Saturday, September 18, 2010

(३९) प्रतिक्रिया - उचित या अनुचित ?

हमारे भारत में एक बहुत बड़ी विडम्बना है कि हम भारतवासी भावुक कुछ अधिक ही हैं और भावुकतावश किसी व्यावहारिक प्रश्न का हल ढूंढते समय जैसा गुरु बता देता है उसी नियम को एकमात्र व अंतिम (ultimate) मानकर बिलकुल नाक की सीध में चल देते हैं, अपने विवेक-बुद्धि या आत्मिक ज्ञान का प्रयोग करने की चेष्टा बिलकुल भी नहीं करते, क्योंकि हमें मनोलय और बुद्धिलय की जबरदस्त घुट्टी जो पिलाई जाती है। हमारी मानसिकता संकीर्ण हो जाती है और विवेक कुंद! तब हम केवल एक ही दिशा में सोच पाते हैं, लचीलेपन का अभाव हो जाता है। उदाहरण के लिए - आजकल भारत में यह वाक्य हर कहीं देखने, पढ़ने और सुनने में आ रहा है कि "केवल अपने आप को सुधारो, दूसरों पर ध्यान न दो, दूसरों के प्रति कोई प्रतिक्रिया न दो; हम स्वयं सुधर जाएं इतना ही पर्याप्त होगा, अन्य स्वयमेव सुधर जाएंगे।" बड़े-बड़े ज्ञानियों, प्रवचनकर्ताओं, गुरुओं, मठाधीशों का आज यही प्रिय एवं मुख्य सन्देश है।

इस वाक्य ने तो वर्तमान अनैतिकता के विरुद्ध वैयक्तिक विरोधों, उपभोक्ता-फोरमों, कानून एवं न्याय व्यवस्था आदि पर तो प्रश्नचिन्ह लगाया ही है, साथ ही पूर्वकाल में देवी-देवताओं, महान हस्तियों और आम जनता द्वारा असत्य व अन्याय के विरुद्ध किए गए प्रयासों के औचित्य पर भी प्रश्नचिन्ह लगा दिया है! और तो और क्या इस वाक्य ने वर्तमान में तथाकथित गुरुओं द्वारा किए जा रहे सुधारक प्रयासों, प्रवचनों आदि के औचित्य पर भी प्रश्नचिन्ह नहीं लगा दिया है? दूसरों को कहते हैं कि "तुम अन्यों को सुधारने का प्रयत्न मत करो, स्वयं ही सुधरो, शेष सब नियति व प्रारब्ध का खेल है"; तो फिर कोई उनसे यह पूछे कि "बाबा जी, आप पंडाल लगाकर इतनी भीड़ जुटाकर दूसरों को सुधारने में क्यों लगे हो? क्या आपको ही ईश्वर ने विशेषाधिकार-पत्र सौंपा है? क्या धर्म (righteousness) का ठेका कुछ ही लोगों ने उठा रखा है?" इन प्रश्नों का उत्तर भी वे बड़ी निर्लज्जता से देते हैं कि "हाँ, हमारा आध्यात्मिक स्तर बहुत ऊँचा है, तुम्हारा स्तर ही अभी क्या है, इसीलिए हम ही इसके अधिकारी हैं"!

उनका कथन भी काफी हद तक ठीक है कि बिना ज्ञानी हुए ज्ञान बघारना कोई अच्छी बात नहीं! लेकिन हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि प्रत्येक मनुष्य अपूर्ण है। सभी लोग ज्ञान के अलग-अलग स्तर पर हैं। कोई भी मनुष्य अपने से नीचे के स्तर वाले व्यक्ति के लिए प्रेरक या अध्यापक हो सकता है और अपने से ऊंचे स्तर वाले व्यक्ति के लिए अनुगामी या शिष्य। और व्यवहार में इतने विषयों के होते हुए कोई व्यक्ति किसी विधा में किसी से आगे हो सकता है तो किसी दूसरी विधा में उससे पीछे। यानी कहीं वह शिष्य की (सीखने वाले की) भूमिका में होता है तो कहीं सिखाने वाले की भूमिका में। तो जहाँ व्यवहार सम्बन्धी बातों का प्रश्न आता है वहाँ ऊपर दिया विवादास्पद नियम वृथा (fail) हो जाता है कि "केवल अपने आप को सुधारो, दूसरों पर ध्यान न दो, दूसरों के प्रति कोई प्रतिक्रिया न दो; हम स्वयं सुधर जाएं इतना ही पर्याप्त होगा, अन्य स्वयमेव सुधर जाएंगे।" व्यवहार व अध्यात्म सम्बन्धी अनेक बातों में हमसे अपरिपक्व कई लोग होते हैं, जैसे हमारी स्वयं की कच्ची उम्र की संतानें; क्या उन जैसों को कोई शिक्षा देना या सुधारने का प्रयत्न करना अयोग्य होगा?? बड़े भाई-बहन अपने से छोटों को सुधारने, सिखाने का प्रयत्न करते रहते हैं, क्या यह गलत है?? कई बार संतानें भी बड़ी होकर, परिपक्व होकर अपने बुजुर्गों की कमियों को सुधारने का प्रयत्न करती हैं, क्या यह गलत है?? एक शराबी पीकर दंगा-फसाद कर रहा है, यदि हमारे समझाने पर वह मान सकता है तो क्या उसे समझाना गलत है?? एक पुलिस वाला मोटरसाइकिल से हमारा पीछा करता है और हमपर बिना हेलमेट चलने के अपराध का दण्ड लगाता है और स्वयं भी वह हेलमेट नहीं लगाये है तो दण्ड भरने के साथ क्या हम उससे यह प्रश्न भी नहीं कर सकते कि वह स्वयं ऐसा क्यों कर रहा है?? एक मोटरकार वाला गलत दिशा से आकर हमें ठोकर मार देता है तो क्या हमारा विरोध दर्ज करना गलत होगा?? कोई घूस माँग कर हमारा कार्य करता है तो उसे घूस दे दी जाए या फिर ऐसे ही बिना काम किए लौट आया जाए!

