Friday, September 28, 2018

(१०९) चर्चाएं ...भाग - 28

(१) रावण के दस सिर, वेदों का ज्ञान, बड़ी सी सोने की लंका, हर तरह का ज्ञान, हर तरह की पावर और राम में सिर्फ और सिर्फ देवत्व!! सवाल ये है कि बुराई इतनी पावरफुल क्यों है और अच्छाई अपना इम्तिहान देते-देते क्यों मरी जा रही है बिना किसी वजह ......या ये जरूरी है कि अच्छाई भी अपनेआप को समर्थ बनाकर रखे जरूरत के लिए! ...बेहतरीन उदाहरण है परमाणु बम को रखना अपनी समृद्धि और रक्षा के लिए!!! कृपया अपनी राय दें. ...कहीं न कहीं अच्छे लोगों की खामोशी बुराई को बढ़ाने में सहायक है ......आपकी क्या राय है कृपया बताएं!!
वैसे यह कोई स्थाई समाधान नहीं है कि बुराई से बचने के लिए हम अपनी संहारक क्षमता को बढ़ाते रहें! संहारक क्षमता को बढ़ाने में जितना समय, श्रम व पैसा लगता है उसकी मदद से बहुत से विकास के काम भी किये जा सकते हैं! ..फिर संहारक क्षमता को बढ़ाने की भी तो कोई थाह नहीं! हम आतताई से बचने के लिए आज जो बनायेंगे कल वह आतताई उससे बड़ा संहारक शस्त्र बना लेगा! ...फिर यह भी तो जरूरी नहीं कि वह हमारी संहारक क्षमता के आगे सदैव नतमस्तक रहे! ..कभी भी यह भी हो सकता है कि वह सिरफिरा परमाणु बम जैसे अस्त्रों का प्रयोग करके अन्यों और अपनी तबाही ले आए!!! ...डर से किसी सिरफिरे अल्पज्ञ को हमेशा के लिए नहीं दबाया जा सकता! क्या यह बेहतर विकल्प नहीं कि अल्पज्ञ को सुधारने की कोशिश की जाये, और न सुधरने पर उस खतरनाक अल्पज्ञ का ही सदा के लिए खात्मा कर दिया जाये! राम और कृष्ण ने यही किया था! राम के समय में मात्र लंकाधीश रावण और उसके चंद सहयोगी दुष्ट थे, पूरी लंका के अन्य समस्त जन नहीं! महाभारत के समय में कौरव और उनके कुछ सहयोगी दुष्ट थे, वहां की आम प्रजा नहीं! राम और कृष्ण ने भी उन दुष्टों को समझाने की भरसक कोशिश की और न सुधरने पर अंततः उनका खात्मा किया! ..लेकिन मात्र अपनी संहारक क्षमता को बढ़ा कर या मात्र अपने बाहुबल को जता कर राम और कृष्ण क्या उनकी दुष्टता को सदा के लिए नियंत्रित कर सकते थे???? ..राम-कृष्ण के शक्ति-प्रदर्शन से शायद उनकी दुष्टता कुछ समय के लिए दबी रह सकती थी लेकिन वे दोबारा छुपकर प्रतिघात अवश्य करते और उन्होंने किया भी! ..वैसे इतिहास गवाह है कि समझाने से (खरा ज्ञान देने से) बहुत से दुष्ट सुधरे भी हैं और असत्य से सत्य के पक्ष में आ खड़े हुए हैं.  ...समाज एक शरीर की तरह है और विभिन्न लोग उसके अंग-प्रत्यंग! ...अपने शरीर के किसी अंग में बीमारी हो जाने पर हम उसका इलाज बिलकुल थोड़े से (मुलायम तरीके से) शुरू करते हैं और ठीक न होने की दशा में इलाज को क्रमशः तीव्र करते जाते हैं. कभी-कभी (बहुत कम बार ही) ऐसा भी होता है कि शरीर के उस बीमार हिस्से की वजह से पूरे शरीर के स्वास्थ्य को खतरा बन जाता है तब सर्जरी करवा कर उसको हमेशा के लिए समाप्त करना पड़ता है! ..लेकिन क्या जरा सा कुछ होते ही हम सर्जरी पर उतर आते हैं? जी नहीं! ...राम और कृष्ण की नीति भी यही रही थी;  और यह नीति आज भी प्रासंगिक है, हमेशा रहेगी! ..अंत में आपने कहा है कि, अच्छे लोगों की खामोशी बुराई को बढ़ाती है, ...यह बिलकुल ठीक बात है. ...अब उदाहरण के तौर पर देख लीजिये कि शरीर के किसी अंग में हुए रोग को यदि हम खामोश रहकर नजरअंदाज करते हैं तो वह मामूली सा रोग एक दिन नासूर बन जाता है! समय रहते उसका समुचित इलाज अत्यंत आवश्यक होता है, लेकिन इलाज के चरण वही होने चाहियें- मंद से शुरू करके क्रमशः तीव्र...!

(२) दुःख और सुख क्या है?
मन की नकारात्मक या सकारात्मक स्थिति ही क्रमशः दुःख और सुख है! ...और ये स्थितियां उससे उत्पन्न होती हैं जो हो रहा है! ...जो हो रहा है वो तो होगा ही क्योंकि उसके पीछे हमारे पूर्व व वर्तमान के कर्म तथा प्रकृति के अकाट्य नियम-सिद्धांत हैं! गहराई से यह विचार करते ही हम दुःख और सुख से थोड़ा सा अलग हो जाते हैं.

(३) 'आज' की दुनिया में समझदार इंसान की क्या पहचान है? क्योंकि ईमानदारी, वफादारी, सत्य, धर्म, अहिंसा और निःस्वार्थ भाव; लोग इन्हें किताबी बातें कहते हैं, इन पर अडिग रहने वालों को लोग बेवकूफ कह कर हंसी उड़ाते हैं!
इस चर्चा में आपने अपना जो दृष्टिकोण दिया है वह सत्य और सराहनीय है। ...लेकिन यदि आपके मूल प्रश्न ('आज' की दुनिया में....) पर आएं, तो 'आज' की दुनिया में तो समझदार इंसान की पहचान यही है कि, "जो सबकी हां में हां मिलाये, चल रही हवा के साथ बहता जाए!" बड़े दुर्दिन आ गए हैं! ..बस यहां आकर थोड़ा ढाढ़स बंधता है।

