Monday, October 16, 2017

(८४) चर्चाएं ...भाग - 3

(१) ध्यान किसका करें और कैसे करें? ध्यान की सरल विधि क्या है? ध्यान करने वाले का ध्येय क्या होना चाहिए? हम सभी देखते हैं कि, दुनिया में ध्यान करने की विधियां बहुत हैं, कोई दृष्टि को एक लक्ष्य पर केंद्रित करना ध्यान समझता है, कोई मन में कोई भी संकल्प ना उठे उसे ध्यान कहता है, कोई प्राणायाम को ध्यान समझता है, कोई कुण्डलिनी जागरण को ध्यान की विधि कहता है, कोई खेचरी मुद्रा जैसी अनेक मुद्रा में बैठने को ध्यान कहता है, आखिर ध्यान की अतिसरल विधि क्या है और श्रेष्ठतम ध्यान कौन सा है?
अध्यात्म का एक मूलभूत सिद्धांत है कि -- "जितने व्यक्ति, उतनी प्रकृतियाँ (स्वभाव, संस्कृति, सभ्यता, माहौल), उतने ही साधना-मार्ग!" ...ध्यान का अर्थ है-- "मन में चलने वाले विचारों से मुक्त होकर आत्मा (या परमात्मा) से जुड़ना!" ...मेरे विचार से देश-काल-परिस्थिति-संस्कृति-धर्मपंथ-विश्वास आदि के अनुसार ध्यान के बहुत से तरीके हो सकते हैं. किसी एक व्यक्ति के लिए जो विधि बहुत सरल हो, वह किसी अन्य के लिए बहुत कठिन या बेअसर भी हो सकती है! मेरे विचार से खरी एवं वास्तविक ध्यानावस्था में आने के लिए व्यक्ति का भाव, तीव्र जिज्ञासा और तड़प ही महत्वपूर्ण हैं! ...और फिर समुचित अभ्यास और अभ्यस्त हो जाने के पश्चात् व्यक्ति जागते, सोते और कोई काम करते समय भी समानांतर रूप से अनवरत ध्यानावस्था में रह सकता है! इस अवस्था में वह अधिकांशतः आनंदित रहता है तथा उसके द्वारा किये गए लगभग सभी कार्य निष्पक्ष और न्यायसंगत होते हैं. ध्यान का ध्येय भी यही होना चाहिए.

(२) जीवन को व्यवस्थित और अनुशासित कैसे किया जाए...? आज की पीढ़ी में बढ़ती अनुशासनहीनता सबसे बड़ी समस्या है.
आपने आज की पीढ़ी की बात की, यानी नयी पौध की! पुराने अर्थात् पिछली पीढ़ियों के लोग ही माली बनकर नयी पौध को पोषक वातावरण प्रदान करते हैं. उनके कोरे कागज समान मन पर हम ही वो इबारत लिखते हैं जिन्हें मूलभूत संस्कार कहते हैं. नयी पीढ़ी में आज यदि कहीं अनुशासनहीनता दिखाई दे रही है तो हमारे द्वारा दिए गए वैचारिक पोषक वातावरण, जिसका जूस पीकर वे बड़े हो रहे हैं ..उस पर विचार करने की आवश्यकता है!!! हमें पुनः नजर दौड़ाने की जरूरत है हमारे द्वारा दिए जाने वाले मूलभूत संस्कारों या वैचारिक पोषक वातावरण पर!!! हम यह सब उपदेश के रूप में दे रहे हैं या खुद अमल करके एक उदाहरण के रूप में!? कहीं ऐसा तो नहीं कि हम स्वयं अव्यवस्थित और अनुशासनहीन हों या परेशान, उद्विग्न या अशांत मन हों और आगामी पीढ़ी को व्यवस्थित, अनुशासबद्ध और शांत होने का पाठ पढ़ा रहे हों!!? अपने निजी और प्रैक्टिकल अनुभवों के आधार पर मेरा तो बहुत मजबूती से यह मानना है कि हमारे आसपास की दुनिया चाहे जितनी भी खराब हो, लेकिन यदि हम अपनी संतान को पर्याप्त समय तथा सर्वोत्तम बुनियादी संस्कार देने की ईमानदार कोशिश करें (खुद भी अमल करते हुए) और वह भी रीजनिंग (कार्यकारणभाव) समझाते हुए, पूरी निष्पक्षता व प्रोग्रेसिव दृष्टिकोण रखते हुए, ...तो फिर वह संतान आजीवन अडिग रहती है, चाहे जीवन में कितने भी झंझावात आ जायें; वह हर माहौल में खुद की राइटियचनेस (अच्छाई रूपी धर्म) को बरकरार रख सकती है.

