Friday, May 6, 2016

(७३) सचेतक टिप्पणी संग्रह- १६

मेरे और पाठकों के बीच संवादों की एक श्रृंखला

(१)
हमें व्यक्ति को नहीं, बल्कि विचार को ध्यान में रखना चाहिये. समर्थन या विरोध 'विचार' का ही होना चाहिए.
बात गलत लगने पर किसी व्यक्ति का नहीं बल्कि विचार का विरोध करें तो अच्छा रहेगा. ..और सबसे अच्छा तो यह कि बिना किसी का विरोध किये अपनी सही (?) बात प्रस्तुत की जाये, ..बात में दम होगा तो उसकी गूँज होगी अन्यथा....!

(२)
मार्गदर्शकों में अभिभावक (माता-पिता), स्कूली अध्यापक, हमारे समाज के गणमान्य व्यक्ति, धर्मगुरु, सद्गुरु, ईश्वरावतार आदि सभी आ जाते हैं. परन्तु विषय का केंद्र-बिंदु 'वर्तमान समय' के ऐसे लोग हैं, आम समाज के मन पर जिनकी छवि सर्वोच्च रूप से अंकित है, और आम जन उनके अनुयायी हैं, उनका अनुसरण करते हैं. ..आम जन अपरिपक्व हैं, और वे (मार्गदर्शक) पर्याप्त रूप से परिपक्व हैं, उनकी छवि ऐसी है, या वे ऐसा दावा करते हैं; और वे आम जन (या किसी एक समुदाय) को मार्गदर्शित करने वाले की भूमिका में हैं (इससे उन्हें इंकार भी नहीं है)! 'वर्तमान समय' के ऐसे लोगों में वे प्रमुखता से आ जाते हैं जिन पर समाज में नैतिक मूल्य स्थापित करने का दायित्व है और निश्चित रूप से अभिभावक और आध्यात्मिक गुरु उनमें से एक हैं.

(३)
..मैं आपसे एक बात ईमानदारी से शेयर करना चाहता हूँ कि मैंने अध्यात्म के विषय में बहुत अधिक किताबी अध्ययन नहीं किया है, और जो थोड़ा-बहुत पढ़ा भी है, वह भी कुछ अध्यात्म/साधना विषयक अनुभूतियाँ होने के पश्चात् 'कन्फ़र्मेशन' हेतु ही, क्योंकि अचानक यह सब घटित होने के बाद मैं कंफ्यूज़न की स्थिति में था! ..और मैंने मात्र उतना ही पढ़ा जिससे मेरा कंफ्यूज़न कुछ हद तक दूर हो जाए. ..अतः बहुत सी प्रचलित शास्त्रीय संज्ञाओं व परिभाषाओं से सर्वथा अनभिज्ञ हूँ. शब्द व भाषा को केवल इतना ही महत्त्व देता हूँ कि वह अनुभूतिजन्य विचार संप्रेषित करने का माध्यम मात्र है. अतः हो सकता है बल्कि होता ही है कि शास्त्रीय शब्दों का चुनाव मुझसे ढंग से नहीं हो पाता. कृपया इसे अनदेखा करें और शब्दों के पीछे विद्यमान मंतव्य को समझने का यत्न करें.

