Wednesday, November 8, 2017

(८८) चर्चाएं ...भाग - 7

(१) आत्म ज्ञान बिन नर यूँ भटके कोई मथुरा कोई काशी रे ...आत्मज्ञान कैसे प्राप्त किया जा सकता है? सही आत्मज्ञान प्राप्त करने के लिए क्या मार्ग सही है..?
प्रथमतः जिज्ञासु होना, मन में जिज्ञासाएं उठना आवश्यक. ..भौतिक अथवा आध्यात्मिक, किसी भी प्रकार का ज्ञान हासिल करने के लिए मन में जिज्ञासा होना बहुत जरूरी. ..तीव्र जिज्ञासा से आगे के द्वार खुदबखुद खुलते चले जाते हैं. हमारे कौतूहलपूर्वक क्रियाशील होने पर स्थूल या सूक्ष्म, किसी न किसी माध्यम से मार्गदर्शन मिलना आरंभ हो जाता है- अखबारी लेखों से, पुस्तकों से, पौराणिक साहित्य से, वर्तमान ईश-आराधना पथ से, किसी गुरु अथवा मार्गदर्शक से, अपनी अंतर्ध्वनि से, और इनके अलावा किसी अन्य माध्यम से भी! माध्यमों की कोई थाह नहीं! शुरुआत में हमारा रुझान व खोजी प्रवृत्ति ही सबसे महत्वपूर्ण हैं! द्वितीय पायदान पर आता है- बुद्धि एवं विवेक का प्रयोग करते हुए, व्याप्त अंधविश्वासों से बचते हुए, प्रायोगिक भाग को करना ..अर्थात् पढ़े या बताए या स्वयं से सूझे उन कृत्यों को करना, जिनकी सहमति बुद्धि व विवेक दे रहे हों; उदाहरण के लिए- कोई नामजप वगैरह करना, किसी सत्संग में जाना, कोई साहित्य पढना, जीवनशैली को बदलने का प्रयास करना, आदि-आदि! ...जब कुछ सार्थक परिणाम आने आरंभ हों, जिनका अनुमोदन आपकी बुद्धि और विवेक भी कर रहे हों, तब सम्बंधित कृत्य या खोज की गहराई में उतरना. ..यहाँ हमारे कुछ पूर्व संस्कार अड़ंगा लगायेंगे, हमारी वृत्ति और आसपास के परिजन विरोध कर सकते हैं या उपहास उड़ा सकते हैं. लेकिन यदि हम उनके, अपनी वर्तमान संस्कृति, पंथ, धार्मिक-कृत्य आदि के प्रति अपने व्यवहार को किंचितमात्र भी ना बदलते हुए समानांतर रूप से अपनी खोज-यात्रा जारी रखते हैं तो उनका विरोध मद्धम पड़कर समाप्तप्राय हो जायेगा. ऐसा करने से हममें 'व्यापकता' का गुण भी बढ़ता है. फिर धीरे-धीरे अनेकों अनुभूतियों के माध्यम से आत्मज्ञान व परमात्मज्ञान मिलता जाता है. हम और व्यापक होते चले जाते हैं. तब धार्मिक कृत्य के नाम पर कुछ विशेष करना, कुछ पारंपरिक करना या बिलकुल कुछ भी ना करना, ये सब हमारे लिए गौण विषय हो जाते हैं. 'व्यापकता' के प्रबल गुण के कारण हम समाज-सम्मत कुछ भी कर सकते हैं और कभी भी कुछ भी त्याग सकते हैं, लेकिन भीतर से हम अति उदार और न्यायसंगत होते जाते हैं. हमारे बदलते प्रभामंडल और अनुकूल व सकारात्मक स्पंदनों के चलते आसपास का समाज ऊपर से हमारा आलोचक होते हुए भी भीतर से हमें सराहने लगता है; व्यष्टि (स्वयं की) साधना उपरांत समष्टि (समाज की) साधना का यह प्रथम चरण सिद्ध होता है! .....पुनः, सम्पूर्ण प्रक्रिया में एक बात का ध्यान अवश्य रखें कि अपने मूल तक पहुंचना हमारा एकमात्र लक्ष्य हो, ..बीच में पड़ रहे विविध मार्गों में से किसी एक में भी हम ऐसा ना उलझ जायें कि वह मार्ग ही हमें लक्ष्य प्रतीत होने लगे!! हमें किसी मार्ग-विशेष में फंसना या अटकना नहीं है. हम निरंतर आगे को बढ़ते रहें. और अगले-अगले बिंदु पर जिस-जिस मार्ग से चलकर पहुंचे, उन मार्गों को धन्यवाद दें उनके प्रति कृतज्ञता व्यक्त करें, लेकिन उन्हें त्यागकर और आगे को प्रस्थान अवश्य करें. ...पुस्तकें, कोई विशिष्ट सत्संग, गुरु, नामजप क्रिया, आध्यात्मिक मार्गदर्शक आदि ये सब एक प्रकार से हमारी खोज-यात्रा के दौरान पड़ने वाले विविध मार्ग या साधन ही हैं. उन्हें अवश्य अपनाएं, उनकी मदद लें, उनके प्रति सदैव आभारी रहें, किन्तु उनके प्रति आसक्त कदापि न हों.

