Monday, October 16, 2017

(८६) चर्चाएं ...भाग - 5

(१) क्या आत्मा मरती है? नहीं.. तो कहां जाती है? सभी कहते हैं आत्मा मरती नहीं, क्या यह दुबारा जन्म लेती है? अगर हाँ तो हमें याद क्यों नहीं होता कि हम पहले क्या थे?
आत्मा एक प्रकार की ऊर्जा है. एक ऐसा ऊर्जा रूपी सॉफ्टवेयर जो किसी देह रूपी हार्डवेयर को चलाने या ऑपरेट करने में सक्षम है. विज्ञान के अनुसार भी किसी भी ऊर्जा का अपना कोई रूप-रंग-आकार आदि नहीं होता; ऊर्जा अक्षुण्ण होती है अर्थात् कभी नष्ट नहीं होती; ऊर्जा की कोई यादाश्त भी नहीं होती. ...विभिन्न अन्य ऊर्जाएं जैसे न दिखते हुए भी वातावरण में कहीं न कहीं तो अवश्य होती हैं वैसे ही आत्मा भी होती हैं. गर्भ या बीज के माध्यम से किसी नवीन देह में प्रत्यारोपित होते ही उसके हार्डवेयर से जुड़कर ही वह सक्रिय (एक्टिवेट) होती है और उसे भी सक्रिय करती है. जैसे बहुत सी प्राकृतिक पेचीदगियों की गांठ विज्ञान अभी तक नहीं खोल पाया है, आत्मा भी उनमें से एक है. ...वैसे यह उत्तर अति संक्षिप्त और प्राथमिक स्तर का ही है.