(४)
आपके कथन के अनुसार ऐसा प्रतीत हो रहा है कि पहले आम जन (90%) भ्रष्ट हुआ, फिर वही बीमारी ऊपर के मार्गदर्शक वर्ग को भी लग गई!
लेकिन मेरा निष्कर्ष कुछ अलग है- किसी अभिभावक का बच्चा या किसी गुरु/सद्गुरु का शिष्य यदि बिगड़ जाए, भ्रष्ट हो जाए, ..तो क्या सम्बंधित अभिभावक या गुरु/सद्गुरु भी उसके पीछे चल कर भ्रष्ट हो जाता है या हो सकता है?? अपवाद को छोड़ दें कृपया, केवल इस पर विचार करें कि अक्सर क्या होता है?? भीतर से जवाब यही आयेगा कि ईमानदार अभिभावक या गुरु अपनी खराई बनाकर रखता है और अथक प्रयास के पश्चात् भी न सुधरने वाले कुछ चेलों को उनके कर्म, प्रारब्ध व समय पर छोड़कर, शेष शिष्यों को योग्यतम रूप से मार्गदर्शित करने में कोई कसर नहीं छोड़ता है. ...और उसके लिए वह 'आचरण' के माध्यम से शिक्षा का प्रभावी संचरण करता है, केवल 'कथनी' से नहीं!
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पिछले कुछ समय से कदाचित पहले मार्गदर्शकों के आचरण में ही कुछ गिरावट आई जिसके फलस्वरूप उनके अनुयायी (आम जन) भी प्रभावित हुए. ...मार्गदर्शक मात्र 'कथनी' तक सीमित रह गए! ..शनैः शनैः यह रोग बढ़ता ही जा रहा है. हम शिक्षा कुछ दें और करें कुछ और, ..तो क्या होगा? हम अपने निजी जीवन में घनघोर आसक्त हों और पाठ पढाएं अनासक्ति का; हम स्वयं 'निज स्वार्थवश' अक्सर झूठ बोलते हों और पाठ पढाएं सत्य का; ..तो क्या होगा? कोई भी यह बात आसानी से समझ सकता है, फिर भी सहसा विश्वास नहीं होता है!
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आज हमारे समाज की लगातार हो रही नैतिक अवनति के लिए हमारे अधिकांश तथाकथित गुरुजन, मार्गदर्शक एवं हम स्वयं (अभिभावक रूप में) दोषी हैं. जहां कथनी और करनी में अक्सर ही भारी अंतर रहे, वहां की मौजूदा स्थिति के लिए वास्तव में दोषी कौन, अब पाठक सहज ही समझ सकते हैं!
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लेकिन इस काल को आपद्काल समझकर आमजन में से ही कुछ सचेत लोगों को अपना स्तर ऊपर उठाने की भारी आवश्यकता है जिससे इस जीर्णशीर्ण अवस्था से कुछ ऊपर उठने का क्रम आरंभ हो! ..और श्रीमान् जी, निश्चित ही आपके ऊपर भी एक जिम्मेदारी बनती है क्योंकि आप भी उन सचेत लोगों में से एक हैं.
प्रथमतः कुछ लाइट-टावर्स ही वर्टिकली खड़े होकर प्रकाशित हो जायेंगे तो फिर हॉरिजॉन्टली प्रकाश फैलने में समय नहीं लगेगा.

(५)
देश में जितने अधिक लोग जागेंगे और अपने कर्तव्यों के प्रति सचेत होंगे, उतनी ही तेजी से देश का असली विकास होगा, अन्यथा अब अंग्रेजों की जगह कोई और आ जाएगा!

(६)
दरअसल होता वही है जो हम सही में (वास्तव में) चाहते हैं. अनेक अवसरों पर हमारे ओठों पर कोई और बात होती है और दिल में कोई और! हमारे चाहने से ही कोई सेल्समेन हमारे घर में प्रविष्ट हो सकता है! अब यदि घर पर आया कोई सेल्समेन हमें लूट कर चला जाए, तो अधिक दोष किसका?

(७)
हमें यह नहीं भूलना होगा कि हमारा समाज केवल कुछ ही समय में नीचे नहीं गया है वरन यह धीरे-धीरे हुआ है; और निश्चित ही इसमें सबका योगदान है, हमारा भी! ..और यह भी निश्चित है कि तस्वीर बदलेगी भी धीरे-धीरे..., और इसमें भी हम सब के योगदान की ज़रूरत होगी! हम अपने योगदान में जितने सुस्त रहेंगे, उतना ही विलम्ब होगा अच्छे दिन आने में!

