Thursday, March 19, 2009

(१) मेरी डायरी का शैशवकाल

आगे प्रस्तुत लेखन लगभग छः वर्ष पहले जुलाई, २००३ में हुआ था। किसी भी श्रेणी में मेरे द्वारा हुआ यह पहला लेखन था। यह लेखन मेरे पहली बार किसी गुरुपूर्णिमा समारोह में शामिल होने मात्र से आरम्भ हुआ, तत्पश्चात् केवल दो-तीन बार ही सत्संग में जाने पर आगे बढ़ा। इसमें 'शास्त्रीय' भाषा का अभाव आपको लगभग हर स्थान पर खटकेगा, विशेषकर अध्यात्मशास्त्र से सम्बंधित शब्दों का चयन ठीक नहीं है। किसी को वह बचकाना भी लग सकता है। पर फिर भी शब्दों से परे का भाव व भावार्थ स्पष्ट रूप से अनुभूत होगा। .... वर्षों से 'माया' के पाश में कैद किसी शिशु का, अचानक ही परतंत्रता का भान व स्वतंत्रता की झलक मिलने के पश्चात्, सविद्रोह रुदन समान है यह।

इसके पश्चात् भी काफी लेखन कार्य हुआ, पर मजबूती से यही लगता है कि जैसे शेष सब लेखन इसी वृक्ष की ही कुछ और शाखाएं हैं मात्र। आज उसी अपरिपक्व लेखन को लगभग ज्यों का त्यों आपसे साझा कर रहा हूँ। कुछ शीर्षक बैठा कर क्रमबद्ध करने का प्रयास किया है बस।

(मेरी डायरी का शैशवकाल) -- (१) प्रस्तावना

सर्वप्रथम गुरु, तत्पश्चात् परम पिता परमेश्वर के चरणों में नमन कर मैं विचार-माला आरम्भ करता हूँ। मैं एक साधारण सा व्यक्ति हूँ, जो कभी मंदिर नहीं जाता था, पूजा-पाठ नहीं करता था, कोई धार्मिक ग्रन्थ अब तक नहीं पढ़ा, किसी सत्संग तक में कभी नहीं गया, हर चीज का तार्किक प्रमाण मांगने वाला था, और है भी, तथा कुछ तामसिक व्यसनों का भी आदी था। सारांश में यह कि एक भी आध्यात्मिक गुण मेरे भीतर नहीं था। हाँ बस एक परम शक्ति या अलौकिक शक्ति पर विश्वास करता था और अब भी करता हूँ। संभवतः इस गुरुपूर्णिमा के दिन मुझ पर गुरु एवं ईश्वर की कृपादृष्टि हुई, जिससे मेरे मन-मस्तिष्क में बहुत से विचार घुमड़ने लगे, और मैं मनन एवं लेखन कार्य में स्वतः ही जुट गया। प्रत्येक तथ्य को यथार्थ के तराजू में तौलना, सत्य की कसौटी पर कसना, किसी बात को समझने या समझाने के लिए तार्किक दर्शनशास्त्र की मदद लेना, निर्भीकता से सत्य का समर्थन व तर्कहीन बातों का विरोध करना आदि गुण या अवगुण मेरे भीतर हैं। आज मैं यह सोच रहा हूँ कि मैं क्या हूँ, मैं क्या चाहता हूँ, यह मनन एवं लेखन कार्य क्यों कर रहा हूँ? कोई ग्रन्थ आदि ही क्यों नहीं पढ़ लेता, वह अधिक आसान रहेगा? पर मेरी अंतरात्मा इसके लिए तैयार नहीं। वह मुझसे कहती है कि यदि मैंने इस समय कोई धार्मिक ग्रन्थ आदि पढ़े, तो वे मेरे स्वतंत्र मनन पर हावी हो सकते हैं, उनके विचार हावी हो सकते हैं, और तब यह मनन स्वतंत्र न रह कर उन ग्रंथों से प्रभावित हो सकता है। चूँकि यह मनन एवं लेखन कार्य अंतरात्मा की आवाज से स्वतः ही हो रहा है, अतः इसको निर्बाधित एवं स्वतंत्र रूप से चलने दे रहा हूँ। शायद मौलिक विचार इसी प्रकार उत्पन्न होते हों। ऐसा भी संभव है कि मैंने जो कुछ लिखा, वह पहले भी कुछ अन्य लोग लिख चुके हों, या ऐसा भी हो सकता है कि ये विचार आपको विरोधी या विद्रोही प्रकार के लगें। पर इतना अवश्य है कि मैंने अपने द्वारा लिखे सभी तथ्य व्यावहारिक और तार्किक दर्शनशास्त्र की कसौटी पर कसे हैं। अब यह भी हो सकता है कि उपरोक्त-कथित व्यावहारिक और तार्किक दर्शनशास्त्र भी मेरी मौलिक अवधारणाओं द्वारा ही रचित हों। तो यह सब जो मैंने लिखा है, वह आपको ग्राह्य हो अथवा नहीं, इसमें भी संदेह है।

आरंभ करता हूँ विश्व की दो महान शक्तियों के तुलनात्मक विश्लेषण से।

(मेरी डायरी का शैशवकाल) -- (२) विज्ञान और अध्यात्म

विज्ञान और अध्यात्म विश्व की दो बड़ी शक्तियां हैं। जड़ या स्थूल के ज्ञान के ज्ञान के लिए हमें विज्ञान का सहारा लेना पड़ता है, जबकि चेतन या सूक्ष्म का अनुभव हमें अध्यात्म ही करा सकता है। जड़ शरीर या स्थूल शरीर में जब कोई रोग हो जाता है या स्थूल भाग पर कोई चोट या घाव हो जाता है, तो उसके इलाज के लिए हम डॉक्टर के पास जाते हैं अर्थात् स्थूल के इलाज के लिए हमें चिकित्सा विज्ञान का सहारा लेना पड़ता है। और सत्य यही है कि स्थूल वस्तुएं विज्ञान के ही नियंत्रण में हैं, केवल विज्ञान ही उनका इलाज कर सकता है। स्थूल वस्तुएं जैसे - स्थूल शरीर की चिकित्सा, दूरभाष, मोटरगाडी़, मोबाइलफ़ोन, कम्प्यूटर, छपाई प्रेस, हवाईजहाज, लेखन के लिए कलम, पेंसिल या चाक, वस्त्र, सिलाई-कढ़ाई, भवन-निर्माण आदि के लिए हम विज्ञान पर ही निर्भर हैं; यह हम नहीं नकार सकते हैं। और साथ ही यह भी कि चेतन या सूक्ष्म का अध्ययन केवल और केवल अध्यात्म द्वारा ही संभव है। अर्थात् सूक्ष्म का सम्पूर्ण नियंत्रण अध्यात्म के द्वारा ही संभव है, विज्ञान द्वारा कतई नहीं। अमर है तो केवल सूक्ष्म, महत्त्वपूर्ण है तो केवल सूक्ष्म। स्थूल का जीवन अल्प होता है, और समय के साथ उसकी आयु, गुणवत्ता व स्तर घटता जाता है और विज्ञान किसी भी प्रयास से उसको अमर नहीं कर सकता। जबकि सूक्ष्म का स्तर अध्यात्म की मदद से समय के साथ-साथ बढ़ता है, अमर तो वह पहले से है ही। परतु फिर भी ये दोनों शक्तियां एक-दूसरे की पूरक हैं, क्योंकि सूक्ष्म का निवास इस स्थूल में है अर्थात् सूक्ष्म को भौतिक क्रियाएं करने हेतु स्थूल की अवलंबना चाहिए और स्थूल बिना सूक्ष्म के बेजान ही है; और दोनों ईश्वर की ही कृतियाँ हैं। अतः दोनों के बीच एकीकरण होना चाहिए। एकीकरण तब ही संभव है, जब हम इनमें से किसी एक को श्रेष्ठतम कहने का राग अलापना छोड़ देंगे। हम अपना अहम् भी त्याग देंगे, स्वयं को या अपने से जुड़ी किसी भी प्रकार की वस्तु जैसे धर्म, समाज या अध्यात्म-मार्ग को श्रेष्ठ तो समझ सकते हैं, पर उसे श्रेष्ठतम या सर्वश्रेष्ठ समझने की भूल हमें कभी भी नहीं करनी होगी, क्योंकि यह एक शाश्वत व स्थापित सत्य है कि इस संसार में ईश्वर के अतिरिक्त कुछ भी श्रेष्ठतम नहीं है।

अगला विषय, जिस पर मनन हुआ, वह है - प्रारब्ध एवं कर्म।

(मेरी डायरी का शैशवकाल) -- (३) प्रारब्ध एवं कर्म

प्रायः हम देखते हैं कि जब किसी व्यक्ति के साथ कुछ अच्छा या बुरा घटित होता है विशेषकर बुरा, तब लोग टिप्पणी करते हैं कि उसके प्रारब्ध में संभवतः कुछ ऐसा ही लिखा था। अर्थात् हम लोग उसके साथ घटित हुई घटनाओं की जिम्मेदारी उसके प्रारब्ध पर डाल देते हैं। संभवतः सबका ऐसा विचार करना स्वाभाविक भी है, क्योंकि बहुतायत घटनाओं पर मनुष्य का नियंत्रण नहीं होता है, और उन घटनाओं के घटित हो जाने के बाद प्रारब्ध को उसके लिए उत्तरदायी मान कर हम अपने अस्थिर एवं विचलित मन को स्थिर एवं शांत कर सकते हैं। जब हम यह मान कर चलते हैं कि अमुक का प्रारब्ध ऐसा ही था व नियति को संभवतः यही स्वीकार्य था, और इस प्रकार का विचार मन ही मन करते हुए जब हम शांत होते हैं, तो यह एक प्रकार से ईश्वर के प्रति हमारी आस्था का द्योतक है। तो हम सब यह मानते हैं कि प्रारब्ध होता है। परन्तु कभी-कभी हमें लगता है कि अमुक दुर्घटना रोकी जा सकती थी यदि पहले से सावधानी बरती गयी होती। कभी हमें लगता है कि अमुक घायल व्यक्ति बच सकता था यदि उसे समय से चिकित्सीय सहायता मिल गयी होती, या काश अमुक व्यक्ति अत्यधिक सिगरेट न पीता होता तो उसकी कैंसर से मृत्यु न हुई होती। ऐसे अनेक प्रकार से हम सोचते हैं कि यदि ऐसा न हुआ होता या वैसा न हुआ होता आदि-आदि। तो यदि हम गहराई से इस विषय का मनन करें तो हमें लगेगा कि प्रारब्ध एवं कर्म एक-दूसरे के पूरक हैं, उनके बीच समन्वय होता है और जो व्यक्ति उनके बीच सही समन्वय रखने में सफल होता है, वह ही अधिक सुखी रहता है, कम कष्टों को प्राप्त करता है। उदाहरणार्थ, यदि हम यह सोचें कि हमारे प्रारब्ध में यदि हमें खाना मिलना लिखा है तो वह हमें मिलेगा ही, यदि हमारे प्रारब्ध में नामजप करना लिखा है तो वह हम स्वतः करेंगे ही, हमारे प्रारब्ध में डॉक्टर बनना लिखा होगा तो वह हम बन ही जायेंगे, आदि-आदि।

