Saturday, February 24, 2018

(९२) चर्चाएं ...भाग - 11

(१) संसार में हमें किस प्रकार रहना चाहिए?
चूंकि हमारा जीवन एवं उसका तानाबाना कर्मप्रधान या कर्म पर ही आश्रित है और जीवन में आने वाला प्रत्येक प्रसंग या परिस्थिति हमारे ही किसी कर्म के कर्मफल के कारण हमारे समक्ष है, अतः हमें चाहिए कि प्रत्येक पल मौजूदा 'परिस्थिति के अनुसार' योग्यतम कर्म करें! हाथ पर हाथ रखकर केवल ईश्वर-आश्रित होने से कुछ भी होने वाला नहीं! ईश्वर ने हमारी देह में पञ्च-कर्मेन्द्रियाँ इसीलिए दी हैं कि पञ्च-ज्ञानेन्द्रियों, मन, बुद्धि और विवेक की मदद से उनसे देश-काल-परिस्थिति अनुसार योग्यतम काम लें. समक्ष आए प्रत्येक कार्य को कर्तव्य समझकर पूरी दक्षता से उसे करना भी एक प्रकार से योग (ईश्वर से जुड़ना) ही है. ...और साथ ही अंतर्मुखता व किसी भी योग्य साधना की मदद से अपने मूल (आत्मा) एवं इसके गुणों को जानने-समझने का प्रयत्न भी समानांतर रूप से करते रहें, तो और भी अच्छा! मौजूदा परिस्थितियों में (जो कि काफी खराब हैं) असत्य एवं अन्याय अथवा जबरन थोपी गयी किसी गलत बात आदि को यूं ही सहना या उनके आगे घुटने टेक कर समर्पण कर देना भी अयोग्य कर्म की श्रेणी में ही आता है. बहुतायत यही करते हैं! ईश्वर (परमात्मा) एवं हमारा मूल (आत्मा) सत्य एवं न्यायप्रिय हैं, इस मूल-धारणा के अनुसार ही चलकर हम ईश्वर-प्रिय होकर उनके निकटतम होंगे. भौतिक शरीर में जीवित रहते हुए यही मोक्ष की अवस्था है.

(२) अध्यात्म की सही परिभाषा ...जीवन में प्रेम, शान्ति, दया, संतुलन और प्रसन्नता का विकास करना! अध्यात्म कोई विद्या या विज्ञान नहीं हैं, केवल आत्मिक गुणों का विकास करना है.
निःसंदेह... आत्मिक गुणों का विकास या यूं कहें कि आत्मिक गुणों का दैनंदिन जीवन में प्रकटीकरण ही सही अर्थों में व्यक्ति के आध्यात्म्मिक होने का परिचायक है. ..लेकिन बिना कारण जाने या बिना लाभ की आशा के किसी कार्य, वो भी इस घोर कलयुग (बुरे समय) में अच्छा बनने का प्रयास, को करना क्या सरल बात है??? जी हाँ, यह बात तो सत्य है कि अच्छा बनना ही आध्यात्मिक बनना है और अच्छा बनने के बहुत सारे लौकिक-पारलौकिक लाभ भी मिलते हैं, लेकिन आपको यह बात कैसे पता चलती है?? ..कुछ प्राकृतिक नियमों-सिद्धांतों के द्वारा ही तो! ..या अपने अथवा किसी अन्य के अनुभव या अनुभवों द्वारा निष्पादित व प्रतिपादित नियमों-सिद्धांतों द्वारा!!! इसी को विज्ञान कहते हैं. अनुभवों-अनुभूतियों से ही प्रकृति या परमेश्वर के नियम-सिद्धांत पता चलते हैं, हमारा ज्ञान बढ़ता है, और फिर ज्ञात नियमों-सिद्धांतों पर यकीन कर हम तदनुसार करने को प्रेरित होते हैं, और फिर करके ही हम तदनुसार फल प्राप्त करते हैं! यह चक्र प्रथमतः जिज्ञासा, तदोपरांत खोज से आरंभ होता है, ..फिर प्रयोग, फिर विश्वास, फिर अनवरत अपनाने (अमल में लाने) ही से हम आगे को बढ़ते हैं, हमारी उन्नति होती है! इस चक्र का घूमना ही हमारे मोटिवेशन का कारण होता है, अन्यथा हम यूं ही निष्क्रिय पड़े रहें और अपनेआप को अच्छा बनने के लिए प्रेरित न कर पाएं, कोई कारण ही न मिले हमें आध्यात्मिक दिशा में कोई पुरुषार्थ (यानी विपरीत परिस्थितियों में अच्छे बनने का प्रयास) करने का! ...ठोस प्रेरणा और पूर्ण आश्वासन हमें विज्ञान (अर्थात् कार्यकारण-भाव) समझने पर ही मिलता है. ...तो अध्यात्म एक प्रकार से शास्त्र (अर्थात् 'विज्ञान') ही हुआ; जो बेड़ियों, अंधविश्वासों, कट्टरता आदि से बहुत परे तथा विशुद्ध रूप से अनुभव-अनुभूति आधारित ज्ञान और उस ज्ञान से प्राप्त अकाट्य नियमों-सिद्धांतो पर आधारित है. उदाहरण के लिए-- "क्रिया-प्रतिक्रिया का सिद्धांत" उन नियमों-सिद्धांतों में से एक है. ...लेकिन फिर से आपकी बात का समर्थन कि नियमों-सिद्धांतों को हम फ्रेम करवा कर कमरे में टांग दें, उससे कुछ भी हासिल होने वाला नहीं! उनपर अमल करके ही हम आध्यात्मिक हो सकते हैं. यानी 'नियमों-सिद्धांतों' और 'अमलीकरण', दोनों ही की परम आवश्यकता! 'नियम सिद्धांत' यानी 'अध्यात्मशास्त्र' (जिज्ञासु बुद्धि से खोजा गया विज्ञान); ..और उनपर 'अमलीकरण' यानी 'आध्यात्मिक' (सही मायनों में अच्छा) बनने की प्रक्रिया.

