Tuesday, April 26, 2011

(४५) साधना की वर्तमान दशा

उपरोक्त विषय पर इस ब्लॉग के अनेक लेखों में पहले ही पर्याप्त विवेचन हो चुका है। तद्यपि चूँकि यह हमारे ब्लॉग का प्रमुख विषय है, अतः वर्तमान परिस्थितियों की पृष्ठभूमि में एक बार पुनः इस पर दृष्टिपात कर लेते हैं।

आजकल साधना के नाम पर विभिन्न कर्मकाण्डों, व्रत, पूजापाठ, मंत्रजप, नामजप आदि को करना; नियमित या किसी दिन-विशेष आराधनालय जाना, सत्संग या प्रवचन में जाना, खानपान में अनेकों विधि-निषेध अपनाना, किसी सम्प्रदाय या संस्था-विशेष का सदस्य बनना जैसे कृत्य आम प्रचलन में हैं। सम्बंधित लोगों से यदि ये सब कृत्य करने का 'वास्तविक' कारण जाना जाए तो यह तथ्य प्रकाश में आता है कि अधिकतर मामलों में लोग ये सब कृत्य किसी न किसी सांसारिक अभिलाषा की पूर्ति हेतु ही करते हैं। कुछ लोग इन कृत्यों के माध्यम से ईश्वर से अपने पापों के लिए क्षमायाचना करते हैं। वास्तव में उनका असली मंतव्य यही होता है कि ईश्वर उनके पापों को अनदेखा कर दें। पिछले पापों को धोने के लिए गंगा में डुबकी लगाना या तीर्थयात्रा करना तो आम प्रचलन में है ही, यह सब जानते हैं। हाँ, कुछ मामलों में मोक्ष अर्थात् जन्म-मृत्यु के फेरों से मुक्ति हेतु विभिन्न धार्मिक कृत्य किये जाते हैं। ... तो देखने में यही आता है कि विभिन्न धार्मिक कृत्यों के पीछे कुछ न कुछ स्वार्थ छिपा रहता है। भौतिक सुख-संपत्ति और सांसारिक अभिलाषाएं ही आज साधना का प्रमुख लक्ष्य हैं। ... यह भी देखने में आता है कि जब दो राष्ट्रों का परस्पर युद्ध होता है, तो उनके देश के धर्मगुरु ईश्वर से अपने-अपने देश की विजय हेतु कामना-प्रार्थना करते हैं। अब ईश्वर किसे सही मानेगा?

यह प्रचलन भी आम है कि लोग संतान, व्यापार, नौकरी, धन, अधिक मुनाफे, सुख-सम्पदा और विलासिता की चाहत में ईश्वर के मानव-निर्मित छद्म दरबारों में हाजिरी देते हैं, पागलों समान पूजा-अर्चना करते-करवाते हैं। स्पष्ट है कि आज लोगों ने ईश्वर को एक भ्रष्ट और चापलूसी पसंद करने वाला राजा मान लिया है तथा साधना रूपी कृत्यों को रिश्वत में दी जाने वाली भेंट समझ लिया है। साधना करने का मूल उद्देश्य ही पलट गया है। ईश्वर व साधना की इससे बड़ी विडम्बना कदाचित् संभव नहीं। जब धार्मिक कृत्यों को करने-करवाने का उद्देश्य बिलकुल पलट चुका है तो फिर लोगों के अन्य कृत्यों का उद्देश्य पलट जाना तो स्वाभाविक ही है। विरला ही कोई मिलता है जो मात्र भजन के लिए ही भजन कर रहा हो अर्थात् ईश्वर-प्राप्ति हेतु अर्थात् सच्चे ईश्वरीय गुणों को अपने आचरण में आत्मसात् करने हेतु साधना कर रहा हो।

