Tuesday, October 10, 2017

(८३) चर्चाएं ...भाग - 2

(१) भगवान एक हैं - फिर भी लोग इस बात को क्यों नहीं समझ पाते?
इसका एक ही कारण दिखता है कि धर्म और अध्यात्म के क्षेत्र में हम सभी पंथों के लोग वर्षों से एक ही स्थान पर रुके हुए हैं, विज्ञान के क्षेत्र में हम व्यापक होकर कहाँ से कहाँ पहुँच गए परन्तु धर्म के क्षेत्र में हम अभी भी कुंए के मेंढक हैं. धर्म और ईश्वर आखिर हैं क्या, और क्यों, आपस में लड़ने से पहले इस पर कभी विचार कभी किया हमने!? "धर्म" अर्थात् ऐसा योग्य आचरण अथवा कार्य, जो हमें वाह्य (भौतिक) एवं आन्तरिक सुख प्रदान करा सके. श्रेयस्कर आचरण कौन सा है, इसे निर्धारित करने का कार्य मानवीय बुद्धि का नहीं, बल्कि केवल एक दिव्य अलौकिक शक्ति (सार्वभौमिक परमात्मा) का है, ऐसा सभी पंथ मानते हैं. ..यदि हम यह मानते हैं कि सभी धार्मिक पंथों का ईश्वर एक ही है और वह वही दिव्य अलौकिक शक्ति है, तो फिर उनके धर्मग्रंथों में दी गयीं नीतियों और आदेशों में भिन्नता क्यों, ईश्वर के नाम भिन्न क्यों? हास्यास्पद यह कि सभी के धर्मगुरु कहते हैं कि उनके पंथ का धर्मग्रन्थ और ईश्वर ही प्रामाणिक है; अन्य सब निम्न श्रेणी के या झूठे हैं! वस्तुतः प्रत्येक पंथ के शीर्ष स्तर पर जब ऐसी सोच या मनोवृत्ति होती है, तब परस्पर धार्मिक या पंथिक द्वेष जन्म लेता है. यही द्वेष विश्व भर में फैली अनेक बुराइयों एवं वैमनस्य की जड़ है. बिना यह समझे कि यह भिन्नता क्यों है, अपने-अपने ईश्वर और धर्मग्रन्थ को ही श्रेष्ठतम कहने का दावा करना अहं-सूचक है. वस्तुतः विश्व के अलग-अलग स्थानों पर अलग-अलग ढंग से मानव सभ्यता का क्रमिक विकास हुआ. तब यातायात के इतने साधन उपलब्ध न होने से लोग अपने-अपने क्षेत्रों, कबीलों और संघों तक ही सीमित रहते थे. यही तो मूल कारण था कि भिन्न-भिन्न संस्कृतियों का निर्माण हुआ एवं एक-दूसरे की बात समझने-समझाने के लिए असंख्य भाषाओँ का भी क्रमिक उदय एवं विकास हुआ. ..विकास के इस क्रम में सभी समुदायों में अच्छाई भी उभरी और बुराई भी. मूलतः आत्मिक प्राणी होने के कारण सभी संघों के तत्कालीन प्रबुद्ध, अग्रणी और नेतृत्व-क्षमतावान चुनिन्दा जनों को अच्छाई यानी "धर्म" का महत्त्व समझ में आया; और फिर उन्होंने अपने लोगों को "योग्य आचरण" यानी धर्म के मार्ग पर प्रवृत्त करने लिए स्थान-काल-परिस्थिति अनुसार, तत्कालीन लोगों के विवेक, बुद्धि, भाषा और संस्कृति अनुसार, कुछ नियम और आज्ञाएं लिखीं, बताईं या लागू कीं. ... निराकार सार्वभौमिक परमेश्वर को भी शब्दों के माध्यम से कुछ-कुछ समझाने की कोशिश की. ...समझने में सुविधा और श्रद्धा के सरल निर्माण हेतु देश-काल-संस्कृति-परिस्थिति अनुसार कालांतर में ईश्वर के विभिन्न सगुण रूपों का भी उदय हुआ. समय-समय पर किसी संघ में बुराई के अत्यधिक बढ़ जाने पर उस काल के किसी योग्य, न्यायप्रिय व साहसी ने अवतार रूप में दुष्टों का संहार करके आम जन को राहत पहुंचाई एवं लोककथाओं में अपनी उपस्थिति सदैव के लिए दर्ज की (आध्यात्मिक दृष्टि से हम सब भी तो छोटे-छोटे अवतार ही तो हैं). इतिहास गवाह है कि विभिन्न देशों के व्यक्तियों ने जब लम्बी यात्राएं की, तो उन्हें अन्य देशों व संस्कृतियों के बारे में पता चला. यही कारण है कि प्रत्येक समुदाय व संघ के ईश्वर एवं धार्मिक ग्रन्थ भिन्नता लिए हैं! सिर्फ भारत में ही कितनी अधिक भाषाएँ, सभ्यताएं, संस्कृतियाँ, ईश्वर के नाम एवं रूप हैं तो सम्पूर्ण विश्व के बारे में जरा सोचिए! ...अरे, इतना जानने के बाद भी धर्म के नाम पर लड़ने वाले संकुचित, खोखले और पिछड़े हैं भीतर से! ....परमेश्वर अर्थत ब्रह्माण्ड की सर्वोच्च सत्ता को जानने-समझने के लिए विभिन्न उपासना पद्धतियाँ, धार्मिक कृत्य, कर्मकांड आदि सब एक प्रकार से माध्यम ही हैं उस तक पहुँचने का; ये सब लोगों की संस्कृति का ही एक हिस्सा हैं, तभी तो ये स्थान एवं जाति अनुसार भिन्न-भिन्न होते हैं! ...बस एक ही चीज पूरे संसार में, सब लोगों में, सब पंथों में, समुदायों में एक सी पाई जाती है, वह है एक सर्वोच्च अद्भुत शक्ति को मान्यता; जो अदृश्य व निराकार है, परन्तु हर जगह विद्यमान है! ...एक और चीज पूरे संसार में, सब लोगों में, पंथों में एक सी पाई जाती है, वह है- यथासंभव श्रेष्ठ (सर्वमान्य, सार्वभौमिक) नैतिक मूल्यों को अपनाना. ....तथापि एक चीज अस्थाई है और सब जगह अलग-अलग पाई जाती है, वह है- ईश्वर के विभिन्न नाम, रूप, उपासना पद्धतियाँ, ..यानी अलग-अलग संस्कृतियाँ!!! ...अब लोग ही फैसला करें कि 'सिद्धांत' रूपी 'धर्म' बड़ा है या 'संस्कृति' रूपी 'धर्म'!!! 'लौकिक धर्म' के नाम पर आपस में लड़ने वाले बहुत से लोगों को अभी यह भी ज्ञात नहीं होगा कि अध्यात्म आखिर है क्या???? अध्यात्म वह है जो हमें 'सिद्धांत' रूपी 'धर्म' से परिचित कराता है!

