Wednesday, July 31, 2019

(११३) प्रेम विस्तार है और स्वार्थ संकुचन

प्रेम अर्थात् आत्मिक स्नेह, अपनापन..। ...पहली बात यह कि, प्रत्येक व्यक्ति अपनेआप यानी स्वयं के प्रति प्रेम रखता ही है! इस प्रेम को शायद सभी पूरी तरह से शुद्ध, समर्पित, और स्वाभाविक (प्राकृतिक) यानी स्वतः उत्पन्न हुआ ही मानेंगे, ..क्योंकि इसके लिए हम कोई वाह्य या जबरन प्रयास तो शायद नहीं करते! किसी मनोरोगी या मानसिक रूप से विकलांग या विक्षिप्त आदि को यदि न गिना जाये, तो साधारणतया हर कोई अपना ध्यान पूरी तरह से रखता ही है. प्रत्येक व्यक्ति अपने जीवन से जुड़े विभिन्न पहलुओं जैसे- शारीरिक, भौतिक, सामाजिक, मानसिक, बौद्धिक और आध्यात्मिक जरूरतों का ध्यान स्वतः ही रख सकता है। ..लेकिन महत्वपूर्ण बात यहाँ यह कि, यह उस व्यक्ति के ऊपर निर्भर करता है कि वह इनमें से कितने पहलुओं पर ध्यान देता है, इनमें से कौन से पहलू उसकी वरीयता सूची में स्थान पा सके हैं! यह बात इस पर भी बहुत निर्भर करती है कि उस व्यक्ति का स्वयं के प्रति स्नेह किस श्रेणी का है, स्नेह का स्तर क्या है! ...अर्थात् अपने ही प्रति प्रेम में भी, प्रेम का विस्तार इस पर निर्भर करता है कि उस व्यक्ति में कितना विवेक है या वह अपने विवेक का कितना प्रयोग करता है, या उसकी सोच कितनी व्यापक है!!! निकृष्टतम स्थिति में, उसका व्यष्टि प्रेम केवल उसके भौतिक शरीर तक ही सीमित हो सकता है, या शायद कुछ अन्य स्थूल पहलू भी उसमें शामिल हो सकते हैं; और बेहतर हालत में, सामाजिक, मानसिक, बौद्धिक जैसे पहलुओं पर भी उसका ध्यान जा सकता है; और 'स्वयं' के प्रति पूर्ण जागरूकता की स्थिति में, खुद की आध्यात्मिक जरूरतों का भी उसे भान रह सकता है। ....यह तो हो गया उसका अपना केंद्र बिंदु! पहले पायदान पर यह सब साध लेना अत्यावश्यक है, यानी स्वयं के प्रति ही पूर्ण जागरूकता...; और तभी तो प्रेम हो पाना संभव होगा खुद से ही! ..क्योंकि केंद्र से बाहर की कक्षाओं (ऑर्बिट्स) में विस्तारित होने की पहली शर्त ही यही है कि केंद्र में सम्पूर्णता, बलिष्ठता हो! ..और यह विस्तारण भी क्रमशः कक्षा दर कक्षा होना चाहिए।
व्यष्टि-प्रेम अर्थात् केवल स्वयं के प्रति प्रेम तक ही सीमित रह गए, और क्रमशः वाह्य वर्तुलों में विस्तारित न हो पाए, तब तो नितांत स्वार्थी ही रह गए! ..और वो भी पता नहीं कि स्वार्थ भी किस श्रेणी का है!? यह माना जाता है तथा अनुभूत भी किया जा सकता है कि हमारा मूल, यानी कि आत्मा, अर्थात् असली मैं, मूलतः अथाह रूप से विस्तारित है; सभी सीमाओं से पूरी तरह से मुक्त है। ..और आत्मा के मूलभूत गुणों में 'प्रेम' भी एक है। अब आत्मा के इस भौतिक शरीर में रोपण के पश्चात् यदि हम उसके गुणों को प्रकट नहीं करते तो क्या वह आत्मा फंसा हुआ, बंधा हुआ, घुटा हुआ सा महसूस नहीं करेगी? जिस स्थिति को बहुत से ज्ञानी 'मोक्ष' से संबोधित करते हैं, वह आखिर क्या है? सरल भाषा में उसे 'मुक्ति' कहा जाता है! तो, फिर यह 'मुक्ति' क्या हुई? 