आजकल तो साधना खिलवाड़ सी बन कर रह गई है। कर ली तो ठीक, न करी तो ठीक। बीच में कोई आ गया तो उससे भी मिल लिया, कोई फोन आ गया तो उस पर भी कुछ देर चोंच लड़ा ली। पंडित या पुरोहित का ध्यान इस पर अधिक रहता है कि यजमान किससे-कैसे खुश होगा, और यजमान उसके कृत्य को एक अजब तमाशे के रूप में लेता है! कुछ धार्मिक कृत्य किसी चमत्कार होने की लालसा से किये जाते हैं, परन्तु प्रारब्ध व कर्म की कमी के चलते अभीष्ट सिद्ध न हो पाने के कारण लोगों का वह कच्चा विश्वास भी टूट जाता है। फिर भी कुछ लोग एक लती जुआरी की भांति बारम्बार 'चांस' लेते रहते हैं! जुए में अनेकों बार तुक्के सही भी बैठते हैं! ... ईश्वर के प्रति खरी श्रद्धा या विश्वास कहीं खो गया है, और उसका स्थान एक निम्नस्तरीय नाटक ने ले लिया है। आज की पीढ़ी पुरातन जीर्णशीर्ण परिपाटियों को जैसेतैसे अपने-अपने ढंग से एक नौटंकी के रूप में निभा रही है और ऊपर से तुर्रा यह कि ऐसा न करने वालों की भर्त्सना की जाती है व उन्हें नास्तिक या धर्मविरोधी घोषित किया जाता है, उन्हें समाज से बहिष्कृत तक कर दिया जाता है।

सर्वत्र झूठ व दिखावा देखने को मिल रहा है। आडम्बर का बोलबाला है। पाखंडी लोग, धर्मगुरु आदि खूब लाभ में हैं। कदाचित् धन की अभिलाषा एक बार को न भी हो, तदपि जागतिक यश की अभिलाषा कमोवेश सभी वर्तमान धर्मगुरुओं में कूट-कूट कर भरी है। प्रवचन देते समय या भक्तों से मिलते समय उनके नेत्रों, भावभंगिमाओं और शारीरिक भाषा से इसका पूरा-पूरा भान होता है। अधिकांश मार्गदर्शकों में यथार्थ सहिष्णुता का पुट नहीं मिलता। लोगों, अनुयायियों आदि के खोखले विश्वास को और अधिक खोखलेपन के साथ सुदृढ़ करने हेतु उनके सम्प्रदाय के धर्मगुरु उनके मन में अन्य सम्प्रदायों के प्रति नफरत, द्वेष आदि की भावना भरते हैं। अन्य पंथों की सोच या सिद्धांतों को यदि वे धर्मगुरु किसी कारणवश समर्थन भी देते हैं तो स्पष्ट रूप से वह झूठा व बनावटी प्रतीत होता है। परिणामतः आज प्रत्येक समूह यही जानता और मानता है कि केवल उसी का समूह व उसकी पूजा पद्धति तथा उसके देवता सर्वश्रेष्ठ हैं, अन्यों के निकृष्ट!

व्यर्थ के दिखावों और व्यर्थ की मूर्तिपूजा के घनघोर आलोचक तथा जीवनपर्यंत सादगी से रहने वाले अनेक महानुभावों के आज विशाल मंदिर बन गए हैं। बड़े दिखावे के साथ उनकी प्रतिमाओं की भव्य पूजा-अर्चना होती है। चढ़ावे का कोई अंत नहीं! यह देख आत्मा विलाप करती होगी उन महापुरुषों की! ... अहिंसा के घनघोर समर्थक एक प्राचीन मुनि के वर्तमान धर्मगुरु अनेक बंदूकधारी अंगरक्षकों से घिरे हुए प्रवचन देते देखे जाते हैं। बड़ा हास्यास्पद लगता है यह! कोई उनसे यह पूछे कि अहिंसा के पुजारी के इर्दगिर्द इन बंदूकों का क्या काम? परन्तु आज यह पूछने का साहस किसी में नहीं और न ही समझने का!

आज कोई सम्प्रदाय कुछ बता रहा है तो कोई कुछ और! सब बहलाने-फुसलाने और विभिन्न स्वार्थ सिद्ध करने में लगे हैं। अपनी-अपनी ढपली और अपना-अपना राग! बस एक ही समानता है सबमें कि भव्यता और दिखावा आदि चरम पर हैं। अंधविश्वास बढ़ाने की तो कोई थाह ही नहीं! समय के साथ सिद्धांत और मूल्य बदल चुके हैं। ढोंगियों का राज है। धन और सांसारिक यश उन पर बरस रहा है। पाँचों अंगुलियाँ घी में... और सर कड़ाही में है! यह सब भी प्रारब्ध का खेल है! अध्यात्म के अन्तरंग में उतरने व उतारने वाले धार्मिक गुरुओं का मिलना आज अति दुष्कर है। आज प्रवचन देने वालों के आंतरिक जीवन में यदि झाँका जाए तो वहां सुनने वालों से भी अधिक गंदगी पाई जाती है। परन्तु लोग यह सब देखकर, जानकर भी आंखें मूंदे हुए हैं। भेड़चाल चल रही है। कारण है -- लोभ, अभिलाषा, लालसा तथा त्वरित सांसारिक लाभ की आकांक्षा। आज के कर्म की कल क्या प्रतिक्रिया आने वाली है इससे अनभिज्ञ भारत की आबादी का एक बड़ा प्रतिशत आज फंतासी अर्थात् कल्पना लोक में मग्न है। विज्ञानवादी भी आज अपना ही 'क्रिया के फलस्वरूप प्रतिक्रिया' का सिद्धांत भुला बैठे हैं।

