Tuesday, June 12, 2018

(९८) चर्चाएं ...भाग - 17

(१) असली पल क्या है, जिसको देखो यह कहता है यह पल ही जीवन है!?
कुछ दार्शनिक सा किन्तु बिल्कुल सत्य है यह वाक्य- "यह पल ही जीवन है, जी भर के इसे जी लो." ...'यह पल' यानी 'वर्तमान'! 'भूतकाल' में जो गुजर गया, उसने हमारे अनुभवों, परिपक्वता आदि में वृद्धि की; भूतकाल का महत्त्व बस इतना सा ही किन्तु उपरोक्त दृष्टिकोण से लाभदायक है! और वर्तमान में हम जो भी चिंतन-मनन और तदनुसार 'कर्म' करेंगे, उनसे हमें सबसे अधिक वर्तमान में और 'संभवतः' भविष्य में भी लाभ होगा! यहाँ 'संभवतः' इसलिए कि 'भविष्य' दूर है, और भविष्य के बारे में हम कुछ भी ठोस रूप से कहने और अपेक्षा रखने में असमर्थ हैं. अतः संदर्भित कथन (यह पल ही...) हमें वर्तमान पल का भरपूर, सम्पूर्ण और सबसे बढ़िया 'उपयोग' करने के लिए प्रेरित करता है. आज, ..इस पल हमारे समक्ष उपस्थित ढेरों विकल्पों में से किया गया सर्वोत्तम संभव कर्म का चुनाव ही 'इस पल को जीना' है! वह चुनाव भौतिक जगत से सम्बंधित भी हो सकता है, और आध्यात्मिक जगत से सम्बंधित भी! कोई भी फर्क नहीं पड़ता कि हम दोनों में से क्या चुनते हैं!!! बस शुभ और सार्थक, साथ ही अपने और संबद्ध व्यक्ति के मन-हृदय-आत्मा को आह्लादित करने वाला होना चाहिए. ऐसा चुनाव होगा तो वर्तमान तुरंत ही सुन्दर होगा और भविष्य में भी शुभ की आशा बनेगी! इन सब के अतिरिक्त इस 'वाक्य' के पीछे जो सबसे महत्वपूर्ण सत्य छुपा है वह यह कि, यह भौतिक जीवन क्षणभंगुर है, कोई नहीं जानता कि इस जन्म का कितना समय शेष है. और यह वर्तमान जन्म और सम्बद्ध परिस्थितियां हमें अपने पूर्वकर्मों की बदौलत मिले हैं. यह जीवन अनमोल है क्योंकि यह सीमित है और इसका भरपूर सदुपयोग करने की ईश्वरीय अपेक्षा भी इसके पीछे निहित है; और यह जीवन कर्म-प्रधान ही है तो क्यों न हम इस जीवन के हर पल को संभावित आखिरी पल मानकर उसे भरपूर जियें!!! पुनः, ...वर्तमान में, ..आज, ..या इस पल, ...उपलब्ध विकल्पों में से यथासंभव सर्वश्रेष्ठ को चुनने के बाद, या संयोग से ही एकाएक समक्ष आए, प्रत्येक कार्य को कर्तव्य समझकर मन लगाकर, दिल लगाकर, पूरी तन्मयता, कुशलता और सम्पूर्णता से हंसी-खुशी उसे करना ही उस पल को भरपूर जीना है. चाहे वह कार्य पढाई-लिखाई से सम्बंधित हो, चाहे खेलने-कूदने से, चाहे नाचने-गाने से, चाहे गहन आध्यात्मिक साधना से, चाहे सच्चे प्रणय निवेदन से, चाहे संगीत साधना से, चाहे वह किसी से भी सम्बंधित हो! यही भौतिक उपासना है और यही आध्यात्मिक भी!!! "योगः कर्मसु कौशलं", ...इस अप्रत्याशित जीवन के इसी पल पूरी कुशलता के साथ किया कर्म ही योग (ईश्वर से जुड़ना) है!