Sunday, May 1, 2016

(७२) सचेतक टिप्पणी संग्रह- १५

मेरे और पाठकों के बीच संवादों की एक श्रृंखला

(१)
वस्तुतः कर्म करना हमारे वश में है और यदि कर्म में कुछ बात होगी तो फल आयेगा ही! कब, कहाँ और कैसे, ..इसका उत्तर देने में बड़े-बड़े ज्ञानी असमर्थ हैं!
बीज के गुण-अनुरूप ही पौधा निकलता है. पथरीली भूमि में, चट्टानों पर और रसोईघर के डिब्बे में बीज महीनों-वर्षों तक अंकुरित नहीं होता, परन्तु योग्य वातावरण पाते ही वह 'क्रियाशील' हो जाता है!
कभी-कभी कुछ अच्छे बीज स्वयं ही नष्ट हो जाते हैं और कुछ को वातावरण या परिस्थितियां भी नष्ट कर देती हैं, इसके बावजूद किसान, किसानी नहीं छोड़ता है ..और अंततः सफल होता ही है! वैसे अपवाद भी होते हैं परन्तु उनका प्रतिशत या अनुपात बहुत कम या नगण्य ही! ..तो कुछ-एक असफलताओं से हम उस कर्म को नहीं त्याग सकते जो बहुधा हमें वास्तव में खरा फल दे सकता है! ..किसी-किसी अत्यंत दुष्कर व जटिल कर्म को करते समय हमें समय की बाधा नहीं होती, क्योंकि हम अनंत हैं! ..कुछ प्रयास इस जन्म में, और बचा हुआ फिर कभी... (law of conservation of energy applies here)!

(२)
माया अर्थात् यह संसार या विशेषकर यह भूलोक (भौतिकता), ..और यह एक आत्मा के लिए अस्थाई या अल्पकालिक है, कुछ ही समय का पड़ाव! ..ऐसा पड़ाव जो आध्यात्मिक जगत से पृथक है, ..और जुड़ा हुआ भी! पृथक इसलिए क्योंकि प्रत्येक भौतिक चीज नश्वर और आत्मा रूपी ऊर्जा स्थाई! मनुष्य रूपी जीव बुनियादी रूप से 'आध्यात्मिक' परन्तु इस शरीर में, एक सांघिक ढांचे में 'भौतिक'! ..और जब सबकुछ प्रकृति के नियमों के अधीन, तो यह सब भी उसी सिस्टम के अंतर्गत! ..अतः जड़ साधु-सन्यासियों की भांति जग को ठुकराना या उसके प्रति संवेदनहीन रहना गलत! ..इस मानव देह और इस नश्वर जगत में ही हमारी आध्यात्मिक साधना (अविद्या का नाश) संभव व सार्थक! ..तो क्यों इसको निकृष्ट या त्याज्य समझा जाए? ..इसलिए 'माया' अच्छी भी और बुरी भी! ..हम एकदम से इसी ख़ारिज करें, इतनी बुरी भी नहीं.., क्योंकि यह हमारे लिए एक बड़ी प्रयोगशाला, व्यायामशाला, विद्यालय सभी कुछ, ..जहां से होकर आध्यात्मिक चरम का मार्ग जाता है; ..और चूँकि यह (माया) 'अंत' नहीं वरन 'मार्ग' है अतः इतनी अच्छी भी नहीं कि हम इसके प्रति तीव्र-आसक्त हो जायें!
..फिर भी हम मुसाफिर ही सही, कुछ समय तो हमें यहाँ बिताना ही होता है और एक 'सिस्टम' के तहत सांघिक रूप से ही (वैज्ञानिक भी मानते हैं कि मनुष्य मूलतः एक सामाजिक प्राणी है)! ..तो फिर इस प्रवासकाल में हमें 'सिस्टम' को मानते हुए 'प्रवृत्ति' को अपनाना पड़ता है, ..परन्तु 'सिस्टम' के अंतर्गत ही समानांतर रूप से 'निवृत्ति' भी आवश्यक होती है! बहुधा यह बात हमें याद नहीं रहती और हम इस जगत रूपी विद्यालय में उन्नति नहीं कर पाते और अनेक जन्मों/पीढ़ियों तक एक ही कक्षा में ही रह जाते हैं!
दूसरे प्रश्न का उत्तर- हम एक साधारण विद्यालय में भी तो कुछ समय के लिए प्रवेश लेते हैं, फिर भी जब तक वहां रहते हैं तब तक वहां के क्रियाकलापों में हिस्सा बनते हैं, और उस विद्यालय की बेहतरी के लिए कुछ न कुछ योगदान देते हैं. संयोग से हमीं बड़े और योग्य होकर जब उस विद्यालय में अध्यापक, प्रधानाचार्य या प्रबंधक पद तक पहुँच जाते हैं तो बहुत सी उन परिपाटियों, व्यवस्थाओं आदि को बदलने/सुधारने का प्रयत्न करते हैं जो विद्यार्थी जीवन में हमें खटक रही होती थीं! ..परन्तु यह सब हम अब कर पा रहे होते हैं तो एक 'योग्यता' व 'अधिकार' पाने के पश्चात्!
शब्द अपर्याप्त.

