Tuesday, January 19, 2016

(६५) सचेतक टिप्पणी संग्रह- ८

मेरे और पाठकों के बीच संवादों की एक श्रृंखला

(१)
आपने कहा- "वे अपने माता पिता का दुःख दर्द तो समझ सकती हैं पर सास ससुर का क्यों नहीं शायद इसलिए वे कभी २४ घंटे सास ससुर के पास हैं और मायके कभी कभी आती हैं इसलिए उन्हें अपने माता पिता का दुःख तो नजर आ जाता है पर सास ससुर का नहीं ?"
..मेरे विचार से वास्तव में ऐसा नहीं है क्योंकि विवाह से पहले बेटी २४ घंटे अपने माता-पिता के साथ वर्षों तक रही होती है, उनके प्रति उसका स्नेह बचपन से बना होता है जबकि सास-ससुर के साथ उसकी भेंट और रहना उसके लिए एक नई शुरुआत होती है. इसमें बहुत सारी समझदारी, परिपक्वता और मानवीय संवेदनाओं को समझने की आवश्यकता होती है- माता-पिता, सास-ससुर, पति, बहू इन सब को. ..अशुभ तब होता है जब इनमें से कोई एक भी परस्पर रिश्तों की गहराई को समझने-समझाने का, त्याग का, परस्पर स्नेह का, एक-दूसरे की परवाह का, मानवीयता के मान रखने का गंभीर प्रयत्न नहीं करता. उपरोक्त रिश्तों में तीन स्त्रियाँ हैं और तीन पुरुष. इनमें से कोई भी आग लगा सकता है और कोई भी आग लगने के समस्त कारणों को समाप्त कर सकता है, यदि वह ठान ले तो..! ..और क्या ही अच्छा हो कि इसकी शिक्षा हमें (लड़का-लड़की दोनों को) बचपन से ही सुसंस्कार के रूप में मिले. ..सचेत रहें कि बचपन में दिए गए या मिले अच्छे या बुरे संस्कार सुकोमल मनों पर शीघ्रता से और दीर्घकाल के लिए अंकित हो जाते हैं, ..और हमारी वृत्ति वैसी ही बन जाती है, और वह वृत्ति हमारे प्रत्येक क्रियाकलाप में प्रतिबिंबित होती है.

(२)
उपरोक्त कुछएक अपवादों को छोड़ दें तो हमारे उत्तरप्रदेश व अन्य कुछ हिन्दीभाषी प्रदेशों के अधिकांश लोग बचपन से रिटायरमेंट तक का जीवन यंत्रवत व औपचारिक रूप से बिताते हैं, लगभग मूल्य-विहीन! ..तो बुढ़ापे में शारीरिक और मानसिक दुर्बलताओं के बीच क्या खाक नई शुरुआत कर पाएंगे वे ? अधिकांश को जवानी में जब अच्छी व सकारात्मक सोच अपनाने को कहो तो कहते हैं अभी कमा-धमा लें, यह सब रिटायरमेंट के बाद देखेंगे! ..और बाद में कुछ भी नया और खासतौर पर वह जो आपकी वृत्ति के विपरीत हो, शुरू करना बहुत कठिन होता है. ..पुनः यह ध्यान रहे कि वृत्ति नींव बहुधा बचपन में ही पड़ती है.

(३)
आपने ठीक कहा. निश्चित ही पुरुषों में भी भावनाएं व कोमलताएं कूट-कूट कर भरी होती हैं, ..परन्तु बीज रूप में ! दुर्भाग्य कि हमारे मौजूदा समाज में इन बीजों को पोषक वातावरण देने की परंपरा नहीं है, जिससे इनका अंकुरण संभव हो सके. ..यही कारण है कि 'हमारे' समाज के अधिसंख्य पुरुष 'घातक मानसिकता' के होते / दीखते हैं. ..अब तो स्त्रियाँ भी इसी राह पर चल पड़ी हैं, उनमें भी साइकोसोमेटिक रोगों की संख्या में बढ़ोत्तरी हो रही है!

