Saturday, January 20, 2018

(९१) चर्चाएं ...भाग - 10

(१) अध्यात्म मार्ग पर चल कर व्यक्ति में क्या परिवर्तन आते हैं? आज अध्यात्म शब्द एक फैशन सा बनता जा रहा है ....किन्तु ऐसा देखने में आया है कि बहुत विरले लोगों में ही सुधार नज़र आता है ...क्यों?
अध्यात्म मार्ग पर चलकर (वास्तव में अमल करके) सर्वप्रथम व्यक्ति के प्रभामंडल में सकारात्मक परिवर्तन आता है, वह शीतल, सुखद और मन को भाने वाला हो जाता है; इसके अलावा स्नायुतंत्रों पर नियंत्रण होता है, इच्छाओं पर नियंत्रण होता है, राग-द्वेष कम होता है, सोच और कर्म न्यायोचित होते हैं, रवैया पक्षपात रहित होता है, मिजाज अच्छा और सकारात्मक हो जाता है. शेष आपके इस कथन से मैं सौ फीसदी सहमत हूँ कि आज 'अध्यात्म' शब्द एक फैशन सा बनता जा रहा है. भौतिक जीवनचर्या से हट कर केवल नाम भर के लिए किसी आध्यात्मिक गुरु अथवा संस्था से जुड़ना आज एक अतिरिक्त गतिविधि या स्टेटस सिम्बल के रूप में स्थापित होता जा रहा है! तो अध्यात्म से जुड़कर व्यक्ति की सोच और जीवनशैली में सही मायनों में जो परिवर्तन या सुधार आना चाहिए, वो विरले ही देखने में मिलता है. अधिकांशतः हमारी आध्यात्मिक गतिविधियाँ यंत्रवत या देखादेखी या केवल शौकिया ही होती हैं इसलिए उनमें उथलापन होता है.

(२) आज देश के समक्ष सबसे बड़ी चुनौती क्या है...? क्या देश में धर्म की लड़ाई सबसे बड़ी चुनौती नहीं है क्योंकि इससे देश की एकता को खतरा है!?
मेरे विचार से आज देश के समक्ष सबसे बड़ी चुनौती यह है कि कैसे देश की आम जनता को शिक्षित व परिपक्व किया जाये! निश्चित रूप से वर्तमान सरकार तो इस मामले में गंभीर नहीं है! क्योंकि देश की जनता शिक्षित माने परिपक्व सोच की हो जाती है तो धर्म-आधारित परस्पर लड़ाइयाँ समाप्त हो जायेंगी और इससे उनके वोट-बैंक को भारी खतरा हो जायेगा! तब आम जनता विकास सम्बन्धी असली मुद्दों पर ही विचार करके वोट देगी! ...'अशिक्षित और भोली' (अपरिपक्व) जनता के बीच फूट डालकर राज करना अत्यंत सरलता से संभव होता है यह बात कभी अंग्रेजों ने भी समझ ली थी और यहाँ एक लम्बे समय के लिए अपना राज स्थापित किया था! यह सिलसिला तब से अबतक अनवरत चलता आ रहा है! तब से अबतक अशिक्षा की भूमि पर सत्ता की फसलें उगाई जाती रही हैं और उर्वरक के तौर पर 'धर्म' को इस्तेमाल किया जाता रहा है! देश की हिन्दीभाषी बेल्ट में केवल 'दिल्ली' प्रदेश में ही यह सिलसिला टूटा है! आशा है कि अन्य जगहों पर भी शायद जनता के दिलोदिमाग में कुछ परिवर्तन आए, लेकिन मौजूदा राष्ट्रीय राजनीतिक दल पूरा जोर लगा रहे हैं कि जनता अशिक्षित, अपरिपक्व और धार्मिक वैमनस्य-झगड़ों आदि में ही उलझी रहे! ...इसके अतिरिक्त, नोटबंदी से लेकर अबतक जबरन डिजिटलीकरण, विभिन्न टैक्स और बेतरतीब लाइसेंस ढांचों आदि के द्वारा आम जनता को इस कदर भयभीत और व्यस्त कर दिया गया है कि वह बस बचने-बचाने में ही लगी है! सोचने-समझने और निज-विचार अभिव्यक्ति की गुंजाईश ही खत्म कर दी गयी है. इसके बाद जनता के पास थोड़ा-बहुत सोचने के लिए कुछ बचता है तो वह है 'धर्म'! ..और फिर उसकी धार्मिक भावनाओं को भड़का कर सम्मोहित अवस्था में ला कर मनचाहा धार्मिक द्वेष उत्पन्न किया जा रहा है, ..और इस प्रकार सत्ता को अक्षुण्ण रखने के प्रयास चल रहे हैं.