वेदान्त एवं अन्य कुछ उच्च प्राचीन साहित्यों में उल्लेखित ब्रह्मांड एवं ईश्वर के विज्ञानसम्मत नियमों-सिद्धांतों की ओर से नेत्रों को मूंद लेने से सच्चाई नहीं बदल जाएगी। आज आवश्यकता है कि अध्यात्म पर से जो विश्वास मर गया है या विकृत हो गया है, उसे जिज्ञासापूर्ण वैज्ञानिक दृष्टि से देखकर तत्पश्चात् अनुभूत कर पुनः जीवित अथवा स्वस्थ किया जाए। ... जैसे विद्यालय में हम उत्तरोत्तर आगे की कक्षाओं में जाते रहते हैं, एक ही कक्षा में रुकना या पीछे की कक्षा में लौटना किसी को नहीं भाता है। ठीक उसी प्रकार आध्यात्मिक ज्ञान व साधना के क्षेत्र में भी हमें निरन्तर आगे की ओर जाने की आवश्यकता है। आइये... झूठे दिखावे, फरेब और दंभ को तिलांजलि देकर, बेड़ियों को काट कर, हम अपने अंतर्मन में झांकें। दिल तक.., आत्मा तक.. जाएं। उससे पूछें, मार्गदर्शन लें और स्वयं को परिष्कृत एवं परिमार्जित करें, वहां से ज्ञान का प्रकाश लेकर निरन्तर आगे की कक्षाओं में जाएं, तथा अन्यों को भी इसी के लिए प्रेरित करें। आज यही प्रासंगिक होगा। इति।

Wednesday, April 20, 2011

(४४) ढाढस

कभी-कभी कुछ लोग मुझसे और कभी-कभी मैं खुद भी स्वयं से यह प्रश्न कर बैठता हूँ कि इस ब्लॉग के लेखों को तो बहुत ही कम व्यक्ति पढते होंगे और पढ़ने वालों में से भी बहुत कम ही इनसे कुछ ग्रहण करने की चेष्टा करते होंगे। इसी प्रकार 'सचेतक' केन्द्र पर आने वालों व सही मायनों में लाभ उठाने वालों की संख्या भी बहुत कम ही है। तो फिर मैं इस सीमित आयुष्य की जो इतनी ऊर्जा खर्च कर रहा हूँ क्या उसका सदुपयोग हो रहा है? या ऐसा करना क्या प्रासंगिक है? या इतनी कम फल-निष्पत्ति होते हुए भी इतनी ऊर्जा व समय खर्च करना क्या न्यायसंगत है? ... मेरी इस संभ्रमित सोच को आज कुछ ढाढस मिला जब मैंने इन्टरनेट पर एक लघु कथा पढ़ी। संक्षेप में यह कुछ इस प्रकार से थी-

सागर की वापस जाती हुई लहरें किनारे पर बहुत सी मछलियों को छोड़कर जा रहीं थीं। सूरज भी ढलने वाला था। वहीं एक व्यक्ति एक-एक मछली को उठाकर वापस सागर के पानी में डाल रहा था। यह दृश्य देख रहे एक अन्य व्यक्ति ने उससे कहा, "यहां हजारों मछलियाँ किनारे पर मरणासन्न पड़ीं हैं और फिर सूर्यास्त भी निकट है, कुछ ही देर में अँधेरा छा जायेगा, तब तक तुम केवल कुछ ही मछलियाँ वापस जल में छोड़ पाओगे, तुम्हारे इस परिश्रम से कुछ बहुत लाभ होने वाला नहीं।" इस पर पहला व्यक्ति एक मछली को वापस जल में छोड़ता हुआ बोला, "देखो, कम से कम इस मछली की जिंदगी तो मेरे कर्म (क्रियमाण) से बदल ही गई न! अतः जब तक संभव होगा तब तक जो भी योग्य क्रियमाण मेरे वश में है, कर्तव्य समझकर करता रहूँगा।"

