Friday, November 2, 2018

(११०) चर्चाएं ...भाग - 29

(१) वे लोग बहुत किस्मत वाले हैं जिन्हें मालूम है कि हम डिप्रेशन के शिकार हैं वर्ना अधिकांश लोग तो यूँही जीवन बिता के चले जाते हैं! आपकी क्या राय है? और वे अधिकांश लोगों में से ही वे लोग हैं जो अपने अहं में इतने मगन हैं कि उनकी मगरूरी की वजह से बाकी लोग जोकि अच्छे से जीना चाहते हैं, फीलिंग्स रखते हैं, ..डिप्रेशन में हैं! कृपया अपनी राय दें!!
आपके प्रश्न और उसके ठीक बाद में आपके अपने मत (व्यू) में, आप द्वारा दो हिस्सों में दो बातें चर्चा में लायी गयी हैं! हालाँकि वे दोनों परस्पर सम्बन्धी हैं लेकिन आपका प्रश्न बहुत स्पष्ट नहीं हो पाया! जहाँ तक मैंने समझा है आपका आशय यह है-- "इस समाज में बहुत से अच्छे लोग हैं जो बढ़िया ढंग से ऐसा जीवन जीना चाहते हैं जिसमें मानवीय भावनाएं/संवेदनाएं हों. लेकिन उधर समाज में बहुत से बुरे और अहंकारी लोग भी हैं, जो उनकी (भले लोगों की) फीलिंग्स की बिलकुल भी कद्र नहीं करते. इस वजह से अधिकांश अच्छे लोग तिरस्कृत और उपेक्षित होकर अवसाद (डिप्रेशन) में जीवन जीने को मजबूर होते हैं. ..और इन अवसादग्रस्त अच्छे लोगों में से बहुतों को यह मालुम ही नहीं होता कि उन्हें डिप्रेशन है, और वे यूँ ही (रोते-कलपते, दबे हुए, त्रस्त) जीवन व्यतीत कर एक दिन मर जाते हैं!" ....यदि आपका आशय यही है, तो मैं भी यहाँ आपसे पूरी तरह से सहमत हूँ. मैं मानता हूँ कि हमारे समाज में ऐसा बहुत होता है. ...और ऐसा तब तक होता रहेगा जब तक हमारी आम सोच ऊपर नहीं उठती. ..सोच ऊपर उठाने के निमित्त ही तो हम ऐसी संवेदनशील चर्चाएं छेड़ते हैं. ..उम्मीद है अन्य उपस्थित लोग भी मानवीय संवेदनाओं को पुनर्जीवित करने वाली चर्चाएं अवश्य शुरू करेंगे.

(२) मेरा यहां क्या है, बोलना/लिखना यहां तक कि सोच वह भी पहले से मौजूद है तो फिर मेरा क्या है, मैं क्यों परेशान हूँ! किस लिए? काश इतनी सी बात पल्ले पड़ जाए तो जिंदगी खूबसूरत हो जाए और पता नहीं क्या-क्या नया देख पाएं और सोच पाएं, काश हम वहां तक पहुंचें? आपकी क्या राय है?
जी, बिलकुल.., हम जिन्दगी के कुछ पहलुओं तक ही सीमित हैं, उन्हीं में लगातार गोल-गोल घूम रहे हैं. उससे बाहर निकलने की कोशिश करें तो ही कुछ नया और बेहतर मिल पाएगा....पहली कक्षा का सत्र खत्म होने पर दूसरी कक्षा में, फिर तीसरी, फिर क्रमशः चौथी-पांचवीं.... यानी लगातार एक को छोड़कर अगली कक्षा में जाते रहते हैं न हम..! हमारी कोई जिद नहीं रहती कि एक ही कक्षा में जीवन भर पढ़ते रहेंगे! ..फिर इसी आगे जाने के दस्तूर को अपनी दूसरी चीजों में क्यों नहीं अमल करते? ..करना चाहिए ना...! ...तभी कुछ नया पा सकेंगे, ऊपर की सीढ़ियाँ चढ़ सकेंगे, नहीं तो एक ही जगह गोल-गोल घूमते रह जायेंगे. ..उदाहरण के लिए..., कुछ लोग कहते हैं कि 'वेद' अपने आप में सम्पूर्ण हैं, ज्ञान का चरम हैं; ...वहीं 'वेद' यह कहते हैं कि बेड़ियों में न फंसो, आगे बढ़ते जाओ, ..जब तुम मुझे भी समझ लो तो मुझे भी छोड़कर और आगे को बढ़ो... सब कुछ अनंत है, अनंत के लिए स्वतंत्र और स्वछन्द होकर निरंतर आगे को बढ़ते रहो.

