Saturday, October 28, 2017

(८७) चर्चाएं ...भाग - 6

(१) क्यों लोग मोक्ष प्राप्ति के लिए उतावले रहते हैं या प्रयत्नशील रहते हैं? माना कि किसी का जीवन नर्क जैसा रहा हो तो वे पुनर्जन्म से कतराते होंगे और इस जीवन-मृत्यु चक्र से निजात पाना चाहेंगे या मोक्ष चाहेंगे मगर जिसका जीवन सुखमय रहा और खूब आनन्दपूर्वक कटा, उसे भी क्यों मोक्ष चाहिए? उसके सगे-सम्बन्धी भी यही प्रयत्न करते हैं कि उसे मोक्ष प्राप्त हो, ऐसा क्यों?
बहुत ही अच्छा और प्रासंगिक विषय उठाया आपने भैया! बड़े खेद की बात है कि हमारे यहाँ पंडित-पुरोहितों द्वारा 'मोक्ष' का अर्थ 'जन्म-मृत्यु के फेरों से मुक्ति' मात्र ऐसा बताया जाता है. अज्ञानवश या निजस्वार्थ पूर्ति हेतु उनके द्वारा लोगों को अधकचरा और अतिसीमित व संकीर्ण सोच वाला ज्ञान दिया जाता है. इसके लिए भोले और अज्ञानी यजमानों को अनुष्ठानों के रूप में अनेकों स्थूल उपाय बताए भी जाते हैं. लोग इन छद्म आध्यात्मिक चक्करों में ऐसा उलझ जाते हैं कि काल्पनिकता में खो कर उन्मत्त से हो जाते हैं. शायद इसी कारण से धर्म व अध्यात्म आदि को अफीम का नशा कहा जाता है. इस मंच पर भी ऐसा माहौल खूब दिखता है! ...'मोक्ष' शब्द अपनेआप में कुछ गलत नहीं, वरन उसकी अजीबोगरीब व्याख्याएं उलझाने और भटकाने वाली हैं. ...वस्तुतः 'मोक्ष' एक अवस्था है, और मोक्ष की अवस्था आध्यात्मिक साधना का अब तक का ज्ञात 'चरम बिंदु' है. मोक्ष की अवस्था प्राप्त मनुष्य की प्रसन्नता, आनंद या हैप्पीनेस किसी विषय-विशेष पर आश्रित नहीं रह जाती, वह दुःख और सुख यानी प्रत्येक स्थिति में समान रहने में सक्षम रहता है, उसकी सोच व निर्णय सदैव भले और न्यायोचित होते हैं, दुनियावी राग-द्वेष से वह परे रहता है. किसी गुफा, पर्वत या जंगल में रहकर नहीं बल्कि आम समाज में रहते हुए वह यह सब साधने में सफल होता है. सतत यह साध लेना ही 'साधना' की पराकाष्ठा है, मोक्ष की स्थिति है. ऐसे मोक्ष के लिए भला कौन आपत्ति करेगा! ...लेकिन फिर भी आपत्ति होती है क्योंकि अहं को, राग-द्वेष को, लालच को, स्वार्थ को, कमाने-खाने के गलत रास्तों आदि को तिलांजलि देनी पड़ती है! 'मोक्ष' का मार्ग आपको जीने से वंचित बिलकुल भी नहीं करता बल्कि वह गलत माने अधर्म के मार्ग को छोड़ने को उकसाता है. ..."आध्यात्मिक भाषा में 'मोक्ष' अर्थात् मन पर से दुनियावी संस्कारों के प्रभुत्व को समाप्त करना." ..अधिकांशतः सोचने व निर्णय लेने के लिए हम मन में उपस्थित दुनियावी संस्कारों की मदद लेते हैं. ये दुनियावी संस्कार हमारे जन्म उपरांत आंख, कान आदि ज्ञानेन्द्रियों द्वारा अपने आसपास घटित हो रहे प्रसंगों-घटनाओं आदि से निर्मित होते हैं. पैदा होने के बाद हमारे आसपास की दुनिया की आवाजें, भाषा, प्रसंग, घटनाएं, संस्कृति आदि हमारे मन पर निरंतर कुछ संस्कार अंकित करती हैं. उन्हीं संस्कारों के अनुसार हमारा एक व्यक्तित्व, पसंद-नापसंद, व्यवहार आदि बनता है. हमारे आसपास अच्छा या बुरा जैसा भी चलन चल रहा होता है, हमारे संस्कार भी कमोवेश वैसे ही निर्मित होते जाते हैं. फिर हम जब कुछ बड़े हो जाते हैं तो कई बार हमारे सामने जब कुछ प्रसंग घटता है तो अधिकांशतः हम अपने पूर्वनिर्मित संस्कारों के चश्मे से ही उसे देखते हैं और उन्हीं के अनुसार उस प्रसंग से निपटते हैं. मानों संस्कारवश बनी किसी गलत सोच के कारण हम किसी घटना में कुछ नकारात्मक ढंग से सोचते हैं, तो कभी-कभी समानांतर रूप से हमें भीतर से एक और ध्वनि सुनाई पड़ती है जो हमें उस गलत संस्कार के विरुद्ध जाकर कुछ अन्य (यानी कुछ अच्छा) करने को उकसा रही होती है. ...हम सिर झटक कर उस ध्वनि को सुना-अनसुना कर देते हैं क्योंकि संस्कार का प्रभुत्व उस आवाज से अधिक बलशाली है. ...लेकिन कभी-कभी उस अंतर्ध्वनि के अनुसार (संस्कार विरुद्ध जाकर) भी कुछ निर्णय लेते हैं. वह निर्णय हमारे इर्दगिर्द के समाज के मापदंडों के अनुसार तो नहीं होता लेकिन फिर भी वह करके हमें असीम शांति व सुख का अनुभव होता है, अक्सर वह शब्दातीत होता है, हम उसे व्यक्त नहीं कर पाते! दरअसल वह भीतर की शुद्ध आवाज उस आत्मा रूपी प्राकृतिक या ईश्वरीय सॉफ्टवेयर की है, जिसकी खोज व प्रकटीकरण हम 'अध्यात्म' के अंतर्गत करते हैं. वास्तविक धर्म माने राईटयचनैस उसी आत्मा रूपी सॉफ्टवेयर में नैसर्गिक रूप से पूर्वस्थापित होता है. ...यानी अब हमने जाना कि हमारी सोच और निर्णय-क्षमता, दोनों के दो स्रोत हैं-- पहला मन में उपस्थित दुनियावी संस्कारों का समूह, और दूसरा नैसर्गिक (किताबी नहीं) आत्मिक ज्ञान. ...'मोक्ष' अर्थात् दुनियावी संस्कारों पर आत्मिक निर्देशों को प्राथमिकता देना, फिर धीरे-धीरे उन संस्कारों की दासता से सम्पूर्ण मुक्ति पाना. शेष फिर......., वैसे बात पूरी हो चुकी है!

