Friday, May 19, 2017

(७७) भ्रष्टाचार का वायरस

पिछले दिनों मेरे एक वरिष्ठ मित्र ने वर्तमान में समक्ष खड़े कुछ ज्वलंत सवालों या मुद्दों को सोशल मीडिया पर उठाया। ये मुद्दे हैं -- भ्रष्टाचार, आरक्षण के नुकसान, संविदाकर्मियों का दुखड़ा, सरकारी शिक्षकों की अकर्मण्यता, चिकित्सा सेवाओं के हाल-बेहाल, किसानों की कर्जा माफी, महंगाई, नोटबंदी, आतंकवाद, अलगाववाद, महिला आरक्षण बिल।

अभी हम इन उपरोक्त मुद्दों में से प्रथम यानी "भ्रष्टाचार" को ही लेते हैं, क्योंकि मेरे हिसाब से "भ्रष्टाचार" शब्द के अर्थ की परिधि बहुत बड़ी है और इसमें हमारे समाज के लगभग सभी दुर्गुण समाहित हो जाते हैं।
"भ्रष्टाचार" अर्थात् "भ्रष्ट आचार" अर्थात् भ्रष्ट आचरण या भ्रष्ट चालचलन या भ्रष्ट प्रबंधन या भ्रष्ट नीति या भ्रष्ट आचारसंहिता या भ्रष्ट दस्तूर या भ्रष्ट सलूक या भ्रष्ट नियम-कानून या भ्रष्ट अनुष्ठान या भ्रष्ट कार्यवाही। अंग्रेजी में "भ्रष्टाचार अर्थात् "corruption" अर्थात्-- CORRUPTED conduct, ethics, manners, customs, ethos, moral, praxis, proceeding, rules of conduct, deportment, behaviour, law, law and order, principle, rite, etc.

कंप्यूटर में जब कोई वायरस घुसकर फाइल्स को करप्ट करना शुरू करता है तो हम एंटीवायरस की मदद लेते हैं। लेकिन एंटीवायरस को परास्त कर वह वायरस यदि सिस्टम की लगभग सभी फाइलों को corrupt कर देता है तो हम संकट में पड़ जाते हैं और हमें बहुत नुकसान उठाना पड़ता है। अंततः समस्त डाटा को धो कर कंप्यूटर के सॉफ्टवेर का पुनर्निर्माण (reinstallation) करना पड़ता है। बाद में हम अपेक्षाकृत अधिक तगड़ा एंटीवायरस डालते हैं। पर क्या हम आंख मींचकर इस नए एंटीवायरस पर विश्वास कर सकते हैं?? शायद नहीं!! ..तो अब हम क्या करते हैं कि अब हम कंप्यूटर को बहुत सावधानी से उपयोग करते हैं; अनावश्यक, असुरक्षित या संदेहास्पद साइट्स पर जाने से बचते हैं। यानी हमारे काम करने का तरीका अब संयमित और संतुलित हो जाता है। यानी अपनी सोच, बुद्धि और विवेक को अब हम निरंतर परिष्कृत करते हुए जाग्रत या सचेत रहते हैं और खतरों व उनसे होने वाले नुकसान से बचे रहते हैं।
अर्थात् हमने देखा कि वायरस हमले से सिस्टम को corrupt होने से बचाने हेतु मन, बुद्धि, आदि को नियंत्रित करना और सोच को परिष्कृत एवं संतुलित करना ही स्थाई उपाय है (भला एंटीवायरस कहाँ-कहाँ तक हमारी रक्षा करेगा)।
इसी प्रकार, नित नए नियम-कानून (एंटीवायरस) बनाकर हमारे समाज में व्याप्त घने भ्रष्टाचार (वायरस के हमले) को भेद पाना संभव नहीं!! हमें लोगों के "बुनियादी" आचार-विचार को परिष्कृत करने पर जोर देना होगा।
