Friday, June 30, 2017

(७८) बुजुर्गों के साथ संतानों का व्यवहार

अक्सर बहुत सी शिकायतें होती हैं हमें! ...कुछ अपने भाग्य से, कुछ वर्तमान समय से और कुछ अपनी संतानों या नई पीढ़ी के व्यवहार से। कुछ दिन पूर्व सोशल मीडिया पर इन्हीं शिकायतों से सम्बंधित किसी के तीन दुखड़े पढ़े-
(१) "आज की पीढ़ी बहुत समझदार हो गयी है। आज लोग अपनी सुविधा और उपयोग के हिसाब से रिश्तों का मूल्यांकन करते और निभाते हैं। समय और उपयोगिता के हिसाब से रिश्ते निभाने का गणित बदलता रहता है। जो रिश्तों की इस गणित को नहीं समझता या उचित नहीं मानता, उसे दुखी होना ही पड़ेगा या फिर उसे रिश्ते खारे लगेंगे या फिर वह सब से कटकर ही रह पाएगा। बुजुर्गों की अहमियत इसीलिए खत्म होती जा रही है, वृद्धाश्रम की जरूरत इसीलिए बढ़ गयी है।"
(२) "माता को मंदिरों में पूजने से पहले अपने घर में अपनी माता को तो देखें कि उसे कोई तकलीफ तो नहीं है। वह खुश है न? यदि हम उसकी सुध नहीं ले सकते, वह प्रसन्न नहीं है तो दुनिया के किसी मंदिर में, किसी माता को हम प्रसन्न नहीं कर सकते और उसकी कृपा या आशीर्वाद प्राप्त नहीं कर सकते।"
(३) "लोग कहते हैं कि जब कोई अपना दूर चला जाए तो तकलीफ होती है। परन्तु असली तकलीफ तब होती है जब कोई अपना पास होकर भी दूरियां बना ले।"

यहाँ शिकायत मुख्यतः अपनों से है। ...और अपने भी वे, जो शिकायतकर्ता की अगली पीढ़ी के हैं।