(४) प्यार हमेशा दूसरे का भला करने में लगा रहता है और प्यार पाने की ख्वाइश हमेशा दूसरे को हासिल करने में लगी रहती है, अक्सर ऐसा देखा जाता है जो बढ़चढ़ कर प्यार / दोस्ती की बातें करते हैं वे सिर्फ प्यार नहीं बल्कि प्यार को हासिल कर के एक सिक्योरिटी को हासिल करना चाहते है!! कृपया अपनी राय दें!!
निरपेक्ष प्रेम, निःस्वार्थ प्यार, आदि आजकल की भारतीय संस्कृति से गायब से हो गए हैं। आजकल प्यार केवल शारीरिक आकर्षण और सांसारिक लाभ में ही फंसकर रह गया है। अविवाहित युगल के बीच अब विरले ही सच्चा प्यार देखने को मिलता है। विवाहितों में अभी भी गाढ़ा प्यार कायम था, ..लेकिन समलैंगिक और विवाहेत्तर संबंधों की आजादी के बाद पता नहीं समाज अब प्यार की कौन सी नई परिभाषा गढ़ता है!
मैंने हमेशा दूसरों से कुछ न कुछ सीखने का पक्ष लिया है, ...लेकिन आंखें मींचकर कदापि नहीं!!! प्रत्येक में कुछ अच्छाईयां और कुछ बुराईयां होती हैं. यदि हमें वास्तव में आगे को जाना है तो दूसरे की बुराई को फिल्टर करके केवल उसकी अच्छाई को लेना होता है. ...लेकिन फटाफट प्रगति को पा जाने की धुन में हमारे देश के आका चंद विकसित देशों की बुराईयों के तो पिछलग्गू बन गए हैं परन्तु उनकी अच्छाईयों एवं विशेषताओं से अभी भी कोसों दूर हैं! मेरे पिछले अनेक लेखों में इस त्रासदी का विस्तृत वर्णन है.

(५) मेरी आस्था भगवान में बहुत अधिक है लेकिन मैं कभी-कभी आस्था से भटक जाता हूं लेकिन कुछ ही दिनों में ईश्वर पर यकीन करने लगता हूं मैं आपसे यह पूछना चाहता हूं कि कि मेरा दिमाग या फिर मेरा मन या फिर मेरी आत्मा तीनों स्थिर नहीं है ये तीनों चीज एक ही हैं या अलग कुछ समझ में नहीं आ रहा है!
शुरू में आप दिमाग, मन, आत्मा जैसे विषयों पर अपना ध्यान न भटकाकर, अपनी आस्था को अनेक से एक में लाने की चेष्टा करो. अर्थात् पहले अनेक ईश्वर रूपों में से किसी एक पर आ जाओ, फिर उस एक साकार ईश्वर रूप से भी एक निराकार परमात्मा पर आस्था दृढ़ करने का प्रयास करो. भीतर से खोजी और जिज्ञासु बनो. पश्चात् धीरे-धीरे सब ज्ञान अपनेआप होता चला जायेगा. अध्यात्म में जल्दबाजी बिलकुल भी ठीक नहीं, लेकिन समझने-जानने की निरंतर भूख-प्यास बहुत जरूरी है. यह तीव्र जिज्ञासा ही आगे के सब द्वार खोलती चली जाती है. शुभकामनाएं.

(६) वासना को दूर करके अपना मन परमात्मा में कैसे लगाया जा सकता है?
बड़ा अचूक उपाय है यह कि, किसी भी नकारात्मक अथवा अवांछित विषय से अपना ध्यान हटाने के लिए, ठीक उसी समय किसी अन्य सकारात्मक विषय पर अपना ध्यान केन्द्रित करने से, अवांछित से छुटकारा पाने में बड़ी मदद मिलती है. हालाँकि शुरू में यह प्रक्रिया जबरन करनी पड़ती है, फिर धीरे-धीरे मन सध जाता है.

Wednesday, September 26, 2018

(१०८) चर्चाएं ...भाग - 27

(१) डर ही डर.. क्या डर ही इंसान है कभी कभी ऐसा लगता है, हम क्यों इतना डरते हैं, कभी बीमार होते हैं तो सोचते हैं शायद बीमारी ठीक ही नहीं होगी!? आधी से ज्यादा परेशानियां शायद थोड़े बहुत साहस से ही ठीक हो जाएंगी!
हमारे भीतर किसी भी अच्छी यानी किसी सकारात्मक चीज की कमी ही, उसके विलोम यानी किसी बुराई / दुर्बलता / नकारात्मकता आदि की वजह बनती है. निःसंदेह 'डर' हम सब की कमजोरी है. किसी में कम होता है तो किसी में बहुत ज्यादा. लेकिन यह उपजता हमारी किसी अंदरूनी कमी के कारण ही है. यदि हम निरंतरता से खुद में कुछ सकारात्मकता जोड़ते रहें तो हमारी मानसिक दुर्बलताएं घटती जाती हैं. जैसा आपने सुझाया कि 'साहस' से आधे से अधिक 'डर' दूर हो जायेंगे, तो इसमें भी वही फार्मूला लागू हुआ न! पॉजिटिव बढ़ाया, तो नेगेटिव कम हुआ! यह सर्वोत्तम तरीका है अपनी दुर्बलताओं से मुक्ति पाने का. ..कभी कभी हमारे मन में कोई चोर, कपट, धूर्तता, बेईमानी, आदि का शॉर्टकट होता है तब भी हमें भीतर से भय लगता है कि हम कहीं पकड़े न जायें, हमारा राज न खुल जाये; तब भी भय का कारण हमारा गिरा हुआ नैतिक स्तर ही हुआ. हम उसे उठायेंगे तो उस भय को भगायेंगे जो उसकी (नैतिकता की) कमी से उपजा है. ...बीमारी के मामलों में तो डर अनोखा ही होता है क्योंकि कोई भी बीमार होना या मरना नहीं चाहता; हर कोई हमेशा हृष्टपुष्ट ही रहना चाहता है! लेकिन उस दशा में भी मन को यह समझाना होगा कि सभी भौतिक वस्तुओं की तरह मानव शरीर भी भंगुर है, इसका भी क्षरण होता है, इसकी भी टूटफूट संभव है, इसकी भी एक एक्सपायरी डेट है! एक मोटर गाड़ी भी जब हम खरीदते हैं तो हमें पता होता है कि उसमें भी टूटफूट, एक्सीडेंट, आदि संभव है; उसे निरंतर रखरखाव की जरूरत भी पड़ेगी; एक दिन ऐसा भी आएगा जब वह बेकार हो जाएगी...., तब भी हम धैर्य और साहस रखकर उसे खरीदते हैं, उसे जमकर इस्तेमाल करते हैं, उसकी देखभाल, रखरखाव आदि बाकायदा रखते हैं, उसकी सेहत के प्रति फिक्रमंद रहते हैं लेकिन चिंता में घुले नहीं जाते! छोटी-छोटी बात पर उसे मैकेनिक के पास नहीं ले जाते और कुछ खराबी हो जाने पर उसे रगड़ते भी नहीं रहते, उसका प्रॉपर इलाज करवाते हैं! उसमें डाले जाने वाले ईंधन, इंजन-आयल (यानी भोजन) की गुणवत्ता का ध्यान रखते हैं; ड्राइविंग भी स्मूथ करते हैं! ...ठीक इसी प्रकार अपने शरीर के प्रति दृष्टिकोण बना लें तो काफी आसानी हो जाएगी! जागरूकता और दृढ़ता से सत्य भीतर समाने पर व्यर्थ के डर कम हो जायेंगे.