'मोक्ष' या 'मुक्ति' का यह भी तो अर्थ निकाला जा सकता है कि 'आत्मा' के मूलभूत गुणों का १०० प्रतिशत प्रकटीकरण! ..फिर जो साक्षात् 'प्रकट' है उसे 'प्रकटीकरण' की आखिर क्या आवश्यकता? ...मानव देह में आत्मा है तो अवश्य, पर दबी हुई, छुपी हुई, असहाय सी है, बिलकुल मृतप्राय..., जबतक कि हम उसको प्रकट नहीं करते! ...प्रकट कैसे करेंगे? ...बिना आयाम की 'आत्मा' को हम 'त्रिआयामी' मनुष्य केवल और केवल अपने आचरण के माध्यम से ही प्रकट कर सकते हैं, उसी से उसके जीवंत होने का प्रमाण दे सकते हैं, उसे जीवन दे सकते हैं। आध्यात्मिक कृत्य के तौर पर केवल शास्त्रों को कंठस्थ करके और रूढ़िगत विधि-विधानों के संपादन द्वारा हम उसका ध्यान नहीं रख सकते। जब ध्यान नहीं रख सकते तो प्रेम की तो अनुपस्थिति ही हुई न!
अब प्रश्न यह उठता है कि मानव देह में रोपित यह आत्मा इतनी असहाय और मृतप्राय सी आखिर क्यों? क्योंकि यह ऐसे डिब्बे में आ गयी है जहाँ अनेकों प्रकार का अन्य सामान, कचरा आदि भी विद्यमान है। कुछ पहले से ही है और कुछ रोजाना इकठ्ठा हो रहा है! इसको ज्ञानीजनों ने स्थूल मन में स्थापित विभिन्न 'संस्कारों' से संबोधित किया है। संस्कार यानी मन पर अंकित इम्प्रेशंस। मूलतः ये संस्कार ही हमारी मूल स्थूल वृत्ति है। इन्हीं संस्कारों के वशीभूत हम अक्सर रहते हैं, और इन्हीं के अनुसार हम बरतते हैं। स्वार्थ, 'आत्मा' का गुण नहीं है, बल्कि यह संस्कार-जनित है। जब आध्यात्मिक दृष्टिकोण से हम जानते और मानते हैं (यदि हमें कोरा ज्ञान भी है तब भी) कि इस त्रिआयामी देह के चलायमान होने के पीछे बीजरूप वह आत्मा ही है तो क्यों हम प्रयास नहीं करते कि इस आत्मा के मूल गुणधर्मों को मौका दिया जाये कि वे स्वतंत्र हों और हमारे आचरण द्वारा उनका प्रकटीकरण हो!? संस्कारों के वशीभूत हो जब हम उसके 'प्रेम' के गुण को बाहर नहीं आने देते, तब हम सरासर 'स्वार्थ' की दशा में होते हैं! तब सबसे नीचे (निकृष्टतम) के क्रम से हमारे लिए हमारे प्रेम का केंद्र बिंदु हम स्वयं (निज देह और उसकी भौतिक आवश्यकताएं), मेरी पत्नी, मेरे बच्चे, मेरा कुटुंब, मेरे (मेरी जाति के) लोग, मेरे सत्संगी भाई-बहन, मेरे क्षेत्र के लोग, मेरे नगर के लोग, मेरे प्रदेश के लोग, मेरे देश के लोग..., बस यहीं तक ही सीमित होता है! ..किसी सीमा में बंधा हुआ और किसी खास हद तक ही विस्तारित होता है हमारा प्यार!!! इतना ही नहीं, बहुत सी शर्तें भी होती हैं उसमें! यानी हमारा प्रेम संकुचित और सापेक्ष होता है! ..अर्थात् स्वार्थ ही में हैं हम अभी तक! ...आत्मा का गुण तो नहीं है यह! ..फिर आत्मा का प्रकटीकरण हुआ ही कहाँ? उसकी तो सांसें बंद ही हैं अभी.., ..या घुटी हुई सी!
