Saturday, October 22, 2016

(७६) हमें चीन से खतरा क्यों

आजकल टीवी और सोशल मीडिया में एक मुद्दा जोरों पर है कि "चीन से भारत को गंभीर खतरा है। चीन पाकिस्तान को मदद कर रहा है। चीन को अमीर बनाने में चीनी उत्पाद खरीदने के रूप में भारत का बहुत योगदान हो रहा है; चीनी चीजों का बहिष्कार किया जाये।"
भय का एक वातावरण बन गया है। आननफानन में बयानबाजियां और विभिन्न आन्दोलनों जैसी गतिविधियाँ चल रही हैं। इस विषय में पिछली ब्लॉग पोस्ट में मैंने भी कुछ लिखा था।

जरा सोचिए, डर हमें किससे लगता है; या कौन हमें डरा सकता है? उत्तर होगा, "हमसे अधिक शक्तिशाली व्यक्ति या संघ"।

इस डर से मुक्त होने के लिए हम क्या कर सकते हैं? उत्तर में संभावित विकल्प होंगे-
(१) उस शक्तिशाली को मार ही डालें या किसी से मरवा दें।
(२) उसे किसी प्रकार से शक्तिहीन अथवा बीमार कर या करवा दें।
(३) कूटनीति से उसे अलग-थलग कर दें।
(४) हम स्वयं को इतना पुष्ट एवं शक्तिशाली बनायें कि हमें उससे भय ही न लगे, या वो हमें डराने अथवा क्षति पहुँचाने से पहले दस बार सोचे!

मेरे विचार से उल्टा क्रम अपनाना उचित रहेगा। यानी सबसे पहले विकल्प संख्या (४), फिर (३), फिर (२), और अंतिम विकल्प के रूप में (१)।
लेकिन हमारा वर्तमान क्रम जो मुझे लोगों के कथनों से दिखता है, वो है- (२), (३), (१), (४)।
चौथा विकल्प अंतिम पायदान पर क्यों? उस पर विश्वास दिखाने जैसे सन्देश तो दिखते नहीं हैं मीडिया में! क्या आपको दिखते हैं?

इसमें किसी को भी संदेह न होगा कि 'वर्तमान' में चीन हमसे अधिक विकसित देश है। कुछ वर्ष पूर्व का सफल ओलंपिक आयोजन, सड़कों और तीव्रगामी  ट्रेनों का संजाल, हर प्रकार के उत्पादों के अत्याधुनिक कल-कारखाने, विशाल उत्पादक क्षमता, गुणवत्ता, अनुशासन, बेहतर सिस्टम, हमारे यहाँ की अपेक्षा काफी कम भ्रष्टाचार, काफी हद तक आत्मनिर्भरता, सच्चा राष्ट्रप्रेम, बोलने से अधिक करने की प्रवृत्ति, आदि कुछ मोटे मुद्दे इस बात की पुष्टि करते हैं।

तो अब उचित तो यही होगा कि हम पड़ोसी की इन उपरोक्त वर्णित खूबियों को अपने यहाँ विकसित ‌करें ओर साथ ही नीतिवान भी बनें। जो शक्तिशाली हो और साथ ही नीतिवान भी, बहुतायत उसी का अनुसरण व अनुगमन करती है; यह एक जाना-माना सत्य है। और हमारा राष्ट्र भारत, दुनिया का नेतृत्व कर सकता है; और वो करेगा। अतएव ऊपर दिए चार विकल्पों में से चौथे विकल्प पर सबसे अधिक विश्वास दिखाएं और उसपर अमल करने में जुट जाएं।
सकारात्मक निर्माण की बात सोचेंगे और करेंगे तो शक्तिशाली बनेंगे, और साथ ही विध्वंस की बात को त्यागेंगे या निचली वरीयता पर रखेंगे तो नीतिवान भी कहलायेंगे।
स्मरण रहे कि प्राकृतिक संसाधन, क्षेत्रफल, युवा जनसंख्या, मेधा आदि की दृष्टि से हम किसी भी प्रकार से चीन से कमतर नहीं हैं। कमतर हैं तो मानसिकता में ही, जैसे-अति भावुकता (उन्माद की हद तक पहुंचना), बहुत बोलना, कम काम को भी बढचढ कर दिखाना, पर्याप्त ईमानदारी का अभाव, स्वहित तक सीमित रहना, समय का उचित प्रबंधन न करना, अनुशासनबद्धता की कमी, इन्टरनेट मोबाइल जैसे गैजेट्स का अकारण व अत्यधिक प्रयोग, आभासी दुनिया में लीनता, नैतिक मूल्यों की कम समझ या न समझने की प्रवृत्ति, रिश्तों के प्रति उदासीनता, यंत्रवत जीवनशैली, भ्रष्ट एवं बेहद धीमी गति का सरकारी सिस्टम, बिना अपेक्षित गुणवत्ता दिए मात्र लाभ पर ही केन्द्रित निजी कम्पनियां, बुनियादी शिक्षा एवं चिकित्सा आदि का बीमार एवं भ्रष्ट ढांचा, अंतिम समय पर काम करने की प्रवृत्ति, गांवों और कृषिकार्य से ग्रामीणों की विमुखता आदि।
और इन सब की तह में एक ही कारणभूत कारण है, वो है- हमारे समग्र समाज में असल जीवन से जुड़े आध्यात्मिक अथवा नैतिक मूल्यों का ह्रास या घटाव।
व्हाट्सएप पर केवल सन्देश फैलाने से कुछ नहीं होगा। सभी कुछ करेंगे तभी सब ऊपर उठेंगे, राष्ट्र शक्तिशाली होगा नैतिकता की छाँव में! फिर चीन का भय भी जाता रहेगा। इति।

Tuesday, October 4, 2016

(७५) हमारी भेड़चाल

हमारे यहाँ सोशल मीडिया विशेषकर व्हाट्सएप आदि पर अक्सर कुछ अंधविश्वासों को बढ़ावा देने वाले अथवा भय या अफवाहों को बढ़ावा देने वाले संदेश दिखाई पड़ जाते हैं। उदाहरण के लिए कोई धार्मिक सन्देश, जिसके अंत में यह लिखा होता है कि "इसे कम से कम १० लोगों या ग्रुप्स में भेजो अन्यथा आपके साथ कोई अनिष्ट होगा।" या, "अमुक तारीख को रात्रि में अमुक समय अपने मोबाइल फोन को बंद रखें, उस समय उससे हानिकारक तरंगें प्रेषित होंगी।" या, "१० रुपये का सिक्का बंद हो चुका है, उसे स्वीकार न करें।" या, "चीन के बने उत्पादों को न खरीदें, चीनी सरकार उनसे हुए मुनाफे का प्रयोग आतंकियों को पोषित करने में करती है।" आदि-आदि।
और इस प्रकार के सन्देश बहुत तेजी से फैलते हैं। इनके निर्माण के लिए नहीं तो कम से कम इनके तीव्र प्रचार-प्रसार के लिए बहुधा हम ही उत्तरदाई होते हैं। आंखें बंद करके अंतर्मुख होकर विचार कीजिये कि बहुतायत ऐसा करती है या नहीं? निश्चित ही ईमानदार उत्तर आएगा कि "हाँ"।
एक तरफ हम शिक्षित, विकसित और विज्ञानी होने का दम भरते हैं, और दूसरी तरफ इस प्रकार के मिथ्या या आधारहीन संदेशों का कहीं न कहीं, किसी न किसी प्रकार समर्थन भी करते हैं!!!
अभी भीतर का अहंकार तिलमिला कर प्रत्युत्तर देगा कि "चलिए कि माना ऊपर आपके दिए उदाहरणों में से प्रथम तीन मिथ्या या आधारहीन होने से सम्बंधित हैं, लेकिन अंतिम उदाहरण का क्या जो चीन से सम्बंधित है!!"
अब मेरा उत्तर यह है कि आपने माना तो सही कि प्रथम तीन उदाहरण अंधविश्वास, भय अथवा अफवाह से सम्बंधित हैं!!!
अभी-अभी एक दिलचस्प वाकया हुआ कि यह पोस्ट लिखते-लिखते अचानक किसी ने मेरे घर का दरवाजा जोर से खटखटाया और कॉल-बेल भी बजाई। ऊपर का दरवाजा खोलकर मैंने नीचे झाँका तो पाया कि कुछ स्त्री-पुरुषों का एक दल भिक्षा (चंदे) की मांग कर रहा था। उनके साथ एक टेम्पो (तिपहिया गाड़ी) पर एक मोबाइल मंदिर चल रहा था, जिसपर लाउडस्पीकर पर भजन चल रहे थे और वाहन के ऊपर ही पीछे की ओर गाय की एक बछिया (calf/heifer) बंधी थी, जिसके चार सामान्य टांगों के अतिरिक्त एक आगे की ओर और एक पीछे की ओर एक-एक टांग और भी थीं, जो अधूरी सी विकसित थीं (पढ़े-लिखे लोग सरलता से समझ सकते हैं कि ऐसा क्यों? यह एक शारीरिक विकृति का मामला था, जुड़वां भ्रूण का ठीक से विकसित न हो पाना अथवा अन्य कोई बायोलॉजिकल कारण)। गाय की इस बछिया के साथ वहां साईं बाबा की एक फोटो भी स्थापित थी। धूप-बत्ती आदि जल रही थी। अधिकांश लोग इस मोबाइल मंदिर को प्रणाम कर सहर्ष भिक्षा दे रहे थे!!!
हाँ, अब इस प्रसंग ने मेरे इस विचार को और अधिक बल दिया कि कहीं न कहीं हम पढ़े-लिखे लोग भी अन्धविश्वासी हैं।
यदि हम अन्धविश्वास का विरोध नहीं कर सकते तो कम से कम समर्थन तो न करें। तो फिर हम मिथ्या संदेशों पर विश्वास कर क्यों उन्हें फॉरवर्ड करते हैं!!

अब बात करते हैं चीन से सम्बंधित उदाहरण की।
सोचिए कि किसी अन्य देश (चीन) का सामान (मोबाइल फोन, लेपटॉप, टीवी, माइक्रोवेव, इंडक्शन, ए सी, खिलौने, स्पोर्ट्स मटेरियल एवं अन्य बहुत सा उपभोक्ता सामान) इतनी प्रचुर मात्रा में हमारे देश में आ पाना कैसे संभव होता है? हमारे यहाँ के किसी प्रतिष्ठित स्टोर (या दुकान) में वह सामान वैधानिक रसीद के साथ बिकना कैसे संभव हो सकता है? अर्थात् उपलब्धता और तत्पश्चात बिक्री कैसे संभव होती है? गैरकानूनी माध्यम से तो इतना व्यापार संभव नहीं अब!!
ईमानदार एवं तार्किक उत्तर आएगा कि बिना सरकार या कानून की सहमति के तो यह संभव नहीं!
इम्पोर्ट लाइसेंस कौन जारी करता है? आसमान से तो चीन बरसाता नहीं यह सब!! बात स्पष्ट हो गयी होगी अब आपको।
हम हों या हमारे आका, अपनी कमजोरियों को दूसरे पर मढ़ना खूब आता है हमें! ..और फिर शुरू हो जाते हैं उन्मादियों की तरह!! उन्माद ही तो है इससे सम्बंधित संदेशों को सोशल मीडिया में उछल-उछल कर फॉरवर्ड करना।
क्या हमारी सरकार ने देशवासियों से कोई अपील की है कि चीनी उत्पादों का बहिष्कार करो? यदि किसी का उत्तर है, "हाँ", तो फिर वह सरकार से क्यों नहीं अपील करता कि चीन से समस्त व्यापारिक सम्बन्ध एवं संधियाँ तोड़ दिए जायें, समस्त इम्पोर्ट लाइसेंस रद्द कर दिए जायें, प्रतिष्ठानों पर चीनी सामान की बिक्री पर प्रतिबन्ध लगा दिया जाये, आदि-आदि!
मेरे इस कथन पर एक महोदय ने कहा कि "हमारी सरकार तो निकम्मी है, देशवासियों का ही कर्तव्य बनता है चीनी बहिष्कार का"!!
निकम्मी है तो चुनी किसने है??? कौन इसको गिरा सकता है? न्यायालयों का क्या? आंदोलनों का क्या? इन सब पर ध्यान न देकर आपने उन्मादी ढंग से सरकार को निकम्मा और चीनी सामान को बहिष्कृत घोषित कर दिया!! क्या यह बुद्धिमत्ता है?
क्या तर्कों का अंत होता है कभी! मैंने जब कहा कि यदि कुछ गलत है मंतव्य अथवा गुणवत्ता, तो चीज मार्केट में ही नहीं आनी चाहिए, उसके आरंभिक स्रोत पर ही रोक लगनी चाहिए; तो उन महोदय का कहना था कि सिगरेट-बीड़ी आदि भी तो ठीक नहीं फिर भी बिकती है, तो क्या हम भी पीने लगें! मेरा जवाब था कि उनके पैकेट पर वैधानिक चेतावनी लिखी होती है, पर मोबाइल के डिब्बे पर क्या चीन की मंशा लिखी होती है?! तर्क-वितर्क का कहीं कोई अंत होता है! मैसेज बनाने वाला तो मंद-मंद मुस्कुरा रहा होगा कि लगा दिया सबको काम पर!!!
कृपया निरर्थक संदेशों को बेवजह उन्मादी ढंग से फॉरवर्ड करके उनको बनाने वाले लोगों को हम पर हंसने का मौका न दें। भेड़चाल से बचें। इति।