(२) मृत्यु का भय क्यों होता है?
अध्यात्मशास्त्र का हिन्दू दर्शन कहता है कि, "शरीर की मृत्यु होती है, आत्मा की नहीं"; ईसाई और इससे मिलते-जुलते दर्शन के अनुसार, "मृत्यु के बाद भी योग्य व्यक्तियों का पुनरुत्थान होगा." ...फिर भी सामान्य व्यक्ति को मृत्यु का भय होता है क्योंकि उसने प्रत्यक्ष में ऐसा होते तो देखा नहीं और दूसरे अप्रत्यक्ष किन्तु कुछ ठोस सूक्ष्म ज्ञान-अनुभूतियों से भी वह वंचित है. ..थोड़ी बहुत सूक्ष्म समझ रखने वालों को भी मृत्यु का भय सताता है क्योंकि उनकी फिलोसोफी के अनुसार, "यह मानवजन्म प्रारब्ध भोगने व कर्म करके कुछ अच्छा संचित (पुनरुत्थान सुनिश्चित करने के दृष्टिकोण से भी) करने के निमित्त ही है", तो यह जीवन जितना अधिक लंबा हो जाये उतना ही बेहतर!! ...और उत्तम ज्ञानी व्यक्ति इस जीवन की भंगुरता को भी समझते हैं और कर्म की गुणवत्ता के महत्व को भी! वे जानते हैं कि इस जीवन के प्रत्येक पल को आखिरी जानकर अविलम्ब किये गए सर्वोत्तम शुभ-कर्म ही उसकी आत्मा के आगामी सुंदर सफर या पुनरुत्थान सुनिश्चित करने के लिए निर्णायक साबित होंगे! वे जिंदगी के हरएक पल की अहमियत को समझकर उसे भरपूर सार्थकता के साथ हंसी-खुशी जीते हैं; वे लगभग भयमुक्त होते हैं!

(३) प्रतिदिन कुछ नया सीखना ज्ञान है , हरदिन कुछ नकरात्मकता दूर करना विवेक है और ज्ञान से विवेक की यात्रा ही सही मार्ग है...? दुनिया में ज्ञानी तो बहुत हैं किन्तु विवेकी शायद कोई विरला ही होगा ...क्यों?
दुनिया में ज्ञानी तो बहुत हैं, किन्तु विवेकी बहुत कम; आपके इस कथन से मैं भी सहमत हूँ. सही बात है कि हमारे देशवासियों के पास जितना ज्ञान का भंडार है उतना अन्यत्र शायद कहीं नहीं होगा, लेकिन उसका विवेकपूर्ण और सतत इम्प्लीमेंट विरले ही देखने को मिलता है. यहाँ तो अपेक्षाकृत कम पढ़ा-लिखा एक नाई, एक पान वाला, रिक्शावाला, रेहड़ी वाला तक परम ज्ञान रखते हैं; और पढ़े-लिखों की तो बात ही निराली है, वे तो अथाह ज्ञान के सागर हैं; यानी आध्यात्मिक समझ भरपूर है, लेकिन उनका विवेक इस ज्ञान को नहीं अपनाता! वह इस ज्ञान का व्यावहारिक समर्थन, अनुपालन या आचरण करता नहीं दिखता! असल में करना कुछ नहीं और मात्र ज्ञान के फुलाव को प्रदर्शित करना ही यहाँ लोगों के टाइम-पास का एक बढ़िया जरिया बन गया है! आज के स्टेटस सिंबल रूपी अधिकांश सत्संगों और आध्यात्मिक मंचों/केन्द्रों तक में इसकी बानगी दिखाई पड़ती है. इसीलिए तो नकारात्मकता कम होने का नाम नहीं ले रही, अपितु दिनोंदिन बढ़ ही रही है.

(४) सम भाव कैसे रखा जाये?
अपने सूक्ष्म और असल स्वरूप को पहचान कर यानी अपनी आत्मा के मूल गुणधर्म (प्रॉपर्टीज) को पहचान कर, उपरांत उसी के अनुसार रोजमर्रा की जिन्दगी में आचरण करने पर ही सम-भाव रख पाना संभव है. सूक्ष्म या आध्यात्मिक ज्ञान बहुत जरूरी, और उससे भी बहुत-बहुत जरूरी है- जीवन में उसे लागू करना! 'वसुधैव कुटुम्बकम्' का भाव उसी के बाद ही जन्म ले सकता है!