जरा सोचिए तो कि हम लोग भ्रष्ट आचरण करते ही क्यों हैं, इसकी जड़ कहाँ पर है? इसकी जड़ें हैं हमारी मूल सोच में! हमारी बुनियादी सोच ही जब भटकी हुई हो तो हमारे समस्त क्रिया-कलाप तो भटकेंगे ही! किसी भी आचार या आचरण का सीधा सम्बन्ध हमारी सोच (मानसिकता) से है। हमारी सोच में आज भटकाव बहुत अधिक है, शायद यही कारण है कि बहुधा हम अपने असल जीवन में अनावश्यक, असुरक्षित और संदेहास्पद दिशाओं में अपने मन को दौड़ाते रहते हैं और बेवजह ही संकटों में पड़ते रहते हैं। कहने को हम बहुत व्यस्त रहते हैं, बहुत काम करते हैं; लेकिन बदले में अंततः हम बोझिल थकान ही पाते हैं। अचीवमेंट या ठोस उपलब्धि की भावना हममें नदारद ही रहती है। इतनी व्यस्तता के पश्चात् प्रसन्नता भी जो हम पाते हैं वो भी बहुत टिकाऊ नहीं होती! बस दौड़ते जा रहे हैं हम अंधे विक्षिप्त की भांति! फिजिक्स की भाषा में कहें तो - डिस्टेंस तो बहुत ट्रेवल करते हैं हम, परन्तु डिस्प्लेसमेंट बहुत कम पाते हैं! वजह वही कि हम बस भागे जा रहे हैं, व्यस्तता अपनाये और ओढ़े हुए हैं; कहाँ अपना समय और ऊर्जा खर्च करने हैं इसका होश हम गवां बैठे हैं!!
आज एक आम भारतीय नौजवान की वरीयताओं पर एक नजर डालिए- किसी तरह पढाई, फिर नौकरी (जिसमें काम हल्का और वेतन तगड़ा हो; काम ज्यादा भी कर लेंगे मगर वेतन बढ़िया हो), काम के घंटों में और इसके आगे-पीछे भी व्हाट्सएप, फेसबुक, गाने, वीडियो-गेम, फिल्में, गर्ल या बॉय फ्रेंड का साथ, कार, पार्टियाँ, आदि-आदि। हमारे आकाओं और सरकार को भी मोटे तौर पर यही लगता है कि नौकरी और पैसा कमाना ही सबसे अधिक महत्वपूर्ण है (शिक्षा की गुणवत्ता जाये भाड़ में)। तो समाज में नयी-नयी नौकरियों का सृजन होने लगा। नौकरियों के सृजन के लिए नियोक्ताओं द्वारा नए-नए काम ढूंढे जाने लगे। दिल्ली, लखनऊ जैसी राजधानियों में अब नौकरियों या काम की कोई कमी नहीं है, यदि नौजवान लड़का या लड़की बस करने को तत्पर हो जाये तो (यानी वो कामचोर न हो तो)। तनख्वाह की कोई चिंता नहीं कितनी भी हो चलेगा, बस इन्टरनेट और मनोरंजन का निकलता रहे तो भी गनीमत! कॉमन यूथ इसी दिशा में भाग रहा है। बड़े शहरों में उपभोक्तावाद को बहुत बढ़ावा मिलने से कॉमन मैन की दिमागी और शारीरिक व्यस्तता बेकार में ही बहुत बढ़ गयी है। घर-बाहर के काम बहुत बढ़ गए। उन कामों को स्वयं करना व्यस्तता के कारण बहुत दूभर हो गया। उन कामों को किसी अन्य से करवाना भी बहुत पेचीदा और