Friday, November 2, 2018

(११०) चर्चाएं ...भाग - 29

(१) वे लोग बहुत किस्मत वाले हैं जिन्हें मालूम है कि हम डिप्रेशन के शिकार हैं वर्ना अधिकांश लोग तो यूँही जीवन बिता के चले जाते हैं! आपकी क्या राय है? और वे अधिकांश लोगों में से ही वे लोग हैं जो अपने अहं में इतने मगन हैं कि उनकी मगरूरी की वजह से बाकी लोग जोकि अच्छे से जीना चाहते हैं, फीलिंग्स रखते हैं, ..डिप्रेशन में हैं! कृपया अपनी राय दें!!
आपके प्रश्न और उसके ठीक बाद में आपके अपने मत (व्यू) में, आप द्वारा दो हिस्सों में दो बातें चर्चा में लायी गयी हैं! हालाँकि वे दोनों परस्पर सम्बन्धी हैं लेकिन आपका प्रश्न बहुत स्पष्ट नहीं हो पाया! जहाँ तक मैंने समझा है आपका आशय यह है-- "इस समाज में बहुत से अच्छे लोग हैं जो बढ़िया ढंग से ऐसा जीवन जीना चाहते हैं जिसमें मानवीय भावनाएं/संवेदनाएं हों. लेकिन उधर समाज में बहुत से बुरे और अहंकारी लोग भी हैं, जो उनकी (भले लोगों की) फीलिंग्स की बिलकुल भी कद्र नहीं करते. इस वजह से अधिकांश अच्छे लोग तिरस्कृत और उपेक्षित होकर अवसाद (डिप्रेशन) में जीवन जीने को मजबूर होते हैं. ..और इन अवसादग्रस्त अच्छे लोगों में से बहुतों को यह मालुम ही नहीं होता कि उन्हें डिप्रेशन है, और वे यूँ ही (रोते-कलपते, दबे हुए, त्रस्त) जीवन व्यतीत कर एक दिन मर जाते हैं!" ....यदि आपका आशय यही है, तो मैं भी यहाँ आपसे पूरी तरह से सहमत हूँ. मैं मानता हूँ कि हमारे समाज में ऐसा बहुत होता है. ...और ऐसा तब तक होता रहेगा जब तक हमारी आम सोच ऊपर नहीं उठती. ..सोच ऊपर उठाने के निमित्त ही तो हम ऐसी संवेदनशील चर्चाएं छेड़ते हैं. ..उम्मीद है अन्य उपस्थित लोग भी मानवीय संवेदनाओं को पुनर्जीवित करने वाली चर्चाएं अवश्य शुरू करेंगे.

(२) मेरा यहां क्या है, बोलना/लिखना यहां तक कि सोच वह भी पहले से मौजूद है तो फिर मेरा क्या है, मैं क्यों परेशान हूँ! किस लिए? काश इतनी सी बात पल्ले पड़ जाए तो जिंदगी खूबसूरत हो जाए और पता नहीं क्या-क्या नया देख पाएं और सोच पाएं, काश हम वहां तक पहुंचें? आपकी क्या राय है?
जी, बिलकुल.., हम जिन्दगी के कुछ पहलुओं तक ही सीमित हैं, उन्हीं में लगातार गोल-गोल घूम रहे हैं. उससे बाहर निकलने की कोशिश करें तो ही कुछ नया और बेहतर मिल पाएगा....पहली कक्षा का सत्र खत्म होने पर दूसरी कक्षा में, फिर तीसरी, फिर क्रमशः चौथी-पांचवीं.... यानी लगातार एक को छोड़कर अगली कक्षा में जाते रहते हैं न हम..! हमारी कोई जिद नहीं रहती कि एक ही कक्षा में जीवन भर पढ़ते रहेंगे! ..फिर इसी आगे जाने के दस्तूर को अपनी दूसरी चीजों में क्यों नहीं अमल करते? ..करना चाहिए ना...! ...तभी कुछ नया पा सकेंगे, ऊपर की सीढ़ियाँ चढ़ सकेंगे, नहीं तो एक ही जगह गोल-गोल घूमते रह जायेंगे. ..उदाहरण के लिए..., कुछ लोग कहते हैं कि 'वेद' अपने आप में सम्पूर्ण हैं, ज्ञान का चरम हैं; ...वहीं 'वेद' यह कहते हैं कि बेड़ियों में न फंसो, आगे बढ़ते जाओ, ..जब तुम मुझे भी समझ लो तो मुझे भी छोड़कर और आगे को बढ़ो... सब कुछ अनंत है, अनंत के लिए स्वतंत्र और स्वछन्द होकर निरंतर आगे को बढ़ते रहो.

(३) जब हमें खुद को देखना होता है कि हम कैसे लगते हैं तो हम शीशा देखते हैं वैसे ही अगर हम अपने अंदर के अँधेरे/उजाले को देखना चाहते हैं तो जरूरी है कि हमें अँधेरा देखने के लिए उजाले में और उजाला देखने के लिए अँधेरे में खड़ा होना पड़ेगा!?
प्रश्न थोड़ा अस्पष्ट है फिर भी अर्थ का अनुमान लगाकर उत्तर देने का प्रयास करता हूँ. आईने के सामने हम खुद के उन पहलुओं को भी देख सकते हैं जो हमें आमतौर पर सीधे-सीधे नजर नहीं आते, ..और देखकर हम उन्हें संवार सकते हैं, ठीक कर सकते हैं. इसी प्रकार अंतर्मुख होकर या किसी से बड़े अपनेपन से काउन्सलिंग लेकर हम अपनी भीतरी कमियों को जान सकते हैं और उन्हें ठीक या दूर कर सकते हैं. ...बुराई का महत्त्व जानने के लिए हमें अच्छाई में, और अच्छाई का महत्त्व जानने के लिए हमें बुराई में जाने की आवश्यकता तो नहीं! जीवन के ये पाठ समय के साथ स्वतः ही सीखते चले जाते हैं यदि हम पर्याप्त संवेदनशील और जागरूक हैं तो! हमारे भीतर बुराई और अच्छाई के रूप में अँधेरा और उजियारा दोनों हैं,...भीतर के उजाले को लगातार पाने का प्रयास हमारे अंतर्मन के सभी अँधेरे दूर करता जाता है. जैसे-जैसे भीतरी प्रकाश की मात्रा बढती जाती है, अँधेरे भागते जाते हैं. ...हर प्रकार के प्रकाश का तो कोई तो स्रोत जरूर होता है, ...किन्तु किसी भी प्रकार के अँधेरे का कोई भी स्रोत नहीं होता!!!! ...प्रकाश का न होना ही अँधेरे का मूल कारण होता है!

(४) पैसे से जीवन है या पैसा ही जीवन है? कई बार देखता हूँ लोग कमाते कमाते भूल बैठे हैं कि कमाने के लिए जीवन है या कमाई से अच्छे जीवन की तलाश, कृपया अपने विचार रखें!
चूंकि हम भौतिक शरीर और भौतिक जगत में रह रहे हैं तो इस जीवन को बेहतरी के साथ जीना हमारा उद्देश्य अवश्य होना चाहिए. ..जीवन को बेहतर बनाने के लिए हमें श्रम की और उससे अर्जित धन की आवश्यकता पड़ती है. फिर इस धन को हम उन मदों (या वस्तुओं) पर खर्च कर सकते हैं जिनसे हमें लम्बे अरसे तक बुनियादी आराम और खुशी मिले. ...लेकिन हमारे यहाँ अधिकांश लोगों को धन या मात्र दिखावा एकत्रित करने का शौक है, वो भी बहुत सारा, अथाह..!! इसके साथ ही एक खराबी और, कि, यह धन भी उन्हें बहुत कम श्रम करके या यूं ही (किसी दंदफंद/शॉर्टकट से) मिल जाये, इसकी चाहत बहुत रहती है! ..सांसारिक वस्तुएं, विलासिता आदि कोई बुरी चीज नहीं, पर पागलों समान उनमें आसक्ति रखना, ..यह गलत है! ...हमारे यहाँ सही या गलत तरीके से जो भी कमाया जाता है उसे जीवनपर्यंत बढ़ाने, बचाने, छुपाने, सहेजने या फिर दिखावा करने के लिए ही ज्यादा कोशिशें होती हैं, ..जीवन के सही पहलुओं पर तो उसे बहुत कम खर्च किया जाता है! जीवन को जिन्दादिली के साथ व प्रकृति का लुफ्त लेते हुए जीने की ललक बहुतों में अब गायब है, एक दिखावटी कृत्रिम जीवन जिया जा रहा है, बिलकुल मशीनी सा..! नोट बनाने की मशीन तो बन गए हैं पर मानवता व जीवन के सच्चे उल्लास को बंधक बना दिया है हमने! ..यह असंतुलन की स्थिति है. ..हमें सचेत होना होगा.

(५) क्या हम इसीलिए अच्छे हैं क्यूंकि हमें भगवान् और कर्मों का डर है या हम वैसे भी अच्छे हैं क्या हम कभी बिना डर/भय के जीवन को यूँही एक नदी के बहाव की तरह जी पाते हैं?
जो कमजोर इच्छाशक्ति वाले, कम समझ रखने वाले और कम नैतिक हैं वे अपने अच्छेपन को बढ़ाने या अच्छाई को बरकरार रखने के लिए भगवान् और कर्मफल आदि से डरते हैं और इस डर की वजह से 'शायद' वे अच्छे हैं! फिर भी उनकी अच्छाई परिस्थितियों के अनुसार डोलती रहती है! ...दूसरी ओर दृढ़, समझदार और नैतिक गुणों से भरपूर व्यक्ति बिना किसी डर के स्वाभाविक या प्राकृतिक रूप से लगभग हमेशा ही अच्छे बने रह सकने में समर्थ होते हैं. पहले प्रकार के व्यक्ति डर के मारे अत्यधिक विधि-निषेधों का अनुपालन करते हैं जबकि दूसरे प्रकार के व्यक्ति विधि-निषेधों से परे रहकर भी भीतरी अच्छाई को कायम रख पाने में सफल रहते हैं. पहले वाले जकड़े हुए और परतंत्र से दिखते हैं तथा सीमित रूप से अच्छे होते हैं, जबकि दूसरे वाले खुले विचारों के साथ स्वतंत्र और स्वछन्द होते हैं, उनकी अच्छाईयां व्यापक होती हैं.

(६) स्वभाव से सोच है या सोच से स्वभाव है?
हमारी सोच तो अपनेआप में 'अव्यक्त' होती है लेकिन हमारे स्वभाव/मनोभाव/मिजाज़ के माध्यम से वह 'व्यक्त 'होती है! यानी हमारे स्वभाव से हमारी सोच महसूस या दिखाई पड़ती है. अर्थात् हमारे स्वभाव (सामान्य व्यवहार / मिजाज) के मूल में हमारी सोच है. ...सोच से ही स्वभाव है!

(७) मुझे बहुत गुस्सा आता है, मेरा घर में सबसे ज्यादा झगड़ा होता है और मुझे धन कमाने के लिए कोई रास्ता नहीं सूझता, और पैसों की परेशानी बनी रहती है!
प्रत्येक चीज पाने के लिए लगनपूर्वक कर्म करना आवश्यक होता है; और हमारे वश में केवल कर्म (कोशिश) करना ही है, फल नहीं! .."हमारे वश में फल नहीं" से तात्पर्य यह है कि फल कब व किस रूप में हमारे समक्ष आएगा, इसका हम बहुत सटीक अनुमान नहीं लगा सकते। वर्तमान कर्म के साथ हमारा प्रारब्ध भी तो हमसे जुड़ा हुआ है, वह भी नतीजे (परिणाम) को कुछ न कुछ प्रभावित करता रहता है। ...अब चूंकि हमारे हाथ में सिर्फ कर्म ही है, तो फिर हमारे वश में मात्र यही है कि हम शांत मन से पूरी तन्मयता से खुद को कर्मभूमि में झोंक दें, ...प्रारब्ध को परास्त करके एक दिन विजयी होने का केवल यही विकल्प है हमारे पास!!! ..कोशिश पूरी करें पर उतावले होकर भागें नहीं किसी चीज के पीछे! जब मिलनी होगी मिल जाएगी हमारे प्रयासों में कोई कमी नहीं, इस बात का संतोष सदैव आ जाये तो मन अपनेआप शांत रहेगा। बौखलाने और उत्तेजित होकर आपा खो देने से तो हमारी मानसिकता और आगामी कर्म बहुत प्रभावित हो सकते हैं। कृपया शांत चित्त से अनवरत कर्म करने में जुट जाएं, सफलता को फिर कभी तो किसी न किसी रूप में आपके पास आना ही पड़ेगा।

(८) मैंने कोई सपना देखा और चाहे जिस भी कमी की वजह से वह पूरा नहीं हुआ। पर जिस दोस्त या रिलेटिव को मैंने वह सपना शेयर किया था उसने प्रभावित हो उसे पूरा कर लिया। दुख होता है कि मेरा सपना क्यों अधूरा रहा!?
जो व्यक्ति किन्हीं शब्दों, ज्ञान, सपने या किसी के आईडिया वगैरह से प्रभावित व प्रेरित होकर जितनी जल्दी और कुशलता से कार्य को सम्पादित (एक्सीक्यूशन/इम्प्लीमेंटेशन) करता है , उसके सफल होने की संभावनाएं उतनी ही तीव्र होती हैं! ...किसी भी ज्ञान को पाने का महत्व केवल 5% होता है, शेष 95% महत्त्व कुशलतापूर्वक उसे कार्यान्वित करने का होता है.

(९) क्या सबसे बड़ा प्रश्न यह नहीं कि हमारी सोच में गलती है? हमारा यह सोचना कि वह (भगवान) हमारा ही हिस्सा नहीं बल्कि कुछ है जो हमारे बाहर है? आप क्या सोचते हो कृपया बताएं, क्या यह हमारी सोच नहीं कि भगवान कोई बहुत ही ताकतवर चीज है जो हमारे पाप पुण्य का ब्यौरा रख रही है बजाए इसके कि हम उसको अपने में ही अनुभव कर पाएं और एक पूर्णता को महसूस कर पाएं!
भगवान् उतनी ही ताकतवर चीज है जितनी कि प्रकृति!!! प्रकृति अपने प्रति (यानी प्रकृति के प्रति) हमारे हर एक्शन को दर्ज करती है और उसी के अनुरूप प्रकृति की प्रतिक्रिया स्वतः ही आती है! कब और किस फॉर्म में, विज्ञान ने कुछ हद तक इसकी व्याख्या करने में सफलता प्राप्त कर ली है! प्रकृति के समान ही ईश्वर हैं या यह कहना अधिक उचित होगा कि भगवान् प्रकृति के रूप में ही हमारे समक्ष विद्यमान हैं. प्रकृति के नियम और ईश्वर के नियम एक ही हैं! जैसे प्रकृति निराकार वैसे ही ईश्वर भी! चूंकि हम भी एक प्राकृतिक जीव हैं इसलिए ईश्वर या प्रकृति हमारे भीतर भी है. यदि हम उसके नियमों-सिद्धांतों के अनुरूप चलते हैं तो मानों हम पूर्ण हैं, हमें कोई भी डर या भय नहीं! उसके विरुद्ध जाने पर आशंका उपजती है कि प्रकृति संविधान के खिलाफ जाने पर प्रकृति की कोई प्रतिक्रिया हम तक अवश्य आयेगी कभी न कभी! ...ईश्वर कोई डराने वाला राजा नहीं है दीदी.... वो तो प्रकृति के सिद्धांत के रूप में है. ये सिद्धांत अटल होते हैं. उदाहरण के लिए- धनिये का बीज बोने पर धनिये का पौधा ही निकलता है और गेहूं का बीज बोने पर गेहूं का ही!! इसके विपरीत होते देखा है क्या कभी?? इसमें डरने वाली तो कोई बात नहीं दिखती मुझे! एक और उदाहरण -- महान वैज्ञानिक न्यूटन का तृतीय नियम (एक प्राकृतिक सिद्धांत) यह कहता है कि- प्रत्येक क्रिया के फलस्वरूप उसी अनुरूप कोई प्रतिक्रिया आनी निश्चित है; प्रतिक्रिया तुरंत भी आ सकती है और अनिश्चित समय के बाद भी! लेकिन आयेगी अवश्य!!! इसमें भी कोई व्यर्थ डरने-डराने वाली बात नहीं! यह तो प्राकृतिक संविधान का एक नियम (सिद्धांत) है मात्र! जो इसका ध्यान रखता है, पालन करता है, वह निश्चिन्त है, विरुद्ध जाने वाला झेलेगा, झेलता है. ....तो यदि हम ईश्वर को सदैव अपने भीतर ही महसूस करते हैं सदैव तो ईश्वरीय संविधान का पालन हमसे स्वतः अपनेआप ही होता रहता है, बिना किसी अतिरिक्त कोशिश के. तब एक पूर्णता का अहसास होता है.