मेरा दृष्टिकोण -- यदि किसी भी स्थिति (हालात) पर तटस्थरूप से दृष्टिपात किया जाये तो हम पायेंगे कि कोई भी स्थिति अकारण नहीं उपजती। उसके मूल में कोई तो कारण अवश्य होता है। और यदि वह स्थिति हमसे भी सम्बंधित है तो उस स्थिति के उपजने के मूलभूत कारणों में से एक, हम भी हैं। और यदि वह स्थिति (हालात) व्यक्तिगत रूप से सिर्फ मेरे से ही सम्बंधित है तो उस स्थिति का मूलभूत कारण भी मुख्यतः मैं स्वयं ही हूँ!
ईश्वर या प्रकृति के इस अनोखे ब्रह्माण्डीय सिस्टम में सबकुछ क्रमबद्ध है, अटल है। मनुष्य रूप में हर व्यक्ति निरंतर कुछ बोता रहता है और कुछ काटता रहता है। बीज के अनुसार ही फसल का निर्माण होता है। विज्ञान भी इस बात पुष्टि "क्रिया-प्रतिक्रिया" के सिद्धांत द्वारा करता ही है। प्रत्येक क्रिया की प्रतिक्रिया तो अवश्यंभावी है। हाँ, प्रतिक्रिया त्वरित या विलंबित हो सकती है, उसका स्वरूप भी बदल सकता है। लेकिन इस त्वरित या विलंबित या बदले स्वरूप की सटीक गणना व व्याख्या करना तो विज्ञान के लिए भी संभव नहीं है।
अर्थ यह कि, व्यक्ति को उपरोक्त सिद्धांत और सिस्टम पर पूरा भरोसा रखकर समस्त कर्म करने चाहियें। जिस दिन जिस व्यक्ति का विश्वास इस सिद्धांत पर जम जायेगा, उस दिन से उसके तो अच्छे दिन आने शुरू हो जायेंगे!
अच्छे दिनों से अर्थ यह कि, चिंता से और शिकायत से मुक्ति। सैद्धांतिक रूप से बलिष्ठ होते ही हमारे द्वारा बोये जाने वाले बीजों की गुणवत्ता का हम खास ध्यान रखेंगे, खेत की मिट्टी को भी सुरक्षित तरीकों से उपजाऊ बनायेंगे, क्योंकि अब हम अच्छे से जानते हैं कि आने वाली फसल की गुणवत्ता हमारी इसी सचेतना पर निर्भर है। सिस्टम हमें अच्छे नतीजों के लिए पूर्णतया आश्वस्त करता है। हममें से लगभग सभी इस बात को जानते हैं लेकिन इस सिद्धांत पर विश्वास रखकर अपने समस्त कर्म कितने करते हैं! सिस्टम को धोखा देकर बच निकलना असम्भव ही है!
और जब हम सिस्टम की अपेक्षाओं के अनुसार स्वतः ही खरे कर्म करने लगते हैं तो कुछ समय पश्चात् हमारे साथ बहुधा अच्छा ही घटित होने लगता है। बुरा भी घटित होता है, लेकिन जब बुरा घटित होता है तो हम तुरंत समझ जाते हैं कि यह कोई ईश्वर का प्रकोप नहीं, किसी की बुरी नजर नहीं, दुर्भाग्य नहीं; बल्कि यह तो हमारे द्वारा अतीत में बोये गए किसी गलत बीज की कड़वी फसल है जो हमें कुछ विलम्ब से प्राप्त हुई!
हम कमजोर मानवों का यह स्वभाव होता है कि हमें कोई भी दुःख बहुत बड़ा लगता है और बड़े से बड़े सुख को कुछ ही क्षणों में बिसरा देते हैं। या फिर कभी ऐसा भी करते हैं कि जैसे किसी दुर्घटना में जान बाल-बाल बची तो उसका श्रेय अपने द्वारा किये पुण्यों को देते हैं; और जब कभी कुछ दुखद हो जाये तो कारण या दोष किसी अन्य में ढूंढते हैं! यानी हम ऐसा समझते हैं कि अच्छा तो अपने कारण हुआ और बुरा किसी अन्य के कारण!!! जबकि वास्तविकता यह है कि अच्छा भी अपने कारण होता है और बुरा भी अपने ही कारण (बात जब व्यक्तिगत स्तर की हो तब)।
अब समझ में आ रहा होगा कि कुछ बच्चे या नौजवान अपने माँ-बाप को क्यों नहीं पूछते! यह पूर्व की किसी गलत क्रिया के बदले में आयी एक दुखद घटना है! कोई अपरिचित भी मुझे यूं ही गाली देता है तो प्रथम प्रश्नचिह्न मुझे स्वयं खुद के ऊपर लगाना चाहिए कि यदि वह पागल नहीं तो अकारण तो वह मुझे गाली नहीं देगा!
मूलतः बच्चों को इस अपेक्षा, आशा या स्वार्थ के साथ पालना ही गलत है कि बड़े होकर वे हमारा ध्यान रखेंगे। प्रत्येक उस पुण्य का मीठा फल अवश्य मिलता है जो असली हो; लेकिन असली पुण्य तो वह है जो निःस्वार्थ हो। स्वार्थ की भावना रखकर किया गया लालन-पोषण बच्चे में भी स्वार्थ-रूप में प्रतिबिंबित होगा। और यदि आप स्वार्थ से पूर्णतया परे रहे तो भी संतान ने दुःख पहुँचाया तो अवश्य ही यह पूर्व की किसी अन्य गलत क्रिया की परिवर्तित अवस्था में आयी एक कड़वी प्रतिक्रिया है।
अच्छा तो हो कि हम अपना ध्यान मात्र नौनिहालों के चरित्र निर्माण पर, उनके अच्छा नागरिक और विशाल हृदयी बनने पर केन्द्रित करें, वह भी किसी बड़े लक्ष्य हेतु, जो केवल हमसे सम्बद्ध न होकर समष्टि (सम्पूर्ण मानवजाति) के हित से सम्बंधित हो। हमारा हित तो यह ईश्वरीय सिस्टम बोनस में साध देगा।
हमारा ध्येय सर्वश्रेष्ठ संस्कार प्रथम स्वयं धारण कर, तदुपरांत उन्हें अमल में लाते हुए अपने नौनिहालों को भी उनके लिए प्रेरित करना होना चाहिए। हम उन्हें संस्कारवान या धर्मनिष्ठ (righteous) बनाने की भरसक कोशिश करें पर जिद नहीं कि उनसे किसी तरह वो काम करवा ही लें। अर्थात् हम अपना सर्वश्रेष्ठ से भी आगे का प्रयास करें, पर बलात् थोपने की कोशिश न करें। हमने यह किया तो मानों हमारा कर्म (सिखाने का) पूर्ण हुआ, अब आगे संतान का कर्म और उसका भाग्य यानी उसके पूर्व कर्मों का लेखा। अब स्वविवेक तथा वर्तमान में पाई शिक्षा एवं संस्कारों की मदद से अपने कर्म को उसे स्वयं ही निर्धारित करना है, ...और इस कर्म की मदद से अपने भाग्य से भी आगे उसे स्वयं ही जूझना है; पर हर दशा में, लेकिन सही दिशा में उसका सहयोग करना अभिभावक का कर्तव्य-कर्म होता है।
हमें हमारे कर्तव्य-कर्म देखने और करने हैं केवल, ...स्वयं करके संतान को भी कर्तव्य-कर्म का पाठ पढ़ाना है लेकिन अपने स्वार्थ के लिए संतान से कर्तव्य-कर्मों की अपेक्षा नहीं करनी है। हमारी शिक्षा में गहराई और दम होगा तो हमारा खयाल किसी न किसी माध्यम से यह ईश्वरीय सिस्टम स्वयं रख लेगा। इति।