पर जरा यह विचार कीजिये कि क्या उपरोक्त सभी घटनाएं या बातें बिना कर्म किये घटित हो सकतीं हैं? प्रारब्ध के प्रति अतिआस्थावान लोगों का विचार सामने आएगा कि यदि हमारे प्रारब्ध में यह सब लिखा होगा तो ईश्वर हमसे कर्म स्वतः ही करायेंगे। इस प्रकार हमने देखा कि प्रारब्ध के प्रति अतिआस्थावान लोगों ने सब कुछ या सभी घटनाओं का उत्तरदायित्व प्रारब्ध एवं ईश्वर इच्छा पर छोड़ दिया। तो क्या हम यह मान लें कि बिना कर्म किये ही हमको भाग्यवश सब कुछ मिल सकता है जैसे - भोजन, जल, घर, शिक्षा, चिकित्सीय सहायता, उच्च पद, धन, यश, नाम-स्मरण, ईश्वर-प्राप्ति, आदि? यदि ऐसा हो तो कोई भी व्यक्ति किसी भी कार्य को करने की चेष्टा ही न करे, और निष्क्रिय एक स्थान पर पड़ा रहे। मेरा ऐसा विचार है कि यदि अत्यंत ज्ञानी महापुरुष किसी व्यक्ति का प्रारब्ध बता दें कि यह अवश्य डॉक्टर बनेगा या अमुक अवश्य उच्च स्तर का साधक बनेगा; तो डॉक्टरी के प्रारब्ध वाला व्यक्ति यदि विद्यालय जाना छोड़ दे, पढ़ाई-लिखाई बंद कर दे, तो क्या वह डॉक्टर बन पायेगा? या साधक के प्रारब्ध वाला व्यक्ति यदि नामजप छोड़ दे, सत्संग छोड़ दे, अध्ययन-मनन छोड़ दे, भक्ति, आस्था, विश्वास सब छोड़ दे, तो ऐसे ही निष्क्रिय रहने पर क्या वह उच्च कोटि का साधक बन पायेगा? उत्तर होगा - नहीं। क्योंकि निर्विवादित रूप से यह बात मान्य होगी कि जीवन में कर्म का बहुत अधिक महत्त्व है।

परन्तु कुछ जगह हमें उपरोक्त बातों का बिलकुल उलट दिखाई पड़ता है। जैसे हम देखते हैं कि कोई व्यक्ति सचमुच डॉक्टर बनाने की इच्छा रखता है, बचपन से वह कठिन अभ्यास करता है, दिमाग भी बहुत तेज है, फिर भी अथक प्रयासों के बावजूद वह डॉक्टर की उपाधि प्राप्त करने में असफल रहता है। उसके प्रयासों, उसकी पढाई में हमेशा कोई न कोई बाधा पहुँचती ही रहती है। वह एक बाधा दूर करता है तो दूसरी आ जाती है, दूसरी दूर करता है तो चार और आ जाती हैं। अर्थात् अनवरत कर्म करने पर भी वह असफल ही रहता है। यह तो मात्र एक उदाहरण था, जीवन के हर क्षेत्र में हम देखते हैं कि कुछ लोगों की अभिलाषा उनके अथक प्रयासों व कर्मों के बाद भी पूरी नहीं हो पाती। यह भी देखने में आता है कि कई बार उनके बौद्धिक स्तर से नीचे के व्यक्ति भी साधारण प्रयासों से ही वह सब कुछ प्राप्त कर लेते हैं जो दूसरे व्यक्ति कठिन श्रम से भी प्राप्त नहीं कर पाए।

ज्ञान और भक्ति के क्षेत्र में भी हमें कुछ ऐसा ही देखने को मिलता है। कोई खरा संत है, वह निर्विकार भाव से समष्टि साधना करना चाहता है, बिना लोभ या लालसा के अपना ज्ञान और भक्ति समष्टि के लिए अर्पित करना चाहता, तो उसे खरे साधकों व श्रोताओं का अभाव हो जाता है। लाख चाहने पर भी वह अपनी बातें और ज्ञान व भक्ति को दूसरों के हितार्थ बाँटने में असमर्थ रहता है। वहीं दूसरी तरफ कई अज्ञानी, पाखंडी साधु-संतों ने बड़े-बड़े मठ, आश्रम आदि बना रखे हैं। उनके व्यर्थ के प्रवचनों में सैकड़ों-हजारों लोग जुटते हैं, धन की कोई कमी नहीं है। असफलताओं की उपरोक्त दोनों घटनाओं में, असफलता का प्रमुख कारण कमजोर प्रारब्ध ही हुआ।

'प्रारब्ध एवं कर्म' इस विषय के उपरोक्त विश्लेषण एवं शोधन के पश्चात् यह बात उभर कर सामने आती है, यह निष्कर्ष निकलता है, कि निश्चित रूप से प्रारब्ध एवं कर्म एक-दूसरे के पूरक हैं। यदि हम 'प्रारब्ध एवं कर्म' को यथार्थ के तराजू में तौलें तो स्वतः हमें ज्ञात होगा कि प्रत्येक का प्रारब्ध पहले से या पूर्वजन्म से निर्धारित है, परन्तु उस प्रारब्ध की सहायता से फल प्राप्ति हेतु कर्म परम आवश्यक हैं। अर्थात् गणितीय भाषा में -- प्रारब्धxकर्म = फल। इसमें हमने गुणात्मक सम्बन्ध ही क्यों लिया? वह इसलिए कि यदि गुणात्मक सम्बन्ध न लेकर हम धनात्मक या ऋणात्मक सम्बन्ध लेते हैं तो कर्म शून्य रहने पर भी हमें कुछ न कुछ फल की प्राप्ति अवश्य होती। अभी हम यह मान लेते हैं कि यह सूत्र यानी [प्रारब्धxकर्म = फल] सही है। अब आगे इसकी समीक्षा करते हैं। उदाहरणार्थ -- यदि हम कोई अभीष्ट फल १०० अंकों का चाहते हैं और हमारे प्रारब्ध का अंक १० है, तो हमें अभीष्ट फल यानी कि १०० अंक प्राप्त करने हेतु १० कर्म करने अनिवार्य हैं, क्योंकि १०x१० = १००. दूसरे उदाहरण में हम यह मान लें कि किसी व्यक्ति का प्रारब्ध बहुत बलवान है यानी वह १०० अंकों का है, तो क्या उसे बिना किसी प्रयास के ही फल की प्राप्ति हो जायेगी? उत्तर होगा नहीं। क्यों कि उपरोक्त सूत्र के अनुसार ही -- प्रारब्धxकर्म = फल; १००x० = ०. अर्थात् प्रारब्ध अत्यंत बलवान होते हुए भी यदि व्यक्ति ने कोई कर्म नहीं किया तो उसको शून्य फल की प्राप्ति हुई अर्थात् कोई फल प्राप्त नहीं हुआ। तो यह समझ में आया कि सर्वश्रेष्ठ प्रारब्ध वाले व्यक्ति के लिए भी कुछ न कुछ कर्म करना अनिवार्य होता है। ठीक इसी प्रकार एक दूसरा उदाहरण -- यदि किसी का प्रारब्ध किसी विषय में शून्य है, तो अथक (अनन्त) प्रयासों के बाद भी फल शून्य ही रहेगा, क्योंकि उपरोक्त गणितीय सूत्र के अनुसार ही, शून्यxअनंत = शून्य। हाँ किसी का प्रारब्ध यदि शून्य से तनिक सा भी अधिक है, दशमलव में ही है, तो वह अपने कर्मों या प्रयासों में अत्यधिक वृद्धि कर अभीष्ट फल प्राप्त कर सकता है। जैसे ०.५x२०० = १००.