(३) देश में बैंकों में जमा धन को लेकर लोगों की चिंता कितनी सही है...? आज बैंकों में जमा धन को लेकर लोगों की बढ़ती चिंता के पीछे बैंकों के बढ़ते घाटे हैं जो गलत नीतियों के परिणाम हैं ...आज इस मुद्दे पर शुरू हुई बहस के पीछे वास्तविकता क्या है ....अपने विचार शेयर करें.
इस मुद्दे पर शुरू हुई किसी बहस के बारे में तो अभी मुझे कोई जानकारी नहीं, पर आप के द्वारा उठाये गए प्रश्न के अनुसार मेरा अनगढ़ उत्तर यह है-- ...मेरे विचार से बैंकों की स्थापना का मूल उद्देश्य लोगों के धन को सुरक्षित रखना, सहेजना ..और बिखरे हुए व निठल्ले धन को एकत्रित (केन्द्रित) करके देश के विकासकार्यों व उत्पादन आदि बढ़ाने में लगाना था. भारतीय बैंक भी यही करते रहे. लेकिन विगत कुछ वर्षों में सरकारी बैंकों के ऊपर एक संकट एनपीए यानी नॉन परफॉर्मिंग एसेट्स अर्थात् गैर-निष्पादित राशि के रूप में आया. ये गैर-निष्पादित राशियाँ मूलतः या मुख्यतः बैंकों द्वारा दिए गए विभिन्न ऐसे कर्ज थे जिनको कर्जदारों द्वारा वापस चुकाया नहीं गया और न ही उनको वापस पाने की संभावनाएं ठोस रूप से दिख रही हैं! इसका मुख्य कारण यह है कि बहुत से कर्ज सरकारों द्वारा माफ़ कर दिए गए हैं और अनेक अन्य कर्जों के कर्जदार दिवालिया या भगौड़े हो गए हैं! वित्त मंत्रालय ने भी इन कर्जों को लेकर चिंता जताई है, लेकिन कर्ज-वसूली या भरपाई को लेकर कोई ठोस उपाय अभी तक सामने नहीं आया है. ...उधर बैंकों ने भी हुए नुकसान की भरपाई के लिए विभिन्न बैंकिंग सुविधाओं पर अनेकों शुल्क बढ़ा दिए हैं और कई नए भी लगा दिए हैं, जमा धन पर ब्याज दरों में भी काफी कटौती की है; सरकार ने भी नोटबंदी और जबरन डिजिटलीकरण आदि उपायों से दबाव बनाकर आम जनता का लगभग सारा धन बैंकों में एकत्रित कर लिया है! नोटबंदी के बाद से अबतक खाताधारकों के प्रति बैंक-कर्मियों के व्यवहार में भी बहुत गिरावट आई है; सरकार और बैंक-कर्मी आदि साधारण खाताधारक को संशय से देखते हैं और असभ्यता व रुखाई से पेश आते हैं! ..अब आमजन को यह चिंता होनी स्वाभाविक है कि एक तो वह अपने श्रम से कमाया हुआ समस्त पैसा बैंक में ही रखने को बाध्य है, उसे संदेह की दृष्टि से भी देखा जाता है, सरकार और आयकर विभाग भी अपनी धौंस जमाते रहते हैं, ...और दूसरी ओर उसी के जमा धन को सरकारी दबावों द्वारा ऐसे कर्जदारों में बाँट दिया जाता है जहाँ से सकुशल वापसी की उम्मीद बहुत ही कम होती है!!! ...और फिर जो घाटा होता है उसे भी आम खाताधारकों (आम जनता) से ही वसूला जाता है (विभिन्न शुल्कों और कम ब्याजदरों के रूप में)! इसके अलावा बैंकों से लीक या बर्बाद हुए पैसों की कुछ भरपाई यदि सरकार भी करती है तो वह भी आम जनता पर कई टैक्स थोप के, उससे अर्जित करके! यानी लांछन, संदेह, आर्थिक हानि, टैक्स-शुल्कों की मार, अपमानजनक व्यवहार.., सब तरह के डंडे आम जनता के सिर पर! ..फिर किसका मन करेगा कि सरकारी कानूनों के साथ सहयोग किया जाये!? सहयोग होगा भी तो बेमन से और मजबूरी में, राष्ट्रहित में तो शायद कतई नहीं!!! गलत सरकारी नीतियों से धन की बहुत बर्बादी हो रही है और सरकार वसूली कर रही है आम जनता से.., वह भी बलात्... और अपमानजनक ढंग से ताली बजा-बजा कर; ...तो जनता में देशप्रेम की, स्नेह की भावना कैसे बनी रहेगी? लोग भी फिर क्यों न स्वार्थ की ओर मुड़ेंगे??? सरकार और सरकारी बैंकों के इन सब आचरणों से समाज में नैतिकता फैल रही या अनैतिकता? विश्वास फैल रहा है या अविश्वास? सुरक्षा की भावना बढ़ रही है या असुरक्षा की भावना?? जरा सोचिए!

