Thursday, September 23, 2010

(४०) वास्तविक संत

  • संत ऊपर से दिखने पर साधारण मनुष्यों जैसे ही होते हैं, जल्दी पहचान में नहीं आते; वे केवल आनंद और संतोष की सुगंध से ही पहचाने जाते हैं।
  • संत का अस्तित्व उसकी भौतिक देह या वेशभूषा में न होकर केवल उसके वचनों में होता है। कैसी भी थैली में हीरा रखने पर थैली का महत्त्व नगण्य होकर केवल हीरे का महत्त्व रहता है।
  • खरे संत की पहचान उसके विशिष्ट वस्त्रों, केश-विन्यास, भाव-भंगिमाओं अथवा वाह्य श्रृंगार (make-up) से नहीं, वरन उसके नैसर्गिक प्रभामंडल से होती है।
  • संतों का उद्देश्य अपने उपदेशों या वचनों द्वारा सुनने वालों को मात्र रिझाना नहीं होता, वरन उनके वास्तविक कल्याण की दृष्टि से वे उपदेश देते हैं।
  • जिसकी संगति से हमारे अंतर्मन में भगवत्-प्रेम प्रकट हो और विषयों के प्रति आसक्ति घटे, उसे संत जानें।
  • संत के पास जाकर संतोष, शांति व आनंद आदि का वास्तविक अर्थ पता चलता है और इन्हें पाने की रुचि उत्पन्न होती है।
  • ईश्वर की सगुण अथवा निर्गुण भक्ति तथा ईश्वरीय गुणधर्मों से ओतप्रोत जीवन जीने के अतिरिक्त कोई भी बात संतों को रुचिकर नहीं लगती।
  • अपने व्याख्यानों में जिन सिद्धांतों की संत चर्चा करते हैं, उन्हें वे भली-भांति हृदयंगम कर चुके होते हैं और आचरण द्वारा सतत प्रकट करते हैं।
  • संतों के व्याख्यान उनके स्वयं के अनुभवों तथा अनुभूतियों पर आधारित होते हैं, वे व्यर्थ का ढोंग या दिखावा नहीं करते; उपदेश करना उनका व्यवसाय नहीं होता।
  • संतों में भी षड्-विकार होते हैं परन्तु उनका रूपांतरण भगवत्-भक्ति के साधन के रूप में हो जाता है; तब ये षड्-रिपु व्यष्टि और समष्टि साधना के लिए उपकरण समान बन जाते हैं।
  • संतों को भी पूर्वकर्मजन्य प्रारब्ध को भोगना पड़ता है, शारीरिक कष्ट भी होते हैं, परन्तु देहभान न होने के कारण उन्हें इसके कारण किसी सुख-दुःख का अनुभव नहीं होता।
  • संत हमारे जीवन में आने वाले कष्टों को दूर नहीं करते, वरन वे कष्टों के प्रति हमारे भय को समाप्त कर देते हैं। संकट से अधिक दुःखदाई संकट का भय होता है!
  • संत के संसर्ग से नास्तिक भी ईश्वरभक्ति की ओर मुड़ते हैं, फलतः वे पापकर्म से दूर होते हैं तथा दुःखों में आश्वासन, धैर्य और ढाढ़स प्राप्त करते हैं।
  • संत की संगति से तर्क क्षीण होते हैं, वृत्ति बदलती है, अनुभव और अनुभूतियाँ बढ़ते हैं, अंततः ईश्वर के अस्तित्व की अनुभूति होती है; क्योंकि ईश्वर को तर्क से सिद्ध नहीं किया जा सकता।
  • साधारण संत कहता है, "दुष्टों का नाश हो", जबकि खरा संत कहता है, "दुष्टता का नाश हो" अर्थात् दुष्ट व्यक्तियों की दुष्टता मिटे।
  • खरे संत की सबसे बड़ी पहचान यह है कि आप किसी सांसारिक अभिलाषा की प्राप्ति के लिए उसके पास जाएंगे और अभिलाषा-रहित होकर लौटेंगे; संत-संग का यह सबसे महत्त्वपूर्ण परिणाम है।
  • खरा संत हमें कभी भी सांसारिक विषयों में उलझाएगा नहीं, न ही उन्हें एकदम से त्यागने के लिए कहेगा; बल्कि वह उन विषयों के प्रति हमारी आसक्ति समाप्तप्राय कर देगा।
  • खरा संत कभी भी अपने 'संत' होने का प्रचार-प्रसार नहीं करता और न ही किसी के द्वारा 'संत' कहने पर गदगद् होता है।
  • संत किसी प्रकार का चमत्कार नहीं करते, चमत्कार जैसा कुछ स्वयमेव हो जाता है! इसके लिए आवश्यकता है सतत संत-संगति की।

Saturday, September 18, 2010

(३९) प्रतिक्रिया - उचित या अनुचित ?

हमारे भारत में एक बहुत बड़ी विडम्बना है कि हम भारतवासी भावुक कुछ अधिक ही हैं और भावुकतावश किसी व्यावहारिक प्रश्न का हल ढूंढते समय जैसा गुरु बता देता है उसी नियम को एकमात्र व अंतिम (ultimate) मानकर बिलकुल नाक की सीध में चल देते हैं, अपने विवेक-बुद्धि या आत्मिक ज्ञान का प्रयोग करने की चेष्टा बिलकुल भी नहीं करते, क्योंकि हमें मनोलय और बुद्धिलय की जबरदस्त घुट्टी जो पिलाई जाती है। हमारी मानसिकता संकीर्ण हो जाती है और विवेक कुंद! तब हम केवल एक ही दिशा में सोच पाते हैं, लचीलेपन का अभाव हो जाता है। उदाहरण के लिए - आजकल भारत में यह वाक्य हर कहीं देखने, पढ़ने और सुनने में आ रहा है कि "केवल अपने आप को सुधारो, दूसरों पर ध्यान न दो, दूसरों के प्रति कोई प्रतिक्रिया न दो; हम स्वयं सुधर जाएं इतना ही पर्याप्त होगा, अन्य स्वयमेव सुधर जाएंगे।" बड़े-बड़े ज्ञानियों, प्रवचनकर्ताओं, गुरुओं, मठाधीशों का आज यही प्रिय एवं मुख्य सन्देश है।

इस वाक्य ने तो वर्तमान अनैतिकता के विरुद्ध वैयक्तिक विरोधों, उपभोक्ता-फोरमों, कानून एवं न्याय व्यवस्था आदि पर तो प्रश्नचिन्ह लगाया ही है, साथ ही पूर्वकाल में देवी-देवताओं, महान हस्तियों और आम जनता द्वारा असत्य व अन्याय के विरुद्ध किए गए प्रयासों के औचित्य पर भी प्रश्नचिन्ह लगा दिया है! और तो और क्या इस वाक्य ने वर्तमान में तथाकथित गुरुओं द्वारा किए जा रहे सुधारक प्रयासों, प्रवचनों आदि के औचित्य पर भी प्रश्नचिन्ह नहीं लगा दिया है? दूसरों को कहते हैं कि "तुम अन्यों को सुधारने का प्रयत्न मत करो, स्वयं ही सुधरो, शेष सब नियति व प्रारब्ध का खेल है"; तो फिर कोई उनसे यह पूछे कि "बाबा जी, आप पंडाल लगाकर इतनी भीड़ जुटाकर दूसरों को सुधारने में क्यों लगे हो? क्या आपको ही ईश्वर ने विशेषाधिकार-पत्र सौंपा है? क्या धर्म (righteousness) का ठेका कुछ ही लोगों ने उठा रखा है?" इन प्रश्नों का उत्तर भी वे बड़ी निर्लज्जता से देते हैं कि "हाँ, हमारा आध्यात्मिक स्तर बहुत ऊँचा है, तुम्हारा स्तर ही अभी क्या है, इसीलिए हम ही इसके अधिकारी हैं"!