(२) भगवान् ने कभी नहीं कहा कि मेरी पूजा करो फिर भी लोग करते हैं क्यों? हम अक्सर देखते है कि लोग अपना काम वगैरह छोड़कर मंदिर में जाते हैं, खुद तो जाते हैं अपने छोटों को भी ले जाते है चाहे इसके लिए उन्हें उनके काम से वंचित क्यों ना करना पड़े, कहते हैं पुण्य मिलेगा, भगवान् आपकी सहायता करेगा कैसे?
परमात्मा के गुणों को अपने भीतर विकसित एवं दृढ़ करने के लिए तथा चंचल मन के विरुद्ध जाकर 'धर्म' यानी अच्छे मार्ग पर चलने के लिए प्रेरणा व ऊर्जा पाने के लिए एक सामान्य व्यक्ति को कुछ ध्यान-स्मरण आवश्यक होता है. परमात्मा तो अदृश्य व निराकार है, तो समझने में सुविधा और भाव के सरल निर्माण हेतु प्रत्येक समाज के प्रबुद्धों ने अतीत में देश-काल-संस्कृति-समय एवं तत्कालीन लोगों की बुद्धि-विवेक अनुसार ईश्वर के विभिन्न सगुण रूपों की आराधना आरंभ की. आशय नेक था और वह केवल यही था कि तत्कालीन आम लोग प्रेरित होकर यथासंभव योग्य आचरण करें. ...संस्कृति-अनुसार प्रेरणा पाने का यह अद्भुत तरीका कालांतर में एक रूढ़िवादी सभ्यता में परिवर्तित हो गया! ...अब लोग बस पूजा-पाठ करते हैं, पूछो क्यों करते हैं, तो विरले ही यह जवाब सुनने को मिलेगा कि 'ईश्वरीय गुणों को आत्मसात करने के लिए'!!! समय के साथ हमने पूजा-अर्चना करने का लक्ष्य बदल दिया, बहुधा अब वह 'सकाम' है! परमेश्वर भी अवश्य खिन्न होंगे यह सब देखकर! ...पर फिर भी वह कुछ नहीं करेंगे, ...करेंगे तो उनके नियम, सिद्धांत व अनोखी स्वचालित न्याय-व्यवस्था!

(३) पाप और पुण्य का भेद समझना मुश्किल क्यों हो जाता है....?
ऐसा कर्म जिससे 'धर्म' (नैतिकता द्वारा अनुमोदित न्याय, सही बात, निर्दोष) की रक्षा हो, केवल वह ही करने योग्य है. ....ऐसा विचार या कर्म, जो शारीरिक, मानसिक, सामाजिक, या आध्यात्मिक, इन चार रूप से किसी को (स्वयं या/और अन्य किसी को) नुकसान पहुंचाए, वह गलत (पाप) होगा, ...शेष सब सही!!! ...केवल किसी आपातकाल में (अर्थात् उपर्लिखित परिभाषित 'धर्म' के संकटकाल में), केवल धर्म (सत्य) की रक्षा और पुनर्स्थापना हेतु किसी को उपरोक्त चार तरह से आहत भी करना पड़े, तो वह कोई पाप नहीं, ....लेकिन ध्यान रहे कि कार्य संपन्न होते ही यानी सत्य की रक्षा होते ही तुरंत 'सामान्य धर्म' में लौटना अत्यंत आवश्यक, अन्यथा व्यक्ति गंभीर पाप का भागी होगा. अधिकांशतः हमें 'सामान्य धर्म' का अनुपालन ही करना होता है.

(४) अध्यात्म से जुड़ने का सही अर्थ क्या है...? लोग गलत बाबाओं के पास जा कर आध्यात्मिक होने की गलतफहमी पाल लेते हैं...!
अध्यात्म वह है जो "सिद्धांत" रूपी "धर्म" से हमारा परिचय कराता है. हमारी आत्मा उस धर्म से सराबोर है; या यह भी कहें कि आत्मा, साक्षात् धर्मस्वरूप ही है तो भी यह कोई अतिशयोक्ति वाली बात नहीं! किसी स्थूल गुरु या मार्गदर्शक से हमें केवल कुछ ऊपरी दिशा-निर्देश मिल सकते हैं, पर यात्रा तो हमें अपने प्रयासों से ही करनी होती है. ..लेकिन अज्ञानतावश लोग किसी गुरु या बाबा को ही सबकुछ (ईश्वर तक) मानकर अपना सबकुछ उसपर लुटा देते हैं. स्मरण रहे कि एक खरे गुरु को भौतिक लालसाएं छू भी नहीं सकतीं और वह बहुत साधारण जीवन व्यतीत करते हैं, बिना औपचारिकताओं के वह सबको सहज उपलब्ध रहते हैं. ..वह शिष्यों की भीड़ लगाने में विश्वास नहीं करते.