उदाहरण के तौर पर सबसे बड़ी बात यह कि, ...आज संकुचित हृदय रखने वाले आक्रान्ता चरमपंथी ही नहीं अपितु हमारे बड़े से बड़े राजनेता, तथाकथित धर्माचार्य, आध्यात्मिक गुरु/मार्गदर्शक आदि के वक्तव्य सुनें तो यहाँ हर कोई अपने से जुड़ी ही बात करता है, और यदि प्रेम में बहुत ढेर सारा विस्तार भी हो जाये तो बात राष्ट्रप्रेम तक ही आकर रुक जाती है!!! ...यह बात सही है कि केंद्र (स्वकेंद्र) से बाहर की कक्षाओं/वर्तुलों में विस्तारण क्रमशः ही होता है/होना चाहिए, यह बात मैंने भी सबसे ऊपर लिखी है, परन्तु विस्तारण की तीव्र भूख तो दृष्टिगोचर होनी चाहिए! मुझे तो वह भूख/तड़प/तीव्र इच्छा कहीं भी नहीं दिखती! शायद यहाँ आप मेरे से सहमत न हों, पर मैं आगे अन्य प्रमाण देता हूँ। ..जब भी हम यानी हमारे अगुवा अपने राष्ट्र के विकास की बात करते हैं तो उस क्रम में हम अन्य (राष्ट्रों, संघों, समूहों) की आलोचना भी संग में करते हैं! क्यों? कभी हम चीनी सामान के बहिष्कार की बात करते हैं, कभी अन्य विदेशी सामान के बहिष्कार की बात! क्यों? दूसरों की समृद्धि को अपने विकास के लिए रोड़ा सा महसूस करते व कराते हैं! क्यों? ..एक साधारण व्यक्ति अपनी प्रगति के लिए अपने कर्म पर आश्रित व समर्पित न रहकर, उससे ज्यादा इस बात से क्यों दुखी है कि उसका पड़ोसी कैसे इतना समृद्ध व सुखी हो गया/हो रहा है!? ..एक साधारण दुकानदार इस बात पर ध्यान नहीं दे कि वह अपनी बिक्री कैसे बढ़ाये, बल्कि इस बात पर केन्द्रित रहे कि बगल के दुकानदार की बिक्री कैसे घट जाये, तो इस प्रवृत्ति को हम अच्छी व्यापारिक वृत्ति नहीं कह सकते! ..है न? ..इसी प्रकार एक मैन्युफैक्चरिंग कम्पनी अपना उत्पादन या बिक्री बढ़ाने के क्रम में इस महत्वपूर्ण बात को अनदेखा कर रही है कि अपने सामान की गुणवत्ता कैसे बढ़ाई जाये, बल्कि उसका पूरा ध्यान इस बात पर लगा है कि उपभोक्ताओं को अन्य कंपनी के खिलाफ कैसे भड़काया जाये! क्या कहेंगे आप? इसी प्रकार, एक धर्मगुरु का ध्यान इस पर आज कम है कि वह अपने धर्मशास्त्र को ईमानदारी से समझे-समझाए, बल्कि उसका ध्यान अन्य धर्म (पंथ) की आलोचना और उसे निकृष्ट साबित करने पर अधिक है! क्यों भाई?