(२) जैसे ही किसी चीज की इच्छा को छोड़ते हैं वैसे ही वह चीज गोदी में आकर गिरती है और कभी-कभी उस से भी बेहतर चीज .....क्या आप ने कभी ऐसा अनुभव किया?
जी हाँ..., अनेक बार ऐसा अनुभव किया है. ...इसीलिए तो कहा जाता है कि योग्यतम ढंग से अपने काम करते जाओ लेकिन कभी बहुत व्यग्रता से किसी चीज के मिल जाने की बाट न जोहते रहो. आपकी कर्मठता और नेकनीयती की बदौलत सही वक्त पर सही चीज आप तक स्वतः आ जाएगी. बहुत पीछे पड़ने से और बहुत अपेक्षा करने से भी कई काम अटक जाते हैं, इसलिए सहजभाव बहुत जरूरी है.

(३) ब्रह्म सत्यम जगत मिथ्या के सम्बन्ध में बताएं!
"ब्रह्म सत्य है, और जगत मिथ्या", इसका सीधा अर्थ लें तो निकलता है कि, "अजन्मा, अप्रकट व निराकार आत्मा-परमात्मा ही सत्य है, शेष सब भौतिक पदार्थ मिथ्या यानी स्वप्न-स्वरूप यानी मिट जाने वाला है." ...यदि कोई इस 'अर्थ' को ही 'भावार्थ' के रूप में ले ले तो बड़ा खतरा यह बनता है कि वह प्राणी कभी भी समस्त सांसारिक कर्तव्यकर्म और भौतिक प्राण तक भी स्वेच्छा से त्याग सकता है! ...इस संदर्भित वाक्य का गूढ़ अर्थ यानी भावार्थ प्राकृतिक रूप से ही हमारे भीतर अंकित है यानी सबको सहज उपलब्ध है, लेकिन मन में बने आगंतुक बेतरतीब संस्कारों के ढेर तले वह दबा पड़ा है! हम अक्सर इन्हीं संस्कारों के तहत ही जीवन जीते हैं, इन्हीं संस्कारों के तहत आत्मा और परमात्मा को ढूंढते फिरते हैं, इन्हीं संस्कारों के तहत भौतिक व आध्यात्मिक बहसें करते हैं. ..हालाँकि मथने से बहुत बार आत्मा-परमात्मा सम्बन्धी खरा सत्य भी सामने आ जाता है, फिर भी दिल है कि मानता नहीं...., हम और अधिक मथ कर पुनः सब गड्डमड्ड कर देते हैं! हम गोल गोल घूमते रहते हैं, सोचते हैं बहुत चल लिए, ...लेकिन हमारा विस्थापन तो पुनः-पुनः शून्य हो जाता है!

(४) आपके नजरिये से अध्यात्म है क्या? क्या ये कर्मकांड है ज्योतिष है तांत्रिक क्रिया है या अमानवीय ऐसी सिद्धियों का प्राप्त करने का तरीका है, या अध्यात्म स्वयं की ही खोज है? आप अध्यात्म में क्यों आये और क्या पाना चाहते हो?
यह तो वही बात हो गयी कि कोई सागर या नदी से पूछे कि, "तेरा जल से क्या काम?!" ..जल से ही एक नदी या सागर का अस्तित्व है, उसी प्रकार 'आत्मा' (सूक्ष्म चैतन्य) के बिना क्या हमारा भौतिक देह में जीवन संभव है? आत्मा विषयक समस्त ज्ञान 'अध्यात्म' है. यह (अध्यात्म) भी एक प्रकार का शास्त्र यानी विज्ञान है. मूलतः यह सिद्धांतों पर आधारित है. आधुनिक विज्ञान के भी प्रकृति और प्राकृतिक सिस्टम से जुड़े अधिकांश या सभी नियम-सिद्धांत भी आध्यात्मिक सिद्धांतों से ही निकले हैं या उनका अनुमोदन करते हैं. हम मात्र उन्हें ही मान लें और स्वयं को भी उनके अंतर्गत रख कर थोड़ा विचारमंथन कर लें, तो मानों हम स्वयं (आत्मा) और अध्यात्म को जान गए! उदाहरण के लिए मात्र दो वैज्ञानिक सिद्धांत- (१) ऊर्जा की अक्षुण्णता का सिद्धांत यानी ऊर्जा कभी नष्ट नहीं होती, हाँ किसी अन्य स्वरूप में परिवर्तित अवश्य हो सकती है. ..(२) प्रत्येक क्रिया के फलस्वरूप प्रतिक्रिया निश्चित है. ...क्रिया के फलस्वरूप प्रतिक्रिया त्वरित भी आ सकती है और विलंबित भी; वह प्रतिक्रिया किसी अन्य रूप-अवस्था में भी आ सकती है; लेकिन आएगी अवश्य और उसकी प्रकृति (सकारात्मक या नकारात्मक) मूल क्रिया के अनुसार ही होगी. ...अध्यात्म में आने का कारण स्वयं और स्वयं से सम्बंधित सच्चे तथ्यों को समझना होता है, तदोपरांत अपने दैनिक जीवन के प्रत्येक कार्य और अपनी जीवनशैली को उन सिद्धांतों के अनुसार ढालना होता है. 'अध्यात्म' कोई पढ़ने, रटने या यंत्रवत कर्मकांड करने का शास्त्र नहीं अपितु सीधे-साधे ढंग से जीवन में उतारने का शास्त्र है. अध्यात्म में कोई आता नहीं है, प्रत्येक मनुष्य उसमें पहले से ही है, यह अलग बात है कि वह उसमें कितनी गहरी डुबकियाँ लगाता है. ज्योतिष, तंत्र-विद्या और रिद्धि-सिद्धि आदि का अध्यात्म से कोई भी रिश्ता-नाता नहीं है!

(१०७) चर्चाएं ...भाग - 26

(१) जीवन जीना एक कला क्यों कहा गया है...? आजकल ऐसे कई आध्यात्मिक केंद्र भी चल रहे है जहाँ आप ध्यान और चित्त शान्ति की विविध प्रक्रियाएं सीख सकते हैं!
जीवन जीने की कला अत्यंत व्यापक है. कोई व्यक्ति इसके कुछ पहलुओं से परिचित होता है तो दूसरा कोई व्यक्ति इसके कुछ अन्य दूसरे पहलुओं से! ..जो व्यक्ति जितने अधिक पहलुओं को अपने व्यक्तित्व में समेट लेता है वह उतना ही बड़ा कलाकार (अर्थात् समृद्ध व परिपूर्ण) होता है. ..इसकी कोई थाह नहीं! मेरी समझ से कोई अमुक आध्यात्मिक केंद्र 'जीवन जीने की कला' की अपरिमित थाह को एक निश्चित परिधि तक सीमित कर देता है, उसके पंखों को कतर देता है; क्योंकि वहां प्रत्येक व्यक्ति के लिए लगभग एक सी प्रक्रिया का प्रावधान या आग्रह होता है. ..जबकि मेरा मानना है कि प्रत्येक मनुष्य अपने आप में अनूठा यानी यूनिक है.