(५) आज देश अनेकों चुनौतियों का सामना कर रहा है ...आपके विचार में सबसे बड़ी और गंभीर चुनौती कौन सी है? देश में गरीबी, बेरोज़गारी, बढ़ती असमानता, धार्मिक असहिष्णुता, रिश्वतखोरी प्रमुख है.
अच्छा मुद्दा उठाया आपने. आपने हमारे समक्ष खड़ी मौजूदा चुनौतियों के कुछ उदाहरण भी दिए! लेकिन मुख्य प्रश्न आपका यह है कि "सबसे बड़ी और गंभीर चुनौती कौन सी है?" समस्या की जड़ में जाना हो तो कुछ खोदकर जड़ को ढूंढना आवश्यक. ...समस्या रूपी पेड़ की कुछ टहनियां या कुछ पत्ते काटने-छांटने से पेड़ नष्ट नहीं होगा, जड़ पर प्रहार करना होगा! ...मेरे विचार से देश में (दक्षिण के कुछ राज्यों को छोड़कर) जहाँ भी गरीबी, बेरोजगारी, रिश्वतखोरी, असमानता, धार्मिक असहिष्णुता आदि जैसी समस्याएं हैं, उनकी जड़ में वहां के समाज (अभिजात वर्ग और अगुवाओं सहित) में व्याप्त नैतिक पतन है! ..कई बुद्धिजीवी कहेंगे कि "गरीब या बेरोजगार से नैतिकता की उम्मीद क्यों करते हो भाई!?" ...जी हाँ, ..बिलकुल सही बात है आपकी, मेरे विचार से भी नैतिकता की उम्मीद सदैव ऊपर (राजा, मंत्री, पुलिस, वकील, डॉक्टर, अभिजातवर्ग, व्यवसाई, नौकरीपेशा आदि) से ही आरंभ होनी चाहिए. ...क्या वहां पर्याप्त नैतिकता है????? लगभग सभी किसी न किसी प्रकार से किसी न किसी भ्रष्टाचार में लिप्त हैं! कल की खबरों में एक खुलासा देखा कि उत्तरप्रदेश की अनेक ग्रामीण सरकारी पाठशालाओं में नियुक्त अध्यापकों ने भाड़े पर टीचर रखे हुए हैं (खुद हजारों रुपए प्रति माह वेतन लेकर केवल कुछ सौ रुपयों पर)!!! कहीं किसी अध्यापिका का पति ही भाड़े पर लगा है, कहीं मिड डे मील का रसोइया, कहीं सफाई कर्मचारी की बेटी, तो कहीं आंगनबाड़ी वाली महिला एक्स्ट्रा पार्ट-टाइम जॉब के रूप में नियुक्त कर रखी है. बढ़ती दुर्घटनाओं से चिंतित रेलवे का भी एक फैसला पढ़ने में आया कि फ़ील्ड-वर्क (जैसे खलासी, लाइनमैन आदि) के पद अब बहुत उच्चशिक्षा प्राप्त अभ्यर्थियों से नहीं भरे जायेंगे! ..क्योंकि उन्हें काम करने में शर्म आती है, और वे अपनी ड्यूटी ठीक से नहीं करते! कुछ ऐसा ही नवनियुक्त सरकारी सफाई-कर्मचारी भी करते हैं! इसी प्रकार का कार्य पी.एम.एस अंतर्गत प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्रों में तैनात सरकारी डॉक्टर भी करते हैं, ..महीने में दो-चार दिन जाकर पूरे महीने का वेतन उठाते हैं और शहर में प्राइवेट प्रैक्टिस भी करते हैं! सब के सब बटोरने में, नोचने में लगे हैं! सभी इसी फिराक और होड़ में हैं कि कौन किसको अधिक 'चूना' लगा सकता है! पुलिस, प्रशासन आदि की बात भी करें तो कई दिन लग जायेंगे, ...उनके बारे में कुछ छुपा नहीं है किसी से! ...यानी इन सब बातों से क्या सिद्ध हुआ कि पिछड़े प्रदेश, इस वजह से पिछड़े हैं क्योंकि वहां नैतिकता को हाशिये पर डाल दिया गया है! ...तो सबसे बड़ी और गंभीर चुनौती हमारे समक्ष है तो वह है नैतिकता की! ...मनुष्य को मानव बनना होगा! जब हम अच्छे और सरल बनेंगे, दूसरे का हक़ मारना बंद करेंगे, अपना काम सिर उठाकर गर्व से करेंगे, जिम्मेदार बनेंगे, वेतन या फीस के बदले ईमानदारी से अपेक्षित काम करेंगे, तभी दुर्दिन दूर होंगे. ..इस स्थिति के लिए तथाकथित बड़ों (गुरुओं और नेताओं) को ही पहल करनी होगी.
...समाज में नैतिकता इसीलिये कम है क्योंकि परमेश्वर, प्रकृति आदि के नियमों और सिद्धांतों पर किसी को विश्वास ही नहीं रहा! किताबों में नियम-सिद्धांत खूब पढ़ते हैं, रटते हैं, ..और उन पर बड़े-बड़े भाषण, व्याख्यान, प्रवचन आदि भी देते हैं, पर स्वयं को उनकी परिधि से बाहर मानते हैं!!! अध्यात्म को मात्र पढ़ना या समझना काफी नहीं, उसके क्रियान्वयन से ही बात बनती है.