Tuesday, August 2, 2016

(७४) बढ़ते अपराध

आजकल हर प्रकार के अपराध बहुत बढ़ रहे हैं, विशेषकर उत्तर प्रदेश, बिहार, राजस्थान, दिल्ली, हरियाणा जैसे राज्यों में। समाचारपत्र अपराधों की खबरों से भरे रहते हैं। मूल कारण खोजें तो वही मिलता है कि समाज में नैतिक मूल्यों में निरंतर गिरावट। लेकिन नैतिक मूल्यों में गिरावट आखिर आ क्यों रही है? बहुधा इसका मूल कारण गरीबी और अशिक्षा बताया जाता है! किन्तु विभिन्न सर्वेक्षण बताते हैं कि इन दोनों ही क्षेत्रों में पर्याप्त सुधार हुआ है। फिर क्यों अपराध बढ़ रहे हैं? सर्वेक्षणों की रिपोर्ट गलत नहीं है। समाज की औसत आय पहले की तुलना में बेहतर अवश्य हुई है, दूरदराज बहुत से स्कूल-कॉलेज भी खुल गए हैं। लेकिन इन सब के साथ लोगों में लालच, ईर्ष्या और भौतिकता के प्रति आकर्षण भी बढ़ गया है। आवश्यकताएं, आकाक्षाएं, महत्वाकांक्षाएं, अपेक्षाएं, परस्पर होड़, दिखावा आदि बढ़ गया है। और इन सब की पूर्ति के लिए लोग किसी भी हद तक जाने को तैयार रहते हैं। इन राज्यों का सिस्टम, सरकारें, अध्यापक, गुरु आदि आम लोगों के समक्ष नैतिकता के ठोस एवं ज्वलंत उदाहरण प्रस्तुत करने में सर्वथा अक्षम हैं। यही मूल कारण है कि यहां अराजकता बढ़ रही है। सभी अंधे होकर भौतिकता के पीछे भाग रहे हैं।

कुछ ही वर्ष पहले एक समय था जब..., जो पैदल था, वह कभी साइकिल में भी बहुत खुश हो जाया करता था; जिसके पास फोन नहीं था, वह बात करने के लिए फिक्स फोन से ही संतुष्ट हो जाता था; कभी वेतनभोगी या सामान्य व्यवसाई १ लाख रुपए एकत्रित कर लखपति कहलाकर ही आह्लादित हो जाता था; परिवार में एक कमाता था और १० खाते थे फिर भी सब खुश रहते थे; संयुक्त परिवार जीवनयापन के लिए अपना एक ही मकान जुटाकर प्रसन्न हो जाता था; दिलों में सरलता और सहजता थी; आवश्यकताएं विकराल रूप में न थीं; होड़, जलन, दिखावा आदि इतना अधिक न था।

यह सच है कि समय के साथ व्यक्ति की आमदनी और क्रय क्षमता बढ़ी है। लेकिन अब पैदल व्यक्ति साइकिल या मोटरसाइकिल के नहीं बल्कि कार के सपने बुनता है, वो भी महंगी से महंगी! साधारण मोबाइल फोन जेब से निकालते समय व्यक्ति सकुचाता है, शर्म महसूस होती है। उसे अब नियमित रूप से अपग्रेडेड मोबाइल डिवाइसेस चाहियें। एक लाख तो अब हाथ की मैल हो चुका, साधारण छोटा सा फ्लैट ही ३०-४० लाख का आता है, सो व्यक्ति करोड़ों के सपने देखता है। एक संयुक्त परिवार अनेक एकल परिवारों में विभाजित हो चुका है, अब गृहणी भी कमाती है फिर भी दिलों में डर बना रहता है कि अभी भी बचत कम हो रही है! सही बात तो यह है कि बचत होती भी कम ही है क्योंकि वाहन, मोबाइल, गैजेट्स, मकान, महंगे परिधान, ज्वेलरी, और बढ़ चुकी आवश्यकताएं दंपति की कमाई का एक बड़ा हिस्सा खा जाते हैं।

आज जो नहीं कमाता है उसको तो अभाव है ही, लेकिन जो बहुत कमाता है वो भी अभावग्रस्त है! बहुत बड़ी विडम्बना है यह! जिसके पास अपना मकान नहीं वो तो त्रस्त है ही, लेकिन जिसका अपना मकान हो भी गया वो आगे दो-चार और मकान या प्लाट खरीदने की उधेड़बुन में रहता है। जिसके पास दो-चार संपत्तियां हो गयीं उसकी रातों की नींदें उड़ जाती हैं उनको सहेजने व संभालने के लिए! आज निर्धन ही नहीं बल्कि संपन्न परिवारों के भी बच्चे और किशोर लड़के-लड़कियां मौज-मस्ती व अन्य महत्वाकांक्षाओं की पूर्ति के लिए विभिन्न प्रकार की चोरियां और डकैतियां तक करते हैं। इसके अतिरिक्त बाल्यावस्था से ही मोबाइल और इन्टरनेट के संपर्क में भली-भांति आ जाने से बच्चे समय से पूर्व ही वयस्क हो जाना चाहते हैं और विभिन्न प्रकार की यौन कुंठाएं उनके कोमल मन-मस्तिष्क में भर जाती हैं। इसी कारण से किशोरों में यौन अपराध भी अत्यधिक मात्रा में बढ़ गए हैं। बचपन से ही अपने अभिभावकों को वन टू का फोर करते हुए पैसे के पीछे भागते हुए देखते हैं, सो वे संस्कार तो उनमें बालावस्था से ही आने आरंभ हो जाते हैं। अब भला अपराध कैसे न बढ़ेंगे!!!

कुल मिलाकर हमारी बिगड़ी जीवनशैली ही हमारे नैतिक पतन का कारण है, गरीबी या अशिक्षा नहीं। जिन राज्यों की आम जीवनशैली में सरलता, सहजता, ईमानदारी, संतुष्टि आदि हैं वहां पर अपराध अपेक्षाकृत कम हैं। अब हमारे समाज को उन्नत या अवनत करना हमारे अपने हाथ में है कि हम अपनी जीवनशैली को कितना संतुलित अथवा असंतुलित रखते हैं। आज का कड़वा सच यही है कि भौतिक दृष्टि से तो हम नित नवीन तरीके खोजकर निरंतर उन्नत हो रहे हैं लेकिन मानसिक एवं आध्यात्मिक दृष्टि से हम निरंतर पतन की ओर जा रहे हैं। प्रकृति में, मानव देह में, उसकी मूलभूत आवश्यकताओं में, गुणधर्मों में तो विगत हजारों वर्षों से कोई परिवर्तन नहीं आया है, फिर हम क्यों अपने जीवन में नित इतना अधिक परिवर्तन करने की चाहत रखते हैं?? यह अत्यधिक चाहत ही हमें बीमार बना रही है। स्वयं भी एक प्राकृतिक वस्तु होने के कारण हमारा प्रथम कर्तव्य बनता है कि प्रकृति ने जिस मूल रूप में एवं उद्देश्य से हमें बनाया, हम उसे जानने और खोजने की चेष्टा करें तथा उसे बनाये रखने का प्रयत्न करें। मेरा विचार है कि प्राकृतिक सिस्टम अपरिवर्तनीय है! हम जबरन उसे हिलाने का प्रयास करेंगे तो खुद ही हिल जायेंगे! क्या नित ऐसा होते नहीं देख रहे हैं हम??

ऐसी खोजों, परिवर्तनों आदि का स्वागत होना चाहिए जो हमें प्राकृतिक रूप से उन्नत होने में मदद करें। प्राकृतिक रूप से तात्पर्य है कि बिना हमारे मूल रूप, गुणधर्म और स्वभाव को छेड़े; बिना हमारे दिलों पर स्वाभाविक रूप से अंकित नैतिकता को छेड़े। अर्थात् हम भौतिक रूप से उन्नत अवश्य हों पर बिना राक्षस या असुर बने। जो भौतिक प्रगति हमें इंसान से देवता बनाने के बजाए आसुरी वृत्ति की ओर ले कर जाये उसे फिर से जांचना अति आवश्यक। किसी ने सत्य ही कहा है कि प्रकृति के पास हमारी आवश्यकताएं पूर्ण करने के लिए तो पर्याप्त है किन्तु लालच की पूर्ति हेतु वह सक्षम नहीं।

पेट भरना जरूरी है,लेकिन आवश्यकता से अधिक खाने से भी हमारी जान खतरे में पड़ सकती है। जल तो जीवन है ऐसा कहा जाता है, पर प्यास से अधिक पानी पीने पर क्या शरीर प्रतिरोध नहीं करता? जीवनदाई समझकर क्या हम पानी को ढेर सारा पी सकते हैं? डूबकर मरने वाला व्यक्ति अत्यधिक पानी ही निगल गया होता है! ऐसे ही अन्य भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति भी एक सीमा तक ही आवश्यक, उसके परे जाने पर हमारा सुख-चैन और मनुष्यत्व तक खतरे में पड़ सकता है ऐसा कभी विचार करते हैं क्या हम? कम से कम जहां-जहां स्थितियां बिगड़ी हुई हैं वहां-वहां हम ऐसा मान सकते हैं कि हम अत्यधिक खाने और बटोरने की फिराक में हैं, सो बीमारियां फैली हुई हैं। इति।

Friday, May 6, 2016

(७३) सचेतक टिप्पणी संग्रह- १६

मेरे और पाठकों के बीच संवादों की एक श्रृंखला

(१)
हमें व्यक्ति को नहीं, बल्कि विचार को ध्यान में रखना चाहिये. समर्थन या विरोध 'विचार' का ही होना चाहिए.
बात गलत लगने पर किसी व्यक्ति का नहीं बल्कि विचार का विरोध करें तो अच्छा रहेगा. ..और सबसे अच्छा तो यह कि बिना किसी का विरोध किये अपनी सही (?) बात प्रस्तुत की जाये, ..बात में दम होगा तो उसकी गूँज होगी अन्यथा....!

(२)
मार्गदर्शकों में अभिभावक (माता-पिता), स्कूली अध्यापक, हमारे समाज के गणमान्य व्यक्ति, धर्मगुरु, सद्गुरु, ईश्वरावतार आदि सभी आ जाते हैं. परन्तु विषय का केंद्र-बिंदु 'वर्तमान समय' के ऐसे लोग हैं, आम समाज के मन पर जिनकी छवि सर्वोच्च रूप से अंकित है, और आम जन उनके अनुयायी हैं, उनका अनुसरण करते हैं. ..आम जन अपरिपक्व हैं, और वे (मार्गदर्शक) पर्याप्त रूप से परिपक्व हैं, उनकी छवि ऐसी है, या वे ऐसा दावा करते हैं; और वे आम जन (या किसी एक समुदाय) को मार्गदर्शित करने वाले की भूमिका में हैं (इससे उन्हें इंकार भी नहीं है)! 'वर्तमान समय' के ऐसे लोगों में वे प्रमुखता से आ जाते हैं जिन पर समाज में नैतिक मूल्य स्थापित करने का दायित्व है और निश्चित रूप से अभिभावक और आध्यात्मिक गुरु उनमें से एक हैं.

(३)
..मैं आपसे एक बात ईमानदारी से शेयर करना चाहता हूँ कि मैंने अध्यात्म के विषय में बहुत अधिक किताबी अध्ययन नहीं किया है, और जो थोड़ा-बहुत पढ़ा भी है, वह भी कुछ अध्यात्म/साधना विषयक अनुभूतियाँ होने के पश्चात् 'कन्फ़र्मेशन' हेतु ही, क्योंकि अचानक यह सब घटित होने के बाद मैं कंफ्यूज़न की स्थिति में था! ..और मैंने मात्र उतना ही पढ़ा जिससे मेरा कंफ्यूज़न कुछ हद तक दूर हो जाए. ..अतः बहुत सी प्रचलित शास्त्रीय संज्ञाओं व परिभाषाओं से सर्वथा अनभिज्ञ हूँ. शब्द व भाषा को केवल इतना ही महत्त्व देता हूँ कि वह अनुभूतिजन्य विचार संप्रेषित करने का माध्यम मात्र है. अतः हो सकता है बल्कि होता ही है कि शास्त्रीय शब्दों का चुनाव मुझसे ढंग से नहीं हो पाता. कृपया इसे अनदेखा करें और शब्दों के पीछे विद्यमान मंतव्य को समझने का यत्न करें.