(२) भगवान है या नहीं?
कुछ लोग इसका उत्तर 'हाँ' में देते हैं, कुछ 'ना' में, ...और कुछ संशय में रहते हैं कि भगवान् 'है' या 'नहीं'! ...यद्यपि 'हाँ' कहने वालों की संख्या सबसे ज्यादा है, और 'ना' कहने वालों की बहुत अल्प; तदपि 'हाँ' कहने वालों में एक बड़ा वर्ग ऐसा भी है, 'हाँ' पर जिनकी निष्ठा एवं विश्वास डोलते रहते हैं! आराधनालयों में वे आस्तिक होते हैं परन्तु दुनियावी स्वार्थों की पूर्ति के समय अंदरूनी तौर पर वे घनघोर नास्तिक दिखते हैं. ...और केवल प्रत्यक्ष को ही प्रमाण मानने वालों के लिए एकदम ठोस प्रमाणिकता से यह कहना कि "भगवान् हैं" या "भगवान् नहीं हैं", बहुत मुश्किल है. दोनों ही बातों का भौतिक या स्थूल प्रमाण देने का प्रयास व्यर्थ के वाद-विवाद को जन्म देता है. ..वैसे इस बारे में मेरा निजी मत आप मेरे पहले के ब्लॉग (चर्चाएं ...भाग - 1) के २०वें बिंदु में विस्तार से पढ़ सकते हैं.