(१०) भगवान की बड़ी बड़ी मूर्तियां, उनका दर्शन क्या यह बयान नहीं करता कि जीवन एक दर्शक से दर्शन बनने का सफर है? आपकी क्या राय है, क्या जीवन सिर्फ भगवान का दर्शन, उनकी बातें या कभी न कभी उन्हीं की तरह बन जाना कि लोग हमारा दर्शन कर सके, भगवान् की तरह नहीं बल्कि एक अच्छे इंसान की तरह ही सही! हमारा भी कुछ योगदान हो इस धरा पर और लोग उसको जान सकें और हमें भी अपने इंसान होने पर गर्व हो जाए!!!
हमारी फितरत कुछ ऐसी है कि ज्ञान के पथ पर हम पहले स्थूल की राह पर, तत्पश्चात धीरे-धीरे सूक्ष्म की राह पर चलते हैं. स्कूल में भी शुरू में हम फोटो और त्रिआयामी आकृतियों की मदद से वर्णाक्षर ए,बी,सी,डी.... सीखना शुरू करते हैं. ..फिर कक्षा दर कक्षा हमारा ज्ञान व समझ सूक्ष्म होते चले जाते हैं. फोटो और आकृतियों के बिना भी हमारा ज्ञान व्यापक होता चला जाता है. ..शर्त बस यह होती है कि किसी एक कक्षा के मोह में न पड़ जायें, नहीं तो जीवन भर उसी कक्षा में बैठे रह जायेंगे!!! एक कक्षा का पाठ्यक्रम यानी सिलेबस समाप्त हो जाने पर अगली कक्षा में जाना अनिवार्य होता है! ऐसे ही ईश्वर को भी स्थूल से सूक्ष्म तक जानना आवश्यक होता है. कहीं बीच में एक स्थान पर ही अटक जाने से हमारी यात्रा रुक जाती है और हम कुंए के मेंढक बन सकते हैं! ...ज्ञान के क्रमशः सूक्ष्मतर...सूक्ष्मतम होते होते व्यक्ति और उसकी सोच भी व्यापक होते जाते हैं, अच्छाईयां बढ़ती जाती हैं, कर्म भी स्वतः उत्कृष्ट होते जाते हैं, ...फिर सार्थक योगदान अपनेआप होता है. लोग उसे जानें या न जानें, नोटिस करें या न करें, सराहें या न सराहें, ...उस व्यक्ति को कोई फर्क नहीं पड़ता. ..बस उसे भीतर से स्वयं से पूरी तसल्ली होती है, बड़ा संतोष मिलता है.

(११) क्या जीवन का हर संघर्ष, हर परेशानी हमें अपनी ताकत याद दिलाने ले लिए नहीं था? अंततः यही समझ आता है जीवन का हर कष्ट, हर दुःख, हर सुख, हमसे हमारी पहचान कराने के लिए ही था, कि हम इस मनुष्यरूपी जीवन को सार्थक बनाएं, कुछ खुद के लिए और कुछ औरों के काम आएं!!!
मैं मानता हूँ कि हर कोई अपने जीवन में गिर कर, संघर्ष कर, बहुत कुछ सीखता है. ...लेकिन इसके साथ ही मेरा यह भी मानना है कि हम दूसरों के प्रसंगों से भी बहुत कुछ ग्रहण कर सकते हैं, दूसरों को भी गिरता या संघर्ष करता देख बहुत कुछ सीख कर सचेत हो सकते हैं, अनुभव प्राप्त कर सकते हैं, ..यदि हममें ग्रहण करने की अभिलाषा और काबलियत हो तो! ...हाँ अवलोकन करने, सीखने के बाद उसे प्रयोग में लाना अति आवश्यक होता है, तभी कुछ ठोस हासिल होता है.

(१२) हम व्रत क्यों रखते हैं? कुछ पाने के लिए? रिवाज चला आ रहा है इसलिए? या सच में हमें उपवास का मतलब मालूम है इसलिए? आज करवाचौथ था इसलिए यह सवाल दिमाग में आया!! !हम क्या और क्यों कर रहे है, हमें पति से वास्तव में प्यार है या दिमाग के पीछे हमें मालूम है पति के बिना गुजारा नहीं!?
वैसे तो अधिकांश व्रत आदि देखा-देखी, समाज की भेड़चाल के अनुसार ही रखे जाते हैं. ...लेकिन स्त्रियों द्वारा रखे जाने वाले कुछ व्रत जैसे करवाचौथ एवं छठ आदि बहुत आस्था और भाव से रखे जाते हैं. स्त्रियों का अपने जीवनसाथी के प्रति निःस्वार्थ प्रेम परिलक्षित होता है इनमें. मेरे विचार से कम से कम 90 प्रतिशत स्त्रियाँ बड़े मनोयोग व दिल से इन व्रतों को रखती हैं. उनको मेरा सादर नमन.

(१३) ईश्वर साकार है या निराकार? यह सवाल अक्सर पूछा जाता है कि आखिर ईश्वर कैसा है? साकार होता है या बिना आकार का निराकार? रामकृष्ण परमहन्स कहते थे कि ईश्वर को पहले साकार मानकर उसकी भक्ति करो, इतनी भक्ति करो कि उसमे लीन हो जाओ, तब उसका निराकार स्वरूप स्वतः प्राप्त हो जायेगा...!
परमपूज्य रामकृष्ण परमहंस जी ने अति उत्तम बात बताई है। हमारी प्रवृत्ति और मानसिक ढांचा भी कुदरती इसी प्रकार का है कि हमारा ज्ञान क्रमशः स्थूल से सूक्ष्म की ओर बढ़ता है। बचपन से ही स्कूल में बच्चा प्रथम फोटो और त्रिआयामी खिलौनों की मदद से वर्णाक्षर सीखता है, फिर कक्षा दर कक्षा क्रमशः उसका ज्ञान और समझ स्वतः ही पैने व सूक्ष्म होते चले जाते हैं। ...बस यहां शर्त एक ही होती है कि एक कक्षा का कोर्स पूरा होने पर अगली कक्षा को प्रस्थान अवश्य किया जाए! एक ही कक्षा से मोह रखने वाला, सदैव उसी कक्षा में ही बैठे रहने की जिद करने वाला बालक आगे उन्नति नहीं कर सकता!

(१४) जीवन में हमें क्या प्राप्त होता है, उस पर हमारा शतप्रतिशत कोई नियंत्रण नहीं किन्तु परिस्थिति का अपने साथ सही उपयोग केवल हमारे हाथ में ही है, ....क्या यह सही है?? भाग्य पर विश्वास ठीक है किन्तु केवल भाग्यवादी बन कर हाथ पर हाथ रख कर बैठना सही नहीं है; ...प्रयत्नशील रह कर अवसर की तलाश करने से ही रास्ते मिलते हैं!
यह बात ठीक है कि प्रारब्ध या भाग्य होता है; लेकिन यह बात मेरे लिए मानना असंभव है कि भाग्य को कोई सटीकता से कभी भी जान सकता है। ...तो प्रत्येक मिले अवसर पर पूरे मन से तब तक प्रयास करना चाहिए जब तक कि अवसर की वैधता समाप्त नहीं हो जाती। उदाहरण के लिए, ..किसी प्रतियोगी परीक्षा में पूरी कोशिशों के बाद भी उसके लिए निर्धारित अधिकतम प्रयत्नों के बाद (पात्रता समाप्त होने तक) भी यदि हमें सफलता प्राप्त नहीं होती, तब ही हम इस निष्कर्ष पर पहुंच सकते हैं कि यह शायद हमारे भाग्य में ही नहीं थी!!! ...लेकिन आखिरी वैध कोशिश का परिणाम आने तक हमें अपने कर्म के अलावा किसी चीज का यानी भाग्य फैक्टर का पता नहीं चल सकता। ...जब ऐसा है तो हताशा की तो कोई गुंजाइश नहीं बचती! अंतिम प्रयास तक भरपूर कर्मशील और आशावान रहते हैं। ..सफलता मिल गयी तो बल्ले-बल्ले, ..अन्यथा नियति को सिर झुकाकर मान लेते हैं और तब किसी अन्य प्रोजेक्ट में लग जाते हैं। जीवन चलने का नाम है, यह कभी नहीं भूलते तो जोश और होश दोनों कायम रहते हैं। प्रारब्ध, कर्म और फल संबंधी मूलभूत सिद्धांतों को भलीभांति जानते और मानते हैं तो जीवन के अंतिम पड़ाव पर भी विचलित नहीं होते कि हम वो न पा पाए जिसके लिए कोशिशें करते रहे! क्योंकि न पाने के बावजूद हम जानते हैं कि हमारे किये गए प्रयास विफल नहीं जाएंगे, वो भी एक दिन रंग लाएंगे! वो प्रयास वो क्रियाएं हैं जिनकी प्रतिक्रियाएं आना अभी शेष है। ..इस जीवन के साथ एक अध्याय समाप्त हुआ, किताब तो अभी जारी है!

Friday, September 28, 2018

(१०९) चर्चाएं ...भाग - 28

(१) रावण के दस सिर, वेदों का ज्ञान, बड़ी सी सोने की लंका, हर तरह का ज्ञान, हर तरह की पावर और राम में सिर्फ और सिर्फ देवत्व!! सवाल ये है कि बुराई इतनी पावरफुल क्यों है और अच्छाई अपना इम्तिहान देते-देते क्यों मरी जा रही है बिना किसी वजह ......या ये जरूरी है कि अच्छाई भी अपनेआप को समर्थ बनाकर रखे जरूरत के लिए! ...बेहतरीन उदाहरण है परमाणु बम को रखना अपनी समृद्धि और रक्षा के लिए!!! कृपया अपनी राय दें. ...कहीं न कहीं अच्छे लोगों की खामोशी बुराई को बढ़ाने में सहायक है ......आपकी क्या राय है कृपया बताएं!!
वैसे यह कोई स्थाई समाधान नहीं है कि बुराई से बचने के लिए हम अपनी संहारक क्षमता को बढ़ाते रहें! संहारक क्षमता को बढ़ाने में जितना समय, श्रम व पैसा लगता है उसकी मदद से बहुत से विकास के काम भी किये जा सकते हैं! ..फिर संहारक क्षमता को बढ़ाने की भी तो कोई थाह नहीं! हम आतताई से बचने के लिए आज जो बनायेंगे कल वह आतताई उससे बड़ा संहारक शस्त्र बना लेगा! ...फिर यह भी तो जरूरी नहीं कि वह हमारी संहारक क्षमता के आगे सदैव नतमस्तक रहे! ..कभी भी यह भी हो सकता है कि वह सिरफिरा परमाणु बम जैसे अस्त्रों का प्रयोग करके अन्यों और अपनी तबाही ले आए!!! ...डर से किसी सिरफिरे अल्पज्ञ को हमेशा के लिए नहीं दबाया जा सकता! क्या यह बेहतर विकल्प नहीं कि अल्पज्ञ को सुधारने की कोशिश की जाये, और न सुधरने पर उस खतरनाक अल्पज्ञ का ही सदा के लिए खात्मा कर दिया जाये! राम और कृष्ण ने यही किया था! राम के समय में मात्र लंकाधीश रावण और उसके चंद सहयोगी दुष्ट थे, पूरी लंका के अन्य समस्त जन नहीं! महाभारत के समय में कौरव और उनके कुछ सहयोगी दुष्ट थे, वहां की आम प्रजा नहीं! राम और कृष्ण ने भी उन दुष्टों को समझाने की भरसक कोशिश की और न सुधरने पर अंततः उनका खात्मा किया! ..लेकिन मात्र अपनी संहारक क्षमता को बढ़ा कर या मात्र अपने बाहुबल को जता कर राम और कृष्ण क्या उनकी दुष्टता को सदा के लिए नियंत्रित कर सकते थे???? ..राम-कृष्ण के शक्ति-प्रदर्शन से शायद उनकी दुष्टता कुछ समय के लिए दबी रह सकती थी लेकिन वे दोबारा छुपकर प्रतिघात अवश्य करते और उन्होंने किया भी! ..वैसे इतिहास गवाह है कि समझाने से (खरा ज्ञान देने से) बहुत से दुष्ट सुधरे भी हैं और असत्य से सत्य के पक्ष में आ खड़े हुए हैं.  ...समाज एक शरीर की तरह है और विभिन्न लोग उसके अंग-प्रत्यंग! ...अपने शरीर के किसी अंग में बीमारी हो जाने पर हम उसका इलाज बिलकुल थोड़े से (मुलायम तरीके से) शुरू करते हैं और ठीक न होने की दशा में इलाज को क्रमशः तीव्र करते जाते हैं. कभी-कभी (बहुत कम बार ही) ऐसा भी होता है कि शरीर के उस बीमार हिस्से की वजह से पूरे शरीर के स्वास्थ्य को खतरा बन जाता है तब सर्जरी करवा कर उसको हमेशा के लिए समाप्त करना पड़ता है! ..लेकिन क्या जरा सा कुछ होते ही हम सर्जरी पर उतर आते हैं? जी नहीं! ...राम और कृष्ण की नीति भी यही रही थी;  और यह नीति आज भी प्रासंगिक है, हमेशा रहेगी! ..अंत में आपने कहा है कि, अच्छे लोगों की खामोशी बुराई को बढ़ाती है, ...यह बिलकुल ठीक बात है. ...अब उदाहरण के तौर पर देख लीजिये कि शरीर के किसी अंग में हुए रोग को यदि हम खामोश रहकर नजरअंदाज करते हैं तो वह मामूली सा रोग एक दिन नासूर बन जाता है! समय रहते उसका समुचित इलाज अत्यंत आवश्यक होता है, लेकिन इलाज के चरण वही होने चाहियें- मंद से शुरू करके क्रमशः तीव्र...!

(२) दुःख और सुख क्या है?
मन की नकारात्मक या सकारात्मक स्थिति ही क्रमशः दुःख और सुख है! ...और ये स्थितियां उससे उत्पन्न होती हैं जो हो रहा है! ...जो हो रहा है वो तो होगा ही क्योंकि उसके पीछे हमारे पूर्व व वर्तमान के कर्म तथा प्रकृति के अकाट्य नियम-सिद्धांत हैं! गहराई से यह विचार करते ही हम दुःख और सुख से थोड़ा सा अलग हो जाते हैं.

(३) 'आज' की दुनिया में समझदार इंसान की क्या पहचान है? क्योंकि ईमानदारी, वफादारी, सत्य, धर्म, अहिंसा और निःस्वार्थ भाव; लोग इन्हें किताबी बातें कहते हैं, इन पर अडिग रहने वालों को लोग बेवकूफ कह कर हंसी उड़ाते हैं!
इस चर्चा में आपने अपना जो दृष्टिकोण दिया है वह सत्य और सराहनीय है। ...लेकिन यदि आपके मूल प्रश्न ('आज' की दुनिया में....) पर आएं, तो 'आज' की दुनिया में तो समझदार इंसान की पहचान यही है कि, "जो सबकी हां में हां मिलाये, चल रही हवा के साथ बहता जाए!" बड़े दुर्दिन आ गए हैं! ..बस यहां आकर थोड़ा ढाढ़स बंधता है।

(४) प्यार हमेशा दूसरे का भला करने में लगा रहता है और प्यार पाने की ख्वाइश हमेशा दूसरे को हासिल करने में लगी रहती है, अक्सर ऐसा देखा जाता है जो बढ़चढ़ कर प्यार / दोस्ती की बातें करते हैं वे सिर्फ प्यार नहीं बल्कि प्यार को हासिल कर के एक सिक्योरिटी को हासिल करना चाहते है!! कृपया अपनी राय दें!!
निरपेक्ष प्रेम, निःस्वार्थ प्यार, आदि आजकल की भारतीय संस्कृति से गायब से हो गए हैं। आजकल प्यार केवल शारीरिक आकर्षण और सांसारिक लाभ में ही फंसकर रह गया है। अविवाहित युगल के बीच अब विरले ही सच्चा प्यार देखने को मिलता है। विवाहितों में अभी भी गाढ़ा प्यार कायम था, ..लेकिन समलैंगिक और विवाहेत्तर संबंधों की आजादी के बाद पता नहीं समाज अब प्यार की कौन सी नई परिभाषा गढ़ता है!
मैंने हमेशा दूसरों से कुछ न कुछ सीखने का पक्ष लिया है, ...लेकिन आंखें मींचकर कदापि नहीं!!! प्रत्येक में कुछ अच्छाईयां और कुछ बुराईयां होती हैं. यदि हमें वास्तव में आगे को जाना है तो दूसरे की बुराई को फिल्टर करके केवल उसकी अच्छाई को लेना होता है. ...लेकिन फटाफट प्रगति को पा जाने की धुन में हमारे देश के आका चंद विकसित देशों की बुराईयों के तो पिछलग्गू बन गए हैं परन्तु उनकी अच्छाईयों एवं विशेषताओं से अभी भी कोसों दूर हैं! मेरे पिछले अनेक लेखों में इस त्रासदी का विस्तृत वर्णन है.

