भी छुपी होती हैं, और ये इतनी अधिक छुपी होती हैं कि आप उन्हें ठीक से देख, पढ़ या सुन नहीं सकते! रोज के सब्जबाग देखकर आप खुश हो जाते हैं और उन योजनाओं में फंस जाते हैं; इतना अधिक फंस जाते हैं कि आपको उनमें उलझकर मजा आने लगता है; यह ठीक वैसा ही कुछ है कि जैसे दाद को खुजलाने में तो मजा आता है पर साथ ही दाद भी निरंतर बढ़ता जाता है। यह तो मात्र एक उदाहरण था, बारीकी से देखें तो आपको अनेकों ऐसे प्रसंग अपने आसपास ही दिखाई पड़ेंगे। सभी कम्पनियों का आज एक ही लक्ष्य है कि व्यापार में मुनाफा शीघ्रतम व अधिकतम होना चाहिए, भले ही कितने दंद-फंद क्यों न अपनाने पड़ें! वैसे अधिकारिक तौर पर इन सबके पीछे यही घोषणाएं की जाती हैं कि "यह सब लोक-हितार्थ और सबके सुख के लिए किया जा रहा है और न जाने कितने नौजवानों को इससे रोजगार भी मिल रहा है"; सरकार का अनुमोदन भी इस प्रकार के वक्तव्यों को रहता ही है! ... इस प्रकार के प्रयत्नों और व्यापारों से आज लाखों लोगों की रोजी-रोटी जुड़ी है; इसलिए जनता भी मस्त, सरकार भी मस्त!

अतः आज भौतिक प्रगति या बारम्बार त्वरित परिवर्तन के पीछे यही तर्क दिया जाता है कि यह सब लोगों के सुखों में बढ़ोत्तरी करने के लिए किया जा रहा है और इसी से हम विकास की ओर बढ़ रहे हैं। यद्यपि इसमें कोई भी संदेह नहीं कि बहुत सी खोजों, अन्वेषणों एवं परिवर्तनों ने मानव जीवन को बहुत आराम और सुविधाएं प्रदान की हैं; परन्तु साथ ही मेरा यह भी मानना है कि प्रत्येक भौतिक वस्तु के विकास, खपत, प्रयोग एवं उपयोगिता का एक संतृप्ति बिंदु (saturation point) होता है। उस बिंदु पर पहुँचने के पश्चात् या तो ठहराव आ जाता है या फिर विकास की गति बहुत मंथर हो जाती है। किसी वस्तु के विकासक्रम में कभी न कभी हम उस बिंदु तक पहुँच जाते हैं। उस स्थिति तक पहुँचने के बाद भी यदि हम स्वार्थवश एवं लाभ कमाने हेतु जबरदस्ती उसमें और अधिक परिवर्तन कर उसे 'दोहते' रहते हैं तो बजाय सुख देने के वह वस्तु दुःखों का कारण बन जाती है; परन्तु हम तो मार्केटिंग के उस्ताद हैं, इसलिए न यह सत्य मानते हैं और न मानने देते हैं! बहुत सी उपभोक्ता वस्तुओं के मामलों में हम देख सकते हैं कि बहुत समय से उनमें कोई भी महत्त्वपूर्ण परिवर्तन नहीं हुआ, या कभी कुछ परिवर्तन किये भी गए तो भी अंततः हमें पुराने ढर्रे पर लौटना पड़ा; अर्थात् शायद वे वस्तुएं अपने विकासक्रम में संतृप्ति बिंदु को छू चुकी थीं! इनके उदाहरणों में प्रमुख हैं- ब्लेड, चाकू, कैंची, आलपिन, सेफ्टीपिन, टिच-बटन, नेल-कटर, पेपर-क्लिप, पेंसिल, पेन, स्याही, कंघा, ट्यूबलाइट, माचिस, जूता, चप्पल, घरेलू हाथ के औजार, धागा, छाता, टेबललेम्प, पंखा, साबुन, और इनके अलावा भी न जाने कितने! इनमें से कई सामानों पर कम्पनियाँ हर कुछ माह के बाद 'नया' या 'NEW' लिख कर पेश तो अवश्य करती हैं, पर ध्यान से देखें तो वस्तुतः यह परिवर्तन नहीं बल्कि दोहराव ही होता है।

यदि किसी वस्तु में कुछ सुधार या परिवर्तन करने पर वास्तव में उस वस्तु का परिष्कार होता हो और उसके जरिये मानव को वास्तव में पहले से अधिक सुविधा-सहायता मिलती हो, उसकी ऊर्जा वास्तव में बचती हो, तो उन परिवर्तनों एवं सुधारों का स्वागत होना चाहिए; परन्तु परिवर्तन के पश्चात् यदि एक सुख देकर वह वस्तु दो दुःख बढ़ा रही हो या ऊर्जा व समय की खपत बढ़ा रही हो तो ऐसे परिवर्तन से तो बचना ही बेहतर! ... परन्तु आज हम इतना तेज भाग रहे हैं कि नकारात्मक पक्षों को बहुधा अनदेखा कर जाते हैं, और परिवर्तन को ही उत्तरजीविता (survival) का 'एकमात्र' आधार मानते हैं; जबकि हम देखते हैं कि समय के साथ प्राकृतिक वस्तुओं में कोई विशेष बदलाव नहीं आया है और यदि कोई आया भी है तो नकारात्मक दिशा में ही, वह भी जबरन मानवीय हस्तक्षेप के कारण! .... यदि हम एक कुशल चित्रकार हैं तो किसी चित्र को बनाकर उसमें एक हद तक ही सुधार करते हैं अन्यथा बजाय सुधरने के वह बिगड़ सकता है! बारम्बार सुधारों के बजाय हम नित नए-नए चित्र तैयार करते हैं। हमारी हर रचना अपने आप में अनूठी होती है।