यहाँ हमें यह ध्यान रखना होगा कि प्रारब्ध का अंक हमको किसी भी माध्यम से ज्ञात नहीं हो सकता और साथ ही कर्म करना सर्वथा हमारे हाथ में है। किसी का प्रारब्ध पहले से जानना या बताना असंभव ही है, वैसे तुक्के तो कभी-कभी किसी के भी लग सकते हैं। वास्तव में किसी कार्य के हो सकने की समय सीमा निकल जाने के पश्चात् ही मनुष्य को यह पता चल पाता है कि अमुक कार्य अथवा वस्तु उसके भाग्य में थी अथवा नहीं। उदाहरण के लिए -- कोई व्यक्ति सेना में भर्ती होना चाहता है। वह हाईस्कूल के बाद, फिर इंटरमीडिएट के बाद, फिर उसके बाद भी विभिन्न प्रवेश परीक्षाओं में बैठता है, कड़ी मेहनत करता है, कर्म की दृष्टि से कोई कसर नहीं छोड़ता। पर फिर भी वह निरंतर अनेक बाधाओं का सामना करता रहता है। कभी लिखित परीक्षा, कभी साक्षात्कार, तो कभी मेडिकल जाँच में असफल हो जाता है। अथक प्रयासों के बाद, अंततः सेना में भर्ती हेतु निर्धारित अधिकतम आयु सीमा निकल जाने के बाद वह यह जान पाता है कि सेना में भर्ती होना कम से कम इस जन्म में तो उसके प्रारब्ध में नहीं।

तो हमने देखा कि कालावधि बीत जाने के बाद ही वह जान पाया कि अभीष्ट फल उसके प्रारब्ध में फ़िलहाल नहीं, पर पहले से कोई प्रारब्ध को जान ले, यह लगभग असंभव ही है। अतः प्रारंभ से हमें हर कार्य के प्रति सचेत रहना चाहिए एवं सदैव प्रयासरत रहना चाहिए, यह सोच कर कि हर उचित चीज मेरे भाग्य में संभवतः है ही। ... कालान्तर के बाद ही हम यह जान पाते हैं कि हम क्या चाहते थे?, किसके लिए कितनी मात्रा में प्रयास किया?, अंततः हमने कब और क्या फल पाया?, आदि। तभी हमको यह अहसास भी होता है कि यदि उचित समय पर कुछ अधिक प्रयास किये होते तो संभवतः अधिक फल की प्राप्ति संभव थी। अतः हमको जीवन के प्रत्येक चरण में यथासंभव मन लगा कर अधिकाधिक सत्कर्म करने चाहियें, जिससे अंत में कोई पछतावा न हो सके। सदैव अनुमानित प्रारब्ध से अधिक, कर्म को महत्त्व देना चाहिए।

(मेरी डायरी का शैशवकाल) -- (४) विश्वास या आस्था

हम जब किसी पर पूर्ण विश्वास करते हैं, उसकी कही हर बात का पालन करते हैं, तब हम यह कह सकते हैं कि हमें उस पर पूर्ण आस्था है। जैसे बीमार पड़ने पर जब हम डॉक्टर के पास जाते हैं, तो डॉक्टर पर हमें पूर्ण-विश्वास होता है, आस्था होती है। वह जो भी दवा हमें देता है, वह हम विश्वास के साथ लेते हैं और ठीक हो जाते हैं। इसी प्रकार हमें जब सूक्ष्म-सम्बन्धी किसी समस्या का समाधान चाहिए होता है, तो हम पूरी आस्था के साथ किसी संत के पास या किसी सत्संग आदि में जाते हैं।

आस्था में कितना बल होता है इसका एक विचित्र सा उदाहरण देता हूँ। ... एक बार मेरे एक डॉक्टर मित्र के पास गाँव का एक भोला-भाला व्यक्ति आया और बोला कि "मुझे बुखार है और चक्कर भी आ रहे हैं, मेरा इलाज करने की कृपा करें। गाँव के सभी लोग आपके पास इलाज कराने आते हैं और आपकी दवा, इंजेक्शन आदि से ठीक हो जाते हैं, इसीलिए मैं भी आपके पास आया हूँ।" डॉक्टर ने उस ग्रामीण का पूरा निरीक्षण किया। पर हर प्रकार से निरीक्षण करने बाद भी डॉक्टर को वह ग्रामीण कहीं से भी बीमार नहीं लगा। इसके बाद उस डॉक्टर ने उसे विटामिन का एक इंजेक्शन तुंरत लगा दिया और कुछ विटामिन की गोलियां भी खाने के लिए दीं। इंजेक्शन लगने के पांच मिनट बाद ही वह ग्रामीण बोला कि "लोग ठीक ही कहते थे कि आपकी दवा में जादू है, अब मैं बेहतर महसूस कर रहा हूँ।" और वह ग्रामीण चला गया।

बाद में मेरी जिज्ञासा शांत करता हुआ मेरा डॉक्टर मित्र बोला कि "वस्तुतः उस ग्रामीण को स्थूल का कोई कष्ट था ही नहीं, उसे सिर्फ वहम था। उसे मेरे इलाज पर पूर्ण आस्था थी, तभी तो वह साधारण विटामिन का इंजेक्शन देने पर ही ठीक हो गया।" अर्थात् यहाँ बीमारी मनोवैज्ञानिक थी, पर आस्था बलवान थी। यह उदाहरण आपको अन्धविश्वास का भी लग सकता है, पर यह अन्धविश्वास न होकर आस्था ही थी। और यह आस्था डॉक्टर ने लोगों का लगातार अच्छा व उचित इलाज करके ही अर्जित की थी। अब यदि हम यह कहें कि डॉक्टर ग्रामीण को यह बता देता कि उसे कुछ भी नहीं है, सब उसका वहम है, तो परिणाम क्या होता? वह यह कि पहले तो ग्रामीण की डॉक्टर के प्रति आस्था विखण्डित होती, फिर वह अपने इलाज के लिए कहीं और जाता। हो सकता है कि उसके मनोविज्ञान या सूक्ष्म की समस्या समझने वाला कोई अन्य उसे कई दिन तक न मिलता, और उसका रोग धीरे-धीरे बढ़ता जाता। तो कुल मिलाकर सत्य को बता देने पर संभवतः उस ग्रामीण का कष्ट दूर तो नहीं होता, वरन बढ़ ही सकता था। यहाँ यह भी हो सकता है कि उस ग्रामीण का समझने का स्तर ऊंचा होता, तो डॉक्टर उसे अवश्य ही सत्य बता देता। जब मैंने यह विकल्प डॉक्टर के सामने रखा, तो वह साफगोई से बोला कि "देखो वह एक भोला-भाला आस्थावान ग्रामीण था, और किसी प्रकार की पीड़ा से तो ग्रसित था ही। उस समय आवश्यक था उसका इलाज, न कि यह कि मैं सत्य बता कर उसके स्तर को जांचता। अब सोचो यदि वह निम्न बुद्धि स्तर का होता तो वह मेरे सत्य पर विश्वास न करता और यत्र-तत्र कहीं और जाता व अपना रोग और अधिक बढ़ा लेता। इसीलिए मैं इन सब झमेलों में नहीं पड़ा। सर्वप्रथम आवश्यकता थी कि वह ठीक हो जाता, और वह ठीक हो गया।" मेरे विचार से डॉक्टर ईमानदार था, स्वभाव से भी और अपने व्यवसाय के प्रति भी। क्योकि मरीजों के स्थूल रोगों को वह उचित दवा द्वारा तथा मनोवैज्ञानिक वहमों को विटामिन देकर दूर करता था। अर्थात् बीमारी के स्तर के अनुसार ही उसका इलाज करता था।

यहाँ यह भी विकल्प उठता है कि यदि समस्या सूक्ष्म या मनोविज्ञान आदि से सम्बंधित थी, तो ग्रामीण को उनके तज्ञ (विशेषज्ञ) के पास भी भेजा जा सकता था। पर संभवतः वहां जाकर भी वह ठीक न हो पाता क्योकि उसे पूरा विश्वास था कि उसका कष्ट स्थूल का ही है और उसके इलाज के लिए उसे डॉक्टर पर ही सम्पूर्ण आस्था थी। एक महत्त्वपूर्ण बात और, कि डॉक्टर को भी अपने द्वारा किये जाने वाले इलाज पर पूर्ण विश्वास था - वैज्ञानिक, मनोवैज्ञानिक, व परावैज्ञानिक दृष्टि से। वैज्ञानिक यानी विज्ञान की दृष्टि से उसे यह पता था कि विटामिन का इंजेक्शन कोई कुप्रभाव नहीं डाल सकता। मनोवैज्ञानिक यानी मनोविज्ञान की दृष्टि से उसे यह पता था कि ग्रामीण को मात्र मन का वहम है, वह विटामिन का इंजेक्शन लगते ही दूर हो जायेगा। परावैज्ञानिक यानी विज्ञान से परे उसे यह पता था कि वास्तव में ग्रामीण की आस्था ही काम करने वाली है, यह विटामिन का इंजेक्शन नहीं।

यह आस्था होती ही परावैज्ञानिक अर्थात् स्थूल विज्ञान से बिलकुल परे, थोडी सी मनोविज्ञान से जुड़ी हुई। जिस प्रकार उस ग्रामीण को डॉक्टर पर पूर्ण आस्था व विश्वास था, उसी प्रकार से लोगों की आस्था गुरु के प्रति, ईश्वर के प्रति एवं साधु-संतों के प्रति भी होनी चाहिए। यह आध्यात्मिक आस्था हमारे सूक्ष्म के स्वस्थ एवं उन्नत होने के लिए परम आवश्यक है। तभी वास्तविक आनंद की प्राप्ति संभव है। खरे साधु-संत और गुरु सूक्ष्म के डॉक्टर ही हैं। अब प्रश्न यह उठता है कि हम कैसे पहचानेंगे कि खरा डॉक्टर कौन है या खरा गुरु या साधु-संत कौन सा है? तो पहले के अध्ययन के अनुसार अच्छे डॉक्टर या गुरु की प्राप्ति के लिए प्रारब्ध एवं कर्म का समन्वय ही कार्य करता है।

(मेरी डायरी का शैशवकाल) -- (५) अन्धविश्वास

विश्वास और अन्धविश्वास के बीच विभाजन रेखा बहुत ही महीन है। मेरे विचार से अन्धविश्वास उस विश्वास को कह सकते हैं जिसका कोई आधार नहीं है, अर्थात् वैज्ञानिक, मनोवैज्ञानिक, परावैज्ञानिक तथा आध्यात्मिक रूप से आधारहीन विश्वास को ही अन्धविश्वास कह सकते हैं। एक उदाहरण -- सभी को पता होगा कि कुछ वर्ष पहले एक खबर जंगल की आग की तरह फ़ैल गयी थी कि मंदिरों में शिवजी साक्षात् दूध का सेवन कर रहे हैं। लाखों लीटर दूध लोगों ने शिवालयों में अर्पित कर दिया। यदि भगवान दूध पी रहे होते तो शिवालय से बाहर निकलने वाली नलिका से दूध बहता हुआ क्यों दिखायी देता?, इस तरफ किसी ने ध्यान दिया ही नहीं। जिसने ध्यान दिया या जिसने कोई तथ्य लोगों के सामने रखना चाहा, उसे लोगों ने नास्तिक करार दे कर उसे बुरी तरह से धिक्कारा। परन्तु कुछ समय पश्चात् लोगों की समझ में यह आया कि यह सब तो शायद उनका वहम था। पर अभिमान और अहम् भाव देखिये कि किसी ने भी इस वहम की चर्चा खुलकर किसी से भी नहीं की। धीरे-धीरे स्वतः शिवालयों पर भीड़ घटने लगी और लोग यह घटना भूल गए। पर उनके अन्धविश्वास के कारण लाखों लीटर दूध यूं ही व्यर्थ में बह गया। इसी प्रकार का कुछ प्रसंग कई वर्ष पहले दिल्ली और उसके आस-पास के क्षेत्रों में वनमानुषों के आतंक का भी फैला था, पर अंततः सब मिथ्या ही निकला। इसी प्रकार के अन्धविश्वास जादू-टोने, भूत-पिशाच आदि के सम्बन्ध में भी हैं।