(३) जब हमें खुद को देखना होता है कि हम कैसे लगते हैं तो हम शीशा देखते हैं वैसे ही अगर हम अपने अंदर के अँधेरे/उजाले को देखना चाहते हैं तो जरूरी है कि हमें अँधेरा देखने के लिए उजाले में और उजाला देखने के लिए अँधेरे में खड़ा होना पड़ेगा!?
प्रश्न थोड़ा अस्पष्ट है फिर भी अर्थ का अनुमान लगाकर उत्तर देने का प्रयास करता हूँ. आईने के सामने हम खुद के उन पहलुओं को भी देख सकते हैं जो हमें आमतौर पर सीधे-सीधे नजर नहीं आते, ..और देखकर हम उन्हें संवार सकते हैं, ठीक कर सकते हैं. इसी प्रकार अंतर्मुख होकर या किसी से बड़े अपनेपन से काउन्सलिंग लेकर हम अपनी भीतरी कमियों को जान सकते हैं और उन्हें ठीक या दूर कर सकते हैं. ...बुराई का महत्त्व जानने के लिए हमें अच्छाई में, और अच्छाई का महत्त्व जानने के लिए हमें बुराई में जाने की आवश्यकता तो नहीं! जीवन के ये पाठ समय के साथ स्वतः ही सीखते चले जाते हैं यदि हम पर्याप्त संवेदनशील और जागरूक हैं तो! हमारे भीतर बुराई और अच्छाई के रूप में अँधेरा और उजियारा दोनों हैं,...भीतर के उजाले को लगातार पाने का प्रयास हमारे अंतर्मन के सभी अँधेरे दूर करता जाता है. जैसे-जैसे भीतरी प्रकाश की मात्रा बढती जाती है, अँधेरे भागते जाते हैं. ...हर प्रकार के प्रकाश का तो कोई तो स्रोत जरूर होता है, ...किन्तु किसी भी प्रकार के अँधेरे का कोई भी स्रोत नहीं होता!!!! ...प्रकाश का न होना ही अँधेरे का मूल कारण होता है!

(४) पैसे से जीवन है या पैसा ही जीवन है? कई बार देखता हूँ लोग कमाते कमाते भूल बैठे हैं कि कमाने के लिए जीवन है या कमाई से अच्छे जीवन की तलाश, कृपया अपने विचार रखें!
चूंकि हम भौतिक शरीर और भौतिक जगत में रह रहे हैं तो इस जीवन को बेहतरी के साथ जीना हमारा उद्देश्य अवश्य होना चाहिए. ..जीवन को बेहतर बनाने के लिए हमें श्रम की और उससे अर्जित धन की आवश्यकता पड़ती है. फिर इस धन को हम उन मदों (या वस्तुओं) पर खर्च कर सकते हैं जिनसे हमें लम्बे अरसे तक बुनियादी आराम और खुशी मिले. ...लेकिन हमारे यहाँ अधिकांश लोगों को धन या मात्र दिखावा एकत्रित करने का शौक है, वो भी बहुत सारा, अथाह..!! इसके साथ ही एक खराबी और, कि, यह धन भी उन्हें बहुत कम श्रम करके या यूं ही (किसी दंदफंद/शॉर्टकट से) मिल जाये, इसकी चाहत बहुत रहती है! ..सांसारिक वस्तुएं, विलासिता आदि कोई बुरी चीज नहीं, पर पागलों समान उनमें आसक्ति रखना, ..यह गलत है! ...हमारे यहाँ सही या गलत तरीके से जो भी कमाया जाता है उसे जीवनपर्यंत बढ़ाने, बचाने, छुपाने, सहेजने या फिर दिखावा करने के लिए ही ज्यादा कोशिशें होती हैं, ..जीवन के सही पहलुओं पर तो उसे बहुत कम खर्च किया जाता है! जीवन को जिन्दादिली के साथ व प्रकृति का लुफ्त लेते हुए जीने की ललक बहुतों में अब गायब है, एक दिखावटी कृत्रिम जीवन जिया जा रहा है, बिलकुल मशीनी सा..! नोट बनाने की मशीन तो बन गए हैं पर मानवता व जीवन के सच्चे उल्लास को बंधक बना दिया है हमने! ..यह असंतुलन की स्थिति है. ..हमें सचेत होना होगा.

