Monday, November 23, 2015

(५१) बेचारी 'हिंदी', ..या बेचारे 'हम'!

बड़ी विडम्बना की बात है कि क्षेत्रीय भाषा, मातृभाषा या राष्ट्रभाषा आदि किसी भी रूप में हिंदी आज बुरी तरह से तिरस्कृत है।

सर्वप्रथम यदि हम हिंदी को एक क्षेत्रीय भाषा के रूप में लें और इसकी तुलना अन्य क्षेत्रीय भाषाओं से करें तो हम पाते हैं कि बंगाल, पंजाब, गुजरात, महाराष्ट्र, राजस्थान, उड़ीसा, आंध्रप्रदेश, कर्नाटक, तमिलनाडु, केरल एवं अन्य राज्यों में वहां की कुछ न कुछ क्षेत्रीय भाषाएं (मातृभाषाएं) हैं और वहां के मूल निवासी 'आपसी' सामान्य व्यवहार में उन भाषाओँ को 'अधिकारपूर्वक' एवं 'गर्व' से बोलते हैं, 'बिना किसी तुच्छ भाव के'; जबकि 'मूलतः हिंदी भाषी' राज्यों में हिंदी के साथ आज ऐसा व्यवहार नहीं होता है!

अन्य राज्यों के लोग भी आज विभिन्न प्रकार की उच्च शिक्षाएं प्राप्त कर रहे हैं और सरकारी व गैरसरकारी आंकड़ों के अनुसार आज वे हिन्दीभाषी राज्यों की तुलना में कुछ 'अधिक' शिक्षित हैं। सब जानते हैं कि भारत में बारहवीं कक्षा के बाद शिक्षा का माध्यम अधिकांशतः 'अंग्रेजी' ही होता है। इसका अर्थ है कि वे (विशेषकर दक्षिण भारतीय) अंग्रेजी में भी निपुण होते हैं यह भी सब जानते हैं। इसके बावजूद बोलने-लिखने में अपनी 'मातृभाषा' पर उनका 'अधिकार' क्या कुछ कमतर है? या उसके प्रति 'सम्मान' कुछ कम है क्या? क्या वे उसे 'दोयम दर्जे' का समझते हैं? क्या वे उसका 'उपहास' उड़ाते हैं? क्या 'हीन' समझकर वे उसे 'तिरस्कृत' करते हैं? ...बिलकुल भी नहीं।

लेकिन 'हिन्दीभाषी राज्यों' में 'हिंदी' आज किस हालत तक 'तिरस्कृत' है यह सब जानते हैं, वैसे बात को गलत ठहराने के लिए तर्कों का कोई अंत नहीं होता! वर्तमान पीढ़ी में अधिकांश को उर्दू मिश्रित आसान हिंदी की भी आज कुछ ख़ास समझ नहीं है, क्लिष्ट हिंदी की बात तो जाने दीजिए!

अंग्रेजी जानने व अपनाने के विरुद्ध नहीं हूँ मैं, परन्तु उस प्रक्रिया में अपनी क्षेत्रीय भाषा (हिंदी) के प्रति उनका ऐसा रवैया मेरी तो समझ से परे है! किसी (अंग्रेजी) को सम्मान देने के लिए किसी (हिंदी) को तिरस्कृत व अपमानित करना बुद्धिमत्ता नहीं! यदि हम ऐसा करते हैं तो अवश्य ही हमारी मानसिकता 'गुलामी' की ही कही जाएगी! या हमें निर्लज्ज, पिछड़ा हुआ, संकुचित, संकीर्ण, अहंकारी आदि समझा जाना चाहिए! ...और वास्तव में समझदारों की दृष्टि में आज हम ऐसे ही हैं!

मातृभाषा के रूप में भी हिंदी की अवहेलना व तिरस्कार अपनी माता के अनादर समान ही है! यह एक कड़वी वास्तविकता है कि हिंदी भाषी राज्यों के चुनिन्दा लोग ही वास्तव में अंग्रेजी का गहरा ज्ञान रखते हैं और अंग्रेजी भाषा में सहजता के साथ 'पूरे' अधिकार से लिख-पढ़ सकते हैं, शेष अंग्रेजी-परस्त हैं मात्र! यद्यपि हिंदी को वे आसानी से भली-भांति सीख सकते थे/हैं, परन्तु व्याप्त अंग्रेजी-परस्त मानसिकता के कारण उन्हें समाज से, यहाँ तक कि अपने अभिभावकों से भी इसके लिए कोई प्रेरणा नहीं मिली/मिलती!