(२) मैं कौन हूँ पता चल गया तो क्या होगा?
तब जीवन तो हम वही व्यतीत करेंगे; ..हमारा सांसारिक नाम, स्टेटस, ओहदा, काम वगैरह भी वही रहेंगे जो अभी हैं, लेकिन सोचने और जीवन जीने का अंदाज यानी 'दृष्टिकोण' बदल जायेगा! हम पहले की अपेक्षा अधिक अच्छे, तनावरहित, अनासक्त, संतुष्ट और आनंदित रह सकेंगे. व्यवहार और जीवन जीने की कला में निखार आएगा. हमारा प्रभामंडल और हमसे प्रक्षेपित होने वाले स्पंदन सकारात्मक और अन्यों को अच्छा लगने वाले होंगे.

(३) संसार के लगभग सभी देश आज अशांति और आतंकवाद का शिकार हो रहे हैं ...क्या इसे हम कभी दूर कर पाएंगे?
कुछ लोगों के जवाब यह इंगित कर रहे हैं कि इनके पीछे ईश्वर-इच्छा है! मेरे विचार से सबसे पहली बात यह कि ये सब ईश्वर की इच्छा या मर्जी से बिलकुल भी नहीं हो रहा है! ईश्वर (या प्रकृति) के जीवनशैली सम्बन्धी नैसर्गिक इच्छाओं (नियमों) से अर्थात् करने या न करने योग्य बुनियादी 'मानवीय' आचरण से सभी परिचित हैं; इस सम्बन्ध में विभिन्न वैज्ञानिक दृष्टिकोणों से भी पर्याप्त ज्ञान हमें मिलता ही है! ..तो फिर हम यह कैसे मान सकते हैं कि इन घटनाओं के पीछे प्रकृति या ईश्वर की स्वीकृति है!! ..हाँ, ईश्वर या प्राकृतिक व्यवस्था यह सब देख अवश्य रही है और अति होने पर उधर से प्रतिक्रिया स्वरूप किसी न किसी माध्यम से प्रतिकार अवश्य आएगा (आता भी रहता है). सत्य और असत्य के बीच सदा से संघर्ष होता ही रहा है, समय समय पर अनेकों विनाशलीलाएं भी होती रही हैं! 'गलत' के विरुद्ध प्रत्येक मानवीय अथवा महामानवीय विध्वंस या प्राकृतिक आपदा के पश्चात् मानवजाति चिंतन, संकल्प आदि भी करती रही है कि आगे से ऐसा (प्रकृति या ईश्वरेच्छा विरुद्ध आचरण) नहीं होगा, फिर भी अज्ञान, लोभ या ईर्ष्यावश पुनः पुनः ऐसा होता रहा है. अभी वर्तमान में भी हो रहा है! किसी भी शारीरिक बीमारी के मामले में हम क्या करते हैं कि पहले जीवनशैली में बदलाव (किसी चीज से परहेज और कुछ नया अपनाना), फिर हलकी दवा, ..फिर भी ठीक न होने पर भारी दवा, ..और फिर भी न ठीक होने पर शल्यक्रिया (सर्जरी), ...और जब बात किसी अंग विशेष में इन्फेक्शन होने से पूरे शरीर में जहर फैलने की आती है, सवाल जीवन-मृत्यु का हो जाता है, तब उचित सर्जरी से उस अंग को ही शरीर से निकलवा देते हैं!! बढ़ते आतंक और आतंकवादियों से भी विचारशील सरकारें इसी प्रकार जूझती हैं, चरणबद्ध ऐसा ही करना श्रेयस्कर रहेगा! शेष...ईश्वर सत्य का साथ देगा ही! केवल ऐसा सोचना कि सबकुछ ईश्वरेच्छा से ही घटित हो रहा है, हम कुछ भी नहीं कर सकते, यह बुजदिली और अकर्मण्यता का सूचक है! ऐसा नकारात्मक सोचने वाले खुद से प्रश्न करें कि वे अपनी व्यक्तिगत आपदा या बीमारी के समय भी क्या ऐसा ही सोचते हैं और कुछ भी नहीं करते???