आगे का विश्लेषण यह कि वह व्यक्ति इस पर अधिक विचार नहीं करेगा कि बहुत सी मछलियाँ फिर भी तड़प-तड़प कर मर गयीं, क्योंकि वह जानता है कि ऐसा होना उन मछलियों के प्रारब्ध एवं उनकी सहायता करने में सक्षम कुछ सामर्थ्यवानों की अकर्मण्यता के संयोग (गुणनफल) का परिणाम है (प्रारब्धXकर्म = फल)। अतः वह केवल इस पर ध्यान देगा कि उसका कर्म कितनी मछलियों के प्रारब्ध के साथ मिलकर फलीभूत हो पाता है। वैसे तो वांछित फलप्राप्ति अधिकांशतः स्वयं किये जाने वाले क्रियमाण पर आधारित है, फिर भी किसी-किसी अवसर पर कोई व्यक्ति किनारे पर पड़ी मछली की भांति बेबस हो जाता है, तब किसी अन्य द्वारा किया गया क्रियमाण उस व्यक्ति के प्रारब्ध के साथ मिलकर फल प्रदान करता है। ... समाज के विभिन्न घटक अर्थात् समष्टि। मत भूलें कि हम एक सामाजिक प्राणी हैं और एक-दूसरे पर निर्भर हैं। ... और मात्र क्रियमाण कर्म ही हमारे वश में है। तो मिलकर प्रयास करें कि वह कर्म योग्य व न्यायप्रिय हो और हम उससे विमुख न हों। इति।

Thursday, April 7, 2011

(४३) एक आध्यात्मिक केन्द्र के दौरे का ताजा संस्मरण

जिस आध्यात्मिक केन्द्र के दौरे और वहां लगभग साढ़े तीन दिन के प्रवास के दौरान हुए अनुभवों का वर्णन करने जा रहा हूँ, उससे मैं पिछले आठ वर्षों से थोडा-बहुत जुड़ा हुआ हूँ। वह इसलिए कि मेरी आध्यात्मिक यात्रा का आरंभ इसी संस्था के एक साधक के निःस्वार्थ एवं समर्पित प्रयास द्वारा संभव हुआ था। संभवतः इसीलिए इस संस्था के बहुत से कृत्यों से सहमत न होते हुए भी मेरा इस केन्द्र से भावनात्मक लगाव अवश्य है। वैसे यह संस्था अपने कार्यकर्ताओं/साधकों के अनुशासन, समर्पणभाव और कर्तव्यनिष्ठा इत्यादि के लिए जानी जाती है। इसके संस्थापक डॉ. ******** जी के लिए कहा जाता है कि वह सांसारिक यश, धन, प्रतिष्ठा आदि के मोह-जंजाल से कोसों दूर हैं और सर्व जिज्ञासु आगंतुकों को सहज उपलब्ध रहते हैं। ... परन्तु भूतकाल में मुझे इस संस्था, इसके साधकों, मार्गदर्शकों एवं संस्थापक जी के विषय में अनेकों ऐसे खट्टे अनुभव हुए थे, जो इस केन्द्र व इससे जुड़े लोगों की तथाकथित विशेषताओं से बिलकुल विपरीत थे। मेरे विचार से प्रारब्धवश इस संस्था को उच्च स्तर के संसाधन और साधक प्राप्त हुए हैं, इसकी भूमिकारूप-व्यवस्था बेजोड़ है। क्वचित्‌ ही ऐसा होता है। अतः मैं हृदय से चाहता था और चाहता हूँ भी, कि यह केन्द्र केवल प्रारब्ध पर ही निर्भर न रहकर अब अपने क्रियमाण के बल पर भी उत्तरोत्तर प्रगति करे। मैं बहुत ही आशावान रहता था कि एक दिन सब कुछ ठीक हो जायेगा। .... अब तक मैं इस संस्था के मुख्य केन्द्र में कभी भी नहीं गया था, मेरा समस्त विश्लेषण एवं आंकलन मात्र कुछ अनुभवों और चिंतन रूपी सूक्ष्म निरीक्षण पर ही आधारित था। इस कारण कभी-कभी मुझे यह लगता था कि कहीं मैं स्वयं ही कुछ निरर्थक आशंकाओं से ग्रस्त तो नहीं हूँ! मेरी धारणाएं भी मिथ्या, निर्मूल या गलत हो सकती हैं। सो संस्था के प्रति मेरे और मेरे प्रति संस्था के सम्भ्रम के निवारण और स्थिति को सुस्पष्ट करने हेतु तथा सीमित आयुष्य के शेष बचे समय के अधिकतम सुव्यवस्थित उपयोग के लिए ठोस नियोजन हेतु मैंने संस्था के मुख्यालय का दौरा करने का निश्चय किया। यह इतना सरल न था, अनुमति मिलना बहुत कठिन था। इसका अनुभव मुझे पूर्व में भी दिसम्बर २००४ में हो चुका था। तब एक बार बिलकुल समीप के नगर में होते हुए भी मुझे केन्द्र के दौरे की अनुमति नहीं मिल पायी थी। खैर ..... इस बार ऐसा नहीं हुआ। मैंने दौरे के लगभग दो माह पूर्व ०२ फरवरी २०११ को अनुमति मांगी और वह मुझे सरलता से मिल गई।