(५) मेरी आस्था भगवान में बहुत अधिक है लेकिन मैं कभी-कभी आस्था से भटक जाता हूं लेकिन कुछ ही दिनों में ईश्वर पर यकीन करने लगता हूं मैं आपसे यह पूछना चाहता हूं कि कि मेरा दिमाग या फिर मेरा मन या फिर मेरी आत्मा तीनों स्थिर नहीं है ये तीनों चीज एक ही हैं या अलग कुछ समझ में नहीं आ रहा है!
शुरू में आप दिमाग, मन, आत्मा जैसे विषयों पर अपना ध्यान न भटकाकर, अपनी आस्था को अनेक से एक में लाने की चेष्टा करो. अर्थात् पहले अनेक ईश्वर रूपों में से किसी एक पर आ जाओ, फिर उस एक साकार ईश्वर रूप से भी एक निराकार परमात्मा पर आस्था दृढ़ करने का प्रयास करो. भीतर से खोजी और जिज्ञासु बनो. पश्चात् धीरे-धीरे सब ज्ञान अपनेआप होता चला जायेगा. अध्यात्म में जल्दबाजी बिलकुल भी ठीक नहीं, लेकिन समझने-जानने की निरंतर भूख-प्यास बहुत जरूरी है. यह तीव्र जिज्ञासा ही आगे के सब द्वार खोलती चली जाती है. शुभकामनाएं.

(६) वासना को दूर करके अपना मन परमात्मा में कैसे लगाया जा सकता है?
बड़ा अचूक उपाय है यह कि, किसी भी नकारात्मक अथवा अवांछित विषय से अपना ध्यान हटाने के लिए, ठीक उसी समय किसी अन्य सकारात्मक विषय पर अपना ध्यान केन्द्रित करने से, अवांछित से छुटकारा पाने में बड़ी मदद मिलती है. हालाँकि शुरू में यह प्रक्रिया जबरन करनी पड़ती है, फिर धीरे-धीरे मन सध जाता है.

Wednesday, September 26, 2018

(१०८) चर्चाएं ...भाग - 27

(१) डर ही डर.. क्या डर ही इंसान है कभी कभी ऐसा लगता है, हम क्यों इतना डरते हैं, कभी बीमार होते हैं तो सोचते हैं शायद बीमारी ठीक ही नहीं होगी!? आधी से ज्यादा परेशानियां शायद थोड़े बहुत साहस से ही ठीक हो जाएंगी!
हमारे भीतर किसी भी अच्छी यानी किसी सकारात्मक चीज की कमी ही, उसके विलोम यानी किसी बुराई / दुर्बलता / नकारात्मकता आदि की वजह बनती है. निःसंदेह 'डर' हम सब की कमजोरी है. किसी में कम होता है तो किसी में बहुत ज्यादा. लेकिन यह उपजता हमारी किसी अंदरूनी कमी के कारण ही है. यदि हम निरंतरता से खुद में कुछ सकारात्मकता जोड़ते रहें तो हमारी मानसिक दुर्बलताएं घटती जाती हैं. जैसा आपने सुझाया कि 'साहस' से आधे से अधिक 'डर' दूर हो जायेंगे, तो इसमें भी वही फार्मूला लागू हुआ न! पॉजिटिव बढ़ाया, तो नेगेटिव कम हुआ! यह सर्वोत्तम तरीका है अपनी दुर्बलताओं से मुक्ति पाने का. ..कभी कभी हमारे मन में कोई चोर, कपट, धूर्तता, बेईमानी, आदि का शॉर्टकट होता है तब भी हमें भीतर से भय लगता है कि हम कहीं पकड़े न जायें, हमारा राज न खुल जाये; तब भी भय का कारण हमारा गिरा हुआ नैतिक स्तर ही हुआ. हम उसे उठायेंगे तो उस भय को भगायेंगे जो उसकी (नैतिकता की) कमी से उपजा है. ...बीमारी के मामलों में तो डर अनोखा ही होता है क्योंकि कोई भी बीमार होना या मरना नहीं चाहता; हर कोई हमेशा हृष्टपुष्ट ही रहना चाहता है! लेकिन उस दशा में भी मन को यह समझाना होगा कि सभी भौतिक वस्तुओं की तरह मानव शरीर भी भंगुर है, इसका भी क्षरण होता है, इसकी भी टूटफूट संभव है, इसकी भी एक एक्सपायरी डेट है! एक मोटर गाड़ी भी जब हम खरीदते हैं तो हमें पता होता है कि उसमें भी टूटफूट, एक्सीडेंट, आदि संभव है; उसे निरंतर रखरखाव की जरूरत भी पड़ेगी; एक दिन ऐसा भी आएगा जब वह बेकार हो जाएगी...., तब भी हम धैर्य और साहस रखकर उसे खरीदते हैं, उसे जमकर इस्तेमाल करते हैं, उसकी देखभाल, रखरखाव आदि बाकायदा रखते हैं, उसकी सेहत के प्रति फिक्रमंद रहते हैं लेकिन चिंता में घुले नहीं जाते! छोटी-छोटी बात पर उसे मैकेनिक के पास नहीं ले जाते और कुछ खराबी हो जाने पर उसे रगड़ते भी नहीं रहते, उसका प्रॉपर इलाज करवाते हैं! उसमें डाले जाने वाले ईंधन, इंजन-आयल (यानी भोजन) की गुणवत्ता का ध्यान रखते हैं; ड्राइविंग भी स्मूथ करते हैं! ...ठीक इसी प्रकार अपने शरीर के प्रति दृष्टिकोण बना लें तो काफी आसानी हो जाएगी! जागरूकता और दृढ़ता से सत्य भीतर समाने पर व्यर्थ के डर कम हो जायेंगे.

(२) जैसे ही किसी चीज की इच्छा को छोड़ते हैं वैसे ही वह चीज गोदी में आकर गिरती है और कभी-कभी उस से भी बेहतर चीज .....क्या आप ने कभी ऐसा अनुभव किया?
जी हाँ..., अनेक बार ऐसा अनुभव किया है. ...इसीलिए तो कहा जाता है कि योग्यतम ढंग से अपने काम करते जाओ लेकिन कभी बहुत व्यग्रता से किसी चीज के मिल जाने की बाट न जोहते रहो. आपकी कर्मठता और नेकनीयती की बदौलत सही वक्त पर सही चीज आप तक स्वतः आ जाएगी. बहुत पीछे पड़ने से और बहुत अपेक्षा करने से भी कई काम अटक जाते हैं, इसलिए सहजभाव बहुत जरूरी है.

(३) ब्रह्म सत्यम जगत मिथ्या के सम्बन्ध में बताएं!
"ब्रह्म सत्य है, और जगत मिथ्या", इसका सीधा अर्थ लें तो निकलता है कि, "अजन्मा, अप्रकट व निराकार आत्मा-परमात्मा ही सत्य है, शेष सब भौतिक पदार्थ मिथ्या यानी स्वप्न-स्वरूप यानी मिट जाने वाला है." ...यदि कोई इस 'अर्थ' को ही 'भावार्थ' के रूप में ले ले तो बड़ा खतरा यह बनता है कि वह प्राणी कभी भी समस्त सांसारिक कर्तव्यकर्म और भौतिक प्राण तक भी स्वेच्छा से त्याग सकता है! ...इस संदर्भित वाक्य का गूढ़ अर्थ यानी भावार्थ प्राकृतिक रूप से ही हमारे भीतर अंकित है यानी सबको सहज उपलब्ध है, लेकिन मन में बने आगंतुक बेतरतीब संस्कारों के ढेर तले वह दबा पड़ा है! हम अक्सर इन्हीं संस्कारों के तहत ही जीवन जीते हैं, इन्हीं संस्कारों के तहत आत्मा और परमात्मा को ढूंढते फिरते हैं, इन्हीं संस्कारों के तहत भौतिक व आध्यात्मिक बहसें करते हैं. ..हालाँकि मथने से बहुत बार आत्मा-परमात्मा सम्बन्धी खरा सत्य भी सामने आ जाता है, फिर भी दिल है कि मानता नहीं...., हम और अधिक मथ कर पुनः सब गड्डमड्ड कर देते हैं! हम गोल गोल घूमते रहते हैं, सोचते हैं बहुत चल लिए, ...लेकिन हमारा विस्थापन तो पुनः-पुनः शून्य हो जाता है!

(४) आपके नजरिये से अध्यात्म है क्या? क्या ये कर्मकांड है ज्योतिष है तांत्रिक क्रिया है या अमानवीय ऐसी सिद्धियों का प्राप्त करने का तरीका है, या अध्यात्म स्वयं की ही खोज है? आप अध्यात्म में क्यों आये और क्या पाना चाहते हो?
यह तो वही बात हो गयी कि कोई सागर या नदी से पूछे कि, "तेरा जल से क्या काम?!" ..जल से ही एक नदी या सागर का अस्तित्व है, उसी प्रकार 'आत्मा' (सूक्ष्म चैतन्य) के बिना क्या हमारा भौतिक देह में जीवन संभव है? आत्मा विषयक समस्त ज्ञान 'अध्यात्म' है. यह (अध्यात्म) भी एक प्रकार का शास्त्र यानी विज्ञान है. मूलतः यह सिद्धांतों पर आधारित है. आधुनिक विज्ञान के भी प्रकृति और प्राकृतिक सिस्टम से जुड़े अधिकांश या सभी नियम-सिद्धांत भी आध्यात्मिक सिद्धांतों से ही निकले हैं या उनका अनुमोदन करते हैं. हम मात्र उन्हें ही मान लें और स्वयं को भी उनके अंतर्गत रख कर थोड़ा विचारमंथन कर लें, तो मानों हम स्वयं (आत्मा) और अध्यात्म को जान गए! उदाहरण के लिए मात्र दो वैज्ञानिक सिद्धांत- (१) ऊर्जा की अक्षुण्णता का सिद्धांत यानी ऊर्जा कभी नष्ट नहीं होती, हाँ किसी अन्य स्वरूप में परिवर्तित अवश्य हो सकती है. ..(२) प्रत्येक क्रिया के फलस्वरूप प्रतिक्रिया निश्चित है. ...क्रिया के फलस्वरूप प्रतिक्रिया त्वरित भी आ सकती है और विलंबित भी; वह प्रतिक्रिया किसी अन्य रूप-अवस्था में भी आ सकती है; लेकिन आएगी अवश्य और उसकी प्रकृति (सकारात्मक या नकारात्मक) मूल क्रिया के अनुसार ही होगी. ...अध्यात्म में आने का कारण स्वयं और स्वयं से सम्बंधित सच्चे तथ्यों को समझना होता है, तदोपरांत अपने दैनिक जीवन के प्रत्येक कार्य और अपनी जीवनशैली को उन सिद्धांतों के अनुसार ढालना होता है. 'अध्यात्म' कोई पढ़ने, रटने या यंत्रवत कर्मकांड करने का शास्त्र नहीं अपितु सीधे-साधे ढंग से जीवन में उतारने का शास्त्र है. अध्यात्म में कोई आता नहीं है, प्रत्येक मनुष्य उसमें पहले से ही है, यह अलग बात है कि वह उसमें कितनी गहरी डुबकियाँ लगाता है. ज्योतिष, तंत्र-विद्या और रिद्धि-सिद्धि आदि का अध्यात्म से कोई भी रिश्ता-नाता नहीं है!

(१०७) चर्चाएं ...भाग - 26

(१) जीवन जीना एक कला क्यों कहा गया है...? आजकल ऐसे कई आध्यात्मिक केंद्र भी चल रहे है जहाँ आप ध्यान और चित्त शान्ति की विविध प्रक्रियाएं सीख सकते हैं!
जीवन जीने की कला अत्यंत व्यापक है. कोई व्यक्ति इसके कुछ पहलुओं से परिचित होता है तो दूसरा कोई व्यक्ति इसके कुछ अन्य दूसरे पहलुओं से! ..जो व्यक्ति जितने अधिक पहलुओं को अपने व्यक्तित्व में समेट लेता है वह उतना ही बड़ा कलाकार (अर्थात् समृद्ध व परिपूर्ण) होता है. ..इसकी कोई थाह नहीं! मेरी समझ से कोई अमुक आध्यात्मिक केंद्र 'जीवन जीने की कला' की अपरिमित थाह को एक निश्चित परिधि तक सीमित कर देता है, उसके पंखों को कतर देता है; क्योंकि वहां प्रत्येक व्यक्ति के लिए लगभग एक सी प्रक्रिया का प्रावधान या आग्रह होता है. ..जबकि मेरा मानना है कि प्रत्येक मनुष्य अपने आप में अनूठा यानी यूनिक है.

(२) सच्चा भक्त कौन होता है जो सेवा करे या जो बस पूजा करे?
जो भी कृत्य हमारे अहंकार को कम करते हुए हमारे भीतर 'ईश्वरीय गुणों' को बढ़ाने में सफल हो रहा है वह (कृत्य) ही हमारे लिए उत्तम!!! सभी के लिए यह (कृत्य) भिन्न-भिन्न हो सकता है, क्योंकि जितने व्यक्ति, उतनी ही प्रकृतियाँ, उतने ही साधना मार्ग! ..क्योंकि भिन्न विशिष्टताओं के कारण प्रत्येक मनुष्य अपनेआप में यूनिक (अनूठा) है, इसलिए किसी की भक्ति को सच्ची और किसी की भक्ति को झूठी करार दे देना ठीक न होगा. ...बेहतर हो कि हम व्यक्ति के 'गुणों' को परखें और उस आधार पर उसकी श्रेष्ठता का आंकलन करें.

(३) माफ कर देना सब समस्या का समाधान है?
परिवार और आपसी संबंधों यानी व्यक्ति के आन्तरिक सर्किल में तो इस सूत्र का कोई जवाब नहीं. माफ कर देने से संम्बंधों-रिश्तों में मधुरता बनी रहती है, बहुत सी समस्याएं भी हल हो जाती हैं. ऐसा इसलिए संभव होता है कि 'अपना' होने के कारण सामने वाले के दिल में भी हमारे लिए कुछ आदर-सम्मान होता ही है, और वह हमारी माफी की कद्र करता है. लेकिन दूर के व्यक्ति के लिए ऐसा करना (बारम्बार माफ करना) प्रैक्टिकली बहुत उपयोगी नहीं रहता क्योंकि उसके मन में हमारे लिए बहुत अल्प (या न के बराबर) स्नेह या सम्मान होने के कारण वह हमारी सहिष्णुता की कद्र नहीं कर पाता. उदाहरण के लिए-- "महात्मा गाँधी जी कितने विनम्र व सहिष्णु थे फिर भी वे समाज में व्याप्त अनेकों बुराइयों, गलतियों और अत्याचारों के लिए जिम्मेदार लोगों व शासकों को माफ करके चुपचाप नहीं बैठे रहे, बल्कि उन्होंने देश-विदेश में गलत के खिलाफ अनेकों सत्याग्रही आन्दोलन किये. ...भाई जी, कोई भी सूत्र हर जगह फिट नहीं हो पाता! हमारी माफी या चुप्पी का ही निरंकुश शासक, अधिकारीवर्ग और लालची कंपनियां और बहुत से अन्य लोग फायदा उठाते हैं. ..इसलिए स्वयं धर्म यानी नेक और सत्य मार्ग पर चलकर समस्त जग से भी इसका आग्रह करना ही तो सत्याग्रह है. प्रत्येक को प्रत्येक दशा में माफ करके हम सत्याग्रह (सत्य का आग्रह) नहीं कर सकते!

(४) हमें दूसरों को बदलने की कोशिश नहीं करनी चाहिए?
सभी तथाकथित ज्ञानी बारम्बार बहुत जोर देके कहते हैं कि खुद को ही बदलो, किसी अन्य को बदलने की चेष्टा न करो! लेकिन यह बात मुझे अधिक ठीक लगती है कि, खुद को संवारो और फिर अन्यों को भी संवारने की चेष्टा करो! ...'बदलने' शब्द में बहुत अपेक्षा-जिद-आग्रह हो जाता है इसलिए स्थाई सफलता नहीं मिल पाती. ..संवरने और संवारने में भला किसे आपत्ति हो सकती है! हममें कुछ भी ऐसा नहीं जो आमूलचूल बदला जा सके, पर सुधार की गुंजाईश तो सदैव रहती ही है!