उनका कथन भी काफी हद तक ठीक है कि बिना ज्ञानी हुए ज्ञान बघारना कोई अच्छी बात नहीं! लेकिन हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि प्रत्येक मनुष्य अपूर्ण है। सभी लोग ज्ञान के अलग-अलग स्तर पर हैं। कोई भी मनुष्य अपने से नीचे के स्तर वाले व्यक्ति के लिए प्रेरक या अध्यापक हो सकता है और अपने से ऊंचे स्तर वाले व्यक्ति के लिए अनुगामी या शिष्य। और व्यवहार में इतने विषयों के होते हुए कोई व्यक्ति किसी विधा में किसी से आगे हो सकता है तो किसी दूसरी विधा में उससे पीछे। यानी कहीं वह शिष्य की (सीखने वाले की) भूमिका में होता है तो कहीं सिखाने वाले की भूमिका में। तो जहाँ व्यवहार सम्बन्धी बातों का प्रश्न आता है वहाँ ऊपर दिया विवादास्पद नियम वृथा (fail) हो जाता है कि "केवल अपने आप को सुधारो, दूसरों पर ध्यान न दो, दूसरों के प्रति कोई प्रतिक्रिया न दो; हम स्वयं सुधर जाएं इतना ही पर्याप्त होगा, अन्य स्वयमेव सुधर जाएंगे।" व्यवहार व अध्यात्म सम्बन्धी अनेक बातों में हमसे अपरिपक्व कई लोग होते हैं, जैसे हमारी स्वयं की कच्ची उम्र की संतानें; क्या उन जैसों को कोई शिक्षा देना या सुधारने का प्रयत्न करना अयोग्य होगा?? बड़े भाई-बहन अपने से छोटों को सुधारने, सिखाने का प्रयत्न करते रहते हैं, क्या यह गलत है?? कई बार संतानें भी बड़ी होकर, परिपक्व होकर अपने बुजुर्गों की कमियों को सुधारने का प्रयत्न करती हैं, क्या यह गलत है?? एक शराबी पीकर दंगा-फसाद कर रहा है, यदि हमारे समझाने पर वह मान सकता है तो क्या उसे समझाना गलत है?? एक पुलिस वाला मोटरसाइकिल से हमारा पीछा करता है और हमपर बिना हेलमेट चलने के अपराध का दण्ड लगाता है और स्वयं भी वह हेलमेट नहीं लगाये है तो दण्ड भरने के साथ क्या हम उससे यह प्रश्न भी नहीं कर सकते कि वह स्वयं ऐसा क्यों कर रहा है?? एक मोटरकार वाला गलत दिशा से आकर हमें ठोकर मार देता है तो क्या हमारा विरोध दर्ज करना गलत होगा?? कोई घूस माँग कर हमारा कार्य करता है तो उसे घूस दे दी जाए या फिर ऐसे ही बिना काम किए लौट आया जाए!

उपरोक्त विवादास्पद नियम के अनुसार तो ऐसा होना हमारा प्रारब्ध ही है, वह हमें भोगना ही है!! क्रियमाण कर्म का बिलकुल मजाक बनाकर रख दिया है इस नियम ने! मैं मीठा बोलूँ, लेकिन मेरी संतान कटु बोलती है, अपशब्द बोलती है, तो उसे मना न करूँ, योग्य शिक्षा न दूँ; इन सबका कारण मैं अपने और संतान के प्रारब्ध को ही समझूँ, मौन रहकर प्रारब्ध को भोग लूँ! कुछ पलायनवादी विचार नहीं लगते ये आपको? मतलब यह कि कुछ गलत घटित हो रहा है तो या तो मेरे कर्म उसके लिए जिम्मेदार हैं या फिर मेरा प्रारब्ध, जो मेरे ही पूर्व कर्मों से निर्मित है; दूसरों की कोई गलती नहीं! दूसरे भी अपना-अपना प्रारब्ध भोग रहे हैं और उनके अधिकांश कर्म व परिस्थितियां भी उनके प्रारब्ध पर ही निर्भर हैं! यदि ये वाक्य सही हैं तो क्या कोई यह बताएगा कि प्रारब्ध आया कहाँ से?? बहुत बड़ा प्रश्न है यह!! ... वस्तुतः प्रारब्ध कोई ऊपर से टपकी वस्तु नहीं है, बल्कि यह हमारे ही क्रियमाण कर्मों द्वारा निर्मित हुआ कोष है। और यदि कुछ क्रियमाण कर्म करके स्वयं और समष्टि के कर्मों में कुछ सुधार आ सकता है तो फिर किंकर्तव्यविमूढ़ होकर मौन क्यों साधा जाए?? इसमें आज के तथाकथित ज्ञानी महापुरुषों को आपत्ति कैसी?? वे समष्टि के प्रति मूक रहने या तटस्थता का भाव रखने को क्यों कहते हैं? उदाहरण के लिए - मैंने एक कपड़ा ख़रीदा, वह दोषयुक्त या कटा-फटा निकल आया तो माना जा सकता है कि मेरी गलती मैं देखकर नहीं लाया; फिर एक सही कपड़ा मैं सिलने के लिए दर्जी को देता हूँ और वह उसको दोषयुक्त सिल देता है, तो भी मैं उससे कुछ न कहूँ, भविष्य में अच्छा सिलने के लिए नसीहत भी न दूँ, क्योंकि कपड़ा खराब सिला गया यह मेरा प्रारब्ध था!? किसी विभाग से कोई गलत बिल आता है तो चुपचाप भुगतान कर दूँ! यदि मैं जिम्मेदार अधिकारी अथवा अध्यापक हूँ तो अधीनस्थ कर्मचारी अथवा विद्यार्थी से कोई जवाब तलब न करूँ! देख कर भी किसी अन्य को गड्ढे में जाने दूँ, हस्तक्षेप न करूँ!