(५) क्या हम इसीलिए अच्छे हैं क्यूंकि हमें भगवान् और कर्मों का डर है या हम वैसे भी अच्छे हैं क्या हम कभी बिना डर/भय के जीवन को यूँही एक नदी के बहाव की तरह जी पाते हैं?
जो कमजोर इच्छाशक्ति वाले, कम समझ रखने वाले और कम नैतिक हैं वे अपने अच्छेपन को बढ़ाने या अच्छाई को बरकरार रखने के लिए भगवान् और कर्मफल आदि से डरते हैं और इस डर की वजह से 'शायद' वे अच्छे हैं! फिर भी उनकी अच्छाई परिस्थितियों के अनुसार डोलती रहती है! ...दूसरी ओर दृढ़, समझदार और नैतिक गुणों से भरपूर व्यक्ति बिना किसी डर के स्वाभाविक या प्राकृतिक रूप से लगभग हमेशा ही अच्छे बने रह सकने में समर्थ होते हैं. पहले प्रकार के व्यक्ति डर के मारे अत्यधिक विधि-निषेधों का अनुपालन करते हैं जबकि दूसरे प्रकार के व्यक्ति विधि-निषेधों से परे रहकर भी भीतरी अच्छाई को कायम रख पाने में सफल रहते हैं. पहले वाले जकड़े हुए और परतंत्र से दिखते हैं तथा सीमित रूप से अच्छे होते हैं, जबकि दूसरे वाले खुले विचारों के साथ स्वतंत्र और स्वछन्द होते हैं, उनकी अच्छाईयां व्यापक होती हैं.

(६) स्वभाव से सोच है या सोच से स्वभाव है?
हमारी सोच तो अपनेआप में 'अव्यक्त' होती है लेकिन हमारे स्वभाव/मनोभाव/मिजाज़ के माध्यम से वह 'व्यक्त 'होती है! यानी हमारे स्वभाव से हमारी सोच महसूस या दिखाई पड़ती है. अर्थात् हमारे स्वभाव (सामान्य व्यवहार / मिजाज) के मूल में हमारी सोच है. ...सोच से ही स्वभाव है!

(७) मुझे बहुत गुस्सा आता है, मेरा घर में सबसे ज्यादा झगड़ा होता है और मुझे धन कमाने के लिए कोई रास्ता नहीं सूझता, और पैसों की परेशानी बनी रहती है!
प्रत्येक चीज पाने के लिए लगनपूर्वक कर्म करना आवश्यक होता है; और हमारे वश में केवल कर्म (कोशिश) करना ही है, फल नहीं! .."हमारे वश में फल नहीं" से तात्पर्य यह है कि फल कब व किस रूप में हमारे समक्ष आएगा, इसका हम बहुत सटीक अनुमान नहीं लगा सकते। वर्तमान कर्म के साथ हमारा प्रारब्ध भी तो हमसे जुड़ा हुआ है, वह भी नतीजे (परिणाम) को कुछ न कुछ प्रभावित करता रहता है। ...अब चूंकि हमारे हाथ में सिर्फ कर्म ही है, तो फिर हमारे वश में मात्र यही है कि हम शांत मन से पूरी तन्मयता से खुद को कर्मभूमि में झोंक दें, ...प्रारब्ध को परास्त करके एक दिन विजयी होने का केवल यही विकल्प है हमारे पास!!! ..कोशिश पूरी करें पर उतावले होकर भागें नहीं किसी चीज के पीछे! जब मिलनी होगी मिल जाएगी हमारे प्रयासों में कोई कमी नहीं, इस बात का संतोष सदैव आ जाये तो मन अपनेआप शांत रहेगा। बौखलाने और उत्तेजित होकर आपा खो देने से तो हमारी मानसिकता और आगामी कर्म बहुत प्रभावित हो सकते हैं। कृपया शांत चित्त से अनवरत कर्म करने में जुट जाएं, सफलता को फिर कभी तो किसी न किसी रूप में आपके पास आना ही पड़ेगा।

(८) मैंने कोई सपना देखा और चाहे जिस भी कमी की वजह से वह पूरा नहीं हुआ। पर जिस दोस्त या रिलेटिव को मैंने वह सपना शेयर किया था उसने प्रभावित हो उसे पूरा कर लिया। दुख होता है कि मेरा सपना क्यों अधूरा रहा!?
जो व्यक्ति किन्हीं शब्दों, ज्ञान, सपने या किसी के आईडिया वगैरह से प्रभावित व प्रेरित होकर जितनी जल्दी और कुशलता से कार्य को सम्पादित (एक्सीक्यूशन/इम्प्लीमेंटेशन) करता है , उसके सफल होने की संभावनाएं उतनी ही तीव्र होती हैं! ...किसी भी ज्ञान को पाने का महत्व केवल 5% होता है, शेष 95% महत्त्व कुशलतापूर्वक उसे कार्यान्वित करने का होता है.