केन्द्र में प्रवास की अवधि २८ मार्च की दोपहर से ३१ मार्च की अर्धरात्रि तक की थी; ०१ अप्रैल को प्रातः ०३.४० की गाड़ी से मुझे वापस आना था। मैंने यात्रा का विस्तृत विवरण फरवरी में ही ईमेल द्वारा भेज दिया था, और यात्रा से लगभग एक सप्ताह पूर्व मुख्यालय को इस सम्बन्ध में ईमेल द्वारा पुनः सूचित किया; गाड़ी संख्या, डिब्बा क्रमांक इत्यादि विस्तार से लिखा, जिससे सबकुछ सुव्यवस्थित रहे। ईमेल की प्राप्ति-सूचना भी आ गई। अब मैं निश्चिंत था।

ढेर सारी आशाओं के साथ अपने गृहनगर से लगभग २५०० किमी० की यात्रा कर पूर्वनिर्धारित कार्यक्रमानुसार मैं रेलगाड़ी द्वारा २८ मार्च की दोपहर लगभग १.३० बजे संस्था के मुख्य केन्द्र के नगर के बिलकुल समीप पहुँच चुका था। तब मैंने मुख्यालय के कार्यालय में यह जानने के लिए फोन किया कि मैं रेलवे स्टेशन से केन्द्र तक कैसे पहुंचूंगा, क्योंकि मैं नगर के भूगोल और वहां की स्थानीय यातायात व्यवस्था से सर्वथा अनभिज्ञ था। मेरी फोनकॉल को एक वरिष्ठ मार्गदर्शक डॉ. कु. **** ***** जी के पास स्थानांतरित किया गया; उन्होंने बताया कि आपको लेने स्टेशन पर साधक गए हैं, वे आपको वहां पर मिलेंगे। तब मैंने उनको अपना डिब्बा क्रमांक आदि एक बार पुनः स्मरण कराए और बिलकुल निश्चिन्त हो गया। लगभग १.५५ बजे गाड़ी स्टेशन पर पहुँच गई। मैं डिब्बे की उस खिड़की के पास सरक गया जोकि प्लेटफॉर्म की तरफ थी। गाड़ी वहां पर १० मिनट रुकती थी। लगभग छः-सात मिनट की प्रतीक्षा के उपरांत मैं डिब्बे से बाहर आकर वहीँ प्लेटफॉर्म पर खड़ा हो गया। तभी फोन की घंटी बजी। केन्द्र से किसी साधक का फोन था। उन्होंने कहा कि आपको लेने कोई साधक आ रहे हैं, कृपया आप निकास द्वार से निकलकर बाहर खड़े हों, बाहर वे आपको मिल जायेंगे। हम एक-दूसरे को कैसे पहचानेंगे इस पर कोई बात नहीं और फोन कट गया। रेलगाड़ी भी जा चुकी थी। मैं स्टेशन से बाहर आ गया। तभी पुनः घंटी बजी। अब यह फोन मुझे लेने आने वाले साधक का था। उन्होंने बताया कि वह अबसे लगभग १० मिनट में स्टेशन पहुँच रहे हैं, उन्होंने अपनी गाड़ी की पहचान एवं नंबर आदि बताया। और कुछ समय उपरांत लगभग २.३० पर वह साधक स्टेशन पहुँच गए। औपचारिक अभिवादन आदि के बाद उन्होंने बताया कि उनको अभी कुछ समय पूर्व ही यह सूचना मिली थी कि स्टेशन पर किसी को लेने जाना है, अतः कुछ विलम्ब हो गया। हम गाड़ी में बैठ गए और केन्द्र की ओर चल दिए। मार्ग में उन्होंने मुझसे भोजन करने के सम्बन्ध में पूछा। मेरे स्वीकृति देने पर उन्होंने केन्द्र पर फोन करके इस सम्बन्ध में सूचित किया। कुछ समय में ही हम केन्द्र के मुद्रणालय भवन पहुँच गए। वहां मैंने भोजन आदि कर मुद्रणालय देखा। तदोपरांत कुछ समय पश्चात् हम मुख्य केन्द्र की ओर चल दिए। यहाँ मैं यह बता देना उचित समझता हूँ कि इतनी सुस्पष्ट दो-तीन सूचनाओं के बावजूद भी मेरे आने की सूचना व्यवस्थापन भुला बैठा था , यह ऊपर दिए विवरण से आपको स्पष्ट हो गया होगा। स्टेशन पर लेने आने का नियोजन मेरी १.३० पर की गई फोनकॉल के पश्चात् आननफानन में किया गया और भोजन आदि का नियोजन मेरे गाड़ी में बैठने के बाद किया गया; जबकि इस प्रकार के नियोजन इस संस्था में समय से काफी पहले ही हो जाते हैं, ऐसा कहा जाता है। यद्यपि यह कोई बहुत गम्भीर प्रसंग या प्रकरण नहीं था, फिर भी इससे केन्द्र की अनुशासन और नियोजन के सम्बन्ध में दुर्बलता प्रतिबिंबित होती है।