(३) ईसा पूर्व लगभग 3500 सिंधु सभ्यता के प्रमाण मिले राम कृष्ण के नहीं, तो पूर्ण श्रद्धा कैसे होगी? हमारे धार्मिक इतिहास को प्रामाणित कर मन की शंका खत्म कर शान्ति को हमेशा के लिए स्थिर करना चाहता हूं।
किसी पौराणिक दंतकथा के इतिहास को खोदकर हम बहुत कुछ हासिल नहीं कर सकते! आज के परिपेक्ष्य में उससे जो लाभ हम उठा सकते हैं, वह उठा लें, बस यही महत्वपूर्ण है. उदाहरण के लिए-- एक प्रसिद्ध फल 'आम' की मौजूदा मिठास उसका इतिहास जानने से क्या कम या ज्यादा हो जाएगी?? यदि एक 'आम' हमारे समक्ष रखा है, तथा उसकी सुगंध और मिठास हमें आकर्षित व आमंत्रित कर रही है कि हम उसका रसास्वादन कर उसका लाभ उठाएं, किन्तु हम हैं कि उसको खाने से पहले उसके इतिहास या उसके बनने की प्रक्रिया पर लंबी खोजबीन व चर्चा करने में लग जाते हैं. कुछ समय बाद हम पाते हैं कि वह सुगन्धित व स्वादिष्ट फल मुरझाकर गलने लगा और हमारे लिए बेकार हो गया! ...इसी प्रकार भगवान्, परमेश्वर या उनसे सम्बंधित कथाएं यदि हमें कुछ शिक्षा देने, प्रेरित करने और भले मार्ग पर अग्रसर करने में सहायक प्रतीत होती हैं तो उन्हें अपना लें, उनका लाभ उठा लें, अन्यथा बहुत चर्चा करने से भी हमारे लिए वे निस्तेज होती जाती हैं. साथ में इतना अवश्य करें कि उनका अनुभव करके, उनसे सीखकर, और आगे को बढ़ें; एक जगह पर ही अटके न रहें. अध्यात्म (आत्मा-परमात्मा संबंधी ज्ञान) हमें निरंतर चलाएमान रहने को कहता है. इस मंच पर रहते हुए भी यदि हमारी आध्यात्मिक प्रगति न हो तो समझो कि हम कुछ बेड़ियों में जकड़े हुए हैं! पुनः, ...आम की मिठास के प्रति पूरी तरह से आश्वस्त होने के लिए उसका इतिहास जानना कोई जरूरी तो नहीं, बस उसे चखने की जरूरत है, विश्वास अपनेआप हो जायेगा! ...यह भी अपनेआप में कितना आश्चर्यजनक है कि पेड़-पौधे अपनी जड़ों द्वारा साधारण मिट्टी से ही पता नहीं क्या और कैसे कुछ चूसकर पता नहीं कितने अलग-अलग प्रकार के फल-फूल, सब्जियां, अन्न आदि पैदा करते हैं! क्या हम किसी भी प्रोसेस की पूरी जांच करके कृत्रिम तरीकों से एक भी असली अन्न का दाना अथवा कोई एक फल या फूल लेबोरेटरी में बना पाए हैं- बिना बीज, पानी और मिट्टी के?! अपने प्रयासों से कृत्रिम विधि से एक असली चींटी तक बना पाना हमारे बस का नहीं! ...इतना ही मनन-चिंतन कर लेंगे तो एक अनदेखे निराकार ईश्वर पर विश्वास हो जायेगा. ..राम, कृष्ण आदि उसी के साकार महामानव रूप थे जिनके चरित्र आज के परिपेक्ष्य में भी हमें प्रेरित करने में समर्थ हैं, आज भी वे प्रासंगिक हैं.

(४) क्या कलयुग अब अपने अंतिम चरण में पहुँच चुका है...? विश्व में बढ़ते आतंकवाद और अन्य गतिविधियां क्या सृष्टि के अंत की ओर संकेत करती हैं...?
बढ़ता आतंकवाद तो नहीं, हाँ हमारे इर्दगिर्द तेजी से बदलती जीवनशैली, प्राकृतिक संसाधनों का अंधाधुंध दोहन, हर चीज में व्यापारिक सोच, नैतिक मूल्यों की धज्जियाँ उड़ना आदि इस बात के संकेत देते हैं कि दीया बुझने से पहले बहुत तेजी से जल रहा है!