खर्चीला हो गया। तो फिर अनेक बिचौलिया कंपनियां खुल गयीं आपकी मदद के लिए। तो फिर उनमें कर्मचारी भी रखे गए। काम और नौकरियां बढती गयीं और बढती जा रही हैं! समझ में नहीं आ रहा कि इसकी सराहना करूं या आलोचना करूं! मेरी समझ में इस सब भागमभाग में आज का यूथ सामाजिक सरोकारों, जानकारियों, कर्तव्यों आदि से दूर होता चला जा रहा है। सामान्य ज्ञान भी औसत से कम होता जा रहा है, मानवीय भावनाएं कम होती जा रही हैं, शुष्कता बढ़ती जा रही है, मशीन सा बनता जा रहा है मानव! सब बिजी हैं और अपने किसी भी काम के लिए दूसरे पर निर्भर हैं! सब एक-दूसरे का काम कर रहे हैं, एक-दूसरे के लिए काम कर रहे हैं; यही उनका काम है और यही उनकी नौकरी है, और उस काम के बदले दूसरे को पैसा दे रहे हैं और दूसरे से पैसा ले भी रहे हैं। हमारा ही पैसा हमारे ही बीच में घूम रहा है! मैं भी दूसरों का काम करने के लिए नौकरी करता हूँ, पैसा कमाता हूँ, व्यस्त रहता हूँ; फिर कमाई हुई तनख्वाह से मैं अपने काम अन्यों से करवाता हूँ! चक्र चलता रहता है। हर कामकाजी व्यक्ति गर्व से कहता है कि मैं नौकरी करता हूँ, और साथ ही यह भी कहता है कि मैं अपने हर काम नौकरों से करवाता हूँ! अपने से जुड़े छोटे-छोटे कामों के लिए आज हम दूसरों पर निर्भर हैं, और दूसरे लोग किन्हीं अन्य तीसरों पर!! और यह सब व्यायाम-कसरत इसलिए कि सबको नौकरी चाहिए, पैसा चाहिए! ..और पैसा भी बहुत सारा, क्योंकि आवश्यकताएं तो दिन-प्रतिदिन बढती जा रही हैं या हम बढाते जा रहे हैं!
तो फिर जब पैसा बहुत सारा चाहिए तो किसी को तो धोखा देना ही पड़ेगा, किसी को तो बेवकूफ बनाना ही पड़ेगा! खुद को आलरेडी इतना व्यस्त कर देने के बाद सोचने-विचारने की इतनी क्षमता ही कहाँ बची कि नैतिकता को निहारा जा सके! सो नैतिकता को बिसार दिया, नकार दिया और हो गए हम भ्रष्ट; और करने लगे "भ्रष्टाचार" धड़ल्ले से!
जब-जब संयम के बाँध तोड़कर अनावश्यक ही इधर-उधर सर्फिंग की तो अपने कंप्यूटर सिस्टम को corrupt कर लिया ..और वास्तविक जीवन में भी जब-जब संयम के बांध तोड़कर अनावश्यक ही मन और शरीर को इधर-उधर व्यस्त करके उलझा लिया तो अपने आचारों को भ्रष्ट कर लिया! ऐसे ही भ्रष्टाचार पनपा।
तो अंतत हमने पाया कि भ्रष्टाचार रूपी वायरस को पूर्णतया (जड़ से) समाप्त करने के लिए मन और बुद्धि को स्वच्छ, संयमित एवं अनुशासित करने की आवश्यकता है। बहुत सारे नियम-कानून (एंटीवायरस) हमारे सिस्टम के संक्रमित न होने की कोई गारंटी नहीं दे सकते! हमारी भ्रष्ट और भटकी सोच ही हमारे भ्रष्ट आचार का मूल कारण है!