(६) लोग अक्सर अपनेआप को तकलीफ देकर भगवान को खुश करने की कोशिश करते हैं क्यों? जैसे हम व्रत करते हैं और नंगे पांव मंदिर के चक्कर लगाते हैं, ज्यादा भीड़ में घुस जाते हैं और बाद में बीमार पड़ जाते हैं; ये सब कोई अपने लिए नहीं करता लेकिन जिनके लिए करता है वो उसका मूल्य समझते हैं क्या? अगर भगवान को खुश करने के लिए तो कोई वो काम क्यों नही करता जिससे बाकियों की सोच सही हो और बढे?!
अक्सर लोग खुद अपनी या अपने किसी परिजन की कोई अभिलाषा पूर्ण करने के लिए, अथवा मन की शांति और हृदय की पवित्रता हेतु पूजा-पाठ, व्रत, दर्शन, आदि करते हैं. इसमें कोई भी संदेह नहीं कि इस प्रक्रिया में वो कुछ त्यागते हैं और कुछ कष्ट उठाते हैं. बहुत से पंथों में पूजा के विशिष्ट दिनों में व्रत आदि का प्रावधान इसलिए है कि उस अवसर पर हम अपनी इन्द्रियों के स्वाद, लालच आदि को त्यागकर कुछ संयम रखना सीखें. 'संयम' भी परमेश्वर का ही एक गुण है. लेकिन भारी भीड़ में धूप, गर्मी, या भीषण सर्दी और बरसात में लाइनें लगाकर, भारी कष्ट उठाकर व बीमार पड़कर भगवान् का दर्शन करने से उन्हें क्या लाभ पहुँचता है, उनका कौन सा गुण बढ़ता है, यह मेरी समझ से परे है! ...हाँ, शांत वातावरण वाले किसी पूजा स्थल पर दर्शन करने जाना और भावपूर्ण वातावरण में परिक्रमा आदि करना तो अवश्य ही उतने समय के लिए हृदय को पवित्र और मन को शांत कर देता है. ...बस एक बात और हो जाये तो कितना ही अच्छा हो कि हमारी ये धार्मिक गतिविधियाँ किसी विशिष्ट स्वार्थभावना से (अर्थात् सकाम) ना हों! इनसे यदि सत्य, संयम, उदारता सरीखे ईश्वरीय गुणों में वृद्धि हो रही हो तो समझ लेना चाहिए कि दर्शन, पूजा, व्रत, कष्ट उठाना आदि सफल रहे, अन्यथा पुनर्विचार की आवश्यकता! ....आपके मूल प्रश्न पर आते हैं, ...भगवान् तो अपनेआप में ही खुशी का समुद्र हैं, हम उनको क्या खुश करेंगे!!! हाँ, यदि हम ऐसा सोचते हैं कि हमारे किसी स्थूल धार्मिक अनुष्ठान से प्रसन्न होकर भगवान् हमें मनचाहा वरदान दे देंगे, तो यह हमारी भूल है! यदि ऐसा संभव होता तो विश्व में यह चीजें सबसे अधिक हमारे भारत में ही होने के कारण हम आज सर्वोच्च शिखर पर होते! ...कुछ लोग शायद तर्क दें कि हाँ, हमारा भारत कभी इन्हीं कारणों से शिखर पर था! ...मेरा उत्तर होगा कि, ..जी हाँ, बिलकुल था और इन्हीं कारणों से ही था; ...लेकिन तब विभिन्न धार्मिक अनुष्ठानों का उद्देश्य बड़ा होता था; ..निजी अभिलाषाओं तक सीमित न होकर वह समस्त प्राणिजगत के कल्याणार्थ तथा धर्म (सत्य व न्याय) की रक्षा के निमित्त होता था. ..तब हम पूजा-पाठ, व्रत, दर्शन, तपस्या, अनुष्ठान आदि से अपनी मलिनताओं और अवगुणों को धो कर अपनी पवित्र आत्मा को प्रकट करते थे; ...आत्मा के प्रकटीकरण होते ही साक्षात् ईश्वर से साक्षात्कार संभव होता था, ...और फिर हमें वे प्रत्येक अपेक्षित योग्यताएं मिलती थीं, जिनके बल पर हम "सत्य व न्याय" (धर्म) को पुनर्स्थापित करने में सफल होते थे, फिर हमारी जयजयकार होती थी, हम सिरमौर घोषित होते थे! .....यह था भारत का स्वर्णिम अतीत! लेकिन अभी हमारा आशय या लक्ष्य आदि इतना महान होता है क्या?

(७) अधिकाँश लोगों को दूसरों में दोष दिखाई देते है किन्तु अपनी स्लेट साफ़ क्यों दिखती है...? बहुत बड़ी विडंबना है ...क्यों?
जी हाँ, बिलकुल सही कहा आपने कि यह बहुत बड़ी विडम्बना है. इसका मूल कारण "प्रत्येक व्यक्ति का अपना अहंकार" है. व्यक्ति को अपनी बुद्धि, जाति, पंथ, उपासना पद्धति, ईश्वर-रूप, भक्ति, भाषा, संस्कृति, भौतिक हैसीयत (संपन्नता), पसंद-नापसंद आदि का अहंकार हो सकता है! जिस भी चीज का अहंकार व्यक्ति को होता है, वह अन्यों को उस क्षेत्र में छोटा व हीन समझता है! विश्व के इस भाग में अहंकार कुछ अधिक ही है! विरले ही ऐसा देखने में आता है कि किसी को अपने दोष स्वीकार्य हों, ...या वह दूसरे के गुणों की उन्मुक्तता से (दिल खोलकर) सराहना कर सके!!! मजे की बात यह है कि धार्मिक सभाओं या सत्संगों आदि में भी सामान्य साधकों से लेकर बड़े मार्गदर्शकों तक में यह मनोवृत्ति देखी जा सकती है! अहंकार ही है यह, जो हमें निरंतर यह बताता, जताता और समझाता रहता है कि तुम और तुमसे जुड़ी हर चीज सर्वोत्तम, शेष सब दीन-हीन! अनेक सत्संगों में अहं-निर्मूलन हेतु विशेष वर्कशॉप देखीं हैं मैंने, लेकिन सूक्ष्म निरीक्षण करने पर यह पाया कि यह कई स्वभावदोष और अहंकार तो अवश्य कम करती है लेकिन अनेक अन्य उपजा भी देती है. .....दार्शनिक भाव से विवेचना करें तो निष्कर्ष पाते हैं कि जीवन में हम अनेक भूमिकाओं में होते हैं; ...कहीं हम कुछ 'सीखते' हैं और कहीं कुछ 'सिखाते' हैं! ...जब हम सीख रहे हों तो सिखाने वाले के केवल गुणों पर ध्यान दें, तभी हम कुछ सीख पायेंगे; ...और जब हम किसी को कुछ सिखा रहे हों तो उसके अवगुणों पर अवश्य समुचित ध्यान दें, तभी हम उसका उचित विकास कर पायेंगे. ..ये दोनों काम अहंकार को किनारे कर देने पर ही संभव हो सकते हैं. यदि लोगों में खुद सुधरकर फिर अन्य को अपना समझकर सुधारने की सच्ची भूख जागेगी तभी अहंकार कुछ कम होगा और समाज श्रेष्ठ बनेगा. आश्चर्य की बात है कि सबके जीवन में ऐसा होता भी है, उदाहरण- अभिभावकों (खासतौर पर एक जागरूक माँ) द्वारा बच्चे को सिखाना, ...अपने बच्चे को कुछ सिखाने की प्रक्रिया में माँ अनेक गुण पहले खुद आत्मसात करती है, फिर बड़े मनोयोग से अपने बच्चे को भी सिखाती है. कैसे सीखती है और कैसे सिखाती है? ...बिलकुल वैसे जैसे ऊपर बताया! वह अपने अहं को न्यून करके ही उचित चीजें सीख पाती है और बच्चे के प्रत्येक अवगुण पर नजर रखते हुए उसे सर्वगुणसंपन्न बनाने की निःस्वार्थ चेष्टा करती है!