(४) हमें ऊर्जा कहाँ से प्राप्त होती है? मेरे मन में ये सवाल बहुत दिनों से घूम रहा है!
किसी भी कार्य के दौरान सकारात्मक एवं उल्लासित मनोदशा से या/और किसी ठोस अचीवमेंट की दशा में! इसके विपरीत मनोदशा (यानी नकारात्मक व मन बुझा) रहने से हम स्वयं को ऊर्जा-विहीन महसूस करते हैं, भले ही हमने बहुत अच्छा खाया-पिया हो या कितना भी आराम कर रखा हो!

(५) परमेश्वर ने मुझसे कहा कि वह मुझे मार देगा! इसका अर्थ क्या हुआ, वह मुझे मारना क्यों चाहता है जबकि मै जीना चाहता हूं। और वह इस संसार के साथ मिल कर मुझे क्यों मार रहा है? (प्रश्नकर्ता- जीवीबी मास्टर ऑफ़ वेद मंत्र)
फिर आगे अपने ही मुद्दे के उत्तर-स्वरूप आपने पुनः अपनी बात (भ्रम) को आगे बढाया है कि "मेरा ज्यादा समय तक शरीर में रहना संभव नहीं है!" .....मुझे लगता है कि कदाचित् आप पाठकों के आध्यात्मिक ज्ञान की परीक्षा ले रहे हैं!!! ...जो उत्तर सत्य है और कुछ कटु भी, वह प्रस्तुत है--- 'मेरा' अर्थात् 'अहं '(यानी 'मैं' अर्थात् "जीवीबी मास्टर ऑफ़ वेद मंत्र" यह विशेषण-युक्त प्राणी) का अब इस शरीर में रहना मुश्किल है. जब "अहं" अर्थात् "मैं और परमेश्वर भिन्न" हट जायेगा तो मेरा नाम व उपनाम या विशेषण आदि संपूर्णतः हट कर अब 'मैं' केवल "आत्मा-स्वरूप" शेष रह जाऊंगा! अब 'मैं' यानी 'आत्मा' रहेगा तो इस ईश्वरीय उपहार स्वरूपी शरीर में ही (इस शरीर की प्राकृतिक एक्सपायरी डेट तक), लेकिन साथ ही इस शरीर को ही 'मैं' व 'स्थाई' मानकर नहीं! इससे मेरा मोह समाप्तप्राय हो जायेगा! इस स्थूल और भौतिक देह की हिफाजत और देखरेख में कोई कमी नहीं आयेगी क्योंकि यह ईश्वर-प्रदत्त है, इसका सम्मान पूर्ववत् ही होगा, पर इसका सदुपयोग अब ईश्वरीय अर्थात् श्रेष्ठ कार्यों हेतु, वह भी अकर्म-कर्म द्वारा ही सम्पादित होगा! संसार अब भी मुझे मेरे नाम, उपनाम या विशेषण द्वारा शायद जाने, पर मैं जानता हूँ कि मैं इन सबसे आगे प्रथमतः एक आत्मास्वरूप हूं, आत्मा ही हूँ! इस शरीर में मेरा प्रवास ईश्वरेच्छा से है और मैं (आत्मा) इस ईश्वर-इच्छा का सम्मान करता हूँ. मेरा नाम, उपनाम (विशेषण), गोत्र, जाति, आदि सब किसी जागतिक भौतिक सभ्यता के कारण या संस्कृति-वश ही हैं मात्र! ....इनमें से उपनाम (विशेषण) तो शायद मेरा अहंकार से ही उपजा है!!! जब अहं नहीं तो यह विशेषण भी नहीं!!! विनम्रता से त्यागता हूँ इसे!!!