(५) ज्ञान दूसरों को देना आसान है पर अपने पर अमल करना मुश्किल! ऐसा क्यों?
ज्ञान के ऊपर अमल करना उनके लिए मुश्किल होता है जो ऊपर ऊपर का दिखावा करते हैं। वे खड़कते इसलिये ज्यादा हैं क्योंकि वे भीतर से खोखले हैं! वे बोलते तो बहुत हैं पर सब रटा-रटाया, सुना-सुनाया या किताबी! ...लेकिन बहुत से लोग ऐसे भी होते हैं जो प्रथम खुद अमल करके अनुभव और अनुभूतियाँ जुटाते हैं तदुपरांत उन्हें आगे भी बांटते हैं। उनका ज्ञान अनुभवों पर आधारित होने से गहराव व सच्चाई लिए होता है, इसलिये वह आमजन को खट्टा-तीखा लगता है क्योंकि सत्य को चखना व हजम करना इतना सरल भी नहीं! ऐसे विरले ज्ञानियों को समाज और तथाकथित गुरुओं-संस्थाओं आदि के भारी क्रोध और विरोध का सामना भी करना पड़ता है।

Tuesday, September 25, 2018

(१०६) चर्चाएं ...भाग - 25

(१) आहार का शुद्धिकरण, इसका क्या अभिप्राय है...?? कहा जाता है कि जैसा खाएं अन्न वैसा होये मन और जैसा पिएं पानी, वैसी होये वाणी! ..आहार का हमारे शास्त्रों में विशेष महत्त्व बताते हुए कहा गया है कि आहार केवल मुख से नहीं बल्कि कानों से सुनना, आँखों से देखना और हाथों से स्पर्श करना भी है!
मानव देह में मूलतः हम सामाजिक प्राणी हैं. खाने-पीने के अलावा यदि सुनने, सूंघने, देखने और स्पर्श करने में भी अत्यधिक सावधानी रखने लगेगें, तो फिर तो हम समाज से लगभग कट ही जायेंगे. आज समाज में खुलेआम इतनी तथाकथित अस्पृश्य व अयोग्य वार्तालाप, दृश्य, कथन, वस्तुएं हमारे इर्दगिर्द हैं कि चौबीसों घंटे हम अपनी ज्ञानेन्द्रियों को बंद नहीं कर सकते, और न ही उनसे दूर भाग सकते हैं. बेहतर हो कि हम कीचड़ में कमल बनने की चेष्टा करें, अन्यथा किसी सुनसान पर्वत या जंगल में पलायन कर जायें, जो कि न तो संभव है और न ही सामाजिक और पुरुषार्थ की दृष्टि से ठीक है! इस काल में उचित यही है कि जैसा भी समाज हमारे आसपास है, उसे खुशी-खुशी स्वीकार करें, साथ ही अपनी अंदरूनी अच्छाई को बरकरार रखते हुए समानांतर रूप से समाज को उन्नत करने की भी कोशिश करें. समाज में उठते-बैठते भौतिक रूप से हम भले ही मैले हो जायें, पर भीतर से (नैतिक व आत्मिक स्तर पर) खुद को दूषित न होने दें, यही प्रयास करें. ज्यादा छुआछूत में दिमागी कसरत न ही करें तो बेहतर! सारांश में, खाद्य सामग्री सहित समस्त अन्य भौतिक वस्तुएं जिस 'नेक तरीके' से हम कमाते हैं, हमारी शुद्धता उसी से मापी जाएगी; अपने भीतर हम कैसे विचार रखते हैं, कैसे विचार पनपने देते हैं, हमारी शुद्धता उसी से नापी जाएगी. इस निराकार व अभौतिक आत्मा के लिए निराकार शुद्धि ही महत्त्व रखती है.

(२) आज के युग में इंसानियत की उम्मीद करना बेकार है?
कहते हैं उम्मीद पर दुनिया कायम है, ..और फिर उम्मीद के अलावा सकारात्मकता कायम रखने का अन्य कोई विकल्प है आपके पास? ..नहीं न! ...इसीलिए शायद किसी उम्मीद पर ही तो हम सब यहाँ अपना समय और ऊर्जा खर्च कर रहे हैं अन्यथा यहाँ कोई भी न होता! ...कर्म करने से ही किसी अभीष्ट की उम्मीद बंधती है दोस्तों! ..और फिर वह उम्मीद ही हमारे लिए संजीवनी का कार्य करती है.

(३) क्या प्रतिशोध को एक मानसिक बीमारी के रूप में स्वीकार किया जा सकता है?
बड़ी अजीब सी बात है कि, पहले गलत जीवनशैली (कुसंस्कारों/गलत आदतों) के कारण हमारे व्यक्तित्व और व्यवहार में विकृतियां उत्पन्न होती हैं, फिर आगे चलकर वे विकृतियां दृढ़ होकर विकारों में बदल जाती हैं, ..और मामला जब बेकाबू हो जाता है तो उन्हें बीमारी का नाम देकर संबंधित व्यक्ति को क्लीन चिट दे दी जाती है कि वह तो बीमारी की वजह से ऐसा कर रहा है। ...समलैंगिकता को इसी प्रकार क्लीन चिट मिली, ..और अब प्रतिशोध को भी एक बीमारी का नाम देने की तैयारी है क्या? ....इस प्रकार तो मनुष्यों में बहुत सी बीमारियां फैल जाएंगी तिसपर भी सभी के लिए आजादी, सहानुभूति और माफी होगी!

प्रत्युत्तर:- प्रतिशोध को कोई बीमारी का नाम देने की तैयारी नहीं है न ही कोई सहानभूति, लेकिन कोई भी सिस्टम अगर सही से काम नहीं कर रहा है उसे आप अपनी भाषा में जो भी नाम दे सकते है...
प्रत्युत्तर के लिए आभार! ..लेकिन एक सत्य यह भी है कि हवा में उछाले गए शब्दों को ही ढाल बनाकर ही दोषी व्यक्ति व मीडिया एक बीज से पूरा पेड़ खड़ा कर लेते हैं. शब्द उछालकर हम बुद्धिजीवी ही उनको बचाव के नए-नए उपाय सुझाते हैं. बुरा न मानियेगा, आज जो समलैंगिकों को भी जो स्वीकृति मिली है वह बुद्धिजीवियों के योगदान से ही संभव हुई है! ...आखिर हम वह "तिल" फेंकते ही क्यों हैं जिसकी 'ताड़' बनने की सम्भावना बन जाये?!

(४) मन से भागने की बजाए मन की बात सुनते!
मन आखिर है क्या!? मन में कोई बात क्यों आती है!? ऐसा तो नहीं कि पैदाइश से ही मन में वे बातें आती हों जो आज आ रही हैं!? .....मन तो वास्तव में संस्कारों (इम्प्रेशंस) का एक गढ़ है, भण्डार है! कुच्छ पिछले जन्मों के हैं तो कुछ यह जन्म लेने के बाद धीरे-धीरे निर्मित हुए. ..अपनी पञ्चज्ञानेन्द्रियों से कुछ भी सुनते, देखते, सूंघते, चखते और स्पर्श से महसूस करते ही हमारे मन में उस प्रसंग से कोई न कोई संस्कार बनता है. यदि वह संस्कार पहले से बना हुआ है तो और अधिक बड़ा (मजबूत) होता है. ..यह कतई जरूरी नहीं कि सभी संस्कार बुरे ही होते हैं (जैसा कि बहुत से आध्यात्मिक जन फरमाते हैं) और यह भी जरूरी नहीं कि वे सब अच्छे ही हों! ..लेकिन यह तो सत्य है कि एक आम जन के लगभग नब्बे प्रतिशत कार्य उसके मन में विद्यमान संस्कारों से ही सम्पादित होते हैं. ..और अक्सर हम अपने मनानुसार ही कार्य करते हैं. यदि दूसरों की राय से यानी दूसरों के मनानुसार करते हैं तब भी अपने मन की अनुमति लेकर ही हम उनको कर सकते हैं. किसी अन्य का कोई दबाव तो नहीं बन सकता न! ...तो अच्छा हो कि हम अपने मन में बेहतर संस्कारों को ही पनाह दें और अवांछित संस्कारों की उपेक्षा करें. ...उपेक्षित संस्कार ठीक उसी प्रकार एक दिन हमारे मन से पलायन कर जायेंगे जैसे एक अनचाहा और उपेक्षित मेहमान जल्दी ही हमारे घर से विदा ले लेता है. ...मन की हम जरूर सुनें, और सुनते भी हैं लेकिन इतना ध्यान अवश्य रखा जाये कि हमारे मन में कोई बुरा संस्कार अपनी जगह स्थाई न करने पाए. ...बुरे अथवा अवांछित संस्कारों से निजात पाने का सिर्फ एक उपाय है कि हम अच्छे प्रसंगों को अधिक याद करें, उन्हें ही अधिक महत्त्व दें; उससे अच्छे संस्कार धीरे-धीरे दृढ़ होते जायेंगे जिनकी अधिकता बुरे संस्कारों को पलायन के लिए मजबूर करेगी.

(१०५) चर्चाएं ...भाग - 24

(१) विज्ञान भी ज्ञान का ही भाग है?
जी हाँ, बिल्कुल. ...विज्ञान मूलतः क्या है? ..प्रकृति के तत्वों को जानना, दृश्य-अदृश्य पदार्थों को जानना, उनके गुणधर्म जानना, प्रकृति के नियम-सिद्धांतों को जानना, प्रकृति में हो रही सभी घटनाओं का कार्यकारणभाव जानना, प्रकृति द्वारा प्रदत्त विभिन्न कच्चे पदार्थों से मानव-हित के लिए नाना प्रकार की वस्तुएं, यंत्र-सयंत्र आदि का निर्माण करना, भूसंपदा को उचित ढंग से उपयोग में लाने हेतु नित-नवीन तकनीकें खोजना, आदि. .....विज्ञान कुछ और नहीं वरन पहले से विद्यमान को खोजना ही है यानी रि-सर्च! ज्ञान एकत्रित करने की प्रक्रिया का यह बहुत ही अधिक महत्वपूर्ण अंग है. यहाँ तक कि अध्यात्म के शुरुआती अध्याय भी विज्ञान की सहायता से बहुत सरलता से समझे जा सकते हैं. और विज्ञान के ज्ञान की सहायता से ही विभिन्न अंधविश्वासों से बचते हुए शुद्ध आध्यात्मिक ज्ञान पाने की दिशा में अग्रसर हुआ जा सकता है. ..अधिकांशतः हम देखते हैं कि बहुत से ढोंगी बाबा और स्वयंभूः आध्यात्मिक गुरु अपने अनुयायियों को विज्ञान से दूर रहने को बोलते हैं, उससे परहेज रखने को कहते हैं; यह केवल इसलिए कि वस्तुतः वे चाहते हैं कि उनके अनुयायी अंधविश्वासों में जकड़े रहें और आँख मूंद कर उनका अंधानुसरण करते रहें. ..मेरा तो मानना है कि विज्ञानी शुरू में अवश्य सहमते हुए अध्यात्म में कदम रखते हैं, लेकिन फिर अध्यात्म की गहराईयों में और उंचाईयों पर अधिकांशतः वे ही पहुंचते हैं. ..निःसंदेह अध्यात्म-ज्ञान, विज्ञान से भी ऊपर का ज्ञान है, किन्तु विज्ञान से होते हुए ही उसका रास्ता जाता है. ..भगवान् श्रीकृष्ण के अनुसार भी 'प्रवृत्ति' के बाद ही 'निवृत्ति' संभव है! ...कुछ पा लेने के बाद ही उसे त्यागने (या उसकी आसक्ति त्यागने) में व्यक्ति की, पुरुषार्थ की, पूर्णता है! ...असली अध्यात्म-ज्ञान भी हमें 'प्रवृत्ति' से 'निवृत्ति' की ओर ले जाता है. और विज्ञान का ज्ञान 'प्रवृत्ति' के चरण को कुशलतापूर्वक पूर्ण कराता है.

(२) नियमों की आवश्यकता और नियम कैसे बनते हैं?
प्रकृति अथवा ईश्वर के नियम तो "सिद्धांत" रूप में चिरकाल से बने ही हुए हैं. और उन सिद्धांतों की रक्षा हेतु समाज के बुद्धिमान-वर्ग ने समय-समय पर अनेक नियम बनाये, एवं आज भी नित नए नियम बन रहे हैं. नियम हमेशा लोगों को सुसभ्य, सुशिक्षित व अनुशासनप्रिय नागरिक बनाने के लिए वहां के देश-काल-परिस्थिति-सभ्यता-संस्कृति आदि के अनुसार बनते हैं. पुराने नियम बदले अथवा हटाये भी जा सकते हैं और नए नियम नए ढंग से बनाये भी जा सकते हैं. अतः यह भी कह सकते हैं कि लोगों की सोच और आचरण को नियंत्रित एवं सही पथ पर लाने लिए नियमों की आवश्यकता पड़ती है जिससे यथासंभव प्रकृति के उन चिरस्थाई "सिद्धांतों" की रक्षा हो सके जिनमें समस्त जीव-अजीव का हित निहित है. ..अतः नियम हमेशा परिवर्तनीय हो सकते / होते हैं और "सिद्धांत" हमेशा अपरिवर्तनीय होते हैं!!! "नियम" तो 'सही और न्यायोचित' यानी धर्म यानी राइटियचनेस को कायम रखने के लिए एक कामचलाऊ व्यवस्था है. यदि सभी लोग सभ्य, शिक्षित और धार्मिक (राइटियच) हो जायें तो मानवनिर्मित नियमों की आवश्यकता ही न पड़े. लेकिन ऐसा नहीं है इसलिए प्रत्येक दिन ही कुछ नियम बनाने पड़ते हैं.

(३) काश लोग सभ्य होते! ...पर सच्चाई तो कुछ और ही बयान करती है ...आज आप देखें तो हर तरफ अराजकता फैली है और लोग नियम-कानूनों की धज्जियां उड़ाने लगे हैं ...किसी को कानून का भी डर नहीं हैं क्योंकि कानून बनाने वाले और उसका पालन कराने वाले खुद ही कानून को कुछ नहीं समझते ...आज तो किसी सख्त हाथ की जरूरत है जो लोगों को कानून का पालन करवाने में सक्षम हो!
इसीलिए तो नित नवीन नियम-कानून बनाने पड़ते हैं. ...लेकिन फिर से कहूँगा कि यह एक कारगर किन्तु अस्थाई व्यवस्था है क्योंकि धूर्त लोग बारम्बार इन नियमों-कानूनों से भी बचने के रास्ते तलाश लेते हैं. ..इसलिए तुरंत इलाज के तौर पर नियम-कानून बनाना अच्छी बात है लेकिन समानांतर रूप से लोगों में आध्यात्मिक गुण (यानी श्रेष्ठ नैतिक गुण ही) उपजाना ही इस समस्या का स्थाई हल दे सकता है. ..जो नैतिक होगा वो कुदरत के सिद्धांतों का पालन स्वयमेव करेगा और सही पथ पर अपनेआप चलेगा लेकिन धूर्त को जागतिक नियम-कानून का अंकुश ही जबरन सही मार्ग पर रहने को मजबूर करता है और इसमें भी चूक या धोखा मिल जाता है!

(४) क्या हम बिना कर्म किये प्रभु से आशा लगाए बैठें कि प्रभु की इच्छा होगी तो सब मिलेगा?
बिना कर्म किये तो कुछ नहीं मिलता. हाँ, कभी-कभी बिना किसी वर्तमान प्रसास के किसी को खुद के ही किसी पूर्व कर्म के कारण अनायास कुछ मिलना हो जाता है! लेकिन, श्रीमान् जी... खरे भक्त अपना कर्म सर्वोत्तम ढंग से करते हैं और इसके पश्चात् फल ईश्वर-इच्छा पर छोड़ देते हैं. हालाँकि ऐसा बहुत कम होता है अब!

(५) अपनी विल पावर को कैसे बढ़ायें?
जिनकी विल पॉवर कम होती है, वे अक्सर बहुत से कार्यों को स्वयं के लिए 'असंभव' समझते हैं. ..बस एक कोशिश वे करें कि, खुद के लिए 'असंभव' घोषित कार्यों को 'कठिन' (या बहुत कठिन) की केटेगरी में ले आयें, और यथासंभव 'असंभव' शब्द को वे अपने शब्दकोष से निकाल ही दें! ..बारम्बार अपनेआप को यह कमांड दें कि, "कोई भी काम मुश्किल हो सकता है, ..बहुत मुश्किल हो सकता है, ..पर असंभव नहीं!" ...फिर देखिएगा कि इच्छाशक्ति कैसे नहीं बढ़ती!