(५) आज मनुष्य संतुष्ट क्यों नहीं है सब बेचैन हैं!?
अनेक कारण हैं-- (१) बचपन में ही परिवार और समाज से ऐसे संस्कार मिलना जिनमें भौतिक आकांक्षाओं व अपेक्षाओं को बहुत महत्त्व दिया जाता है. ..(२) संस्कारों में अब अक्सर जीवन मूल्यों और नैतिक मूल्यों को सहेजने की कला लगभग नदारद. ..(३) बड़े होते जाने पर क्रमशः कड़ी प्रतिस्पर्धा वाला माहौल मिलना और उस माहौल में सामर्थ्य से अधिक श्रम की आवश्यकता पड़ना, व उस कारण तनाव का उपजना. ..(४) ..इस प्रक्रिया के चलते प्रकृति प्रदत्त नैसर्गिक प्रतिभा का नैसर्गिक तरीके से विकास न हो पाना, उसकी भी कहीं न कहीं टीस उपजना और वह टीस भी बढ़ती बैचैनी का एक सबब बनना. ..(५) कुछ बड़े होने होने पर यह समझ में आना कि जीवन को आगे चलाने के लिए कुछ न कुछ ऐसी शिक्षा या विशेषज्ञता जरूरी जो काफी धन कमाने में सहायक हो सके, धन के महत्त्व को अपरम्पार जानना. ..(६) इन सब कारणों से मेधा को जबरन इस प्रकार से ढालना कि वह नोट कमाने वाली मशीन बन सके. ..(७) किसी भी काम का महत्त्व जन-कल्याण, मन की खुशी, या फिर विकास में सहयोग न होकर प्रथमतः धनार्जन हेतु ही होना. ..(८) रही सही कसर मौजूदा सरकार और उसके उपक्रमों द्वारा हाहाकारी विकास और डिजिटलीकरण द्वारा निकलना. सही बताएं तो विभिन्न विकसित देशों में डिजिटलीकरण विविध कार्यों में सरलता लाता है, समय, धन और श्रम की बचत करता है; लेकिन हमारे यहाँ यह भी बेचैनी और तनाव का एक मुख्य स्रोत है. कुछ तो बेसिक इन्फ्रास्ट्रक्चर कमजोर है और उससे भी अधिक मानसिकता व उद्देश्य खोखले हैं! इसलिए न तो मूल्यवान समय बचता है, और न ही आसानी होती है; बल्कि सिरदर्द और तनाव ही बहुधा बढ़ते हैं इससे! उदाहरण संख्या (क)-- मेरी हिन्दीभाषी बेटी का आधार-कार्ड बना कोई छह साल पहले 'कर्नाटक' राज्य में, क्योंकि उस समय वह वहां उच्चशिक्षा हेतु कुछ समय के लिए थी. आधारकार्ड में अंग्रेजी के अलावा लोकल भाषा कन्नड़ डाली गयी. अब से तीन वर्ष पहले उसके विवाहोपरांत नया पता (दिल्ली का) और उपनाम, ये दोनों बदलने के लिए 'ऑनलाइन' प्रक्रिया की. सारी डिटेल्स दोबारा कैपिटल लेटर्स में टाइप करनी थी. अंग्रेजी में टाइप करते समय इनबिल्ट ट्रांसलिटरेट सॉफ्टवेयर से समानांतर रूप से ऑटोमेटिकली कन्नड़ भाषा में भी टाइप होता चला गया. आधार कार्ड चुटकियों में अपडेट हो गया. ...लेकिन बाद में नए और पुराने का मिलान किया तो पाया कि कन्नड़ में नाम वगैरह की स्पेलिंग्स अब बहुत बड़ी हो गयी थीं, आकृति भी बदल गयी थी. कन्नड़ भाषा में हम तो ठहरे जीरो. लेकिन खोजी दिमाग ने खोज की, ..फिर से साईट खोली फिर से टाइप किया, लेकिन इस बार स्माल लेटर्स में ..और ट्रांसलिटरेट पर गौर किया तो स्पेलिंग का साइज़ व आकृति अब पुराने से एकदम मिलते हुए निकले! दोबारा फिर से अपडेट करने का प्रोविजन न था, पर सॉफ्टवेयर की गड़बड़ी पकड़ ली थी हमने! ..हमने आधार कार्यालय से काफी डिजिटल पत्र-व्यवहार किया कि या तो लोकल भाषा हिंदी कर दी जाये या फिर कन्नड़ की स्पेलिंग्स ठीक कर दी जायें, पर हमारी एक न सुनी गयी और न ही कोई जवाब आया! बाद में भी हम पुनः पुनः वेबसाइट की त्रुटि को चेक करते रहे, तब से कोई एक वर्ष बाद सॉफ्टवेयर सम्बन्धी वह त्रुटि दूर हो गयी लेकिन हमारी बेटी का आधार कार्ड ठीक न हो पाया. ..खैर...., अंग्रेजी जिंदाबाद! इस विदेशी भाषा में आधार-डिटेल्स बिलकुल दुरुस्त हैं!!! उदाहरण संख्या (ख)-- एक सप्ताह पहले दिल्ली से लखनऊ, और फिर वापस दिल्ली की राउंड ट्रिप का जनवरी माह का इकॉनमी क्लास हवाई टिकट डिजिटली लेने बैठा. यात्रा डॉट कॉम, मेक माय ट्रिप, तथा इंडिगो, जेट एयरवेज, गो एयर, विस्तारा आदि की ऑफिशियल वेबसाइट पर देखा. हैरत की बात यह कि एयर लाइन्स की वेबसाइट्स पर किराया दलालों की वेबसाइट से डेढ़ से दो गुना ज्यादा था! सभी साइट्स पर दोबारा-दोबारा लॉग इन करने पर रेट्स भी कम-ज्यादा हो रहे थे!! काफी माथापच्ची व तुलना के बाद अंततः एक दलाल साईट से ही रिजर्वेशन कराया! पूरे दो घंटे लग गए! ..कल्पना कीजिये कि किसी दिन यदि लोगों को रेलवे टिकट के मामले में भी यही माथापच्ची करनी पड़े तो करोड़ों लोग बेवजह व्यस्त और तनावग्रस्त हो जायेंगे! जय हो डिजिटलीकरण की..., जिसने लोगों को कमाने, खाने, व्यस्त और बेचैन रहने के इतने अवसर प्रदान किये.