(४)
आपके कथन के अनुसार ऐसा प्रतीत हो रहा है कि पहले आम जन (90%) भ्रष्ट हुआ, फिर वही बीमारी ऊपर के मार्गदर्शक वर्ग को भी लग गई!
लेकिन मेरा निष्कर्ष कुछ अलग है- किसी अभिभावक का बच्चा या किसी गुरु/सद्गुरु का शिष्य यदि बिगड़ जाए, भ्रष्ट हो जाए, ..तो क्या सम्बंधित अभिभावक या गुरु/सद्गुरु भी उसके पीछे चल कर भ्रष्ट हो जाता है या हो सकता है?? अपवाद को छोड़ दें कृपया, केवल इस पर विचार करें कि अक्सर क्या होता है?? भीतर से जवाब यही आयेगा कि ईमानदार अभिभावक या गुरु अपनी खराई बनाकर रखता है और अथक प्रयास के पश्चात् भी न सुधरने वाले कुछ चेलों को उनके कर्म, प्रारब्ध व समय पर छोड़कर, शेष शिष्यों को योग्यतम रूप से मार्गदर्शित करने में कोई कसर नहीं छोड़ता है. ...और उसके लिए वह 'आचरण' के माध्यम से शिक्षा का प्रभावी संचरण करता है, केवल 'कथनी' से नहीं!
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पिछले कुछ समय से कदाचित पहले मार्गदर्शकों के आचरण में ही कुछ गिरावट आई जिसके फलस्वरूप उनके अनुयायी (आम जन) भी प्रभावित हुए. ...मार्गदर्शक मात्र 'कथनी' तक सीमित रह गए! ..शनैः शनैः यह रोग बढ़ता ही जा रहा है. हम शिक्षा कुछ दें और करें कुछ और, ..तो क्या होगा? हम अपने निजी जीवन में घनघोर आसक्त हों और पाठ पढाएं अनासक्ति का; हम स्वयं 'निज स्वार्थवश' अक्सर झूठ बोलते हों और पाठ पढाएं सत्य का; ..तो क्या होगा? कोई भी यह बात आसानी से समझ सकता है, फिर भी सहसा विश्वास नहीं होता है!
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आज हमारे समाज की लगातार हो रही नैतिक अवनति के लिए हमारे अधिकांश तथाकथित गुरुजन, मार्गदर्शक एवं हम स्वयं (अभिभावक रूप में) दोषी हैं. जहां कथनी और करनी में अक्सर ही भारी अंतर रहे, वहां की मौजूदा स्थिति के लिए वास्तव में दोषी कौन, अब पाठक सहज ही समझ सकते हैं!
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लेकिन इस काल को आपद्काल समझकर आमजन में से ही कुछ सचेत लोगों को अपना स्तर ऊपर उठाने की भारी आवश्यकता है जिससे इस जीर्णशीर्ण अवस्था से कुछ ऊपर उठने का क्रम आरंभ हो! ..और श्रीमान् जी, निश्चित ही आपके ऊपर भी एक जिम्मेदारी बनती है क्योंकि आप भी उन सचेत लोगों में से एक हैं.
प्रथमतः कुछ लाइट-टावर्स ही वर्टिकली खड़े होकर प्रकाशित हो जायेंगे तो फिर हॉरिजॉन्टली प्रकाश फैलने में समय नहीं लगेगा.

(५)
देश में जितने अधिक लोग जागेंगे और अपने कर्तव्यों के प्रति सचेत होंगे, उतनी ही तेजी से देश का असली विकास होगा, अन्यथा अब अंग्रेजों की जगह कोई और आ जाएगा!

(६)
दरअसल होता वही है जो हम सही में (वास्तव में) चाहते हैं. अनेक अवसरों पर हमारे ओठों पर कोई और बात होती है और दिल में कोई और! हमारे चाहने से ही कोई सेल्समेन हमारे घर में प्रविष्ट हो सकता है! अब यदि घर पर आया कोई सेल्समेन हमें लूट कर चला जाए, तो अधिक दोष किसका?

(७)
हमें यह नहीं भूलना होगा कि हमारा समाज केवल कुछ ही समय में नीचे नहीं गया है वरन यह धीरे-धीरे हुआ है; और निश्चित ही इसमें सबका योगदान है, हमारा भी! ..और यह भी निश्चित है कि तस्वीर बदलेगी भी धीरे-धीरे..., और इसमें भी हम सब के योगदान की ज़रूरत होगी! हम अपने योगदान में जितने सुस्त रहेंगे, उतना ही विलम्ब होगा अच्छे दिन आने में!

Sunday, May 1, 2016

(७२) सचेतक टिप्पणी संग्रह- १५

मेरे और पाठकों के बीच संवादों की एक श्रृंखला

(१)
वस्तुतः कर्म करना हमारे वश में है और यदि कर्म में कुछ बात होगी तो फल आयेगा ही! कब, कहाँ और कैसे, ..इसका उत्तर देने में बड़े-बड़े ज्ञानी असमर्थ हैं!
बीज के गुण-अनुरूप ही पौधा निकलता है. पथरीली भूमि में, चट्टानों पर और रसोईघर के डिब्बे में बीज महीनों-वर्षों तक अंकुरित नहीं होता, परन्तु योग्य वातावरण पाते ही वह 'क्रियाशील' हो जाता है!
कभी-कभी कुछ अच्छे बीज स्वयं ही नष्ट हो जाते हैं और कुछ को वातावरण या परिस्थितियां भी नष्ट कर देती हैं, इसके बावजूद किसान, किसानी नहीं छोड़ता है ..और अंततः सफल होता ही है! वैसे अपवाद भी होते हैं परन्तु उनका प्रतिशत या अनुपात बहुत कम या नगण्य ही! ..तो कुछ-एक असफलताओं से हम उस कर्म को नहीं त्याग सकते जो बहुधा हमें वास्तव में खरा फल दे सकता है! ..किसी-किसी अत्यंत दुष्कर व जटिल कर्म को करते समय हमें समय की बाधा नहीं होती, क्योंकि हम अनंत हैं! ..कुछ प्रयास इस जन्म में, और बचा हुआ फिर कभी... (law of conservation of energy applies here)!

(२)
माया अर्थात् यह संसार या विशेषकर यह भूलोक (भौतिकता), ..और यह एक आत्मा के लिए अस्थाई या अल्पकालिक है, कुछ ही समय का पड़ाव! ..ऐसा पड़ाव जो आध्यात्मिक जगत से पृथक है, ..और जुड़ा हुआ भी! पृथक इसलिए क्योंकि प्रत्येक भौतिक चीज नश्वर और आत्मा रूपी ऊर्जा स्थाई! मनुष्य रूपी जीव बुनियादी रूप से 'आध्यात्मिक' परन्तु इस शरीर में, एक सांघिक ढांचे में 'भौतिक'! ..और जब सबकुछ प्रकृति के नियमों के अधीन, तो यह सब भी उसी सिस्टम के अंतर्गत! ..अतः जड़ साधु-सन्यासियों की भांति जग को ठुकराना या उसके प्रति संवेदनहीन रहना गलत! ..इस मानव देह और इस नश्वर जगत में ही हमारी आध्यात्मिक साधना (अविद्या का नाश) संभव व सार्थक! ..तो क्यों इसको निकृष्ट या त्याज्य समझा जाए? ..इसलिए 'माया' अच्छी भी और बुरी भी! ..हम एकदम से इसी ख़ारिज करें, इतनी बुरी भी नहीं.., क्योंकि यह हमारे लिए एक बड़ी प्रयोगशाला, व्यायामशाला, विद्यालय सभी कुछ, ..जहां से होकर आध्यात्मिक चरम का मार्ग जाता है; ..और चूँकि यह (माया) 'अंत' नहीं वरन 'मार्ग' है अतः इतनी अच्छी भी नहीं कि हम इसके प्रति तीव्र-आसक्त हो जायें!
..फिर भी हम मुसाफिर ही सही, कुछ समय तो हमें यहाँ बिताना ही होता है और एक 'सिस्टम' के तहत सांघिक रूप से ही (वैज्ञानिक भी मानते हैं कि मनुष्य मूलतः एक सामाजिक प्राणी है)! ..तो फिर इस प्रवासकाल में हमें 'सिस्टम' को मानते हुए 'प्रवृत्ति' को अपनाना पड़ता है, ..परन्तु 'सिस्टम' के अंतर्गत ही समानांतर रूप से 'निवृत्ति' भी आवश्यक होती है! बहुधा यह बात हमें याद नहीं रहती और हम इस जगत रूपी विद्यालय में उन्नति नहीं कर पाते और अनेक जन्मों/पीढ़ियों तक एक ही कक्षा में ही रह जाते हैं!
दूसरे प्रश्न का उत्तर- हम एक साधारण विद्यालय में भी तो कुछ समय के लिए प्रवेश लेते हैं, फिर भी जब तक वहां रहते हैं तब तक वहां के क्रियाकलापों में हिस्सा बनते हैं, और उस विद्यालय की बेहतरी के लिए कुछ न कुछ योगदान देते हैं. संयोग से हमीं बड़े और योग्य होकर जब उस विद्यालय में अध्यापक, प्रधानाचार्य या प्रबंधक पद तक पहुँच जाते हैं तो बहुत सी उन परिपाटियों, व्यवस्थाओं आदि को बदलने/सुधारने का प्रयत्न करते हैं जो विद्यार्थी जीवन में हमें खटक रही होती थीं! ..परन्तु यह सब हम अब कर पा रहे होते हैं तो एक 'योग्यता' व 'अधिकार' पाने के पश्चात्!
शब्द अपर्याप्त.

(३)
मैं स्वीकार करता हूँ कि मैंने ब्लॉग-पोस्ट से कुछ टिप्पणियां डिलीट की हैं.
कारण-- मैं ऐसा किसान हूँ जो इस ब्लॉग-समूह रूपी खेत में कुछ अच्छे बीज बोने के लिए प्रयत्नशील है- बिलकुल नेक इरादे से, बिना किसी की भावना को आहत किए.
फिर यदि यहाँ कोई खरपतवार उग आती है तो उसे साफ़ करना इस किसान की मजबूरी नहीं, बल्कि कर्तव्य है. ..अब कोई इस खरपतवार को गुणी जड़ीबूटी समझ बैठे तो वह नाराज होने के लिए स्वतंत्र है!
गलत करना जितना बड़ा पाप है; उतना ही बड़ा पाप, गलत को सहना या उसका पोषण करना, भी है. ..और यह मुझसे हो नहीं पाता, इसे आप इस ब्लॉग के अधिकांश लेखों में महसूस कर सकते हैं.
कोमलता व नम्रता का अर्थ यह नहीं कि हम दुर्बल बन जायें (या समझे जायें)! श्रीकृष्ण जी ने हमें इसका सुस्पष्ट उदाहरण दिया है अपने जीवन से! उनके जीवन-प्रसंगों में थोड़ा गहराई में जाने की आवश्यकता है बस! फिर मात्र बुराई से घृणा होगी, बुरे से नहीं! केवल साक्षीभाव से नहीं वरन निष्पक्षता व तटस्थता से देखना और करना संभव हो जाएगा तब!

(४)
निश्चित ही हम खुशफ़हमी और कल्पनालोक में ही हैं, ..और जड़ से हो गए हैं! आत्ममुग्धता हमें आभासी उत्कृष्टता का छलावा देती है और हम उस पर इतराते हुए सबसे ऊपर होने की गलतफ़हमी में रहते हुए निश्चिन्त हो रुक (थम) से गए हैं! ..और लम्बे समय से रुका (जमा) हुआ स्वच्छ पानी भी....!!
..और हम परिवर्तन के नाम पर जो परिवर्तन भी कर रहे हैं, खास तौर पर हमारे तथाकथित अगुआ, ..वे उसी प्रकार हैं जैसा कि यह लेख (अभिजात वर्ग) बताता है; ..और ये बातें सर्वविदित हैं, मैंने कोई नई बात नहीं बताई!

(५)
जैसे आप वैसा ही मैं! लेकिन इस मानव देह में हम भिन्न-भिन्न दीखते हैं! हम 'यहां' और 'इस' देह में हैं इसका अर्थ ही यही कि हम अपूर्ण हैं, ..और पूर्णता हेतु एक-दूसरे पर आश्रित! ..इसीलिए हम संघ-स्वरूप रहते हैं! ...संघ में एक साथ रहना है तो एक-दूसरे को समझना आवश्यक! ..और परस्पर मित्र बन कर ही हम यह काम कर सकते हैं.
आपको सादर नमस्कार.

(६)
धर्म तो सर्वदा उपस्थित है ही, परन्तु विविध आडम्बरों ने उसे ढक सा लिया है. ..इनके चलते उसका प्रत्यक्ष प्रकटीकरण बहुत कठिन हो गया है! और उसके अभाव में (ढके होने से) सबकुछ अव्यवस्थित हो गया है!

(७)
"एक विदेशी बहुत बड़ा नास्तिक था..उसने कई देश देखे पर भारत नही...किसी ने सलाह दी, "भारत बहुत धार्मिक देश है...एक बार जाओ.." वह विदेशी भारत भ्रमण पर आ गया...उत्तर प्रदेश..बिहार...मध्य प्रदेश....कई जगह गया..जब वापस अपने देश पहुँचा तो बहुत बड़ा धार्मिक बन गया ..पूछने पर बोला,"..जैसे वो देश चल रहा है उसे निश्चित ही भगवान चला रहा है...वहां सब भगवान भरोसे ही है...."
'अच्छा व्यंग हमारे मौजूदा हालात पर! यह सही बात है कि हमारा देश भगवान् भरोसे चल रहा है, और संभवतः यही देखकर भारत के अधिकांश तथाकथित विचारक निश्चिन्त हैं कि एक दिन सब कुछ स्वतः ठीक हो जाएगा!
लेकिन हमें यह जानना और समझना चाहिए कि इतने भ्रष्ट माहौल के बावजूद यदि गाड़ी चल रही है तो निश्चित ही यह बिलकुल वैसा ही है- मानों हम पुरखों की जमा-पूँजी से जीवन चला रहे हैं मगर निकट अतीत व वर्तमान में लगभग अकर्मण्य ही हैं! ..और एक दिन यह जमा-पूँजी समाप्त होना निश्चित है!!'