(५) प्रायः सभी को एक शिकायत तो अक्सर रहती ही है - बुरा काम कोई नहीं किया, किसी को सताया या परेशान भी नहीं किया; फिर भी दूसरे लोग परेशान करते हैं,और जीवन में दुःख बना ही रहता है!?
अक्सर अपने अहंकार या इगो के कारण लोगों को अपनी गलतियाँ दिखाई नहीं पड़तीं या समझ में नहीं आतीं! ...या फिर उनके द्वारा हुई गलतियाँ (अयोग्य क्रियाएं) उनकी यादाश्त की सीमा से ही बाहर होती हैं! हमारे जीवन में होने वाली प्रत्येक घटना के पीछे कोई न कोई ठोस कारण अवश्य है, भले ही हम उसे ज्ञात न कर पाएं. ..यह ठोस कारण वे ज्ञात-अज्ञात क्रियाएं ही हैं जो हमने वर्तमान, निकट अतीत या बहुत पहले कभी कीं. प्रकृति का ताना-बाना केवल कुछ प्रतिशत ही बूझा है हमने! उदाहरण के लिए-- जब कोई मनुष्य किसी लालच में आकर किसी पहाड़ी क्षेत्र में पर्यावरण के साथ खिलवाड़ करता है, पहाड़ों की चट्टानों, पत्थरों आदि को बांधे रखने वाले पेड़ों को अंधाधुंध काट डालता है तो उसके बाद जब कोई जियोलॉजिस्ट वहां का दौरा करता है तो वह अपने अर्जित ज्ञान के आधार पर भविष्य में भूस्खलन की प्रबल सम्भावना तो बता देता है, लेकिन यह पूछने पर कि तबाही कब आयेगी, वह कोई ठोस या बिलकुल सही-सही उत्तर नहीं दे पाता! एकदम सटीकता से "कब?" का उत्तर ना दे पाना यही दर्शाता है कि प्रकृति के ताने-बाने का बहुत कुछ हिस्सा हम अभी भी नहीं जानते! ..लेकिन यह जानते हैं कि क्रिया के फलस्वरूप उसी प्रकृति की कोई अन्य प्रतिक्रिया अवश्य आयेगी, पर किस रूप में और कब (???), इसका सटीक आंकलन करने में बड़े-बड़े मनीषी भी असमर्थ हैं! ...तो फिर से मुख्य विषय पर आते हुए, ...हमारे जीवन से जुड़ी प्रत्येक घटना हमारी अपनी ही नयी-पुरानी क्रियाओं की गूँज/प्रतिध्वनि है. आने वाले भविष्य की घटनाएं सुखद हों, इसके लिए बहुत आवश्यक है कि हम अपनी वर्तमान क्रियाओं को अच्छे से अच्छा करें. ..और यदि हम वर्तमान में वास्तव में भला काम ही कर रहे हैं तो निश्चिन्त रहें कि उसका प्रतिफल निकट भविष्य या कभी दूर भविष्य में अवश्य प्रकट होगा. ......कोई किसान जो घटिया बीज और घटिया खाद पिछली फसलों को बोते समय डाल चुका, उसका खामियाजा तो अभी वह भुगत ही रहा होगा; पर साथ ही अभी इस वक्त जब वह जाग्रत हो कर बढ़िया बीज और बढ़िया खाद डाल रहा है, तो इस क्रिया से उसकी आने वाली फसलों के अच्छे होने की सम्भावना अब प्रबल है!

(६) जीवन में मार्गदर्शन क्यों जरूरी है?
नित कुछ सीखने और सिखाने के लिए मार्गदर्शन लेना और देना, दोनों ही आवश्यक हैं. कहीं और कभी हम शिष्य या स्टूडेंट होते हैं तथा कहीं और कभी हम टीचर भी होते हैं! जीवन में समानांतर रूप से दोनों भूमिकाएं मिलती हैं हमें! जो दोनों का ही समान रूप से लाभ उठाये, वो शीघ्र उन्नति करता है तथा दूसरों को भी लाभ पहुंचाता है.