.... यह हमारे क्रियमाण कर्म की महत्ता का तिरस्कार है। मनुष्य एक आत्मिक तत्पश्चात् सामाजिक प्राणी है और यदि उससे जुड़े समाज के विभिन्न घटकों में अनैतिकता रहे तो फिर उस व्यक्ति का वहाँ गुजारा कठिन होता है। अतः अपने वर्तुल में नैतिकता को सुदृढ़ करने हेतु गलत कृत्यों के विरुद्ध योग्य प्रतिक्रिया देना गलत न होगा। .... मैं मानता हूँ कि पर्याप्त योग्यता न होने पर भी हर जगह दबंगई दिखाना मूर्खता है परन्तु हमारे विनम्र, न्यायसंगत व दृढ़ प्रयासों से स्थितियां यदि सुधर सकती हैं तो प्रयास अवश्य करना चाहिए। शालीनता और सुसभ्यता से उचित समय पर योग्य प्रतिक्रिया देना हमारा कर्तव्य है, क्योंकि मूक रहने के कारण बाद में कोई बड़ी दुर्घटना हो जाने पर हमें पछताना पड़ सकता है। जो हमें सुन सकता है, जिसके ऊपर हमारा कुछ अधिकार है वहाँ हमें अवश्य योग्य प्रतिक्रिया देनी चाहिए। पुनः, कर्म का फल और फल का समय हमें नहीं पता। बीजारोपण हमारे वश में होता है, खाद-पानी देना हमारे वश में है, परन्तु आगे के विकासक्रम के बारे में हम अनभिज्ञ होते हैं। इससे हमारे बीजारोपण या खाद-पानी देने का महत्त्व कम नहीं हो जाता। यह प्रयास कभी भी फलीभूत हो सकता है और सबको लाभ मिल सकता है। इति।

Monday, September 13, 2010

(३८) खुशियाँ मनाना

प्रायः हम लोग खुशियाँ मनाने के लिए कोई न कोई कारण, बहाना अथवा विशेष अवसर खोजते हैं, जैसे - त्यौहार, जन्मदिन, विवाह की वर्षगांठ आदि। लोग ऐसे विशेष अवसरों पर अन्यों को न्योता देते हैं एवं स्वयं भी दूसरों के यहाँ जाते हैं अथवा पारिवारिक सदस्यों के साथ ही वह विशेष अवसर मनाते हैं। इसमें तीज-त्यौहारों का औचित्य तो ठीक से समझ में आता है कि समाज के सभी लोग इनके बहाने कम से कम परिवार के स्तर पर इकट्ठा होकर उत्सव मनाते हैं, खुशियाँ बांटते हैं और पूरा समाज रोजमर्रा की जिंदगी से हट कर हर्ष व उत्साह से सराबोर हो जाता है। इन धार्मिक उत्सवों के पीछे निहित पवित्र सन्देश एवं शिक्षा का लाभ भी जाने-अनजाने हमें मिलता ही है। इसमें सबसे अच्छी बात यह है कि रुपए-पैसे या भेंट आदि का लेनदेन न के बराबर ही होता है। वैसे कुछ लोगों ने तीज-त्यौहारों में भी व्यर्थ के दिखावों और लेनदेन की परम्परा डाल दी है परन्तु भारत में त्यौहारों की कुल संख्या को देखते हुए इनका प्रतिशत फ़िलहाल नगण्य ही है। .... लेकिन जन्मदिन, वैवाहिक वर्षगांठ समारोह आदि जैसे कुछ आयोजन ऐसे हैं जो वर्तमान समय में आपसी प्रेम के स्थान पर औपचारिकताओं को बढ़ावा दे रहे हैं। लेकिन आज भारतीय समाज में लोगों को एक-दूसरे से मिलने और खुशियाँ मनाने का कोई दूसरा रास्ता सूझता ही नहीं है। उदाहरण के लिए -- मेरे एक मित्र से मेरी भेंट अक्सर (लगभग हर २०-२५ दिन में) सब्जीमंडी में हो जाती है; सब्जी खरीदते हुए ही हम आपस में कुछ मिनट बात करते हैं और फिर चल देते हैं। चूँकि मेरा घर सब्जीमंडी से बिलकुल समीप ही है अतएव अनेक बार उनसे अनुरोध किया कि 'कभी कुछ समय निकालें, घर पर बैठ कर आराम से कुछ बातें की जाएं, इस बहाने परिवार के अन्य सदस्यों से मिलना भी हो जाएगा'; इस पर उनका जवाब होता है कि 'आप कुछ करिये तो आएं' अर्थात् 'कुछ समारोह जैसा आयोजित कीजिए तो सपरिवार आएं'। .... ऐसा नहीं है कि उनके पास समय का अभाव है या हम दोनों के विचार मेल नहीं खाते। हम दोनों की पटती भी है फिर भी ...., शायद आजकल हर चीज का 'ट्रेंड' बदल गया है; हम लोग संकुचित और औपचारिक होते जा रहे हैं!

पहले जब लोग खाली होते थे अर्थात् काम के समय से निवृत्त होकर जब समय पाते थे तो एक-दूसरे के घर यूँ ही मिलने चले जाया करते थे; फिर तब यदि नाश्ते का समय होता तो नाश्ता आदि कर लेते थे, भोजन का समय होता तो भोजन आदि कर लेते थे, और कुछ नहीं तो ठंडा पानी या चाय आदि ही पी लेते थे और संतुष्ट हो जाते थे। खाली समय की इन बैठकों में खाने-पीने की अपेक्षा प्रमुख लक्ष्य होता था - आपसी आमोद-प्रमोद, ढेर सारी बातें और परस्पर वैचारिक आदान-प्रदान। आपसी प्रेमभाव बढ़ाने के अतिरिक्त ये बैठकें हमारे सामान्य ज्ञान की वृद्धि में भी बहुत सहायक सिद्ध होती थीं। इस प्रकार की गतिविधि से व्यक्ति सामाजिक रूप से एक-दूसरे के निकट आता था, एक-दूसरे को समझ पाता था, बिना कारण या अवलम्ब के खुशियाँ मना पाता था, स्वस्थ हास-परिहास होता था, मन हल्का और प्रसन्न हो जाता था; क्योंकि रोजमर्रा की व्यावसायिक मशीनी जिंदगी से हटकर ये गतिविधियां पैसा कमाने के उद्देश्य से नहीं वरन जिंदगी को हल्का-फुल्का और खुशनुमा बनाने के लिए होती थीं। जबकि दूसरी ओर हम अन्य औपचारिक समारोहों को देखें तो पाएंगे कि उनको मनाने का कुछ कारण है, वे किसी बात पर अवलम्बित हैं, वे नियत दिनांक पर ही मनाये जा सकते हैं और उनमें औपचारिकताएं भी बहुत सी आ गई हैं तथा नित नवीन औपचारिकताएं बढ़ती ही जा रही हैं। इस प्रकार के आयोजन चाहे पारिवारिक स्तर पर हों अथवा सामाजिक स्तर पर, दोनों ही मामलों में रुपए-पैसे के ऊपर निर्भरता आ ही जाती है, भेंट आदि लेना-देना आवश्यक सा होता है और वह भी अधिकाधिक दिखावे के साथ! भेंट-उपहारों को प्रेम से अधिक कीमत की कसौटी पर कसा जाता है, आपसी लगाव के आंकलन का तरीका बदलता जा रहा है! यदि कोई इससे इन्कार भी करे तो भी इतना तो स्वीकार करेगा ही कि मेहमानों को मेजबान से अधिकतम की अपेक्षा होती है और मेजबान को मेहमान से! समारोह के दौरान या बाद में कभी न कभी मेजबान या मेहमान के आर्थिक स्तर की चर्चा होती अवश्य है और अन्य समारोहों के साथ तुलना भी की जाती है। चर्चाओं में अक्सर इस तरह के वाक्य सुनाई पड़ते हैं - "मैंने तो उनके यहाँ इतना दिया था, उन्होंने तो उसकी तुलना में बहुत कम दिया; मेरा उपहार महंगा था, उन्होंने तो सस्ता सा पकड़ा दिया; वे कंजूसी कर गए; वे मतलबी हैं; लगता है कहीं और से मिला उपहार मुझे पकड़ा गए; अरे हमारा उपहार उनकी औकात के हिसाब से बहुत है!" .... यानी खुशियाँ मनाने से अधिक ध्यान विभिन्न आंकलनों पर रहता है और इस पर भी कि दिखावा कैसे अधिक से अधिक हो!

