Friday, May 18, 2018

(९४) चर्चाएं ...भाग - 13

(१) कौन सही है और कौन गलत? अगर एक लड़की को उसका पति शादी के बाद ना मन से ना धन से और ना तन से सुखी रख पता है और वही प्रेम कोई और उस लड़की को देता है एक सच्चे जीवनसाथी की तरह और वह लड़की अपने पति को छोड़कर उस इंसान से शादी कर सकती है जिसने उसका साथ दिया या यह कोई पाप है?
वैवाहिक जीवन में तन, मन और धन इन तीनों के सुख से भी बड़ी चीज है - "वफ़ादारी" अर्थात् "एक-दूसरे के प्रति पूर्ण निष्ठा"! ..इसके अतिरिक्त गहरी मित्रता, समर्पणभाव, एक-दूसरे की सम्पूर्ण केयरिंग आदि भी वैवाहिक जीवन को सुदृढ़ और सफल बनाते हैं. .....यदि ये सब गुण दोनों में हैं तो जीवनसाथी स्वतः ही तन, मन और धन से एक-दूसरे को सुखी रखने की सर्वोत्तम चेष्टा करेंगे ही! एक ही समय में एक से अधिक के प्रति जीवनसाथी समान सम्पूर्ण निष्ठा रखना वो भी बिना छुपाये (खुलेआम), साधारण मानव के लिए यह बिलकुल असंभव है. समाज या सामाजिक नियम भी इसकी स्वीकृति नहीं देते और ना ही हमारी अंतरात्मा ! हाँ, सुखी न रहने की दशा में समाज-सम्मत ढंग से सम्बन्ध विच्छेदन पश्चात् अन्य से विवाह संभव है. ..परन्तु यह गांठ बांध लें कि बिना विवाह किये वैवाहिक जीवन के सुख, निष्ठा आदि 'खुले तौर पर' और 'चिरकाल' के लिए पाना व देना बिल्कुल असंभव है (या दोनों में से कोई तो एक कभी भी सम्बन्ध तोड़ देगा, पलायन कर जायेगा). यदि हम फिर से कोई अन्य साथी ढूंढेंगे तो 'स्थायित्व' तो नहीं मिला न हमें! अतः विवाहेतर सम्बन्ध अथवा लिव-इन रिलेशन हमें "स्थायित्व और गरिमा" नहीं प्रदान कर सकते. ..खानाबदोशों सी जीवनशैली सदा के लिए स्वेच्छा से अपनाना भी कोई बुद्धिमानी नहीं है; और न ही इसमें चिरस्थाई सुख है. अतः एक असफल विवाह तोड़कर, पुनः सोचसमझकर किसी अन्य योग्य एवं सिंगल व्यक्ति से समाज-सम्मत ढंग से दूसरा विवाह करना कोई पाप नहीं वरन यह सभी तरह के सुखों को स्थाई आमंत्रण है.

(२) एक सच्चे जीवन साथी की पहचान कैसे करें क्योंकि इस दौर में सही इंसान की पहचान करना बहुत मुश्किल है!?
व्यक्ति को स्वयं की अंतःप्रेरणा से ही एक सच्चे जीवनसाथी की पहचान हो सकती है; और योग्य अंतःप्रेरणा जागृत होने के लिए व्यक्ति का मानसिक और आध्यात्मिक रूप से परिपक्व होना बेहद आवश्यक है! मानसिक और आध्यात्मिक परिपक्वता हमें अपने अनुभवों, स्वभावदोषों पर नियंत्रण और मन की शुचिता के प्रयासों से हासिल होती है. इसके लिए हमें निरंतर भौतिक जीवन एवं स्व से ऊपर उठकर अपनी सोच को व्यापक विस्तार देने की आवश्यकता होती है. जब ऐसा वास्तव में हो जाता है तो जीवन में योग्य प्रसंग कुछ कोशिश से और कुछ स्वतः ही घटित होने लगते हैं; ...योग्य समय पर योग्य जीवनसाथी का मिलना भी उनमें से एक होता है. वैसे ज्ञानियों के अनुभवों से एक बात तो सामने आई है कि व्यक्ति के जीवन में तीन घटनाएं प्रारब्धवश घटित होती हैं- जन्म, मृत्यु और विवाह! वैसे देखा जाये तो प्रारब्ध का निर्माण भी तो व्यक्ति के किसी काल के खुद के कर्मों से ही होता है!!!