(२) सच्चा भक्त कौन होता है जो सेवा करे या जो बस पूजा करे?
जो भी कृत्य हमारे अहंकार को कम करते हुए हमारे भीतर 'ईश्वरीय गुणों' को बढ़ाने में सफल हो रहा है वह (कृत्य) ही हमारे लिए उत्तम!!! सभी के लिए यह (कृत्य) भिन्न-भिन्न हो सकता है, क्योंकि जितने व्यक्ति, उतनी ही प्रकृतियाँ, उतने ही साधना मार्ग! ..क्योंकि भिन्न विशिष्टताओं के कारण प्रत्येक मनुष्य अपनेआप में यूनिक (अनूठा) है, इसलिए किसी की भक्ति को सच्ची और किसी की भक्ति को झूठी करार दे देना ठीक न होगा. ...बेहतर हो कि हम व्यक्ति के 'गुणों' को परखें और उस आधार पर उसकी श्रेष्ठता का आंकलन करें.

(३) माफ कर देना सब समस्या का समाधान है?
परिवार और आपसी संबंधों यानी व्यक्ति के आन्तरिक सर्किल में तो इस सूत्र का कोई जवाब नहीं. माफ कर देने से संम्बंधों-रिश्तों में मधुरता बनी रहती है, बहुत सी समस्याएं भी हल हो जाती हैं. ऐसा इसलिए संभव होता है कि 'अपना' होने के कारण सामने वाले के दिल में भी हमारे लिए कुछ आदर-सम्मान होता ही है, और वह हमारी माफी की कद्र करता है. लेकिन दूर के व्यक्ति के लिए ऐसा करना (बारम्बार माफ करना) प्रैक्टिकली बहुत उपयोगी नहीं रहता क्योंकि उसके मन में हमारे लिए बहुत अल्प (या न के बराबर) स्नेह या सम्मान होने के कारण वह हमारी सहिष्णुता की कद्र नहीं कर पाता. उदाहरण के लिए-- "महात्मा गाँधी जी कितने विनम्र व सहिष्णु थे फिर भी वे समाज में व्याप्त अनेकों बुराइयों, गलतियों और अत्याचारों के लिए जिम्मेदार लोगों व शासकों को माफ करके चुपचाप नहीं बैठे रहे, बल्कि उन्होंने देश-विदेश में गलत के खिलाफ अनेकों सत्याग्रही आन्दोलन किये. ...भाई जी, कोई भी सूत्र हर जगह फिट नहीं हो पाता! हमारी माफी या चुप्पी का ही निरंकुश शासक, अधिकारीवर्ग और लालची कंपनियां और बहुत से अन्य लोग फायदा उठाते हैं. ..इसलिए स्वयं धर्म यानी नेक और सत्य मार्ग पर चलकर समस्त जग से भी इसका आग्रह करना ही तो सत्याग्रह है. प्रत्येक को प्रत्येक दशा में माफ करके हम सत्याग्रह (सत्य का आग्रह) नहीं कर सकते!

(४) हमें दूसरों को बदलने की कोशिश नहीं करनी चाहिए?
सभी तथाकथित ज्ञानी बारम्बार बहुत जोर देके कहते हैं कि खुद को ही बदलो, किसी अन्य को बदलने की चेष्टा न करो! लेकिन यह बात मुझे अधिक ठीक लगती है कि, खुद को संवारो और फिर अन्यों को भी संवारने की चेष्टा करो! ...'बदलने' शब्द में बहुत अपेक्षा-जिद-आग्रह हो जाता है इसलिए स्थाई सफलता नहीं मिल पाती. ..संवरने और संवारने में भला किसे आपत्ति हो सकती है! हममें कुछ भी ऐसा नहीं जो आमूलचूल बदला जा सके, पर सुधार की गुंजाईश तो सदैव रहती ही है!

(५) ज्ञान दूसरों को देना आसान है पर अपने पर अमल करना मुश्किल! ऐसा क्यों?
ज्ञान के ऊपर अमल करना उनके लिए मुश्किल होता है जो ऊपर ऊपर का दिखावा करते हैं। वे खड़कते इसलिये ज्यादा हैं क्योंकि वे भीतर से खोखले हैं! वे बोलते तो बहुत हैं पर सब रटा-रटाया, सुना-सुनाया या किताबी! ...लेकिन बहुत से लोग ऐसे भी होते हैं जो प्रथम खुद अमल करके अनुभव और अनुभूतियाँ जुटाते हैं तदुपरांत उन्हें आगे भी बांटते हैं। उनका ज्ञान अनुभवों पर आधारित होने से गहराव व सच्चाई लिए होता है, इसलिये वह आमजन को खट्टा-तीखा लगता है क्योंकि सत्य को चखना व हजम करना इतना सरल भी नहीं! ऐसे विरले ज्ञानियों को समाज और तथाकथित गुरुओं-संस्थाओं आदि के भारी क्रोध और विरोध का सामना भी करना पड़ता है।

Tuesday, September 25, 2018

(१०६) चर्चाएं ...भाग - 25

(१) आहार का शुद्धिकरण, इसका क्या अभिप्राय है...?? कहा जाता है कि जैसा खाएं अन्न वैसा होये मन और जैसा पिएं पानी, वैसी होये वाणी! ..आहार का हमारे शास्त्रों में विशेष महत्त्व बताते हुए कहा गया है कि आहार केवल मुख से नहीं बल्कि कानों से सुनना, आँखों से देखना और हाथों से स्पर्श करना भी है!
मानव देह में मूलतः हम सामाजिक प्राणी हैं. खाने-पीने के अलावा यदि सुनने, सूंघने, देखने और स्पर्श करने में भी अत्यधिक सावधानी रखने लगेगें, तो फिर तो हम समाज से लगभग कट ही जायेंगे. आज समाज में खुलेआम इतनी तथाकथित अस्पृश्य व अयोग्य वार्तालाप, दृश्य, कथन, वस्तुएं हमारे इर्दगिर्द हैं कि चौबीसों घंटे हम अपनी ज्ञानेन्द्रियों को बंद नहीं कर सकते, और न ही उनसे दूर भाग सकते हैं. बेहतर हो कि हम कीचड़ में कमल बनने की चेष्टा करें, अन्यथा किसी सुनसान पर्वत या जंगल में पलायन कर जायें, जो कि न तो संभव है और न ही सामाजिक और पुरुषार्थ की दृष्टि से ठीक है! इस काल में उचित यही है कि जैसा भी समाज हमारे आसपास है, उसे खुशी-खुशी स्वीकार करें, साथ ही अपनी अंदरूनी अच्छाई को बरकरार रखते हुए समानांतर रूप से समाज को उन्नत करने की भी कोशिश करें. समाज में उठते-बैठते भौतिक रूप से हम भले ही मैले हो जायें, पर भीतर से (नैतिक व आत्मिक स्तर पर) खुद को दूषित न होने दें, यही प्रयास करें. ज्यादा छुआछूत में दिमागी कसरत न ही करें तो बेहतर! सारांश में, खाद्य सामग्री सहित समस्त अन्य भौतिक वस्तुएं जिस 'नेक तरीके' से हम कमाते हैं, हमारी शुद्धता उसी से मापी जाएगी; अपने भीतर हम कैसे विचार रखते हैं, कैसे विचार पनपने देते हैं, हमारी शुद्धता उसी से नापी जाएगी. इस निराकार व अभौतिक आत्मा के लिए निराकार शुद्धि ही महत्त्व रखती है.