(८) अहंकार और स्वाभिमान में क्या अंतर है? अहंकार में कोई भी अपनेआप को सबसे अधिक शक्तिशाली समझता है तो अहंकार हो जाता है, नहीं तो बिना कुछ किये ही लोग दूसरों के सामने हारे मान लेते है क्यों?
जिसमें अहंकार होता है वह अपने बल, बुद्धि, राज्य, भाषा, संस्कृति और अपनी प्रत्येक चीज को पर "घमंड" करता है, उन्हें "श्रेष्ठतम" समझता है और अन्यों की तुच्छ या हीन!! इस कारण वह आक्रान्ता (आक्रामक) हो जाता है. वह दूसरों पर विचारों या अस्त्रशस्त्र से हमला करता रहता है, अपना वर्चस्व स्थापित करने की चेष्टा करता है. इस क्रम में वह धर्म (सत्य एवं न्याय) की भी अवहेलना करता है. ....जिसमें स्वाभिमान होता है, वह अपने बल, बुद्धि, राज्य, भाषा, संस्कृति और अपनी प्रत्येक चीज पर "गर्व" करता है, उन्हें "श्रेष्ठ" समझता है (लेकिन श्रेष्ठतम नहीं) और अन्यों की भी इन्हीं चीजों का सम्मान करता है. वह दूसरों से भी कुछ-कुछ सीखकर व सहयोग लेकर अपने से जुड़ी हर चीज को और बेहतर बनाने की सतत चेष्टा करता रहता है. वह आक्रान्ता नहीं होता, परन्तु अपने पर किये आक्रमण को सहन भी नहीं करता, समुचित प्रत्युत्तर अवश्य देता है, प्रत्येक दशा में वह धर्म (सत्य एवं न्याय) का पक्ष लेता है. ....तीसरे प्रकार के वो होते हैं जो बिना प्रतिरोध किये अधर्मी अहंकारी आतताई के समक्ष घुटने टेक देते हैं, या जान कर भी अनजान बने रहते हैं, वे कायर और नपुंसक होते हैं!

(९) सांसारिक सुखों की तलाश में आज लोग अधिक दुखी क्यों दिखाई देते हैं...? वास्तविक खुशी मन की शांति है, या अत्यधिक आराम सुविधा का संग्रह?
सांसारिक सुखों की तलाश में आज लोग इतना अधिक दुखी इसलिए दिखाई पड़ते हैं क्योंकि वे बहुत 'बड़ा' सोचते हैं! बड़ा यानी प्रचुर सुख-सामग्री, प्रचुर आमदनी, बहुत सारा लाभ! इस 'बड़े' की कोई सीमा नहीं होती जबकि हमारे शरीर की आवश्यकताओं की एक सीमा है! बहुत ज्यादा के चक्कर में हम सही ढंग से मिल रहा 'थोड़ा' या 'पर्याप्त' ठुकरा देते हैं, और इस कारण भी बेरोजगारी जैसे संकट में भी पड़ जाते हैं या बहुत घाटा उठा जाते हैं. फलतः अनेकों मानसिक या मनोदैहिक रोगों को न्योता दे बैठते हैं. अपने शरीर और परिवार की आवश्यकताओं के अनुरूप जरूरी भौतिक संसाधन जुटाना कोई बुरी बात नहीं, ...लेकिन लिप्सा में पड़कर उन आवश्यकताओं को विलासिता की हद तक विस्तारित करना दुखों को आमंत्रित करना ही है. उदाहरण के लिए-- "कहते हैं, जल ही जीवन है, ...तो क्या हम बहुत सारा पानी एकसाथ पी सकते हैं?" क्या हम शरीर (पेट) की भूख से बहुत अधिक मात्रा में इकट्ठा खा सकते हैं?? यदि आवश्यकता से बहुत अधिक पानी पियेंगे या खाना खायेंगे तो संकट में पड़ जायेंगे!!! ...ठीक ऐसा ही विलासिता की चीजें आवश्यकता से अधिक जुटाने पर भी होता है, उसका भी साइड इफ़ेक्ट होता है, पर वो हम नजरअंदाज कर देते हैं, और साइड इफ़ेक्ट के तौर पर मन की शांति खो बैठते हैं! उदाहरण के लिए-- मेरे परिवार के आकार के अनुसार मानों मुझे एक गेस्ट-रूम सहित तीन-चार कमरे का मकान पर्याप्त है, तो फिर यदि मैं दस कमरे का मकान खरीद लेता हूँ तो उसकी देखरेख, सफाई, मेंटेनेंस आदि पर समय, ऊर्जा व धन आदि क्या अधिक खर्च नहीं करना पड़ेगा!? उस धन को जुटाने के लिए क्या अधिक मेहनत और जोड़तोड़ नहीं करना पड़ेगा? क्या उस एक्स्ट्रा मेहनत या जोड़तोड़ की कोई सार्थकता बता सकते हैं??? इन्वेस्टमेंट के पॉइंट ऑफ़ व्यू से हम अनेक प्लाट, जमीनें आदि खरीद लेते हैं और उनकी सुरक्षा, देखरेख आदि के लिए हमारी रातों की नींदें हराम हो जाती हैं. पैसों से तो हम अमीर हो जाते हैं, लेकिन मन की शांति और आनंद के दृष्टिकोण से गरीबी हमपर हावी होने लगती है! हाँ, किसी बहुत ही नेक इरादे से ज्यादा काम करना, और ज्यादा कमाना हमें और अधिक आनंदित कर सकता है! लेकिन अनावश्यक संग्रह से हमें फिर भी दुःख ही पहुंचेगा.