(७१) सचेतक टिप्पणी संग्रह- १४

मेरे और पाठकों के बीच संवादों की एक श्रृंखला

(१)
पितरात्माओं की प्रगति के परिपेक्ष्य में प्रथम चरण पर समझने-समझाने के लिए सूक्ष्मात्मा व सूक्ष्म तरंगों से सम्बंधित आपकी अवधारणा या संकल्पना को आगे बढाते हुए कुछ अन्य विचार-
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कदाचित् प्राचीनकाल में तत्कालीन ज्ञानी-जनों को ब्रह्माण्ड के समूचे आध्यात्मिक रखरखाव का ख्याल था. वैयक्तिक एवं वैश्विक सर्वांगीण विकास एवं सुख-समृद्धि, सुकून, संतुलन आदि के लिए यह एक आवश्यक विचार था. इसके लिए उन्होंने शायद विधि-विधानों एवं धार्मिक अनुष्ठानों के रूप में कुछ स्थूल प्रबंध किये. इनका उद्देश्य मात्र प्रारंभिक भाव-जागृति (initial trigger for respect and emotions) था. एक बार जब भाव स्थापित हो जाता था तो फिर हमारे सहित अन्य आत्माओं की आध्यात्मिक प्रगति भी सुनिश्चित हो जाती थी.
"आध्यात्मिक प्रगति", यह एक आवश्यक बात है सही मायनों में मानव बनने हेतु, या उससे भी ऊपर देवत्व या ईश्वरत्व को अनुभूत करने हेतु.
पितरात्माओं की सुख-शांति से जुड़े सभी कृत्यों का उद्देश्य उनके एवं स्वयं के लिए आध्यात्मिक अर्थों में महानता एवं व्यापकता का मार्ग प्रशस्त करना होता था, जो मोक्ष को जाता था. मोक्ष अर्थात् ज्ञान की परम/सर्वोच्च अवस्था, संतुलन की अवस्था! इसे जीवित रहते ही पाना (या पितरों को उपलब्ध कराना) संभव है. इससे ही विश्व में धर्म अर्थात् righteousness का स्थायित्व संभव है.
इस कृत्य में पितरों सहित सभी के हित का विचार व भाव निज-हित की अपेक्षा अधिक था.
लेकिन समय बीतते-बीतते भाव-जागृति का कार्य एक किनारे होता चला गया और विभिन्न वैयक्तिक स्वार्थों ने उसका स्थान ले लिया. ...सर्वप्रथम मीडिएटर (पंडित-पुरोहित) करप्ट हुए, फिर देखा-देखी यजमान भी! आज का हाल सभी जानते हैं पर मानते नहीं हैं!
सब कुछ गलत भाव/तरीके/मंशा से करने से श्रेयस्कर है कि कुछ भी न किया जाए, बस मन ही मन श्रद्धा सुमन अर्पित किये जायें, वह भी यदि संभव हो तो! मुख से कुछ, कर्म से कुछ, मन में कुछ, दिल में कुछ; यदि सब कुछ भिन्न-भिन्न है, तो भारी गड़बड़ है और सब निराधार है! 'लकीर के फ़क़ीर' ही बनना है तो बात दूसरी है! "जहां भाव वहां देव", यह न भूलें! भाव के बिना सब निरर्थक और भाव की उत्पत्ति कार्यकारणभाव समझने से ही होती है, जिसका नितांत अभाव! निराधार श्रद्धा, अंधश्रद्धा समान ही है! इसे उतार फेंकें!

(२)
पहले से लिखे हुए पर बहुत ज्यादा विचार-विमर्श करने तथा पक्ष-विपक्ष में बहुत सारी दलीलें देने से हम मौजूदा हकीकत से परे चले जाते हैं. ..जब हम बहुत अधिक कंफ्यूज़ हों तो क्या आपको यह नहीं लगता कि हमें जीवन की फिलोसोफी व डिवाइन एनर्जी आदि के बारे में नए सिरे से कुछ अवधारणाओं या संकल्पनाओं के माध्यम से शुरू कर स्वयं ही तह तक पहुँचने का प्रयास करना चाहिए?
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विज्ञान एवं गणित में भी तो हम आरंभिक अवस्था में यही करते हैं! ..और फिर धीरे-धीरे गुत्थी को काफी हद तक सुलझा लेते हैं. ..और आगे भी विकास के क्रम में हम उसमें और आगे बढ़ते हुए सकारात्मक फेरबदल करते हुए उसे और अधिक परिष्कृत (refine) करते रहते हैं!
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सरल शब्दों में, किसी भी फिलोसोफी पर बेवजह बहुत अधिक मंथन पर अर्थ से अनर्थ हो जाता है और अलग-अलग कुनबे/फिरके बन जाते हैं, उस फिलोसोफी का मंतव्य, सार, रूप आदि विकृत हो जाते हैं. ..परस्पर द्वेष उत्पन्न होता है सो अलग!
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तो, या तो हमें प्रोग्रेसिव दृष्टिकोण से फेरबदल करना आना चाहिए, या तो फिर हम एक नए सिरे से यानी 'a' से, ऊपर सुझाये गए तरीके से पुनः शुरुआत करें (कंफ्यूज़न की स्थिति में).

(३)
हमारे गिरते 'सिविक सेन्स' के कारण आपने जो आशंका व्यक्त की है, उसमें आपने काफी उदारता दिखाई है!
यदि हालात ऐसे ही रहे तो मेरे विचार से तो हमें 'ठहरा' हुआ नहीं बल्कि 'गिरा' हुआ घोषित किया जाएगा, क्योंकि सड़ांध दिन-प्रतिदिन द्रुत गति से बढ़ रही है! हम भारतवासी भागदौड़, उठापटक, छीनाझपटी, विभिन्न भ्रष्टाचारों आदि में गहरे उतरते जा रहे हैं! आम आदमी को दिशानिर्देशित करने वाले आज के मीडियाकर्मी, राजनीतिज्ञ, धर्मगुरु, ब्यूरोक्रेट्स, डॉक्टर, संवैधानिक व्यवस्था से जुड़े लोग (जज, वकील, पुलिस), व्यापारीवर्ग, आदि सभी अभिजातवर्ग के लोग (ऊंचे व जिम्मेदार लोग) भी जब लगातार 'गिर' रहे हैं तो फिर आम आदमी का हाल क्या होगा इसकी सहज ही कल्पना की जा सकती है. हम आज पडोसी देशों से भारत की तुलना भी करते हैं तो किससे, ...पाकिस्तान से! ..चीन से क्यों नहीं? पाकिस्तान के मुकाबले अपनी उपलब्धियां गिना कर हम फूले नहीं समाते, ..और जब बारी आती है चीन से तुलना करने की, तो हम उसके नकारात्मक पक्षों की ही चर्चा करते हैं, सकारात्मक एवं सार्थक पक्षों को देखना ही नहीं चाहते! वास्तव में हम अकर्मण्य, कामचोर, भगोड़े, झूठे, मक्कार और भ्रष्ट होते जा रहे हैं- ऊपरी वर्ग से निचले वर्ग तक!
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फिर भी हमें (जो आज जागरूक हैं) रिपेयरिंग और रिफाईन्मेंट का प्रयास करना होगा एक नए सिरे से, एक नई सोच के साथ! ..हालात सुधरने में देर-सवेर हो सकती है पर सुधरेंगे कैसे नहीं, यह जोश होना चाहिए. ..और साथ ही होश भी! हम उबर सकते हैं, हम उबरेंगे; यदि हम जैसों की भावनाएं व इरादे नेक हों तो! ..वास्तव में आपसे मिलकर ख़ुशी हुई और एक आशा का संचार भी! क्योंकि दाग वही साफ कर सकता है जो दागों को देखना और महसूस करना जाने!

(४)
सही बात है आपकी कि जब तक हमारी 'सोच' परिष्कृत नहीं होगी, सभी वर्कशॉप फेल हो जायेंगी. यद्यपि इस प्रकार की ट्रेनिंग का मूल उद्देश्य 'सोच' को ठीक करना ही होता है, परन्तु बहुधा इनमें वो गहराई नहीं होती जो हमें अन्दर से झिंझोड़कर जगा सके, सचेत कर सके, वास्तव में 'अच्छा' और 'सच्चा' बना सके! गहराई आ पाना तब ही संभव है जब कुछ आध्यात्मिक दृष्टिकोण भी शामिल किया जाए.
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किसी के भी पूर्णतया स्वस्थ होने की चार शर्तें हैं- १. वह शारीरिक रूप से स्वस्थ हो, २. वह मानसिक रूप से स्वस्थ हो, ३. वह सामाजिक रूप से स्वस्थ हो, ४. वह आध्यात्मिक रूप से स्वस्थ हो.
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बहुधा हमारे वर्तमान समाज व शिक्षा में उपरोक्त क्रमानुसार १ से ३ पर तो ध्यान दिया जाता है पर ४ पर बिलकुल भी नहीं! ...उत्तर में शायद आप कहें कि अधिकांश लोग तो धार्मिक भी होते हैं, पूजा-पाठ आदि भी करते हैं! ..परन्तु यह सब करने का अर्थ यह कतई नहीं कि वह व्यक्ति आध्यात्मिक गुणों को प्रकट कर रहा है!
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इसे सारांश में समझने के लिए कृपया इसे पढ़ें- "आध्यात्मिक रूप से स्वस्थ अर्थात्"

(५)
आपने पारिवारिक व सामाजिक रिश्तों के बनने-बिगड़ने तथा उसके पीछे के कारणों, स्वार्थों आदि पर मनन किया है. एक युवा जब जीवन के इस पक्ष की ओर गंभीरता से निहारता है तो मन में एक उम्मीद जगती है कि हमारे समाज में मानवीय मूल्य शायद पुनः स्थापित हों! ..शायद हम व्यर्थ की भागमभाग से ऊपर उठकर जीवन के असली पहलुओं को जानें-पहचानें! ...दुर्भाग्य से आज की युवा पीढ़ी में इसका अभाव है क्योंकि उन्हें इस सम्बन्ध में अपने बड़ों से ही कोई शिक्षा या प्रेरणा नहीं मिली! ..देखा जाए तो पिछली कई पीढ़ियों से हम रूपए-पैसे, स्वार्थ आदि को ही महत्व दे रहे हैं, मानवीय मूल्यों को नहीं! रिश्तों को भी हम स्वार्थानुसार ही बनाते-बिगाड़ते हैं! अब हमें जागना और बदलना होगा, तभी हम अन्दर से खुश होंगे, हमारी प्रसन्नता टिकाऊ होगी और यह जीवनशैली हमें ठोस रूप से संतोष देगी!

(६)
जहां कोई 'मत' होगा, वहां मतभेद अवश्य होगा; जहां कोई 'वाद' होगा, वहां विवाद होना निश्चित है.
लेकिन विज्ञान में थोड़ा अलग है. वहां हर चीज काफी ठोस तथ्यों पर आधारित होती है, अतः मतभेद या विवाद बहुत कम होते हैं. साइंस को हिंदी में विज्ञान या शास्त्र (जैसे- भौतिक-शास्त्र या भौतिक विज्ञान, रसायन-शास्त्र या रसायन विज्ञान) कहा जाता है. विज्ञान, साइंस या शास्त्र (समझने के लिए कुछ भी कहें), यह सिद्धांतों पर आधारित होता है, वे भी ऐसे सिद्धांत जिन्हें सब सरलता से देख सकें या कम से कम महसूस या अनुभूत कर सकें.
वर्तमान में प्रचलित धार्मिक-सिद्धांतों (?) में कुछ भी ऐसा नहीं, क्योंकि सिद्धांतों का आज वजूद ही नहीं, ..वे सब टूटफूट चुके हैं, विकृत हो चुके हैं; ..हमीं ने या हमारे आकाओं ने ऐसा किया है! बेवजह की मनमानी से वे सिद्धांत, अब सिद्धांत रह ही नहीं गए, ..इसीलिए अब काफी अरसे से विभिन्न 'मत' एवं 'वाद' बनते हैं. ..हम जितने खोखले (निराधार/सिद्धांत-रहित) 'मत' और 'वादों' को जन्म देंगे, उतने ही मतभेद व विवाद जन्म लेंगे! आज भारत में हर जगह यही हो रहा है और मानवता पिसती जा रही है!

(७)
ब्रह्माण्ड का एक निराला सिस्टम है. इस सिस्टम के जितने भेद खुलते जा रहे हैं, वे विज्ञान की परिधि में आते चले जा रहे हैं. ..और इस सिस्टम के जो भेद मनुष्य अभी तक नहीं जान सका है, उसके अंतर्गत होने वाली किसी भी रचनात्मक या विध्वंसात्मक गतिविधि के लिए अज्ञानी लोग ईश्वर को जिम्मेदार ठहराते हैं.
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हाँ, जब बात इसकी आती है कि यह सिस्टम ओरिजिनेट किसने किया? तो हम मात्र एक सुप्रीम पॉवर की कल्पना कर सकते हैं, इसी सुप्रीम प्राधिकारी को हम ईश्वर-अल्लाह का नाम दे देते/सकते हैं.
विज्ञान में भी तो अनेकों कल्पनाओं से शुरू करके आगे बढ़ते हैं, और आगे उनमें से अनेक कल्पनायें (सब नहीं) हकीकत में बदलती हैं.
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लेकिन फ़िलहाल हम एक नतीजे पर तो पहुँच ही चुके हैं कि प्रकृति में सब कुछ नियमबद्ध है, जो उन नियमों का आदर करता है, वह सुखी रहता है और जो उनका उल्लंघन करता है वह किसी परेशानी में अवश्य पड़ता है.
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लेकिन इसके उलट, ..बिना उल्लंघन किये भी जब कोई परेशानी में पड़ता है और आदर न करने के बावजूद भी कोई सुख में है तो इस विपरीत स्थिति का समाधान हम एक्शन-रिएक्शन के सिद्धांत से पाते हैं. प्रकृति या विज्ञान के नियमानुसार, त्वरित और विलंबित, दोनों प्रकार के रिएक्शन संभव हैं.., और यदि ऊर्जा की अक्षुण्णता व संरक्षण का सिद्धांत भी इसमें जोड़ दें तो रिएक्शन का किसी कनवर्टेड फॉर्म में आना भी संभव है! मोटे तौर पर- पॉजिटिव के फलस्वरूप पॉजिटिव, नेगेटिव के फलस्वरूप नेगेटिव प्रतिक्रिया; लेकिन कब (त्वरित/विलंबित), किस अवस्था (फॉर्म) में और किस माध्यम से, इसकी सटीक गणना करने में अभी मौजूदा विज्ञान असमर्थ है!
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यानी इन सब की मदद से हम मोटे तौर से इस नतीजे पर पहुँच सकते हैं कि कोई भी एक्सीडेंट, एक्सीडेंटली नहीं होता!!!
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विज्ञान में भी आरंभिक अवस्थाओं में हम मोटे (धुंधले) तौर पर ही किसी नतीजे पर पहुँचते हैं और बाद में शायद किसी ठोस नतीजे पर!