Thursday, September 6, 2018

(१०४) चर्चाएं ...भाग - 23

(१) ईश्वर-रूप का प्रत्यक्ष दर्शन कैसे संभव होता है!
(१) अब तक ज्ञात प्राचीनतम ज्ञानस्रोत वेदों में ईश्वर (या परमेश्वर अर्थात् ब्रह्माण्ड की सर्वोच्च सत्ता) को इस ब्रह्माण्ड का सिद्धांत स्वरूप माना गया है. ..सिद्धांत स्वरूप यानी घटित होने वाले सभी क्रियाकलापों / चक्रों के पीछे (नेपथ्य में) विद्यमान कारणभूत आधारभूत शक्ति! यह सैद्धांतिक शक्ति अप्रकट और निराकार होती है. अर्थात् सीधे शब्दों में, परमेश्वर (सर्वोच्च शक्ति या सत्ता) मूलतः अजन्मा, अप्रकट एवं निराकार है. जानने-पहचानने अथवा समझने में सरलता के लिए आगे के साहित्यों में बताए अनुसार बहुत से लोग उस शक्ति को सदाशिव (या शिव) के नाम से जानते हैं. ....(२) प्रथमतः साकार जीवन नहीं था. कदाचित् बाद में जीव व जीवन की उत्पत्ति उसी एकमात्र शक्ति की एक शाखा अथवा भाग से आरंभ हुई; ..उसके उस भाग को समझने, जानने और उसकी अपेक्षाओं का पालन करने में सरलता व सुगमता हो, इस अभिप्राय से आगे के साहित्यों में उसे 'ब्रह्मा' का नाम दिया गया. ....(३) सृष्टि के निर्माण के बाद उसकी योगक्षेम की भी आवश्यकता थी, उस निमित्त उसी आधारभूत शक्ति के एक अन्य भाग द्वारा यह कार्य आरम्भ हुआ; ..समझने की सरलता के लिए बाद के साहित्यों में उसे 'विष्णु' बताया गया. ....(४) क्योंकि अपूर्णताओं के कारण साकार जीवन सदा के लिए संभव न था इस कारण से उसके लय अथवा समाप्ति के लिए उसी आधारभूत शक्ति की एक तीसरी शाखा ने कार्य आरंभ किया, जिसे पहले के साहित्यों में 'रुद्र' के नाम से और बाद के साहित्यों में 'महेश' व बहुत से अन्य नामों के द्वारा भी जाना गया. ....(५) बाद में सृष्टि के अन्य अनेक कार्यों के संपादन हेतु उसी आधारभूत शक्ति या ऊर्जा के अनेक अन्य रूपों ने कार्य आरंभ किया. समझने में आसानी के लिए मनीषियों ने उन्हें अलग-अलग नामों से संबोधित किया. ....(६) अब महत्त्वपूर्ण बात यह है कि न तो वह आधारभूत शक्ति साकार थी और न ही उसकी अन्य शाखाएं साकार रूप में थीं. यह तो काफी बाद के काल में सृष्टि के चक्र को ठीक से चलता रहने देने के लिए एवं उस चक्र के पीछे की शक्तियों के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करने के लिए उनकी 'भक्ति' आरंभ हुई. और उन 'भक्तों' के साकार-भाव अनुसार उस समय के मनीषियों, शिल्पियों, चित्रकारों द्वारा उन शक्तियों के बहुत से मानवीय मूर्त रूप, चित्र आदि सृजित हुए. आज भी हम देख सकते हैं कि सभ्यता, संस्कृति व स्थान आदि के अनुसार उनकी मूर्तियों व चित्रों में भिन्नता पाई जाती है. देशाटन कीजिये तो स्पष्टता से समझ में आएगा कि उत्तर भारत में उनका रूप, रंग, आकार (यहाँ तक कि नाम भी) कुछ है और दक्षिण भारत में कुछ अन्य!! ...किन्तु भक्त के असल भाव में फिर भी समानता है! ..क्योंकि भाव मूलतः निराकार होता है, साकारता उसमें बाद में आती है! ..मन में भाव हो तो उत्तर के भक्त को भगवान् उसी रूप में दर्शन देते हैं जिस रूप को वह पूजता है, ..और दक्षिण के भक्त को उसी रूप में दर्शन देते हैं जिस रूप में वहां का भक्त उन्हें पूजता है! ...इसी प्रकार किसी अन्य समुदाय (जैसे ईसाई, मुसलमान आदि) को उसके इष्ट का वही रूप ध्यान में आता है जिसकी वह आराधना करता है. उन्हें यहोवा, यीशु मसीह, मक्का, मदीना (अर्थात् जिनको वे मानते हैं) आदि के दर्शन होते हैं, अन्य किसी के नहीं. ...अर्थात् बड़ा अर्थ यह कि, ...."इस सृष्टि के पीछे का 'नियंता' मूलतः अजन्मा, अप्रकट, एवं निराकार है. उसकी अन्य कार्यकारी शाखाएं भी निराकार ही हैं. उसके नियमों-सिद्धांतों में बंधे रहने के लिए, फलस्वरूप सुखी रहने के लिए, बाद के काल में मनीषियों ने 'भक्ति' का आरंभ किया और कराया! सुविधापूर्ण भक्ति करने के लिए देश-काल-परिस्थिति-सभ्यता-संस्कृति के अनुसार ईश्वर के विभिन्न नामों-रूपों आदि के साथ भिन्न-भिन्न साहित्यों का निर्माण हुआ, ...और फिर भक्तों ने अपने आराध्य, विश्वास आदि के दर्शन भी तदनुसार ही प्राप्त किये. ईश्वर के प्रत्यक्ष दर्शन एक प्रकार से भाव की साकारता ही है, जो वास्तव में है तो आभासी ही!?"

(२) जीवन में संतुलन होना कितना आवश्यक है?
भौतिकता और आध्यात्मिकता के मध्य संतुलन होना बहुत ही आवश्यक है, क्योंकि हम मानव भौतिकता और आध्यात्मिकता का सम्मिश्रण हैं. मूलतः हमारा वजूद आध्यात्मिक है, लेकिन इस समय भौतिक भूलोक पर और भौतिक मानव देह में होने के कारण हम भौतिकता को भी अनदेखा नहीं कर सकते तथा साथ ही आध्यात्मिकता को तो अनदेखा करने का प्रश्न नहीं उठता!!! हम वर्तमान में हाइब्रिड हैं इसलिए दोनों विशेषताओं में गजब का संतुलन स्थापित करके ही हम 'अभी' सुखी, शांत व आनंदित रह सकते हैं तथा 'भविष्य' की यात्रा का भी सुखद होना सुनिश्चित कर सकते हैं! अभी मोटी-मोटी बात बस यह जान लें कि "कमी और अति हर चीज की बुरी." (उदाहरण के तौर पर- "पानी यानी जल" को ले लें तो कहा जाता है कि जल ही जीवन है, किन्तु सब जानते हैं कि पानी की कमी भी हमारे जीवन के लिए घातक हो सकती है और अति भी! भोजन के साथ भी यही बात लागू होती है और जीवन से जुड़ी अन्य किसी महत्वपूर्ण चीज पर भी!). ठीक-ठीक संतुलन हमेशा लाभप्रद रहता है. ....एक तरफ मन की शुद्धि और अच्छे विचारों को पनपने देने के लिए आध्यात्मिक साहित्य, सत्संग आदि को अपनाएं, तो दूसरी तरफ किसी किसी उत्सव, शादी, पार्टी, अच्छे सिनेमा, खेल-कूद, नृत्य (डांस), मौज-मस्ती यानी खिलंदड़ेपन को भी अपनाएं! ..एक के लिए दूसरे को छोड़ देना कोई संतुलन वाली बात नहीं! सब कुछ करते समय हमारी खराई (अच्छापन) बनी रहे यह सबसे पते की बात है. "हरफनमौला बनकर जीवन जीने से 'सम्पूर्णता' का एहसास होता है." मैं खुद भी ऐसा ही करता हूँ, और ये बातें मैंने अपने निजी अनुभव से कही हैं.

(३) हमें किसी की मदद का फल (परितोष) ईश्वर द्वारा मिलता है?
देखिये, हम किसी की मदद यदि किसी आकांक्षा यानी चाहत से करते हैं (जैसे हमें अच्छा फल मिले या पूर्वजन्म के पाप धुल जायें), तो वह सकाम कर्म (अथवा भक्ति) हुआ. सकाम यानी किसी चाहत या स्वार्थ के साथ किया गया कर्म! चाहत भी एक प्रकार से स्वार्थ ही तो है! फिर भी आप द्वारा की गयी वह मदद ईश्वर द्वारा देखी जाएगी और उसका फल भी शायद उसी रूप में मिल जाये जिस रूप में आप चाहते हैं. ..लेकिन ईश्वर को निष्काम यानी बिना किसी फल की अभिलाषा के साथ किया गया सुकर्म अपेक्षाकृत अधिक पसंद है! ईश्वर आप द्वारा की गयी निष्काम (निःस्वार्थ) मदद को भी देखता है और उसका फल भी देता है. लेकिन निष्काम मदद का फल वह अपनी बुद्धि के अनुसार देता है! ..और निश्चित रूप से उसकी बुद्धि आपकी बुद्धि से तो बेहतर ही होगी!!! ...उदाहरण के लिए-- मानों एक माँ के दो बच्चे हैं, एक नटखट, वाचाल और नखरीला है, किसी भी काम को करने के बाद या बिना कुछ किये भी वह माँ से कुछ न कुछ माँगा करता है, माँ भी वात्सल्य में यथासंभव उसकी फरमाइश के हिसाब से उसे दे दिया करती है; ..वहीं दूसरी तरफ उसका दूसरा बच्चा बड़ा सीधा और सरल स्वभाव का है, जरूरत और निर्देश के अनुसार वह सब काम करता रहता है लेकिन उसके ओठों पर कभी कोई फरमाइश और दिल में कोई स्वार्थ या चाहत नहीं आते! ...क्या माँ उसका ध्यान नहीं रखती?! ...माँ उसका ध्यान कहीं अधिक रखती है क्योंकि माँ को मालुम है कि वह कभी कुछ मांगता नहीं है, इसलिए वह उसकी जरूरतों का ध्यान अपनी बुद्धि से रखती है. माँ की बुद्धि यकीनन उस अबोध बालक से अधिक बेहतर होती है. वह उसकी जरूरत के हिसाब से उसे उचित समय पर उचित साधन या चीजें देती रहती है. हम साधकों के लिए यहाँ माँ अर्थात् ईश्वर; और सरल बालक अर्थात् अच्छे साधक.

(४) स्वार्थी धोखेबाज को ईश्वर द्वारा दंड मिलता है?
ईश्वर अथवा प्रकृति के नियम इतने अच्छे और अकाट्य हैं कि किये गए कर्म की गुणवत्ता के अनुरूप उस कर्म का फल किसी उचित समय पर और उचित रूप में आए बगैर नहीं रहता! वह उचित समय और उचित रूप क्या है, इसे ईश्वर के अतिरिक्त और कोई नहीं जान सकता, हम मानव मात्र अनुमान लगा सकते हैं! किसी से धोखा खाने के बाद यदि हम बड़ी तड़प के साथ चाहें कि उसका दंड उसे मिले, तो जरूर मिलेगा और शायद जल्दी ही मिल जाये, और शायद हमारी चाहत के अनुरूप ही मिल जाये. ...लेकिन यदि हम ईश्वर से उसके दंड की मांग न करें तिस पर भी उसे ईश्वर (या प्रकृति) की अपनी न्याय-व्यवस्था के अंतर्गत किसी उचित समय पर और किसी उचित रूप में दण्डित अवश्य किया जायेगा! समय और दंड के स्वरूप का निर्धारण ईश्वर या प्रकृति द्वारा होगा. आप बिलकुल निश्चिन्त रहें, और ईश्वर के न्याय की राह न देखते रहें! ....बड़ी बात यह कि भक्त के लिए किसी फल की इच्छा रखने पर उसकी भक्ति 'सकाम' हो जाती है और बिना किसी मांग के वह 'निष्काम' कहलाती है! ...अपने से जुड़े किसी बुद्धिमान और समर्थ व्यक्ति से अपनी बुद्धि से बड़ी विह्वलता कुछ मांगने पर वह हमें हमारी इच्छा-अनुरूप दे देता है, और आगे कुछ अनर्थ हो जाने पर 'मांगने' का दोष हम पर ही लगता है; लेकिन दूसरी ओर यदि हम अपने से जुड़े किसी बुद्धिमान और समर्थ व्यक्ति से कुछ भी मांग नहीं करते तब भी वह हमारी समस्याएं देखता है और उचित समय पर उचित मदद अपनेआप करता है (हमारी सोच और कामों से प्रभावित हो कर बड़े अपनेपन से), तब आगे कुछ अनर्थ होने का प्रश्न ही नहीं उठता क्योंकि फैसले लेने में वह बहुत अधिक बुद्धिमान है. ...अर्थात् 'सकाम' कर्म में कर्तापन रहता है और 'निष्काम' कर्म में कर्तापन नहीं रहता. हमारे प्रारब्ध यानी आगे के भाग्य का निर्माण भी हमारे कर्म के कर्तापन से ही होता है! ईश्वर से कुछ मांगें या ना भी मांगें तो भी कर्म का प्रत्युत्तर तो मिलेगा ही, मांगने पर कर्तापन लगेगा और ना मांगने पर कर्तापन ईश्वर का ही होगा!

Wednesday, August 8, 2018

(१०३) चर्चाएं ...भाग - 22

(१) चिंतन करने से शांति मिलती है?
केवल सोचने (चिंतन) से नहीं, ..सोच कर कुछ करने से कुछ होता है; ..और यदि हम कुछ सकारात्मक और सार्थक करने में सफल रहे तो अवश्य ही उस कर्म के बाद कुछ समय के लिए शांति मिलती है! ..'कुछ समय' इसलिए कहा क्योंकि कुछ-कुछ समय के अन्तराल पर हमें अन्य कर्म करने के अवसर मिलते रहते हैं. यदि वे भी सार्थक रखने में हम सफल रहते हैं तो आन्तरिक खुशी (आनंद) व शांति आदि बरकरार रहते हैं! निरर्थक चिंतन अशांति पैदा करता है; आनंद और शांति पाने के लिए सार्थक चिंतन का महत्त्व भी केवल ५ प्रतिशत है; सार्थक चिंतन पश्चात् सार्थक कर्म करने से शेष ९५ प्रतिशत सधता है. ...बड़ा अर्थ यह यह कि किसी भी तरह से केवल भगवत् (या आत्म) चिंतन करने से भी बात कुछ खास नहीं बनती अपितु उनके गुणों (या आत्मा के नैसर्गिक गुणों) को आत्मसात करने और रोजाना के जीवन के प्रत्येक प्रसंग में उन्हें घोलने से ही सच्चा आनंद और शांति मिलते हैं. इन गुणों (सरलता से कहें तो सर्वमान्य नैतिक गुणों) की अथाह चर्चा पहले भी हम अनेक बार कर ही चुके हैं.

(२) हम प्रसन्न कैसे रह सकते हैं? मन में संतुष्टि नहीं है, कोई दूसरा आपको प्रसन्नता दे सकता है यह भ्रम है!
अच्छा सोच कर और अच्छा करके; और यह कर लेने के पश्चात् फल को नियति पर छोड़ कर हम लगभग चिंतामुक्त यानी प्रसन्न रह सकते हैं. वैसे सुनने-पढ़ने में यह बात जितनी सरल सी लगती है उतनी है नहीं!! ..लेकिन फिर भी असाध्य या असंभव भी नहीं है. ..यही तो साधना है! आपकी अच्छी क्रियाओं का फल किसी उचित समय पर किसी उचित माध्यम से (अर्थात् किसी के भी माध्यम द्वारा) किसी उचित रूप में कभी भी प्रकट हो सकता है (बिना आपको यह बताए-जताए भी कि यह आपके अमुक कर्म का फल है!). ..अर्थ यह कि आपके किसी सार्थक कर्म की बदौलत आपको किसी दूसरे के माध्यम से भी अनायास ही किसी भी प्रकार की खुशी मिल सकती है, ..यह कोई भ्रम तो नहीं!!! विज्ञान के क्रिया-प्रतिक्रिया सम्बन्धी नियम और ऊर्जा के अक्षुण्ण रहने (फॉर्म बदल सकती है लेकिन रहेगी बरकरार) सम्बन्धी नियम, इन दो नियमों को यदि मिलाकर यदि अपने ऊपर भी लागू करके कल्पना करें तो अध्यात्म की भी अनेकों गुत्थियां सुलझने लगती हैं, जिन्हें आज के तथाकथित धर्मगुरुओं ने बेवजह विज्ञान से दूरी बनाकर उलझा रखा है.

(३) विचारों को स्वतंत्र कैसे करें?
यदि मैं आपके प्रश्न को ठीक से समझ पा रहा हूँ तो अवश्य ही आपका प्रश्न बहुत अर्थपूर्ण, व्यापक और महत्वपूर्ण है! केवल भोले-भाले अन्धश्रद्ध भक्त ही नहीं अपितु हम बुद्धिजीवियों की सोच के ऊपर भी अक्सर किसी न किसी अन्य की सोच का ठप्पा लगा होता है. अर्थात् वह स्वतंत्र सोच नहीं होती बल्कि किसी न किसी तरह से किसी से प्रभावित होती है! अब अन्य व्यक्ति या समुदाय जिससे हमारी सोच प्रभावित है, वह सही भी हो सकता है और गलत भी! यह भी हो सकता है कि वह कभी सही रहा हो लेकिन आज वह सोच प्रासंगिक न हो!? लेकिन यदि हम उसकी सोच को अपनी सोच पर हावी कर लेते हैं तो हमारी सोच स्वतंत्र कहां रही!? भला कैसे हम वर्तमान परिस्थितियों में स्वतंत्र रूप से कुछ नवीन साथ ही प्रासंगिक विचारमंथन कर सकते हैं!? कैसे उसी दृश्य (जीवन) की नए कोण से तस्वीर खींच सकते हैं!? बिना स्वतंत्र सोच भला कैसे आगे की भौतिक और आध्यात्मिक उन्नति कर सकते हैं!? सोच को स्वतंत्र करने का यह अर्थ कदापि नहीं कि हम उसे निरंकुश या विकृत कर दें! स्वतंत्र सोच इसलिए चाहिए कि पूर्व-बंधनों से मुक्त हो कर हम परिष्कार की क्रियाओं को व्यापक रूप से सक्रिय कर सकें. आज जो भी राष्ट्र भौतिक प्रगति साथ ही अपनी न्यायव्यवस्था को भी सुदृढ़ करने में सफल रहा है या हो रहा है वह अपनी सोच को स्वतंत्र और प्रगतिशील करके ही! बेड़ियों को काटकर ही आगे बढ़ा जा सकता है यह विचार जब प्रबलता से हमारे दिलोदिमाग पर छाएगा तभी हम छटपटाकर पूरा जोर लगाकर अपनेआप को, अपने विचारों को मुक्त कर पायेंगे! अपनी कोई भी दौड़ हम दूसरे के पैरों से पूरी नहीं कर सकते! ...एक अन्य पहलू यह कि, बलशाली व स्वतंत्र नित नयी राहें खोजते हैं, नए रास्ते बनाते हैं; और कमजोर व परतंत्र सालों-साल उन्हीं रास्तों पर बहुत पीछे चलते हुए मात्र अनुयायी या अनुगामी बने रह जाते हैं! आज हम और हमारा देश किस पड़ाव पर हैं, कैसे हैं, क्यों हैं, ..अब यह बताने की आवश्यकता नहीं. ..कोई शॉर्टकट नहीं काम आएगा और न ही भगवान् जी हमारी मदद करने आयेंगे, अब केवल स्वतंत्र और अभिनव (इनोवेटिव) सोच के साथ ही हमारा उद्धार होगा.