जबकि वैयक्तिक रूप से बिना वजह यूँ ही एक-दूसरे से मिलते-जुलते और खुशियाँ मनाते समय इन सब बातों का कोई महत्त्व नहीं रहता तथा रूपए-पैसे के दिखावे और उपहार-भेंट आदि की औपचारिकताओं से दूर ही रहते हैं। इस प्रकार के बैठकें या पार्टियां किसी कारण विशेष पर आश्रित नहीं होतीं और ये हमें आपसी भाईचारा बढ़ाने के लिए उकसाती हैं, प्रेरित करती हैं। ये किसी भी खाली समय या छुट्टी के दिन संभव हैं, इनमें स्वार्थ या अपेक्षा जैसा कुछ नहीं होता, ये कार्य-दिवसों में आए तनाव को कम करने में भी विशेष सहायक सिद्ध होती हैं। इस तरह के आयोजन या मिलना-जुलना पूरी तरह से हमारे हाथ में है और इन पर दिनांक या दिवस विशेष का कोई बंधन लागू नहीं होता। .... बिलकुल निराकार साधना जैसी है यह! निराकार उपासना में विधि-निषेध बंधन नहीं है और यह सप्ताह में चौबीस घंटे और सातों दिन संभव है; जबकि साकार उपासना बहुत सी बातों पर आश्रित होती है, कम अवधि के लिए हो पाती है। .... देखा जाए तो हमारे लिए हर दिवस एक उत्सव की तरह होना चाहिए और हममें यह कला होनी चाहिए कि हम हर दिन कहीं न कहीं से, किसी न किसी रूप में अपने दैनिक कार्यों में ही खुशियाँ तलाश लें। यह प्रक्रिया हमें निरंतर उत्साहित रखती है और जीवन्तता बनी रहती है। हम उत्साहित होने, प्रसन्न होने, खुशियाँ मनाने आदि में किसी दिन विशेष पर आश्रित न रहें बल्कि सर्वप्रथम अपने कर्तव्य रूपी कार्यों को सर्वोच्च प्राथमिकता देते हुए, उपरांत खाली होते ही आपसी सामाजिक मनोरंजन को पर्याप्त समय दें; जीवन्तता निरंतरता के साथ बनी रहे इसके लिए यह अत्यंत आवश्यक है। इति।

Sunday, September 12, 2010

(३७) पुरुषोचित आचरण

पिछले लेख में पुरुषों, विशेषकर भारतीय पुरुषों की वर्तमान मनःस्थिति पर कुछ तीखे ही प्रहार हो गए। आलोचना के साथ यह परम आवश्यक है कि समस्या के कारण जानने एवं निदान ढूंढने के प्रयत्न भी समानान्तर रूप से किए जाएं। यहाँ यह जानना भी आवश्यक हो जाता है कि आखिर पुरुषोचित आचरण कैसा होना चाहिए, और हमारी सोच में क्या कमियां हैं जिनके कारण हमें आखें झुकानी पड़ जाती हैं! इस लेख में इन्हीं सब बिदुओं पर मनन करने का प्रयास किया गया है।

किसी भी संघ की तत्कालीन आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, वैज्ञानिक एवं धार्मिक परिस्थितियों का जबरदस्त प्रभाव उस काल के लोगों के आचरण पर पड़ता है। यद्यपि ऊपर उल्लेखित सभी कारणों का मिलाजुला प्रभाव पड़ता है तद्यपि अच्छे एवं योग्य आचरण को अक्षुण्ण बनाए रखने में सामाजिक, सांस्कृतिक और धार्मिक परिस्थितियों की भूमिका अग्रणी रहती है। यदि इन तीनों के स्तर में कोई गिरावट आती है तो मूल्यों का गिरना भी निश्चित होता है। ... और पुनः इन तीनों में भी यदि तुलना करें तो धार्मिक परिस्थिति की भूमिका सर्वोच्च है; सामाजिक मूल्यों के अधःपतन की दशा में सांस्कृतिक मजबूती उसे संभाल सकती है और सांस्कृतिक दोष आने पर धार्मिक सुदृढता उसे थाम लेती है। धर्म से तात्पर्य यहाँ विभिन्न धार्मिक कृत्यों से उपजे खरे अध्यात्मविषयक ज्ञान से है, सूक्ष्म के ज्ञान से है; ... और इस ज्ञान को अपने भौतिक जीवन के दैनंदिन क्रियाकलापों एवं आचरण में शामिल करना अर्थात् धर्म का निर्वाह करना। धर्म का यथार्थ निर्वाहन सभी प्रकार की बाधाओं-कठिनाइयों को पराजित करने में पूरी तरह से सक्षम है। जब-जब मनुष्य ने धर्म का आश्रय छोड़ा है, तब-तब तनावों एवं विषम परिस्थितियों ने उसे आ घेरा है और वह असंतुलित हो निरंतर नीचे की ओर गया है।

भारत में भी कुछ ऐसा ही घटित हुआ। हमारा इतिहास एवं हमारी पौराणिक कथाएँ इस बात का प्रत्यक्ष प्रमाण हैं। उनके अध्ययन से हमें साफ़ तौर पर जानने को मिलता है कि युग दर युग हमारे समाज की मानसिकता, तदनुसार आचरण, आदि में क्या-क्या बदलाव आए। सत्ययुग सर्वश्रेष्ठ था तो त्रेता उससे कुछ निम्न, द्वापर उससे निम्नतर, तथा कलियुग निम्नतम। तुलना सर्वथा तत्कालीन लोगों की मनःस्थिति एवं आचरण पर आधारित थी/है, और पुनः, किसी काल में लोगों की मानसिकता व आचरण तत्कालीन आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, वैज्ञानिक तथा आध्यात्मिक ढांचे पर निर्भर हैं। वैसे मेरा वैयक्तिक मत यह है कि वर्तमानकाल में प्रत्येक राष्ट्र या संघ उपरोक्त परिस्थितियों के वर्तमान तत्स्थानिक परिमाण के अनुसार अलग-अलग युग को अनुभव कर रहा है। इस धरा पर कदाचित सत्ययुग कहीं पर है यह तो संदेह की बात हो सकती है परन्तु त्रेता, द्वापर जैसी स्थितियां कई जगह देखने को मिल जाती हैं। हमारे देश के वर्तमान समष्टिगत मानसिक ढांचे एवं आचरण सम्बन्धी पक्षों को देखते हुए जब हम अपनी तुलना कुछ अन्य विकसित देशों से करते हैं तो स्वतः ही हमें इस सच्चाई के दर्शन होते हैं, भले ही हम प्रत्यक्षतः इसे स्वीकार न करें! विशेषकर हमारे यहाँ के पुरुषों के आचरण में समय के साथ बहुत अधिक नैतिक गिरावट आई है।