तो 'मूलतः हिन्दीभाषी होने के कारण' अपने प्रति विभिन्न 'हीन' भावनाएं रखने, हिंदी के प्रति तिरस्कारपूर्ण रवैया अपनाने और फालतू में ही अंग्रेजी के पीछे लग जाने से हिंदी लोगों की स्थिति आज त्रिशंकु समान हो गई है! न घर के रहे, न घाट के! 'सहज उपलब्ध' मातृभाषा हिंदी ठीक से सीखी नहीं, और अंग्रेजी ठीक से सीख न पाए! गुलाम मानसिकता व हीन भावना के कारण बौद्धिक क्षमता व इच्छाशक्ति कमजोर होती ही है! ...सो इन कारणों से 'हिंगलिश' का उदय हुआ! इसके साथ हम हिंदी लोग कितना खुश हैं आज! कहते हैं कि संवाद का 'नया' माध्यम ढूंढ निकाला!

वास्तव में यह 'नया' माध्यम हमारी 'कमजोरियों' के फलस्वरूप ही निकला है; और हम लगभग यह स्वीकार कर चुके हैं कि हम अब बलिष्ठ होने से रहे! सो इस 'नाकामी' को एक 'उपलब्धि' के रूप में बता कर फूले नहीं समा रहे हैं!

अब बात आती है राष्ट्रभाषा के रूप में हिंदी के स्वरूप की। तो यहाँ भी हिंदी का हाल कुछ अलग नहीं! वैसे तो हम अपने ज्ञान में बढ़ोत्तरी करने हेतु अन्य देशों की राष्ट्रभाषाएं जानने-सीखने आदि का 'गंभीर' प्रयत्न करते रहते हैं, परन्तु घर की मुर्गी दाल बराबर! यदि हम किसी अन्य देश के नागरिक को गर्व से कहें कि हमें उसकी राष्ट्रभाषा का भी ज्ञान है, हम उससे उसकी भाषा में बात करें, और अचानक वह हमसे पूछ ले कि हम अपनी राष्ट्रभाषा का कितना ज्ञान रखते हैं? तो उस समय अवश्य ही हमारी आंखें शर्म से झुक जायेंगी! ...क्या आप चाहते हैं कि ऐसा हो, या अपरोक्ष अथवा परोक्ष रूप से उस तक ऐसा सन्देश जाए?

हमें अपने स्वाभिमान की चिंता बिलकुल भी नहीं! मात्र कहने को पिछले ६७ वर्षों से हम स्वतंत्र हैं मगर हमारी मानसिकता आज भी गुलाम है! क्या है हमारे पास हमारा कुछ 'मौलिक', जिसपर हम 'गर्व' कर सकें, जिसे लेकर हममें 'हीन भावना' न हो? अपने देश के प्रत्येक नागरिक तक अपनी बात पहुँचाने के लिए एक माध्यम रूपी हमारी राष्ट्रभाषा तक तो हमारी अपनी नहीं, हमारा उसपर अधिकार नहीं, हमें उसका ज्ञान नहीं, ..तो अन्य किसी ठोस उपलब्धि की बात हम कैसे कर सकते हैं?

वर्षों से, वर्षों तक, हम अपने 'मालिकों' पर निर्भर रहे, आज भी हैं और पता नहीं कब तक रहेंगे? 'केवल' राष्ट्रीय स्तर पर अपनी संप्रेषित करने हेतु आज हम एक अंतर्राष्ट्रीय भाषा पर निर्भर हैं और विडम्बना यह कि वो भाषा भी देश के अधिकांश जनसाधारण को ठीक से समझ में नहीं आती! कहने का अर्थ यह कि आज भी एक राष्ट्र के रूप में हम सब एक नहीं, और यह इसलिए कि हम अपनी राष्ट्रभाषा के प्रति आदरभाव न जुटा सके! इति।