Tuesday, August 2, 2016

(७४) बढ़ते अपराध

आजकल हर प्रकार के अपराध बहुत बढ़ रहे हैं, विशेषकर उत्तर प्रदेश, बिहार, राजस्थान, दिल्ली, हरियाणा जैसे राज्यों में। समाचारपत्र अपराधों की खबरों से भरे रहते हैं। मूल कारण खोजें तो वही मिलता है कि समाज में नैतिक मूल्यों में निरंतर गिरावट। लेकिन नैतिक मूल्यों में गिरावट आखिर आ क्यों रही है? बहुधा इसका मूल कारण गरीबी और अशिक्षा बताया जाता है! किन्तु विभिन्न सर्वेक्षण बताते हैं कि इन दोनों ही क्षेत्रों में पर्याप्त सुधार हुआ है। फिर क्यों अपराध बढ़ रहे हैं? सर्वेक्षणों की रिपोर्ट गलत नहीं है। समाज की औसत आय पहले की तुलना में बेहतर अवश्य हुई है, दूरदराज बहुत से स्कूल-कॉलेज भी खुल गए हैं। लेकिन इन सब के साथ लोगों में लालच, ईर्ष्या और भौतिकता के प्रति आकर्षण भी बढ़ गया है। आवश्यकताएं, आकाक्षाएं, महत्वाकांक्षाएं, अपेक्षाएं, परस्पर होड़, दिखावा आदि बढ़ गया है। और इन सब की पूर्ति के लिए लोग किसी भी हद तक जाने को तैयार रहते हैं। इन राज्यों का सिस्टम, सरकारें, अध्यापक, गुरु आदि आम लोगों के समक्ष नैतिकता के ठोस एवं ज्वलंत उदाहरण प्रस्तुत करने में सर्वथा अक्षम हैं। यही मूल कारण है कि यहां अराजकता बढ़ रही है। सभी अंधे होकर भौतिकता के पीछे भाग रहे हैं।

कुछ ही वर्ष पहले एक समय था जब..., जो पैदल था, वह कभी साइकिल में भी बहुत खुश हो जाया करता था; जिसके पास फोन नहीं था, वह बात करने के लिए फिक्स फोन से ही संतुष्ट हो जाता था; कभी वेतनभोगी या सामान्य व्यवसाई १ लाख रुपए एकत्रित कर लखपति कहलाकर ही आह्लादित हो जाता था; परिवार में एक कमाता था और १० खाते थे फिर भी सब खुश रहते थे; संयुक्त परिवार जीवनयापन के लिए अपना एक ही मकान जुटाकर प्रसन्न हो जाता था; दिलों में सरलता और सहजता थी; आवश्यकताएं विकराल रूप में न थीं; होड़, जलन, दिखावा आदि इतना अधिक न था।

यह सच है कि समय के साथ व्यक्ति की आमदनी और क्रय क्षमता बढ़ी है। लेकिन अब पैदल व्यक्ति साइकिल या मोटरसाइकिल के नहीं बल्कि कार के सपने बुनता है, वो भी महंगी से महंगी! साधारण मोबाइल फोन जेब से निकालते समय व्यक्ति सकुचाता है, शर्म महसूस होती है। उसे अब नियमित रूप से अपग्रेडेड मोबाइल डिवाइसेस चाहियें। एक लाख तो अब हाथ की मैल हो चुका, साधारण छोटा सा फ्लैट ही ३०-४० लाख का आता है, सो व्यक्ति करोड़ों के सपने देखता है। एक संयुक्त परिवार अनेक एकल परिवारों में विभाजित हो चुका है, अब गृहणी भी कमाती है फिर भी दिलों में डर बना रहता है कि अभी भी बचत कम हो रही है! सही बात तो यह है कि बचत होती भी कम ही है क्योंकि वाहन, मोबाइल, गैजेट्स, मकान, महंगे परिधान, ज्वेलरी, और बढ़ चुकी आवश्यकताएं दंपति की कमाई का एक बड़ा हिस्सा खा जाते हैं।