(३) मन में निरंतर विचार आने से मन बैचैन और व्यथित रहता है ...इस का किस प्रकार निरोध किया जाए..? अपने मन को शांत कैसे करें...?
एक चंचल बच्चा जब बहुत उधम काट रहा होता है और उससे सारे घर वाले परेशान हो जाते हैं, तो उसे नियंत्रित करने का केवल एक ही कारगर उपाय होता है कि उसे किसी ऐसे काम में लगा दो जो उसकी रूचि का भी हो और साथ ही सार्थक व कंस्ट्रक्टिव भी हो! बच्चा उसमें रूचिपूर्वक व्यस्त हो जायेगा और नकारात्मक शरारतें छोड़ देगा! ...मन भी एक बच्चे समान ही है; जब तक उसके सामने कोई रचनात्मक और सार्थक लक्ष्य नहीं होता, वह व्यर्थ के विचारों में भटकता रहता है! ...अधिकांश काउंसलर कहते हैं कि पहले मन शांत करो फिर कोई काम हाथ में लो; लेकिन मैं कहता हूँ कि किसी भी बिंदु से अपनी इच्छा व रूचि अनुसार किसी सार्थक काम को शुरू करो, ..मन में सकारात्मकता आनी शुरू जाएगी, मन शांत होता चला जायेगा! उदाहरण के लिए- वह कार्य अपने प्रियजनों के लिए गरमागरम स्वादिष्ट पकोड़े या नाश्ता आदि बनाना भी हो सकता है! कहने का अर्थ यह कि खुद को किसी ऐसे काम में व्यस्त कर लें जो रचनात्मक हो, आपकी रूचि का भी हो, साथ ही वह काम आपको कुछ अचीवमेंट का एहसास कराये! अपने किसी प्रियजन के किसी बहुत छोटे से काम में भी उसकी बहुत थोड़ी सी हेल्प करके भी हम अचीवमेंट को अनुभूत कर सकते हैं, शर्त यह कि यदि हम इस प्रकार का प्रयास रोज या अक्सर यानी नियमित रूप से करें!

(४) मन को कैसे जीता जाए? मन ही उत्थान व पतन का कारण है!
मन में कुछ सकारात्मक विचारों को डालकर ही हम मन को साध सकते हैं! सकारात्मक विचार यदि न डल पा रहे हों तो हठपूर्वक (यानी दूषित मन के विपरीत) कोई सकारात्मक कार्य ही करना शुरू करें एवं सुखद अचीवमेंट को अनुभूत करें, अब तो अवश्य ही सकारात्मक विचार जन्म लेने लगेंगे!

(५) अधिकाँश लोग जीवन में ख़ुशी की तलाश में समय व्यर्थ कर देते हैं, क्यों..? क्या ख़ुशी ढूंढ़ने से मिल सकती है...?
देखा जाये तो हर एक व्यक्ति प्रसन्न या खुश रहना चाहता है. सभी अपने-अपने ढंग से खुशियाँ ढूंढने की कोशिश करते हैं. किसी को वह कोई अमुक कार्य करने पर मिलती है तो किसी को कोई अन्य काम करने में! भीतर से खुश रहना चूंकि इस मानव जीवन का प्रमुख उद्देश्य भी है अतः खुशी को ढूंढना व्यर्थ कदापि नहीं! ...और खुशी मिलती भी है! यह अलग बात है कि बहुतों को मिली खुशी क्षणिक या अस्थाई होती है क्योंकि खुशी पाने के क्रम में उनके द्वारा चुने एवं किये गये कार्य का चुनाव या तो सही नहीं होता या फिर वे इसे ठीक ढंग से (परिपूर्णता से/मन लगाकर/लगन से) करते नहीं हैं. पढ़ाई की दृष्टि से या जीविकोपार्जन की दृष्टि से या घरेलू गृहणी होने की दृष्टि से अधिकांशतः चुनने के लिए हमारे पास कुछ सीमित विकल्प होते हैं, उन्हीं के इर्दगिर्द हमारे प्रयास (कार्य/कर्म) होते हैं. ....तो उन्हीं विकल्पों में से कुछ/किसी को चुनकर हम कार्य करना आरंभ करते हैं. ..पश्चात् उस/उन कार्यों से हमें दीर्घकालिक खुशी इसलिए नहीं मिल पाती क्योंकि कुछ समय व्यतीत होते-होते उस चुने हुए कार्य में हमारी एकाग्रता और समर्पणभाव कम होने लगते हैं. हमारा मन अन्यत्र भटकने लगता है. हम अन्य एवं ज्यादा प्रलोभनों में पड़ते जाते हैं, और श्रम भी कम करना चाहते हैं. ..यदि श्रम अधिक भी करते हैं तो अधिक भौतिक रिटर्न के लालच में. इस स्थिति में काम के प्रति हमारा मूल उद्देश्य (खुशी पाना) कहीं खो जाता है. यानी अब हम उस काम को एन्जॉय नहीं कर रहे होते! जब तक हम किसी चुने हुए या किसी द्वारा सौंपे गए काम को एन्जॉयमेंट की फीलिंग के साथ नहीं करेंगे तब तक खुशियाँ हमसे दूर ही रहेंगी. हम भटकते ही रह जायेंगे उन्हें हासिल करने के लिए! ....सारांश में पुनः, ....स्वेच्छा से चुना हो या मज़बूरी में ही मिल गया हो कोई कार्य, ..और उसे करना आवश्यक या अनिवार्य सा प्रतीत हो रहा हो, तो यदि हम उस कार्य को पूरी तरह से मन रमा कर, लगन से, समर्पणभाव से और कर्तव्य समझकर करेंगे तो अवश्य ही हमें सफलता मिलेगी और गहरी खुशी भी!! यही तो अध्यात्म का भी एक सिद्धांत है-- "समक्ष आए प्रत्येक कार्य को कर्तव्य समझकर करो!" कार्य कोई सा भी हो सकता है, कार्य कभी छोटा या बड़ा नहीं होता. (नोट:- वस्तुतः चिरस्थाई खुशी या आनंद किसी भजन-कीर्तन, सत्संग, योगाभ्यास, धार्मिक अनुष्ठान आदि में नहीं छुपी! बल्कि इन सब से हमें प्रेरणा मिलती है हर समक्ष आए प्रत्येक काम को 'साधना' समझकर करने की! अध्यात्म तो अपने आम जीवन में उतारने का, अमल करने का शास्त्र है).