(२) भारतीय संस्कृति में व्रत और पूजा विधानों का क्या महत्त्व है...? क्या आज भी व्रत विधानों का कोई औचित्य है...?
किसी विश्वास के रहते मन की पवित्रता और मानसिक बल प्राप्त करने हेतु व्रत एवं अनुष्ठान आदि करना सर्वथा उचित है. लेकिन अन्य किसी प्रयोजन से इन्हें करना अब प्रासंगिक एवं उचित नहीं! किसी भी पूजा-आराधना का उद्देश्य यदि ईश्वर के गुणधर्म को आत्मसात करना ही हो तो ही उत्तम. यदि कोई भी पूजा-अनुष्ठान हमारे भीतर दैवीय गुणों में वृद्धि कर हमें और बेहतर इंसान बना पा रहा हो तो उसका सहर्ष स्वागत. ...अन्यथा सब मिथ्या है, त्याज्य है.
इस विषय पर चर्चा में अनेक वाद-विवाद पढ़े. देखिये, यदि विश्वास और भाव के बिना कोई व्रत आदि रखा जाये तो उसका कोई भी औचित्य नहीं, वह बेकार की एक्सरसाइज होगी....लेकिन विश्वास सहित भावपूर्ण कृत्य के लाभ अवश्य होते हैं. अपने अनुभवों से मेरा यह मानना है कि करवाचौथ जैसे कठिन व्रत यदि "भावपूर्ण" किये जायें तो 'संभावित' लाभ ये हैं-- ...(१) स्त्री के मन में अपने पति के लिए आदर और केयरिंग का भाव बढ़ता है और फलस्वरूप पति के मन में भी ऐसा ही भाव बढ़ता है. तब आपसी सम्बन्ध और अधिक प्रगाढ़ होते हैं. ...(२) व्रत के दिन पत्नी के मन में यदि श्रद्धाभाव और अनन्य विश्वास है तो उसका मानसिक बल एवं पवित्रता बहुत बढ़ जाते हैं. इसके कारण बहुत सी विपत्तियाँ टल सकती हैं, ..हो सकता है पति अब पत्नी की नेक सलाहों पर अधिक ध्यान दे इसलिए ही! ..क्योंकि यह एक स्थापित सत्य है कि नैसर्गिक रूप से पुरुष मन की अपेक्षा एक स्त्री मन अधिक नैतिक एवं शुद्ध (माने अधिक अच्छा) होता है. ...(३) अधिकांश भारतीय भावपूर्ण आस्तिक दंपत्तियों को व्रत के दिन हुए ये उपरोक्त लाभ व्रत के बाद भी कायम रहते हैं और प्रत्येक वर्ष इनके पुनः पुनः होने पर ये लाभ गहराते जाते हैं. .....निचोड़ यह कि भावना नेक व भाव सच्चा हो तो ही ईश्वरीय मदद मिलती है अन्यथा ईश्वर कोई रिश्वतखोर राजा नहीं! भावपूर्ण उपासना होने पर भी ईश्वर कोई चमत्कार जैसा नहीं करते अपितु वह बुद्धि और विवेक को शुद्ध करके आपसी समझ व प्यार को विकसित करते हैं; जब ऐसा होता है तो हमारी निर्णय क्षमता बेहतर होती है और फलतः संकट टलते हैं. ..जिस व्रत से परस्पर प्यार व सम्मान बढ़े, मानसिक बल बढ़े, बुद्धि और विवेक शुद्ध होते हों, ..और फिर इन सब से संकट टलते हों, ऐसा व्रत आलोचना का पात्र कैसे हो सकता है!? हाँ जिनको विश्वास नहीं उनको दिखावे के लिए व्रत रखने-रखवाने की कोई भी आवश्यकता नहीं, उसका कोई भी लाभ होने वाला नहीं! धर्म के क्षेत्र में कुछ भी जबरन करना या करवाना गलत है, हाँ कुछ वास्तव में गलत होने पर उसका विरोध जायज है- जैसे स्वार्थपूर्ति के लिए अंधश्रद्धा गलत है. उदाहरण के लिए- कुछ लोगों में विश्वास, श्रद्धा, भाव वगैरह ना होते हुए भी मात्र स्वार्थपूर्ति के लिए वे विभिन्न अनुष्ठान करते-करवाते हैं, या मात्र भौतिक स्वार्थ साधने के लिए ही विश्वास, श्रद्धा व भाव को बढ़ाने का प्रयास करते हैं, ...इन्हीं के कारण अंधश्रद्धा बढ़ती है और समाज का खरा भौतिक एवं आध्यात्मिक विकास रुक जाता है.
धर्म के क्षेत्र में इस समय बहुत कुछ गलत है लेकिन सब कुछ गलत घोषित कर देना अतिरेक होगा. किसी दुर्लभ सी अपवाद वाली घटना से हमें एकदम से गलत अर्थ नहीं निकालने चाहियें. अपवाद कहाँ नहीं होते??? अध्यात्म की जड़ में घुसकर ही हम इसे भलीभांति जान सकते हैं, फिर इसमें व्याप्त अच्छाईयाँ व बुराईयाँ हमें स्पष्ट हो जाती हैं, हम उन्हें फ़िल्टर कर सकते हैं. याद रखिये कि अध्यात्म केवल निरंतर अभ्यास (इम्प्लेमेंट) एवं अनुभूति का शास्त्र है! .....अति प्राचीन व्रत एवं उनके आशय गलत थे नहीं, हमने ही उनका स्वरूप बिगाड़ दिया है! ...और अनेक व्रत विधान आदि बाद के लोभी पंडितों ने नए भी पैदा कर दिए, ...या फिर उन्होंने भी प्राचीन का स्वरूप बिगाड़ कर रख दिया. ...लेकिन मेरा यह मजबूती से मानना है कि किसी व्यक्ति का जब विश्वास खंडित हो जाये तो फिर उसके लिए वह अनुष्ठान व्यर्थ का है, उसे बिलकुल भी ना करना चाहिए, ..जिनका विश्वास झूठा है, उनका विरोध भी करना चाहिए, ...पर जिनका विश्वास अभी भी सच्चा है, उनकी भर्त्सना करना उचित नहीं!