Thursday, June 7, 2018

(९७) चर्चाएं ...भाग - 16

(१) हम अपने भोजन का परिणाम हैं! जिस प्रकार का वह भोजन करेगा, वैसा ही उसका व्यक्तित्व निर्मित होगा!
कल व्हाट्सएप पर अंग्रेजी में एक शॉर्ट मैसेज मिला, जिसका हिंदी अनुवाद कुछ इस तरह है- "उन्नत या अच्छे होने का मतलब यह नहीं कि आप पीते नहीं, धूम्रपान नहीं करते, दावतों-पार्टियों में नहीं जाते, शाकाहार ही खाते हैं; बल्कि आपका उन्नत या अच्छा होना आपके हृदय में चल रही भावनाओं, शिष्टाचार और लोगों के प्रति आपके सम्मान व व्यवहार से जाहिर होता है." .....हाँ, यदि मैं आपके शब्दों के भाव को आगे दिए वाक्य अनुसार सकारात्मक रूप दे दूं तो आपका कथन सर्वथा सही हो जायेगा-- "जो जिस उपाय से भोजन (या अपनी कोई अन्य मूलभूत आवश्यकता / जीविका) अर्जित करता है (जुटाता है), उसी प्रकार से उसके व्यक्तित्व का निर्माण होता है." ....इस विषय पर आप मेरे विचारों को विस्तृत रूप से "(१९) खान-पान और धर्म" में पढ़ सकते हैं.

(२) भरोसा मजबूत होगा तो आप निडर होंगे! आज भरोसा की ही कमी है अतः कोई किसी का सम्मान भी नहीं करता!
सच है कि यदि हमें ईश्वर और खासतौर पर सार्वभौमिक ईश्वरीय सिद्धांतों पर पूरा भरोसा होगा तो हम निर्भय रहेंगे. यहाँ प्रचलित वर्तमान धारा के विपरीत भी सभी प्रकार के अच्छे और न्यायसंगत कार्य करने में हमें कोई संकोच, संशय अथवा भय नहीं होगा; भले ही कोई त्वरित एवं उचित प्रतिसाद (रेस्पोंस) न मिले तिसपर भी! व्यक्तियों के परिपेक्ष्य में यदि भरोसे की बात की जाये तो, एक-दूसरे पर विश्वास और एक-दूसरे के प्रति सद्भावना से ही परस्पर सम्मान दिया और लिया जा सकता है. क्रिया के अनुसार ही तो प्रतिक्रिया प्राप्त होती है!

(३) सामाजिक बुराइयों से क्या एक स्त्री अकेली लड़ सकती है...?
जी हाँ! ...वैसे घर वालों और समाज के जागरूक तबके का सहयोग मिले तो थोड़ी आसानी रहती है. पर बहुत से मामलों में हमें ये दोनों सहयोग भी नहीं मिल पाते! तब लड़ते-जूझते बारम्बार नाकामी भी मिलती है और इससे हौसला भी पस्त होता है, अनेकों बार मन में निराशा और हताशा आ जाती है. फिर भी कहूँगा कि एक स्त्री में एक पुरुष से अधिक साहस, धैर्य, व दृढ़ता जैसे गुण होते हैं. इसलिए किसी भी समस्या से जूझने की कालावधि एवं सामर्थ्य एक स्त्री में पुरुष से अधिक होते हैं. धैर्य का गुण होने से बहुत विषम परिस्थितियों में भी एक स्त्री अपने मस्तिष्क को ठंडा रखते हुए बखूबी बहुत सूझबूझ वाले निर्णय ले सकती है. अपनी इन विशेषताओं को पहचानकर और उनपर भरोसा कर अब वह समस्याओं से लड़ने के लिए अकेले ही ठन्डे दिमाग से सर्वोत्तम न्यासंगत प्रयास करे! कोई मानवीय साथ न मिलने की दशा में अपने प्रयासों की प्रक्रिया में यदि वह अपने आध्यात्मिक पक्ष को भी ठोस और मजबूत कर ले तो वह टूटेगी नहीं और अनेक विफलताओं के बावजूद बिना थके और बिना अवसादग्रस्त हुए उसके प्रयासों का सिलसिला अनवरत चलता रहेगा! क्योंकि प्रत्येक असफल प्रयास के बाद भी उसे 'भरोसा' है कि उसका यह प्रयास ईश्वरीय सिद्धांतों के अनुसार कहीं न कहीं दर्ज अवश्य हो रहा है और किसी योग्य समय पर उसे इन योग्य प्रयासों का प्रतिफल किसी न किसी अच्छे स्वरूप में अवश्य मिलेगा! यह भरोसा ही हमें भीतर से एक दिव्य मजबूती देता है! निःसंदेह पुरुषों की अपेक्षा स्त्रियों में यह भरोसा बहुत अधिक होता है, यह बात कुदरती रूप से स्त्रियों के पक्ष में जाती है! जिसमें भरोसा अधिक, वह ही अधिक नैतिक!!! जो अधिक नैतिक, वह ही 'धर्म' (न्यायसंगतता) के पक्ष में!!! और जो न्यासंगत, उससे न्यायूर्ण ढंग से मिलने वाली सफलता या किसी अन्य प्रकार की ईश्वरीय अनुकंपा अधिक समय दूर नहीं रह सकती!!! इसीलिए तो मैंने अपने पूर्व आलेखों में भी अनेकों बार स्त्रियों को पुरुषो से कहीं अधिक श्रेष्ठ घोषित किया है. जागरूक स्त्रियों से मेरी विनम्र विनती है कि कृपया वे खुद को अबला, असहाय अथवा कमजोर समझकर पुरुषवर्ग की मानसिकता का अनुसरण करके उन जैसा बनने की चेष्टा न करें!!! आप पुरूषों से बहुत अलग और बहुत आगे हैं. अपना यह अनूठापन बनाये रखें. इस अनूठेपन के साथ कोई भी समस्या लम्बे समय तक आपको परेशान नहीं कर पायेगी. यह अनूठापन ही आपके स्वाभिमान को अक्षुण्ण रखेगा. पुरुषों के अनेकों पापों के बावजूद आपके इसी अनूठेपन ने अतीत में और वर्तमान में अनेकों बार अपने जीवनसाथी और सम्पूर्ण मानवजाति के पाप के घड़े को भरने से बचाया है, और फलस्वरूप इस धरा को सृष्टिकर्ता के कोप से बचाया है. कृपया अपनी विशिष्टता को गर्व के साथ सहेजें. ऐसी दिव्य शक्ति के शब्दकोष में 'मुश्किल' शब्द तो हो सकता है, किन्तु 'असंभव' शब्द तो कदापि नहीं!