(४) पिछली शती में मकान चाहे कच्चे थे किन्तु रिश्ते सारे सच्चे थे ...आज विकास के नाम पर हमने क्या क्या खो दिया है...?? आधुनिकता की क्या कीमत चुका रहा है मानव?
देखा जाये तो विगत कई सौ वर्षों में भी मानवदेह संरचना में कोई बदलाव नहीं आया है, पेड़-पौधे और वनस्पतियों की मूल संरचना में भी हम ऐसा ही पाते हैं. हमारा कोई अंग न तो गायब हुआ है और न ही कोई नया निकला है! यानी प्राकृतिक नियमों-मूल्यों में नैसर्गिक रूप से कोई अंतर नहीं आया है. यदि थोड़ा-बहुत आया भी है तो वह मानवीय हस्तक्षेप के कारण ही! यानी निष्कर्ष यह कि मूलतः हम एक ऐसे अपरिवर्तनीय प्राकृतिक जीव हैं जो सामाजिक भी है; और इन दोनों कारणों से इस जीव की कुछ मूलभूत भौतिक-सामाजिक आवश्यकताएं भी हैं. यदि आज हमें रिश्तों-नातों में गर्माहट की कमी से कुछ शून्य सा उभरता अनुभूत हो रहा है तो निःसंदेह यह अनुभूति असत्य नहीं! अनुभूतियाँ अक्सर हमें सही और गलत में अंतर बताती हैं. पुनः मुख्य विषय पर आते हैं..., मकान, वस्त्र और भोजन इंसान की मूलभूत भौतिक आवश्यकताएं हैं और परस्पर प्रगाढ़ भावनात्मक मानवीय रिश्ते हमारी मूलभूत सामाजिक आवश्यकता है; ..शेष सब पदार्थ और विषय आदि इनके पश्चात् आते हैं! शेष जो भी चीज हमें अपना भौतिक या सामाजिक स्तर ऊपर उठाने में सहूलियत दे, और हमारी मदद करे, हमारा जीवन आसान बनाये, उसका सहर्ष स्वागत है...ऐसी आधुनिकता भला किसे काटेगी! ...विभिन्न वैज्ञानिक खोजें यही काम करती हैं और उन्हें अपनाकर हम आधुनिकता की ओर कदम बढ़ाते हैं. आधुनिकता माने उन्नति. ....लेकिन कहते हैं न कि, "कमी और अति" हर चीज की बुरी! जब हम मन को साध नहीं पाते और अत्यधिक लोभ व होड़ में पड़ जाते हैं तब यह अतिरेक हमारे नैसर्गिक जीवन के लिए घातक हो जाता है, हम मशीन में बदलने लगते हैं, और मशीन भावना-रहित होती है! आज हमारे भूभाग में यही हो रहा है.