(६) ऊपर के प्रश्नकर्ता "जीवीबी मास्टर ऑफ़ वेद मंत्र" जी का उत्तर-- इस सत्य से मेरा साक्षात्कार हो चुका है कि इस शरीर में दो है एक मैं स्वयं दूसरा जिसे मैं परमेश्वर समझता हूं वह मुझसे शक्तिशाली है उसने मुझसे जो कहा था उसी मार्ग का हमारी शरीर अनुसरण कर रही है। मै स्वंय को जानता हूं जो एक शरीर धारी है आत्मा है यहां बात शरीर की हो रही है। वह मुझ आत्मा को मारने में समर्थ हो सकता है क्योकि कि मुझ शरीर धारी आत्मा को मारने का चक्रव्युह रच दिया है जिसमें हमारी शरीर फंस चुकी है। जिसे हम आत्मा कहते हैं वास्तव में जब वही ज्ञानवान होता है तो परमात्मा जैसा हो जाता है।
कहते हैं कमी व अति हर चीज की बुरी. ..जीवीबी मास्टर ऑफ़ वेद मंत्र महोदय जी, आप आध्यात्मिक ज्ञानवर्धन के अतिरेक में बहकर अनेक 'भ्रमों' का शिकार हो रहे हैं!
एक और भाई ने प्रथमतः आपको बिलकुल सटीक जवाब दिया था कि, "भ्रम में ना रहें। परमेश्वर कभी किसी को नहीं मारता, अज्ञानी मनुष्य ही एक दूसरे को मारने का प्रयास मात्र करता है। परमेश्वर तो परमात्मा हैं, वे मनुष्य रूपी आत्मा को क्यों मारना चाहेगा ? क्या कभी सागर किसी बूंद को मारने का प्रयास कर सकता है?"
अंत में आपके उपरोक्त उत्तर की अंतिम पंक्ति, "जिसे हम आत्मा कहते हैं वास्तव में जब वही ज्ञानवान होता है तो परमात्मा जैसा हो जाता है.", के उत्तर में एक बात कहना चाहूंगा कि, "आत्मा तो परमात्मा का ही एक अंश है, और उसके गुणधर्म बिलकुल परमात्मा के गुणधर्मों के समान हैं. हाँ, उस पर विभिन्न सांसारिक संस्कारों, मानवीय बुद्धि और 'अहं' का आवरण चढ़ जाता है जिससे वह (आत्मा) अपने मूल स्वरूप में प्रकट नहीं हो पाती. आध्यात्मिक साधना, सत्संग और सत्सेवा आदि से धीरे-धीरे वह आवरण नष्ट होता है और आत्मा अपने मूल स्वरूप में प्रकट होती है. इसी को आत्मसाक्षात्कार भी कह सकते हैं. जब बुद्धि, संस्कार और अहं आदि का आवरण स्थाई रूप से पूर्णतया नष्ट हो जाता है तभी कह सकते हैं कि आत्मा अब परमात्मा तुल्य (के समान) हो गयी यानी उसका ज्ञान (जो उसमें पहले से ही विद्यमान था ही) आवरण नष्ट होने से अब प्रकट हो गया.

(७) फिल्मों के माध्यम से सामाजिक सन्देश देना कितना सफल है...??
सामाजिक सन्देश देने के लिए फिल्में एक बहुत सशक्त माध्यम हैं. आमिर खान सरीखे चुनिन्दा हिंदी फ़िल्मकार अपनी फिल्मों के माध्यम से समय समय पर अनेकों सार्थक सन्देश देते रहते हैं और दर्शकों को भी उनकी फिल्मों का इंतजार रहता है! इन फिल्मकारों की फिल्में कुछेक ऐसे संवेदनशील मुद्दों पर भी दर्शकों को अनोखा, नवीन, स्वस्थ एवं तटस्थ दृष्टिकोण दे जाती हैं जिन मुद्दों पर कुछ बोलने में बड़े-बड़े कद्दावर नेता भी घबराते हैं. मैं और मेरे जैसे असंख्य दर्शकों को ऐसी फिल्मो का इंतजार बेसब्री से रहता है. ऐसी फिल्में हमारे सुप्तप्राय समाज में बड़ी क्रांति लाने में तो शायद अभी सक्षम नहीं, पर उसके बीज तो वो बो ही रही हैं!