(३) मैं एक सिविल इंजिनियर हूँ और मैं जल विभाग में कार्यरत हूँ।और मैं अपने शहर को साफ सुथरा रखना चाहता हूँ, मैं पेड लगाने और नदियों को साफ सुथरा रखना चाहता हूँ लेकिन कैसे करें समझ नहीं आ रहा है।
आप जहाँ कहीं भी रहते हैं सबसे पहले वहां अपनी सोशल एक्टिविटीज़ को बढाएं. यदि आपके लिए संभव हो तो अपने आसपास के पड़ोसियों से संपर्क साधकर एक सामाजिक संगठन बनाएं, ...या फिर अपने क्षेत्र के किसी बेहतर संगठन या संस्था को ज्वाइन कर लें. ..अब आरंभ में ही अपने सपने या चाहत को उन्हें ना बताकर पहले उनसे सामाजिक घनिष्ठता बढाएं, उनके वर्तमान कार्यों में सहभाग करें और फिर कुछ समय पश्चात् अपना यह प्रस्ताव उनके समक्ष रखें. किसी भी बड़े कार्य को अंजाम देने से पहले उसकी एक फिजा तैयार करनी पड़ती है. ...आप समझ गए होंगे. ...आपका इरादा नेक है और तरीके व्यावहारिक तो अवश्य ही अपने मिशन में सफल होंगे. समाज या सरकार का सहयोग लेकर ही बड़े पैमाने पर कार्य संभव हो पाता है. मेरे विचार से करप्शन-रहित कार्य के लिए सरकार की अपेक्षा समाज का सहयोग लेना ज्यादा अच्छा रहेगा. ...मेरी शुभकामनाएं.

(४) धर्म के नाम पर हिंसा करना सबसे बड़ा पाप है...? समाज में हिंसा फैलाने में आज धर्म का सहारा लिया जाता है ...क्यों ?
जी हाँ, सहमत हूँ आपसे. ...ऐसा इसलिए होता है क्योंकि हिंसा भड़काने वाले स्वार्थी होते हैं और वे भलीभांति जानते हैं कि अधिसंख्य लोगों का धार्मिक या आध्यात्मिक ज्ञान बहुत उथला है, बहुधा लोग पिछड़ेपन वाले अंधभक्त हैं, इसलिए धर्म के नाम पर उन्हें आसानी से बरगलाया व हिंसक किया जा सकता है. पिछड़े और विकासशील संघों में ही यह होता है, लेकिन एक विकसित राष्ट्र के लोगों को धर्म के नाम पर उत्तेजित करना सरल नहीं, वे किसी जायज मुद्दे पर ही स्वतः उत्तेजित होते हैं!

(५) तनावरहित जीवन जीने की कला क्या है ?
"सादा जीवन उच्च विचार"! ....'सादा' का अर्थ 'रूखा-सूखा' नहीं होता! 'सादा' अर्थात् 'आडंबरहीन'! जीवन में सबकुछ करें..., लेकिन सहजभाव से, बिना दिखावे के! पिछलग्गू न बनें, अपनी आवश्यकताओं का आंकलन स्वयं करें, लालच में उन्हें अधिक विस्तार ना दें, और अपनी वरीयताएं उन्हीं के अनुसार स्वयं तय करें! ..जीवन की भंगुरता का सदैव ध्यान रहे! कुछ भी सदा के लिए नहीं रहना है, इसका ध्यान रखते हुए भविष्य की योजनाओं में सीमित ऊर्जा खर्च करें! तुलना से बचें, होड़ से बचें, जो भी प्राप्त है उसपर गर्व करें, हीन अथवा उच्च भावना से दूर रहें! ....सबसे जरूरी बात कि जो भी काम-धंधा या नौकरी आदि कर रहे हैं उसे दिल लगाकर, सिर उठाकर, पूरे मनोयोग से लुफ्त लेते हुए (यानी एन्जॉयमेंट की फीलिंग के साथ) गर्व से करें..., तनाव कोसों दूर रहेगा! कार्य में संतुष्टि यानी वर्क सैटिस्फेक्शन से ही दिमागी सुकून मिलता है, फिर बदले में मिले पैसे की मात्रा बहुत महत्त्व नहीं रखती! जीवन को भरपूर जियें, हर्ष-उल्लास के छोटे-बड़े मौके ढूंढते रहें, जीवनसाथी और अन्य परिजनों के साथ भरपूर समय बिताएं, पारिवारिक समारोहों में सक्रियता से हिस्सा लें, खुशमिजाजी रखें, ...इन सब में बहुत पैसे की आवश्यकता नहीं होती! सदैव भान रहे कि पैसा बहुत कुछ है, लेकिन सबकुछ नहीं! कुछ भी बड़ा खर्च करने से पहले अपने अंतर्मन से यह प्रश्न अवश्य करें कि.. क्यों? क्या यह सही में मेरी आवश्यकता है? ..या देखा-देखी, भेड़चाल में, ऐसा करने की सोच आ रही है? ..ऐसा करने पर हमारे भीतर की आवाज हमें अनेकों अनचाहे और गैरजरूरी खर्चों से बचाकर हमें तनावमुक्त रख सकती है. ...इन सब के अतिरिक्त यदि अध्यात्म को भी समझने का प्रयत्न करते रहेंगे तो जीवन जीने की कला स्वयमेव आती जाएगी.