सब जानते हैं कि भारत का अतीत बहुत उज्ज्वल रहा था, सभी दृष्टियों से हम उत्कृष्ट थे। पर समय ने करवट ली, दुनिया में अनेकों बदलाव हुए; जो पीछे थे उन्होंने भी प्रगति की दिशा में कदम बढ़ाये। भौतिक जगत सतत परिवर्तनशील होता है परन्तु हम भारतीय यह तथ्य भुलाकर आत्मश्लाघा एवं आत्मस्तुति के भंवर में फंस कर एक स्थान पर ही रुक गए, स्थिर हो गए, जड़ हो गए! उस समय हमारे यहाँ के जगत-विख्यात सांस्कृतिक और धार्मिक ढांचे ने भी हमारी कोई मदद नहीं की, क्योंकि उस समय उसका भी वही हाल था जो हमारी साधारण मानसिकता का था! यहीं से हमारे पतन और पराभव के दिन शुरू हुए। .... धीरे-धीरे हमारा राष्ट्र दासता की बेड़ियों में जकड़ गया, जिसके लिए हम स्वयं जिम्मेदार थे। बाद में कुछ महत्त्वपूर्ण सामाजिक परिवर्तन हुए और हमारे सुप्तप्रायः राष्ट्र में कुछ चेतना का संचार हुआ, फलस्वरूप हम पुनः स्वतंत्र हुए। परन्तु यह यह प्रक्रिया भी इतनी लंबी, अनियोजित और सुस्त थी कि हमारे युवा पुरुषवर्ग को कोई योग्य दिशा देने में असफल रही। परतंत्रता से पूर्व ही हमारे यहाँ की धार्मिक शिक्षाओं के स्तर में गिरावट आ चुकी थी, परतंत्रता के दौरान स्थितियां और अधिक विकट रहीं तथा रही-सही कसर संचार माध्यमों के एकदम से विकसित हो जाने के फलस्वरूप आए वैश्वीकरण ने पूरी कर दी। .... कई दिनों से भूखे को अचानक ढेर सारा खाना मिल गया और वह पशुओं की भांति उस पर टूट पड़ा। पशु तो फिर भी एक सीमा तक विचार कर सकते हैं और शीघ्र तृप्त हो जाते हैं; परन्तु मनुष्य के पास तो मन, बुद्धि, विवेक आदि पशुओं की तुलना में बहुत अधिक है, सो हमने एकदम से ढेर सारा खाने के अतिरिक्त अनाप-शनाप संग्रह करना भी आरंभ कर दिया। इन सब जतनों, क्रियाकलापों में हमारा पुरुषवर्ग नैतिक रूप से भी निरंतर गिरता चला गया। हमारा आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक एवं वैज्ञानिक ढांचा वैसे ही जर्जर था, ऊपर से धार्मिक ढांचा तो और भी क्षतिग्रस्त, बिलकुल दिशाविहीन! परिस्थितियां बिलकुल विपरीत थीं/हैं, इसीलिए हम निरंतर और गिरते ही जा रहे हैं। आज जो माध्यम (जैसे- मीडिया, सिनेमा, राजनेता, धर्मगुरु) सशक्त हैं, मजबूत हैं, सामर्थ्यवान हैं, अधिकार रखते हैं, लोग जिनकी सुनते हैं, ... क्या वे माध्यम अपनी कुशलता, योग्यता व सामर्थ्य का ईमानदारी से सदुपयोग कर रहे हैं? बिलकुल नहीं ....; वे भी संग्रह, आत्मस्तुति एवं आत्मश्लाघा बढ़ाने में ही दिन-रात व्यस्त हैं। ऐसे में हमारे समाज के आधार-स्तंभ पुरुषवर्ग का अधःपतन होना निश्चित ही है।

यह बात सही है कि कोई भी अपनी माता के गर्भ से सब कुछ सीख कर जन्म नहीं लेता। प्रथमतः वह कोरे कागज की भांति ही होता है; वह यहीं इसी धरा पर, अपने परिवार, समाज आदि से सब कुछ सीखता है। यहीं उसके चारों ओर उपस्थित वातावरण के अनुरूप ही उसके संस्कार बनते हैं; पिछले जन्मों के संस्कारों में से भी केवल वही संस्कार जागते हैं जिनको स्थानीय वातावरण के अनुसार पोषण मिलता है, शेष सुप्त ही रहते हैं। और सत्य यही है कि हमारे संघ का दूषित वातावरण ही हमारे वर्तमान पुरुषवर्ग के अनैतिक आचरण के लिए दोषी है। स्त्रियों का स्तर अपेक्षाकृत ऊंचा होता है, इसके कारणों पर हमने पिछले लेख में देखा था। कुल मिलाकर वर्तमान भारत के बाहुबली पुरुषवर्ग की दुर्बलताओं के पीछे का मूल कारण मानसिक और आध्यात्मिक रूप से असंतुलित होना है और इस असुंतलन के लिए अभिजात सामाजिक घटक, मीडिया और सरकार जैसे सशक्त माध्यम तथा समाज के धार्मिक मार्गदर्शक प्रमुख रूप से उत्तरदायी हैं। इन सब का आचरण नैतिकता के मापदंडों की कसौटी पर अत्यंत निम्नकोटि का था/है, तभी तो आम प्रजा, विशेषकर पुरुषों में इस प्रकार के संस्कार उपजे! .... बचपन से किसी ने कुछ अच्छा उदाहरण प्रस्तुत किया नहीं; झूठ, फरेब, प्रतिद्वंदिता, कपट, लालच, ईर्ष्या और नाना प्रकार के अन्य दंद-फंद अपने आसपास घटित होते देखते व सुनते रहे; तो उन्हीं सब के अनुरूप संस्कार दृढ़ होते चले गए। बचपन में अभिभावकों ने भी सत्संग और पौराणिक कथा साहित्य आदि से दूर ही रखा कि यह सब तो बुढ़ापे के खाली समय के काम हैं और फिर इस क्षेत्र में भी धोखाधड़ी इतनी बढ़ गई है कि किसी पर विश्वास ही नहीं जमता! जवानी या अधेड़ावस्था में जाकर स्वयं से ही कुछ को एहसास हुआ कि कहीं कुछ गड़बड़ हो रही है, सत्य से सामना हुआ; पर तब यह लगा कि अकेला चना कहाँ भाड़ फोड़ पाएगा, सो मन मसोस कर चुप रह गए। ... कुछ-कुछ ऐसा ही चल रहा है हमारे समाज में।

विभिन्न धर्मों, सम्प्रदायों, भाषाओं या संघों से जुड़ा व्यक्ति अपने से सम्बंधित प्रचलित जीवन-प्रणाली से चलते हुए क्रमशः विकसित और परिष्कृत होने का प्रयास करता रहता है। परन्तु यदि कोई जीवन-पद्धति व्यक्ति को सुसंस्कृत, सभ्य, विनम्र एवं भद्र होने में मदद नहीं कर रही तो समझा जाना चाहिए कि निश्चित रूप से उस पद्धति में दोष आ चुके हैं और उस पद्धति के पुनरावलोकन एवं परिष्कार की आवश्यकता है। फसल से अधिकाधिक फल निष्पत्ति सुनिश्चित करने हेतु समय-समय पर फालतू में उग आई झाड़ियाँ और घासफूस साफ करने ही पड़ते हैं। हमारी वर्तमान जीवन पद्धति में भी बहुत अधिक व्यर्थ की झाड़ियाँ उग आई हैं। परन्तु हम सफाई करने से कतरा रहे हैं। जिनको सत्य का पता चला चुका है, कायरतावश वे सत्य का प्रयोग उन पर भी नहीं करते जिन पर उनका वश है, जो उनकी बात मान सकते हैं, जैसे उनकी स्वयं की संतानें। हमारे पूर्वजों ने गलत काम कम किए थे, हम उनसे आगे रहे, और हमारे वंशज गलत आचरण में हमसे भी आगे जा रहे हैं; यह देखते हुए भी हममें जागृति नहीं आती! जहाँ मूक रहना चाहिए वहाँ बहुत बोलते हैं और जहाँ बोलना चाहिए वहाँ मूक रहते हैं!