(२) आज के युग में इंसानियत की उम्मीद करना बेकार है?
कहते हैं उम्मीद पर दुनिया कायम है, ..और फिर उम्मीद के अलावा सकारात्मकता कायम रखने का अन्य कोई विकल्प है आपके पास? ..नहीं न! ...इसीलिए शायद किसी उम्मीद पर ही तो हम सब यहाँ अपना समय और ऊर्जा खर्च कर रहे हैं अन्यथा यहाँ कोई भी न होता! ...कर्म करने से ही किसी अभीष्ट की उम्मीद बंधती है दोस्तों! ..और फिर वह उम्मीद ही हमारे लिए संजीवनी का कार्य करती है.

(३) क्या प्रतिशोध को एक मानसिक बीमारी के रूप में स्वीकार किया जा सकता है?
बड़ी अजीब सी बात है कि, पहले गलत जीवनशैली (कुसंस्कारों/गलत आदतों) के कारण हमारे व्यक्तित्व और व्यवहार में विकृतियां उत्पन्न होती हैं, फिर आगे चलकर वे विकृतियां दृढ़ होकर विकारों में बदल जाती हैं, ..और मामला जब बेकाबू हो जाता है तो उन्हें बीमारी का नाम देकर संबंधित व्यक्ति को क्लीन चिट दे दी जाती है कि वह तो बीमारी की वजह से ऐसा कर रहा है। ...समलैंगिकता को इसी प्रकार क्लीन चिट मिली, ..और अब प्रतिशोध को भी एक बीमारी का नाम देने की तैयारी है क्या? ....इस प्रकार तो मनुष्यों में बहुत सी बीमारियां फैल जाएंगी तिसपर भी सभी के लिए आजादी, सहानुभूति और माफी होगी!

प्रत्युत्तर:- प्रतिशोध को कोई बीमारी का नाम देने की तैयारी नहीं है न ही कोई सहानभूति, लेकिन कोई भी सिस्टम अगर सही से काम नहीं कर रहा है उसे आप अपनी भाषा में जो भी नाम दे सकते है...
प्रत्युत्तर के लिए आभार! ..लेकिन एक सत्य यह भी है कि हवा में उछाले गए शब्दों को ही ढाल बनाकर ही दोषी व्यक्ति व मीडिया एक बीज से पूरा पेड़ खड़ा कर लेते हैं. शब्द उछालकर हम बुद्धिजीवी ही उनको बचाव के नए-नए उपाय सुझाते हैं. बुरा न मानियेगा, आज जो समलैंगिकों को भी जो स्वीकृति मिली है वह बुद्धिजीवियों के योगदान से ही संभव हुई है! ...आखिर हम वह "तिल" फेंकते ही क्यों हैं जिसकी 'ताड़' बनने की सम्भावना बन जाये?!

(४) मन से भागने की बजाए मन की बात सुनते!
मन आखिर है क्या!? मन में कोई बात क्यों आती है!? ऐसा तो नहीं कि पैदाइश से ही मन में वे बातें आती हों जो आज आ रही हैं!? .....मन तो वास्तव में संस्कारों (इम्प्रेशंस) का एक गढ़ है, भण्डार है! कुच्छ पिछले जन्मों के हैं तो कुछ यह जन्म लेने के बाद धीरे-धीरे निर्मित हुए. ..अपनी पञ्चज्ञानेन्द्रियों से कुछ भी सुनते, देखते, सूंघते, चखते और स्पर्श से महसूस करते ही हमारे मन में उस प्रसंग से कोई न कोई संस्कार बनता है. यदि वह संस्कार पहले से बना हुआ है तो और अधिक बड़ा (मजबूत) होता है. ..यह कतई जरूरी नहीं कि सभी संस्कार बुरे ही होते हैं (जैसा कि बहुत से आध्यात्मिक जन फरमाते हैं) और यह भी जरूरी नहीं कि वे सब अच्छे ही हों! ..लेकिन यह तो सत्य है कि एक आम जन के लगभग नब्बे प्रतिशत कार्य उसके मन में विद्यमान संस्कारों से ही सम्पादित होते हैं. ..और अक्सर हम अपने मनानुसार ही कार्य करते हैं. यदि दूसरों की राय से यानी दूसरों के मनानुसार करते हैं तब भी अपने मन की अनुमति लेकर ही हम उनको कर सकते हैं. किसी अन्य का कोई दबाव तो नहीं बन सकता न! ...तो अच्छा हो कि हम अपने मन में बेहतर संस्कारों को ही पनाह दें और अवांछित संस्कारों की उपेक्षा करें. ...उपेक्षित संस्कार ठीक उसी प्रकार एक दिन हमारे मन से पलायन कर जायेंगे जैसे एक अनचाहा और उपेक्षित मेहमान जल्दी ही हमारे घर से विदा ले लेता है. ...मन की हम जरूर सुनें, और सुनते भी हैं लेकिन इतना ध्यान अवश्य रखा जाये कि हमारे मन में कोई बुरा संस्कार अपनी जगह स्थाई न करने पाए. ...बुरे अथवा अवांछित संस्कारों से निजात पाने का सिर्फ एक उपाय है कि हम अच्छे प्रसंगों को अधिक याद करें, उन्हें ही अधिक महत्त्व दें; उससे अच्छे संस्कार धीरे-धीरे दृढ़ होते जायेंगे जिनकी अधिकता बुरे संस्कारों को पलायन के लिए मजबूर करेगी.