Saturday, April 30, 2016

(७०) सचेतक टिप्पणी संग्रह- १३

मेरे और पाठकों के बीच संवादों की एक श्रृंखला

(१)
प्राथमिक कक्षाओं के समस्त संकल्पों-विकल्पों को क्रमशः त्याग कर ही हम सर्वोच्च कक्षा तक पहुँच सकते हैं; काश, यह सबको पता चल जाए और बिना पुनः गिरे हम इस सच पर स्थिर रह पाएं! ऐसा हो जाए तो फिर कलियुग का अंत निश्चित है और सतयुग बाहें फैलाकर हमारा स्वागत करेगा!

(२)
धर्मोपदेशक या मजहबी-शिक्षक का कार्य बहुत ऊंचे दर्जे का है व समाज भी इनके प्रति विशिष्ट आदर-भाव रखता है, थोड़ा लोभ और भय मिश्रित ही सही। तो इन धर्मोपदेशकों का मूल उद्देश्य यही होना चाहिए और यही होता भी था प्राचीनकाल में कि सामान्य लोगों को लोभ व भय से परे ले जाकर, दण्ड-परितोष की भावना से मुक्त करा कर, संघ में सच्चे धर्म (righteousness) की स्थापना करना तथा उसकी खराई को अक्षुण्ण रखना; स्वयं के एवं अन्यों के ज्ञान में लगातार वृद्धि कर निरंतर अल्लाह या प्रकृति के नियमों के और अधिक समीप पहुँचते जाना; धर्म के वाह्य स्वरूप के अवांछित तत्वों व भय-मिश्रित अंधविश्वासों की बेड़ियों को लगातार काटना, आदि-आदि। सारांश में यह कि ज्ञान की अगली कक्षाओं में अनवरत अग्रसर होते / करते जाना।
परन्तु आज ऐसा कुछ भी नहीं दिखाई पड़ रहा है। विभिन्न मजहबी संगठन खुदा व धर्म को और अधिक जटिल बनाने व दुरूह साबित करने में लगे हैं। बजाय अंधविश्वासों को दूर करने के, वे और अधिक अंधविश्वास बढ़ाने में लगे हैं। कारण स्पष्ट है कि आम लोगों को जब धर्म बहुत जटिल व साथ ही भौतिक लाभ पहुंचाने वाला लगेगा तब वे लोभवश इसकी ओर सहज ही आकृष्ट होंगे तथा दुरुहता जान पड़ने के कारण माध्यम बनेंगे आज के तथाकथित मजहबी संगठन व उनसे सम्बद्ध व्यवसायिक धर्मगुरु।
आखिर कब हम सचेत होंगे?

(३)
गलत के खिलाफ आपका रोष जायज है एवं साथ ही आपका दर्द भी समझा जा सकता है.
मोबाइल कम्पनियों की भी होड़, आक्रामक विज्ञापन, अन्य निरुपयोगी सुविधाओं की आदत डलवाना, छुपे खर्च, कामचलाऊ गुणवत्ता, आदि किसी से छुपे नहीं हैं. बेवकूफ बना कर पैसा बटोरने का खेल चल ही रहा है, तो बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ भी क्यों पीछे रहेंगी? जिस मूल देश से वे सम्बन्ध रखती हैं वहां तो उनका कार्य साफ-सुथरा है, पर भारत में चूँकि भ्रष्टाचार खूब है, अतः यहाँ वे भी चाँदी काट रहीं हैं. बहती गंगा में सब हाथ धो रहे हैं. ..और तो और, हमारे देश की मौजूदा प्रतिभाएं भी इसमें उनकी सहायक सिद्ध हो रही हैं, उदाहरण के लिए बिज़नस मैनेजमेंट (MBA) की पढाई किये लोगों को आज प्राइवेट सेक्टर में जो नौकरियां मिल रही हैं, उनमें अधिकांशतः उनका काम यही होता है कि झूठ-फरेब से भरी मनमोहक और पेचीदा प्रमोशनल स्कीमें कैसे बनाई जायें! ...कैसे भी हो पर पैसा आना चाहिए, भारी टर्नओवर होना चाहिए, चाहे इसके लिए कितने ही झूठे सब्जबाग क्यों न दिखाने पड़ें! भारत में आज यह व्यापार का मूल सिद्धांत बन गया है! ..कहीं न कहीं हमारी या हमारे कुछ अपनों की भी इस कुचक्र में सहभागिता है, ..और वह भी हमारी सहमती से! तटस्थ भाव से ईमानदार अवलोकन की आवश्यकता है!

(४)
कुरीतियों के खिलाफ आपका रोष, विरोध एवं विद्रोह बिलकुल जायज है. ..जिन रीतियों का आज के परिपेक्ष्य में कोई औचित्य नहीं और उनको बस किसी प्रकार से निभाना, लकीर के फ़क़ीर बनने समान है. बदलावों हेतु आपने बहुत ही अच्छे सुझाव दिए हैं. मेरा सल्यूट!
परन्तु, कुछ बदलने के लिए यदि हम क्रोध में दूसरे के कृत्य को कोसते हुए कुछ अलग बात रखेंगे तो हमारी बात कोई नहीं मानेगा! क्योंकि हर एक व्यक्ति की अपनी कुछ न कुछ इगो (अहं) है और जब वह हर्ट होती है तो सामने वाला अपने दिमाग के सभी खिड़की-दरवाजे बंद कर लेता है! ...अपने बच्चों को समझाते हुए क्या हम इस बात का ध्यान नहीं रखते? उनके अपरिपक्व स्वभाव को बदलने हेतु हम कोमलता से सुतर्क देते हैं, सही बात को विभिन्न कोणों से समझाते हैं, और इस प्रकार धीरे-धीरे वे परिपक्व सोच के धनी हो जाते हैं.
हमें धैर्य और कोमलता, नम्रता आदि का दामन नहीं छोड़ना है और अपनी बात भी रखनी है, और सामने वाले के स्तर का भी ध्यान रखना है. ...और यह सब साधते हुए सब सध सकता है, इस उम्मीद को बरक़रार रखना है.
सभी अपने ही हैं, कोई पराया नहीं; कोई आज किसी निचली कक्षा में पढ़ रहा है तो आप जैसा कोई ऊपर की कक्षा में पहुँच चुका है, बहुत से लोग बीच की कक्षाओं में भी हैं. कुछ एक ही कक्षा में बहुत दिन से रुके हुए हैं तो कई निरंतर आगे की कक्षाओं में अग्रसर होते जा रहे हैं. ...हम ऐसे सोचें तो बिना किसी द्वेष के हम समस्त जनों को ऊपर की ओर ले जाने में अवश्य कामयाब होंगे.

(५)
आपने एक बात कही कि "एक चिकित्सक को भी मरीज के हित के लिये शरीर की चीर-फाड [आपरेशन] भी करना पड़ता है, भले ही मरीज उसको पसंद न करे!"
इसमें थोड़ा सा सकारात्मक एवं आशावादी संशोधन-
मरीज को भी जब अपने किसी एक सड़े अंग से यह खतरा बन जाता है कि उसके कारण उसका शेष शरीर भी इन्फेक्टेड हो सकता है तो वह स्वेच्छा से उस अंग को कटवाने सर्जन के पास पहुँच जाता है.
हमें सड़ांध के प्रति जाग्रति लानी होगी, फिर व्यक्ति स्वयं जागरूक होकर परिष्कृत होने का यत्न करेगा ही. किसी अंग के काटे जाने की नौबत आने से पूर्व ही उसे ठीक करने या करवाने का प्रयास करेगा.
इसी प्रकार सामाजिक कुरीतियों को भी बलात् दूर करने का प्रयास उत्तम नहीं, बल्कि उत्तम यह होगा कि हम लेखक संजीदगी के साथ ऐसा आईना पेश करें, जिसमें दाग दिखाई पड़ें. ..जब दाग दिखाई पडेंगे, समझ में आयेंगे, तो व्यक्ति उन्हें स्वतः ही साफ़ करेगा या करवाएगा.
सड़े दांत को कोई भी डेंटिस्ट निकाल सकता है, परन्तु काबिल डेंटिस्ट वही कहलाता है जिसने अपने प्रोफेशनल जीवन में न्यूनतम दांतों को निकाला और अधिकतम दांतों को सुधारा.
पूरी तरह से सड़े दांतों को निकालिए, कोई हर्ज नहीं; पर कुछ दांतों को पूरी तरह से सड़ने के पूर्व सुधारिए भी!
अब उत्तर में यह न कहियेगा कि "मैं कोई डेंटिस्ट नहीं!"

(६९) सचेतक टिप्पणी संग्रह- १२

मेरे और पाठकों के बीच संवादों की एक श्रृंखला

(१)
परेशानी हो तो कर्म करने की जरुरत है न कि किसी कर्मकाण्ड की!
और यदि किसी अमुक कर्मकाण्ड से किसी योग्य कर्म करने की प्रेरणा मिलती हो तो उसे करने में कोई आपत्ति नहीं.
कोई विशिष्ट धार्मिक कर्मकाण्ड किसी कर्म का स्थान ले लेगा, यानी शॉर्टकट उपलब्ध करा देगा, इस गलतफहमी में बिलकुल भी न रहिएगा! इसी को अन्धविश्वास और भ्रष्टाचार कहते हैं.
वह शॉर्टकट नहीं वरन ईमानदार कर्म चाहता है.

(२)
कर्मकाण्ड भाव-जागृति हेतु ही होना चाहिए, बिना 'कर्म' (बिना मेहनत या प्रयास) किसी अभीष्ट सिद्धि हेतु नहीं! ..वह भी यथासंभव शुरुआती अवस्था में ही!
..और जो अकर्म-कर्म की बात कही आपने (...ईश्वर कर रहा है और हमसे करा रहा है और सदा हमारे साथ है), वह इतना सरल नहीं! ..बहुधा हम भावुकता में ऐसा कह तो जाते हैं कि हम अकर्म-कर्म कर रहे हैं, परन्तु अधिकांशतः वह कोरी भावना ही होती है, ..सच्चे भाव का अभाव होता है; ...तभी तो अनेकों तथाकथित तत्त्व-ज्ञानियों से से भी पाप होते हैं! ...और तब वे यह नहीं कह सकते कि- "यह ईश्वर कर रहा है और हमसे करा रहा है और सदा हमारे साथ है"! ...ये उनके क्रियमाण-कर्म होते हैं- उनके मन, बुद्धि और विवेक से किये हुए; और ठीकरा फोड़ते हैं भगवान् पर!
मेरा आशय समझ गए होंगे आप. ...किन्तु इसे अन्यथा न लीजिएगा!

(३)
आपने कहा- "अध्यात्म की ऊंची कक्षाओं की पढ़ाई बहुत ही कठिन है और विरले ही उस को समझ पाते हैं. आम तौर पर लोग ग्रॅजुयेशन करते ही अपने नाम के आगे डिग्री लिखने लगते हैं और वास्तविक अनुसंधान से बचते हैं इसका एक कारण यह भी है कि अनुसंधान के परिणाम कभी मिलेंगे भी कि नहीं, यह निश्चित नहीं होता, जबकि धंधा करने के लिये ग्रॅजुयेशन काफी है."
'आपने बिलकुल सही बात कही, परन्तु यह बात आध्यात्मिक मार्गदर्शकों (विभिन्न तथाकथित गुरुओं) पर लागू होती है!
..लेकिन आम व्यक्ति की बात करें तो वह तो अभी तक किसी जूनियर कक्षा में ही अटका है! ..या फिर तथाकथित मार्गदर्शकों ने उसे वहीं पर अटका रखा है!
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रही बात ग्रेजुएशन के पश्चात् के 'अनुसंधान' की, तो अध्यात्म में वहां तक कोई भी पहुँच सकता है, ..एक आम व्यक्ति भी; ..किसी मार्गदर्शन अंतर्गत अथवा बिना किसी मार्गदर्शन के; ..बस दृढ़ निश्चय के साथ जिज्ञासु वृत्ति का होना आवश्यक! ..हर बच्चा (या व्यक्ति) अपने माता-पिता (या जीवन देने वाले) के विषय में जानने हेतु उत्सुक होता है और होना चाहिए! हर एक व्यक्ति को अपने जीवन को या स्वयं को और उससे जुड़ी बातों को खोजना चाहिए, जानना चाहिए, ..इसमें कुछ भी अटपटा नहीं! ..वैज्ञानिक भी तो यही करते हैं- 'अनुसंधान'!