(५) पर्यावरण को सुधारने के सभी उपाय अभी तक विफल क्यों हो रहे हैं...?
हम बात 'अपने यहाँ' की ही करें तो मूल में ये कारण मिलते हैं-- (१) पर्यावरण के ज्ञान (गणित) की पर्याप्त समझ ना होना. ...(२) केवल अपने हित तक सीमित रहने की प्रवृत्ति (कूड़ा कहीं भी डालने-फेंकने की प्रवृत्ति; बस अपने से कुछ दूर हो जाये, मात्र इतना ही ध्यान रखना). ...(३) मानवता, जागरूकता और सहयोग की भारी कमी. ...(४) सरकार भी पर्याप्त जागरूकता फैलाने में असफल सिद्ध हो रही है क्योंकि वहां भी वैचारिक कूड़े का भारी जमाव! कोई भी पाठ पढ़ने वाला यदि खुद ही उस पाठ के क्रियान्वयन में कमजोर हो तो फलप्राप्ति की सम्भावना गिर जाती है. ...(५) लोगों के विवेक पर लोभ, स्वार्थ, जागतिक इच्छाओं आदि का ऐसा पर्दा पड़ा होना कि इस कारण से उनका ऐसा विचार बनना कि मेरे सोचने-करने से क्या होगा, ..सब ईश्वर-इच्छा से ही तो होता है!

(६) आग लगी आकाश में, झर झर पड़त अंगार , संत न होते जगत में तो जल मरता संसार! संत समाज की देन को भुलाया नहीं जा सकता किन्तु आज के संत समाज को किस दिशा में ले जा रहे हैं....?
किसी भी संघ की सर्वांगीण उन्नति में संतों की बड़ी भूमिका रहती है. हमारे देश में भी समय-समय पर राजा-प्रजा आदि को शिक्षित एवं जागरूक करने में उनकी बड़ी कृपा रही. ..लेकिन अब बहुत समय से वैसे खरे संत-गुरु देखने में नहीं आए. ..मेरे विचार से देश की आजादी की सुगंध मिलने के काल से ही हमारे यहाँ सत्तालोलुपता और इस निमित्त द्वंद्वफंद इतने अधिक बढ़ते गए कि नैतिकता का ग्राफ गिरता चला गया. आध्यात्मिक जगत भी इससे अछूता न रहा! परिणामस्वरूप प्रजा भी भ्रष्ट होने लगी. ..और बढ़ते-बढ़ते बात यहाँ तक आ पहुंची कि भ्रष्ट हो चुके राजा, प्रजा और गुरुजन तीनों स्वार्थपूर्ति हेतु एक-दूसरे के ऊपर आश्रित हो गए और आपस में मजबूत गठजोड़ कर लिया. तब से नेता हों या गुरुजन, जनता भी चोरों-उचक्कों को चुनने लगी! फिर कुकरमुत्तों की तरह कितने ही भ्रष्ट और व्यापारी गुरु व संत उदित हुए! प्रजा और राजा, इन दोनों का योगदान है उनके फलने-फूलने में! काले कारनामे बिलकुल ही उधड़ने व उजागर हो जाने उपरांत ही उनके खिलाफ कोई कार्यवाही की जाती है! ऐसे में आज के ऐश्वर्यपूर्ण ढोंगी संतों से समाज को सही दिशा में ले जाने की भला क्या उम्मीद की जा सकती है! हकीकत तो यही है कि आज का हमारा समाज खुद भी नहीं सुधरना चाहता इसलिए वह भ्रष्ट संतों की सत्ता बनाता है या स्वीकारता है, उनके चरण धो-धो कर पीता है, क्योंकि उसे रिद्धि-सिद्धि, ऐश्वर्य, पुत्र, नौकरी, ऊंचा पैकेज, सुन्दर स्त्री, बड़ी गाड़ी, बंगला आदि ही प्रथम चाहिए! उसे लगता है कि संतकृपा ही उसे ये सब दिलाती है या दिला सकती है!

(७) शरीर के प्रति आसक्ति को कैसे दूर किया जाए?
समुचित ज्ञानार्जन से ही हम शरीर और उसके महत्त्व को समझ पायेंगे, आत्मिक ऊर्जा से भी परिचित हो पायेंगे. ..तत्पश्चात् हम अपने शरीर को भगवान् या प्रकृति के अनमोल तोहफे की तरह मानेंगे, उसकी इज्जत व हिफाजत करेंगे, उसका ध्यान रखेंगे, उसे रोगों और असमय मृत्यु से परे रखने की कोशिश भी करेंगे; ..लेकिन फिर भी, उसके प्रति आसक्त नहीं होंगे! ठीक वैसे ही जैसे कोई शल्य-चिकित्सक किसी मरीज का ऑपरेशन करते समय अपना दृष्टिकोण रखता है.