(१०५) चर्चाएं ...भाग - 24

(१) विज्ञान भी ज्ञान का ही भाग है?
जी हाँ, बिल्कुल. ...विज्ञान मूलतः क्या है? ..प्रकृति के तत्वों को जानना, दृश्य-अदृश्य पदार्थों को जानना, उनके गुणधर्म जानना, प्रकृति के नियम-सिद्धांतों को जानना, प्रकृति में हो रही सभी घटनाओं का कार्यकारणभाव जानना, प्रकृति द्वारा प्रदत्त विभिन्न कच्चे पदार्थों से मानव-हित के लिए नाना प्रकार की वस्तुएं, यंत्र-सयंत्र आदि का निर्माण करना, भूसंपदा को उचित ढंग से उपयोग में लाने हेतु नित-नवीन तकनीकें खोजना, आदि. .....विज्ञान कुछ और नहीं वरन पहले से विद्यमान को खोजना ही है यानी रि-सर्च! ज्ञान एकत्रित करने की प्रक्रिया का यह बहुत ही अधिक महत्वपूर्ण अंग है. यहाँ तक कि अध्यात्म के शुरुआती अध्याय भी विज्ञान की सहायता से बहुत सरलता से समझे जा सकते हैं. और विज्ञान के ज्ञान की सहायता से ही विभिन्न अंधविश्वासों से बचते हुए शुद्ध आध्यात्मिक ज्ञान पाने की दिशा में अग्रसर हुआ जा सकता है. ..अधिकांशतः हम देखते हैं कि बहुत से ढोंगी बाबा और स्वयंभूः आध्यात्मिक गुरु अपने अनुयायियों को विज्ञान से दूर रहने को बोलते हैं, उससे परहेज रखने को कहते हैं; यह केवल इसलिए कि वस्तुतः वे चाहते हैं कि उनके अनुयायी अंधविश्वासों में जकड़े रहें और आँख मूंद कर उनका अंधानुसरण करते रहें. ..मेरा तो मानना है कि विज्ञानी शुरू में अवश्य सहमते हुए अध्यात्म में कदम रखते हैं, लेकिन फिर अध्यात्म की गहराईयों में और उंचाईयों पर अधिकांशतः वे ही पहुंचते हैं. ..निःसंदेह अध्यात्म-ज्ञान, विज्ञान से भी ऊपर का ज्ञान है, किन्तु विज्ञान से होते हुए ही उसका रास्ता जाता है. ..भगवान् श्रीकृष्ण के अनुसार भी 'प्रवृत्ति' के बाद ही 'निवृत्ति' संभव है! ...कुछ पा लेने के बाद ही उसे त्यागने (या उसकी आसक्ति त्यागने) में व्यक्ति की, पुरुषार्थ की, पूर्णता है! ...असली अध्यात्म-ज्ञान भी हमें 'प्रवृत्ति' से 'निवृत्ति' की ओर ले जाता है. और विज्ञान का ज्ञान 'प्रवृत्ति' के चरण को कुशलतापूर्वक पूर्ण कराता है.

(२) नियमों की आवश्यकता और नियम कैसे बनते हैं?
प्रकृति अथवा ईश्वर के नियम तो "सिद्धांत" रूप में चिरकाल से बने ही हुए हैं. और उन सिद्धांतों की रक्षा हेतु समाज के बुद्धिमान-वर्ग ने समय-समय पर अनेक नियम बनाये, एवं आज भी नित नए नियम बन रहे हैं. नियम हमेशा लोगों को सुसभ्य, सुशिक्षित व अनुशासनप्रिय नागरिक बनाने के लिए वहां के देश-काल-परिस्थिति-सभ्यता-संस्कृति आदि के अनुसार बनते हैं. पुराने नियम बदले अथवा हटाये भी जा सकते हैं और नए नियम नए ढंग से बनाये भी जा सकते हैं. अतः यह भी कह सकते हैं कि लोगों की सोच और आचरण को नियंत्रित एवं सही पथ पर लाने लिए नियमों की आवश्यकता पड़ती है जिससे यथासंभव प्रकृति के उन चिरस्थाई "सिद्धांतों" की रक्षा हो सके जिनमें समस्त जीव-अजीव का हित निहित है. ..अतः नियम हमेशा परिवर्तनीय हो सकते / होते हैं और "सिद्धांत" हमेशा अपरिवर्तनीय होते हैं!!! "नियम" तो 'सही और न्यायोचित' यानी धर्म यानी राइटियचनेस को कायम रखने के लिए एक कामचलाऊ व्यवस्था है. यदि सभी लोग सभ्य, शिक्षित और धार्मिक (राइटियच) हो जायें तो मानवनिर्मित नियमों की आवश्यकता ही न पड़े. लेकिन ऐसा नहीं है इसलिए प्रत्येक दिन ही कुछ नियम बनाने पड़ते हैं.

(३) काश लोग सभ्य होते! ...पर सच्चाई तो कुछ और ही बयान करती है ...आज आप देखें तो हर तरफ अराजकता फैली है और लोग नियम-कानूनों की धज्जियां उड़ाने लगे हैं ...किसी को कानून का भी डर नहीं हैं क्योंकि कानून बनाने वाले और उसका पालन कराने वाले खुद ही कानून को कुछ नहीं समझते ...आज तो किसी सख्त हाथ की जरूरत है जो लोगों को कानून का पालन करवाने में सक्षम हो!
इसीलिए तो नित नवीन नियम-कानून बनाने पड़ते हैं. ...लेकिन फिर से कहूँगा कि यह एक कारगर किन्तु अस्थाई व्यवस्था है क्योंकि धूर्त लोग बारम्बार इन नियमों-कानूनों से भी बचने के रास्ते तलाश लेते हैं. ..इसलिए तुरंत इलाज के तौर पर नियम-कानून बनाना अच्छी बात है लेकिन समानांतर रूप से लोगों में आध्यात्मिक गुण (यानी श्रेष्ठ नैतिक गुण ही) उपजाना ही इस समस्या का स्थाई हल दे सकता है. ..जो नैतिक होगा वो कुदरत के सिद्धांतों का पालन स्वयमेव करेगा और सही पथ पर अपनेआप चलेगा लेकिन धूर्त को जागतिक नियम-कानून का अंकुश ही जबरन सही मार्ग पर रहने को मजबूर करता है और इसमें भी चूक या धोखा मिल जाता है!

(४) क्या हम बिना कर्म किये प्रभु से आशा लगाए बैठें कि प्रभु की इच्छा होगी तो सब मिलेगा?
बिना कर्म किये तो कुछ नहीं मिलता. हाँ, कभी-कभी बिना किसी वर्तमान प्रसास के किसी को खुद के ही किसी पूर्व कर्म के कारण अनायास कुछ मिलना हो जाता है! लेकिन, श्रीमान् जी... खरे भक्त अपना कर्म सर्वोत्तम ढंग से करते हैं और इसके पश्चात् फल ईश्वर-इच्छा पर छोड़ देते हैं. हालाँकि ऐसा बहुत कम होता है अब!

(५) अपनी विल पावर को कैसे बढ़ायें?
जिनकी विल पॉवर कम होती है, वे अक्सर बहुत से कार्यों को स्वयं के लिए 'असंभव' समझते हैं. ..बस एक कोशिश वे करें कि, खुद के लिए 'असंभव' घोषित कार्यों को 'कठिन' (या बहुत कठिन) की केटेगरी में ले आयें, और यथासंभव 'असंभव' शब्द को वे अपने शब्दकोष से निकाल ही दें! ..बारम्बार अपनेआप को यह कमांड दें कि, "कोई भी काम मुश्किल हो सकता है, ..बहुत मुश्किल हो सकता है, ..पर असंभव नहीं!" ...फिर देखिएगा कि इच्छाशक्ति कैसे नहीं बढ़ती!