आज जो नहीं कमाता है उसको तो अभाव है ही, लेकिन जो बहुत कमाता है वो भी अभावग्रस्त है! बहुत बड़ी विडम्बना है यह! जिसके पास अपना मकान नहीं वो तो त्रस्त है ही, लेकिन जिसका अपना मकान हो भी गया वो आगे दो-चार और मकान या प्लाट खरीदने की उधेड़बुन में रहता है। जिसके पास दो-चार संपत्तियां हो गयीं उसकी रातों की नींदें उड़ जाती हैं उनको सहेजने व संभालने के लिए! आज निर्धन ही नहीं बल्कि संपन्न परिवारों के भी बच्चे और किशोर लड़के-लड़कियां मौज-मस्ती व अन्य महत्वाकांक्षाओं की पूर्ति के लिए विभिन्न प्रकार की चोरियां और डकैतियां तक करते हैं। इसके अतिरिक्त बाल्यावस्था से ही मोबाइल और इन्टरनेट के संपर्क में भली-भांति आ जाने से बच्चे समय से पूर्व ही वयस्क हो जाना चाहते हैं और विभिन्न प्रकार की यौन कुंठाएं उनके कोमल मन-मस्तिष्क में भर जाती हैं। इसी कारण से किशोरों में यौन अपराध भी अत्यधिक मात्रा में बढ़ गए हैं। बचपन से ही अपने अभिभावकों को वन टू का फोर करते हुए पैसे के पीछे भागते हुए देखते हैं, सो वे संस्कार तो उनमें बालावस्था से ही आने आरंभ हो जाते हैं। अब भला अपराध कैसे न बढ़ेंगे!!!

कुल मिलाकर हमारी बिगड़ी जीवनशैली ही हमारे नैतिक पतन का कारण है, गरीबी या अशिक्षा नहीं। जिन राज्यों की आम जीवनशैली में सरलता, सहजता, ईमानदारी, संतुष्टि आदि हैं वहां पर अपराध अपेक्षाकृत कम हैं। अब हमारे समाज को उन्नत या अवनत करना हमारे अपने हाथ में है कि हम अपनी जीवनशैली को कितना संतुलित अथवा असंतुलित रखते हैं। आज का कड़वा सच यही है कि भौतिक दृष्टि से तो हम नित नवीन तरीके खोजकर निरंतर उन्नत हो रहे हैं लेकिन मानसिक एवं आध्यात्मिक दृष्टि से हम निरंतर पतन की ओर जा रहे हैं। प्रकृति में, मानव देह में, उसकी मूलभूत आवश्यकताओं में, गुणधर्मों में तो विगत हजारों वर्षों से कोई परिवर्तन नहीं आया है, फिर हम क्यों अपने जीवन में नित इतना अधिक परिवर्तन करने की चाहत रखते हैं?? यह अत्यधिक चाहत ही हमें बीमार बना रही है। स्वयं भी एक प्राकृतिक वस्तु होने के कारण हमारा प्रथम कर्तव्य बनता है कि प्रकृति ने जिस मूल रूप में एवं उद्देश्य से हमें बनाया, हम उसे जानने और खोजने की चेष्टा करें तथा उसे बनाये रखने का प्रयत्न करें। मेरा विचार है कि प्राकृतिक सिस्टम अपरिवर्तनीय है! हम जबरन उसे हिलाने का प्रयास करेंगे तो खुद ही हिल जायेंगे! क्या नित ऐसा होते नहीं देख रहे हैं हम??

ऐसी खोजों, परिवर्तनों आदि का स्वागत होना चाहिए जो हमें प्राकृतिक रूप से उन्नत होने में मदद करें। प्राकृतिक रूप से तात्पर्य है कि बिना हमारे मूल रूप, गुणधर्म और स्वभाव को छेड़े; बिना हमारे दिलों पर स्वाभाविक रूप से अंकित नैतिकता को छेड़े। अर्थात् हम भौतिक रूप से उन्नत अवश्य हों पर बिना राक्षस या असुर बने। जो भौतिक प्रगति हमें इंसान से देवता बनाने के बजाए आसुरी वृत्ति की ओर ले कर जाये उसे फिर से जांचना अति आवश्यक। किसी ने सत्य ही कहा है कि प्रकृति के पास हमारी आवश्यकताएं पूर्ण करने के लिए तो पर्याप्त है किन्तु लालच की पूर्ति हेतु वह सक्षम नहीं।

पेट भरना जरूरी है,लेकिन आवश्यकता से अधिक खाने से भी हमारी जान खतरे में पड़ सकती है। जल तो जीवन है ऐसा कहा जाता है, पर प्यास से अधिक पानी पीने पर क्या शरीर प्रतिरोध नहीं करता? जीवनदाई समझकर क्या हम पानी को ढेर सारा पी सकते हैं? डूबकर मरने वाला व्यक्ति अत्यधिक पानी ही निगल गया होता है! ऐसे ही अन्य भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति भी एक सीमा तक ही आवश्यक, उसके परे जाने पर हमारा सुख-चैन और मनुष्यत्व तक खतरे में पड़ सकता है ऐसा कभी विचार करते हैं क्या हम? कम से कम जहां-जहां स्थितियां बिगड़ी हुई हैं वहां-वहां हम ऐसा मान सकते हैं कि हम अत्यधिक खाने और बटोरने की फिराक में हैं, सो बीमारियां फैली हुई हैं। इति।