पहले हम परतंत्र थे, दबे हुए थे; फिर किसी तरह स्वतंत्र हो गए, तो मनमानी और बढ़ गई; उस पर वैश्वीकरण के चलते जब हम समस्त विश्व के बिलकुल निकट आ गए तो हम पहले से भी अधिक पिछलग्गू बन गए। पश्चिम के लोगों का हमने अनुकरण तो किया, पर आधा-अधूरा! हमारे युवाओं ने उनकी सभ्यता के नकारात्मक पक्षों को ही अपनाया और अनेकों सकारात्मक पक्ष अनदेखे कर दिए। हमने उनकी विलासिता तो ग्रहण कर ली, परन्तु उच्च आदर्श ग्रहण नहीं किए। हमने उनके चाय, कॉफी को तो ग्रहण कर लिया परन्तु अपनी मदद स्वयं करने का गुण नहीं अपनाया; सफर के दौरान थोड़ा सा सामान भी स्वयं उठाना हमें कठिन या फिर लज्जाजनक प्रतीत होता है; घर की सफाई आदि स्वयं करना भी अप्रतिष्ठा का विषय लगता है, तीर्थ यात्रा तक भी हम अपने पैरों से नहीं कर पाते हैं! पाश्चात्य दिन में कई बार खाते हैं, परन्तु वे शारीरिक श्रम भी लगनपूर्वक करते हैं, यह हमें दिखाई नहीं पड़ता! हम इतना नाजुक बनते हैं कि थोड़ा सा बीमार पड़ते ही सगे-सम्बन्धियों, मित्रों आदि को तुरंत सूचित करते हैं और अपेक्षा रखते हैं कि हमारा हालचाल पूछने हर कोई पहुंचे; वहीं दूसरी ओर पाश्चात्य युवक रफ-टफ और मजबूत हैं, जरा-जरा सी बात का रोना नहीं रोते! विदेशी पर्यटकों को देखकर हम सहज ही अनुमान लगा सकते हैं कि वे किस कदर मेहनती एवं ऊर्जावान होते हैं; अपने घरों में विलासितापूर्ण माहौल में रहने के बावजूद भारत की विषम परिस्थितियों में वे प्रसन्नचित्त भ्रमण करते रहते हैं, स्वावलम्बिता उनका विशिष्ट गुण है। परन्तु हम हैं कि उनकी विलासी वृत्ति को तो अपनाते हैं परन्तु स्थिति-अनुरूप विलासिता को तिलांजलि देने की चेष्टा में उनसे बहुत पीछे रहते हैं। हमारे आधुनिक युवाओं के पास जितने अत्याधुनिक गैजेट्स का भंडार है, हो सकता है पाश्चात्य युवाओं के पास उससे और अधिक हो; परन्तु वे उन गैजेट्स का सदुपयोग करते हैं, उनके गुलाम नहीं हैं, व्यर्थ का दिखावा-प्रदर्शन नहीं करते! ट्रेन या बस में चलते समय गैजेट्स का जोर-शोर से इस्तेमाल नहीं करते और न ही बवाल आदि करते हैं। पाश्चात्य लोग वृद्धजनों, बच्चों एवं स्त्रियों के प्रति विशेष सुहृदय रहते हैं और उनके लिए सीट आदि भी खाली कर देते हैं। स्त्रियों से व्यवहार करते समय वे अत्यधिक संयमित, संकोची एवं शिष्टाचारी रहते हैं एवं उनके संरक्षण के दायित्व का भाव रहता है, परन्तु हम ....? उनकी देखा-देखी हम भी अनेक 'स्त्री मित्र' बनाने में लगे रहते हैं, परन्तु हमारे संबंधों में गहराई, सुहृदयता एवं संरक्षण के दायित्व के भाव आदि के दर्शन नहीं होते; अभी भी हममें से अधिकांश पुरुष स्त्री को भोग्या ही समझते हैं। हम उनके देशों में बनी हुई अश्लील फिल्मों को तो देखते हैं, परन्तु अपेक्षाकृत अधिक संख्या में बनी प्रेरणादायी एवं साफ-सुथरी फिल्में देखने में पीछे रहते हैं। हमारे यहाँ की बहुत बड़े बजट की फिल्म भी अतिनाटकीयता एवं असंख्य तकनीकी दोषों से युक्त रहती है तथा अस्वाभाविक जान पड़ती है, जबकि उनके यहाँ की साधारण व काल्पनिक विषय पर बनी हुई फिल्म भी चुस्त कथानक, कुशल सम्पादन एवं तकनीकी श्रेष्ठता के कारण वास्तविक प्रतीत होती है। हमारे पास संसाधन कम नहीं हैं, हर आधुनिक तकनीकी उपकरण हम खरीद सकते हैं, परन्तु उनको चलाते तो हम ही हैं न; तो फिर अपनी उथली सोच के कारण हम फिल्म में वह गहराई व वास्तविकता पैदा नहीं कर पाते जो वे कर पाते हैं! इसके अतिरिक्त व्यापार आदि में जितने सुस्पष्ट और पारदर्शी नियमों से वे चलते हैं, हमारे व्यापार में उतनी ही मिलावट रहती है; बहुत सी बातें छिपी हुई होती हैं! कुल मिलाकर हमारे प्रत्येक कृत्य में चालाकियां व स्वार्थ छिपा होता है जबकि वे अधिकांशतः सरल-हृदयी होते हैं। वे चालाक और धूर्त भी होते हैं, परन्तु मात्र चालाक एवं धूर्त लोगों के लिए; क्योंकि वे 'जैसे को तैसा' की नीति पर चलते हैं और हम 'सबकी ऐसी की तैसी', इस नियम पर चलते हैं! अधिकांशतः उनका एक ही धार्मिक ग्रन्थ है जैसे - बाइबल, जबकि हमारे पास अनेकों मार्गदर्शक ग्रन्थ हैं; वे एक से ही बहुत कुछ ले लेते हैं और हम अनेकों से कुछ नहीं ले पाते!? वे करते अधिक हैं, बोलते कम हैं; जबकि हम इसकी उलट पद्धति पर चलते हैं! वहाँ कारखानों एवं अन्य उत्पादन इकाइयों में 'बढ़िया' नहीं वरन 'सर्वोत्तम' पर जोर दिया जाता है, जबकि हमारे कामगार एवं मालिक दोनों ही 'चलता है' की नीति एवं वृत्ति से काम करते हैं!