Thursday, September 6, 2018

(१०४) चर्चाएं ...भाग - 23

(१) ईश्वर-रूप का प्रत्यक्ष दर्शन कैसे संभव होता है!
(१) अब तक ज्ञात प्राचीनतम ज्ञानस्रोत वेदों में ईश्वर (या परमेश्वर अर्थात् ब्रह्माण्ड की सर्वोच्च सत्ता) को इस ब्रह्माण्ड का सिद्धांत स्वरूप माना गया है. ..सिद्धांत स्वरूप यानी घटित होने वाले सभी क्रियाकलापों / चक्रों के पीछे (नेपथ्य में) विद्यमान कारणभूत आधारभूत शक्ति! यह सैद्धांतिक शक्ति अप्रकट और निराकार होती है. अर्थात् सीधे शब्दों में, परमेश्वर (सर्वोच्च शक्ति या सत्ता) मूलतः अजन्मा, अप्रकट एवं निराकार है. जानने-पहचानने अथवा समझने में सरलता के लिए आगे के साहित्यों में बताए अनुसार बहुत से लोग उस शक्ति को सदाशिव (या शिव) के नाम से जानते हैं. ....(२) प्रथमतः साकार जीवन नहीं था. कदाचित् बाद में जीव व जीवन की उत्पत्ति उसी एकमात्र शक्ति की एक शाखा अथवा भाग से आरंभ हुई; ..उसके उस भाग को समझने, जानने और उसकी अपेक्षाओं का पालन करने में सरलता व सुगमता हो, इस अभिप्राय से आगे के साहित्यों में उसे 'ब्रह्मा' का नाम दिया गया. ....(३) सृष्टि के निर्माण के बाद उसकी योगक्षेम की भी आवश्यकता थी, उस निमित्त उसी आधारभूत शक्ति के एक अन्य भाग द्वारा यह कार्य आरम्भ हुआ; ..समझने की सरलता के लिए बाद के साहित्यों में उसे 'विष्णु' बताया गया. ....(४) क्योंकि अपूर्णताओं के कारण साकार जीवन सदा के लिए संभव न था इस कारण से उसके लय अथवा समाप्ति के लिए उसी आधारभूत शक्ति की एक तीसरी शाखा ने कार्य आरंभ किया, जिसे पहले के साहित्यों में 'रुद्र' के नाम से और बाद के साहित्यों में 'महेश' व बहुत से अन्य नामों के द्वारा भी जाना गया. ....(५) बाद में सृष्टि के अन्य अनेक कार्यों के संपादन हेतु उसी आधारभूत शक्ति या ऊर्जा के अनेक अन्य रूपों ने कार्य आरंभ किया. समझने में आसानी के लिए मनीषियों ने उन्हें अलग-अलग नामों से संबोधित किया. ....(६) अब महत्त्वपूर्ण बात यह है कि न तो वह आधारभूत शक्ति साकार थी और न ही उसकी अन्य शाखाएं साकार रूप में थीं. यह तो काफी बाद के काल में सृष्टि के चक्र को ठीक से चलता रहने देने के लिए एवं उस चक्र के पीछे की शक्तियों के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करने के लिए उनकी 'भक्ति' आरंभ हुई. और उन 'भक्तों' के साकार-भाव अनुसार उस समय के मनीषियों, शिल्पियों, चित्रकारों द्वारा उन शक्तियों के बहुत से मानवीय मूर्त रूप, चित्र आदि सृजित हुए. आज भी हम देख सकते हैं कि सभ्यता, संस्कृति व स्थान आदि के अनुसार उनकी मूर्तियों व चित्रों में भिन्नता पाई जाती है. देशाटन कीजिये तो स्पष्टता से समझ में आएगा कि उत्तर भारत में उनका रूप, रंग, आकार (यहाँ तक कि नाम भी) कुछ है और दक्षिण भारत में कुछ अन्य!! ...किन्तु भक्त के असल भाव में फिर भी समानता है! ..क्योंकि भाव मूलतः निराकार होता है, साकारता उसमें बाद में आती है! ..मन में भाव हो तो उत्तर के भक्त को भगवान् उसी रूप में दर्शन देते हैं जिस रूप को वह पूजता है, ..और दक्षिण के भक्त को उसी रूप में दर्शन देते हैं जिस रूप में वहां का भक्त उन्हें पूजता है! ...इसी प्रकार किसी अन्य समुदाय (जैसे ईसाई, मुसलमान आदि) को उसके इष्ट का वही रूप ध्यान में आता है जिसकी वह आराधना करता है. उन्हें यहोवा, यीशु मसीह, मक्का, मदीना (अर्थात् जिनको वे मानते हैं) आदि के दर्शन होते हैं, अन्य किसी के नहीं. ...अर्थात् बड़ा अर्थ यह कि, ...."इस सृष्टि के पीछे का 'नियंता' मूलतः अजन्मा, अप्रकट, एवं निराकार है. उसकी अन्य कार्यकारी शाखाएं भी निराकार ही हैं. उसके नियमों-सिद्धांतों में बंधे रहने के लिए, फलस्वरूप सुखी रहने के लिए, बाद के काल में मनीषियों ने 'भक्ति' का आरंभ किया और कराया! सुविधापूर्ण भक्ति करने के लिए देश-काल-परिस्थिति-सभ्यता-संस्कृति के अनुसार ईश्वर के विभिन्न नामों-रूपों आदि के साथ भिन्न-भिन्न साहित्यों का निर्माण हुआ, ...और फिर भक्तों ने अपने आराध्य, विश्वास आदि के दर्शन भी तदनुसार ही प्राप्त किये. ईश्वर के प्रत्यक्ष दर्शन एक प्रकार से भाव की साकारता ही है, जो वास्तव में है तो आभासी ही!?"