(४) भूत-प्रेत इंसान को क्यों परेशान करते हैं?
आपकी चर्चा का जवाब मैं एक काल्पनिक दृष्टान्त से आरंभ करता हूँ-- "एक ऐसा छोटा सा पिछड़ा हुआ शहर था जिसमें लगभग जंगलराज था. चोर, उचक्कों, लुटेरों का सरेआम आतंक रहता था. वहां के लोग इसके आदी हो चुके थे और इस अनाचार को अपनी नियति मानकर बेहाल जीवन गुजार रहे थे. लेकिन वहां अभी नया बसा एक व्यक्ति इन सब से बहुत त्रस्त था और कम से कम अपने जीवन और धन को तो सर्वप्रथम सुरक्षित करना चाहता था. उसने वहां के सबसे बड़े पुलिस अधिकारी से दोस्ती गांठ ली. हालांकि अन्य पुलिस फोर्स वहां बहुत कम थी और असहाय सी थी किन्तु वह अफसर बहुत तेजतर्रार, निडर और ईमानदार था. दोस्त बन जाने के बाद उस व्यक्ति का अधिकांश समय उस ऑफिसर के साथ ही बीतता था. उनके परस्पर आत्मीय संबंधों को वहां के दुर्जनों-उचक्कों ने भी देखा, और उस व्यक्ति को परेशान या लूटने का विचार त्याग दिया. वे अब उसके सामने भी नहीं आते थे! वह व्यक्ति अब उस नरक समान शहर में भी सुरक्षित और भयमुक्त था!" ......इसी प्रकार, इस संसार में परमेश्वर से बढ़कर तेजवान, साहसी, निडर, न्यायप्रिय और ईमानदार शख्सियत भला और क्या होगी!! जो भी उससे दोस्ती गांठ लेता है वह भूत-प्रेत सरीखे चोर-उचक्कों से सुरक्षित हो जाता है. ....भूत-प्रेत-पिशाच आदि का अस्तित्व ही उनके लिए समाप्त हो जाता है! यदि भूत-प्रेत का अस्तित्व है तो केवल उन लोगों के लिए जिनकी परमेश्वर से पूरी तरह से मित्रता व नजदीकी नहीं!! जिस प्रकार उस शहर में भूत-प्रेत सरीखे चोर उचक्के थे लेकिन सिर्फ कमजोर लोगों के लिए; ..केवल उन्हीं पर उनका वश चलता था; ...उसी प्रकार सही में यदि वातावरण में भूत-प्रेत आदि हैं भी तो सिर्फ कमजोर (ईश्वर की छत्रछाया से परे) लोगों के लिए! ...जो ईश्वर से जितनी अधिक नजदीकी लायेगा भूत-प्रेत उससे उतनी ही अधिक दूरी बना लेंगे. रौशनी (प्रकाश-स्रोत) के आगे अँधेरा कभी टिक पाया है क्या?? ईश्वर रूपी प्रकाश-स्रोत को हमेशा अपने अंतर्मन में जगाये रखिये, ये भूत-प्रेत आपके आसपास भी नहीं फटकेंगे. ...बड़ा अर्थ यह कि हम जितना अधिक ईश्वरीय (यानी श्रेष्ठ व उत्कृष्ट) गुणों के समीप जाते जायेंगे उतना ही निर्भय होते जायेंगे.

Monday, August 6, 2018

(१०२) चर्चाएं ...भाग - 21

(१) क्या मौज, शौक और घूमना-फिरना, धन खर्च करना ही सुख है? सुख क्या है?
भौतिक जीवन के सुचारू सञ्चालन के लिए आवश्यक भौतिक सुख-सुविधाएं जुटाना, मौज-मस्ती, घूमना-फिरना, शौक पालना और उन्हें पूरा करना आदि कोई भी बात यदि व्यक्ति के भीतर विद्यमान आध्यात्मिकता को क्षति न पहुंचाए तो सब करना ठीक है, उत्तम है, सुख को आमंत्रण है! ...आध्यात्मिकता को क्षति न पहुँचाने से तात्पर्य है कि समानांतर रूप से हम अपने अच्छेपन (सामान्य नैतिक गुण), मन की शांति आदि को हमेशा बरकरार रख पाएं. ....यही संतुलन ही हमें सम्पूर्ण व 'स्थाई' सुख दे सकता है, ..हमारी स्वयं की और हमारे राष्ट्र की 'ठोस' भौतिक उन्नति करा सकता है! यह कोई कठिन काम तो नहीं?! इस आदर्श सुखावस्था में हमारी आध्यात्मिक प्रगति भी स्वतः ही निहित व निश्चित है, फिर उसके लिए अलग से कोई अनुष्ठान-साधना आदि करने की जरूरत नहीं! ...वस्तुतः "योगः कर्मसु कौशलम्" यही है. कुशलता एवं संतुलन के साथ किया गया 'प्रत्येक' कार्य हमारी सर्वांगीण प्रगति सुनिश्चित करता है, हमें सुखी, शांत और महान बनाकर स्वतः ही हमें ईश्वर से जोड़ता है!
वैसे तो सुख-दुःख की परिभाषा व्यक्तिगत है. व्यक्ति में इस क्षण उपस्थित ज्ञान-विवेक से ही उसकी परिभाषाएं बनती हैं. ज्ञान-विवेक आदि का कम होना कोई दुर्बलता नहीं, लेकिन एक लम्बे समय तक ठहराव यानी ज्ञान-यात्रा का रुके रहना यानी संतुलन का अभाव बने रहना, यह अवश्य ही दुर्बलता है!

(२) चुप्पी को कमजोरी क्यों माना जाता है?
मैं यह तो नहीं कहता कि व्यक्ति को सदैव वाचाल ही रहना चाहिए और किसी भी विषय या बेवकूफियों पर भी जवाब अवश्य देना चाहिए; परन्तु अनुभवों से यही जाना है कि 'बहुधा' चुप्पी, व्यक्ति की किसी न किसी अपनी कमजोरी के कारण ही जन्म लेती है! ..हीनभावना, दब्बूपन, निठल्लापन, अव्यवस्थित होना, अनियमितता, अनमयस्कता, अनमना स्वभाव (किसी कार्य, विषय या व्यक्ति के प्रति गंभीरता का अभाव), असुरक्षा की भावना, डर, अपराधबोध, पोलपट्टी खुल जाने का भय, आलस्य, ईर्ष्या, नफरत, अहंकार, सामने वाले को कुछ भी न समझना, और इन जैसे अनेकों स्वभावदोष हमारी चुप्पी का कारण हो सकते हैं.

(३) अहंकार को कैसे मिटाएं अपने अंदर से?
अक्सर अहंकारी व्यक्ति को यह मालुम ही नहीं होता कि उसके भीतर अहंकार है! लेकिन जब कोई ऐसा प्रश्न करे कि, "अहंकार को कैसे मिटाऊं", तो इसका अर्थ है कि व्यक्ति को अपने स्वभावदोष पता चलने शुरू हो गए हैं और वह उन्हें कम (या समाप्त) करना चाहता है. यानी उसमें अब परिष्कार की प्रक्रिया शुरू होने को है. स्वभावदोष का पता चलना (उसका एहसास होना) उसके निर्मूलन की पहली शर्त है, वह पूरी हुई तो क्रिया अपनेआप आगे चलेगी!

(४) भगवान के पास भूत (अतीत) जमा हो जाता है, भविष्य भगवान के पास है?!
हम कर्मयोद्धा बने रहें, इस निमित्त आपके शब्दों में मामूली फेरबदल-- जो हम 'अतीत' में कर चुके, वो हो चुका, और सृष्टि के खाते में दर्ज हो चुका (वो हमारे हाथ में 'था' कभी)! जो हम 'अब' कर रहे हैं या 'भविष्य' में करेंगे, वह भी हमारे हाथ में है; ..बल्कि 'अब केवल वह ही' हमारे हाथ में 'है'! ..और उसके (हमारे कर्म के) फलस्वरूप आगे सृष्टि के नियमानुसार जो भी घटित होगा, उसके उत्तरदाई या कारण 'हम ही' होंगे! वैज्ञानिकों द्वारा खोजे गए आज तक के ज्ञात सभी नियम-सिद्धांत सृष्टि अथवा प्रकृति के ही हैं (जैसे न्यूटन द्वारा प्रतिपादित नियम)! वैज्ञानिकों ने ये नियम-सिद्धांत बनाये नहीं हैं, अपितु खोजे हैं! ये नियम-सिद्धांत सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड नहीं तो कम से कम इस पृथ्वी की तो प्रत्येक जीव-निर्जीव वस्तु पर लागू होते हैं! ..तो हम खुद को इस नियम-सिद्धांतों की परिधि से बाहर कैसे रख सकते हैं?! हम कोई 'एलियन' तो नहीं!

(५) भगवान हमारी हर गलतियों को माफ कर भी दें लेकिन हमसे जो कर्म हो चुका है, उसका क्या?? उसे कौन बदल सकता है? उसका फल तो अवश्य मिलता है!
हम अतीत में जो भी कर चुके, वो हमारे वश में था, लेकिन वो हो चुका! अभी हमारे हाथ में वर्तमान और भविष्य में किये जाने वाले कर्म शेष हैं, और उन पर हमारा सरासर वश है! शायद उनसे हम पुरानी क्षति-पूर्ति कर सकते हैं! ..किसी को गाली दे चुके तो अभी दिखावटी नहीं वरन 'हृदय से' माफी मांग सकते हैं, गले लगा सकते हैं; ..अतीत में पेड़ काट डाले तो अभी जागरूक होकर दोगुना वृक्षारोपण कर सकते हैं! ...अब जागृत हो कर ऐसे अनेकों प्रायश्चित्त और आत्म-परिष्कार हमारे वश में हैं. इससे हमारी गलतियाँ भुला तो नहीं दी जायेंगी, परन्तु उनका दुष्प्रभाव तो कम हो ही जायेगा. जैसे अपनी गलतियों से खोया सम्मान या आत्मसम्मान हमें सजा और अवसाद के गड्ढे में तो डालता है, पर फिर उनसे तौबा कर जब नेक काम हम शुरू करते हैं तो धीरे-धीरे हम कभी न कभी उबर भी सकते हैं. किस्से-कहानियों में ही नहीं, बल्कि हमें अपने आसपास भी ऐसे उदाहरण देखने को मिल सकते हैं, यदि हम सूक्ष्मता से निरीक्षण-आंकलन कर पाएं तो!

Monday, July 30, 2018

(१०१) चर्चाएं ...भाग - 20

(१) गौ हत्या के नाम पर आज इंसानों को मारना कहाँ तक तर्क संगत है...?? धर्म की राजनीति इंसान को कहाँ तक गिरा सकती है...आज देश में हो रही घटनाओं का दृश्य अति चिंताजनक है....इसके लिए कौन जिम्मेदार है?
यहाँ राजा और मंत्री अपनी प्रजा को भलीभांति सुशिक्षित और सभ्य बनाने के बजाय सामंतशाही कानूनों और भाषणों से उसे उन्मादी और असभ्य बना रहे हैं; और इन सब के पीछे सत्ता का लालच है. गाय कितनी भी पूजनीय क्यों न हो पर क्या वह एक इन्सान से अधिक महत्वपूर्ण हो सकती है??? गाय तो गाय, खुले में घूम रहे उनके वंश के उपद्रवी सांडों, और यहाँ तक कि आवारा कुत्तों (स्ट्रीट डॉग्स) को भी इंसानी जीवन से ऊपर का दर्जा दिया जा रहा है. उनकी जनसंख्या दिनोंदिन बढती जा रही है, रोज वे अनेक लोगों को दौड़ाते हैं, घायल करते हैं, काटते हैं, प्राणघातक हमला करते हैं. लखनऊ सहित सम्पूर्ण उत्तर प्रदेश में आवारा पशुओं का भीषण आतंक है. यहाँ तो रेलवे स्टेशन के भीड़भाड़ वाले प्लेटफ़ॉर्मों पर भी इनको आतंक फैलाते कभी भी देखा जा सकता है. लेकिन 'पशु संरक्षण' के नाम पर 'इंसानी संरक्षण' की उपेक्षा समझ से बिलकुल परे है!!! ...विचित्र नगरी और विचित्र राजा हैं यहाँ!!! लगता है सत्तालोलुप राजा और कुंद-दिमाग जनता भांग पीकर बस उन्माद में ही मस्त हैं! असली विकास कहीं बहुत पीछे छूट गया है. मेरे विचार से आज जो भी विकास दिखाई पड़ रहा है उसे हम आभासी विकास या विकास की सूजन मात्र कह सकते हैं.

(२) जीवन को आनंदमय कैसे बनाया जाये? क्या मन हमेशा पवित्र रखने से ही यह संभव है?
'आनंद', प्रसन्नता के चरम की एक दिव्य अनुभूति है. और सही कहा आपने कि मन को हमेशा पवित्र बनाये रखने से ही यह संभव है. मन पवित्र रहेगा तो विचार भी पवित्र होंगे; विचार पवित्र होंगे तो कर्म भी उसी के अनुरूप श्रेष्ठ गुणवत्ता के ही होंगे. ..और नेक व न्यायसंगत कर्म करने के पश्चात् ही खरे 'आनंद' की अनुभूति होती है. ...लेकिन हमारे संघ में व्याप्त वर्तमान प्रदूषित वैचारिक वातावरण के चलते आज के समाज में खरी आनंदानुभूति के दर्शन दुर्लभ ही हैं! ..आपके मूल प्रश्न, "जीवन को आनंदमय कैसे बनाया जाये?" का व्यावहारिक या प्रैक्टिकल जवाब यह होगा कि, "आज के राजा और मंत्रियों (सलाहकारों) यानी देश के वैचारिक और कर्म-सम्बन्धी नीति-नियंताओं को सर्वप्रथम अपने मन में पवित्रता का भाव लाना होगा. पहले वे नेक, न्यायसंगत बन जायें और नैतिक मूल्यों व पर्यावरण का ध्यान रखते हुए इंसानी हितों की रक्षा का बीड़ा उठाएं, स्वयं सुशिक्षित व सभ्य हों तथा प्रजा को भी इसके लिए प्रेरित करें; ..तो उनका और शेष प्रजा का जीवन अवश्य ही आनंदमय होगा. साथ ही धर्म से जुड़े महानुभाव भी यदि लोकेषणा, जागतिक मोह, रूढ़ियों आदि को त्यागकर अध्यात्म के क्षेत्र में स्वयं भी प्रगति करें और अपने अनुयायियों के विचारों को भी प्रगतिशील बनाएं तो प्रजा का जीवन और भी अधिक आनंदमय होगा.

(३) सात्विक विचार क्या सात्विक भोजन से ही आते हैं?
हमारे समाज में व्याप्त धारणाओं और मान्यताओं के अनुसार बोलूं तो सात्विक भोजन से तात्पर्य केवल शाकाहारी भोजन से ही होता है, तथा मांस-मछली, अंडा, प्याज, लहसुन, तम्बाकू (धूम्र), मदिरा आदि तामसिक (वर्ज्य) खाद्य माने गए हैं. ..और रूढ़िवादी प्रचलित धारणाओं के अनुसार इन वर्ज्य खाद्यों से परहेज रखने वाला ही सात्विक है और उसी के विचार सात्विक होते हैं!! ...कुछ ज्यादा नहीं हो गया यह!!! इस विषय पर इस मंच पर मैं पहले भी अनेक चर्चाओं में इस विषय पर अपना मत रख चुका हूँ, जोकि इन प्रचलित धारणाओं से काफी अलग हैं! ..लेकिन मेरे विचार से भोजन का महत्त्व मूलतः शरीर के पोषण हेतु ही है, तथा देश-काल-परिस्थिति-संस्कृति अनुसार भोज्य पदार्थों में भिन्नताएं होती हैं, आ सकती हैं; यह एक साधारण स्वाभाविक सी बात है. ..बड़ी बात यह है कि जो भी भोज्य पदार्थ हम ले रहे हैं, यदि वह हम पूरे विश्वास से ले रहे हैं, मन में कोई चोर नहीं है, भोजन चोरी या लूट का नहीं है, वह हमने गलत या भ्रष्टाचारी कमाई से नहीं खरीदा, उससे हम किसी अन्य व्यक्ति को किसी प्रकार का नुकसान नहीं पहुंचा रहे हैं; ...तो उसका सेवन हमारे लिए उपयुक्त और सात्विक है, वह नकारात्मक या तामसिक विचार कतई उत्पन्न नहीं कर सकता! ...यदि हम रूढ़िवादी प्रचलित धारणा के अनुसार ही चलते हैं तो हमें भारत के कुछ भूभाग या जनसंख्या को छोडकर लगभग शेष विश्व को अधर्मी घोषित करना पड़ेगा, और यदि हम ऐसा करते हैं तो हमसे अधिक पिछड़ा व अहंकारी और कोई न होगा! शेष विचार विस्तार से '(१९) खान-पान और धर्म', इस लेख में पढ़ें.