(६) भारत 119 देशों में से 100 वें स्थान पर पहुँच गया है भुखमरी में! हमें विकास किस क्षेत्र में करना चाहिए? और क्या हम सही विकास के राह पर हैं? बुलेट ट्रेन,राम के, पटेल के, शिवाजी के प्रतिमाएं बनाना ज्यादा जरूरी हैं?
संघ के सुदृढ़ और खरे विकास के लिए सभी को अच्छा इंसान बनने-बनाने के क्षेत्र में सबसे पहले कार्य करना होगा, ...उसके बाद, हमारे पास आलरेडी जो भी है उसे संभालना, सहेजना सीखना होगा. ...वर्तमान ढांचे, संसाधनों आदि को जब हम मेन्टेन करने में, ग्रिप में लेने में जब सफल हो जायें, तब ही हमें आगे के विकास का कार्य आरंभ करना चाहिए! ...मोदी जी तो देश के सिस्टम को बिना बुनियादी पाठ अमल करवाए आगे के सिलेबस में धकेले जा रहे हैं, ..यह आत्मघाती कदम सिद्ध होगा, हमारा विकास एक खोखला विकास ही सिद्ध होगा (हो रहा है!). दूर अतीत में अंग्रेजों द्वारा बनवाये गए और यूनेस्को द्वारा 'विश्व धरोहर' घोषित "कालका-शिमला रेलपथ" को भारतीय रेल विभाग ठीक से मेन्टेन करने में जहाँ आज भी 'अक्षम' है, दूसरी सवारी गाड़ियों की लेटलतीफी और एक्सीडेंट्स लगातार बढ़ते जा रहे हैं, स्टेशनों और प्लेटफार्मों की हालत खस्ता बनी हुई है, यात्रियों को दी जाने वाली सुविधाएं और सुरक्षा व्यवस्थाएं बद से बदतर होती जा रही हैं, ...वहां इन सब को दुरुस्त किये बगैर ही बुलेट ट्रेन का शिगूफा छोड़ना निहायत बेवकूफी भरी बात लगता है! ...रेलवे का जिक्र तो मात्र एक उदाहरण के रूप में किया मैंने, ..सभी क्षेत्रों और विभागों में बुनियादी संरचना को मजबूत करना सरकार का पहला लक्ष्य होना चाहिए. ...खोखली बुनियाद पर विकास की इमारत खड़ी करने की कोशिश में एक दिन सब भरभरा कर गिर जायेगा, और नुकसान देश के आम नागरिकों का ही होगा, हम फिर से कई बरस पीछे चले जायेंगे! ...अभी मैं ५४ वर्ष का हो चुका हूँ और होश संभालते ही पिछले ५० वर्षों से अभी तक सुन और पढ़ रहा हूँ कि 'भारत एक विकासशील देश है'!
प्रतिमाएं आदि तब बनाएं जब असली विकास करके थोड़ा सा सुस्ताना हो, अपने पर खुश होना हो! अभी तो बहुत काम पड़े हैं, अभी मूर्तियां बनवाने की बात सुनना भी कानों को नागवार गुजरता है, क्रोध आता है मूर्खतापूर्ण बातों पर! छोटा सा बच्चा समझ रखा है आम जनता को कि झुनझुना पकड़ा देंगे!