(२) जीवन में संतुलन होना कितना आवश्यक है?
भौतिकता और आध्यात्मिकता के मध्य संतुलन होना बहुत ही आवश्यक है, क्योंकि हम मानव भौतिकता और आध्यात्मिकता का सम्मिश्रण हैं. मूलतः हमारा वजूद आध्यात्मिक है, लेकिन इस समय भौतिक भूलोक पर और भौतिक मानव देह में होने के कारण हम भौतिकता को भी अनदेखा नहीं कर सकते तथा साथ ही आध्यात्मिकता को तो अनदेखा करने का प्रश्न नहीं उठता!!! हम वर्तमान में हाइब्रिड हैं इसलिए दोनों विशेषताओं में गजब का संतुलन स्थापित करके ही हम 'अभी' सुखी, शांत व आनंदित रह सकते हैं तथा 'भविष्य' की यात्रा का भी सुखद होना सुनिश्चित कर सकते हैं! अभी मोटी-मोटी बात बस यह जान लें कि "कमी और अति हर चीज की बुरी." (उदाहरण के तौर पर- "पानी यानी जल" को ले लें तो कहा जाता है कि जल ही जीवन है, किन्तु सब जानते हैं कि पानी की कमी भी हमारे जीवन के लिए घातक हो सकती है और अति भी! भोजन के साथ भी यही बात लागू होती है और जीवन से जुड़ी अन्य किसी महत्वपूर्ण चीज पर भी!). ठीक-ठीक संतुलन हमेशा लाभप्रद रहता है. ....एक तरफ मन की शुद्धि और अच्छे विचारों को पनपने देने के लिए आध्यात्मिक साहित्य, सत्संग आदि को अपनाएं, तो दूसरी तरफ किसी किसी उत्सव, शादी, पार्टी, अच्छे सिनेमा, खेल-कूद, नृत्य (डांस), मौज-मस्ती यानी खिलंदड़ेपन को भी अपनाएं! ..एक के लिए दूसरे को छोड़ देना कोई संतुलन वाली बात नहीं! सब कुछ करते समय हमारी खराई (अच्छापन) बनी रहे यह सबसे पते की बात है. "हरफनमौला बनकर जीवन जीने से 'सम्पूर्णता' का एहसास होता है." मैं खुद भी ऐसा ही करता हूँ, और ये बातें मैंने अपने निजी अनुभव से कही हैं.

(३) हमें किसी की मदद का फल (परितोष) ईश्वर द्वारा मिलता है?
देखिये, हम किसी की मदद यदि किसी आकांक्षा यानी चाहत से करते हैं (जैसे हमें अच्छा फल मिले या पूर्वजन्म के पाप धुल जायें), तो वह सकाम कर्म (अथवा भक्ति) हुआ. सकाम यानी किसी चाहत या स्वार्थ के साथ किया गया कर्म! चाहत भी एक प्रकार से स्वार्थ ही तो है! फिर भी आप द्वारा की गयी वह मदद ईश्वर द्वारा देखी जाएगी और उसका फल भी शायद उसी रूप में मिल जाये जिस रूप में आप चाहते हैं. ..लेकिन ईश्वर को निष्काम यानी बिना किसी फल की अभिलाषा के साथ किया गया सुकर्म अपेक्षाकृत अधिक पसंद है! ईश्वर आप द्वारा की गयी निष्काम (निःस्वार्थ) मदद को भी देखता है और उसका फल भी देता है. लेकिन निष्काम मदद का फल वह अपनी बुद्धि के अनुसार देता है! ..और निश्चित रूप से उसकी बुद्धि आपकी बुद्धि से तो बेहतर ही होगी!!! ...उदाहरण के लिए-- मानों एक माँ के दो बच्चे हैं, एक नटखट, वाचाल और नखरीला है, किसी भी काम को करने के बाद या बिना कुछ किये भी वह माँ से कुछ न कुछ माँगा करता है, माँ भी वात्सल्य में यथासंभव उसकी फरमाइश के हिसाब से उसे दे दिया करती है; ..वहीं दूसरी तरफ उसका दूसरा बच्चा बड़ा सीधा और सरल स्वभाव का है, जरूरत और निर्देश के अनुसार वह सब काम करता रहता है लेकिन उसके ओठों पर कभी कोई फरमाइश और दिल में कोई स्वार्थ या चाहत नहीं आते! ...क्या माँ उसका ध्यान नहीं रखती?! ...माँ उसका ध्यान कहीं अधिक रखती है क्योंकि माँ को मालुम है कि वह कभी कुछ मांगता नहीं है, इसलिए वह उसकी जरूरतों का ध्यान अपनी बुद्धि से रखती है. माँ की बुद्धि यकीनन उस अबोध बालक से अधिक बेहतर होती है. वह उसकी जरूरत के हिसाब से उसे उचित समय पर उचित साधन या चीजें देती रहती है. हम साधकों के लिए यहाँ माँ अर्थात् ईश्वर; और सरल बालक अर्थात् अच्छे साधक.

(४) स्वार्थी धोखेबाज को ईश्वर द्वारा दंड मिलता है?
ईश्वर अथवा प्रकृति के नियम इतने अच्छे और अकाट्य हैं कि किये गए कर्म की गुणवत्ता के अनुरूप उस कर्म का फल किसी उचित समय पर और उचित रूप में आए बगैर नहीं रहता! वह उचित समय और उचित रूप क्या है, इसे ईश्वर के अतिरिक्त और कोई नहीं जान सकता, हम मानव मात्र अनुमान लगा सकते हैं! किसी से धोखा खाने के बाद यदि हम बड़ी तड़प के साथ चाहें कि उसका दंड उसे मिले, तो जरूर मिलेगा और शायद जल्दी ही मिल जाये, और शायद हमारी चाहत के अनुरूप ही मिल जाये. ...लेकिन यदि हम ईश्वर से उसके दंड की मांग न करें तिस पर भी उसे ईश्वर (या प्रकृति) की अपनी न्याय-व्यवस्था के अंतर्गत किसी उचित समय पर और किसी उचित रूप में दण्डित अवश्य किया जायेगा! समय और दंड के स्वरूप का निर्धारण ईश्वर या प्रकृति द्वारा होगा. आप बिलकुल निश्चिन्त रहें, और ईश्वर के न्याय की राह न देखते रहें! ....बड़ी बात यह कि भक्त के लिए किसी फल की इच्छा रखने पर उसकी भक्ति 'सकाम' हो जाती है और बिना किसी मांग के वह 'निष्काम' कहलाती है! ...अपने से जुड़े किसी बुद्धिमान और समर्थ व्यक्ति से अपनी बुद्धि से बड़ी विह्वलता कुछ मांगने पर वह हमें हमारी इच्छा-अनुरूप दे देता है, और आगे कुछ अनर्थ हो जाने पर 'मांगने' का दोष हम पर ही लगता है; लेकिन दूसरी ओर यदि हम अपने से जुड़े किसी बुद्धिमान और समर्थ व्यक्ति से कुछ भी मांग नहीं करते तब भी वह हमारी समस्याएं देखता है और उचित समय पर उचित मदद अपनेआप करता है (हमारी सोच और कामों से प्रभावित हो कर बड़े अपनेपन से), तब आगे कुछ अनर्थ होने का प्रश्न ही नहीं उठता क्योंकि फैसले लेने में वह बहुत अधिक बुद्धिमान है. ...अर्थात् 'सकाम' कर्म में कर्तापन रहता है और 'निष्काम' कर्म में कर्तापन नहीं रहता. हमारे प्रारब्ध यानी आगे के भाग्य का निर्माण भी हमारे कर्म के कर्तापन से ही होता है! ईश्वर से कुछ मांगें या ना भी मांगें तो भी कर्म का प्रत्युत्तर तो मिलेगा ही, मांगने पर कर्तापन लगेगा और ना मांगने पर कर्तापन ईश्वर का ही होगा!