मेरा विचार है कि सूक्ष्म यानी जीवात्मा का अस्तित्व है, परन्तु मृत्यु के बाद जब वह स्थूल शरीर छोड़ देती है, तो वह कोई लीला दिखा सकती बिना किसी स्थूल अवलंबना के, मेरे लिए यह मानना अभी असंभव है। फिल्मों में, कहानियों में, यहाँ तक कि कुछ ग्रंथों में भी भूत, प्रेत, पिशाच आदि का वर्णन मिलता है। लम्बे-लम्बे नाखून, बड़े-बड़े दांत, विकृत और भयानक मुख, उल्टे पैर, गर्दन का पूरा ३६० डिग्री के कोण पर घूम जाना आदि कितने ही रूप बताते हैं लोग भूत-प्रेतों के। कई लोग तथा कुछ साधु-संत भी भूतों के इन रूपों को देखने का दावा करते हैं। यदि उनकी बात का विरोध करो तो वे कहते हैं कि तुम्हारा स्तर ही अभी क्या है, कुछ भी नहीं; आत्मा भी शुद्ध नहीं होगी, अनेक पाप किये होंगे, झूठे होगे, ... तभी तुम्हें पारलौकिक शक्तियां अर्थात् भूत-प्रेत नज़र नहीं आते; साधना करो, हमारी तरह स्तर ऊंचा उठाओ, तभी यह सब कुछ देख पाओगे। तो, मेरा .. तथाकथित ज्ञानी लोगों से एक ही प्रश्न है कि क्या मुझ जैसे एक सामान्य व्यक्ति का आध्यात्मिक स्तर इतना निम्नकोटि का है कि उसे यदा-कदा ईश्वरीय अनुभूति तो हो सकती है, पर उन विकृत रूपों वाले भूतों की नहीं। मेरी बात छोड़ दीजिये, मैं तो एक अत्यंत साधारण व्यक्ति हूँ, पर बड़े-बड़े वैज्ञानिकों को भी भूतों का दर्शन आज तक नहीं हुआ। क्या भूत सिर्फ और सिर्फ आध्यात्मिक रीति से साधना करने वालों को ही दिखायी देते हैं? मेरे विचार से सभी महान भारतीय वैज्ञानिक ईश्वर या एक निर्गुण, निर्विकार परम शक्ति पर अगाध आस्था व विश्वास रखते हैं और उचित रीति से नियमित पूजा भी करते हैं, तामसिक चीजों का सेवन भी नहीं करते हैं। बस एक बात उनमें अलग है कि वे विज्ञान को भी मानते हैं। क्या यही एकमात्र कारण है कि उनको ईश्वरीय अनुभूतियाँ तो होतीं हैं, परन्तु भूत-प्रेतों के विकराल और विकृत रूप नहीं दिखायी पड़ते। यदि ऐसा है, तो तथाकथित साधु-संतों को भी विज्ञान में रुचि रखनी चाहिए। आध्यात्मिक गुण उनमें पहले से हैं ही, उससे उनको ईश्वर प्राप्ति तो होगी ही, पर एक अतिरिक्त लाभ उन्हें यह होगा कि भूत-प्रेत, पिशाच आदि दिखाई देने बंद हो जायेंगे। तो मेरा व्यक्तिगत निष्कर्ष यह है कि भूत-प्रेत आदि नहीं होते। यदि उनका अस्तित्व है भी, तो वे बिना स्थूल का अवलम्ब लिए कोई भौतिक लीला दिखा सकते हैं, इसमें शत-प्रतिशत संदेह है। हाँ, किसी के शरीर पर भूतों के अतिक्रमण की बात भी यदा-कदा सुनने में आती है, और उस दुर्लभ सी घटना का यदि हम अपने विवेक या वैज्ञानिक और मनोवैज्ञानिक आधार पर निरीक्षण करें, तो बात अंततः मिथ्या निकलती है। अफवाहों के बीच धीरे ऐसे दुर्लभ भुक्तभोगी व्यक्तियों को मैंने मानसिक अस्पताल में उचित चिकित्सा एवं मनोवैज्ञानिक तरीकों से ठीक होते देखा है। हाँ, कुछ भुक्तभोगी ऐसे होते हैं, जिनका इलाज विज्ञान और मनोविज्ञान द्वारा नहीं हो पाता क्योंकि उनकी समस्या उनके अतिसूक्ष्म की या जीवात्मा के स्तर की होती है। ऐसे व्यक्ति उचित सत्संगों में जाकर या खरे साधु-संतों की शरण में जाकर गुरु या ईश्वर कृपा से ठीक हो सकते हैं, परन्तु उनका प्रतिशत बहुत कम है। लेकिन इन भ्रांतियों का प्रतिशत बहुत अधिक है कि उपरोक्त-कथित प्रकार के भूत-प्रेत होते हैं।

उपरोक्त मनन से यह निष्कर्ष निकला कि ये सब अन्धविश्वास और असत्य ही है। सत्य है तो केवल ईश्वर और सूक्ष्म, अमर है तो वह भी केवल ईश्वर और सूक्ष्म, स्थूल शरीर मात्र सहायता निमित्त है और नश्वर है। अंधविश्वास की व्याख्या के लिए उपरोक्त उदाहरण पर्याप्त नहीं हैं। व्यक्ति को स्वयं अपने विवेक एवं बुद्धि से यह विचार सदैव करना होगा कि उसका विश्वास कहीं अन्धविश्वास तो नहीं है? यदि किसी विषय में उसे विश्वास और अन्धविश्वास में भेद करना दुष्कर प्रतीत हो, तो उसे अपने किसी खरे मित्र या गुरु की मदद लेनी चाहिए।

(मेरी डायरी का शैशवकाल) -- (६) छल

किसी भी व्यक्ति को जानबूझ कर धोखा देना, उसके साथ किया गया छल कहलाता है। यदि अनजाने में कोई धोखा हो जाए, परन्तु मन में कोई खोट न हो, तो किया गया यह छल क्षमा योग्य होगा। अनजाने में जब कोई किसी के साथ छल कर बैठता है, तो यथार्थ के पता चलने पर छल करने वाले व्यक्ति के मन मे ग्लानि और पश्चात्ताप की भावना उत्पन होती है। ग्लानि और पश्चात्ताप की यह भावना ही उसके द्वारा किये गए छल का दुष्प्रभाव कम करती है और छलित व्यक्ति भी उसे क्षमा कर सकता है। यह तो हुई अनजाने में धोखा हो जाने वाली बात। दूसरी बात यह आती है कि किसी के हितार्थ किया गया छल भी क्षमा योग्य ही है, जैसा पूर्व लिखित घटना में डॉक्टर ने ग्रामीण के साथ किया था। परन्तु कभी-कभी हम यह देखते हैं कि कोई व्यक्ति किसी और व्यक्ति को, या जन समूह को जानबूझ कर धोखा देता है केवल अपनी स्वार्थ पूर्ति के लिये, तो उसके द्वारा किया गया यह छल क्षमा योग्य नहीं है। उस व्यक्ति का कम से कम सामाजिक बहिष्कार तो होना ही चाहिए। परन्तु ऐसे छल करने वाले व्यक्ति तो बहुत चतुर होते हैं। मानव मनोविज्ञान को भी वो भली-भांति समझते हैं। समाज में फैली हुई अज्ञानता व अंधविश्वासों का भी उन्हें पता होता है। लोगों की इसी अज्ञानता का लाभ उठा कर वे पहले तो जनसमूह को अपनी ओर आकृष्ट करते हैं, प्रसिद्धि बटोरते हैं, फिर मनचाहे ढंग से अपनी स्वार्थपूर्ति करते हैं। लोग जान भी नहीं पाते कि वस्तुतः उनके साथ छल हो रहा है क्योंकि उनकी आँखों पर तो अज्ञान और अन्धविश्वास का पर्दा पड़ा होता है।

(मेरी डायरी का शैशवकाल) -- (७) अहम्

अपने बल पर, बुद्धि पर, कार्य पर अथवा सामर्थ्य पर अत्यधिक गर्व करना और सदैव अपने को दूसरे से श्रेष्ठ समझना, यही अहम्-भाव (अहंभाव) है। यह तो अहंभाव की बहुत ही संक्षिप्त परिभाषा हुई। वास्तव में अहम् मनुष्य का ऐसा दुर्गुण है, जो किसी न किसी रूप में हमारे विचारों, बुद्धि और कर्मों पर हावी होने की कोशिश करता ही रहता है। अहंभाव की व्याख्या बहुत विस्तार से की जाने की आवश्यकता है। संक्षेप में अहम्-भावों के कुछ उदाहरण प्रस्तुत हैं -- जैसे मनुष्य जब शैशवकाल में होता है तो उसकी वृत्ति अत्यंत सरल होती है, अहंभाव बिलकुल भी नहीं होता है, या बहुत कम होता है। पर जैसे-जैसे वह बड़ा होने लगता है, उसमें अहंभाव जागृत होने लगता है तथा धीरे-धीरे वह बढता जाता है। इसके दो मूल कारण हैं - ज्ञान-प्राप्ति (बुद्धि का विकास) व धन-प्राप्ति। ये दोनों चीज़ें प्राप्त करते-करते वह अपने ज्ञान और धन के भंडार की दूसरों से तुलना करने लगता है। और जब वह दूसरे कुछ लोगों को अपने से तुच्छ समझने लगता है तो यह उसमें अहंभाव निर्माण होना ही हुआ। यदि इस प्रकार का अहंभाव जागृत हो गया तो यह कम कैसे हो?, इसका एक ही उपाय है कि मनुष्य को अपनी तुलना सदैव स्वयं से उन्नत व्यक्तियों से करनी चाहिए। यह प्रक्रिया व्यक्ति को उसके स्वयं के वास्तविक स्तर का भान कराती है और अहंभाव कम होता है। अहंभाव निर्माण के अन्य कारकों में प्रमुख हैं - स्वार्थी होना, आत्ममुग्ध होना, स्वाभिमान भी अधिक बढ़ जाना, सदैव स्वेच्छा से ही वर्तन करना, अपनी व्यक्तिगत मान्यताओं को, धर्म को, भाषा को, उपासना को, समाज को, देश को, संस्कृति को सदैव दूसरों से श्रेष्ठ समझना आदि। अहंभाव से ही जुड़े हैं हमारे आगे के दो विषय - भारतीयों के पराभव के कारण तथा समयानुसार शोधन एवं संशोधन की आवश्यकता।