(१०) आध्यात्मिक चर्चा में - अध्यात्म से सम्बन्धित प्रश्न क्यों नही पूछते हैं?
बिलकुल सही है आपका कहना. यहाँ नौकरी कैसे मिले, रोजगार में कैसे तरक्की हो जैसे गैर-आध्यात्मिक प्रश्नों के अतिरिक्त अन्य भी बहुत से ऐसे मुद्दे लिखे जाते हैं जिनका अध्यात्म से दूर-दूर तक कोई नाता नहीं होता! अध्यात्म का शुद्ध अर्थ आखिर है क्या, केवल इसी पर एक लम्बी चर्चा हो जाये तो लोगों को कुछ बुनियादी बातें पता चल जायें! ..अध्यात्म से परिचय दरअसल हमारे व्यावहारिक जीवन को भी बहुत प्रकाशित करता है, उसे संवारता है. लेकिन श्रीमान् जी, साथ ही हमें यह भी देखना होगा कि आध्यात्मिक चर्चा से क्या व्यवहार यानी असल भौतिक जीवन में भी कुछ सुधार आ रहा है या नहीं! केवल अनुष्ठान, ध्यान, साधना आदि ही इस बात के सूचक नहीं हैं कि हम साधक हैं और हम अध्यात्म से जुड़े हैं! बल्कि हमारे आम जीवन में नैतिकता की मात्रा यह निर्धारित करती है कि हम कितने आध्यात्मिक हैं! हमारी नैतिकता ही हमारी आध्यात्मिकता का दृश्य पैमाना है! ...अतः नैतिक गुणों या नैतिक मूल्यों की चर्चा भी एक प्रकार से आध्यात्मिक चर्चा ही होगी!

(११) भगवान् पर हमेशा भरोसा और विश्वास बना रहे इसलिए क्या किया जाये, क्योंकि निराशा के कारण भरोसा कम होता जाता है!?
भगवान् और भगवान् द्वारा बनाई गयी इस प्रकृति के नियम व सिद्धांत बहुत ही भरोसे और विश्वास के लायक हैं! इनके अनुसार हमें मिलने वाले हर दुःख और हर सुख के पीछे कारण के तौर पर कहीं न कहीं हम भी जुड़े होते हैं. जरा सोचिए- भगवान् कैसे हैं? भीतर से जवाब आएगा- बहुत ही नेक-दिल, विनम्र, सत्य को पसंद करने वाले एवं न्यायप्रिय. भगवान् यदि बहुत अच्छे व्यक्तित्व के स्वामी हैं तो वो हमसे क्या उम्मीद रखते होंगे? जवाब यह होगा कि- अच्छी सोच, नेक व्यवहार और ईमानदारी व लगन के साथ हर एक काम को करना! यदि हम इस प्रकार से हैं तो हम ऐसे ही नेक और कर्मठ बने रहकर यह भरोसा रख सकते हैं कि हमारे भी अच्छे दिन जरूर आयेंगे! लेकिन, यदि हमारी सोच और काम में मिलावट है तो हमारे दुःख बढ़ेंगे ही, घटेंगे नहीं; चाहे हम कितनी भी पूजा और किसी पंडित से कितने भी अनुष्ठान करवा लें! भगवान् एक ऐसा राजा है जो अपनी जयजयकार, फूलमाला व प्रसाद आदि चढाने आदि से खुश नहीं होता बल्कि वह हमारे अच्छे कामों और अच्छी सोच से प्रभावित होता है! वह चापलूसी पसंद राजा नहीं है! हम हर पल उसकी निगाह में हैं! अतः भरोसा रखिये निराशा के बादल एक दिन जरूर छटेंगे! जरूरी नहीं कि दुःख अभी के कर्म की वजह से हों, वो पुराने किसी कर्म की वजह से भी हो सकते हैं जो आपकी यादाश्त में ही नहीं! ..पर दुःख है तो कारण भी हम ही! ..आगे सुख आएगा तो भी कारण हम ही! ऐसा विश्वास रखेंगे तो दुःख परेशान नहीं कर पाएगा! सत्य परेशान हो सकता है, लेकिन पराजित नहीं! आजके किये अच्छे का अच्छा फल आने में कुछ देर हो सकती है पर वो आएगा जरूर, चाहे वो किसी बदले हुए रूप में आए. अच्छा बन के और अच्छा करके भरोसा रखें कि अवश्य ही भगवान् इसे एक दिन ब्याज-समेत लौटायेंगे!