(८) तथाकथित 'अच्छे' लोग ही क्यों अधिक झेलते हैं? एक ही कारण है कि तथाकथित अच्छे व्यक्तियों को भुगतना पड़ता है, क्योंकि ये कुछ कृत्यों को पाप सदृश्य मानते हैं। जो लोग खुद को "अच्छा" कहते हैं और इसमें गर्व करते हैं, वे "अच्छेपन के अहंकार" से ग्रस्त हैं... वे स्थिति की जरूरतों और मांगों के आधार पर कार्य नहीं करते हैं, बल्कि वे अच्छे दिखने के अहंकार से प्रेरित होते हैं। यह समझने पर कि कुछ कर्म पापपूर्ण हैं, उनके लिए अपराधबोध और शर्म आती है और इन भावनाओं के चलते उन्हें अधिक भुगतना पड़ता है. 'कर्म का विधान' केवल पिछले जन्मों के लेखानुसार ऋण उतारने की बात ही नहीं बल्कि बड़े अर्थों में यह आध्यात्मिक सबक सीखने के बारे में है. कर्म के विधान के उच्च पहलू में पाप के लिए कोई स्थान नहीं है। जिस क्षण हम पाप की अवधारणा को स्वीकार करते हैं, हमें और अधिक भुगतना पड़ता है।
आपका विश्लेषण काफी हद तक सही है श्रीमान् जी! जी हाँ, यह सच है कि अधिकांश तथाकथित 'अच्छे' व्यक्ति कुछएक कृत्यों को पाप की श्रेणी में रखकर, उनसे घृणा कर स्वयं को जबरन उनसे दूर रखकर, खुद को 'अच्छा' घोषित करते हैं; वे अवश्य ही 'अच्छेपन' के अहंकार से ग्रस्त हैं! वे पाप और पुण्य की एक सख्त सी धारणा रखते हैं, सिर्फ विचारों में ही नहीं बल्कि खानपान तक में! ...वो सोचते हैं कि उनके यह विचार सभी को हर हाल में 'स्वीकार्य' हो! उनकी यह तीव्र इच्छा उनके कर्मफलों में अनेकों जटिलताएं पैदा करती हैं! ...देखा जाये तो प्रत्येक व्यक्ति को देश-काल-परिस्थिति अनुसार अनेकों कृत्य करने होते हैं; लेकिन तथाकथित 'अच्छे' व्यक्ति जब उनमें से कुछ कृत्यों को करते समय अपने ही पूर्वाग्रह या विश्वास के कारण अपराधबोध या ग्लानि से ग्रस्त होते हैं तब उनको उन कृत्यों का दंड अधिक मात्रा में भोगना पड़ता है! ...क्योंकि यह एक परम एवं कटु सत्य है कि, जो कर्म विश्वास के साथ या विश्वास के अनुसार नहीं किया गया या जो कर्म आपने आपकी धारणा के विरुद्ध किया, वह आपके लिए निश्चित ही 'पाप' है! ...इसलिए मेरे विचार से, 'वास्तव में अच्छे' व्यक्ति सरल स्वभाव के होते हैं, वे पाप और पुण्य आदि की पूर्वस्थापित धारणाओं से दूर रहकर खुद को देश-काल-परिस्थिति अनुसार अच्छे से अच्छा करने को प्रेरित करते रहते हैं. हमें सदैव प्रथम सकारात्मकता के बारे में सोचना होगा, पहले से ही नकारात्मकता का विचार लाना व उससे बचने की सोचना मानों पाप को न्योता देने समान है! ..उदाहरण के लिए, यदि हम सत्य का ही विचार करेंगे और यथासंभव केवल सच ही बोलेंगे तो झूठ से तो अपनेआप ही पर्याप्त दूरी बन जाएगी! ..इसके विपरीत, यदि हम झूठ को पाप समझेंगे और बार-बार खुद को याद दिलाएंगे कि झूठ से दूर रहना है, उतनी ही बार हम झूठ को याद कर रहे होंगे; ..और फिर किन्हीं विषम परिथितियों में अच्छे के लिए ही जरा सा झूठ बोलते ही हम ग्लानि से भर जायेंगे और तीव्र नकारात्मक कर्मफल के भागी होंगे. ..जबकि बिना किसी जटिल व नकारात्मक पूर्वनिर्धारित सोच के हम अपेक्षाकृत बहुत सरल स्वभाव के होंगे और तब उस कर्म का तीव्र विपरीत असर हम पर नहीं होगा! जी हाँ, सरलता ही अपनेआप असली अच्छाई को जन्म देती है.