(मेरी डायरी का शैशवकाल) -- (८) भारतीयों के अपकर्ष के कारण

हम सभी लोग इस तथ्य से परिचित हैं कि प्राचीन काल में भारतीय संस्कृति संभवतः विश्व की सर्वश्रेष्ठ संस्कृति थी। किसी समय हमारा देश आध्यात्मिक, व्यापारिक, राजनैतिक, आर्थिक, वैज्ञानिक, प्रौद्योगिकी, सांस्कृतिक, आदि क्षेत्रों में विश्व-विख्यात था। विश्व के गिने-चुने उन्नत देशों में भारत की गिनती होती थी, परन्तु समय बीतते-बीतते अन्य अनेक देश कई क्षेत्रों में भारत से आगे निकल गए। संभवतः इस बहुकोणीय अपकर्ष के कारण हम भारतीय स्वयं ही हैं। भारत के उस स्वर्णकाल से अभिभूत होकर तत्कालीन विचारक संभवतः आत्ममुग्ध हो गए थे और उनमें अहंकार आ गया था कि हमारा सब कुछ ही श्रेष्ठतम है, अन्य देश, संस्कृतियाँ आदि उन्हें तुच्छ प्रतीत होने लगे थे। यद्यपि ऐसा ही था भी, परन्तु अन्य देश, दूसरे अन्य देशों की संस्कृति, विज्ञान और समाज से कुछ न कुछ ग्रहण करते रहे तथा अपने राष्ट्र को और अधिक उन्नत करने में जुटे रहे। बहुत से विदेशी लोग व्यापार व ज्ञानार्जन हेतु भारत आये। स्वयं को और अधिक उन्नत व सुसंस्कृत बनाने हेतु उन्होंने अनवरत शोध कार्य जारी रखा और स्वयं में, संस्कृति में व विज्ञान में समयानुसार बड़े परिवर्तन भी किये। ये उपक्रम करते हुए अन्य कुछ देश धीरे-धीरे अत्यंत विकसित हो गए। हम भारतीय तो आत्ममुग्ध होकर एक ही स्थान पर बैठे रह गए या शायद हमारा स्तर कुछ और कम ही हुआ, परन्तु विश्व व समय हमसे आगे निकल गया। हमारा केवल तकनीकी या वैज्ञानिक अपकर्ष ही नहीं हुआ बल्कि सांस्कृतिक एवं आध्यात्मिक पतन भी हुआ।

सम्पूर्ण विश्व का दर्शनशास्त्र विशेष रूप से तार्किक एवं व्यावहारिक दर्शनशास्त्र बदल गया, परन्तु हम भारतीय आज भी इन दर्शनशास्त्रों से कतराते हैं। प्राचीनकाल में भारत में धर्म और अध्यात्म के ऊपर कितने ही ग्रंथों की रचना हुई थी, उनकी बातें आज भी ग्रहण-योग्य हैं, पर यह भी विचार करें कि प्राचीनकाल में सभी ग्रन्थ एक साथ नहीं लिखे गए थे, परन्तु समय-समय पर आवश्यकतानुसार व कालानुसार लिखे गए। अर्थात् प्राचीनकाल में भारत के तत्कालीन विचारकों ने भी निरंतर शोधन एवं संशोधन के पश्चात् समय-समय पर नई अवधारणाओं की रचना की।

... लेकिन एक समय प्रगति का यह दौर जैसे थम सा गया। दूसरों से कुछ और ऊंचाई पर पहुँच जाने के कारण आत्ममुग्धता व अहंकार ने हमें आ घेरा। बस तभी से हमारे से जुडी हर चीज का पतन शुरू हो गया। लम्बे समय तक शोधन एवं संशोधन कार्य थमे रहने के कारण हमारी श्रेष्ठता तो वहीं थमी रही, परन्तु दूसरे कई अन्य देश हमसे अधिक श्रेष्ठ हो गए। आज भी हम अहंकार व आत्ममुग्धता की उन्हीं बेड़ियों में जकड़े हुए हैं। यहाँ अब हर कोई अपने को श्रेष्ठतम व अन्यों को तुच्छ समझता है, अपने-आप में किसी प्रकार का परिवर्तन कोई करना ही नहीं चाहता है। इतना आत्माभिमानी होना भी किसी भी समाज के लिये व उसके अस्तित्व के लिये एक बड़ा खतरा है। हमारा सामाजिक, धार्मिक एवं आध्यात्मिक इतिहास इतना श्रेष्ठ है कि विदेशों के लोग आज भी इनका अध्ययन करते हैं और वर्तमान काल के अनुसार जो बातें उन्हें ग्रहण-योग्य लगतीं हैं, वह बातें ही वे ग्रहण करते हैं और स्वयं को पहले से अधिक श्रेष्ठ व परिष्कृत बनाने में लगे हैं। और हम भारतीय हैं कि बस लकीर के फकीर बने हुए हैं, अर्थात् समयानुसार कोई परिवर्तन न लाते हुए हम उस अध्यात्मशास्त्र को वैसा का वैसा, जैसा प्राचीन काल में उचित था, अपनाने की चेष्टा करते हैं। न तो अब वह समय रहा न स्थितियां, अतः व्यावहारिक एवं तार्किक दर्शनशास्त्र हमें स्पष्ट संकेत दे रहा है कि हम गलत हैं। अहंकार छोड़ कर हमें यह संकेत समझना चाहिए और हमारे महान अध्यात्मशास्त्र की बुनियादी बातों को कायम रखते हुए, इसमें आवश्यकतानुसार व समयानुसार परिवर्तन करके इसे और अधिक श्रेष्ठ बनाने का प्रयास करना चाहिए। अतः प्राचीन आधारभूत परम्पराओं, विचारों एवं पद्धतियों का अत्यधिक सम्मान करते हुए, उनको भली-भांति आत्मसात् करते हुए, यदि हम उनमें कुछ परिवर्तन समयानुसार करते हैं, तो यह परिवर्तन पुरानी परम्परा या पद्धति को ठेस नहीं पहुंचा सकता। परिवर्तन तो जीवन का शाश्वत सत्य है ही।

(मेरी डायरी का शैशवकाल) -- (९) साधना या अध्यात्म के वर्तमान प्रारूप पर विचार

वर्तमान काल में विज्ञान की प्रगति का रथ द्रुत गति से भागा जा रहा है। विज्ञान की उन्नति व विकास कार्य होना अच्छी बात है, पर कहते हैं कि कमी और अति सदैव बुरी होती है। इस समय हमारे भारत में विज्ञान की अति व आध्यात्मिक साधना की कमी हो गयी है और ये दोनों बातें हमारे लिये बहुत घातक हैं। विज्ञान द्वारा उपलब्ध करा दिए गए भौतिक साधनों एवं आराम व विलासिता की चीजों की जैसे बाढ़ आ गयी है। यह सब कुछ पा लेने के पश्चात् या पा लेने की लालसा के कारण सर्वत्र भ्रष्टाचार, स्वार्थ, ईर्ष्या, हिंसा, द्वेष एवं अहंकार का बोलबाला है। यह सब ही तो आसुरीय राज्य का प्रतीक है। इस आसुरीय राज्य का विखंडन केवल ईश्वरीय राज्य की स्थापना द्वारा ही संभव है। और यह भी शाश्वत सत्य है कि ईश्वरीय राज्य की पुनर्स्थापना केवल अध्यात्म या साधना द्वारा ही संभव है। अतः इसके उचित प्रसार की भी परम आवश्यकता है। पर यह संभव कैसे होगा?, क्योंकि आजकल कोई भी सामान्य व्यक्ति साधकों की या अध्यात्म-प्रसारकों की बात सुनने के लिये तैयार नहीं है। बहुत प्रयास से यदि कुछ लोग सत्संग में आ भी जाते हैं तो ढेर सारी आशंकायें उनके मस्तिष्क में रहतीं हैं। कभी वे सत्संग में आते हैं, तो कभी नहीं आते। अधिकांश नामजप तक शुरू नहीं कर पाते या करना ही नहीं चाहते। यह सब देख कर तो लगता है कि अध्यात्म पर से लोगों का विश्वास ही उठ गया है। पर चूँकि यह विज्ञान और उसकी निरंकुशता का दौर है, अतः साधकों को भी इसका मुकाबला करने एवं इसका आवरण लोगों की आँखों से उतारने हेतु तार्किक दर्शनशास्त्र व मनोविज्ञान का सहारा लेना पड़ेगा।

यह ऐसे कि विज्ञान के इस युग में लोग आध्यात्मिक साधना को भूल चुके हैं। अतः हमें उनको यह साधना बहुत बुनियादी स्तर पर सिखानी पड़ेगी, और इसके लिये कुछ वाह्य कृत्यों को समयानुसार बदलना पड़ेगा। साधना की शुरुआत के लिये ऐसा उचित प्रतीत हो रहा है। दूसरी महत्त्वपूर्ण बात यह कि विज्ञान के इस युग में हर व्यक्ति आप पर या आपकी किसी बात पर विश्वास करने के लिये सबूत मांगता है। विज्ञान तो अपने पक्ष में साक्ष्य दे सकता है, पर केवल अनुभूति पर आधारित होने के कारण अध्यात्म अपने पक्ष में कुछ प्रत्यक्ष प्रमाण देने में असफल रहता है। परन्तु एक और तरीके से अध्यात्म अपना पक्ष स्पष्ट करता है।