इन सब क्रिया-कलापों का सीधा सा अर्थ निकलता है कि हम सभी स्वार्थी हैं। फलतः संकुचित हैं, और किसी सीमा में बंधे हुए हैं। और आगे अपनेआप को असुरक्षित महसूस करते हुए, और अधिक स्वार्थ की ओर बढ़ रहे हैं! कहते हैं कि, बोलने और करने में बहुत अंतर होता है। अर्थात् हम बोलते तो बहुत बढ़िया हैं पर करने में कमजोर पड़ जाते हैं। लेकिन मैं तो देख रहा हूँ कि हम बोलने में भी अत्यधिक संकुचित वृत्ति वाले बोल बोलने लग गए हैं! हमारी संस्कृति ऐसी तो न थी कभी! ..किसी खास जयकारे अथवा गीत को ही आज राष्ट्रभक्ति का प्रमाण मान लिया जाता है; आज किसी अमुक रंग, फल या पशु आदि को ही किसी खास समूह की पहचान मान कर उससे स्नेह या द्वेष किया जाता है! खानपान और वेशभूषा को 'वास्तविक धर्म' (righteousness) से जोड़कर यहीं देखा जाता है; उसी के अनुसार उससे प्रेम या नफरत का पोषण होता है! राष्ट्रप्रेमी और राष्ट्रद्रोही; धर्मभीरु और धर्मद्रोही, इन सबकी नयी परिभाषाएं गढ़ दी गयीं हैं। और निश्चित रूप से ये नवीन परिभाषाएं संकुचित मानसिकता और विविध स्वार्थों पर आधारित हैं! कुल मिलकर खरा 'प्रेम' आज दुर्लभ ही नहीं लुप्तप्राय हो गया है। इसीलिए हम सर्वांगीण ठोस प्रगति करने में पिछले अनेक दशकों से नाकामयाब रहे हैं। मुझे तो तीव्रता से महसूस होता है कि अनेक वर्षों में भी अपने क्रियमाण और सोच का स्तर ऊपर न उठा पाने, और कोई खास उपलब्धि न हासिल कर पाने के फलस्वरूप हम अति कुंठित से हो गए हैं और धीरे-धीरे और अधिक संकुचित होते जा रहे हैं! कहने को आज सप्ताह के सातों दिन चौबीसों घंटे चलने वाले अनेकों धार्मिक टीवी चैनल्स हैं, धर्मगुरुओं की हमारे देश में इतनी प्रत्यक्ष उपस्थिति शायद ही कभी रही हो, हमारे नौजवानों की मेधा का आज सारा जग कायल है; ...बावजूद इन सबके हम और हमारे जीवन-मूल्य यदि लगातार नीचे को गिर रहे हैं तो इसके मूल में फिर से वही बात है कि अगुवाओं सहित हम सब स्वार्थी हो गए हैं, फलस्वरूप संकुचित हो गए हैं, फलस्वरूप आत्मिक रूप से मृतप्राय से हो गए हैं। जब तक हम इन विषैले संस्कारों व ओछी सोच रूपी उस खरपरवार से मुक्ति नहीं पाते जो हमारी आत्मा को दबाये हुए है, हमारे विस्तार को रोके हुए है, हमारे निरपेक्ष प्रेम को रोके हुए है, तब तक हम मरे हुए हैं क्योंकि हमारी आत्मा को हमने इनसे मृतप्राय कर रखा है। जब कभी हम अपनी आत्मा को इस मकड़जाल से मुक्त करेंगे, आत्मा के अतुलनीय गुण 'प्रेम' को वास्तव में प्रकट होने देने का मार्ग प्रशस्त करेंगे, तब ही क्षुद्र सीमाओं से परे हमारा, हमारी सोच का विस्तार संभव होगा। तब हम आत्मा के गुणधर्मों के अनुसार उड़ान भरेंगे और सही मायनों में एक आत्मिक मानव कहलायेंगे। इति।

Tuesday, July 30, 2019

(११२) बदलने की क्षमता ही बुद्धिमत्ता का माप है!

आइंस्टीन ने उपरोक्त कथन (शीर्षक) बहुत ही नेक इरादे और सकारात्मक प्रगति के आह्वान-स्वरूप कहा था। उनका मूल आशय यही था कि, 'जो बुद्धिमान होगा वह अपने उचित (righteous) विवेक से अपनी बौद्धिक क्षमता का उपयोग करके जीवन के सभी (भौतिक एवं आध्यात्मिक) पहलुओं में निरंतर 'सकारात्मक' बदलाव अवश्य लाता रहेगा। ...और जो ऐसा करने में असमर्थ रहता है, उसकी बुद्धिमत्ता पर प्रश्नचिह्न् तो लगाया ही जायेगा!' सबसे पहले हम 'बदलने', बदलाव', या 'परिवर्तन' शब्द पर ही चिंतन करें, तो कहीं इसका अर्थ, नवनिर्माण द्वारा पूर्वनिर्मित के प्रतिस्थापन, से निकलता है; तो कहीं इसका आशय पूर्वनिर्मित में ही किसी परिवर्तन से होता है! इसी निमित्त सभी राष्ट्रों द्वारा नित्य नवीन अन्वेषण किये जा रहे हैं। पहले से उपलब्ध वस्तुओं में भी नित नए-नए सुधार कर उनमें और अधिक वैशिष्ट्‍य डालने का निरंतर प्रयास किया जा रहा है। बदलाव अथवा नवनिर्माण की प्रक्रिया में प्रत्येक राष्ट्र या समूह का अपना-अपना नजरिया है। जो नवनिर्माण और बदलाव को सकारात्मक उद्देश्य से करते हैं वे वास्तव में विकसित, सुसभ्य, शांतिप्रिय, न्यायप्रिय, खुशहाल हैं, और शेष पिछड़े या विकासशील की श्रेणी में हैं। अर्थात् उनकी बुद्धिमत्ता, विवेक और नजरिये आदि पर प्रश्नचिह्न् हैं! हम भी तो सालों-साल से 'विकासशील' के तमगे के साथ ही हैं! अब अपने यहाँ की कुछ चर्चा...