(३)
मैं स्वीकार करता हूँ कि मैंने ब्लॉग-पोस्ट से कुछ टिप्पणियां डिलीट की हैं.
कारण-- मैं ऐसा किसान हूँ जो इस ब्लॉग-समूह रूपी खेत में कुछ अच्छे बीज बोने के लिए प्रयत्नशील है- बिलकुल नेक इरादे से, बिना किसी की भावना को आहत किए.
फिर यदि यहाँ कोई खरपतवार उग आती है तो उसे साफ़ करना इस किसान की मजबूरी नहीं, बल्कि कर्तव्य है. ..अब कोई इस खरपतवार को गुणी जड़ीबूटी समझ बैठे तो वह नाराज होने के लिए स्वतंत्र है!
गलत करना जितना बड़ा पाप है; उतना ही बड़ा पाप, गलत को सहना या उसका पोषण करना, भी है. ..और यह मुझसे हो नहीं पाता, इसे आप इस ब्लॉग के अधिकांश लेखों में महसूस कर सकते हैं.
कोमलता व नम्रता का अर्थ यह नहीं कि हम दुर्बल बन जायें (या समझे जायें)! श्रीकृष्ण जी ने हमें इसका सुस्पष्ट उदाहरण दिया है अपने जीवन से! उनके जीवन-प्रसंगों में थोड़ा गहराई में जाने की आवश्यकता है बस! फिर मात्र बुराई से घृणा होगी, बुरे से नहीं! केवल साक्षीभाव से नहीं वरन निष्पक्षता व तटस्थता से देखना और करना संभव हो जाएगा तब!

(४)
निश्चित ही हम खुशफ़हमी और कल्पनालोक में ही हैं, ..और जड़ से हो गए हैं! आत्ममुग्धता हमें आभासी उत्कृष्टता का छलावा देती है और हम उस पर इतराते हुए सबसे ऊपर होने की गलतफ़हमी में रहते हुए निश्चिन्त हो रुक (थम) से गए हैं! ..और लम्बे समय से रुका (जमा) हुआ स्वच्छ पानी भी....!!
..और हम परिवर्तन के नाम पर जो परिवर्तन भी कर रहे हैं, खास तौर पर हमारे तथाकथित अगुआ, ..वे उसी प्रकार हैं जैसा कि यह लेख (अभिजात वर्ग) बताता है; ..और ये बातें सर्वविदित हैं, मैंने कोई नई बात नहीं बताई!

(५)
जैसे आप वैसा ही मैं! लेकिन इस मानव देह में हम भिन्न-भिन्न दीखते हैं! हम 'यहां' और 'इस' देह में हैं इसका अर्थ ही यही कि हम अपूर्ण हैं, ..और पूर्णता हेतु एक-दूसरे पर आश्रित! ..इसीलिए हम संघ-स्वरूप रहते हैं! ...संघ में एक साथ रहना है तो एक-दूसरे को समझना आवश्यक! ..और परस्पर मित्र बन कर ही हम यह काम कर सकते हैं.
आपको सादर नमस्कार.

(६)
धर्म तो सर्वदा उपस्थित है ही, परन्तु विविध आडम्बरों ने उसे ढक सा लिया है. ..इनके चलते उसका प्रत्यक्ष प्रकटीकरण बहुत कठिन हो गया है! और उसके अभाव में (ढके होने से) सबकुछ अव्यवस्थित हो गया है!