(८) जब तक मनुष्य बच्चों जैसा सरल नहीं हो जाता तब तक उसे ज्ञानलाभ नहीं होता! क्या यह सही है?
जी हाँ, बिलकुल सही कहा आपने! मन की सरलता ही आध्यात्मिकता हेतु पोषक वातावरण है. मन की सरलता से तात्पर्य है हठीले संस्कारों का कम से कम होना. बचपन में दुनियावी संस्कार इतने बलिष्ठ नहीं होते इसीलिए आध्यात्मिक ज्ञानप्राप्ति हेतु बच्चों सरीखा सरल-स्वभाव होने पर जोर दिया जाता है. पथरीली भूमि में किसी नए बीज का रोपण बहुत कठिन होता है और उसका अंकुरण तो और भी अधिक कठिन!

(९) दिल्ली के जानलेवा प्रदूषण के लिए कौन ज़िम्मेदार है...?
सिर्फ दिवाली के पटाखे और फसल के अवशेष जलाये जाना इस जानलेवा प्रदूषण का एकमात्र कारण नहीं है! अपितु बढ़ते दोपहिया व चारपहिया वाहनों और कारखानों द्वारा नियमित रूप से हो रहा विषैला उत्सर्जन इसकी सबसे बड़ी वजह है. नियमित रूप से विभिन्न प्रकार का ढेरों कूड़ा जलाया जाना भी इसकी एक अन्य वजह है. आधुनिकता के नाम पर बहुत सारी चीजों का अंधाधुंध निर्माण होना व उन्हें बेतहाशा अपनाया जाना मानवजाति के लिए ही असमय काल का या भीषण बीमारियों का कारण बन रहा है. मैं इन सब के लिए सरकारी नीतियों और विकास से सम्बंधित बेढब योजनाओं को दोषी मानता हूँ. विकास की योजनायें कुछ इस प्रकार की हैं कि विकास या आधुनिकीकरण दिल्ली सहित केवल कुछ बड़े शहरों तक ही सीमित है! दिल्ली से उत्तरप्रदेश होते हुए बिहार व झारखण्ड तक केवल दिल्ली, एन सी आर के कुछ शहर और लखनऊ जैसे कुछएक बड़े शहरों में ही बिजली-पानी सहजता से उपलब्ध है. अतः इस बड़े भूभाग (दिल्ली-उत्तरप्रदेश-बिहार) के लिए रोजगार आदि की संभावनाएं भी दिल्ली क्षेत्र में ही सर्वाधिक हैं. तो अविकसित स्थानों से रोजी-रोटी की तलाश में लोग भारी मात्रा में दिल्ली सरीखे विकसित स्थानों पर आकर बसते हैं. जनसंख्या का दबाव भी निरंतर बढ़ रहा है और प्रदूषण का भी! पुनः..., इसके लिए मूलतः प्रवासी लोग जिम्मेदार नहीं हैं बल्कि विकास का बेढब ढांचा जिम्मेदार है. लोग मजबूर हैं कि जीवनयापन हेतु वे केवल कुछेक स्थानों पर ही इकठ्ठा हों! ..इसके अलावा हमारे देश में कमजोर नीतियों के चलते इस प्रथा का प्रचलन लगभग ना के बराबर है कि एम्प्लायर द्वारा काम की जगह के इर्दगिर्द ही कर्मचारियों के लिए स्कूल, अस्पताल और शॉपिंग-काम्प्लेक्स सहित 'टाउनशिप' का निर्माण कराया जाता हो! यदि ऐसा हो जाये तो वर्क-प्लेस पर आने-जाने के लिए जो बड़ा समय खर्च होता है वह बच जायेगा; मकान ढूंढने की समस्या समाप्त हो जाएगी; बच्चों का सरलता से स्कूल आना-जाना संभव होगा; परिवार को सुरक्षा एवं उत्कृष्ट सामाजिक वातावरण मिलेगा; वाहनों का प्रयोग ना के बराबर हो जायेगा, इस कारण प्रदूषण भी बहुत कम हो जायेगा, धन की भी बचत होगी; समय अधिक मिलने से परिवार ज्यादा समय एकसाथ रह पाएगा; एक-दूसरे के घर आना-जाना और खुशियाँ बाँटना अब संभव होगा; तनाव क्षीण होगा, आदि-आदि. ..मैं तो कहता हूँ कि सरकारी और गैर सरकारी बड़े कार्यालयों (मुख्यालयों) और विभिन्न बड़ी इंडस्ट्रीज के लिए इस नियम (टाउनशिप और वर्कप्लेस एक ही कैंपस में) को 'अनिवार्य' घोषित किया जाये. यह नीति प्रासंगिक और सर्वथा संभव है, यदि राष्ट्रहित में पर्याप्त इच्छशक्ति हो तो! इसके अलावा, केवल महानगरों तक ही सीमित ना रहते हुए हर जगह पर विकास को महत्त्व दिया जाये. पर्यटन के दौरान मैंने दक्षिण भारत के कुछ राज्यों में इसको (विस्तृत विकास को) महसूस किया है, इसीलिए वहां व्यर्थ की हौचपौच और प्रदूषण आदि यहाँ की अपेक्षा बहुत कम है.