(४)
आपका कहना है- "अभिजातवर्ग ही आगे क्यों आये पहल करने?" ..'क्यों?' ..यह शब्द बहुत सरल सा है किसी भी चर्चा को आगे बढ़ाने हेतु!
यदि आप अपने परिवार की एक बड़ी, समझदार, जिम्मेदार एवं साथ ही सामर्थ्यशाली सदस्य हैं और आपको परिवार की फ़िक्र है तो फिर निश्चित ही परिवार की 'सर्वांगीण' उन्नति हेतु आप आगे आयेंगी ही. किसी भी टीम या जहाज का कप्तान भी तो यही करता है. वह आगे बढ़कर जिम्मेदारी लेता है और शेष टीम को लीड करता है उसे सर्वोच्चता या लक्ष्य तक तक पहुँचाने के लिए. वह समझता है कि उसके श्रम, मेहनत और किस्मत के गठजोड़ से उसे यह जिम्मेदारी मिल पाई है सो उसे लगनपूर्वक निभाता है जिससे कि उसके पद और उसकी जिम्मेदारी की सार्थकता सिद्ध हो सके. गरिमा के अनुकूल कार्य संपादन से उसे आन्तरिक सुखद अनुभूति होती है और दुनिया भी उसे चिरकाल तक याद रखती है. ..यदि उसके कोई इष्ट भगवान् हों तो अवश्य ही वह भी उसके इन्हीं कृत्यों से वास्तव में प्रसन्न होते हैं! संक्षेप में प्रथमतः इन्हीं बातों पर गौर करके अभिजात वर्ग अपना कर्तव्य निबाहने को उद्यत हो सकता है. ..वैसे इसके बाद भी अनेकों "क्यों?" की गुंजाइश रहती है और रहेगी, यदि हम प्रत्येक बात में अबोध बने रहते हैं!

(५)
आपने बिलकुल सही कहा कि "मानवीय अधिकार को रुढिवादिता और अंध श्रध्दा के नाम पर किसी चीज़ को किसी पर थोपे जाने से रोकने तक नहीं सीमित किया जाना चाहिए, बल्कि प्रत्येक व्यक्ति को (एक हद तक) उसकी परंपरा संस्कृति और और धर्म का पालन करने का भी पूरा अधिकार होता है."
...परन्तु हर किसी व्यक्ति को इस बात का भी ध्यान रखना चाहिए कि क्या वह दूसरे की सभ्यता, संस्कृति व धार्मिक विश्वास का आदर भी करता है या नहीं? ...और वह उसके घर जाकर उसके माहौल के हिसाब से रहने का प्रयास भी करता है या नहीं? ...यदि हम दूसरे की सभ्यता को कुछ नहीं समझते, उसको सदैव तुच्छ साबित करने की कोशिश में रहते हैं, और अपने से जुडी हर चीज को ही सर्वोत्तम मानते हैं तो हम अन्धश्रद्ध कट्टर कहलाते हैं, ..और तब परस्पर सहिष्णुता को कमजोर करने का कारण बनते हैं!
मेरे हिसाब से कोई भी प्राचीन धर्म वहां के लोगों की उस समय की ज़रूरत के हिसाब से लिखे नीतिवचन हैं. प्राचीनकाल में प्रत्येक स्थान के लोगों की परिस्थितियों में भिन्नताएं थीं, सो प्रत्येक समुदाय के नीतिवचनों में शिक्षाएं, वरीयताएं भिन्न थीं.
पहले साधारण मानव अति सीमित था- शायद केवल अपने कबीले तक, ..अब सम्पूर्ण विश्व के लोग एक-दूसरे के सम्पर्क में आ चुके हैं. ...धार्मिक विश्वासों के रूप में अपनी-अपनी प्राचीन धरोहरें भी सबके पास हैं, ...परन्तु अधिकांश अभी तक बेड़ियों में जकड़े हैं, अपने ज्ञान को विस्तार ही नहीं देना चाहते, ..कुछ की पूर्वकाल में रही 'देह उघाड़ने' की संस्कृति भी बढ़ रही है और कुछ की 'पर्दे' की संस्कृति भी! प्रत्येक जन कुंए का मेंढक बना बैठा है. अब वर्तमान में हमारी वास्तविक आवश्यकता क्या है जो हमें असल सुकून दे पाए, इस पर किसी का ध्यान नहीं!
..शायद नीतिवचनों को समयानुसार फिर से लिखे जाने की ज़रूरत है!