(९) क्या सबसे बड़ा प्रश्न यह नहीं कि हमारी सोच में गलती है? हमारा यह सोचना कि वह (भगवान) हमारा ही हिस्सा नहीं बल्कि कुछ है जो हमारे बाहर है? आप क्या सोचते हो कृपया बताएं, क्या यह हमारी सोच नहीं कि भगवान कोई बहुत ही ताकतवर चीज है जो हमारे पाप पुण्य का ब्यौरा रख रही है बजाए इसके कि हम उसको अपने में ही अनुभव कर पाएं और एक पूर्णता को महसूस कर पाएं!
भगवान् उतनी ही ताकतवर चीज है जितनी कि प्रकृति!!! प्रकृति अपने प्रति (यानी प्रकृति के प्रति) हमारे हर एक्शन को दर्ज करती है और उसी के अनुरूप प्रकृति की प्रतिक्रिया स्वतः ही आती है! कब और किस फॉर्म में, विज्ञान ने कुछ हद तक इसकी व्याख्या करने में सफलता प्राप्त कर ली है! प्रकृति के समान ही ईश्वर हैं या यह कहना अधिक उचित होगा कि भगवान् प्रकृति के रूप में ही हमारे समक्ष विद्यमान हैं. प्रकृति के नियम और ईश्वर के नियम एक ही हैं! जैसे प्रकृति निराकार वैसे ही ईश्वर भी! चूंकि हम भी एक प्राकृतिक जीव हैं इसलिए ईश्वर या प्रकृति हमारे भीतर भी है. यदि हम उसके नियमों-सिद्धांतों के अनुरूप चलते हैं तो मानों हम पूर्ण हैं, हमें कोई भी डर या भय नहीं! उसके विरुद्ध जाने पर आशंका उपजती है कि प्रकृति संविधान के खिलाफ जाने पर प्रकृति की कोई प्रतिक्रिया हम तक अवश्य आयेगी कभी न कभी! ...ईश्वर कोई डराने वाला राजा नहीं है दीदी.... वो तो प्रकृति के सिद्धांत के रूप में है. ये सिद्धांत अटल होते हैं. उदाहरण के लिए- धनिये का बीज बोने पर धनिये का पौधा ही निकलता है और गेहूं का बीज बोने पर गेहूं का ही!! इसके विपरीत होते देखा है क्या कभी?? इसमें डरने वाली तो कोई बात नहीं दिखती मुझे! एक और उदाहरण -- महान वैज्ञानिक न्यूटन का तृतीय नियम (एक प्राकृतिक सिद्धांत) यह कहता है कि- प्रत्येक क्रिया के फलस्वरूप उसी अनुरूप कोई प्रतिक्रिया आनी निश्चित है; प्रतिक्रिया तुरंत भी आ सकती है और अनिश्चित समय के बाद भी! लेकिन आयेगी अवश्य!!! इसमें भी कोई व्यर्थ डरने-डराने वाली बात नहीं! यह तो प्राकृतिक संविधान का एक नियम (सिद्धांत) है मात्र! जो इसका ध्यान रखता है, पालन करता है, वह निश्चिन्त है, विरुद्ध जाने वाला झेलेगा, झेलता है. ....तो यदि हम ईश्वर को सदैव अपने भीतर ही महसूस करते हैं सदैव तो ईश्वरीय संविधान का पालन हमसे स्वतः अपनेआप ही होता रहता है, बिना किसी अतिरिक्त कोशिश के. तब एक पूर्णता का अहसास होता है.