(७)
"एक विदेशी बहुत बड़ा नास्तिक था..उसने कई देश देखे पर भारत नही...किसी ने सलाह दी, "भारत बहुत धार्मिक देश है...एक बार जाओ.." वह विदेशी भारत भ्रमण पर आ गया...उत्तर प्रदेश..बिहार...मध्य प्रदेश....कई जगह गया..जब वापस अपने देश पहुँचा तो बहुत बड़ा धार्मिक बन गया ..पूछने पर बोला,"..जैसे वो देश चल रहा है उसे निश्चित ही भगवान चला रहा है...वहां सब भगवान भरोसे ही है...."
'अच्छा व्यंग हमारे मौजूदा हालात पर! यह सही बात है कि हमारा देश भगवान् भरोसे चल रहा है, और संभवतः यही देखकर भारत के अधिकांश तथाकथित विचारक निश्चिन्त हैं कि एक दिन सब कुछ स्वतः ठीक हो जाएगा!
लेकिन हमें यह जानना और समझना चाहिए कि इतने भ्रष्ट माहौल के बावजूद यदि गाड़ी चल रही है तो निश्चित ही यह बिलकुल वैसा ही है- मानों हम पुरखों की जमा-पूँजी से जीवन चला रहे हैं मगर निकट अतीत व वर्तमान में लगभग अकर्मण्य ही हैं! ..और एक दिन यह जमा-पूँजी समाप्त होना निश्चित है!!'

(७१) सचेतक टिप्पणी संग्रह- १४

मेरे और पाठकों के बीच संवादों की एक श्रृंखला

(१)
पितरात्माओं की प्रगति के परिपेक्ष्य में प्रथम चरण पर समझने-समझाने के लिए सूक्ष्मात्मा व सूक्ष्म तरंगों से सम्बंधित आपकी अवधारणा या संकल्पना को आगे बढाते हुए कुछ अन्य विचार-
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कदाचित् प्राचीनकाल में तत्कालीन ज्ञानी-जनों को ब्रह्माण्ड के समूचे आध्यात्मिक रखरखाव का ख्याल था. वैयक्तिक एवं वैश्विक सर्वांगीण विकास एवं सुख-समृद्धि, सुकून, संतुलन आदि के लिए यह एक आवश्यक विचार था. इसके लिए उन्होंने शायद विधि-विधानों एवं धार्मिक अनुष्ठानों के रूप में कुछ स्थूल प्रबंध किये. इनका उद्देश्य मात्र प्रारंभिक भाव-जागृति (initial trigger for respect and emotions) था. एक बार जब भाव स्थापित हो जाता था तो फिर हमारे सहित अन्य आत्माओं की आध्यात्मिक प्रगति भी सुनिश्चित हो जाती थी.
"आध्यात्मिक प्रगति", यह एक आवश्यक बात है सही मायनों में मानव बनने हेतु, या उससे भी ऊपर देवत्व या ईश्वरत्व को अनुभूत करने हेतु.
पितरात्माओं की सुख-शांति से जुड़े सभी कृत्यों का उद्देश्य उनके एवं स्वयं के लिए आध्यात्मिक अर्थों में महानता एवं व्यापकता का मार्ग प्रशस्त करना होता था, जो मोक्ष को जाता था. मोक्ष अर्थात् ज्ञान की परम/सर्वोच्च अवस्था, संतुलन की अवस्था! इसे जीवित रहते ही पाना (या पितरों को उपलब्ध कराना) संभव है. इससे ही विश्व में धर्म अर्थात् righteousness का स्थायित्व संभव है.
इस कृत्य में पितरों सहित सभी के हित का विचार व भाव निज-हित की अपेक्षा अधिक था.
लेकिन समय बीतते-बीतते भाव-जागृति का कार्य एक किनारे होता चला गया और विभिन्न वैयक्तिक स्वार्थों ने उसका स्थान ले लिया. ...सर्वप्रथम मीडिएटर (पंडित-पुरोहित) करप्ट हुए, फिर देखा-देखी यजमान भी! आज का हाल सभी जानते हैं पर मानते नहीं हैं!
सब कुछ गलत भाव/तरीके/मंशा से करने से श्रेयस्कर है कि कुछ भी न किया जाए, बस मन ही मन श्रद्धा सुमन अर्पित किये जायें, वह भी यदि संभव हो तो! मुख से कुछ, कर्म से कुछ, मन में कुछ, दिल में कुछ; यदि सब कुछ भिन्न-भिन्न है, तो भारी गड़बड़ है और सब निराधार है! 'लकीर के फ़क़ीर' ही बनना है तो बात दूसरी है! "जहां भाव वहां देव", यह न भूलें! भाव के बिना सब निरर्थक और भाव की उत्पत्ति कार्यकारणभाव समझने से ही होती है, जिसका नितांत अभाव! निराधार श्रद्धा, अंधश्रद्धा समान ही है! इसे उतार फेंकें!