(४)
बड़ा विरोधाभास है कुछ बातों में; एक तरफ आप कहते हैं कि "ईश्वर की हकीकत की थाह पाना मानव मन-मस्तिष्क के बस का नहीं, और दूसरी तरफ आपका यह कहना है कि ईश्वर की निशानियों को हमारा दिल खूब जानता व पहचानता है!" ..मेरा विचार है कि हम खूब जानते हैं कि ईश्वर व ईश्वरीय सिद्धांत, मूलतः प्रकृति के मूल सिद्धांतों के रूप में हमारे सामने प्रकट हैं, ...और हम हैं कि जानते हुए भी मानते नहीं, ..या अपने-आप को इस सिस्टम की परिधि से बाहर समझते हैं! ..शायद यह हमारा कोरा अहंकार है, ...और शायद इसी अहंकारवश हम जड़ और अज्ञानी समान हैं, ...और शायद इसीलिए हम पीढ़ियों से एक जगह (कक्षा में) स्थिर से हैं या अपेक्षाकृत नीचे ही गए हैं! इस भौतिक देह में और इस भौतिक संसार में हमें भौतिकता व आध्यात्मिकता के बीच संतुलन रखना आवश्यक होता है; भौतिक उन्नति तो हम खूब कर रहे हैं परन्तु आध्यात्मिक उन्नति के क्षेत्र में हम 'अबोध' ही बने हुए हैं, इसी कारण संतुलन बहुत बिगड़ गया है और हम निरंकुशता की हदें पार कर रहे हैं और आकंठ भौतिकता में डूबे हैं अनैतिकता के साथ (क्योंकि आध्यात्मिकता ही नैतिकता के रूप में प्रकट होती है)!

(५)
प्रकाश के विषय में जागृति फ़ैलाने (प्रसार करने) वाले व्यक्ति का प्रथम और अंतिम उद्देश्य केवल प्रकाश (या उसके महत्त्व) का प्रसार करना होता है, उसके किसी एक विशिष्ट ब्रांड का प्रचार नहीं! उसे केवल स्वच्छ और उज्जवल प्रकाश के प्रसार से मतलब होता है तथा वह उसे (प्रकाश को) अनेक स्रोतों में ढूंढकर अनेकों विकल्प प्रस्तुत करता है बिना किसी पूर्वाग्रह के!
जबकि किसी एक बल्ब विशेष (किसी एक बल्ब निर्माता) का प्रतिनिधि (या मालिक) केवल उस बल्ब विशेष का प्रचार करता है, उसे ही अपनाने का आग्रह करता है, अन्य निर्माताओं के समकक्ष उत्पादों को वह निकृष्ट बतलाता है! ..मूलतः वह ब्रांड का प्रचार करता है, प्रकाश का प्रसार नहीं!

सच्चा धार्मिक, 'सार्वभौमिक ज्ञान' रूपी असीमित प्रकाश के 'प्रसार' (spreading) में सहायक होता है या उसके द्वारा यह कार्य स्वयमेव होता है जैसे सूर्य के द्वारा प्रकाश का प्रसार होता है; और अन्धश्रद्ध कट्टर, किसी 'विशिष्ट ब्रांड' के सीमित ज्ञान का 'प्रचार' (publicity) करता है.
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पहली स्थिति में ज्ञान का प्रसार परमात्मा अथवा आत्मा के आदेश से और दूसरी स्थिति में ज्ञान का प्रचार किसी गुरु विशेष के आदेश (अथवा शिक्षा) से होता है.
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पहली स्थिति में सम्पूर्ण समष्टि के दीर्घ हित छुपे होते हैं जबकि दूसरी स्थिति में एक विशिष्ट समुदाय अथवा पंथ के हित छुपे होते हैं.
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प्रथम व्यापकत्व लिए होता है और दूसरे का एक निश्चित दायरा होता है.
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हाँ, यह सच है कि श्री रामकृष्ण परमहंस सरीखे खरे गुरु सदैव "प्रसार" हेतु प्रयत्नशील होते हैं, वे सीमित सोच के नहीं होते बल्कि व्यापकत्व लिए होते हैं. ..और उनकी यह विशेषता हम और आप नहीं निर्धारित कर सकते, उनके देह त्याग के कुछ वर्षों बाद 'सभी' को इसका पता चल पाता है ('केवल दो-चार नजदीकी लोगों' को ही उनकी गहराई का पहले से पता होता है).

Friday, April 1, 2016

(६८) सचेतक टिप्पणी संग्रह- ११

मेरे और पाठकों के बीच संवादों की एक श्रृंखला

(१)
विभिन्न समाजों (सम्प्रदायों, पंथों) में व्याप्त विभिन्न कुप्रथाओं को जब तक हम धर्म (?) (अर्थात् किसी पंथिक ग्रन्थ में उल्लेखित उपदेश या आज्ञाओं) से जोड़कर देखेंगे तो दो बातें होंगी-
पहली बात कि कुप्रथा के प्रति हमारा मोह या सम्मान बना रहेगा (धार्मिक पक्ष जुड़ा होने के नाते);
और दूसरी बात यह कि अन्य मतावलंबियों के प्रति हमारा द्वेष पूर्व की अपेक्षा और अधिक बढ़ेगा, क्योंकि उनकी व हमारी शिक्षाओं/आदेशों में परस्पर विरोधाभास अवश्य मिलेंगे!
और हम कुत्तों की भांति एक दूसरे से लड़ते रहेंगे! लड़ाई प्रथमतः केवल वह ही बंद करेगा जो अपेक्षाकृत अधिक समझदार होगा! ..किसी की जो चीज या आदत हमें पसंद नहीं, क्या आवश्यकता है कि वही हम भी अपनाएं?!
बहुधा हम 'धर्म' शब्द को 'रिलिजन' के सन्दर्भ में लेते हैं और रिलीजियस निर्देशों को 'धर्म' समझते हैं. जबकि रिलीजियस निर्देश (उपदेश, आज्ञायें, ग्रन्थ) आदि नीतिवचन हैं मात्र, ..और नीतियाँ कालानुसार बदलती हैं, बदलनी चाहियें! ..और ये बदलते रहे भी हैं, उदाहरणार्थ- बाइबिल का पुराना नियम (कठोर, स्थूल) v/s नया नियम (उदार, सूक्ष्म); वेद शिक्षा का क्रमशः स्थूल उपासना से सूक्ष्म उपासना तक जाना; सामान्य विद्यालय में कक्षा दर कक्षा आगे जाने पर पाठ्यक्रम बदलना (सूक्ष्म होना)!
'धर्म' कोई इतना छोटा शब्द नहीं कि विवादों में घिर जाए या उस पर आसानी से प्रश्नचिन्ह खड़े किये जा सकें. 'धर्म' कोई 'उपासना पद्धति या जीवनशैली' नहीं!
प्लीज..., धर्म, रिलिजन, संस्कृति, सभ्यता, नीति, आदेश आदि शब्दों को अलग-अलग गहराई से समझने का यत्न करें! ..इससे व्यर्थ के विवाद बंद होंगे, और तब हम व्यर्थ की बेड़ियाँ काटते हुए वास्तव में विकास की सीढ़ियाँ चढ़ेंगे.

(२)
आपने कहा- "इस देश के लोग भले ही ढोल ढमाकों और हाथियों के जोर पर कभी कभार जाग जाने वाली सरकार पर लाख दोष मढ़ लें परन्तु स्वयं तो कसम खा कर बैठे हैं कि वे अंधे ही बने रहेंगे। जब तक कि वे स्वयं ठोकर नहीं खा लेते।"
..इस बात से मैं पूरी तरह से सहमत नहीं हूँ. वास्तव में हमारे देश के लोग अन्धविश्वासों में इस कदर जकड़े हैं कि ठोकरें खाने के बाद भी नहीं जागते. विभिन्न उलजलूल धार्मिक मीमांसाओं, तथाकथित (अकाट्य?) धार्मिक आदेशों, उपदेशों आदि ने आमजन को स्थाई रूप से धृतराष्ट्र व गांधारी बना दिया है.
आमजन आज विचित्र सम्मोहन की अवस्था में है जो उसे वैयक्तिक भौतिक उन्नति के विभिन्न शॉर्टकट्स सुझाता है. उसे सचेत करने की बात तो दूर की, उसे और अधिक पथभ्रष्ट करने में इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ने भी कोई कसर नहीं छोड़ी है.
वास्तव में समाज की ऊपरी परत (layer) में उपस्थित सभी गणमान्य व्यक्ति (जिनमें सरकार और विभिन्न धर्मगुरु भी आते हैं) आज अचेतावस्था में हैं तो निचली परत में अचेतना आना स्वाभाविक ही है.
आज जब मीडिया या सरकार में भी तथाकथित बुद्धिमान लोग एक-दूसरे की तरफ ताकते हुए देखा-देखी या अंदाजे से अपने अगले कदम उठाते हैं, केवल निज हितों को ध्यान में रखते हुए, ..तो प्रजा रूपी बच्चा क्या सीखेगा? आज के धर्मगुरुओं की तो बात ही अनोखी है, मायाजाल फ़ैलाने में लगे हैं और उनके इस मायाजाल को काटने के लिए हम लाख आलोचनाएं कर लें पर स्थिति बदलने वाली नहीं!
स्थिति तब ही बदल पायेगी जब समाज का ईमानदार वर्ग निःस्वार्थ भाव से ऐसी यथार्थ शिक्षा (मिताक्षर व परिष्कृत अध्यात्मशास्त्र) का प्रसार करे जिसको आधुनिक विज्ञान की कसौटी पर भी खरा पाया जाए. यह तभी संभव हो पायेगा जब विभिन्न धार्मिक अवधारणाओं की जड़ तक जाकर उनके मंतव्य, मूल, सार आदि को खुले दिमाग से जानने की कोशिश की जाए और साथ ही इस क्रम में स्वतःस्फूर्त अनुभूतिजन्य ज्ञान का सहारा भी लिया जाए.
इस क्रम में कुदरत, प्रकृति और इसका सिस्टम हमें दिशा दिखाता ही है यदि हम मन में पहले से ही कोई धारणा बना कर न चलें तो!
ऐसा ही कुछ प्रयास/प्रयोग मैंने भी किया और इससे जो कुछ भी निकला, उसे बहुत धीरे-धीरे और यथासंभव आसानी से पचने योग्य भाषा में अपने ब्लॉग के माध्यम से समाज के साथ साझा करने की एक कोशिश कर रहा हूँ. कर्म पर मेरा अधिकार है और कर्म के अनुसार उचित समय पर उचित माध्यम से प्रतिक्रिया होनी निश्चित है, परन्तु बाट जोहने की आवश्यकता नहीं क्योंकि प्रकृति का सिस्टम अभूतपूर्व व अद्भुत है!

(३)
अभिभावकों, बड़ों या शुभचिंतकों की दिली ख्वाहिश होती है कि उनका बच्चा नेक राह पर चले.
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नेक राह पर चलने का मतलब किसी धर्म (पंथ) की शिक्षा के अनुसार 'लकीर का फ़क़ीर होना' नहीं वरन ऐसे रास्ते पर चलना जो मौजूदा समय के अनुसार उचित हो और मुझे, साथ ही अन्यों को भी आन्तरिक प्रसन्नता दे.
अपेक्षाकृत और अधिक छोटे शब्द में 'नेक राह पर चलना' मायने 'योग्य एवं न्यायप्रिय पथ पर चलना'.
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बच्चा जब छोटा होता है तो अभिभावक उससे सही काम करवाने के लिए उसे किसी न किसी 'पुरस्कार का लोभ' या 'दंड का भय' दिखाकर नेक राह पर रखने की कोशिश करते हैं.
परन्तु बच्चे के बड़े होने के साथ-साथ हमारी इस क़वायद का तौर-तरीका परिपक्व एवं यथार्थ के करीब होता जाता है.
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'शैतान' शब्द के परिपेक्ष्य में भी शायद यही बात खरी उतरती है. परिपक्वता की सीढ़ियाँ चढ़ते हुए, प्रौढ़ता को हासिल करते हुए हमारे जेहन में 'शैतान' शब्द का अर्थ अब व्यापक भावार्थ में बदलना चाहिए, क्या आपको यह नहीं लगता?
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तब यह किसी एक अमुक धार्मिक शिक्षा से सम्बंधित न रहकर एक सार्वभौमिक सत्य के रूप में हमें समझ में आयेगा और किसी के लिए भी इसे समझना सरल होगा.
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पहले हम (आम लोग) अपरिपक्व थे, बिलकुल बच्चे जैसे, सो धार्मिक उपदेश भी उसी के अनुसार थे. अब तो हम बड़े हो गए हैं, फिर बचकाना व्यवहार क्यों करें?
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किसी काल में बनी विभिन्न धार्मिक नीतियाँ उस समय की जरूरत, जगह और माहौल के अनुसार तथा उस समय की हमारी बुद्धि को ध्यान में रखते हुए हमें योग्य पथ पर कायम रखने हेतु बनाई गयीं. तो वे नीति स्वरूप ही हुईं और नीतियाँ हमारी प्रौढ़ता के बढ़ने के साथ बदलती हैं, हमने ऊपर देखा था.
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पहले हम दुनिया के अलग-अलग हिस्सों में एक-दूसरे से अनजान थे, अब तो सम्पूर्ण विश्व एक छोटे से गाँव के समान और सब एक-दूसरे से वाकिफ़.
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अब हमें वास्तव में विकसित होने के लिए किसी भी सभ्यता से कुछ लेने (यदि वह सही है) और अपना कुछ छोड़ने (यदि वह गलत है) में संकोच नहीं होना चाहिए.
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सबका ईश्वर (सर्वोच्च शुभचिंतक/अभिभावक) भी यही चाहता है कि उसके सभी बच्चे परिपक्वता के शिखर तक पहुंचें.
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यदि हम यह नहीं समझ रहे तो माना जा सकता है कि "शैतान" अपनी चाल में अभी तक कामयाब है.
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पुनश्चः - ..अपने धर्म (पौराणिक नीति) पर ही 'सख्ती' के साथ चलना, ऐसा अटल इरादा हमें दूसरों के धर्म या विश्वास के प्रति सशंकित करता है या अन्धश्रद्ध कट्टर में रूपांतरित कर सकता है. फिर हम संकीर्ण हो सकते हैं, अन्यों को नीचा या शैतान तक समझ सकते हैं! ..परन्तु हमें तो विकसित एवं व्यापक होना है न!