(१०) क्या मन को वशीभूत कर पूर्णतया पवित्र या दुर्गुण मुक्त किया जा सकता है...?
आदतन भले ही हम बहुत सफाई का बहुत ध्यान रखते हों, लेकिन सामाजिक प्राणी होने के नाते, तथा पढाई-लिखाई या रोजगार के निमित्त हमें नित्यप्रति बाहर की दुनिया के संपर्क में आना भी आवश्यक होता है, या घर में ही अनेकों तरह के काम करते हैं. इस प्रक्रिया में हम रोज ही शारीरिक रूप से कुछ मैले हो जाते हैं. इस मैल को दूर करने के लिए हम नित्यप्रति नहाते-धोते हैं! ...अब मुख्य विषय पर आते हैं.., विभिन्न साधनों-साधनाओं द्वारा मन को वश में करके या उसको साफ करके हम उसे काफी हद तक या मानों पूर्णतया ही पवित्र या दुर्गुण-मुक्त कर लेते हैं; ..पर क्या फिर हम पुनः पुनः बाहर की दुनिया के संपर्क में आकर मानसिक रूप से मैले नहीं होते रहते!! ..जी हाँ, किसी भी साधना को एक बार करके हम हमेशा के लिए पवित्र मन के नहीं हो सकते! हमारे मन को भी रोजाना सफाई की जरूरत पड़ती है, क्योंकि हम सामाजिक प्राणी हैं. आज हमारे आसपास सबकुछ आदर्श या पवित्र नहीं है. हम प्रतिदिन अपनी आँख, कान आदि ज्ञानेन्द्रियों से जो कुछ भी ग्रहण करते हैं वह हमारे मन को कुछ तो प्रदूषित करता ही है. तो सफाई का काम भी नियमित रूप से करना ही पड़ता है, अन्यथा हम दोबारा उसी जगह पर पहुँच सकते हैं जो कभी बहुत मैली थी! इसके लिए नियमित रूप से 'सत्संग' यानी अच्छे लोगों के संपर्क में रहना तथा उनसे वार्तालाप करना अत्यावश्यक होता है. रोजाना घर के सदस्यों का आपस में ही सकारात्मक एवं नैतिक मूल्यों सम्बन्धी कुछ सार्थक संवाद भी एक प्रकार का सत्संग ही सिद्ध होता है; तल्लीनता के साथ अच्छा साहित्य नियमित पढ़ना भी एक प्रकार का सत्संग ही है. कहने का अर्थ यह कि कुछ अच्छे विचारों से रोजाना साक्षात्कार करके जब हम मन को नियमित रूप से नहलाते हैं तभी हम अपनी अच्छाई को बरकरार रख पाते हैं, अन्यथा मानसिक पतन में समय नहीं लगता!