(४) आज पाश्चात्य सभ्यता का हमारे नवयुवकों पर बढ़ता दुष्प्रभाव काफी घातक सिद्ध हो रहा है, ....क्या यह सही है? आज हमारे नवयुवक हर बात में पश्चिम को नक़ल कर अपनी संस्कृति के विरुद्ध जा कर परेशान हो रहे हैं ...जिसे आज अपनी शान समझ कर अपना रहे हैं, वही उनको तनाव दे कर बैचैन कर रहा है!
देखिये, इन्टरनेट के इस युग में और विभिन्न देशों के मध्य व्यापार सम्बन्धी अन्तर्राष्ट्रीय संधियों (आपसी लेनदेन) के इस युग में जहाँ सम्पूर्ण विश्व एक ही दायरे में सिमट आया है, वहां अब यह पूरब और पश्चिम की सभ्यता की बात करना व्यर्थ ही है! विश्व भर की समस्त सूचनाएं, खोजें व आविष्कार, फैशन, उपभोक्ता सामान, आदि सबकुछ अब सबको सहज उपलब्ध हैं. सूचनाओं, सामग्री और सोच का ढेर लगा हुआ है, चुनने के लिए ढेरों विकल्प हैं. ..अब मुद्दे की बात यह है कि अब यह हमारे ऊपर निर्भर करता है कि हम किसको चुनते हैं, किसको अपनाते हैं, बड़े हो रहे अपने छोटों को किस प्रकार की सलाह देते हैं, दिमाग को कितना खुला रखते हैं, खुद को कितना दूरदर्शी बनाते हैं और उस अनुभव से अपने छोटों को कितना दूरदर्शी बनाते हैं!!! आज जैसे हमारे पास ज्ञान और सामान का भंडार तथा उनमें से मनचाहा व श्रेष्ठ चुनने का विकल्प व स्वतंत्रता है, उसी प्रकार से यह सबकुछ लगभग सभी औसत रूप से समर्थ राष्ट्रों के नागरिकों के पास भी है. जिस राष्ट्र के शासक, अभिजातवर्ग, और नागरिक इन ढेरों विकल्पों के बीच जितना अच्छा चुनाव कर रहे हैं, वह राष्ट्र उतना ही समृद्ध व सुखी है; वहां की सामान्य सोच और जीवनशैली उत्तम है, कानून-व्यवस्था की स्थिति भी बहुत सराहनीय है! अब इन हालातों में यह पूरब और पश्चिम के भेद का फंडा अपनी समझ से तो परे है! .....सच तो यह है कि अपने संघ में फैली कुरीतियों, अव्यवस्था, बिगड़ी जीवनशैली, लुंजपुंज कानून व्यवस्था, नैतिक पतन आदि से दुखी और कुपित होकर खीजते हुए हम सारा दोष पश्चिमी सभ्यता के ऊपर मढ़ने की कोशिश करते हैं! देखिये गलत सोच और गलत चालचलन रूपी बैक्टीरिया-वायरस आदि विश्व में अब सभी जगह अपनी पहुँच रखते हैं, लेकिन कमजोर मनों-दिमागों-शरीरों में ही उनका प्रवेश या हमला संभव हो पाता है. क्या यह संभव नहीं कि हम मानसिक रूप से कमजोर या संकीर्ण थे/हैं?! जो संघ अपनी जीवनशैली, सोच, आचार-विचार आदि को सही और व्यावहारिक रखने में कामयाब है वह हमसे आगे है! हम यदि पीछे हैं तो अपने गलत चुनावों के कारण!!! जीर्णशीर्ण हो चुकी कुछ पुरानी मान्यताओं के प्रति अंधश्रद्धा भी उसका एक बहुत बड़ा कारण है, जितना बड़ा कारण आप पश्चिम के अन्धानुकरण को बताते हैं!!!! तमाम आधुनिकताओं और संसाधनों के बावजूद हम अभी भी जड़ बुद्धि हैं, हमारी अनेकों बेड़ियाँ और गलतियाँ हमें सही रूप से सक्रिय और उन्नत होने से रोक रही हैं! सिर्फ एक उदाहरण- आज का एक 'औसत' भारतीय युवा पढाई के क्षेत्र में किसी भी विषय की गहरी समझ बटोरने के बजाय उसका उथला अध्ययन करता है और शेष भगवान् के दरबार में हाजिरी लगाकर, प्रसाद चढ़ाकर प्राप्त कर लेना चाहता है! यह चीज उसने पश्चिम से नहीं बल्कि अपने बड़ों को ऐसा करते देखकर ही सीखी है!!! अनेकों अन्य उदाहरण हैं जिनके लिए शब्द कम पड़ जायेंगे, क्योंकि सामाजिक कमजोरियां हैं ही इतनी ज्यादा! आज के बिगड़े और तनाव लेने-देने वाले बच्चों के स्वभावदोषों के लिए जितना हम बच्चों या पश्चिमी सभ्यता को दोषी बताते हैं उससे अनेक गुना अधिक दोषी हम अभिभावक स्वयं हैं, जो बच्चों के समक्ष कोई भी अच्छा उदाहरण (अपने आचरण से) रखने में नाकाबिल सिद्ध हुए हैं. बच्चे तो कोरा कागज होते हैं, उनके मन-मस्तिष्क पर इबारत हम अभिभावक और आसपास का समाज ही लिखते हैं, उसी से उसका बुनियादी व्यक्तित्व बनता है. याद रखें- बुनियाद अच्छी तो इमारत अच्छी!