(४)
बहुत अच्छा, तीखा व करारा प्रहार- हमारी आज की मानसिकता पर! आंखें खोलने वाला सच बयान किया है आपने.
..वैसे इस सच से बहुत से लोग वाकिफ़ हैं, ..पर आज आईना कौन देखना चाहता है और सच कौन सुनना चाहता है? अतः अधिकांश लोग अँधा और बहरा होने की एक्टिंग करते रहते हैं और जानबूझकर नादान बने रहते हैं.

(५)
नमस्कार बन्धु. आपने कहा- "सरकार और जनता दोनों सचेत हो जाएँ तथा सच्चे सदाचार को अपना लें, तो भ्रष्टाचार का नामो निशान मिट जायेगा। जनता एवं सरकार दोनों को जागृत होना पड़ेगा।"
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पर यह होगा कैसे?? ..नींद खोलने और सदाचार अपनाने के लिए कोई कारण (भय, लालच या 'ज्ञान') तो होना चाहिए उनके पास, जिससे कि वे motivate हो सकें! ज्ञान हो तो सबसे बढ़िया!

(६)
प्रत्येक चीज में 'कमी' और 'अति' दुष्परिणाम लाती है. खाना-पीना, सोना-जागना, मनोरंजन, भावुकता, अभिव्यक्ति, बहस, धार्मिक कृत्य, विश्वास-अविश्वास, प्यार-डांट, एकत्रीकरण-भण्डारण, अपनाना-परित्याग आदि अनेक ऐसे विषयों पर यह बात लागू होती है. आज भारतीय समाज में इन्हीं (कमी और अति) के कारण असंतुलन की स्थिति! ..शायद इस पर और अधिक मनन की आवश्यकता, ...क्षमा करें, इसकी आवश्यकता आपको भी!
साथ ही, प्रवृत्ति और निवृत्ति में संतुलन बैठाने की परम आवश्यकता! ...और निवृत्ति का क्रम प्रवृत्ति के पश्चात् ही! आरंभ में प्रवृत्ति एक स्वाभाविक व न्यायसंगत क्रिया, तथा प्रवृत्ति पश्चात् निवृत्ति की सोच एवं क्रिया अत्यावश्यक- इसमें कोई संदेह नहीं!
कृपया उत्तर अवश्य दें.

(७)
कोई भी प्राचीन धर्मग्रन्थ वहां के लोगों की उस समय की ज़रूरत के हिसाब से लिखे नीतिवचन हैं. प्राचीनकाल में प्रत्येक स्थान के लोगों की परिस्थितियों में भिन्नताएं थीं, सो प्रत्येक समुदाय के नीतिवचनों में शिक्षाएं, वरीयताएं भिन्न थीं.
पहले साधारण मानव अति सीमित था- शायद केवल अपने कबीले तक, ..अब सम्पूर्ण विश्व के लोग एक-दूसरे के सम्पर्क में आ चुके हैं. ..धार्मिक विश्वासों के रूप में अपनी-अपनी प्राचीन धरोहरें भी सबके पास हैं, ..परन्तु अधिकांश अभी तक बेड़ियों में जकड़े हैं, अपने ज्ञान को विस्तार ही नहीं देना चाहते.
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स्थिति तब ही बदल पायेगी जब विभिन्न धार्मिक अवधारणाओं की जड़ तक जाकर उनके मंतव्य, मूल, सार आदि को खुले दिमाग से जानने की कोशिश की जाए और साथ ही इस क्रम में स्वतःस्फूर्त अनुभूतिजन्य ज्ञान का सहारा भी लिया जाए.
इस क्रम में कुदरत, प्रकृति और इसका सिस्टम हमें दिशा दिखाता ही है यदि हम मन में पहले से ही कोई धारणा बना कर न चलें तो!

(८)
बहुत सही चोट की है आपने वर्तमान व्यवस्था पर! ..हम भारतवासियों का जीवन चल नहीं रहा, वरन दौड़ रहा है. दूरी तो बहुत तय करते हैं रोज, परन्तु विस्थापन बहुत थोड़ा सा ही होता है शायद! विकास और मेंटेनेंस की बात कर रहा हूँ मैं! ..भागमभाग बहुत, शोर बहुत, थकान बहुत, परन्तु हाथ कुछ ख़ास नहीं आता. ...क्योंकि भ्रष्टाचारी तरीकों के अतिरिक्त योजनाबद्ध शायद कुछ भी नहीं. सो भ्रष्टाचार के विकास में कोई कमी नहीं और न ही कोई बाधा; शेष सब कुछ आधा (या वो भी जाए भाड़ में)!

(६७) सचेतक टिप्पणी संग्रह- १०

मेरे और पाठकों के बीच संवादों की एक श्रृंखला

(१)
मेरे विचार से दुनिया का प्रत्येक धर्मग्रंथ अपने अनुयायियों को मानवीयता के पथ पर चलने के लिये प्रेरित करता है, दैनंदिन जीवन में नैतिक गुणों के समावेश की अपेक्षा करता है, ..इस्लाम धर्म भी.
और दुनिया में सम्मिलित रूप से कौन से गुण, 'नैतिक गुण' कहलाते हैं, यह सभी धर्मों के लोग भीतर से जानते हैं, ..नास्तिक भी!
तो प्रशंसा उसी व्यक्ति की होती है जिसके आचरण से नैतिक गुण प्रकट होते हैं, ..अन्य समुदाय के व्यक्ति के साथ व्यवहार करते समय भी! इसमें हिन्दू और मुस्लिम जैसी कोई बात नहीं!
यह बात तो हो गयी वैयक्तिक स्तर की. ..अब बात करते हैं सामुदायिक स्तर की, तो किसी भी समुदाय के अधिसंख्य लोग अपने दैनंदिन कार्यों एवं अन्यों के साथ आचरण करते समय सम्मिलित रूप से जिस प्रकार की मानसिकता व नैतिकता को दर्शा रहे हों, उसी के अनुसार वह समुदाय प्रशंसा या आलोचना का पात्र बनता है.
पेशेवर आलोचकों और तथाकथित बुद्धिजीवियों की बात छोड़िये, एक आम आदमी किसी के धर्मग्रंथ के मर्म में नहीं जाता, वह केवल व्यक्ति और उसके समुदाय के लोगों में विद्यमान वर्तमान नैतिकता को ही देखता/ढूंढता है, और उसी के अनुसार वह उसके प्रति अपनी राय बनाता है.
अब कृपया कोई नैतिकता की परिभाषा बताने का अनुरोध ना करे, उसके बारे में आज सब जानते हैं ..और नैतिकता का किसी धर्म से कोई सम्बंध नहीं. लेकिन यदि किसी धर्म की गलत व्याख्या या धार्मिक ठेकेदार के उकसाने की वजह से हमारी नैतिकता प्रभावित होकर निम्नतर होती है, तो निश्चित ही हमें सचेत होने की आवश्यकता है, क्योंकि तब हम अन्यों की निगाह में अज़ीब, विषम या विचित्र (odd) घोषित होते हैं.

(२)
मेरे ख़याल से इंसानियत सबसे बड़ा मजहब है और जो भी शख्स़ इस पथ पर चल रहा है यकीनन वो अपने इष्ट को प्रसन्न कर रहा है और खुद भी अंदरूनी तौर पर ख़ुश है.
ईश्वर, खुदा आदि यदि हैं तो यकीनन उनकी दिली तमन्ना यही होगी कि उनके बच्चे नेक राह पर चलें. दुनिया के तमाम मजहबी ग्रन्थ बुनियादी तौर पर इसी के लिए उकसाते हैं, यह अलग बात है कि आज एक बड़ा तबका इसके उलट चल रहा है क्योंकि वह बुरी तरह से स्वार्थी हो गया है.
अब इंसानियत और नेक राह पर चलना मायने नैतिक उसूलों को अपनी रोजमर्रा की ज़िन्दगी में लागू करना. और 'यूनिवर्सल मोरल वैल्यूज़' से सभी समुदायों के लोग वाकिफ़ हैं क्योंकि सभी के धर्मग्रंथों का निचोड़ अंत में वही निकलता है. विरले ही उसे जीते हैं और निश्चित रूप से वे ही अंततः हमेशा की ज़िन्दगी या मोक्ष के हकदार होंगे!

(३)
एक बहुत अच्छा लेख, अच्छी व्यंगात्मक शैली के साथ 'भूख' पर वास्तव में अति-सूक्ष्म व गहरा मनन. गागर में सागर भरा है आपने. अंत में एस.एम.एस. भी ख़ूब!
प्रगति के सन्दर्भ में मेरे विचार से distance नहीं, बल्कि displacement मायने रखता है और भारत में कम से कम वह नहीं हुआ! भारत ट्रेडमिल पर है! आज भारत में प्रगति की सूजन है मात्र, ठोस कुछ भी नहीं! आपके अनुसार भी तो समय के साथ सब कुछ पतला होता चला जा रहा है!
.
अगले दिन की टिप्पणी- 'मैंने तो यूं ही कहा था, पर बात सच हो गई! आपका displacement भी शून्य हो गया.'
भई वाह! दोनों लेख समान, केवल शीर्षक भिन्न!
आप जहां से चली थीं, वापस ठीक वहीं पर पहुँच गयीं!
पूरी तरह विश्वास हो गया कि वास्तव में भारत ट्रेडमिल पर है!

(४)
सही कहा आपने कि आज हमें ऐसे नेतृत्व की आवश्यकता है जो परिश्रम से सपने पूरा करना सिखाये.
परन्तु ठोस प्रगति हेतु परिश्रम के साथ एक अन्य चीज का संलग्न होना अत्यावश्यक है- वह है ईमानदारी ...माने नैतिकता. ..नैतिकता के अभाव में भारत में आज सारा परिश्रम क्या पाने के लिए हो रहा है, वह सब जानते हैं.
पूर्वकाल में गुरुओं का यही कार्य हुआ करता था कि वे प्रथमतः राजा (शासन), तत्पश्चात प्रजा जनों को नैतिकता के पथ पर चलने हेतु प्रेरित करते रहें. ..उस समय के गुरुजन स्वार्थ, आडम्बर, लोभ और यश से बिलकुल परे रहते हुए अपना कार्य करते थे और हर किसी को सहज उपलब्ध रहते थे. ...लोक कल्याण ही उनका एकमात्र ध्येय होता था.
परन्तु आज ऐसा संत या गुरु चिराग लेकर ढूंढने पर भी कदाचित न मिलेगा!
इसका सीधा सा अर्थ यह कि राजा व सामान्य प्रजा को नैतिकता के पथ पर चलने के लिए प्रेरित करने वाले अब नहीं रहे, वे खुद ही भ्रष्ट हो गए. ..तभी तो हर जगह लूट-खसोट मची है!

(५)
आजकल के किशोरों में बढ़ते अवसाद का मूल कारण आज की परिवर्तित जीवन शैली है. वर्तमान जीवनशैली लोगों को एक ऐसी दुनिया में लेकर जा रही है जो कि जीवन की असली सच्चाई से कोसों दूर है. देखा जाए तो प्राकृतिक मानवीय देह और उससे जुड़ी हुई मूलभूत प्राकृतिक आवश्यकताओं में समय के साथ कोई भी प्रकृतिदत्त बदलाव नहीं आया है, परन्तु हम भारतवासी अकारण ही उनमें कृत्रिम परिवर्तन करने की उधेड़बुन में नित लगे रहते हैं और व्यस्त हैं! इस व्यस्तता में हम परस्पर संबंधों की वास्तविक परिभाषा, अर्थ एवं गहराई से भी दूर जाते जा रहे हैं. कहने को हम आगे बढ़ रहे हैं परन्तु वास्तव में हम अधोगामी हो रहे हैं. उदाहरणार्थ- निकट अतीत तक हम मित्रता व मित्र की व्याख्या करने में विशाल, उदार, समझदार एवं गहरे थे, एक निश्चित दायरे में रहते हुए भी एक समयावधि तक हम मित्रता को बड़े अर्थों में लेते थे- बॉयफ्रेंड या गर्लफ्रेंड जैसी आज वाली परिभाषा न थी, दोस्त बस दोस्त होते थे, चाहे लड़का हो या लड़की; शादी जैसे संबंधों की बात बहुत बाद में आती थी. ..परन्तु आज विपरीत सेक्स से मित्रता होते ही युवा कूदकर तुरंत उसे तथाकथित रूप से गर्लफ्रेंड या बॉयफ्रेंड मान लेते हैं और उसपर एकाधिकार मानते हुए अपरिपक्व रूप से भावुक हो जाते हैं. जल्दी-जल्दी ब्रेकअप होने और बात-बात पर डिप्रेशन में जाने की यह एक बहुत बड़ी वजह है!

(६)
जब हम परिपक्वता की कुछ सीढ़ियाँ और ऊपर चढ़ जाते हैं तो हमारे लिए पहनावा, खानपान, संस्कृति, यहाँ तक कि विभिन्न धार्मिक क्रियाकलाप तक गौण हो जाते हैं; हम इन सब से ऊपर उठ जाते हैं व अन्य अपेक्षाकृत संकीर्ण लोगों के लिए ऐसा महसूस करते हैं कि वे अभी हमसे निचली कक्षा में हैं शायद इसीलिए वे आज कुछ संकीर्ण हैं, मैं भी तो उसी कक्षा से होते हुए ऊपर उठा हूँ, तो दुराव और परायापन कैसा? और क्यों?
तब मुझे अपने आप में बड़प्पन की अनुभूति होती है (अहंकार की नहीं) और मैं इस कोशिश में रहता हूँ कि अन्यों की अपेक्षा व आग्रह के अनुसार ऐसा कुछ भी करने को तत्पर रहूँ, जो उनकी संस्कृति के अंतर्गत करने का रिवाज हो या जिससे उन्हें अच्छा लगता हो! यकीनन बड़े कद वालों के लिए विभिन्न धार्मिक कृत्य, तौर-तरीके, संस्कृतियाँ आदि जैसी चीजें वाह्य (बाहरी) हैं, ..केवल आन्तरिक पवित्रता ही अहम् (महत्वपूर्ण) है, क्योंकि असली धार्मिकता (righteousness) केवल उसी से प्रकट होती है.
बड़ों के लिए यही बेहतर कि वे छोटों के लिए (समक्ष) छोटे ही बन जायें, क्योंकि इससे छोटों को अच्छा लगता है पर साथ ही उन्हें भी आगे की कक्षाओं में जाने के लिए प्रेरित करते रहें. विज्ञान में भी तो हम ऐसा ही करते हैं- निरंतर परिष्कार (refinement), पर पहले की खोजों पर हँसते नहीं हैं.