मुद्रणालय से चलकर हम कुछ ही मिनटों में सायंकाल लगभग ५ बजे मुख्य केन्द्र पहुँच गए। वहां मुझे पहले अतिथि-कक्ष में ले जाया गया और फिर तुरंत ही मुझे केन्द्र के भवन के तृतीय तल पर स्थित एक कक्ष में ले जाया गया। यहां मुझे प्रवास की कालावधि तक निवास करना था। अतिथि-कक्ष से तृतीय तल तक जाते समय मार्ग में पहले से भली-भांति परिचित एक-दो साधक-साधिका मिले, परन्तु उनसे मात्र औपचारिक अभिवादन ही हो पाया। उन्होंने अचानक मुझे वहां देख न तो कोई कौतुहल प्रकट किया और न ही अपनत्व प्रकट किया। मैं अपने कक्ष में पहुंचा दिया गया। वहां पहले से ही एक साधक उपस्थित थे, जो उस कक्ष के ही स्थाई वासी थे। औपचारिक अभिवादन के आदान-प्रदान के पश्चात् उन्होंने बताया कि उनके अतिरिक्त इस कक्ष में तीन स्थाई निवासी साधक और भी हैं जो अभी विभिन्न सेवाओं में व्यस्त हैं। कुछ क्षणों में वह साधक भी चले गए। मैंने स्नान आदि किया और तरोताजा हो गया। मैं कक्ष के फर्श पर बैठकर ध्यानादि का प्रयास करने लगा। उसी बीच कक्ष के कुछ अन्य वासी साधक भी वहां आए, वह सायंकाल की चाय-अल्पाहार आदि का समय था शायद! उनसे भी औपचारिकता का आदान-प्रदान हुआ बस! और कुछ क्षणों में वे चले गए। मैं फिर से कक्ष में अकेला था। मुझे कुछ भी नहीं बताया गया था कि मुझे क्या, कब और कैसे करना है! अर्थात् मेरे लिए किये गए नियोजन से मैं सर्वथा अनभिज्ञ था या फिर अभी नियोजन किया ही नहीं गया था! खाली बैठे-बैठे रात्रि के ८.३० बज गए। मैं स्वयं ही साहस कर अपने कक्ष से बाहर निकला और द्वितीय तल पर स्थित भोजन-कक्ष की ओर बढ़ चला।

भोजन-कक्ष में काफी चहल-पहल थी। मैं वहां प्रविष्ट हुआ और एक प्लेट उठा कर उसमें कुछ भोजन लिया और एक स्थान पर बैठ कर खाने लगा। मैं वहां स्वयं को नितांत अपरिचित महसूस कर रहा था। तभी वहां एक पहले से परिचित साधक दिखाई दिए। वह मेरे पास आ गए और आत्मीयता से कुशलक्षेम पूछी। अब मुझे कुछ अच्छा लगा। तभी वहां लगभग २०-२२ वर्षीय एक अपरिचित साधक मेरे पास आए और बोले कि 'कृपया भोजन कर ९ बजे आप भोजन-कक्ष के बाहर रखी बेंच पर बैठ जाएं, वहां से आपको कुछ अभ्यास और प्रयोग आदि के लिए ले जाया जायेगा।' वह बिसाल भैया थे। मैंने शीघ्रता से भोजन समाप्त किया और बाहर पहुँच गया, परन्तु वहां पर कोई भी न था। इधर-उधर पूछने पर पता चला कि मुझे ध्यान-कक्ष में जाना चाहिए। मैं शीघ्रता से ध्यान-कक्ष पहुंचा।