साधना के अनेक रूपों में एक रूप है - सत्संग के द्वारा आचरण-शुद्धि या आचरण-उन्नति की साधना। सर्वप्रथम यदि सत्संगों में लोग उचित परामर्श व उपदेशों द्वारा या अन्य साधनों से आचरण-शुद्धि, सदाचरण आदि के लिये प्रेरित हो सकें, तो उसके फलस्वरूप कुछ लोगों में आये आचरण परिवर्तन को कुछ अन्य लोग प्रत्यक्षतः देख सकते हैं, महसूस कर सकते हैं। जिनका आचरण उन्नत हो गया, वे वस्तुतः वर्तमान के साधक हो गए और जिन्होंने आचरण-उन्नति के इस प्रमाण को देखा या महसूस किया, वे भविष्य के साधक हो सकते हैं। अतः एक और सत्य यह सामने उभर कर आया कि सत्संग रूपी साधना से अंतःकरण स्वस्थ होता है, अंतःकरण के स्वस्थ होने पर ही व्यक्ति सदाचरण को अपनाता है, शांत, सरल व सौम्य हो जाता है, और अनेक विकारों को त्याग देता है। आचरण व व्यवहार संबंधी यह उन्नति दूसरों को भी दिखाई देती है। इस प्रकार जब लोगों के सोचने का दृष्टिकोण बदले, और उनका रुझान विज्ञान से कुछ हट कर अध्यात्म पर केन्द्रित होने लगे, तभी हमें उनसे साधना के अन्य रूपों की चर्चा करनी चाहिए। आज के समय में ग्राह्यता का भी बहुत अधिक महत्त्व है। लोगों की ग्रहण करने की क्षमता के अनुसार ही हमें साधना को सरल व सरस बनाना होगा। या दूसरे शब्दों में कि हमें अपने अध्यात्म में आवश्यक परिवर्तन करके उसे सरलता से ग्रहण योग्य बनाना होगा।

सभी सगुण उपासक, निर्गुण उपासक, विज्ञानवेत्ता, यहाँ तक कि नास्तिक भी यह स्वीकार करते हैं कि कोई तो परम शक्ति इस ब्रह्माण्ड में विद्यमान है, जो और कुछ करे न करे, हमारा यह नश्वर शरीर चला ही रही है। इस स्थूल जीवन का नियंत्रण उसी परम शक्ति के पास है, ऐसा सभी मानते हैं। तो अगले चरण में हमें उस परम दिव्यशक्ति के अस्तित्व पर पूर्ण विश्वास करना होगा और इस प्रकार का विचार मस्तिष्क में धारण करना होगा कि हम मन से अथवा तन से जो भी कार्य करते हैं, वह उस दिव्य-शक्ति से छुपा नहीं है। कोई और देखे न देखे, समझे न समझे, ईश्वर सब देख रहा है, सुन रहा है और समझ भी रहा है। यह ध्यान रखना चाहिए कि हमारा वर्तमान प्रारब्ध, हमारे पूर्व कर्मों की प्रतिक्रियाओं का संचित कोष है। और वर्तमान में हम जो फल प्राप्त करने वाले हैं वह हमारे वर्तमान कर्मों एवं वर्तमान प्रारब्ध (पूर्व-संचित) का गुणनफल है; अगले जन्म का प्रारब्ध इसी फल पर निर्भर करेगा। अतः गणितीय रूप से..., कर्मxप्रारब्ध = फल अर्थात् कुल मिलाकर हमने जो किया, जो पाया और अंततः जो मनःस्थिति बनी, जो संस्कार हमने निर्माण किए. ... यही वर्तमान फल अगले जन्म का पूर्व-नियत प्रारब्ध होगा और आगामी कर्मों के साथ गुणा होकर फल प्रदान करेगा। तत्पश्चात् प्राप्त किया फल पुनः, और अगले जन्म का पूर्व-नियत प्रारब्ध बन जायेगा और उस जन्म के कर्मों के साथ गुणा होकर फल प्रदान करेगा। तो यह क्रम क्रमशः जन्म दर जन्म चलता ही जायेगा। तो हमें अभीष्ट क्या है?, उत्तम फल ...। उत्तम फल की प्राप्ति चूँकि प्रारब्ध और कर्म पर निर्भर है, तथा प्रत्येक वर्तमान में प्रारब्ध तो पूर्व-निर्मित है, तो जो हमारे पास अब बचता है, वह है - कर्म। हम कर्म की मात्रा व गुणवत्ता को बढ़ा कर अधिक व अच्छा फल प्राप्त कर सकते हैं। यह भी साधना का एक रूप है। अब प्रश्न यह उठता है कि कर्म-वृद्धि किस प्रकार करें?

कर्म-वृद्धि से तात्पर्य केवल अधिक कार्य ही नहीं, वरन सत्कार्य, सदाचरण व धर्माचरण करना है। हमारे द्वारा किया जाने वाला कार्य अब उत्तम ही हो, इसके लिये हमें और अधिक मानसिक बल, आध्यात्मिक बल सात्त्विकता व आत्मिक बल की आवश्यकता पड़ती है। यह सब हमें प्राप्त हो, इसके लिये कुछ स्थूल या मानसिक साधना की आवश्यकता पड़ती है, जैसे - ईश्वर भक्ति, भजन, यथोचित स्थूल कर्मकांड, नामजप, आदि। तो अब यह प्रश्न उठता है कि पूजा-भक्ति व नामजप आदि किस प्रकार से, या किसका किया जाये? वस्तुतः सभी देवी-देवता एक ही ईश्वर के अनेक रूप हैं, समयानुसार, आवश्यकतानुसार, मानवहितार्थ संभवतः ईश्वर अनेक जन्म लेते गए होंगे, अतः हमें किसी भी रूप को श्रेष्ठतम या किसी भी रूप को तुच्छ नहीं समझना है। पर पारिवारिक संस्कारों या हमारे आस-पास के समाज के कुछ प्रभाव के कारण ईश्वर के किसी एक रूप की ओर सहज ही हमारा कुछ झुकाव तो होता ही है। तो आरंभ में उसी अनुसार ही किसी एक रूप का सच्चे मन से नामजप करना चाहिए, साथ ही उसके रूप व विशेषताओं को स्मरण करना चाहिए। और यदि आप एक निर्गुण उपासक हैं, तो एक परम शक्ति को तो मानते ही हैं, उसी का ध्यान करें। धीमी आवाज में या मन ही मन नामजप या ध्यान जिस समय भी संभव हो, करते रहे। उस समय आपके भीतर आपके आराध्य के प्रति पूर्ण समर्पण का भाव व कृतज्ञता होनी आवश्यक है अन्यथा नामजप का कोई अर्थ नहीं होगा। केवल दिखावे के लिए नामजप करना बेकार है। भावपूर्ण नामजप हो तभी उसका कुछ लाभ है। इस साधना से हमें जो प्रेरणा व आध्यात्मिक बल मिलेगा, उसकी सहायता से हम अन्य साधनायें भी भली-भांति करने में समर्थ होंगे।

अन्य साधनाओं में सर्व प्रथम आती है, अपने-आप में निरंतर सुधार की साधना यानी अपने मन को अहम्-रहित, स्वच्छ, निष्कपट, निर्मल, निष्पक्ष, धैर्यवान और सौम्य बनाने की चेष्टा करना एवं ऐसे ही विचारों के साथ उत्तम कार्य करना। तो यह साधना कैसे आरंभ हो, इसके लिए एक बहुत आसान सा मार्ग है कि सुबह से लेकर शाम तक आप विभिन्न क्रिया-कलापों में व्यस्त रहते हैं, बीच-बीच में नामस्मरण आदि भी करते रहते हैं, परन्तु रात में जब आप सोने लगते हैं तो वह समय ऐसा होता है कि आप कुछ सोच सकते हैं। रात्रि में सोने से पूर्व, एकांत में, लेटे-लेटे ही आप दिन भर के कार्यों या घटनाओं के बारे में पुनः सोचिये। विचार कीजिये कि आज मैंने दिन भर क्या उत्तम कार्य किया और कौन-कौन सी गलतियाँ कीं। यदि आप स्वच्छ व निष्पक्ष रूप से चिंतन करेंगे तो आपका अंतर्मन ईमानदारी से आपको सब कुछ बताएगा। परन्तु केवल चिंतन मात्र से ही कुछ नहीं होगा। आप अपनी गलतियों को भविष्य में न दोहराने और अपनी कमियों या बुराइयों को धीरे-धीरे समाप्त करने का दृढ़ संकल्प लेंगे और ऐसा वस्तुतः करेंगे ही, तब ही यह साधना पूर्ण हो पायेगी। इस साधना से आप स्वयं के मन एवं कार्यों को परिष्कृत कर आध्यात्मिक उन्नति की और अग्रसर होंगे।