(६)
कमेंट्स के रूप में चर्चा बहुत अच्छी हो रही है. ...मेरे विचार से लोगों की खान-पान पद्धति पर जलवायु और कार्य की परिस्थितियों का बहुत गहरा असर पड़ता है। कुछ गर्म परन्तु तटीय क्षेत्रों में, मरुस्थलों में , बंजर भूभागों में व पर्वतीय क्षेत्रों आदि में खेती बहुत दुरूह या असंभव होती है, अतः वहां के निवासियों को अनाज, दालें, खाद्य वनस्पतियाँ सरलता से उपलब्ध नहीं होतीं और वे अधिकतर सामिष भोजन पर ही निर्भर रहते हैं। कार्य की परिस्थितियों, जैसे- जो सात्त्विक माहौल में रहते हैं, ब्राह्मण वर्ण का कार्य करते हैं, धर्म-शिक्षण या विद्यादान आदि की सेवा करते हैं, उन्हें शारीरिक श्रम अधिक नहीं करना पड़ता, अतः वे सामान्य निरामिष भोजन पर आश्रित रह अपने शरीर को स्वस्थ रख सकते हैं। सामिष भोजन व तम्बाकू, मद्य आदि रज-तमात्मक हैं। संभवतः इसीलिए संस्कृति व धर्मानुसार भी ब्राह्मण वर्ण में सामिष भोजन व धूम्र / मद्यपान आदि वर्जित माना गया है! पर जिन लोगों को लगातार रज और तम की परिस्थितियों में रहकर कठोर श्रम करना पड़ता है, उन्हें रज व तम के प्रभाव से जूझने हेतु रज-तमात्मक भोजन की आवश्यकता पड़ती है। पुरानी कहावत है - लोहे को लोहा ही काट सकता है! बहुत अधिक शारीरिक श्रम एवं कठोर व विषम कार्य परिस्थितियों के बीच कार्य करने वाले व्यक्तियों को तुंरत व अधिक बल-उर्जा आदि हेतु सामिष भोजन व अन्य मद्य, तम्बाकू जैसे उत्तेजक पदार्थों का सीमित सेवन करना कभी-कभी अपरिहार्य हो जाता है। पर जागरूक, सुसंस्कृत व सचेत रहने वाले इन पदार्थों के 'अनिष्टकारी पहलुओं' से यथासंभव बचे रहते हैं। इन परिस्थितियों में कार्य करने वालों के उदाहरण के रूप में हम मुख्यतः सैनिकों व अन्य क्षात्र-वर्ग तथा कुछ हद तक वैश्य व शूद्र-वर्ग को भी ले सकते हैं। परन्तु गौर करें कि भारत में रज-तमात्मक परिस्थितियों में कार्य करने वालों में मुख्यतः या केवल भारतीय सेना के लोग ही स्थिति-अनुरूप आवश्यक रज-तमात्मक वस्तुओं का नियमित सेवन करने के बावजूद 'सुसभ्य व जागरूक' हैं; अन्य क्षात्र वर्ग, वैश्य वर्ग या शूद्र वर्ग में सेवन के मामले में 'अनुशासनहीनता व अति' दिखाई पड़ती है। संभवतः यह हमारी संस्कृति की ही कमी है या हम परिपक्व नहीं हैं।