ध्यान-कक्ष में पहले से ही संभवतः मेरे जैसे ही कुछ अन्य लोग भी बैठे थे और शायद नामजप कर रहे थे। मुझे कुछ भी बताया नहीं गया कि आपको क्या करना है और क्या होगा! मैं मन ही मन नामजप करते हुए स्थिति का आंकलन करने लगा। कुछ-कुछ क्षणों के बाद बारम्बार कक्ष का द्वार खुलता था, कभी बिसाल भैया और कभी लगभग उन्हीं की आयु की एक साधिका द्वार से भीतर आते और किसी-किसी साधक को बुला कर अन्यत्र कहीं ले जाते। अंततः मेरे सहित कक्ष में बचे तीन लोगों को भी इशारे से बुलाया गया और एक अन्य कक्ष में ले जाया गया। ध्यान-कक्ष में से पहले ले जाये गए अन्य लोग वहां पर उपस्थित थे। आश्चर्यचकित सा मैं वहां बैठ गया। मुझे कुछ नहीं पता था कि मुझे क्या करना है और यहां क्या होना है! कई साधक-साधिकाएं रहस्यमय ढंग से कक्ष में आ-जा रहे थे। तभी एक साधिका ने एक कुर्सी लाकर उस कक्ष में रखी और कई निर्देश दिए। उन निर्देशों में एक यह था कि कोई परमपूज्य गुरुदेव के जाने के पश्चात् उस कुर्सी को भावनावश छुएगा नहीं। इस निर्देश से मुझे पता चला कि वहां संस्था के संस्थापक प.पू. डॉ. ******** जी आने वाले हैं। फिर एक साधिका ने सभी आगंतुकों को अपना परिचय देने के लिए कहा। सभी की भांति मैंने भी सारांश में अपना परिचय दिया। मेरे परिचय देते ही बिसाल भैया की सह-साधिका ने मुझे इशारे से बुलाया और कहा कि मैं आज गुरुदेव से नहीं मिल सकता, क्योंकि मैं हिंदी भाषी हूँ; आज मात्र मराठी भाषियों के लिए बैठक होगी। यद्यपि परिचय-सत्र के दौरान मुझे यह ज्ञात हुआ था कि मेरे अतिरिक्त कम से कम दो आगंतुक और भी ऐसे हैं जो मराठी नहीं जानते हैं, तदपि मात्र मुझे ही कक्ष से बाहर का रास्ता दिखाया गया! प.पू. गुरुदेव से भेंट के अगले समय के विषय में मेरे प्रश्न करने पर मुझे बताया गया कि देखेंगे! मुझे बड़ा अटपटा सा लगा। ... मैं अकेला ही भारी क़दमों से अपने कक्ष की ओर बढ़ चला और कुछ देर बाद निद्रा में लीन हो गया।

अगले दिन २९ मार्च को सुबह का अल्पाहार भी अकेले ही लिया। उसके बाद बिसाल भैया मेरे पास आए और एक अन्य कक्ष में ले गए। यहां उन्होंने मुझे एक वीडियो सी डी लगा दी और उसके बाद देखने के लिए चार अन्य सी डी भी वहां पर रख दीं तथा ये सब सी डी देखने के लिए कहा। ये सी डी संस्था के ६०% से ऊपर के आध्यात्मिक स्तर के साधकों के साक्षात्कार की थीं। ये सी डी हिंदी भाषा में थीं। २९ मार्च को भोजनावकाश के अतिरिक्त शेष पूरे समय मैं अकेला ये सब सी डी देखता रहा। हाँ, इस बीच सायंकाल कुछ समय के लिए बिसाल भैया मुझे लेकर केन्द्र के हिंदी विभाग गए। वहां मात्र कुछ मिनट की सेवा के बाद छुट्टी! मैं फिर से खाली और अकेला! हिंदी विभाग से पूछने पर बताया गया कि मेरे जैसे आगंतुकों के लिए नियोजन व्यवस्थापन विभाग करता है, वे अर्थात् हिंदी विभाग नहीं! मैं अपने कक्ष में लौट आया और सो गया।