(६) सरकार द्वारा आधार कार्ड का सभी प्रमुख सेवाओं को जोड़ना कितना तर्कसंगत है...? इसका विरोध क्या सही है...?
कहा गया है- "कमी और अति हर चीज की बुरी!" ...पहचान के रूप में 'आधार नंबर' एक बहुत काम की चीज है. इसकी सहायता से किसी भी व्यक्ति का डिजिटल आइडेंटिफिकेशन पूरे भरोसे के साथ किया जा सकता है. समय, आयु और सेहत के साथ हस्ताक्षर, चेहरा आदि बदल जाने पर भी उसकी पहचान अब संभव है. इसलिए बैंकिंग और मोबाइल सिम आदि महत्वपूर्ण जगहों में इसको अकाउंट के साथ जोड़ना ग्राहक के हित में ही है. लेकिन रोजमर्रा के जीवन में की जाने वाली खरीदारियों और छोटे-मोटे लेनदेनों में भी इसकी अनिवार्यता की बात, या सभी भुगतान डिजिटली करने इसलिए आवश्यक कि सरकार की नजरों में हर चीज रहे, यह तो अति है!!! यह व्यक्ति के निजता के अधिकार पर हमला व अतिक्रमण है! नए और संतुलित क़दमों का स्वागत होना चाहिए पर जीवन जीने के पारंपरिक तरीकों को जड़ से मिटा देना भी बुद्धिमानी नहीं. मेरा तो कहना है कि हर नयी चीज ऑप्शनल होनी चाहिए; ..जब तक जो प्रासंगिक, आरामदायक व सुरक्षित रहेगा वो तब तक टिका रहेगा, और उसके बाद वह स्वतः ही ढह जायेगा. पश्चात् लोग खुशी-खुशी दूसरा समर्थ विकल्प अपनायेंगे. ..बदलाव के लिए बलात् कुछ 'थोपना' डिक्टेटरशिप का द्योतक है. बेहतर हो कि सरकार आधार के असली फायदे बताकर आमजन को प्रेरित करे उसे अपनाने के लिए, लेकिन यह भी सुनिश्चित करे कि जो किन्हीं कारणों इसे नहीं अपना रहे या नहीं अपना पा रहे, वो भी किसी लाभ से वंचित न रहें. यानी हर चीज में जबरन इसकी 'बाध्यता' कोई ठीक बात नहीं.

