Monday, November 30, 2015

(५५) फिल्में, फिल्मकार और उनकी भूमिका

हिंदी और अन्य भारतीय क्षेत्रीय भाषाओं की फीचर फिल्मों में आज जिस तरह से फूहड़ संवादों, देहप्रदर्शन, चुम्बन एवं अन्तरंग दृश्यों की भरमार है, उसके विषय में यदि फिल्म-निर्माताओं से बातचीत की जाए तो आज के अग्रणी फिल्मकार यही कहते हैं कि "वे फिल्मों में वही दिखा रहे हैं जो आजकल समाज में घटित हो रहा है, या वो दिखा रहे हैं जो आम दर्शक देखना पसंद करते हैं; इसके अलावा फिल्म बनाना उनका पेशा है, व्यवसाय है, वे केवल मुनाफे के लिए फिल्म बनाते हैं, दिवालिया होने के लिए नहीं!

अर्थात् आज के अधिकांश फिल्मकार यह समझते हैं कि फिल्म बनाना मात्र एक व्यवसाय है और समाज के उत्थान की यानी जनसामान्य की सोच को ऊंचा करने की जिम्मेदारी उनकी कतई नहीं है! मैं यह बात मानता हूँ कि परिपक्व मनों पर इन फिल्मों की अश्लीलता या अभद्र भाषा का कोई असर नहीं पड़ेगा, परन्तु ये फिल्मकार यह विचार बिलकुल भी नहीं करते हैं कि उपरोक्त-कथित फूहड़ता से उन मन-मस्तिष्कों पर क्या विपरीत असर पड़ रहा होगा जो अभी तक कोमल, सरल, स्वच्छ और अपरिपक्व हैं। क्या कोमलता, सरलता और स्वच्छता को नष्ट करके मनों को परिपक्व करने का प्रयास उचित है? क्या एक सुन्दर समाज के निर्माण में फिल्मकारों की कोई भूमिका नहीं है? क्या फिल्में समाज पर कोई भी असर नहीं डाल सकतीं?

यदि हम ऐसा मानते हैं कि फिल्में समाज की मानसिकता पर उल्लेखनीय असर डाल सकती हैं तो इतना तो पक्का है कि आज की अधिकांश फिल्में समाज को हिंसक रूप से कामुक, अश्लील और फूहड़ बनने के लिए उकसाती प्रतीत हो रही हैं। बलात्कार की बढ़ती घटनाएं और भाषाई रूप से भी हमारा फूहड़ता की ओर जाना क्या इस बात का संकेत नहीं है कि हम पुनः जंगली हो रहे हैं? मैं मानता हूँ कि सेक्स भी मानव जीवन का एक महत्वपूर्ण पहलू है, परन्तु आज फिल्मों में सेक्स का फूहड़ एवं अति कामुक भावभंगिमा के साथ खुला प्रदर्शन उसकी असली गरिमा और सुखद पक्ष को नष्ट-भ्रष्ट कर रहा है।

सेक्स इन्सान की एक जरुरत है परन्तु एक निश्चित समय पर और गरिमामय ढंग से, ..शारीरिक व मानसिक परिपक्वता हासिल करने के बाद। ...सभी फीचर फिल्म निर्माताओं को भी भीतर से पता होगा कि वह व्यवहार क्या है या क्या होना चाहिए, जिससे हमें व हमसे जुड़े व्यक्ति को सुखद अनुभूति हो। परन्तु हमारे फिल्म निर्माता कुछ नया दिखाने तथा अधिक मुनाफा कमाने की चाह में भाषा और सेक्स सम्बन्धी बातों की नित नई परिभाषाएं गढ़ रहे हैं! जबरदस्ती ठूंसी हुई गालियाँ, अभद्र भाषा, उत्तेजक आइटम सॉंग्स, बेवजह लम्बे चुम्बन दृश्य, जायज व नाजायज अन्तरंग दृश्यों का खुला प्रदर्शन और वह भी सनी लियोन जैसी पोर्न-स्टार्स के माध्यम से, ..यह सब क्या है? इन सबकी पब्लिक डिमांड थी या जबरन क्रिएट की गयी?

अंग्रेजों ने आरंभ में हमें फ्री की चाय पिलाई और धीरे-धीरे हम चाय के आदी हो गए। ...यह पक्का है कि केवल मुनाफे, प्रसिद्धि और कुछ अलग दिखने व दिखाने की होड़ में फिल्मकार यह सब कर रहे हैं।

हम बच्चे को अच्छा पाठ पढ़ाएंगे तो वह अच्छाई की ओर जाएगा, बुरा पढ़ाएंगे तो बुराई की तरफ जाएगा ही, वैसे अपवाद कभी भी कहीं भी हो सकते हैं, पर न भूलिए कि अपवाद बहुत कम होते हैं! इस बात पर शायद फिल्मकार हंसकर कहेंगे कि "पब्लिक क्या बच्चा है?" इसका जवाब यह कि "भारत एक विकासशील देश है, एक आम भारतीय व्यक्ति पूर्ण रूप से विकसित या परिपक्व नहीं, वह नित कुछ न कुछ देख रहा है, सुन रहा है और उनसे प्रभावित होकर सीख रहा है। बुद्धिजीवी, फिल्मकार, नेता, अभिनेता, प्रसिद्ध खिलाड़ी यानी अभिजात्य वर्ग को ही हम तुलनात्मक रूप से परिपक्व कह सकते हैं, शेष अविकसित, अशिक्षित या अपरिपक्व ही हैं, तभी तो वे अनुगामी (followers) हैं।"

तो फिर क्या फिल्मकारों का यह कर्तव्य नहीं बनता कि वे अपनी फिल्मों में वह दिखाएं जिसकी आज हमें सही मायनों में आवश्यकता है! फिल्मकार वह अवश्य दिखाएं जो आज वास्तव में गलत घटित हो रहा है, परन्तु उसे गलत ठहराएं भी; और जो वास्तव में होना चाहिए, उसे अवश्य सुझाएं; तथा प्रत्येक त्याज्य एवं अपनाने योग्य सोच का औचित्य सिद्ध भी करें। अवश्य ही एक दिन लोग इस तरह की फिल्मों की ओर केवल आकृष्ट ही नहीं होंगे वरन उनसे बहुत-कुछ ग्रहण भी करेंगे। फिल्मकारों को आर्थिक लाभ भी होगा, अवार्ड्स भी मिलेंगे और सबसे बढ़कर यह कि उनको स्वयं से एवं अपनी कृति से एक सुखद अनुभूति होगी। इति।