(६) भगवान् एक दिव्य माँ हैं अथवा पिता?
एक बच्चे के 'योगक्षेम' हेतु यद्यपि एक माँ की बहुत बड़ी भूमिका होती है लेकिन पिता का सहयोग मिलकर ही वह योगक्षेम 'पूर्ण' होता है. अतः भक्त की आवश्यकतानुसार भगवान् कभी माँ रूप में होते हैं तो कभी पिता रूप में! परन्तु वास्तव में वो लिंगभेद से परे हैं.

(७) भगवान है या नहीं?
भगवान् तो अनुभव या अनुभूति का विषय हैं. जिसको यह होती है उसके लिए हैं, जिसको नहीं होती उसके लिए नहीं. विश्वास या अविश्वास से किसी का कुछ बनता या बिगड़ता नहीं है! हाँ, विश्वास होने से हमारे मन-मस्तिष्क पर कुछ लगाम लगी रहती है, हम गलत करने से डरते हैं; ..और अविश्वास की दशा में हम निरंकुश हो जाते हैं! सही या गलत करने से ही हमारा कुछ बनता या बिगड़ता है.

(८) कौन से लोग ऐसे हैं जो भगवान् के अस्तित्व पर प्रश्न चिन्ह लगाते हैं...? जब कण कण में वह व्याप्त है तो फिर ऐसे विचार क्यों...?
भगवान् के अस्तित्व पर प्रश्नचिह्न लगाने वाले आज के जिज्ञासु और भविष्य के साधक हैं! गहरा ज्ञान पाने की शुरुआत क्रॉस-क्वेश्चनिंग से ही होती है. स्कूल-कॉलेज की भी किसी कक्षा में असहमत, असंतोषी और बहुत से बुनियादी प्रश्न करने वाला विद्यार्थी ही बहुत आगे तक जाता है.