(३) देश की आज वर्तमान हालत के लिए कौन ज़िम्मेदार है और क्यों...? क्या हम एक सफल गणतंत्र कभी बन पाएंगे??
हमारे देश का अभिजातवर्ग ! ...हममें से 99 प्रातिशत लोग अनुयाई होते हैं और वे अभिजात-वर्ग (मात्र 1 प्रतिशत) का अनुसरण करते हैं. अभिजात-वर्ग का सिरमौर देश का शासक होता है; उससे नीचे अन्य राजनेता, एवं उसके नीचे आध्यात्मिक गुरु, अभिनेता, खिलाड़ी, शासकीय अफसर, जज, डॉक्टर, वकील, अध्यापक आदि आते हैं. वर्तमान हालत के लिए आम जनता को गुनाहगार ठहराना सरासर बेवकूफी होगी. अभिजात्यों की गलती या गलत आचरण से आम जनता में भी वैसे ही संस्कार पनपते हैं, ..फिर ठगी भी वही जाती है, लांछन भी उसी पर लगता है, और कहर भी उसी पर टूटता है. आज (बल्कि पिछले अनेक वर्षों से) देश की क्रीमी लेयर जो कर रही है, वह देश के समस्त मूल्यों को नीचे गिरा रही है. आशावादी हूँ तो यह तो अवश्य कहूँगा कि कोई बड़ी क्रांति तो कहीं गहरे में अवश्य सुलग रही है.

(४) जब सारे रास्ते बंद हो रहे हों, तो इंसान को कौन सा मार्ग अपनाकर जीने की नयी राह मिलती है....?? कभी कभी साहस भी जवाब दे देता है...
सबसे पहले स्वयं पर ही दृष्टिपात करने की आवश्यकता है कि कहीं मेरे ही किसी स्वार्थ, आकांक्षा, या आचरण के कारण तो ऐसा नहीं हो रहा?! यदि अहंकार को एक किनारे रखकर सोचने पर हमें 'वास्तव में' खुद की क्लीन चिट मिल जाती है तो फिर दौर शुरू होना चाहिए पुरुषार्थ यानी योग्यतम कर्म या प्रयास का! यदि वर्तमान परिस्थितियां बहुत कठिन या विपरीत हैं और प्रयास (कर्म) करना दूभर है तो भी मन के स्तर पर कर्म होते रहना चाहिए. यानी मन में योग्य कर्म के लिए आग अवश्य जलती रहनी चाहिए. ऐसा अनवरत होता रहता है तो किसी उचित समय पर कोई न कोई मार्ग ईश्वर भी निकालते हैं. पर पुनः, ..इसके लिए आवश्यक है हमारा कर्मरत रहना या मन में यह तीव्र इच्छा रहना कि थोड़ा सा भी सहयोग या मौका मिलते ही मैं पूरी सक्रियता से क्रियाशील हो जाऊंगा! पुराने समय के समुद्री जहाज भी जब बंदरगाह पर बेड़ा (लंगर/एंकर) डालते थे तब महीनों खड़ा रहने पर भी उनके इंजन को आइडलिंग स्पीड पर लगातार चालू रखा जाता था. न्यूनतम लेकिन लगातार ईंधन सप्लाई से उसका इंजन अनवरत टुक-टुक करता चलता रहता था यानी 'ऑन' रहता था. फिर जैसे ही जहाज के कप्तान को आदेश मिलता था, वह जहाज तुरंत अगले गंतव्य को चल देता था. 'तुरंत' इसीलिए क्योंकि वह गर्म है, चलने को उद्यत (तत्पर) है, वह तो बस परिस्थितिवश यूं ही खड़ा हो गया था बंदरगाह पर! ..पर क्या उसको यह मालूम था कि परिस्थितियां आगे चलने के लिए कब अनुकूल होंगी, या चलने के लिए आदेश कब आएगा??? बिलकुल भी नहीं, ...लेकिन फिर भी उसकी तैयारी पूरी थी, कभी भी निकल पड़ने की! साधना हो या सामान्य जीवन, ...हमें खुद को उस जहाज के समान बनाना होगा- सम्पूर्ण रूप से तत्पर होकर सही मौके का इंतजार, फिर यात्रा शुरू. पुनः, ..लगातार गर्म (मानसिक रूप से तैयार) रहना अत्यावश्यक.