उपरोक्त विवादास्पद नियम के अनुसार तो ऐसा होना हमारा प्रारब्ध ही है, वह हमें भोगना ही है!! क्रियमाण कर्म का बिलकुल मजाक बनाकर रख दिया है इस नियम ने! मैं मीठा बोलूँ, लेकिन मेरी संतान कटु बोलती है, अपशब्द बोलती है, तो उसे मना न करूँ, योग्य शिक्षा न दूँ; इन सबका कारण मैं अपने और संतान के प्रारब्ध को ही समझूँ, मौन रहकर प्रारब्ध को भोग लूँ! कुछ पलायनवादी विचार नहीं लगते ये आपको? मतलब यह कि कुछ गलत घटित हो रहा है तो या तो मेरे कर्म उसके लिए जिम्मेदार हैं या फिर मेरा प्रारब्ध, जो मेरे ही पूर्व कर्मों से निर्मित है; दूसरों की कोई गलती नहीं! दूसरे भी अपना-अपना प्रारब्ध भोग रहे हैं और उनके अधिकांश कर्म व परिस्थितियां भी उनके प्रारब्ध पर ही निर्भर हैं! यदि ये वाक्य सही हैं तो क्या कोई यह बताएगा कि प्रारब्ध आया कहाँ से?? बहुत बड़ा प्रश्न है यह!! ... वस्तुतः प्रारब्ध कोई ऊपर से टपकी वस्तु नहीं है, बल्कि यह हमारे ही क्रियमाण कर्मों द्वारा निर्मित हुआ कोष है। और यदि कुछ क्रियमाण कर्म करके स्वयं और समष्टि के कर्मों में कुछ सुधार आ सकता है तो फिर किंकर्तव्यविमूढ़ होकर मौन क्यों साधा जाए?? इसमें आज के तथाकथित ज्ञानी महापुरुषों को आपत्ति कैसी?? वे समष्टि के प्रति मूक रहने या तटस्थता का भाव रखने को क्यों कहते हैं? उदाहरण के लिए - मैंने एक कपड़ा ख़रीदा, वह दोषयुक्त या कटा-फटा निकल आया तो माना जा सकता है कि मेरी गलती मैं देखकर नहीं लाया; फिर एक सही कपड़ा मैं सिलने के लिए दर्जी को देता हूँ और वह उसको दोषयुक्त सिल देता है, तो भी मैं उससे कुछ न कहूँ, भविष्य में अच्छा सिलने के लिए नसीहत भी न दूँ, क्योंकि कपड़ा खराब सिला गया यह मेरा प्रारब्ध था!? किसी विभाग से कोई गलत बिल आता है तो चुपचाप भुगतान कर दूँ! यदि मैं जिम्मेदार अधिकारी अथवा अध्यापक हूँ तो अधीनस्थ कर्मचारी अथवा विद्यार्थी से कोई जवाब तलब न करूँ! देख कर भी किसी अन्य को गड्ढे में जाने दूँ, हस्तक्षेप न करूँ!

.... यह हमारे क्रियमाण कर्म की महत्ता का तिरस्कार है। मनुष्य एक आत्मिक तत्पश्चात् सामाजिक प्राणी है और यदि उससे जुड़े समाज के विभिन्न घटकों में अनैतिकता रहे तो फिर उस व्यक्ति का वहाँ गुजारा कठिन होता है। अतः अपने वर्तुल में नैतिकता को सुदृढ़ करने हेतु गलत कृत्यों के विरुद्ध योग्य प्रतिक्रिया देना गलत न होगा। .... मैं मानता हूँ कि पर्याप्त योग्यता न होने पर भी हर जगह दबंगई दिखाना मूर्खता है परन्तु हमारे विनम्र, न्यायसंगत व दृढ़ प्रयासों से स्थितियां यदि सुधर सकती हैं तो प्रयास अवश्य करना चाहिए। शालीनता और सुसभ्यता से उचित समय पर योग्य प्रतिक्रिया देना हमारा कर्तव्य है, क्योंकि मूक रहने के कारण बाद में कोई बड़ी दुर्घटना हो जाने पर हमें पछताना पड़ सकता है। जो हमें सुन सकता है, जिसके ऊपर हमारा कुछ अधिकार है वहाँ हमें अवश्य योग्य प्रतिक्रिया देनी चाहिए। पुनः, कर्म का फल और फल का समय हमें नहीं पता। बीजारोपण हमारे वश में होता है, खाद-पानी देना हमारे वश में है, परन्तु आगे के विकासक्रम के बारे में हम अनभिज्ञ होते हैं। इससे हमारे बीजारोपण या खाद-पानी देने का महत्त्व कम नहीं हो जाता। यह प्रयास कभी भी फलीभूत हो सकता है और सबको लाभ मिल सकता है। इति।