हमें यह भली-भांति समझ लेना चाहिए कि ईश्वर हमसे केवल अपने नामस्मरण की चाहत नहीं रखता, वह केवल अच्छे विचारों व कार्यों की अपेक्षा रखता है। नामस्मरण तो हम अपना भाव-निर्माण करने व मानसिक रूप से मजबूत बनने के लिए करते हैं। वस्तुतः ईश्वर कोई तानाशाह, अहंकारी, और अपनी ही प्रशंसा या गुणगान सुनने का आदी राजा नहीं है। वह तो कोमल हृदय, निष्पक्ष राजा है, जो अपनी प्रजा को भी ऐसा ही देखना चाहता है। अतः साधना में नामजप का प्रयोजन केवल ईश्वर को प्रसन्न करना ही नहीं, वरन भाव-निर्माण, भाव-वृद्धि, इच्छा-शक्ति एवं मानसिक बलिष्ठता बढ़ाने हेतु है। इससे हमारे भीतर एक प्रेरणा-स्रोत जन्म लेता है, जो हमारी हर प्रकार की साधना के क्रियान्वयन में सहायक सिद्ध होता है। धैर्य एवं सौम्यता का विकास करता है, सात्त्विक गुण उत्पन्न करता है। अपने समस्त अवगुणों को आत्म-चिंतन, आत्म-मंथन तत्पश्चात् कर्म द्वारा धीरे-धीरे जड़ से समाप्त करना, यह भी एक प्रकार की साधना ही है। केवल अपने गुणों को देखकर इन पर आत्ममुग्ध होने की आवश्यकता नहीं है। दूसरे के गुणों को भी सदैव देखिये, सदैव उनका अवलोकन कीजिये। अन्यों के गुणों को भी आत्मसात् करने का प्रयास होना चाहिए। इसी प्रकार अन्यों के धर्म, संस्कृति, समाज, देश आदि को भी अपने से तुच्छ न समझते हुए उनका अध्ययन व अवलोकन कर उनके गुणों को भी आत्मसात् करना चाहिए। कभी भी कुछ भी श्रेष्ठतम नहीं हो सकता ईश्वर के अतिरिक्त; यह बात सदैव ध्यान में रखनी चाहिए। अतएव अपने हर गुण को परिष्कृत व परिमार्जित कर, उसे श्रेष्ठ से और अधिक श्रेष्ठ बनाने की कोशिश सदैव करनी चाहिए।

जिस प्रकार शरीर के विकास व उन्नति के लिए हमें नियमित रूप से भोजन की आवश्यकता पड़ती है, उसी प्रकार सूक्ष्म के विकास और उन्नति के लिए हमें उपरोक्त तरह की साधनाओं की आवश्यकता पड़ती है। यदि हम दो दिन भी भोजन नहीं करते तो हमारा शरीर शिथिल पड़ने लगता है; वैसे ही उचित साधना के अभाव में हमारे सूक्ष्म का पोषण भी रुक जाता है और वह शिथिल होने लगता है। उचित साधना का अभाव ही तो आज विश्व में ईश्वरीय राज्य न दिखाई देने का कारण है। इसी के अभाव के कारण ही आज हर जगह भ्रष्टाचार, कुःशासन, अराजकता का ही बोलबाला है। अतः स्वयं भी साधना प्रारंभ करें व दूसरों को इसके लिए प्रेरित करें, क्योंकि हम एक सामाजिक प्राणी हैं। अपनी प्राचीन भारतीय संस्कृति को जीवित रखते हुए दूसरों के भी विचार अवश्य सुनें, उनमें से श्रेष्ठ एवं तार्किक बातें अपनाएं भी। अर्थात् एक ही परिपाटी पर चलने के बंधन में न पड़ते हुए, स्वयं के भीतर निष्पक्ष दृष्टिकोण एवं लचीलापन लाते हुए, अपने आप को परिष्कृत करने की सदैव चेष्टा करते रहे। यह भी हमारा अहम्-भाव कम करेगा।

चूँकि मैं पहले भी बारम्बार यह दोहरा चुका हूँ कि ईश्वर के अतिरिक्त और कुछ भी श्रेष्ठतम नहीं, अतः जहाँ कहीं भी आप मेरे विचारों से असहमत हों, वहाँ संशोधन कर सकते हैं। क्योंकि किसी अवगुण या कमी को जान कर भी उसे बिना संशोधित किये पुरानी परिपाटी पर ही आँख मूँद कर चलना बुद्धिमत्ता नहीं है। निज-स्वार्थ रहित और अहंकार रहित मन से जब कोई संशोधन किया जाता है तो वह संशोधन उस विषय को और अधिक श्रेष्ठ ही बनाता है।

कुछ पहले हमने बात की थी, दूसरों को भी साधना के लिए प्रेरित करने की अर्थात् समष्टि साधना की; तो उसमें एक बात छूट गयी थी - सत्संग की। सत्संग का अर्थ मात्र प्रवचन, श्रवण करना ही नहीं है, बल्कि आप सत्संग में कुछ और साधकों के साथ भी बैठते हैं, तो एक-दूसरे की साधना-पद्धतियों, अनुभूतियों आदि से भी परिचित होते हैं, विचार-विमर्श भी होता है। इससे आत्ममंथन बढता है, तथा आत्मज्ञान और अधिक बढता है। अध्ययन और प्रवचन-श्रवण से सम्बंधित एक और बात है, जो मैं आपको एक उदाहरण द्वारा बताता हूँ -- हम सब लोगों को भूख लगती है, तो हम खाना खाते हैं। इधर-उधर घूमने जाते हैं अलग-अलग प्रदेशों में, तो वहाँ भिन्न-भिन्न प्रकार के व्यंजन खाते हैं। कुछ व्यंजन हमें पसंद आते हैं तो कुछ नहीं। जब हम घर वापस लौटते हैं तो चखे हुए उन व्यंजनों में से कुछ को, जो हमें अच्छे लगे थे, अपने घर पर भी बनाते हैं। और धीरे-धीरे वे व्यंजन हमारे खान-पान में शामिल हो जाते हैं। इसी प्रकार अब बात करते हैं - भूख व हाजमे की। किसी की भूख दो रोटी खाने पर बुझ जाती है, कोई चार रोटी खाता है, तो कोई छः। इसी प्रकार, किसी को चना या राजमाह जैसी कठोर दालें भी हजम हो जाती है, तो कोई मूंग जैसी हल्की दाल भी नहीं पचा पाता है, या सिर्फ खिचड़ी ही पचा पाता है। ... यही सब बातें साधना के अध्ययन व प्रवचन-श्रवण भाग पर भी लागू होतीं हैं। अर्थात् हमें सभी धर्मों, समाजों और गुरुओं के प्रवचन का श्रवण निष्पक्ष भाव से करना चाहिए। जो बातें हमें अच्छी लगें, वे अवश्य अपनानी चाहियें। इससे हमारे विचारों का भण्डार व उनकी श्रेष्ठता बढ़ेगी। अब बात करें भूख की, तो जितने प्रकार के लोग उतने प्रकार की भूख। कुछ का पेट पंद्रह मिनट प्रवचन सुनने से ही भर जाता है, कुछ तीस मिनट तक सुन सकते हैं, कुछ दो घंटे, कुछ बारह घंटे, तो कुछ कई दिन तक लगातार भी। तो उतना ही खायें जितना हजम हो जाये, अन्यथा बीमार पड़ जायेंगे। अर्थात् उतना ही श्रवण-चिंतन करें जितना आपका मस्तिष्क सह सकता है। प्रवचन आदि में किसी के दबाव या झिझक के मारे जबरदस्ती न बैठे रहें, अन्यथा आपके मानसिक स्तर की क्षमता से अधिक आत्मसात् करने का प्रयास में आप दिग्भ्रमित हो सकते हैं, मानसिक संतुलन भी खो सकते हैं। यदि आप किसी ऐसे स्थान पर हैं जहाँ बीच में उठना आपको शिष्टाचार के विरुद्ध लगता है, तो आप शब्दों पर अधिक ध्यान न देकर मन ही मन केवल नामस्मरण आदि ही करें। अब बात आती है हाजमे की, तो सत्सगों में कभी सरल विषय पर तो कभी दुरूह विषयों पर व्याख्यान होते हैं, ... तो जिस श्रेणी का व्याख्यान आपको आसानी से समझ में आये, वह ही आत्मसात् करने का प्रयास करें। अतः आरंभ के दिनों में सत्संग में अपनी भागेदारी अपने स्वाद, भूख व हाजमे के अनुसार ही करें। कालांतर में अभ्यास से, साधना से धीरे-धीरे सत्संग व प्रवचन के प्रति आपके स्वाद, भूख एवं हाजमे में निरंतर निखार आता जायेगा और आप अधिक श्रेष्ठता की ओर अग्रसर होते जायेंगे।

इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि साधना के किसी प्रचलित दुरूह मार्ग अपनाने से श्रेयस्कर है कि आरम्भ में व्यर्थ के झमेलों में पड़े बिना, ऊपर सुझाये अनुसार साधना के लिए कुछ अत्यंत सरल तरीके अपनाएं जायें और प्रगति प्रारंभ होने पर आवश्यकता एवं समयानुसार स्वयं या दूसरे के विवेक से साधना मार्गों को और अधिक श्रेष्ठ बनाने की चेष्टा की जाये, बिना स्वार्थ व अहंभाव के। क्योंकि शरीर के पोषण एवं उन्नति के लिए भी हम अत्यंत सरल एवं पोषक भोजन का सेवन पसंद करते हैं, उसी प्रकार हमारा मुख्य ध्येय होना चाहिए - हमारी आत्मा यानी सूक्ष्म का विकास एवं प्रगति सरलता व शीघ्रता से हो, हमारे अवगुणों का शीघ्र नाश हो, और हम सत्कर्म, सदाचरण व धर्माचरण में जुट जायें, जिससे हमें असली आनंद की अनुभूति हो सके। हम एक-एक सीढ़ी चढ़ कर सरलता से ऊपर पहुँच सकते हैं, पर यदि हम उछल कर अनेक सीढियां एक साथ चढ़ने की चेष्टा करेंगे, तो हम गिर भी सकते हैं और पुनः वापस धरातल पर पहुँच सकते हैं। मूलतः यही सिद्धांत साधना का भी होना चाहिए या है ही। सर्वप्रथम आवश्यकता है भाव-जागृति की, इसके बाद भाव-उन्नति की। दृढ़ इच्छा-शक्ति व प्रतिबद्धता के साथ चरण-बद्ध साधना करने से हम शीघ्र प्रगति करेंगे एवं अवश्य ही अलौकिक आनन्द को प्राप्त करने में सफल होंगे।

(मेरी डायरी का शैशवकाल) -- (१०) कुछ और लहरें ...