(२)
पहले से लिखे हुए पर बहुत ज्यादा विचार-विमर्श करने तथा पक्ष-विपक्ष में बहुत सारी दलीलें देने से हम मौजूदा हकीकत से परे चले जाते हैं. ..जब हम बहुत अधिक कंफ्यूज़ हों तो क्या आपको यह नहीं लगता कि हमें जीवन की फिलोसोफी व डिवाइन एनर्जी आदि के बारे में नए सिरे से कुछ अवधारणाओं या संकल्पनाओं के माध्यम से शुरू कर स्वयं ही तह तक पहुँचने का प्रयास करना चाहिए?
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विज्ञान एवं गणित में भी तो हम आरंभिक अवस्था में यही करते हैं! ..और फिर धीरे-धीरे गुत्थी को काफी हद तक सुलझा लेते हैं. ..और आगे भी विकास के क्रम में हम उसमें और आगे बढ़ते हुए सकारात्मक फेरबदल करते हुए उसे और अधिक परिष्कृत (refine) करते रहते हैं!
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सरल शब्दों में, किसी भी फिलोसोफी पर बेवजह बहुत अधिक मंथन पर अर्थ से अनर्थ हो जाता है और अलग-अलग कुनबे/फिरके बन जाते हैं, उस फिलोसोफी का मंतव्य, सार, रूप आदि विकृत हो जाते हैं. ..परस्पर द्वेष उत्पन्न होता है सो अलग!
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तो, या तो हमें प्रोग्रेसिव दृष्टिकोण से फेरबदल करना आना चाहिए, या तो फिर हम एक नए सिरे से यानी 'a' से, ऊपर सुझाये गए तरीके से पुनः शुरुआत करें (कंफ्यूज़न की स्थिति में).

(३)
हमारे गिरते 'सिविक सेन्स' के कारण आपने जो आशंका व्यक्त की है, उसमें आपने काफी उदारता दिखाई है!
यदि हालात ऐसे ही रहे तो मेरे विचार से तो हमें 'ठहरा' हुआ नहीं बल्कि 'गिरा' हुआ घोषित किया जाएगा, क्योंकि सड़ांध दिन-प्रतिदिन द्रुत गति से बढ़ रही है! हम भारतवासी भागदौड़, उठापटक, छीनाझपटी, विभिन्न भ्रष्टाचारों आदि में गहरे उतरते जा रहे हैं! आम आदमी को दिशानिर्देशित करने वाले आज के मीडियाकर्मी, राजनीतिज्ञ, धर्मगुरु, ब्यूरोक्रेट्स, डॉक्टर, संवैधानिक व्यवस्था से जुड़े लोग (जज, वकील, पुलिस), व्यापारीवर्ग, आदि सभी अभिजातवर्ग के लोग (ऊंचे व जिम्मेदार लोग) भी जब लगातार 'गिर' रहे हैं तो फिर आम आदमी का हाल क्या होगा इसकी सहज ही कल्पना की जा सकती है. हम आज पडोसी देशों से भारत की तुलना भी करते हैं तो किससे, ...पाकिस्तान से! ..चीन से क्यों नहीं? पाकिस्तान के मुकाबले अपनी उपलब्धियां गिना कर हम फूले नहीं समाते, ..और जब बारी आती है चीन से तुलना करने की, तो हम उसके नकारात्मक पक्षों की ही चर्चा करते हैं, सकारात्मक एवं सार्थक पक्षों को देखना ही नहीं चाहते! वास्तव में हम अकर्मण्य, कामचोर, भगोड़े, झूठे, मक्कार और भ्रष्ट होते जा रहे हैं- ऊपरी वर्ग से निचले वर्ग तक!
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फिर भी हमें (जो आज जागरूक हैं) रिपेयरिंग और रिफाईन्मेंट का प्रयास करना होगा एक नए सिरे से, एक नई सोच के साथ! ..हालात सुधरने में देर-सवेर हो सकती है पर सुधरेंगे कैसे नहीं, यह जोश होना चाहिए. ..और साथ ही होश भी! हम उबर सकते हैं, हम उबरेंगे; यदि हम जैसों की भावनाएं व इरादे नेक हों तो! ..वास्तव में आपसे मिलकर ख़ुशी हुई और एक आशा का संचार भी! क्योंकि दाग वही साफ कर सकता है जो दागों को देखना और महसूस करना जाने!