अगले दिन ३० मार्च को सुबह के अल्पाहार के समय बिसाल भैया पुनः भोजन-कक्ष में मिले और उन्होंने पुनः सी डी वाले कक्ष में आने को कहा। उन्होंने मुझे फिर से एक सी डी लगा कर दी और उसके बाद देखने के लिए दो-तीन अन्य सी डी भी वहां रख दी। ये सी डी भी हिंदी भाषा में थीं। आज वहां मेरे अतिरिक्त दो नवागंतुक और भी थे। ये कर्नाटक राज्य से आयीं दो साधिकाएं थीं। इनमें से एक को हिंदी का थोडा सा भी ज्ञान नहीं था और कुछ भी समझ में न आने के कारण वह उंघा रही थीं। अब तक मैं यह समझ चुका था कि नवागंतुकों की देखभाल के लिए व्यवस्थापन ने बिसाल भैया को नियुक्त किया है। सो उस कन्नड़ दीदी की मदद हेतु मैं बिसाल भैया को ढूँढते हुए हिंदी विभाग तक पहुंचा। हिंदी विभाग ने बिसाल भैया से मेरी भेंट होने में सहायता की। तब मैंने उनसे कोई कन्नड़ सी डी लगाने का आग्रह किया और बताया कि मैं तो कल से अनवरत हिंदी सी डी देख रहा हूँ और अब उन कन्नड़ दीदी को उनकी क्षेत्रीय भाषा की सी डी की आवश्यकता है। इस पर वह बोले कि उनके पास कोई भी कन्नड़ सी डी नहीं है।

तब तक दोपहर के भोजन का समय हो चला था, सो मैं भोजन कक्ष की ओर चल दिया। भोजन के पश्चात् मैंने पुनः बिसाल भैया को खोजा और थोड़े कटु स्वर में उनसे कहा कि 'आखिर मेरे लिए क्या नियोजन है; मैं यहां लगभग साढ़े तीन दिन के लिए आया था जिनमें से लगभग दो दिन निकल चुके हैं और मैंने मात्र कुछ सी डी ही देखीं हैं; न तो मेरी भेंट प.पू. गुरुदेव से हुई और न ही उसका कोई नियोजन मुझे बताया जा रहा है; न तो किसी संकलनकर्ता आदि से मेरी भेंट कराई गई और न ही किसी का सत्संग आदि ही मुझे अब तक प्राप्त हुआ है; टी.बी. के रोगी की भांति अलग-थलग पड़ा हूँ, कोई कार्यसेवा भी नहीं कर रहा हूँ, कोई निरीक्षण भी नहीं कर रहा हूँ, और मेरा समय एवं ऊर्जा ऐसे ही बेकार जा रहे हैं; मेरी भेंट प.पू. गुरुदेव से कब होगी?' इस पर बिसाल भैया कुछ सक्रिय हुए और उन्होंने तुरंत इधर-उधर कई फोन किये। अंततः मुझे बताया कि मैं फिलहाल हिंदी विभाग में कुछ सेवाकार्य करूँगा, तत्पश्चात मुझे केन्द्र के भवन का भ्रमण कराया जायेगा; और कल अर्थात् मेरे प्रवास के अंतिम दिन ३१ मार्च को प्रातःकाल भवन से लगी भूमि पर की जा रही खेती का निरीक्षण कराया जायेगा तथा दोपहर पश्चात् कुछ समय के लिए नगर के भ्रमण को ले जाया जायेगा। प.पू. गुरुदेव से भेंट के विषय में पुनः पूछने पर बताया कि वह व्यवस्थापन से पूछकर बतायेंगे। इस पर मैंने कहा कि क्या मैं स्वयं व्यवस्थापन से बात कर सकता हूँ, तो वह बोले कि नहीं, इस विषय में हम ही उनसे बात कर आपको सूचित करेंगे। परन्तु अंत समय तक इस सम्बन्ध में कोई भी सूचना उनके पास देने को न थी!

... इसी प्रकार मात्र औपचारिकताओं को निभाते हुए, किसी प्रकार खानापूरी करते हुए संस्था के मुख्य केन्द्र ने मेरे प्रवास का अगला और अंतिम दिन अर्थात् ३१ मार्च भी येन-केन-प्रकारेण व्यतीत करा दिया, और १ अप्रैल २०११ को भोर होने से पूर्व ही मैं लगभग खाली हाथ वापस लखनऊ को चल दिया। इति।