(७) दीपावली मनाने का सर्वोत्तम तरीका क्या है और क्यों....? दीपावली मनाने के पीछे क्या भाव है...?
असत्य पर सत्य की विजय उपरांत धर्मयुद्ध के नायकों के स्वागतार्थ एवं सम्मानार्थ तथा इस निमित्त अपना हर्षोल्लास व्यक्त करने हेतु दीपावली का पर्व मनाया जाता है. कार्तिक माह की अमावस्या की रात्रि विभिन्न प्रकार की रोशनियों से वातावरण को जगमगा कर अंधकार को परास्त कर प्रतीक रूप में नकारात्मकता पर सकारात्मकता (असत्य पर सत्य) की जीत को दर्शाया जाता है. वैसे समय के साथ दीपावली मनाने के अनेक अन्य कारण भी साथ में जुड़ गए. इस कारण इस त्यौहार का महत्त्व और भी बढ़ जाता है. सब विश्वास और परंपरा की बातें हैं. लेकिन यह तो सच है कि प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से किसी न किसी तरह यह त्यौहार हमारे भीतर एक नवीन ऊर्जा एवं आह्लाद का संचार करता ही है. अतः यह आलोचना का तो पात्र कदापि नहीं. हम अपने विश्वास के चलते किसी भी ढंग से इसे मनाएं, पर अंततः परिणामी भाव यही आए कि, "सकारात्मकता बढ़े, सत्य की राह पर अग्रसर एवं स्थिर हों, आपसी भाईचारा बढ़े, सात्त्विकता बढ़े, बहुमुखी समृद्धि एवं विकास की ओर बढ़ें, जीवन में तनाव कम होकर हर्षोल्लास बढ़े, भीतरी ऊर्जा बढ़े."

(८) देश में लोग सुधार लाने में सहयोग देने के बजाये अपनी बात को एहमियत क्यों देते हैं? बिना पटाखों की दिवाली,कैसा विचार है..?
किसी भी बेहतर चीज (बदलाव) को लागू करवाने के लिए कानूनी दबाव की अपेक्षा जागरूकता पैदा करना एक अच्छा विकल्प है. लोगों के जागरूक न होने की दशा में कानूनी दबाव भी चरण दर चरण बनाया जाना चाहिए. एकदम से हिटलरशाही थोप देना भी सामाजिक असंतोष को जन्म देता है, खासतौर पर जब मामला किसी पारंपरिक धार्मिक त्यौहार से जुड़ा हो. ..."बिना पटाखों की दिवाली" वैसे तो एक बहुत अच्छा विचार है, पर इसे चरण दर चरण बुद्धिमानी से लागू किया जाता तो बेहतर होता. उदाहरण के लिए -- दिल्ली में हर साल की तरह इस साल भी आतिशबाजी के फुटकर और थोक व्यापारियों को लाइसेंस जारी किये गए, उनको जारी करने के लिए रिश्वत वगैरह भी वैसे ही खायी गयी, चूंकि इनसे जुड़े व्यापारियों के व्यापार का एक बड़ा हिस्सा दीपावली में ही पूरा होता है, अतः उन्होंने इस दिवाली से पूर्व ही निर्माता कम्पनियों को भारी एडवांस धनराशि के साथ बड़े आर्डर दे दिए, छोटे व्यापारियों ने बड़े व्यापारियों के यहाँ भी ऐसा ही कुछ कर दिया. अब न्यायालय का पटाखा-प्रतिबन्ध का आदेश आ गया, तो कारोबार से जुड़े व्यापारियों को तो दोहरा-तिगुना नुकसान हो गया. लाइसेंस फीस का घाटा, एडवांस धनराशि का घाटा, बिक्री शून्य तो मुनाफा भी शून्य, इस वर्ष कोई अन्य काम न करने के कारण कमाई भी शून्य. ...'दिवाला' निकल गया होगा उनका! बरसों से चले आ रहे एक दस्तूर को एकाएक समाप्त कर देना मुझे तो समझ में नहीं आया. ...हल के तौर पर होना यह चाहिए था कि न्यायालय यह निर्णय लेता कि अभी से, यानी इसी दीपावली पर ही यह घोषणा कर दी जाती कि इस वित्तीय वर्ष के उपरांत पूरे राजधानी क्षेत्र में सभी त्यौहारों पर आतिशबाजी सख्ती से प्रतिबंधित रहेगी. दीपावली उपरांत के लिए व्यापारीवर्ग इस बीच अपना कोई दूसरा काम-धंधा ढूंढ लेता, उसका नुकसान न होता. इति.