(१०) भगवान की बड़ी बड़ी मूर्तियां, उनका दर्शन क्या यह बयान नहीं करता कि जीवन एक दर्शक से दर्शन बनने का सफर है? आपकी क्या राय है, क्या जीवन सिर्फ भगवान का दर्शन, उनकी बातें या कभी न कभी उन्हीं की तरह बन जाना कि लोग हमारा दर्शन कर सके, भगवान् की तरह नहीं बल्कि एक अच्छे इंसान की तरह ही सही! हमारा भी कुछ योगदान हो इस धरा पर और लोग उसको जान सकें और हमें भी अपने इंसान होने पर गर्व हो जाए!!!
हमारी फितरत कुछ ऐसी है कि ज्ञान के पथ पर हम पहले स्थूल की राह पर, तत्पश्चात धीरे-धीरे सूक्ष्म की राह पर चलते हैं. स्कूल में भी शुरू में हम फोटो और त्रिआयामी आकृतियों की मदद से वर्णाक्षर ए,बी,सी,डी.... सीखना शुरू करते हैं. ..फिर कक्षा दर कक्षा हमारा ज्ञान व समझ सूक्ष्म होते चले जाते हैं. फोटो और आकृतियों के बिना भी हमारा ज्ञान व्यापक होता चला जाता है. ..शर्त बस यह होती है कि किसी एक कक्षा के मोह में न पड़ जायें, नहीं तो जीवन भर उसी कक्षा में बैठे रह जायेंगे!!! एक कक्षा का पाठ्यक्रम यानी सिलेबस समाप्त हो जाने पर अगली कक्षा में जाना अनिवार्य होता है! ऐसे ही ईश्वर को भी स्थूल से सूक्ष्म तक जानना आवश्यक होता है. कहीं बीच में एक स्थान पर ही अटक जाने से हमारी यात्रा रुक जाती है और हम कुंए के मेंढक बन सकते हैं! ...ज्ञान के क्रमशः सूक्ष्मतर...सूक्ष्मतम होते होते व्यक्ति और उसकी सोच भी व्यापक होते जाते हैं, अच्छाईयां बढ़ती जाती हैं, कर्म भी स्वतः उत्कृष्ट होते जाते हैं, ...फिर सार्थक योगदान अपनेआप होता है. लोग उसे जानें या न जानें, नोटिस करें या न करें, सराहें या न सराहें, ...उस व्यक्ति को कोई फर्क नहीं पड़ता. ..बस उसे भीतर से स्वयं से पूरी तसल्ली होती है, बड़ा संतोष मिलता है.

(११) क्या जीवन का हर संघर्ष, हर परेशानी हमें अपनी ताकत याद दिलाने ले लिए नहीं था? अंततः यही समझ आता है जीवन का हर कष्ट, हर दुःख, हर सुख, हमसे हमारी पहचान कराने के लिए ही था, कि हम इस मनुष्यरूपी जीवन को सार्थक बनाएं, कुछ खुद के लिए और कुछ औरों के काम आएं!!!
मैं मानता हूँ कि हर कोई अपने जीवन में गिर कर, संघर्ष कर, बहुत कुछ सीखता है. ...लेकिन इसके साथ ही मेरा यह भी मानना है कि हम दूसरों के प्रसंगों से भी बहुत कुछ ग्रहण कर सकते हैं, दूसरों को भी गिरता या संघर्ष करता देख बहुत कुछ सीख कर सचेत हो सकते हैं, अनुभव प्राप्त कर सकते हैं, ..यदि हममें ग्रहण करने की अभिलाषा और काबलियत हो तो! ...हाँ अवलोकन करने, सीखने के बाद उसे प्रयोग में लाना अति आवश्यक होता है, तभी कुछ ठोस हासिल होता है.

(१२) हम व्रत क्यों रखते हैं? कुछ पाने के लिए? रिवाज चला आ रहा है इसलिए? या सच में हमें उपवास का मतलब मालूम है इसलिए? आज करवाचौथ था इसलिए यह सवाल दिमाग में आया!! !हम क्या और क्यों कर रहे है, हमें पति से वास्तव में प्यार है या दिमाग के पीछे हमें मालूम है पति के बिना गुजारा नहीं!?
वैसे तो अधिकांश व्रत आदि देखा-देखी, समाज की भेड़चाल के अनुसार ही रखे जाते हैं. ...लेकिन स्त्रियों द्वारा रखे जाने वाले कुछ व्रत जैसे करवाचौथ एवं छठ आदि बहुत आस्था और भाव से रखे जाते हैं. स्त्रियों का अपने जीवनसाथी के प्रति निःस्वार्थ प्रेम परिलक्षित होता है इनमें. मेरे विचार से कम से कम 90 प्रतिशत स्त्रियाँ बड़े मनोयोग व दिल से इन व्रतों को रखती हैं. उनको मेरा सादर नमन.