(९) फिल्म पद्मावत को लेकर मचे घमासान के पीछे क्या सत्य है...?? क्या यह एक गन्दी राजनीति है...?
हमारे यहाँ किसी भी समुदाय के लोग हों या फ़िल्मकार..., समझदारी, रचनात्मकता, बौद्धिक क्षमता आदि तो बढ़ी है, परन्तु उसमें गहराई व परिपक्वता नदारद है. बल्कि मैं तो यह कहूँगा कि नकारात्मक संवेदनशीलता क्रमशः बढ़ ही रही है! इसके बढ़ने के पीछे की बड़ी वजह प्रत्येक समुदाय के शीर्ष पर बैठे कुछ लोग हैं; राजनीतिज्ञ भी वोट-बैंक की खातिर इनकी जड़ता को बढ़ाने के लिए हवा दे ही रहे हैं. आज के फ़िल्मकार भी बोल्ड रचनात्मकता के नाम पर बिना इनकी परवाह किये तथाकथित संवेदनशील मुद्दों पर सीधे-सीधे फिल्में बनाना चाह रहे हैं. क्या किरदारों और स्थान आदि के काल्पनिक नाम रखकर किसी सत्यकथा पर आधारित फिल्में बनाना संभव नहीं है?? फिल्मों का निर्माण मनोरंजन, रचनात्मकता के प्रदर्शन, कोई सन्देश देने, पैसा कमाने आदि उद्देश्यों की पूर्ति हेतु ही तो किया जाता है! ..फिर लोगों की वर्तमान अति संवेदनशील मानसिकता को छेड़ना क्या जरूरी है?? चाइनीस फ़ूड का बहिष्कार करने वाला कोई अतिसंवेदनशील व्यक्ति यदि चाउमीन खाने से बिदकता है तो उसका देसी संस्करण रामदेव जी का आटा नुडल्स तो वह खा ही लेता है!!! कहने का अर्थ यह कि जब तक लोगों का दिल विशाल न हो जाये, फिल्मकारों को भी सावधानी बरतनी चाहिए! ....फिल्म पद्मावत को लेकर घमासान इसलिए मचा हुआ है कि फ़िल्मकार और कतिपय समुदायों ने इस मुद्दे को अपनी आन, बान और शान का विषय बना लिया है! राजनेताओं की तो बल्ले-बल्ले है-- पाँचों उँगलियाँ घी में और सिर कड़ाही में (चित भी मेरी पट भी मेरी).... खूब मजा ले रहे हैं वो! सुप्रीम कोर्ट को ही देश की व्यवस्था सुनिश्चित करनी पड़ रही है, इससे अधिक विडम्बना की बात लोकतंत्र के लिए और क्या होगी भला! ...कभी-कभी मेरे दिल में यह ख्याल आता है कि इस देश में सुप्रीम कोर्ट न होती तो क्या होता!!? .. वैसे वहां भी दरारें पड़नी शुरू हो चुकी हैं! मैं तो सारा ठीकरा गन्दी राजनीति पर ही फोड़ना चाहूंगा; मूल में वही है जो अहंकार और नफरत को बढ़ाकर सामान्य मानसिकता को रसातल में ले जाना चाहती है! उदाहरण के लिए-- 'चाइनीस बहिष्कार' का विचार क्या एक आम आदमी या किसी फ़िल्मकार के दिमाग की उपज है???? जी नहीं, यह राजनेताओं के दिमाग की उपज है. नफरत या बहिष्कार से हम ऊपर को जाने वाले नहीं अपितु मेहनत और ईमानदारी से ही वस्तुतः हम ऊपर की सीढ़ियाँ चढ़ेंगे. राजनेता कभी भी यह नहीं सिखाते कि दूसरे का कद छोटा करने के लिए अपना कद बढ़ाने पर ही मात्र ध्यान दो. ...अपना कद बड़ा सिद्ध करने के लिए दूसरे का कद काटने की बात ही होती है यहाँ!!! बात कुछ कटु अवश्य हो गयी मेरी, पर दिल से निकली है, ...सो रोका नहीं!