Saturday, June 2, 2018

(९६) चर्चाएं ...भाग - 15

(१) जीवन में योग का महत्व शारीरिक स्वास्थ्य के लिए ही है?
आजकल 'योगा' के नाम से मशहूर योग या योगाभ्यास मात्र शारीरिक व्यायाम ही है! कोई कितना भी कहे कि शरीर के साथ-साथ इससे आध्यात्मिक बलिष्ठता भी आती है, मगर ये सब कहने की बातें हैं. पहले के समय में शारीरिक और आध्यात्मिक दोनों के विकास पर जोर दिया जाता था, बल्कि आध्यात्मिक (सद्गुणों के) विकास की पहले सोची जाती थी! आध्यात्मिक विकास पहले सुनिश्चित होते ही उसी आध्यात्मिक विकास के बल पर शारीरिक विकास को भी एक अतिरिक्त लाभ के रूप में अर्जित किया जाता था. लेकिन आजकल के 'योगा' में शारीरिक विकास के बल पर आध्यात्मिक पक्ष के विकास को एक अतिरिक्त लाभ के रूप में प्रचारित किया जाता है. ..यह बिलकुल असंभव और मिथ्या बात है!!! आपने भी आध्यात्मिक तेज के बल पर स्वस्थ शरीर का होना देखा होगा, किन्तु मात्र शरीर की स्वस्थता हेतु प्रयास करने वालों के आध्यात्मिक गुणों में वृद्धि होती क्या देखी है आपने??? ईमानदारी से विचार करें! ...यह सब मैं अपने अनुभवों से कह रहा हूँ, क्योंकि लखनऊ के अतिरिक्त मेरा एक अन्य दूसरा निवास एक योगकेंद्र परिसर में ही है. सत्य तो यह है कि केवल समुचित साथ ही व्यावहारिक आध्यात्मिक साधना और खरा साधकत्व ही व्यक्ति की आध्यात्मिक उन्नति करता है, इसके पश्चात् वह शारीरिक योगसाधना भी बड़ी सरलता से कर सकता है; परन्तु केवल शारीरिक स्वास्थ्यलाभ के आकांक्षी व्यक्ति "योगा" (शारीरिक कसरत) करके अपने भीतर आध्यात्मिक साधकत्व को उत्पन्न नहीं कर सकते!