Sunday, January 10, 2016

(६४) सचेतक टिप्पणी संग्रह- ७

मेरे और पाठकों के बीच संवादों की एक श्रृंखला

(१)
बहुत त्रासद है कि भारत के अधिकांश लोग दुकान की तड़क-भड़क व चकाचौंध से प्रभावित हो जाते हैं परन्तु सामान की गुणवत्ता पर ध्यान नहीं देते हैं! घर की मुर्गी दाल बराबर ...और बाहर घुनी दाल चटखारे लेकर खाते हैं! मोबाइल फोन, इन्टरनेट एवं अन्य तमाम गैजेट्स को पागलों समान ख़ूब अनापशनाप इस्तेमाल करते हैं परन्तु उनके मुख्य लाभ से लगभग वंचित रहते हैं! हम अधिसंख्य वर्तमान भारतवासी ऊपर-ऊपर खूब तैरते हैं लेकिन तलहटी में जाकर रत्न ढूंढने से कतराते हैं! ...तो हमारा यही दृष्टिकोण प्रत्येक स्थान पर प्रतिबिंबित होता है, ..भगवान् के प्रति भी, आस्था के प्रति भी, धार्मिकता के प्रति भी! वास्तव में हम उथले और उन्मादी हैं, इसमें कोई भी शक नहीं!

(२)
बहुत आवश्यक कि मात्र शाब्दिक स्तर पर अधिक समय न रहकर भीतर की यात्रा की जाए. स्वयं को पूर्णतया साधने एवं अन्य सभी के प्रति असली सहिष्णुता रखने का ज्ञान वहीं पर मिलता है. ..सभी वह साध्य करने में सक्षम! मैं अन्यों से भिन्न नहीं और न ही अन्य मेरे से! सब सीढ़ी के भिन्न-भिन्न पायदानों पर हैं बस! ..कुछ मुझसे ऊपर और कुछ नीचे! बस वक्त की और निश्चय करने की बात है, कोई भी कभी भी ऊपर आ सकता है. ..शायद इसी को साधना कहते हैं! कूप माण्डुक्य नहीं बल्कि दृढ़ निश्चय, नम्रता, निरंतरता, धैर्य, अनुशासन, समर्पण, खुला दिमाग, 'वसुधैव कुटुम्बकम्' स्तरीय विशाल हृदयता आदि इसके मूल तत्व हैं.

(३)
यदि तोर डाक शुने केऊ न आसे 
तबे एकला चलो रे। .....

तेरी आवाज़ पे कोई ना आये तो फिर चल अकेला रे
फिर चल अकेला चल अकेला चल अकेला चल अकेला रे
ओ तू चल अकेला चल अकेला चल अकेला चल अकेला रे

तेरी आवाज़ पे कोई ना आये तो फिर चल अकेला रे
फिर चल अकेला चल अकेला चल अकेला चल अकेला रे

यदि कोई भी ना बोले ओरे ओ रे ओ अभागे कोई भी ना बोले
यदि सभी मुख मोड़ रहे सब डरा करे
तब डरे बिना ओ तू मुक्तकंठ अपनी बात बोल अकेला रे
ओ तू मुक्तकंठ अपनी बात बोल अकेला रे

तेरी आवाज़ पे कोई ना आये तो फिर चल अकेला रे

यदि लौट सब चले ओरे ओ रे ओ अभागे लौट सब चले
यदि रात गहरी चलती कोई गौर ना करे
तब पथ के कांटे ओ तू लहू लोहित चरण तल चल अकेला रे

तेरी आवाज़ पे कोई ना आये तो फिर चल अकेला रे

यदि दिया ना जले ओरे ओ रे ओ अभागे दिया ना जले
यदि बदरी आंधी रात में द्वार बंद सब करे
तब वज्र शिखा से तू ह्रदय पंजर जला और जल अकेला रे
ओ तू हृदय पंजर चला और जल अकेला रे

तेरी आवाज़ पे कोई ना आये तो फिर चल अकेला रे
फिर चल अकेला चल अकेला चल अकेला चल अकेला रे
ओ तू चल अकेला चल अकेला चल अकेला चल अकेला रे

Source - http://en.wikipedia.org/wiki/Ekla_Chalo_Re

(४)
हकीकत में करना हो कुछ संभव तो,
कोशिश से माहौल बनाना पड़ता है,
मेहनत से माहौल बदलना पड़ता है,
इन सब के लिए थोड़ा नहीं बहुत बदलना पड़ता है खुद को!
निरुत्तर व विवश कर देता है यह दूसरे को निश्चित ही,
कि वो भी कुछ नहीं, बहुत नहीं, संपूर्णतः बदल जाए!
और .....ऐसा संभव है, ऐसा होता है, मैंने देखा है!