(४) एक व्यक्ति जन्म से पैसा वाला और सुखी होता है, और एक जन्म से दुखी गरीब और अनाथ होता है, क्यों?
अपने भाग्य (प्रारब्ध/अकाउंट बैलेंस) के कारण!!! ..और प्रारब्ध का निर्माण हमारे अपने कर्मों से ही होता है. जैसे बैंक में अकाउंट खोलने पर, लॉकर आदि लेने पर हम हमारी अर्जित धन-संपत्ति उसमें जमा करते हैं. हमारा कहीं बाहर ट्रांसफर हो जाने पर वह सब अकाउंट, धन आदि भी वहां ट्रांसफर हो जाता है. वक्त के साथ बैंक की बिल्डिंग, कर्मचारी आदि बदलते रहते हैं, गुणाभाग के तरीके बदलते रहते हैं पर हमारा जमा धन-संपत्ति हमारा ही कहलाता है और वह बरकरार रहता है! वह सब हमें ही मिलता है. वह हमें फायदा या नुकसान दोनों पहुंचा सकता है! नेकी का हुआ तो बल्ले-बल्ले, अन्यथा चोरी या भ्रष्टाचार का पाए जाने पर वह हमें सजा भी दिला सकता है! ...अब पते की बात यह कि, बैंक तो मानव निर्मित, मानव संचालित है फिर भी हिसाब-किताब, नफे-नुकसान में कोई गड़बड़ी नहीं! ..फिर कर्म का खाता तो ईश्वर अथवा सृष्टि या प्रकृति देखती है; क्या उनसे गड़बड़ी की गुंजाइश की कल्पना कोई कर सकता है?!
ऐसी प्रत्येक घटना जिसमें हमारा अभी का कोई कर्म सम्मिलित नहीं, निश्चित ही वह घटना हमारे किसी पूर्व कर्म के फलस्वरूप पैदा हुई है.

(५) मनुष्य जन्म के बाद के जन्म का निर्णय वह स्वयं करता है?! मनुष्य यहाँ से मुक्त भी हो सकता है, भक्त भी हो सकता है और चैरासी लाख योनियों में भी जा सकता है!
जी नहीं! मनुष्य के जीवन में उसके द्वारा संपादित कर्मों और मृत्यु के समय उसके अंतिम (शेष बचे) संस्कारों व सोच आदि के आधार पर, प्रकृति के नियमानुसार उसके सूक्ष्म देह की आगामी गति (नियति) स्वतः ही तय होती है. ये नियम ना तो कोई जान पाया है और ना ही किसी विधि-अनुष्ठान से कोई कभी जान पाएगा!!! प्रकृति के अनेक नियम अभी भी मानवीय बुद्धि से कोसों दूर हैं! विज्ञान व अध्यात्म, दोनों के नियमों-सिद्धांतों द्वारा पहुंचे हुए मनीषियों को भी बस इतना ही ज्ञान हो पाया है कि प्रकृति-सम्मत क्रियाएं (कर्म-संस्कार-सोच) कुछ अच्छा रंग लायेंगे, और शेष बुरा! कर्म के फलस्वरूप अगले जन्मों में अच्छा या बुरा कब और किसी रूप-अवस्था में आएगा, इसकी अटकलें मात्र ही लगाते हैं लोग! इस जन्म पश्चात् किसी अमुक के मुक्त होने की बात भी दृढ़ता से कहना मेरी समझ से दुस्साहस ही है! शब्दजाल के अधिक पचड़े में ना पड़ते हुए बेहतर तो यही होगा कि जितना हम जान पाए हैं, मात्र उसी के अनुसार खुद को सचेत रखकर उत्कृष्ट सोच बनाने और न्यायसंगत (प्रकृति-सम्मत) कर्म करने पर ही अपना ध्यान केन्द्रित किया जाये, ...फल अपनेआप उसी अनुसार उचित समय पर, उचित अवस्था में प्रकट हो जायेगा! घूमफिर कर 'गीता' का सन्देश भी तो यही कहता है!

(६) स्वभाव में सहजता कैसे आती है?
बहुधा भीतर की आवाज सुनकर ही कोई फैसला लेना (या कर्म करना), ज्यादा ऊहापोह में न पड़कर प्रकृति-सम्मत जीवनशैली अपनाना, प्रकृति या कुदरत के नियम-सिद्धांतों को समझना व उनका अनुपालन करना, दूसरों की भावनाओं का भी आदर करना, आदि जैसे कुछ गुण-आदतें यदि हम डाल लें तो स्वभाव में सहजता खुदबखुद ही आ जाएगी! यह सब होना इस बात का भी परिचायक है कि आप अध्यात्म से अपनेआप ही जुड़ चुके हैं. अध्यात्म कोई किताबी या प्रवचनी ज्ञान थोड़े ही है!

(७) धन्यवाद का भाव बहुत ही कम देखने को मिलता है!?
अहं (अहंकार) का तत्त्व बहुत अधिक होने के कारण इस काल में आदर, धन्यवाद, कृतज्ञता आदि का भाव बहुत कम हो गया है. अधिकांश लोग प्रकृति, प्रकृति के नियमों-सिद्धांतों, प्राकृतिक जीवनशैली आदि से बहुत दूरी बना चुके हैं, तो नैसर्गिक व श्रेष्ठ नैतिक गुणों से भी हीन होते जा रहे हैं. अध्यात्म से दूर होना इसी को कहते हैं!! केवल सत्संगों, प्रवचनों, आश्रमों-मठों आदि में जाना व वहां प्रवास करना तो अध्यात्म से जुड़ना नहीं है!

(८) अनुशासन कभी सिखाया नहीं जाता बल्कि अंदर से खुद होता है...आत्म अनुशासन से चरित्र सुदृढ़ बनता है...?? आज अनुशासनहीनता के बढ़ने का यही प्रमुख कारण है की बाहरी अनुशासन थोप कर हम सब को केवल गुलाम बना रहे हैं!
यह बात बिलकुल ठीक है कि अनुशासन भीतर से स्वमेव होता है! भले और बुरे के ज्ञान से उपजा कुदरती अनुशासन हम सबके भीतर विद्यमान है. यानी ज्ञान-ज्योति (ओरिजिनल सॉफ्टवेयर) सबके भीतर प्री-इनस्टॉल्ड है. लेकिन यह मत भूलिए कि प्रत्येक जन्मोपरांत निर्मित जागतिक संस्कार व उनसे उपजे विचार-केंद्र भी हमारे मन-मस्तिष्क पर कब्ज़ा किये हुए हैं! ये सांसारिक संस्कार हमारे ओरिजिनल सॉफ्टवेयर का हिस्सा कदापि नहीं हैं, ये तो आगंतुक व जबरन घुस आए तत्त्व हैं. इनके कारण हम मनुष्य अनुशासनहीन हो जाते हैं. और इस अनुशासनहीनता को रोकने के लिए ही विभिन्न सरकारें व न्यायपालिकाएं (ऊपर का बुद्धिमान वर्ग) कुछ नियम-कानून बनाकर उन्हें हम पर लागू करते हैं (आपके शब्दों में- 'थोपते हैं'). मैं भी मानता हूँ कि मनुष्य को नियंत्रित करने के लिए यह एक वैकल्पित व्यवस्था है. ...असली व्यवस्था तो भगवान् ने हमारे भीतर लिखी ही हुई है! पुनः, ...वह असली व्यवस्था, हमारे ऊलजलूल संस्कारों (अविद्या) के तले दबी हुई है, इसलिए वाह्य व्यवस्था की आवश्यकता पड़ती है. ...दरअसल 'अध्यात्म' विषय (यानी प्राकृतिक नियम-सिद्धांत) और 'आध्यात्मिक साधना' (प्राकृतिक नियम-सिद्धांतों का दैनंदिन जीवन में अनुपालन यानी रोजमर्रा के जीवन में लागू करना), ये हमारी जड़ीले संस्कारों का नाश करते हैं और प्राकृतिक व्यवस्था खुदबखुद प्रकट हो जाती है. हमारे समाज में बहुतायत की प्राकृतिक व्यवस्था दबी और निष्क्रिय होने के कारण बाहरी अनुशासन व्यवस्था लागू करना या थोपना कोई गलत बात नहीं! वह अनाचार को किसी सीमा तक तो रोक ही सकती है! ..परन्तु निश्चित रूप से स्थाई समाधान यही है कि अंदरूनी अनुशासन व्यवस्था को मुक्त कर ऊपर लाया जाये. यह केवल सिद्धांत आधारित विशुद्ध आध्यात्मिक साधना से ही सध सकता है, यह कोई अतिशयोक्तिपूर्ण वाक्य नहीं!

Monday, July 23, 2018

(१००) चर्चाएं ...भाग - 19

(१) समस्या का निदान सिर्फ साधना से ही होता है?
जी हाँ....! 'साधना' का अर्थ आखिर है क्या??? 'साधना' शब्द हमें बहुत सुनने में आता है, जैसे-- संगीत साधना, नृत्य साधना, कला साधना, योग साधना, आध्यात्मिक साधना, आदि आदि. ..तो 'साधना' शब्द से तात्पर्य निकला-- "अभ्यास", "प्रयास", "एकाग्र हो कर की गयी कोशिश"!!! ..किसी भी अभीष्ट को पाने के लिए तल्लीनता के साथ किया गया पुरुषार्थ 'साधना' ही तो हुआ! ..वह 'अभीष्ट' किसी समस्या का निदान भी तो हो सकता है. ..अर्थात् तल्लीनता एवं एकाग्रता से किये गए प्रासंगिक प्रयासों से हम किसी भी समस्या का निदान, हल आदि बखूबी कर सकते हैं. 'साधना' का अर्थ केवल नामजप, पूजा-पाठ, कर्मकांड आदि कदापि नहीं है. 'साधना' (प्रयास) जब धर्म या अध्यात्म के क्षेत्र में किया जाता है केवल तब उस क्रिया को हम धार्मिक या आध्यात्मिक साधना कह सकते हैं.

(२) धन्यवाद का भाव कितना जरूरी है?
धन्यवाद, कृतज्ञता आदि का भाव होना बहुत ही जरूरी है. यह व्यक्ति के अहंकार को बढ़ने नहीं देता (कम भी करता है) और उसकी नम्रता को दर्शाता है. अच्छेपन, जिज्ञासा और ज्ञानप्राप्ति की भूख को बनाये रखने के लिए भी प्रत्येक सार्थक प्रसंग के दौरान एवं पश्चात् मन में कृतज्ञता का भाव होना बहुत जरूरी है. इस मंच पर कुछ सार्थक प्रश्नों को उठाने और उनपर चर्चा करने के लिए मैं आपका अत्यंत आभारी हूँ.

(३) आज लोग आपसी संबंधों को लेकर संजीदा क्यों नहीं हैं?? आज स्वार्थवश हर व्यक्ति केवल अपने बारे में ही सोचता रहता है.
आपका विचार सर्वथा सही है. मनुष्य दिन-प्रतिदिन और अधिक स्वार्थी होता चला जा रहा है. इस क्रम में अब वह केवल मतलब (स्वार्थ) से सम्बन्ध जोड़ता और कायम रखता है. वह यह नहीं समझ रहा कि इस क्रम में वह आत्मीय संबंधों की दृष्टि से एकाकी (अकेला) होता चला जा रहा है! ...बुनियादी तौर पर मनुष्य एक सामजिक प्राणी है, उसे समाज से सरोकार होता है; समाज और व्यक्ति में एका ना हो तो व्यक्ति का अस्तित्व खतरे में पड़ता है! ..नागरिक-शास्त्र के इसी नियम के अनुसार, हमारे इर्दगिर्द के समाज के व्यक्तियों के स्वार्थ बढ़ने और एकाकी होते जाने के कारण समाज की जीवनशैली दिनोंदिन विकृत, अव्यवस्थित और भंगुर होती जा रही है. क्षति व टूटन साफ तौर पर जाहिर हो रही है. यह सब परस्पर निःस्वार्थ आत्मीय संबंधों के मरने से हो रहा है! क्या इस मंच के प्रबुद्ध लोग आपस में आत्मीय मेलजोल बढ़ाकर एक नया अध्याय आरंभ नहीं कर सकते? ...यदि हमारे पास इसको शुरू न कर पाने के अनेकों कारण (बहाने) हैं तो सोचिए सामान्य समाज की दशा कितनी शोचनीय होगी! इस सरीखे संवेदनशील मुद्दों पर सिर्फ बहस या चर्चा करके कुछ हासिल नहीं हो सकता. वास्तव में कुछ करने की भी आवश्यकता होती है. मत भूलें कि शुरुआत एक से ही होती है, फिर कड़ियाँ जुडती चली जाती हैं. लेकिन हम और हमारे समाज के व्यक्ति किसी भी सार्थक क्षेत्र में पहल करने के साहस से पीछे हटते हैं!

(४) मनुष्य आंतरिक कलह के कारण सदा दुःख भोगता रहता है ...क्या यह सत्य है? आज के मानव के दुःख का कारण है उसका चंचल मन जो उसे शान्ति से जीने नहीं दे रहा ...मन में निरंतर द्वंद्व से वह सदा परेशान ही रहता है!
अच्छी बात कही आपने. मैं भी इससे सहमत हूँ. ..एक बात और.., कि विभिन्न स्वार्थों, आकांक्षाओं के कारण लोगों के मन में जो चंचलता बढ़ गयी है, वह उनकी अशांति का कारण तो है ही; साथ में बाई-प्रोडक्ट के रूप में इस चंचलता (मन के भटकाव) के चलते विभिन्न कार्यक्षेत्रों में उनसे बहुत से चूकें (गलतियाँ) भी होती हैं, जिसका खामियाजा बहुत से कुछ अन्य लोगों को भी उठाना पड़ता है, उनके मन में भी अशांति उत्पन्न होती है, विभिन्न परेशानियों व दुःख का सामना करना पड़ता है!!! यानी संक्षेप में कि मन की आन्तरिक कलह के कारण न केवल वह व्यक्ति प्रभावित होता है अपितु उस द्वंद्व से प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से उससे या उसके द्वारा किये गए व्यवसायिक कार्य के संपर्क में आने वाला हर व्यक्ति भी किसी न किसी प्रकार प्रभावित (दुखी) होता है.

(५) ईश्वर हमारे अंदर है तो हम उसे बाहर क्यों खोजते हैं?
निःसंदेह 'ईश्वर' यानी वह 'ऊर्जा' (जिसे आध्यात्मिक भाषा में 'आत्मा' या 'ईश्वरीय तत्त्व' कहा जाता है) और उस आत्मा के स्वाभाविक या नैसर्गिक गुणधर्म यानी प्रॉपर्टीज (जिन्हें आध्यात्मिक भाषा में 'ईश्वरीय गुण' कहा जाता है), हमारे भीतर ही विद्यमान हैं! ..यह हमारी बेवकूफी, नादानी, अज्ञान, या लगातार गलत संस्कार मिलने व दिए जाने का परिणाम ही है कि हम पागलों समान उसे बाहर दूंढ़ते फिरते हैं! प्रचुरता से फैली और फैलाई जा रही अनाप-शनाप भ्रांतियों के चलते ईश्वर सम्बन्धी हमारे संस्कार विकृत से हो गए हैं! हम उसे पता नहीं क्या-क्या समझने लग गए हैं?! ...और पता नहीं कैसे-कैसे उसे रिझाने और संतुष्ट करने में लगे रहते हैं?! ..उस अनदेखे-अनजाने ईश्वर को कोई बाहरी व्यक्ति या महादिव्य राजा या मोटी बुद्धि वाली महान शक्ति समझकर हम कभी मासूम, कभी अंध-भक्त, कभी गुलाम, कभी चापलूस, तो कभी चालाक बनकर उससे पता नहीं कैसे-कैसे और क्या-क्या मांगते रहते हैं?! ..और तो और, हमारे अनुसार वह ईश्वर तो भिन्न-भिन्न सम्प्रदायों के लिए भिन्न-भिन्न है; उसके नाम, रूप, शिक्षाएं, उसे रिझाने के तरीके (पूजन पद्धतियाँ/अनुष्ठान) भी भिन्न-भिन्न हैं!!! ऐसा भी नहीं कि हम यह समझते हों कि यह सब भिन्न-भिन्न संस्कृतियों के चलते है; क्योंकि यदि हम ऐसा समझते होते तो सभी संस्कृतियों के तहत ईश्वर (!) व शिक्षाओं की विभिन्नताओं का सम्मान करते. ..ऐसा आज बिलकुल भी नहीं है! अपने-अपने ईश्वर, विश्वास व पद्धति को श्रेष्ठतम कहना और अन्य की आलोचना करना एक आम बात है आज! ...यानी एक तो करेला, ..ऊपर से नीम चढ़ा!!! ...ऐसे में भीतर की मिठास (नैसर्गिक ईश्वरत्व) देखने की फुर्सत ही किसे है!!! सब मनुष्यों के भीतर मौजूद सार्वभौमिक प्राकृतिक (अथवा ईश्वरीय) गुण, नैसर्गिक रूप से विद्यमान अच्छे-बुरे की पहचान की शक्ति, केवल सही और न्यायपूर्ण व्यवहार के लिए नैसर्गिक दिव्य प्रेरणा आदि ये सब विशेषताएं आज भी हैं, परन्तु उनके ऊपर व्याप्त गलत या विकृत धारणाओं और कुसंस्कारों का ढेर लग गया है, वे विशेषताएं उनके तले दब गई हैं. इसी कारण इतना पाप, अत्याचार और भ्रष्टाचार बढ़ गया है; धर्म एवं अध्यात्म के क्षेत्र में भी इसी कारण सब ऊपर-ऊपर ही तैर रहे हैं.