आजकल अधिक माल खपाने की वृत्ति भी व्यापार-जगत में खूब है। विडम्बना ही है कि किसी राष्ट्र की उन्नति या विकसित होने का पैमाना (मापदंड) भी आज यही है कि उस देश में कितना अधिक सामान उपभोग किया जाता है। अरे, ... कोई एक सीमा तक ही अपने मनपसंद लड्डू खा सकता है, या एक हद तक ही पानी पी सकता है; सीमा से परे उपभोग करने से अस्वस्थ होना निश्चित ही होता है। परन्तु फिर भी .... हम हैं कि बस लगे ही हुए हैं!! अंधानुकरण जोरों पर है!

आज जिन मनोरथों या कार्यों के द्वारा मनुष्य स्वयं को या अपने संघ को सुखी करना चाहता है, उसके द्वारा सुख तो नहीं प्राप्त होगा, दुःख ही बढ़ेगा! आज मनुष्य भ्रमवश सेवा और विकास के नाम पर विनाश की ओर जा रहा है, धोखेबाजी और स्वार्थसिद्धि का बोलबाला तेजी से बढ़ता जा रहा है; और सबसे बड़े आश्चर्य की बात यह है कि इसी प्रकार की परिपाटी या चलन को लोग सही व प्रासंगिक मान रहे हैं, फलतः खुलेआम भ्रष्टाचार हो रहा है। इन्हीं सब को जीवन का कर्तव्य मानकर लोग उत्साहपूर्वक इसी में जुट रहे हैं। गलत कामों को सही समझने पर तो व्यक्ति में बुराई बढ़ती ही जाएगी। इस प्रकार की मानसिकता विकसित हो जाने से इस मानव-जीवन के अमूल्य क्षण व्यर्थ बल्कि अनर्थ में बीत रहे हैं। सच्चा सुख तो शांति में है, और अनर्गल उपभोक्तावाद व भ्रष्टाचार शांति नहीं अशांति का जनक है। अग्नि से शीतलता नहीं प्राप्त हो सकती, आग तो जलाएगी ही; उसी प्रकार ऊटपटांग भोगवृत्ति और आसक्ति भी अशांति ही पैदा करेंगे।

वास्तव में भोग भी उतने बुरे नहीं हैं, जितनी बुरी भोगों के प्रति आसक्ति है। भौतिक रूप से साधन-संपन्न होते हुए भी, भोग करते हुए भी, उनके प्रति अनासक्त रहा जा सकता है; इसके विषय में चर्चा हम पूर्व के कुछ लेखों में कर ही चुके हैं। आज भोगों के प्रति तीव्र आसक्ति ही हमें मानवता और उसमें छुपी ईश्वरता से परे ले जा रही है, आध्यात्मिक दृष्टि से हमारा पतन होता जा रहा है। .... बात घूमफिर कर फिर से वहीं पर आ जाती है कि परिवर्तन और प्रगति की आपाधापी में हम संतुलन खोते जा रहे हैं। प्रवृत्ति और निवृत्ति जैसे शब्दों और उनके अर्थों को भुला बैठे हैं; सहज उपलब्ध गीता-ज्ञान से परे चले गए हैं, भगवत्भक्ति से दूर चले गए हैं, अपने-आप से अपरिचित होते जा रहे हैं! दुनिया को भौतिकता व आध्यात्मिकता के बीच संतुलन का पाठ पढ़ाने वाले भारतवासी आज स्वयं ही असंतुलित होते जा रहे हैं, और तिस पर भी विडम्बना यह कि इस असंतुलन की अवस्था को ही आज संतुलन एवं स्वस्थता का परिचायक माना जा रहा है। ईमानदारी, कर्तव्यपरायणता, सत्य जैसे नैतिक मूल्य विकास की बलिवेदी पर आहूत किये जा चुके हैं। आत्मा के मूलभूत गुणों एवं आत्मिक ध्वनि को आज अप्रासंगिक घोषित कर दिया गया है। तो क्या यह सत्य नहीं कि अनर्गल विकास और प्रगति की दौड़ ने हमें क्रमशः आत्मिक प्राणी से शारीरिक प्राणी और फिर शारीरिक प्राणी से संवेदनहीन मशीन में परिवर्तित कर दिया! देखा जाये तो यह भी एक प्रकार का परिवर्तन ही है, और लोग तर्क देते हुए यह चिरपरिचित पंक्ति पुनः कहेंगे कि 'परिवर्तन ही शाश्वत सत्य है'!! इति।