(५)
फटाफट क्रिकेट और दीर्घकालीन राजनीति, दोनों में ही भारतीय कप्तानों की रणनीति से सम्बंधित कुछ भी स्पष्ट अंदाजा लगाना हमारे लिए असंभव सा है, फिर भी हम भावुक भारतीय दर्शक वह करते रहते हैं, और बारम्बार खुश या मायूस होते रहते हैं.
कयास लगाना हम भारतीयों की पुरानी आदत है, खासतौर पर मीडियाकर्मियों की! पर अब चूँकि खेल के ढंग बदल चुके हैं तो हमारे कयासों में भी परिपक्वता अपेक्षित है! खासतौर पर तब तो अवश्य, जब हमें सही मायनों में विकास की सीढ़ियाँ चढ़ना हो; ..हमें कुछ पुरानी बेड़ियाँ तोड़कर आशावादी, सकारात्मक एवं रचनात्मक होना होगा, इसका कोई पर्याय नहीं! मात्र टाइम-पास के लिए बेतरतीब कयास लगाना ठीक नहीं और न ही शब्दों के लच्छे बनाना!

(६)
भगवान् हैं, ज़रूर हैं; उन्हें कुदरत के रूप में भी जाना जाता है; इस कुदरत ने हमें बहुत कुछ निःशुल्क उपलब्ध कराया है, उसी के बल पर हम फलते-फूलते व खुश रहते हैं, ..और इस कुदरत के कुछ नियम हैं; कुछ हम पहले से जानते थे और कुछ पुनः विज्ञान ने भी हमको सिखाये; हम उनको श्रद्धा व आस्था से मानते हुए शिरोधार्य करते हैं तो कुदरत प्रसन्न और हम पर आशीषों की बरसात, अन्यथा...? शायद आवश्यकता है कि हम अपनी आस्था, श्रद्धा व कर्मकांडों-अनुष्ठानों को पुनः समझने की कोशिश करें और उन्हें ईश्वर की अपेक्षा के अनुसार परिष्कृत करें. चूँकि अब हम बौद्धिक व मानसिक रूप से अधिक परिष्कृत, अपडेटेड या अपग्रेडेड हैं तो स्वाभाविक ही है कि ईश्वर भी अब हमसे अधिक प्रौढ़ दृष्टिकोण की मांग करते हैं. ..प्राइमरी कक्षा के बच्चे से अध्यापक अधिक उम्मीद नहीं करता, परन्तु कक्षा दर कक्षा आगे बढ़ते जाने पर अध्यापक की अपेक्षाएं भी क्रमशः बढ़ती हैं और यह स्वाभाविक है.

(७)
बहुत से लोग आज यह मांग करते हैं कि सभ्य एवं ईमानदार लोगों को राजनीति में आना आवश्यक, परन्तु राजनीति में आने के लिए जितने पैसे व दंदफंद की ज़रूरत, क्या वह एक सभ्य, ईमानदार एवं सुपात्र नागरिक के पास होना संभव?
कुपात्र आज संगठित हैं और उन्होंने प्रत्येक वह मार्ग अवरुद्ध कर रखा है जिनसे कि होकर एक वास्तव में योग्य व्यक्ति आगे आ सकता है. महत्वपूर्ण स्तम्भ मीडिया में भी आज कुपात्रों का ही वर्चस्व है. समाज की ऊपर की सतह में सर्वत्र पैसा, लालच और दादागिरी आज सिर चढ़कर बोल रहे हैं, आम आदमी बस किसी तरह दिन काट रहा है, वैसे ही बहुत परेशान है कुछ बोलेगा तो फिर तो परेशानियों की बाढ़ आ जाएगी, सो चुप है, ..कुछ अच्छे ढंग से जीवनयापन की चाह में जाने-अनजाने अब वह भी अधिकांशतः ऊपरी भ्रष्ट समाज का अनुगमन करने लग गया है. यथा राजा तथा प्रजा! ..वास्तव में कुछ बदलना है तो वह शक्तिशाली व सामर्थ्यवान के लिए अधिक सरल है. वह बदलेगा तो उसके अनुयायी भी बदलेंगे अवश्य, ...पर कहीं ऐसा देखा है कभी कि शिष्य के बदलने से गुरु बदल जाए? वैसे अपवाद कहीं भी कभी भी संभव हैं परन्तु यह उलट पद्धति है. ...यह निश्चित है कि ठोस एवं आमूलचूल परिवर्तनों के लिए प्रथमतः समाज की ऊपरी सतह यानी अभिजात-वर्ग में चैतन्य आना / लाना परमावश्यक है.