ज्ञानी लोग कहते हैं कि आत्मा, परमात्मा का ही एक अंश है। इसी अवधारणा को ध्यान में रखते हुए यह कहा जा सकता है कि ईश्वर तो एक ही है, पर विभिन्न युगों में जब भी किसी विलक्षण प्रतिभा के धनी व्यक्ति ने समाज सुधार, समाज उत्थान या किसी वैचारिक क्रांति को जन्म दिया, या किन्हीं उपद्रवी शक्तियों का, दुर्जनों का अंत किया, तो वह व्यक्ति उस समय का भगवान् कहलाया। इसी प्रकार एवं इसी आधार पर ईश्वर के अनेक रूपों की परिकल्पना की गयी। अर्थात् ईश्वर एक ही है - निर्गुण, निराकार, परब्रह्म; पर उपरोक्त धारणा के कारण ईश्वर के इतने रूपों की रचना या परिकल्पना संभव हुई। पीड़ित लोगों के संकटमोचन व्यक्ति को तत्कालीन लोगों ने ईश्वर का रूप बताया, और अति सरल स्वभाव होने के कारण हमारे तत्कालीन पूर्वज उस विलक्षण व्यक्ति को कृतज्ञता-पूर्वक पूजने लगे। कालांतर में संभवतः ऐसे विलक्षण व्यक्तित्व ही ईश्वर के विभिन्न अवतारों के रूप में जाने गए।

चूँकि समय बदलने के साथ-साथ लोगों की सरलता कम हुई है, और मानव अब बुद्धि से कुछ अधिक ही काम लेता है, अतः अब काफी समय से ईश्वर किसी अन्य नए रूप की अवधारणा नहीं बन पायी है। अब उसका स्थान युग-पुरुष जैसे अलंकरणों ने ले लिया है। ईश्वर एक ही है - निर्गुण, निराकार, निर्विकार, परब्रह्म। इसकी पुष्टि इस काल के एक युग-पुरुष स्वामी विवेकानंद जी भी करते हैं, पर वे सगुण उपासना या मूर्ति-पूजा के भी विरोधी नहीं। उनके अनुसार, "मूर्ति-पूजा कोई गलत नहीं। मूर्ति-पूजा दुर्बल साधकों को भी धर्म के उच्च भावों का आंकलन करने के लिए समर्थ बनाती है।" ... वैदिक धर्म में मूर्ति-पूजा विहित नहीं थी। साधारण मानव को अमूर्त, निर्गुण, निराकार परमेश्वर की उपासना कठिन जान पड़ता था इसलिए सगुण साकार परमेश्वर की उपासना करने वालों को मूर्ति की आवश्यकता जान पड़ी और उन्होंने मूर्ति-पूजा के मार्ग का अनुसरण किया। उपनिषदों में तो मात्र परब्रह्म की कल्पना दृढ़ कर उसी का निज-ध्यास ही पूजा का स्वरुप बन गया था। अर्थात् उपनिषदों में निर्गुण, निराकार, अमूर्त, अदृश्य, शब्दातीत ईश्वर की उपासना बताई गयी है। कालांतर में आर्यों व अनार्यों की मिश्रित अवधारणाओं से ही हिन्दू धर्म का उदय हुआ, तभी से विभिन्न रूपों में मूर्ति-पूजा एवं देव-पूजा आरम्भ हुई।

तो ऊपर दिए गए उदाहरणों से एक निष्कर्ष तो निकलता ही है कि ईश्वर के तैंतीस करोड़ रूप मात्र कोरी कल्पना नहीं हैं। वे तो उस समय के युग-पुरुष थे। तब वे युग-पुरुष ईश्वर अवतार कहलाये थे। और आज के युग में संकटमोचन, अतिप्रतिभाशाली व्यक्ति युग-पुरुष कहलाते हैं, जैसे - महात्मा गाँधी जी, स्वामी विवेकानंद जी, शिवाजी आदि।

अतः यदि हम तटस्थ एवं तार्किक दृष्टिकोण से सोचें, तो सभी देवी-देवता हमारे तत्कालीन युग-पुरुष थे और आज भी वन्दनीय होने चाहियें। उनका किसी भी प्रकार से उपहास करना निंदनीय है। निःसंदेह वे सब हमारे पूज्यनीय हैं। आज भी हम देखते हैं कि कोई व्यक्ति, जो बहुत अनैतिक कार्य करता है, दुष्ट है, अत्याचारी है, भ्रष्ट है, उसे लोग यही कहते हैं कि यह तो राक्षस (असुर) है; और मन ही मन यह प्रार्थना करते हैं कि हे ईश्वर इस दुष्ट राक्षस का अंत करो। और जब कोई वास्तव में उस दुष्ट का अंत करता है, तो लोग ईश्वर की भांति उसे पूजते हैं। इसका ज्वलंत उदहारण कुछ वर्ष पहले मिली आजादी है। एक समय अंग्रेजी सरकार के गुलाम भारतीयों के लिए अंग्रेज, अत्याचारी राक्षस या असुर का ही रूप थे। और स्वतंत्रता संग्राम के नायक जैसे - शिवाजी, रानी लक्ष्मीबाई, महाराणा प्रताप, भगत सिंह, चंद्रशेखर आजाद, लाला लाजपत राय, सुभाषचन्द्र बोस, गाँधी जी व ऐसे ही अनेक कई और स्वतंत्रता-सेनानी, जनसाधारण के लिए देवता समान थे। वे इस युग के युग पुरुष कहलाये और हमेशा हमारे लिए पूज्यनीय व वन्दनीय रहेंगे। इसी प्रकार प्राचीन काल में भी घटनाएं होती होंगी। तब भी दुर्जन, अत्याचारी, विध्वंसक लोग होंगे ही; और वे ही तत्कालीन असुर, राक्षस, दैत्य आदि कहलाये। और उनसे मुक्ति दिलाने वाले महा योद्धा, महा-पुरुष, युग-पुरुष आदि हमारे देवताओं की सूची में शामिल हो गए। और इस प्रकार वे सब देवी-देवता हमारे लिए पूजनीय ही हैं और सदैव रहेंगे। चूँकि यह कहा जाता है कि आत्मा, परमात्मा का ही एक अंश है, अतः हमारे सभी देवी-देवता ईश्वर का रूप कहलाये।

और सत्य यह भी है कि परमात्मा, जिसका एक छोटा सा अंश हम भी हैं, वह निर्गुण, निराकार ही है। वही समस्त जीवों को चला रहा है अर्थात् प्रत्येक जीवित वस्तु जैसे - मानव, जीव-जंतुओं, वनस्पतियों, आदि के भीतर जीवन होने, उनके चलायमान होने, उनके बढ़ने और अंततः उनके समाप्त होने के पीछे केवल वह ही है। उसकी सृष्टि में सब कुछ नियम-बद्ध है। हम सब भी प्रकृति या परमात्मा के नियमों में बद्ध हैं। उदाहरण के लिए -- "परमात्मा इस विश्व-रूपी विद्यालय का प्रधानाचार्य है; विद्यालय के कुछ पूर्व-निर्धारित नियम हैं; हम सब इस विद्यालय के छात्र-छात्राएं, शिक्षक व अन्य कर्मचारी हैं; हम सब विद्यालय के नियमों में बद्ध हैं व प्रधानाचार्य भी। नियमों के अंतर्गत हम सब के कुछ न कुछ कर्तव्य हैं। प्रधानाचार्य का भी कुछ कर्तव्य है; वह है कि यह देखना कि सब कुछ नियमानुसार हो, नियमानुसार अनुशासन बना कर रखना। ऐसा भी होता है कि कभी किसी को दंड मिलता है, तो किसी को परितोष, और कभी किसी को विद्यालय से निष्काषित करने तक की नौबत भी आ जाती है। अलग-अलग निर्णयों का कारण प्रधानाचार्य का पक्षपाती होना नहीं है, वरन वह तो नियमों से बद्ध होने के कारण कर्तव्य रूप में यह सब कर रहा है। नियमों से तो अन्य लोग भी कमोवेश परिचित ही हैं, और उन्हीं नियमों के अनुसार या विपरीत कार्य करने पर ही वे सब परितोष के अधिकारी या दंड के भागी हो रहे हैं।" ... तो इसी उदाहरण के अनुसार ही परमात्मा को इस ब्रह्माण्ड में हो रही हर गतिविधि की जानकारी है। कुछ भी उससे छुपा नहीं है। वर्तमान कर्मों को, आचरण को वह भली-भांति देख रहा है। और उन्हीं कर्मों के अनुसार हम इस जन्म में या आगामी जन्मों में परितोष या दंड प्राप्त करते हैं। तो हमारे कार्य उत्तम ही हों इसके लिए आवश्यक है कि हमारे विचारों का शुद्धिकरण हो। हम पारदर्शी, निष्कपट, सरल, द्वेष रहित, अहंकार रहित विचार अपने भीतर विकसित कर सकें तो निश्चित रूप से हमसे अच्छे कार्य ही संपादित होंगे। अर्थात् ईश्वर केवल नामजप करने से नहीं, वरन सद्कार्यों से प्रसन्न होता है। वर्तमान में ईश्वर ने हमें यह स्थूल भौतिक देह दी है, और इस देह से ईश्वर को अपेक्षा है - केवल अच्छे कार्यों की।

अतः यहां पुनः दोहराया जा सकता है कि वर्तमान जीवन में प्रारब्धवश जो घटनाएं होती हैं अर्थात् जिन घटनाओं पर हमारा कोई भी अंकुश नहीं है, वस्तुतः ऐसी घटनाओं या प्रारब्ध के लिए हमारे पूर्व कर्म ही जिम्मेदार हैं, परमात्मा नहीं। क्योंकि हम जानते हैं कि हमारे कर्मों रूपी क्रियाओं से उपजा प्रतिक्रियात्मक कोष ही प्रारब्ध है। अतः वर्तमान में अपने क्रियमाण कर्म द्वारा हम जो संचित करेंगे, धनात्मक या ऋणात्मक, उसी के अनुसार हमें आगे भोगना पड़ेगा। अतः कर्म ही सर्वोपरि हुआ। अच्छा हो कि हम प्रकृति या परमात्मा के शाश्वत नियमों को ध्यान में रख कर ही कर्म करें और किसी त्रासदी के लिए भगवान् को जिम्मेदार न ठहरायें। इति।