(२) आशा और विश्वास जीवन को सही दिशा दे कर जीवन जीने की राह प्रशस्त करते हैं, सो इन्हे खोने मत दो!! आधुनिक जीवन शायद कुछ अधिक जटिल होने से आज आत्महत्या के केस निरंतर बढ़ रहे हैं. ...अध्यात्म से जुड़ कर अपनी सोच को सकारात्मक बनाया जा सकता है!
हमारे समाज में आज जीवनशैली बदलने के साथ-साथ जीवन के मूल्य, नैतिक मूल्य, आचरण, स्वभाव आदि भी तेजी से बदल (नीचे की ओर जा) रहे हैं. जीवन के असली अर्थ, उद्देश्य आदि से लोग अपरिचित होते जा रहे हैं. एक अजीब सी आपाधापी चल रही है. व्यक्ति इससे अनभिज्ञ होता जा रहा है कि जिस भौतिक विलासिता, भौतिक सुखों और भौतिक भण्डारण के लिए वह दिन-रात एक किये दे रहा है वह तो जीवन का असल उद्देश्य है ही नहीं!!! प्रत्येक दिन के आखिर में शारीरिक और मानसिक रूप से अपने आपको बेतहाशा थकाकर वह जिस प्रकार यंत्रवत अपना जीवन चला रहा है वह उसे कुछ भौतिक प्रसन्नता तो अवश्य देता है पर उस प्रसन्नता की आयु लम्बी नहीं होती और ना ही वह स्थाई होती है. इससे खीजकर वह जटिलताओं, तनाव और अवसाद की ओर बढ़ता है, जिससे  आज हत्या और आत्महत्या दोनों के केस लगातार बढ़ ही रहे हैं. इसके अतिरिक्त शारीरिक और मानसिक शोषण के मामलों में भी निरंतर वृद्धि हो रही है. सोच में विकृतियाँ लगातार बढती जा रही हैं. इन सब के पीछे का कारण बताना पिछली बातों को दोहराना ही होगा कि "हम तेजी से स्वयं यानी आत्मा यानी आत्मिक गुणों यानी परमात्मा से दूर जा रहे हैं." इसके भीतर जाना तो दूर की बात, इसकी चर्चा भी सामान्यतः लोगों को बोझिल सी लगती है! ...कुछ उस ओर जाना भी चाहते हैं तो वह भी किसी लालच से ही, जैसे शरीर को अधिक समय तक फिट (या जिन्दा!!!) रखने के लिए योगाभ्यास के रूप में कुछ शारीरिक व्यायाम करना और यह सोचना कि इससे हमारा आध्यात्मिक विकास भी हो ही जायेगा, हमारा मन आदि भी शांत रहेगा!!! पर यह भी केवल मनोवैज्ञानिक मिथ्याभ्रम मात्र ही है. सच तो यह है कि मन में साधकत्व आने से ही कुछ ठोस और टिकाऊ सध सकता है!