(१३) ईश्वर साकार है या निराकार? यह सवाल अक्सर पूछा जाता है कि आखिर ईश्वर कैसा है? साकार होता है या बिना आकार का निराकार? रामकृष्ण परमहन्स कहते थे कि ईश्वर को पहले साकार मानकर उसकी भक्ति करो, इतनी भक्ति करो कि उसमे लीन हो जाओ, तब उसका निराकार स्वरूप स्वतः प्राप्त हो जायेगा...!
परमपूज्य रामकृष्ण परमहंस जी ने अति उत्तम बात बताई है। हमारी प्रवृत्ति और मानसिक ढांचा भी कुदरती इसी प्रकार का है कि हमारा ज्ञान क्रमशः स्थूल से सूक्ष्म की ओर बढ़ता है। बचपन से ही स्कूल में बच्चा प्रथम फोटो और त्रिआयामी खिलौनों की मदद से वर्णाक्षर सीखता है, फिर कक्षा दर कक्षा क्रमशः उसका ज्ञान और समझ स्वतः ही पैने व सूक्ष्म होते चले जाते हैं। ...बस यहां शर्त एक ही होती है कि एक कक्षा का कोर्स पूरा होने पर अगली कक्षा को प्रस्थान अवश्य किया जाए! एक ही कक्षा से मोह रखने वाला, सदैव उसी कक्षा में ही बैठे रहने की जिद करने वाला बालक आगे उन्नति नहीं कर सकता!

(१४) जीवन में हमें क्या प्राप्त होता है, उस पर हमारा शतप्रतिशत कोई नियंत्रण नहीं किन्तु परिस्थिति का अपने साथ सही उपयोग केवल हमारे हाथ में ही है, ....क्या यह सही है?? भाग्य पर विश्वास ठीक है किन्तु केवल भाग्यवादी बन कर हाथ पर हाथ रख कर बैठना सही नहीं है; ...प्रयत्नशील रह कर अवसर की तलाश करने से ही रास्ते मिलते हैं!
यह बात ठीक है कि प्रारब्ध या भाग्य होता है; लेकिन यह बात मेरे लिए मानना असंभव है कि भाग्य को कोई सटीकता से कभी भी जान सकता है। ...तो प्रत्येक मिले अवसर पर पूरे मन से तब तक प्रयास करना चाहिए जब तक कि अवसर की वैधता समाप्त नहीं हो जाती। उदाहरण के लिए, ..किसी प्रतियोगी परीक्षा में पूरी कोशिशों के बाद भी उसके लिए निर्धारित अधिकतम प्रयत्नों के बाद (पात्रता समाप्त होने तक) भी यदि हमें सफलता प्राप्त नहीं होती, तब ही हम इस निष्कर्ष पर पहुंच सकते हैं कि यह शायद हमारे भाग्य में ही नहीं थी!!! ...लेकिन आखिरी वैध कोशिश का परिणाम आने तक हमें अपने कर्म के अलावा किसी चीज का यानी भाग्य फैक्टर का पता नहीं चल सकता। ...जब ऐसा है तो हताशा की तो कोई गुंजाइश नहीं बचती! अंतिम प्रयास तक भरपूर कर्मशील और आशावान रहते हैं। ..सफलता मिल गयी तो बल्ले-बल्ले, ..अन्यथा नियति को सिर झुकाकर मान लेते हैं और तब किसी अन्य प्रोजेक्ट में लग जाते हैं। जीवन चलने का नाम है, यह कभी नहीं भूलते तो जोश और होश दोनों कायम रहते हैं। प्रारब्ध, कर्म और फल संबंधी मूलभूत सिद्धांतों को भलीभांति जानते और मानते हैं तो जीवन के अंतिम पड़ाव पर भी विचलित नहीं होते कि हम वो न पा पाए जिसके लिए कोशिशें करते रहे! क्योंकि न पाने के बावजूद हम जानते हैं कि हमारे किये गए प्रयास विफल नहीं जाएंगे, वो भी एक दिन रंग लाएंगे! वो प्रयास वो क्रियाएं हैं जिनकी प्रतिक्रियाएं आना अभी शेष है। ..इस जीवन के साथ एक अध्याय समाप्त हुआ, किताब तो अभी जारी है!