(१२) आज हमारे विद्यालय बच्चों के लिए असुरक्षित क्यों बनते जा रहे हैं...?
सामान्य समाज में भी तेजी से फैल रहा नैतिक पतन इसका एकमात्र कारण है! बस कहने को ही हम विकसित हो रहे हैं! विकास के साथ जब तक नैतिकता संलग्न न हो, वो विकास नहीं अभिशाप है!
आज के अधिकांश प्राइवेट स्कूल शिक्षा की दुकानें बनकर रह गए हैं. और अधिकांश अभिभावक भी मात्र मोटी फीस देकर निश्चिन्त होकर बाकी चीजों से मुंह मोड़ लेते हैं! सब अति व्यस्तता का रोना रोते हैं, ...लेकिन यह अति-व्यस्तता क्यों है? यदि हम व्यस्तता के क्षणों की गुणवत्ता का लेखाजोखा करें तो पता चलेगा कि कुछ बेवजह की व्यस्तता हमें नैतिकता की पटरी से नीचे उतार रही है! हम अभिभावक हों या स्कूल का स्टाफ, सभी आज नीचे को जा रहे हैं, लेकिन अपने व अपनों के लिए बेहतरी की उम्मीद पालते हैं! समाज में नैतिकता के ह्रास का प्रदूषण यदि फैलेगा तो चपेट में हम भी आयेंगे ही! भूकंप में पृथ्वी यदि डोलेगी तो झटका हमें भी लगेगा ही! हम सामाजिक प्राणी हैं, हमें समाज से सरोकार होता है, तो उसको ठीक करने की कोशिश क्यों नहीं करते? कुछ खुद सुधरें और कुछ औरों को भी प्रेरित करें, उस बेवजह की व्यस्तता को कम करें जो हमें और समाज को रसातल में लेकर जा रही है.
पुनः एक पाठक का कमेंट-- साइंस बरदान है या अभिशाप, इसे तर्क से आप स्वयं खुद से पूछें.
मेरा उत्तर-- हमने एक बार भी नहीं कहा कि साइंस अभिशाप है! हमने कहा कि जिस तरह से विकास हो रहा है, उस क्रम में हम नैतिकता को समानांतर रूप से नहीं लेकर चल रहे हैं, फलस्वरूप आपाधापी वाला विकास अभिशाप सिद्ध हो रहा है। विज्ञान तो अतुलनीय सिद्धांतों का पिटारा है भाई जी; उसमें कोई भी कमी नहीं। हां, उसको अप्लाई करने के हमारे ढंग में त्रुटि संभव है। जैसे परमाणु ऊर्जा का आविष्कार विज्ञान की एक बड़ी देन है। अब कुछ लोग इससे बिजली उत्पादन जैसा उपयोगी कार्य करते हैं, तो कोई विध्वंसक बम बनाता है। ऐसे ही इंटरनेट एक वैज्ञानिक खोज है; कोई इसे ज्ञान और उपयोगी जानकारियां हासिल करने के लिए इस्तेमाल करता है, तो कोई वीडियो गेम और अन्य समय-नाशक दुरुपयोग के लिए। विज्ञान ने हमको ताकत दी है विकास करने की। अब हमारे ऊपर है कि हम इस ताकत का सदुपयोग करें या दुरुपयोग। विज्ञान रूपी सिद्धांत गलत नहीं, उसे प्रयोग करने वाला हमारा विवेक सही या गलत होता है।

(१३) संसार को सुख पहुँचाना ही परमात्मा को सुख पहुँचाना है!?
जी हाँ, बिलकुल! ...मेरे विचार से इस संसार को परमात्मा ने ही रचा है, तो परमात्मा की कृति को कोई नुकसान या दुःख पहुँचाने की हम सोच भी कैसे सकते हैं? परमात्मा द्वरा रचित सभी स्थूल (भौतिक) चीजों में मनुष्य सर्वश्रेष्ठ है और सूक्ष्म चीजों में श्रेष्ठ है मनुष्य देह में उपस्थित आत्मा! मानव देह व आत्मा के अलावा भी सबकुछ यद्यपि परमात्मा द्वारा रचित है और हमें उनका भी ध्यान रखना है, तथापि वरीयता क्रम में अन्य सभी का नंबर मनुष्य और मनुष्यता के पश्चात् ही आता है. हम यह पहली चीज साध लेंगे तो अन्य स्वतः ही सध जायेंगी.

(१४) क्या स्वयं से संन्यास लेना सम्भव है? यदि हाँ, तो कैसे?
संन्यास से आपका क्या अर्थ है? यदि संन्यास से आपका अर्थ यह है कि घरद्वार छोड़कर हरिद्वार, काशी आदि जैसे तीर्थस्थलों में जाकर किसी आश्रम या मठ आदि में रहना, ..तो मेरा उत्तर होगा कि यह केवल नाम का (स्थूल) संन्यास होगा! असली संन्यास वो भी नहीं जिसके लिए बहुत से तथाकथित संत-महात्मा आह्वान करते हैं कि चल-अचल संपत्ति आश्रम के नाम कर दो और यहाँ आकर सेवा करो! .....संन्यास लेने का वास्तविक अर्थ है कि- अपनी दुनियावी इच्छाओं-आकांक्षाओं को उम्र बढ़ने के साथ सीमित करते जाना; किसी वस्तु या व्यक्ति का त्याग नहीं बल्कि उनके प्रति आसक्ति (संग्रह की प्रवृत्ति व मोह आदि का) का त्याग करना; संन्यास का अर्थ जिम्मेदारियों से मुंह मोड़ना नहीं बल्कि जिम्मेदारियों को बिना किसी लालच या स्वार्थ आदि के और अधिक लगन से निभाना है! यानी, ...लालच, स्वार्थ, अनावश्यक संग्रह, मोह, और आसक्ति आदि को क्रमशः त्यागना ही वास्तविक संन्यास है! ...और यह स्वयं से संभव है. सौ प्रतिशत!