Monday, July 16, 2018

(९९) चर्चाएं ...भाग - 18

(१) आध्यात्मिक गुरु ही यदि अध्यात्म पथ से भटक जाए, तो शिष्य कहाँ जाएँ...?? आज के आध्यात्मिक गुरुओं को देखकर कुछ समझ नहीं आ रहा, ....कुछ अनैतिक हो चले हैं और कुछ अपनी ही व्यक्तिगत परेशानियों के कारण आत्महत्या तक कर बैठते हैं!
बाइबिल में यीशु मसीह ने लोगों को संबोधित करते हुए कुछ बातें बहुत पते की बताई हैं- "झूठे पैगम्बरों (स्वयंभू सिद्ध व्यक्तियों) से सावधान रहो, जो बड़ी सीधी 'भेड़ों' के रूप में तुम्हारे सामने आते हैं, लेकिन असल में फाड़नेवाले 'भेड़िये' हैं. ....इसलिए वे तुमसे जो कुछ (सही बातें) कहें, वह करना, और मानना; परन्तु उनके से काम मत करना; क्योंकि वे कहते तो हैं पर करते नहीं (आपको कुछ कहते हैं और उनके खुद के काम कुछ और होते हैं). ....कभी 'स्वामी' भी न कहलाना, क्योंकि सबका एक ही स्वामी है. ....जो कोई अपनेआप को बड़ा बनाएगा, वह छोटा किया जाएगा; और जो कोई अपनेआप को छोटा बनाएगा, वह बड़ा किया जाएगा. ....बहुत से झूठे सिद्ध उठ खड़े होंगे और बहुतों को भरमाएंगे. और अधर्म के बढ़ने से बहुतों का प्रेम ठंडा हो जाएगा. परन्तु जो अंत तक धीरज धरे रहेगा, उसी का उद्धार होगा. ....सावधान रहो! तुम मनुष्यों को दिखाने के लिए अपने धर्म के काम न करो, नहीं तो परमेश्वर से कुछ भी फल न पाओगे. ....और जब तुम प्रार्थना करो, तो कपटियों के समान न हो (लोगों को दिखाने के लिए सभाओं में और सड़क के मोड़ों पर खड़े होकर). ....द्वार बंद करके अपने पिता से जो गुप्त में है प्रार्थना कर; और तेरा पिता जो तुझे गुप्त में देखता है, तुझे प्रतिफल देगा." ...........आखिरकार हम देखा-देखी और व्यग्र हो कर सम्पूर्ण रूप से अंधे अनुयायी बनते ही क्यों हैं वह भी किसी मानव के???? क्यों हम किसी मनुष्य को इतनी आसानी से अवतार या भगवान् का दर्जा दे देते हैं????

(२) महाभारत में पांडव धर्म की तरफ और कौरव अधर्म की तरफ फिर भी सबसे बड़ा अधर्म पांडव अपनी आँखों के सामने देखते रहे (चीरहरण)! सब के सब पांडव महान योद्धा पर समय पर सब के सब चुप, यह क्या दर्शाता है? कहीं न कहीं धर्म कृष्ण के साथ होने की बात करता है और अध्यात्म खुद को कृष्ण बनाने की बात करता है, अगर एक भी पांडव अध्यात्म में लीन होता तो ये सब नहीं होता!?
महाभारत और रामायण आदि ऐसे महान पौराणिक दृष्टान्त हैं जो मानव जीवन के लगभग सभी अच्छे-बुरे पहलुओं को छूते हैं, टटोलते हैं, उनको सामने लाते हैं. सीखने की दृष्टि से ये लाजवाब हैं. ...और आलोचना से भला कौन बच पाया है?! हम हैं ही ऐसे कि बिना आगे-पीछे का संदर्भ या मंतव्य जाने बगैर सबसे बुरा छांटकर पहले उसे ही इंगित करते हैं! कृपया सकारात्मक भाव रखकर कुछ सीखने की दृष्टि से इनका 'सम्पूर्ण' पठन करें, अंत में निश्चित रूप से दिल और दिमाग खुलेगा, व्यापकता आएगी और इन ग्रंथों के प्रति कृतज्ञता व प्रशंसा के भाव उपजेंगे. वैसे इस चर्चा में आपकी बात के समर्थन में या विरोध में मैं भी अनेकों तर्क दे सकता हूँ, पर वह लेखन व बहस व्यर्थ के ही होंगे- बिल्कुल अप्रयोज्य!

(३) जीवन में इतना दुःख क्यों?
कुछ दुःख हमें अपने कर्मों के कारण होते हैं और कुछ दुःख दूसरों के कर्मों के द्वारा! समाज के विभिन्न घटकों अथवा स्वयं, के द्वारा विषाक्त सोच के साथ किये गए कर्मों के कारण ही तरह-तरह के दुखों की उत्पत्ति होती है. आदर्श सुखद स्थिति के लिए मेरे सहित मेरे आसपास के संघ की सोच में शुद्धता आना आवश्यक! ...केवल मेरे अथवा केवल बाकी के समाज के उत्थान से बात नहीं बनेगी! ..दोनों को समानांतर रूप से अपनी सोच में उत्कृष्टता लानी होगी. इसीलिए किसी बंद कमरे अथवा परिसर में नहीं, बल्कि व्यष्टि और समष्टि, दोनों को ध्यान में रखकर की जाने वाली साधना (प्रयास) ही खरी आध्यात्मिक साधना है.

(४) ज़िंदगी में बहुत ज्यादा तकलीफ है अब मैं क्या करूं परेशान हो गया हूँ!?
कोशिश, कोशिश, कोशिश, ....और अच्छी सोच से की गयी सिर्फ अनवरत कोशिश ही तकलीफ को दूर करने में मदद करेगी! मन में मजबूती के साथ धारण कर लें कि कोई भी समस्या मुश्किल, ...बहुत-बहुत मुश्किल हो सकती है पर असंभव नहीं! ..और यह भी, ...कि जरूरी नहीं कि हमारी नेक कोशिशों का प्रत्युत्तर तुरन्त ही मिले! न्यूटन जी की थ्योरी के अनुसार भी किसी क्रिया का जवाब आना निश्चित है पर यह जवाब या प्रतिक्रिया तुरंत भी आ सकता है और अनिश्चितकालीन देरी से भी!!! ..जवाब कुछ अलग स्वरूप में भी आ सकता है!!! ....लेकिन यह तो निश्चित है कि हमारी क्रिया के फलस्वरूप प्रतिक्रिया कभी तो अवश्य आयेगी और वह प्रतिक्रिया हमारी क्रिया की गुणवत्ता व शुद्धता अथवा अशुद्धता के अनुसार / अनुरूप ही आयेगी! इसलिए ध्यान रहे कि हमारी कोशिशें नेक हों, अच्छी सोच के साथ की जायें. धैर्य रखें, ..परेशानियाँ अवश्य जायेंगी या इन प्रयासों से वे परेशानियाँ असह्य दुःख का कारण नहीं बनने पायेंगी.

(५) क्या हमारे अंदर ऐसी शक्ति मौजूद है कि हम हमारे मन की जो काम भावना है उसे शांत कर सके जिससे मनुष्य गलत कदम ना उठाये!?
यदि हमारे घर में प्रकाश का कोई स्रोत (मोमबत्ती, लालटेन, बिजली बल्ब) मौजूद है, तो साँझ ढलने पर हम उसे प्रज्जवलित करते हैं. हमारी इस क्रिया से घर में उजियारा बरकरार रहता है, अँधेरा अपने पांव नहीं पसारने पाता. ...इसी प्रकार यदि हम अपने मन में नेकनीयति, अच्छेपन, इंसानियत आदि (अर्थात् अच्छी सोच) का चिराग सतत जलाये रखते हैं तो अवांछित बुरे विचारों रूपी अँधेरे से हमेशा बचे रहते हैं. यही एक मात्र तरीका है मन से बुराई को दूर रखने का! ...अँधेरे का एक ही कारण है-- प्रकाशस्रोत का अभाव!!! नकारात्मक विचारों का भी एक ही कारण है-- मन में अच्छे विचारों का अभाव!!!

(६) माता पिता अपनी सन्तानों को जितनी मात्रा में प्रेम करती है, संतान माता पिता को उसी मात्रा में प्रेम क्यों नहीं कर पाते हैं?
जिन्दगी के सभी प्रसंगों का निर्माण 'क्रिया-प्रतिक्रिया' से होता है. ...हमेशा क्रिया पहले होती है और प्रतिक्रिया बाद में!! हमारे प्रेम में यदि अपेक्षा होगी तो हमारी संतान भी तो हमेशा अपेक्षा ही करेगी हमसे! ..संतान के लिए कुछ करते समय हमारे मन में यदि अहसान करने का भाव होगा, तो उसके मन में भी बाद में हमारे लिए यही भाव तो आएगा! हम ज्यादा गुणा-भाग करने वाले होंगे तो हमारी संतान हमसे भी शायद चार कदम आगे होगी!!! ..इसके अतिरिक्त बहुत से लोगों का मानना होता है कि पाश्चात्य संस्कृति के अन्धानुकरण से बच्चे बड़े होने पर अपने माँ-पिता को नहीं पूछते!!! मैं उनको इतना ही कहूँगा कि उनका यह कथन अपनी कमजोरियों और अकर्मण्यता पर पर्दा डालने के समान है! धिक्कार है हमें और अपनी संतानों को दिए गए संस्कारों को, यदि वे संतान को इतना बलिष्ठ ना बना पाए कि वह बाहर के किसी वैचारिक प्रदूषण का सामना कर पाए!!! यदि बड़े होकर संतान अच्छे-बुरे के ढेर में से अच्छा चुनने में असमर्थ है या हमारे प्रति उदासीन हो रही है तो दोष कहीं न कहीं हमारे वैचारिक वैक्सीनेशन में है; या कहीं न कहीं, कभी न कभी, हम स्वयं स्वार्थी रहे हैं.

(७) भले लोगों के साथ ही बुरा क्यों होता है?
मुझे तो लगता है कि अच्छा और बुरा दोनों लगभग सभी के साथ होता रहता है परन्तु अपेक्षाकृत अधिक संवदनशील होने के कारण भले लोगों को इसकी अनुभूति अधिक होती है! ठीक उसी प्रकार जैसे-- गन्दगी में आकंठ लिप्त जीव को गंदगी या बदबू से कुछ खास फर्क नहीं पड़ता, कभी-कभी उसे इसका एहसास तक नहीं होता; जबकि किसी स्वच्छ संवेदनशील जीव को गंदगी या बदबू परेशान कर डालती है!

(८) अध्यात्म पैदाइशी होता है कि जीवन की मुश्किलें देखने के बाद पैदा होता है?
'अध्यात्म' अर्थात् 'आत्मा के विषय में'. 'आत्मा के विषय में' अर्थात् "स्वयं के मूल के विषय में". सरल शब्दों में कहें तो, खुद को और प्राकृतिक सिस्टम को भीतर से, जड़ से, भलीभांति समझना ही अध्यात्म है बस! ...यह विषय तो अनादिकाल से मौजूद है और आगे भी सदैव रहेगा- बिलकुल परिवर्तित!!! ...हाँ इसकी ओर हमारा ध्यान तब ही जाता है जब कभी हम अंतर्मुखता की ओर जाते हैं. जीवन की मुश्किलों अथवा दुःख से इसका कोई सम्बन्ध नहीं! ..सच तो यह है कि किसी दुःख या मुश्किल आने के बाद जो इसकी ओर मुड़ते हैं वे यथार्थ साधक ही नहीं; वे तो आर्त, परेशान, रोते हुए ही हैं; वे तो बस इसमें दुखों-परेशानियों का इलाज ढूंढ रहे होते हैं, अर्थात् स्वार्थ से आए हैं! वे जीवन भर कोरी बातों और शाब्दिक तत्त्वज्ञान में उलझकर अपनेआप को सांत्वना देते रहते हैं कि अब वे प्रसन्न हैं!!!! सच्चा साधक कभी भी आर्त, परेशान होकर साधक नहीं बनता बल्कि कौतूहल और जिज्ञासावश साधना आरंभ करता है. उसकी साधना शब्दों से कम, कर्मों से अधिक जुड़ी होती है. किसी के जीवन में जितनी जल्दी यह पल आ जाये उतना उत्तम.

(९) अध्यात्म मतलब स्वयं को जानना और स्वयं में ही उलझ जाना क्या इसका मतलब हम इतने मतलबी हो जाए कि इंसानियत भूल जाएं?
आध्यात्मिक साधना का मतलब केवल स्वयं के मूलभूत गुणों और प्राकृतिक दैवीय सिस्टम को जानना भर नहीं, केवल उसपर शास्त्रार्थ करना भर नहीं, मात्र शाब्दिक जाल में उलझना भर नहीं; अपितु जानकर, समझकर उनपर 'अमल' करना है. अध्यात्म केवल सुनने और कहने का शास्त्र नहीं अपितु करने का शास्त्र है. इसकी पूर्णता और सार्थकता रोजमर्रा की जिन्दगी में इसे लागू करने में निहित है.

(१०) हम हमेशा अपने आप को समाज के बंधनो में जकड़ा पाते हैं, कभी कभी हम खुद से रूबरू होते है, जैसे ही रूबरू होते हैं अपने को या अपनी ख्वाहिश जानते ही हम खुद को ही बहकाने लगते हैं, कभी धर्म के नाम पर कभी अध्यात्म के नाम पर, आपको ऐसा लगता है क्या? अगर लगता है तो हम ऐसा क्यों करते हैं!?
ऐसा वो लोग करते हैं जो 'शौकिया' ही या किसी 'भावुकता' के कारण अध्यात्म से जुड़े हैं. उनकी साधना, ज्ञान आदि में गहराई नहीं आ पाती. वे ऊपर ही तैरते रह जाते हैं और अध्यात्म को कुछ विशिष्ट रंगों, झंडों, प्रतीकों, परिधानों, धार्मिक क्रियाकलापों (अनुष्ठानों) आदि का खेल मात्र समझते हैं! जबकि असली अध्यात्म तो वर्ण, जाति, पंथ, समुदाय, संस्कृति, देश, काल आदि से बहुत परे है. यह सार्वभौमिक सिद्धांत स्वरूप है और सिद्धांत किसी की बपौती नहीं! उदाहरण के लिए गुरुत्वाकर्षण का नियम एक सार्वभौमिक सिद्धांत ही है; क्या किसी विशिष्ट जाति, पंथ, संस्कृति आदि से इसका कोई लेना-देना है? क्या आत्मा या दिखाई देने वाले मानवीय अंगों, रक्त की लालिमा, प्रकृति के नियमों आदि का किसी पंथ विशेष या समुदाय से कोई सम्बन्ध है?? ऐसे ही आध्यात्मिक नियम-सिद्धांत भी सार्वभौमिक एवं सर्वमान्य हैं, इन पर किसी धर्म-पंथ का ठप्पा लगाना बेवकूफी ही है! ये हिन्दू, मुस्लिम, सिख, ईसाई अर्थात् किसी परिधि विशेष में बंधे हुए कैसे हो सकते हैं? हाँ, बहुत छूट देते हुए इन सब संस्कृतियों के अनुसार जीवनचर्या और धार्मिक क्रियाकलापों को इस (अध्यात्म) तक पहुँचने के विभिन्न मार्ग घोषित किया जा सकता है! परन्तु ज्ञान के शिखर पर पहुँचने पर हमें इन सब को तिलांजलि देना अनिवार्य हो जाता है. इनसे अभी भी चिपके रहने का अर्थ यही होगा कि हम कहीं बीच के पड़ाव पर ही हैं. तब यह स्वीकार करने में शर्म कैसी कि हम अभी तक अपनेआप से पूर्णतया परिचित नहीं हुए, हमें सिद्धांतों के बारे में बहुत कुछ जानना अभी शेष है!