(३) खुशी का मूल स्रोत क्या है?
हमारे मूल में हमारी आत्मा है, और इस आत्मा के कुछ मूल गुणधर्म हैं, ये मूल गुणधर्म ही साक्षात् 'धर्म' अर्थात् "सदैव 'सर्वथा योग्य एवं न्यायपूर्ण' आचरण के निरंतर समर्थन की नैसर्गिक सूक्ष्मतम वृत्ति"! ....यह तो हो गया हमारा 'सूक्ष्म मूल' और उसका 'सूक्ष्म मूल स्वभाव'. ...जब मानव देहधारी आत्मा यानी मनुष्य, आत्मा के मूल स्वभाव के अनुसार / अनुकूल आचरण करता है तब उसे सर्वोच्च श्रेणी की खुशी अर्थात् 'आनंद' मिलता है. परन्तु सूक्ष्म देह में विद्यमान दुनियावी संस्कारों और उनसे निर्मित जड़ वृत्ति के कारण साधारण मनुष्य के लिए सर्वकाल आत्मा के निर्देशानुसार आचरण करना बहुत ही दुष्कर होता है. ..लेकिन फिर भी असंभव तो नहीं! ...कभीकभार ही  सही, पर जब कभी भी हम भीतर की दैवीय ध्वनि के निर्देशानुसार, हमारी स्थूल वृत्ति से हटकर कुछ अतियोग्य निर्णय लेकर तदनुसार आचरण करते हैं तो हमें अपार खुशी मिलती है. वह खुशी दिव्य होती है और हम उसे शब्दों में ठीक से बयान नहीं कर सकते! उस 'कभीकभार' को 'सदैव' की ओर ले जाना ही हमारा उद्देश्य होना चाहिए, यदि हमें हमेशा चिरस्थाई और गहरी खुशी चाहिए!

(४) आज सभी मानसिक तनाव से पीड़ित है!
यह बात सही है कि हमारे भूभाग में आज लगभग सभी मानसिक तनाव से ग्रस्त हैं, ..दुर्जन भी और सज्जन भी! ...दुर्जन अपने वर्तमान दुष्कर्मों के कारण या तो तनावग्रस्त हैं या अभी नहीं भी हैं तो भविष्य में अवश्य झेलेंगे. जबकि वर्तमान के सज्जन अपने पूर्वकर्मों के कारण वर्तमान में इन दुर्जनों के दुष्कर्मों से उत्पन्न पीड़ाओं को झेलने के लिए विवश हैं! देखा जाए तो दोनों के तनाव का कारण लोगों के वर्तमान या पिछले कर्म ही तो हैं! यदि किसी कर्म से स्थितियां बिगड़ी हैं तो किसी कर्म से ही स्थितियां सुधर सकती हैं! तो, सज्जनों को चाहिए कि वे अपनी वर्तमान सज्जनता को कायम सखते हुए दुर्जनों के भीतर भी सज्जनता उत्पन्न करने की चेष्टा करें; साथ ही दुर्जन भी अपनी सोच को बदलकर सकारात्मकता की ओर बढें. यही दोनों के वर्तमान और भविष्य के लिए तनाव-मुक्ति प्रदान करेगा. अच्छे विचारों की उत्पत्ति ही बुरे विचारों का नाश करेगी! जिस राष्ट्र में भी बहुतायत विशेषकर अग्रणी समाज में सकारात्मकता यानी अच्छाई है उस राष्ट्र में मानसिक तनाव उतना ही कम है और खुशहाली ज्यादा है.

(५) आज देश को धर्म और जाति के नाम से बांटने वालों को कैसे रोका जा सकता है...??
जागरूक होकर तत्पश्चात सोच को ऊपर उठाकर ही हम इस जहर को फैलने से रोक सकते हैं. हमारे वर्तमान बड़े आका (धार्मिक / आध्यात्मिक गुरुजन, राजनेता, उच्च पदों पर आसीत् अधिकारी) आदि तो कुछ करने से रहे. अब आम जनता को खुद ही उठना होगा, खुद से ही प्रेरित होना होगा और ऐसे भ्रष्ट व अवसरवादी तंत्र को उखाड़ फेंकना होगा. वैसे इस प्रकार के कृत्य को हमारे आका बगावत का नाम देंगे, पर वस्तुतः यह एक क्रांति होगी. बहुत बड़े आमूलचूल परिवर्तन किसी क्रांति से ही संभव होते हैं. फिर भी यह क्रांति इतनी सरल नहीं, क्योंकि यह क्रांति सर्वप्रथम अपनी खुद की मानसिकता बदलने के बाद ही संभव है. तो फिर प्रथम एक ही उपाय है कि सभी लोग अपने स्वार्थों से क्रमशः ऊपर उठते हुए खरे साधकत्व की ओर बढ़ें.