(७)
अच्छे अतीत में बहुत अधिक झाँकने से होता कुछ खास नहीं है, बल्कि ख्यालों और सपनों में खो जाने का भय रहता है और इसके अलावा हमारा अहं बढ़ने का खतरा भी रहता है, नया सीखने की वृत्ति कम होती है.
हमारे पुरखे बहुत रईस थे इसमें कोई बड़ी बात नहीं, ..आज हम क्या हैं यह बड़ी बात!
इसलिए विनम्र गुज़ारिश है कि सिर्फ लिखने के लिए मत लिखियेगा.
गुस्ताखी माफ़.

(८)
कुदरत का सिस्टम अनोखा और अचूक. हर घटना-दुर्घटना का कोई तो कारण जरूर, वो बात अलग कि हम कितना समझ पायें! ..और प्रत्येक कारण के मूल में हमारी क्रियाएं! ..और क्रियाओं के मूल में हमारी मानसिकता यानी सोच! ..अब यदि किसी तरह से इस सच्चाई पर हमारा विश्वास जम जाये तो हम सदैव तुरंत लाभ की सोच न रखते हुये दूरगामी परिणामों को भी दिमाग में रखेंगे और सदैव सचेत व साथ ही आश्वस्त रहेंगे कि "प्रत्येक क्रिया के फलस्वरूप एवं तदनुरूप प्रतिक्रिया" के वैज्ञानिक सिद्धांतानुसार ही मैं भी पाऊँगी ही! ..और जिस चीज को हम विज्ञान, तार्किक दृष्टि आदि द्वारा सही पाते हैं उसी के लिये तो अगली पीढी को प्रेरित करेंगे! समझदार लोग भेड़चाल में नहीं खोते हैं, प्रचलित भावना में नहीं बहते हैं, वरन सच्चाई को मानते हैं व उसपर विश्वास कर उस सच्चाई का आगे प्रसार भी करते हैं.

Friday, February 26, 2016

(६६) सचेतक टिप्पणी संग्रह- ९

मेरे और पाठकों के बीच संवादों की एक श्रृंखला

(१)
यह जो पब्लिक है सब जानती है!
सब जानते हैं कि बहुत कुछ गलत है, फिर भी अपनाते हैं!
जब कुछ सही होगा तब भी पहचानेंगे कि कुछ सही हुआ; यह अलग बात कि न मानें!
स्वार्थ व निःस्वार्थ को पहचानना बुद्धिजीवियों को बहुत आता है पर स्वयं की लोकेषणा की बलि देकर सही को स्वीकार करना उन्हें शायद नहीं भाता, तभी तो भारत में सवेरा आने में अभी भी बहुत देर है!

(२)
अंधभक्ति, ढोंग व ढोंगियों से बचना बहुत आवश्यक, परन्तु पड़ोसी को धिक्कारना नहीं है, वरन समझाना है व उन्नत होने के लिए प्रेरित करना है.
इतना क्रोध ठीक नहीं और न ही धिक्कारना सही है.
हम इंसान हैं भगवान् नहीं या सर्वोत्कृष्ट नहीं!
परन्तु असल बात यह है कि हमें आगे को जाना चाहिए और यथार्थ को मानना चाहिए, जो भारत के किसी भी कट्टर पंथ में होता नहीं दीखता, हिन्दू भी आज उसी दायरे में हैं!
हम किसी भी पंथ से हों पर हमें विकसित होना चाहिए और चमत्कार का तिलस्म तोड़कर यथार्थ (विज्ञान) में आना चाहिए, जो हम नहीं कर रहे हैं.
किसी भी उस पुरानी प्रथा को तोड़ने के पक्ष में मैं नहीं जो हमें आज भी विकास की ओर ले जाती हो, पर जो प्रथा हमें बेड़ियों में जकड़कर जड़ कर दे वह टूट ही जाए तो बेहतर!
वेद भी समस्त ज्ञान पाने के पश्चात् स्वयं को (अर्थात् वेदों को) त्यागने की बात कहते हैं! एक कांटे की मदद से पैर में चुभे कांटे को निकालते हैं, फिर दोनों काँटों को पैर (या शरीर) से अलग कर देते हैं! बेकार के (चुभे हुए) कांटे को फेंक देते हैं और मददगार कांटे को सुरक्षित स्थान पर सहेज देते हैं; वह फिर कभी काम आ सकता है!

(३)
आपकी स्वामिभक्ति को सादर नमन. ...परन्तु मुझे अध्यात्म का वह शुद्ध रूप ही पसंद है जोकि अत्यंत सरल व सुगम है, चकाचौंध से रहित है, प्रलोभन से रहित है और सिद्धांत (तत्त्व) से एकाकार कराता है. सिद्धांतनिष्ठ होने की दशा में हम भौतिकता में रहते हुए भी भौतिक तुष्टिकरण से कोसों दूर रहते हैं; मेरे विचार से यही गुण हमें सरल व्यक्तित्व प्रदान करता है और हम वास्तव में एक स्वस्थ जीवन जीते हैं स्वस्थ सोच के साथ. ...तब हमें किसी गुरु या किसी विचारधारा या किसी समुदाय को तुष्ट नहीं करना होता, वरन मात्र अपने आत्मिक स्वरूप के मुताबिक चलकर उसी (पारमात्मिक शक्ति) को तुष्ट करना होता है. इसी को परमानंदावस्था या मोक्षावस्था कहा जा सकता है. सुखद अंत (या आरम्भ) यही है!
किसी भी प्रकार का नकारात्मक विचार कृपया मन में न लायें. आप अपने स्थान पर बिलकुल सही और शायद मैं भी? मार्ग भिन्न-भिन्न हो सकते हैं परन्तु लक्ष्य शायद समान! और सबसे बड़ी बात यह कि दोनों को अपने 'विश्वास' पर विश्वास है! ..और उससे भी बड़ी बात यह कि दोनों ने सकारात्मक ढंग से एक-दूसरे को समझने का यत्न किया! विरोधाभास होते हुए भी हमें एक-दूसरे के विश्वास की इज्जत करनी चाहिए और वह हमने की! हम इतना भी साध्य कर लें तो मानो हम मानवता की दिशा में एक पायदान ऊपर चढ़ गए! एकएक सीढ़ी ऊपर चढ़ते-चढ़ते हम मंजिल पा ही लेंगे!

(४)
अध्यात्म में एक बात कही जाती है- "जितने प्रकार के व्यक्ति, उतनी ही प्रकार की मानसिक स्थितियां (प्रवृत्तियां), और उतने ही साधना मार्ग"! सघन मनोचिकित्सा में भी एक कुशल मनोचिकित्सक इसी बात का ध्यान रखते हुए रोगी का इलाज करता है. ..एक से लक्षणों वाले रोगियों के लिए भी वह दवा और विशेषकर काउन्सलिंग की अलग-अलग योजना बनाता है. ..ठीक ऐसा ही अध्यात्म-जगत में भी होता है / होना चाहिए. ..एक और उदाहरण- मैं मानता हूँ कि मल्टीविटामिन प्रत्येक के लिए कारगर हो सकती है परन्तु एक सीमा तक! ..यदि रोगी की वास्तविक आवश्यकता को समझकर डॉक्टर उसे कोई विशिष्ट विटामिन ही दे तो शीघ्र, सटीक व पूरा लाभ होता है. खरे गुरु शिष्य की वृत्ति को परखकर उसे उस मार्ग के लिए प्रवृत्त करते हैं जिससे वह शीघ्र व ठोस आध्यात्मिक प्रगति कर सके.
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ऊंचा उठने के लिए गुरु के अतिरिक्त शिष्य की जिज्ञासा, तड़प, लगन, प्रयास और मेहनत आदि भी कार्य करते हैं- 'एकलव्य' की भांति! गुरु तो एक मार्गदर्शक साइनबोर्ड उपलब्ध कराता है, पर उस बोर्ड के मुताबिक चलना पथिक को ही होता है! ..और एक सचेत व इच्छावान पथिक बिना मार्गदर्शक बोर्ड के भी अपना रास्ता व मंजिल ढूंढ सकता है जब बोर्ड में निर्देश गलत हों!
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आज सही मार्गदर्शक बोर्ड्स की बहुत कमी, इसलिए उन भटकाव वाले बोर्ड्स में से सही चुनना / ढूंढना अत्यंत दुष्कर; ..तो फिर व्यक्ति अपनी मदद स्वयं ही क्यों न करे? क्यों विज्ञान से इस बारे में मदद न ले? ..मैंने भी ली है और तब ऐसे लेख लिखने का साहस किया है! परन्तु मैंने कभी भी योग्य मार्गदर्शक बोर्ड होने से इनकार नहीं किया है, बस यह कहा है कि वे अत्यंत अल्प हैं व उन्हें पाना अत्यंत दुष्कर! ..और उनके सही होने की पहचान यही है कि उसपर चल कर स्वयं से कोरी भावना रहित 'सुगंध' आए! आपके साथ यदि ऐसा है तो अवश्य ही आपकी साधना सफल हुई.

(५)
मैंने आपके बताए लिंक से GSSY की साईट को देखा. क्षमा चाहता हूँ मुझे General Benefits of GSSY ही समझ में नहीं आए! समझ में न आने से आशय है कि मुझे उन benefits में से एक भी ऐसा नहीं लगा जो हमारे मानसिक और आध्यात्मिक स्तर को ऊपर उठा सके यानी हमारी सोच को भीतर से परिष्कृत कर सके. ..दुआ रूपी दवा की एक रहस्यमय दुकान की भांति लगा सब कुछ, जिनसे भौतिक जगत से सम्बंधित कष्ट दूर होने की संभावनाएं हैं परन्तु नैतिक व आध्यात्मिक उत्थान की benefits में कहीं चर्चा मात्र तक नहीं है, क्योंकि एक आम आदमी को उसकी ज़रूरत ही नहीं या ज़रूरत सबसे बाद में, ऐसा समझा है इस संस्था ने!
..जबकि मेरे अनुसार व्यक्ति की आन्तरिक (वैचारिक) शुद्धता ही अध्यात्म में सर्वोच्च स्थान रखती है. यदि वह हो जाए तो सब सध जाएगा, जीवन सफल हो जाएगा और अपने आप से (खुद से) अच्छी अनुभूति होगी, गर्व होगा! ..आखिर कब हम बाहर से अन्दर की यात्रा करेंगे? GSSY भी हमें वाह्य स्वास्थ्य सम्बन्धी प्रलोभन ही देता है, आत्मिक गुणों का वहां कोई स्थान नहीं! ..और दूसरी महत्वपूर्ण बात यह कि वहां निरर्थक रहस्य एवं व्यक्ति पूजा को प्रधानता है, जबकि असली अध्यात्म रहस्यों पर से पर्दा हटाता है, व्यक्ति-निष्ठा का विरोध करता है, लोकेषणा का विरोध करता है, हमें सरल, सत्यवादी व न्यायपूर्ण बनाता है! क्या GSSY इसमें से कुछ भी करता है? यदि करता है तो कैसे? कृपया स्पष्ट रूप से बताएं.

(६)
आपने कुछ अन्यथा ले लिया बात को! ..एक ही तराजू से तौलने का कोई प्रश्न ही नहीं. ..वर्तमान सन्दर्भ में मैंने एक जनरल बात कही; वैसे अपवाद हैं, अच्छे गुरु भी हैं लेकिन बहुत कम! ..वर्तमान स्थिति से वे भी बहुत दुखी / खिन्न हैं; और ऐसे गुरु अपना 'प्रचार' नहीं करते वरन 'धर्म' (righteousness) का 'प्रसार' करते हैं. चिराग लेकर उन्हें ढूंढना पड़ेगा! ..वे मंच से नहीं वरन नेपथ्य से कार्य करते हैं बिना किसी लोकेषणा के लालच से! ..और इनकी बताई साधना से अवश्य ही आध्यात्मिक प्रगति होती है.

(७)
एक बात कहूं पते की! ..कि आपको यदि प्राकृतिक या मानवीय सिद्धांत समझ में आते हैं तो समस्त निष्ठा उन्हीं के प्रति कर लें, सब कुछ प्राप्त हो जाएगा बिलकुल सही पद्धति से!
तब आपको व्यक्ति (गुरु) निष्ठ होने की आवश्यकता नहीं, किसी संस्थानिष्ठ होने की आवश्यकता नहीं और ईश्वरनिष्ठ होने की भी आवश्यकता नहीं, क्योंकि आप असल सिद्धांतनिष्ठ हैं!
आप राजा पर विश्वास करें न करें, राजा के आगे शीश झुकाएं न झुकाएं; परन्तु यदि आप उसके नियमों, सिद्धांतों या कानूनों को मानते हैं तो एक अच्छे राजा के लिए यही बहुत है! गारंटी है कि आप सुख से रहेंगे.