अब हमें सचेत होना ही होगा यदि हम वास्तव में ठोस प्रगति करना चाहते हैं। हमें अपने चिंतन में मानव जीवन के उद्देश्य को समझने का बिंदु सर्वोच्च स्थान पर रखना होगा। यदि हम मानव जीवन का उद्देश्य भली-भांति समझ सके और उसे हृदयंगम करते हुए अपने कार्यों और आचरण के माध्यम से उसे प्रकट कर सके तब ही हम पौरुष दिखाने में सफल हुए, ऐसा मानिये। हमारा गौरव एवं गरिमा किन बातों में है, इस सम्बन्ध में हमारी धारणा सुस्पष्ट होनी चाहिए। हमें हमारे लक्ष्य साफ तौर पर पता होने चाहिएं और उन्हें पाने के लिए योग्य (righteous) मार्ग भी। असली चैन, सुकून, शांति, आनंद आदि हमें 'योग्य एवं न्यायप्रिय' मार्ग पर चल कर ही प्राप्त हो सकते हैं। इसके लिए हमें अपनी मानसिकता का परिष्कार कर उसका स्तर ऊपर उठाना होगा और कर्मों की गुणवत्ता बढ़ानी होगी। मानसिक उत्कृष्टता एवं प्रत्येक कर्म की पराकाष्ठा तक पहुंचना कठिन तो हो सकता है परन्तु असाध्य नहीं। आगे के चरण में हमें उत्कृष्ट मानसिक स्तर से और ऊपर उठकर आत्मिक स्तर तक पहुंचना होगा, वहाँ तक पहुंचकर ही हम मानव जीवन के उद्देश्य को यथार्थतः समझ पायेंगे। फिर 'योग्य एवं न्यायप्रिय' (righteous) पथ पर चलते हुए यदि हम भौतिक रूप से कुछ अभाव या कठिनाई का सामना भी करते हैं, तो विश्वास कीजिए उस स्थिति में भी हम आनंदित ही रहेंगे; यह प्रयोग करने की तत्पश्चात् अनुभूत करने की बात है। .... इसके अतिरिक्त अभी और कुछ कहना मात्र शब्दों का दोहराव होगा। इतना पढ़कर ही जागरूक पाठक यह समझ सकते हैं कि हमारे देश के युवा पुरुषवर्ग को किस प्रकार के यत्नों एवं आचरण की आवश्यकता है, जिनसे उनका पौरुष यथार्थ में प्रकट हो और वे उस पर गर्व कर सकें। इति।

Wednesday, September 1, 2010

(३६) पुरुष मित्र

भारत की प्राचीन संस्कृति एवं समाज-व्यवस्था के अनुसार पहले परिवार के लिए आर्थिक संसाधन जुटाने का कार्य मुख्यतः पुरुषों के कंधों पर ही होता था, अतः उनके शैक्षिक विकास पर अधिक जोर दिया जाता था; महिलाओं को मुख्यतः घरेलू कार्यों तक सीमित रखा जाता था। ... तो कार्यों के अनुसार ही उनका लालन-पोषण होता था। चूँकि एक लंबे समय से अनेक कारणों से हमारा देश गरीब था और विभिन्न प्रकार के भ्रष्टाचार हमारे समाज में व्याप्त थे, अतः पुरुष-वर्ग में तदनुसार चालाकी अधिक थी; चलन के अनुसार दंद-फंद में भी वे लगे ही रहते थे। वहीं दूसरी ओर स्त्रियों को अपेक्षाकृत बहुत अच्छे संस्कार प्राप्त होते थे, क्योंकि वे आर्थिक और व्यापारिक मामलों से परे साफ-सुथरे धार्मिक माहौल में रह कर विकसित होती थीं। व्यस्क होने पर उनका विवाह कर दिया जाता था, और संस्कारवान होने के कारण विवाह पश्चात् वे सही मायनों में पतिव्रता, ससुराल-पक्ष के प्रति निष्ठावान और बच्चों की अच्छी परवरिश के प्रति निरंतर सचेत रहती थी। यद्यपि उनके पतियों में ऐसे गुण पर्याप्त मात्रा में नहीं होते थे, तदपि स्त्रियों के तेज के बल पर स्थितियां काफी हद तक संतुलित हो जाती थीं। बहुत से विद्वानों का भी यह प्रबल मत है कि अपने यहाँ की स्त्रियों के सतीत्व एवं तेज के कारण ही इतने भ्रष्टाचारी झंझावातों के बावजूद भारत का अस्तित्व बना हुआ है।

पहले भारत में लड़के और लड़कियों की अलग-अलग शिक्षा का प्रावधान या चलन था, सह-शिक्षा का चलन नहीं था। परन्तु धीरे-धीरे स्थितियों में परिवर्तन हुआ और स्त्रियों की सहभागिता क्रमशः पारिवारिक एवं सामाजिक दायित्वों में बढ़ी। लड़कियों और लड़कों में सामाजिक भेद-भाव कम होता गया और पश्चिम की भांति भारत में भी सह-शिक्षा आरंभ हो गयी। भौतिक विकास एवं प्रगति की दृष्टि से यह बहुत उत्तम था। प्राचीन भारतीय इतिहास में भी अनेकों उदाहरण मिलते हैं जब पुरुषों के कमजोर या कम पड़ने पर उनकी स्त्रियों ने उनके कंधे के साथ कंधा मिलाकर परिस्थितियों का सामना किया और उन पर विजय प्राप्त की; हमारी धार्मिक संस्कृति में तो स्त्री को शक्ति-स्वरूप माना ही गया है। तो फिर यह बात तो मान्य करने योग्य है कि देश को बहुमुखी विकास के लिए स्त्री-शक्ति की आवश्यकता थी, और समय ने स्त्रियों को यह अवसर प्रदान किया।

परन्तु वर्तमान भारतीय परिस्थितियों में इस पद्धति के कारण सामाजिक एवं नैतिक मूल्यों की अनेक क्षतियाँ भी दृष्टिगोचर हो रही हैं। संभवतः वे इसलिए हैं क्योंकि हमारा देश मानसिक रूप से अभी भी परिपक्व एवं संतुलित नहीं है, बल्कि असंतुलन पहले की अपेक्षा बढ़ गया प्रतीत होता है। विकसित देशों ने अपने कठोर परिश्रम से जो कुछ धीरे-धीरे कई वर्षों में प्राप्त किया, वह हमें वैश्वीकरण के कारण एकाएक प्राप्त हो गया। हमारा देश विश्व के व्यापार-जगत के लिए एक बड़ी मंडी बन गया। चूँकि भारत में अनेक कारणों से भ्रष्टाचार पहले से ही बहुत अधिक था, अतः अब इस अचानक आयी विकास की आँधी में दुनिया भर का कूड़ा-करकट हमारे यहाँ बिकने व खपने लगा, उपभोक्ता वस्तुओं में नित नए-नए ऊटपटांग वैशिष्ट्यों (features) की मांग हमारे यहाँ ही सर्वाधिक है। हमारे देश में व्याप्त गरीबी, अपेक्षाकृत सस्ती दर पर उपलब्ध कर्मचारी, भ्रष्टाचार, चालाकी आदि का लाभ अनेक कंपनियों ने अपना व्यापार बढ़ाने के लिए लिया। इन्हीं सब कारणों से हमारे देश का युवा-वर्ग पिछले कुछ वर्षों में और अधिक दिग्भ्रमित व भ्रष्ट हुआ है, खासतौर पर पुरुष युवा-वर्ग! इसी को हम मानसिक असंतुलन कह सकते हैं। विडम्बना एवं दुर्भाग्य की बात है कि भारत में स्त्री-जाति में भी कुछ ने भी पुरुषों में व्याप्त अनैतिक मूल्यों का अनुसरण करना आरंभ कर दिया है; यह भारत की वर्तमान तस्वीर का सबसे नकारात्मक पहलू है।