(४)
सही बात है आपकी कि जब तक हमारी 'सोच' परिष्कृत नहीं होगी, सभी वर्कशॉप फेल हो जायेंगी. यद्यपि इस प्रकार की ट्रेनिंग का मूल उद्देश्य 'सोच' को ठीक करना ही होता है, परन्तु बहुधा इनमें वो गहराई नहीं होती जो हमें अन्दर से झिंझोड़कर जगा सके, सचेत कर सके, वास्तव में 'अच्छा' और 'सच्चा' बना सके! गहराई आ पाना तब ही संभव है जब कुछ आध्यात्मिक दृष्टिकोण भी शामिल किया जाए.
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किसी के भी पूर्णतया स्वस्थ होने की चार शर्तें हैं- १. वह शारीरिक रूप से स्वस्थ हो, २. वह मानसिक रूप से स्वस्थ हो, ३. वह सामाजिक रूप से स्वस्थ हो, ४. वह आध्यात्मिक रूप से स्वस्थ हो.
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बहुधा हमारे वर्तमान समाज व शिक्षा में उपरोक्त क्रमानुसार १ से ३ पर तो ध्यान दिया जाता है पर ४ पर बिलकुल भी नहीं! ...उत्तर में शायद आप कहें कि अधिकांश लोग तो धार्मिक भी होते हैं, पूजा-पाठ आदि भी करते हैं! ..परन्तु यह सब करने का अर्थ यह कतई नहीं कि वह व्यक्ति आध्यात्मिक गुणों को प्रकट कर रहा है!
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इसे सारांश में समझने के लिए कृपया इसे पढ़ें- "आध्यात्मिक रूप से स्वस्थ अर्थात्"

(५)
आपने पारिवारिक व सामाजिक रिश्तों के बनने-बिगड़ने तथा उसके पीछे के कारणों, स्वार्थों आदि पर मनन किया है. एक युवा जब जीवन के इस पक्ष की ओर गंभीरता से निहारता है तो मन में एक उम्मीद जगती है कि हमारे समाज में मानवीय मूल्य शायद पुनः स्थापित हों! ..शायद हम व्यर्थ की भागमभाग से ऊपर उठकर जीवन के असली पहलुओं को जानें-पहचानें! ...दुर्भाग्य से आज की युवा पीढ़ी में इसका अभाव है क्योंकि उन्हें इस सम्बन्ध में अपने बड़ों से ही कोई शिक्षा या प्रेरणा नहीं मिली! ..देखा जाए तो पिछली कई पीढ़ियों से हम रूपए-पैसे, स्वार्थ आदि को ही महत्व दे रहे हैं, मानवीय मूल्यों को नहीं! रिश्तों को भी हम स्वार्थानुसार ही बनाते-बिगाड़ते हैं! अब हमें जागना और बदलना होगा, तभी हम अन्दर से खुश होंगे, हमारी प्रसन्नता टिकाऊ होगी और यह जीवनशैली हमें ठोस रूप से संतोष देगी!