(९) आत्मा-परमात्मा क्या कल्पना मात्र हैं?
आपका कहना कुछ हद तक बिलकुल सही है! चमत्कारी प्रकृति के रहस्यों और उसके अकाट्य सिद्धांतों को समझने के लिए विज्ञान में और अनेक सवालों को सुलझाने हेतु गणित विषय में भी हम अनेकों परिकल्पनाओं का सहारा लेते हैं. तो अध्यात्म विषय भी एक प्रकार का शास्त्र (विज्ञान) ही है- "सूक्ष्म का शास्त्र"! ..तो इसमें भी चमत्कारी जीवन से सम्बंधित रहस्यों और उसके अकाट्य सिद्धांतों को समझने-सुलझाने के लिए आत्मा, परमात्मा जैसे शब्दों द्वारा कल्पनातीत की कल्पना की गयी है. बिलकुल वैसे ही जैसे- ..कुछ अदृश्य सा झोंका आता है और मेज पर रखे सभी पन्ने उड़ जाते हैं, हमने उस शक्ति का नाम 'वायु', 'हवा', आदि रख दिया! इसी प्रकार जिसमें जीवन के मूलस्रोत का आभास हो रहा है/होगा, उसका नाम अध्यात्मशास्त्रियों ने 'आत्मा' रख दिया; ...और इस स्रोत का भी जो बड़ा स्रोत है, जिसमें से यह स्रोत उपजा है/होगा, उसका नाम 'परमात्मा' कल्पित कर लिया! हो सकता है कि विश्व में किसी अन्य भाषा, संस्कृति या सभ्यता के लोगों ने अपनी खोज-यात्रा में किन्हीं अन्य नामों की कल्पना की हो!

(१०) कलयुग में भगवान् में आस्था कम होने का मुलभुत कारण क्या है...? क्या शायद इसी लिए पाप कर्मों में भी निरंतर वृद्धि हो रही है!?
भगवान् में आस्था कम होने के कुछ कारण-- (१) अहंकार का बहुत बढ़ जाना, (२) अहं के कारण यह भ्रम होना कि मनुष्य सिर्फ देह है, (३) यह समझना कि देह और इसमें उपस्थित मस्तिष्क ही सर्वगुणसंपन्न और सर्वशक्तिशाली है, (४) विज्ञान द्वारा खोज निकाले गए सिद्धांतों की परिधि से भी स्वयं को बाहर मानना, (५) धर्मों (पंथों) में व्याप्त विभिन्न अंधविश्वासों से उकता जाना, (६) वर्तमान आध्यात्मिक गुरुओं द्वारा आध्यात्मिक शिक्षा को स्वयं ही अपने आचरण द्वारा ना प्रकट कर पाना, (७) अध्यात्म, धर्म या भगवान् आदि शब्दों की व्याख्या आधुनिक समयानुसार प्रासंगिक या सर्वथा स्पष्ट ना होना, (८) धार्मिकता (अच्छेपन) को कायम रखने के लिए आध्यात्मिक या धार्मिक शिक्षा में समयानुसार किसी भी सकारात्मक परिवर्तन का साहस किसी में भी ना दीखना (लकीर के फ़क़ीर बने रहना), (९) इन सब कारणों से लोगों का धर्म के प्रति उदासीन एवं निष्क्रिय होना, (१०) वर्तमान धर्मगुरुओं की भी अकर्मण्यता, उदासीनता व मात्र दिखावटी प्रदर्शन से आमजन में जिज्ञासा और जानने की 'निष्काम' तड़प अब दुर्लभ होना, (११) जब जिज्ञासा, पर्याप्त तड़प आदि नहीं तो भगवान् सम्बन्धी ज्ञान का खोखला होना, ...और जब ज्ञान उथला तो विश्वास का 'टिकाऊ' होना कैसे संभव?! ....इन्हीं सब कारणों से आज 'धर्म' (सही सोच, सत्य, न्याय, अच्छापन आदि) की भारी हानि हो रही है और पाप व भ्रष्टाचार बढ़ रहे हैं.

(११) मुझे परमात्मा से साक्षात्कार करना है मैं क्या करूं?
मैं कोई गुरु नहीं अपितु आप ही की भांति कदाचित् एक साधक ही हूँ. अपने अनुभव व अनुभूति के आधार पर, ....चिरपरिचित सोलह अक्षर के महामंत्र का अपने खाली समय में प्रतिदिन कुछ देर तक सस्वर पाठ करें- "हरे राम हरे राम, राम राम हरे हरे ; हरे कृष्ण हरे कृष्ण, कृष्ण कृष्ण हरे हरे". ...लय लाने के लिए राम को रामा और कृष्ण को कृष्णा उच्चारित किया जा सकता है. ...स्वयंभू गुरुओं, दिखावटी सत्संगों और कोरी भावुकता से बचें. गीताप्रेस, गोरखपुर के संस्थापक/लेखक दिवंगत श्री हनुमानप्रसाद पोद्दार जी एवं स्वामी विवेकानंद जी का साहित्य पढ़ें, ..पर्याप्त रहेगा. .....तथा बहुत महत्वपूर्ण यह कि, अपने व अपने घर वालों से जुड़े प्रत्येक कार्य को कर्त्तव्य (साधना) समझकर करें. ...कहा गया है, "योगः कर्मसु कौशलम्", अर्थात् कुशलता से किया गया प्रत्येक कार्य ही योग (ईश्वर से जुड़ना) है!