(३) भगवद् गीता के ज्ञान को अधिकाँश लोग सही तरह समझने में समर्थ क्यों नहीं हो पाते...? गीता का ज्ञान वास्तव में ठीक प्रकार से समझने के लिए जीव को आत्मशुद्धि ज़रूरी है!
गीता का ज्ञान विशुद्ध आध्यात्मिक ज्ञान है, ..और आध्यात्मिक ज्ञान को समझ पाना उन्हीं के लिए संभव है जो सरल और सहज स्वभाव के होते हैं. स्वभाव में सरलता आना तभी संभव है जब व्यक्ति दुनियावी आसक्ति से कुछ परे हो. आसक्ति (सांसारिक दांवपेंच) और सरलता एक साथ तो होना संभव नहीं है ना! तो सांसारिक आसक्ति के साथ गीता में किसका मन रमेगा!? कोई यदि बलात् गीता को पढ़ ले, कंठस्थ भी कर ले, तब भी वह उसे भलीभांति समझ न पाएगा! यदि कोई समझने में सफल हो भी गया तो मानों उसने ५% प्राप्त कर लिया; शेष ९५% प्रतिशत वह तब हासिल करेगा जब वह उस पर रोजाना के जीवन में निरंतर अमल करेगा! बहुतायत के दुनियावी संस्कार और जीवात्मा पर पड़ा अविद्या का मोटा पर्दा उन्हें गीता को समझने या उसपर अमल करने से रोकते हैं. ...दुनियावी संस्कार और अविद्या के आवरण का नाश केवल यथोचित साधना द्वारा ही संभव है. स्वाध्याय, अच्छा साहित्य और अच्छे लोगों का 'निरंतर' संग, ये सब सम्मिलित रूप से करना एक प्रकार की साधना ही है. इससे हमारी सोच सरल और व्यापक होती है और हम उचित कर्मों की ओर अग्रसर होते हैं; और फिर गीता का ज्ञान अपनेआप उन कर्मों में प्रतिबिंबित होता है.

(४) नैतिकता के अभाव में आज जीवन किस तरह से प्रभावित हो रहा है...?? आज जीवन का हर क्षेत्र निजी से लेकर राजनीति तक बुरी तरह इस के शिकार हो चुके हैं.
हम सभी लोग जो इस प्रकार से प्रभावित हैं वो शायद अपने प्रारब्धवश ही नैतिकता के इस पतन को देखने और भोगने के लिए विश्व के इस भूभाग पर रहने के लिए बाध्य हुए हैं!!! चाहे हम लाख कहते रहें कि हमारी सभ्यता, संस्कृति, ज्ञान आदि विश्व में सर्वश्रेष्ठ हैं, परन्तु सत्य तो यही है कि ये सब अतीत की बातें हैं. वर्तमान में  तो विश्व के इस भूभाग पर अनैतिकता का दलदल विशाल होता जा रहा है जिसमें हम बुरी तरह फंसते जा रहे हैं, छटपटा रहे हैं! समाज, नौकरशाही और राजनीति के अलावा अपेक्षाकृत शुद्ध कहे जाने वाले धार्मिक / सामाजिक धर्मार्थ ट्रस्टों में भी अनाचार, भ्रष्टाचार और लोकेषणा के लोभ आदि की बेकाबू होती विकट परिस्थितियों के चलते आध्यात्मिक जगत के योग्य मार्गदर्शक भी मौन होकर एकांतवास में पलायन कर रहे हैं!

(५) बुरे समय में लोग ज्ञान को क्यों भूल जाते हैं?
क्योंकि उनका ज्ञान शायद उथला है या उन्हें उस ज्ञान पर विकल्प-रहित विश्वास नहीं! बहुधा लोगों का विश्वास अनुकूल परिस्थितियों में तो कायम रहता है, परन्तु जरा सी प्रतिकूलता आते ही छिन्न-भिन्न हो जाता है. क्योंकि कुछ तो उनके विश्वास में कमी है और कुछ उस ज्ञान में जो उन्हें कहीं से मिला है; ..या ज्ञान देने वाला शायद खुद उसपर अमल नहीं करता तब भी शिष्य (अनुयायी) के साथ ऐसा होता है!!! ..वैसे मेरा मानना है कि स्वयं के अनुभवों और अनुभूतियों से जो ज्ञान सूक्ष्म रूप से आता जाता है केवल वो ही चिरस्थाई होता है. लेकिन पुनः..., वो ज्ञान भीतर आना और उस ज्ञान का चिरस्थाई होना तब ही संभव है जब व्यक्ति अपने जीवन में आने वाले प्रसंगों, अनुभवों, और अनुभूतियों आदि से उत्पन्न ज्ञान को लेने की प्यास रखे और बड़े मनोयोग से उसे धारण करे! किताबी और सुने-सुनाए ज्ञान की आयु बहुत छोटी होती है, चाहे वह कितना ही अच्छा क्यों न हो!!! हाँ..., किताबी और सुना-सुनाया ज्ञान तब असरदार और स्थाई हो सकता है जब व्यक्ति उस पर निरंतर अमल करके कुछ सुखद अनुभूति ले. पुनः, यह सिद्ध हुआ कि अनुभूत करना तो अनिवार्य है!