(१५) पश्चिमी सभ्यता की नक़ल समाज को किस प्रकार दुष्प्रभावित कर रही है..?
माफ़ कीजियेगा, ..यहाँ आप कुछ वह गलती कर रही हैं जो हमारे रूढ़िवादी 'बड़े' लोग (नेता व साधू-संत) करते आए हैं कि आज हमारे समाज में व्याप्त विभिन्न बुराईयों का ठीकरा सीधे-सीधे पश्चिमी सभ्यता के सिर मढ़ देना! यदि एक बार को हम यह मान भी लेते हैं कि हमारे समाज में आज व्याप्त भ्रष्टाचार, अनैतिकता, व्यभिचार, खून-खराबा, समय की बर्बादी आदि अवगुण पश्चिमी सभ्यता की देन हैं, ..तो यह भी तुरंत मान लेना पड़ेगा कि पश्चिमी देशों के समाज में भी उपरोक्त अवगुण प्रचुर मात्रा में हैं!!! तस्वीर का दूसरा पहलू यह है कि आज अधिकांश पश्चिमी देश बहुमुखी विकास कर चुके हैं या तेजी से कर रहे हैं! ...क्या इन अवगुणों के साथ उनका यह विकास संभव हो पाता??? हम देखते हैं कि उनके यहाँ कानून और न्यायव्यवस्था बहुत बेहतर है, हर चीज का परेशानी-रहित एक सटीक सिस्टम है; वहां एक दुर्घटनाग्रस्त घायल को चिकित्सीय सुविधाएं तुरंत और परेशानी-रहित तरीके से मुहैया होती हैं; बीमा-क्लेम या बैंकिंग सिस्टम भी बहुत पारदर्शी और परेशानी-रहित है; विभिन्न टैक्स भी लोग ईमानदारी से भरते हैं; एक इनोसेंट पर्सन के लिए कानूनी पेचीदगियां बिलकुल नहीं हैं, लेकिन एक अपराधी का बच पाना बेहद मुश्किल है; जो भी लॉ एंड आर्डर का ईमानदारी से पालन करता है वह खुद को सामान्यतः बहुत प्रोटेक्टेड और सेफ फील करता है; आम जनता में अनुशासन और केयरिंग की भावना साफ दिखती है, कोई लाइन तोड़कर पहले जाने की जद्दोजहद करता नहीं दीखता, बुजुर्गों और प्रेगनेंट महिलाओं को लोग आउट ऑफ़ टर्न पहले मौका देते हैं; संसद में एक-दूसरे के ऊपर कुर्सियां नहीं फेंकी जातीं; राजनीति में अधिकांशतः दो ही प्रमुख राष्ट्रीय दल होते हैं, हर नेता अपनी-अपनी ढपली अपना-अपना राग अलापता नहीं दिखता, शालीनता से बहस करने की कोशिश रहती है; डॉक्टर, इंजीनियर और वैज्ञानिक अपना-अपना काम निष्ठा व लगन से करते हैं, इसीलिए वहां मानव-त्रुटि के कारण आकस्मिक मृत्यु या दुर्घटनाएं लगभग नगण्य हैं; .....अब फाइव डे वीक में वो पांच दिन डट के काम करते हैं और फिर जो दो दिन वे मौज-मस्ती करते हैं उसमें कम से कम एक दिन वे पूरे परिवार के साथ बिताते हैं; वर्क फ़ोन और पर्सनल फोन अलग होता है तथा इसी प्रकार वर्किंग लाइफ और पर्सनल लाइफ भी; हौचपौच, व्यर्थ की भागादौड़ी, ट्रेनों में शोरशराबा विरले ही देखने को मिलता है; एक ही धर्मग्रन्थ से बहुत कुछ व्यावहारिक शिक्षा ले लेते हैं; अन्य धर्मों के प्रति उचित सहिष्णुता देखने को मिलती है; विश्व में कहीं भी कोई त्रासदी या प्राकृतिक आपदा आए तो वो सच्ची मदद पहुँचाने की चेष्टा करते हैं!!! ...इतने ही उदाहरण काफी हैं यह बताने के लिए कि बहुत से महत्वपूर्ण मामलों में निःसंदेह वे हमसे बेहतर हैं, इसीलिए वे विकसित राष्ट्र हैं! ...और हमपर वर्षों से विकासशील का तमगा लगा हुआ है! क्यों??? ...क्योंकि हम 'श्रीकृष्ण' की भी केवल रासलीला को ही देखते हैं वो भी व्यभिचारी दृष्टि से; ...पता नहीं कहाँ से सुना और सीखे लेकिन निश्चित ही बहुत से नशेड़ी भी भांग, धतूरा, मद्य, चरस, गांजा और अन्य अनेक नशीली चीजें 'शिवजी' के नाम पर लेते हैं (बाबा और भक्त दोनों), ...मौके-माहौल के हिसाब से हमारी वरीयताएं झट से बदल जाती हैं! ....दरअसल हमने उपर्लिखित दूषित प्रवृत्ति से अभी तक पश्चिमी सभ्यता में भी बुरा ही खोजा और उसे फ़ौरन अपना लिया, लेकिन अच्छे को देख ही नहीं पाए, ...या देखना ही नहीं चाहते! देखिये, ...अच्छा और बुरा हर जगह होता है, हर सभ्यता के कुछ गुण या दोष हैं; ...लेकिन असली विकास वहीं होता है जहाँ अच्छाई, बुराई पर हावी रहे! पश्चिमी विकसित देशों में अच्छाईयाँ, बुराईयों से अधिक हैं और वे बुराई पर हावी हैं; जबकि हमारे यहाँ बुरे से बुरा खोजकर उसे अपनाने की दूषित प्रवृत्ति है, इसीलिए हम दिनप्रतिदिन खोखले विकास की ओर अग्रसर हैं.