(७) ज्ञान होना एक बात है किन्तु ज्ञानी होना अति उत्तम...?? ज्ञान प्राप्ति तो बहुत सहज है किन्तु ज्ञान का सही प्रयोग बहुत दुर्लभ है.
केवल किताबी या रटे हुए ज्ञान को मैं ज्ञान मानता ही नहीं हूँ. असली ज्ञानी तो वह जो ज्ञान को व्यवहार में उतार कर उस ज्ञान के मर्म को समझे. जब तक हम ज्ञान को अमल में ला कर उसके लाभ (या हानि) की अनुभूति नहीं लेते तब तक हमारा ज्ञान बिलकुल सतही है! अर्थात् ज्ञान प्राप्ति या ज्ञानी होना कोई सहज बात नहीं! इसलिए प्रथमतः उस ज्ञानप्राप्ति पर ही मेरा प्रश्नचिह्न है जो विविध परीक्षणों, व्यवहार या अमल की भट्टी में न तपा हो! वह तपता है तो प्रयोग तो हुआ ही न! ..अर्थात् यथार्थ ज्ञानी अपने ज्ञान का प्रयोग करते हुए ही 'खरा ज्ञानी' बनता है; शेष सब रट्टू तोते होते हैं, वो बहुत आवाजें करते हैं!

(८) क्या कारण है- हम हमेशा द्वंद्व में रहते हैं?
"चित भी मेरी और पट भी मेरी", इसी उधेड़बुन में अक्सर हम वैचारिक द्वंद्व में रहते हैं. फायदा, ..फायदा, ....और फायदा, बस यही गूंजता रहता है दिलोदिमाग में ..तो मानसिक द्वन्द कैसे न हो?! हममें से अधिकतर धन और यश दोनों के अभिलाषी हैं, ..और कुछ जो धन के नहीं भी हैं तो यश के तो अवश्य ही हैं! ...दूसरी एक अन्य वजह भी है मानसिक द्वंद्व की कुछेक लोगों में, कि उनको अन्दर की आत्मिक आवाज का कुछ ज्ञान हो जाता है और फिर लड़ाई होने लगती है संस्कारों की उस अंतरात्मा की आवाज के साथ!

(९) अतीत डराता है, भविष्य चिंतित करता है, क्यों? ऐसे में वर्तमान को सुन्दर कैसे बनाया जाए?
हमारे संस्कारों का प्रभाव कुछ ऐसा है कि बहुधा हमें नकारात्मक ही पहले सूझता है. चाहे अतीत हो या फिर भविष्य, यादाश्त और कल्पना में नकारात्मक प्रसंग ही पहले उभरते हैं. तो इनके चलते वर्तमान पर भी बहुत बुरा असर पड़ता है. हमारा वर्तमान भी बहुत भारी वजन का लगने लगता है हमें! एक ही उपाय है वर्तमान और सबकुछ सुन्दर बनाने का, कि हम किसी प्रकार से अंतरात्मा की आवाज को संस्कारों का मॉनिटर (मुखिया) बना दें, संस्कारों का महत्त्व गौण कर दें. ..फिर अंतरात्मा की आवाज पर सबकुछ केवल अच्छा और नेक तरीके से करने की झड़ी लगा दें (बिना फल की बाट जोहते हुए), ..कुछ समय बाद हमें सबकुछ अच्छा लगने लगेगा, सबकुछ 'हमारे लिए' फिर अच्छा ही होगा.

(१०) किसे जानने से सबकुछ जाना जा सकता है?
जिस दिन हम स्वयं को आध्यात्मिक रूप से भलीभांति जान लेंगे, जीवन की वजह और उद्देश्य समझ में आ जायेगा, उस दिन हम लगभग सबकुछ जानने के मुहाने पर होंगे. तब उस परम शक्ति को भी अनुभूत कर लेंगे जो इस सृष्टि के पार्श्व में है! तब योगादि कसरत के बिना भी जीवन जीने की कला स्वतः आती जाएगी, जीवन सरल और सहज हो जायेगा.