(५) सेल्फ-रियलाइज़ेशन के लिए क्या 'मैडिटेशन' ही एकमात्र मार्ग है? या किसी बिलकुल भिन्न रास्ते पर चलकर भी हम अपने सत्य तक पहुँच सकते हैं? चाहे लोग इसको महसूस न करें लेकिन व्यक्तियों सहित सभी चीजों का अपना एक स्थान और कार्यशैली है.
आनंद जी ने सेल्फ-रियलाइज़ेशन (आत्म-अनुभूति) के विषय में बहुत अच्छा बताया. अंततः उनके अनुसार 'मैडिटेशन' यानी 'योग' का दीर्घ अभ्यास ही सेल्फ-रियलाइज़ेशन की 'एकमात्र' सही विधि है! ..लेकिन 'मैडिटेशन' भी तो अनेक प्रकार का बताया जाता है!!! ...एक आम व्यक्ति को 'मैडिटेशन' शब्द बहुत भारी-भरकम सा महसूस होता है, जिसमें एक विशिष्ट आसन और मुद्रा में बैठकर, शायद साँस के ऊपर नियंत्रण या नजर रखकर आत्मा को परमात्मा से जोड़ने का 'टू-वे' प्रयास किया जाता है!!! ..ऐसा तो शायद कुछ लोग पूजा, प्रार्थना और नामजप द्वारा भी संभव बताते हैं!! ..अपनी-अपनी अनुभूति और अनुभव हैं! ..मेरे विचार से प्रत्येक व्यक्ति अपने आप में यूनिक अर्थात् विलक्षण है. यह तो सत्य है कि प्रत्येक की आत्मा (और परमात्मा) का मूल गुणधर्म (प्रॉपर्टीज) समान हैं, इसलिए वास्तविक आत्मानुभूति के पश्चात् अंतिम परिणाम (ज्ञान या निचोड़) सभी को एक सा प्राप्त होता है. परन्तु व्यक्तियों के अन्य भौतिक गुणधर्म अलग-अलग होने के कारण और देश-काल-परिस्थिति भी भिन्न-भिन्न होने के कारण मैं नहीं समझता कि 'आन्तरिक यात्रा' का मार्ग एक सा होना संभव है! यह असंभव है! ..बहुत से तथाकथित ज्ञानी जन लिखित अथवा उद्घोषित मार्गदर्शन में 'समस्त' जिज्ञासुओं को कोई एक 'विशिष्ट' समान मार्ग अपनाने को कहते हैं. यह वही मार्ग होता है जिस पर चलकर उस ज्ञानी को आत्मानुभूति हुई. ..वह यह क्यों नहीं समझता कि अन्य की राह कोई दूसरी भी हो सकती है!!! क्योंकि प्रत्येक की संस्कृति, भाषा, परिवेश आदि उसे काफी हद तक प्रभावित करते हैं. किसी भी साधना के आरंभ में ही अपने पूर्वस्थापित संस्कारों को तिलांजलि देना लगभग असंभव ही है! यही कारण है कि मैडिटेशन की कोशिश तो बहुत करते हैं परन्तु अंत में सफलता (आत्मानुभूति) बहुत कम को ही मिलती है. ..और यदि व्यक्ति के परिवेश आधारित संस्कारों को छेड़े बिना उसे किसी विशिष्ट मार्ग चुनने की बाध्यता से मुक्त कर दिया जाये, और उसे सिर्फ परिणाम (जोकि समान ही होता है) के बारे में बताकर मात्र उसके लिए प्रेरित किया जाये तो आत्मानुभूति होने की सम्भावना अधिक हो जाती है. ज्ञानी जनों को यह स्मरण रहना चाहिए कि वे किसी के लिए प्रेरक या उत्प्रेरक का काम कर सकते हैं परन्तु मार्ग निर्धारित नहीं कर सकते! मैडिटेशन है क्या आखिर?? सरल भाषा में कहें तो मस्तिष्क का आत्मा से जुड़ाव, या आत्मा का मस्तिष्क से जुड़ाव! फिर आत्मा (सार्वभौमिक आत्मिक नैसर्गिक गुणों) का मानव-मस्तिष्क पर प्रभुत्व! यह हो गया तो आत्मानुभूति हो गयी समझिये. और जिसको वास्तविक आत्मानुभूति हो जाती है वह हर पल आत्मा (या परमात्मा) के सान्निध्य में है, यानी हर पल मैडिटेशन की अवस्था में है, बिना किसी विशिष्ट आसन या मुद्रा के! ..मैंने चंद शब्दों में मैडिटेशन या आत्मानुभूति की व्याख्या करने का दुस्साहस किया, वस्तुतः यह सब शब्दों के जंजाल से कोसों दूर है. सेल्फ-रियलाइज़ेशन हजारों-लाखों तरह से संभव है! हाँ रियलाइज़ेशन के पश्चात् ज्ञान रूपी परिणाम समान ही होता है और वह भी शब्दों में व्यक्त करना असंभव है.