सरकार और समाज के वर्तमान क्रियाकलापों का यदि सूक्ष्म दृष्टि से अवलोकन किया जाये तो हम पायेंगे कि नौकरी या काम आदि के लिए की जा रहीं बहुत सी कसरतें मात्र समय और ऊर्जा का भारी दुरुपयोग हैं! इनसे भागमभाग (विकास की सूजन) तो बढ़ रही है पर राष्ट्र का असली विकास बुरी तरह से बाधित हो रहा है। इस राष्ट्र के सभी लोग प्रचंड रूप से व्यस्त तो होते चले जा रहे हैं पर मानवता, नैतिकता, गरिमा और विकास आदि सब रसातल में जा रहे हैं।
अंत में व्यर्थ की कसरत का मात्र एक उदाहरण देता हूँ-- दोपहिया वाहन का थर्ड पार्टी बीमा। कुछ पुराना हो जाने पर हमारे यहाँ लोग अक्सर अपने दोपहिया वाहन का थर्ड पार्टी बीमा कराते हैं। ऐसा क्यों? क्योंकि वो अब यह सोचते हैं कि पर्याप्त ध्यान रखने पर गाड़ी चोरी नहीं होती और एक्सीडेंट भी नगण्य होता है, परन्तु इसके मुकाबले डर के कारण हर साल भारी प्रीमियम बीमा कम्पनी को देना पड़ता है। तो जागरूक उपभोक्ता थर्ड पार्टी बीमे पर आ जाते हैं। वो क्या और क्यों होता है? मेरी समझ से यदि मेरी बाइक से किसी को कोई चोट या नुकसान पहुंचे तो पीड़ित व्यक्ति हर्जाना मांग सकता है; ऐसे में इंश्योरेंस कंपनी हमारी तरफ से वो हर्जाना पीड़ित को अदा करेगी। पिछले वर्ष तक यह बीमा लगभग सात-आठ सौ रुपये में होता था (अभी शायद बढ़ गया है) और हर वाहनधारी कानूनन यह बीमा करवाने को बाध्य है, यह अनिवार्य है; इसीलिए सब इसे करवाते हैं। किसी भी महानगर में लाखों दोपहिया वाहन होते हैं, दर्जनों बीमा कंपनियां हैं, उनके बीसियों कार्यालय हैं, वहां सैकड़ों-हजारों कर्मचारी और एजेंट्स हैं, वेबसाइट्स भी हैं; ऑनलाइन या मैन्युअली प्रीमियम देने के विकल्प हैं, एजेंटों की सेवा भी ली जा सकती है। तो वहां प्रतिदिन लाखों-करोड़ों रूपया प्रीमियम के रूप में एकत्रित होता है; इस राशि का एक बड़ा अंश बीमा कार्यालय की बिल्डिंग, किराये, वेबसाइट्स और मुख्यतः कर्मचारियों की तनख्वाह पर खर्च होता है। इस राशि का एक बहुत छोटा सा अंश अत्यल्प पीड़ितों को हर्जाना देने में और शेष बचा अंश बीमा कंपनी के मालिकों को जाता है। अब देखिये, RTO कार्यालय व्यस्त, चेकिंग स्टाफ व्यस्त, उपभोक्ता व्यस्त, बीमा कम्पनियाँ व्यस्त, और तो और घूसखोर भी व्यस्त!! एक ही शहर में लाखों रुपये डेली का कलेक्शन, हजारों व्यस्त, सैकड़ों को रोजगार, और विरले ही (कभीकभार) किसी को हर्जाना देने की नौबत!! इस भ्रष्ट व्यवस्था में मैंने तो आजतक दोपहिया वाहन से चोटिल किसी 'असली' पीड़ित को कानूनन हर्जाना ठोकते नहीं देखा और न ही सुना, न कभी पढ़ा! मेरी निगाह में दोपहिया वाहन का यह बीमा कानून एक फिजूल की कसरत है, इससे असली फायदा बीमा कंपनी मालिक को है न कि किसी पीड़ित को (क्योंकि वे तो अत्यल्प अथवा नगण्य हैं); और बीमा कंपनी टिप के तौर पर अपने कर्मचारियों को तनख्वाह देती है। अधिकांश नौकरियों व काम आदि का सृजन आज ऐसे ही होता है। इति।