आत्मा तो सबमें एक समान है, परन्तु हममें से अधिकांश अभी तक आत्मिक स्तर तक नहीं पहुंचे हैं, शारीरिक व मानसिक स्तर पर ही हैं; अतः उसी के अनुसार देखें तो ईश्वर या प्रकृति ने स्त्री व पुरुष देह को शारीरिक व मानसिक भिन्नताएं प्रदान की हैं। इनमें से अधिकांश भिन्नताओं से हम परिचित हैं, कुछ की हमने ऊपर चर्चा भी की है। मानसिक व आध्यात्मिक रूप से अधिक सुदृढ़ होने के अतिरिक्त स्त्री में एक अन्य विलक्षण योग्यता गर्भ-धारण की है। यद्यपि पुरुष की भूमिका भी उसमें रहती है, परन्तु नवजीवन का संवर्धन नारी-देह में ही संभव है और इस प्रक्रिया का भार एवं कष्ट उठाना उसी के बस का है। शारीरिक सम्बन्ध स्थापित होने पर पुरुष-देह में न कोई परिवर्तन होता है और न ही उसे कोई कष्ट होता है, इसी बात का लाभ भ्रष्ट मनःस्थिति में पहुंचा पुरुष कभी भी उठा सकता है। प्राचीनकाल में जब समय अपेक्षाकृत बेहतर था तो भी स्त्रियों को विवाह से पूर्व अपने कौमार्य को सहेज कर रखने की शिक्षा दी जाती थी, इसके परोक्ष या अपरोक्ष रूप से जो अनेकों लाभ होते थे उनसे सभी परिचित एवं सहमत होंगे; परन्तु आज अपरिपक्व मानसिक व शारीरिक अवस्था ही में सह-शिक्षा आरंभ हो जाने से स्त्री-पुरुष मित्रता कब दिग्भ्रमित हो जाये इसका अनुमान कोई नहीं लगा सकता और वह भी तब जब नैतिक मूल्य इतने निम्न स्तर पर पहुँच चुके हों। गिरे हुए नैतिक माहौल और मानसिक अपरिपक्वता के चलते अधिकांशतः युवा-वर्ग स्वच्छ व स्वस्थ मित्रता को अधिक समय तक अक्षुण्ण नहीं बनाए रख पाता और विशेषकर पुरुष युवा में कभी भी नैतिक गिरावट आ सकती है। इस नैतिक पतन से पुरुष की तो कुछ खास क्षति नहीं होती, परन्तु स्त्री को अत्यधिक शारीरिक या/और मानसिक उत्पीड़न झेलना पड़ता है। नैतिक मूल्यों की रक्षा के मामले में स्वाभाविक रूप से समाज की अपेक्षाएं भी स्त्रियों से ही अधिक होती हैं, क्योंकि परोक्ष पशुवत-वृत्ति के कारण पुरुष-जाति से तो पहले से ही कोई अच्छी उम्मीद नहीं होती; ... वैसे अपवाद कहीं भी संभव हैं!

अतः मित्रता विशेषकर युवा-वर्ग की मित्रता के मामले में स्त्री को बहुत ही सतर्क रहने की आवश्यकता है। युवावस्था में वैसे ही मन-मस्तिष्क अपरिपक्व होता है, ऊपर से कोढ़ में खाज यह कि इस समय सामाजिक नैतिक स्तर भी न्यूनतम गहराइयों को छू रहा है और युवा पुरुष के मन में बैठा शैतान कब जाग जाये, कोई भरोसा नहीं! आजकल तो कितने पवित्र रिश्ते भी पतित होने के समाचार नित मिल रहे हैं। इस प्रकार गर्त में चले जाने से पुरुषों को तो कोई खास फर्क नहीं पड़ता, परन्तु स्त्रियों पर उनकी शारीरिक संरचना, कोमल मानसिकता, अच्छे संस्कारों एवं समाज की अपेक्षाओं के कारण बहुत अधिक दबाव पड़ता है और वे अवसाद की स्थिति में जा सकती हैं। यह भयावह स्थिति है और निःसंदेह हमारे रोगग्रस्त पुरुष-प्रधान समाज की देन है। इस कठिन समय की माँग यही है कि स्त्रियां स्वयं ही सचेत रहें, विशेषकर युवावस्था में बहुत ही सचेत रहने की आवश्यकता है; पुरुष मित्र कितना ही भला क्यों न लगे, उससे एक सीमा तक ही सम्बन्ध रखने चाहियें। आज का मन का अच्छा भाव सदा बने रहने में भी संदेह है। अतः संवेदनशीलता तो रहे, परन्तु 'कोरी भावुकता' से परे रहने में ही भलाई है (स्त्रियां मूलतः बहुत नम्र व सरल स्वभाव की होती हैं, एक बार उनका विश्वास जीतकर उनकी कोमल भावनाओं से खेलना बहुत आसान होता है)। फोन नंबर और ईमेल पता देने तथा फोन, SMS एवं ईमेल आदि करने में पीछे ही रहें; एक तो इन सब में उलझने से समय बहुत नष्ट होता है साथ ही दूसरे द्वारा इनके गलत प्रयोग की संभावनाएं प्रबल रहती हैं, दुधारी तलवार के समान हैं ये - लाभ भी पहुंचाते हैं और हानि भी! अतः आधुनिक गैजेट्स का प्रयोग बहुत सोच-समझकर करें। एकांत में मिलने से परहेज करें, तथाकथित गुरुपद के पुरुषों तक का ईमान भी एकांत में डोल जाता है। व्यर्थ के दिखावों और भेड़चाल में कदापि न फंसें; अपनी मूलभूत आवश्यकताओं, अधिकारों एवं लक्ष्यों को भली-भांति पहचानें और उन्हें सर्वप्रथम प्राथमिकता देकर एक निर्धारित समय-सीमा के भीतर पाने का प्रयास करें। अतः पुरुष-वर्ग की कमियों को ध्यान में रखते हुए उससे 'निरंतर' सतर्क रहने में ही समझदारी है, भले ही आपको लगता हो कि समाज में अपवाद भी मौजूद हैं और आपके पुरुष मित्र उनमें से एक हैं! बाद में जैसे-जैसे समय बीतता जाता है, जागरूक स्त्रियों के व्यवहार में परिपक्वता स्वयं ही आती जाती है। बस केवल कुछ वर्षों के ही संयमित अभ्यास की आवश्यकता होती है फिर स्थाई मानसिक मजबूती आ जाती है, तब हम शारीरिक स्तर से ऊपर उठकर क्रमशः मानसिक व आत्मिक स्तर तक पहुँच जाते हैं। यह परिपक्वता सभी भयों को समाप्त कर देती है। इति।