Friday, January 1, 2016

(६३) सचेतक टिप्पणी संग्रह- ६

मेरे और पाठकों के बीच संवादों की एक श्रृंखला

(१)
पूरा दोष आयातित संस्कृति का नहीं, बल्कि दोष हमारे विवेक का है कि हम उस संस्कृति का केवल आधा-अधूरा वह ही अंश ग्रहण करते हैं जो हानिकारक है; सकारात्मक पक्ष को हम प्रायः अनदेखा करते हैं. विदेशी संस्कृति की भोग, विलास, आराम से जुडी हुई चीजें ही हमें भाती हैं, जो हमें अकर्मण्य, भ्रष्ट या व्यर्थ में ही व्यस्त करती हैं यानी मानसिकता को दूषित करती हैं; जबकि उसी आयातित संस्कृति के कर्म, कर्तव्य, अनुशासन, जिम्मेदारी, शिष्टाचार आदि से जुड़े सार्थक पहलुओं को हम अनदेखा ही कर देते हैं.
यदि हमें वास्तव में आगे बढ़ना है तो किसी भी विकसित सभ्यता के सकारात्मक पक्ष को आंकना आना चाहिए. किसी भी ठोस विकास के पीछे नकारात्मकता से अधिक अंश में सकारात्मकता होती है. सकारात्मकता के अधिक होने पर ही चरित्र व राष्ट्र का विकास संभव होता है. ...और वह हम भारतवासियों को दिखती नहीं, यही आज की त्रासदी है!

(२)
आमतौर पर बचपन में हमारा ६० प्रतिशत से अधिक समय घर पर पारिवारिक सदस्यों के बीच ही गुजरता है और हमें 'अच्छा या बुरा' मानसिक पोषण वहीँ से अधिक मात्रा में मिलता है, तदनुरूप व्यक्तित्व की बुनियाद बनती है. ..और यदि उसमें प्रदूषण अधिक हुआ तो आने वाली पीढ़ी की, वर्तमान से भी अधिक भ्रष्ट होने की प्रबल सम्भावना बनती है. ..हमारे यहाँ उत्तरोत्तर ऐसा ही हो रहा है. हमें सचेत होना होगा और कुछ ठोस कदम उठाना भी होगा.

(३)
वैचारिक मतभेद तो होगा ही यदि हम मन में पहले से कोई धारणा बनाकर चलते हैं, ..और प्रत्येक सामान्य व्यक्ति के मन में कोई न कोई पूर्वस्थापित धारणा होती अवश्य है- कम-ज्यादा मात्रा में हो सकती है. ..कुछ लेखों को पढ़ने का मजा तभी है जब हम उन धारणाओं को कुछ समय के लिए एक किनारे रखें, और कुछ नई अनुभूति महसूस करें; क्योंकि ऐसे लेख मात्र कुछ लिखने के लिए ही नहीं लिखे जाते, वरन वे अनुभवों और अनुभूतियों पर आधारित होते हैं.

(४)
आपने पीछे छुपे बीज या मंतव्य को खूब पहचाना. एक निर्विवादित ग्लोबल धर्म की संभावनाएं टटोलना और स्मूथली उस तक पहुंचना, यही लक्ष्य है. पार्शियल होने का कोई प्रश्न ही नहीं, पर अभियान की कहीं से तो शुरुआत करनी ही पड़ती है, और इस कारण प्रारंभ में वह (अभियान) कुछ पार्शियल प्रतीत हो सकता है. परन्तु विश्वास दिलाता हूँ कि उत्तरोत्तर सार्वभौमिक नैतिक गुणों की छाया में इसमें प्रासंगिक विज्ञान का दखल भी बढ़ेगा. चूँकि इरादे नेक हैं, अतः कुछ सार्थक होने की आशा बलवती है. अंकुरण कब होगा यह तो मालुम नहीं, परन्तु होगा तो अवश्य यह दृढ़ विश्वास.