(६)
जहां कोई 'मत' होगा, वहां मतभेद अवश्य होगा; जहां कोई 'वाद' होगा, वहां विवाद होना निश्चित है.
लेकिन विज्ञान में थोड़ा अलग है. वहां हर चीज काफी ठोस तथ्यों पर आधारित होती है, अतः मतभेद या विवाद बहुत कम होते हैं. साइंस को हिंदी में विज्ञान या शास्त्र (जैसे- भौतिक-शास्त्र या भौतिक विज्ञान, रसायन-शास्त्र या रसायन विज्ञान) कहा जाता है. विज्ञान, साइंस या शास्त्र (समझने के लिए कुछ भी कहें), यह सिद्धांतों पर आधारित होता है, वे भी ऐसे सिद्धांत जिन्हें सब सरलता से देख सकें या कम से कम महसूस या अनुभूत कर सकें.
वर्तमान में प्रचलित धार्मिक-सिद्धांतों (?) में कुछ भी ऐसा नहीं, क्योंकि सिद्धांतों का आज वजूद ही नहीं, ..वे सब टूटफूट चुके हैं, विकृत हो चुके हैं; ..हमीं ने या हमारे आकाओं ने ऐसा किया है! बेवजह की मनमानी से वे सिद्धांत, अब सिद्धांत रह ही नहीं गए, ..इसीलिए अब काफी अरसे से विभिन्न 'मत' एवं 'वाद' बनते हैं. ..हम जितने खोखले (निराधार/सिद्धांत-रहित) 'मत' और 'वादों' को जन्म देंगे, उतने ही मतभेद व विवाद जन्म लेंगे! आज भारत में हर जगह यही हो रहा है और मानवता पिसती जा रही है!

(७)
ब्रह्माण्ड का एक निराला सिस्टम है. इस सिस्टम के जितने भेद खुलते जा रहे हैं, वे विज्ञान की परिधि में आते चले जा रहे हैं. ..और इस सिस्टम के जो भेद मनुष्य अभी तक नहीं जान सका है, उसके अंतर्गत होने वाली किसी भी रचनात्मक या विध्वंसात्मक गतिविधि के लिए अज्ञानी लोग ईश्वर को जिम्मेदार ठहराते हैं.
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हाँ, जब बात इसकी आती है कि यह सिस्टम ओरिजिनेट किसने किया? तो हम मात्र एक सुप्रीम पॉवर की कल्पना कर सकते हैं, इसी सुप्रीम प्राधिकारी को हम ईश्वर-अल्लाह का नाम दे देते/सकते हैं.
विज्ञान में भी तो अनेकों कल्पनाओं से शुरू करके आगे बढ़ते हैं, और आगे उनमें से अनेक कल्पनायें (सब नहीं) हकीकत में बदलती हैं.
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लेकिन फ़िलहाल हम एक नतीजे पर तो पहुँच ही चुके हैं कि प्रकृति में सब कुछ नियमबद्ध है, जो उन नियमों का आदर करता है, वह सुखी रहता है और जो उनका उल्लंघन करता है वह किसी परेशानी में अवश्य पड़ता है.
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लेकिन इसके उलट, ..बिना उल्लंघन किये भी जब कोई परेशानी में पड़ता है और आदर न करने के बावजूद भी कोई सुख में है तो इस विपरीत स्थिति का समाधान हम एक्शन-रिएक्शन के सिद्धांत से पाते हैं. प्रकृति या विज्ञान के नियमानुसार, त्वरित और विलंबित, दोनों प्रकार के रिएक्शन संभव हैं.., और यदि ऊर्जा की अक्षुण्णता व संरक्षण का सिद्धांत भी इसमें जोड़ दें तो रिएक्शन का किसी कनवर्टेड फॉर्म में आना भी संभव है! मोटे तौर पर- पॉजिटिव के फलस्वरूप पॉजिटिव, नेगेटिव के फलस्वरूप नेगेटिव प्रतिक्रिया; लेकिन कब (त्वरित/विलंबित), किस अवस्था (फॉर्म) में और किस माध्यम से, इसकी सटीक गणना करने में अभी मौजूदा विज्ञान असमर्थ है!
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यानी इन सब की मदद से हम मोटे तौर से इस नतीजे पर पहुँच सकते हैं कि कोई भी एक्सीडेंट, एक्सीडेंटली नहीं होता!!!
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विज्ञान में भी आरंभिक अवस्थाओं में हम मोटे (धुंधले) तौर पर ही किसी नतीजे पर पहुँचते हैं और बाद में शायद किसी ठोस नतीजे पर!