(५)
आपकी बातों से या उनके मंतव्य से मैं सहमत नहीं. यदि कोई व्यक्ति मात्र 'दुरूह कर्मकाण्ड' कर देश का प्रधानमंत्री बन सकता है तो देश में ऐसे-ऐसे सिरफिरे बैठे हैं जो इस अभीष्ट की प्राप्ति हेतु अपना, आपका या मेरा शीश भी काटने में तनिक भी न हिचकेंगे, यदि उस कर्मकाण्ड की अधिकतम मांग यह भी है तो!
यदि ऐसा होना संभव होता तो पता नहीं इस देश का (में) क्या होता?
मेरे विचार से 'कर्मकांड' वह धार्मिक कृत्य है जो हमें कतिपय परिस्थितियों में योग्य कर्म हेतु प्रेरणा, साहस व संकल्प देता है. ..और हम निर्भय होकर प्रयास (कर्म) करते हैं और एक दिन अभीष्ट की प्राप्ति में सफल होते हैं.
यानी अभीष्ट की प्राप्ति हेतु कदाचित् प्रेरणा या आत्मबल तो कर्मकाण्ड प्रदान कर सकता है, परन्तु उसके पश्चात् "योग्य कर्म" (योग्य प्रयास, मेहनत, क्रिया) करना हमारे लिए अत्यावश्यक होता है.
..और यदि हम "कर्मकाण्ड" जैसे अवलंब के बिना ही "योग्य कर्म" के लिए प्रेरित हो सकें तो कितना अच्छा! ...और दिखावटी कर्मकांडों से तो हमें बहुत दूरी बनाने की आवश्यकता!
कोई भी बैसाखी के सहारे नहीं चलना चाहता, तो फिर हम क्यों चलें? बच्चे को भी १-२ वर्ष की अवस्था तक सहारा दिया जाता है, फिर वह स्वयं चल सकता है! ..और यदि समर्थता आ जाने के बाद भी वह सहारा लेकर ही चलता है तो लोग उसपर हँसते हैं!
हम बलवान हैं, हमें झूठे सहारों की आवश्यकता नहीं! यह वाक्य अहंकार नहीं वरन गर्व का सूचक है!

(६)
भावना व निष्ठा की बात खूब कही आपने! मैं सहमत हूँ आपसे.
प्रत्येक स्थान पर सुधार होने के बजाय दोष घुस आने की बात भी सही है आपकी.
हर विकसित देश आज इसीलिए विकसित है क्योंकि सुधार, संकल्प, भावना व निष्ठा से ही असली विकास होता है और वे वहां होंगे अवश्य, यह अलग बात कि हम न मानें!

(७)
क्षमा चाहता हूँ एक धृष्टता के लिए, कि समय काटने के लिए कोरे तर्क-वितर्क करना मेरी फितरत में नहीं!
हाँ, सार्थक बिंदु तक पहुँचने हेतु जितने भी तर्क-वितर्क हों, उतना ही अच्छा.

(८)
"यदि कुछ लोग कहते हैं कि वे अपेक्षाकृत सूक्ष्मतर आध्यात्मिक जगत में पहुंच चुके हैं, तो मैं बेहिचक उनसे कहूँगा कि वे अब कर्मकाण्डों का परित्याग कर दें, परन्तु उन कर्मकाण्डों के प्रति हीन भावना न रखें"
जी बिलकुल, क्योंकि हम सभी एक-एक कक्षा कर ऊपर की ओर बढ़ते हैं! और पिछली कक्षाओं के अध्यापकों और विद्यार्थियों के लिए अच्छी भावना रखते हैं. अच्छे नम्बरों से उत्तीर्ण होने के बाद भी उसी कक्षा में रुके रहने की जिद करना नादानी या बेवकूफी कही जाती है! हाँ, शीर्ष पर कुछ देर रुकने का मन अवश्य करता है और रुकना भी चाहिए; पर नीचे वालों के लिए दिल में आदर लिए.