आज विभिन्न सेवा-प्रदाताओं और उनके प्रबंधकों का एक ही नारा है कि - "नित नवीन परिवर्तन करो, अन्यथा मिट जाओगे"; अर्थात् आज सभी कम्पनियाँ अपने उत्पादों में रोज ही कुछ न कुछ परिवर्तन करने हेतु प्रयासरत हैं और उनको लगता है कि यदि वे कुछ नया नहीं देंगे तो उनकी प्रतिद्वन्दी कम्पनी उनसे बाजी मार ले जायेगी। प्रतिद्वंदिता का भय निरंतर सताता रहता है, इसीलिए वे अपने उत्पादों या सेवाओं में नित नए बदलाव करते रहते हैं। अर्थात् नित नवीन परिवर्तन का कारण समाज-सहाय्य से अधिक निज-सहाय्य है!
आज भौतिक प्रगति या बारम्बार त्वरित परिवर्तन के पीछे यही तर्क दिया जाता है कि यह सब लोगों के सुखों में बढ़ोत्तरी करने के लिए किया जा रहा है और इसी से हम विकास की ओर बढ़ रहे हैं। यद्यपि इसमें कोई संदेह भी नहीं कि बहुत सी खोजों, अन्वेषणों एवं परिवर्तनों ने मानव जीवन को बहुत आराम और सुविधाएं प्रदान की हैं; परन्तु साथ ही मेरा यह भी मानना है कि प्रत्येक भौतिक वस्तु के विकास, खपत, प्रयोग एवं उपयोगिता का एक संतृप्ति बिंदु होता है। उस बिंदु पर पहुँचने के पश्चात् या तो ठहराव आ जाता है या फिर विकास की गति बहुत मंथर हो जाती है। किसी वस्तु के विकासक्रम में कभी न कभी हम उस बिंदु तक पहुँच जाते हैं। उस स्थिति तक पहुँचने के बाद भी यदि हम स्वार्थवश एवं लाभ कमाने हेतु जबरदस्ती उसमें और अधिक परिवर्तन कर उसे 'दोहते' रहते हैं तो बजाय सुख देने के वह वस्तु दुःखों का कारण बन जाती है!
यदि किसी वस्तु में कुछ सुधार या परिवर्तन करने पर वास्तव में उस वस्तु का परिष्कार होता हो और उसके जरिये मानव को वास्तव में पहले से अधिक सुविधा-सहायता मिलती हो, उसकी ऊर्जा वास्तव में बचती हो, तो उन परिवर्तनों एवं सुधारों का स्वागत होना चाहिए; परन्तु परिवर्तन के पश्चात् यदि एक सुख देकर वह वस्तु दो दुःख बढ़ा रही हो या ऊर्जा व समय की खपत बढ़ा रही हो तो ऐसे परिवर्तन से तो बचना ही बेहतर! ... परन्तु आज हम इतना तेज भाग रहे हैं कि नकारात्मक पक्षों को बहुधा अनदेखा कर जाते हैं, और परिवर्तन को ही उत्तरजीविता (survival) का 'एकमात्र' आधार मानते हैं; जबकि हम देखते हैं कि समय के साथ प्राकृतिक वस्तुओं में कोई विशेष बदलाव नहीं आया है और यदि कोई आया भी है तो नकारात्मक दिशा में ही, वह भी जबरन मानवीय हस्तक्षेप के कारण! .... यदि हम एक कुशल चित्रकार हैं तो किसी चित्र को बनाकर उसमें एक हद तक ही सुधार करते हैं अन्यथा बजाय सुधरने के वह बिगड़ सकता है! बारम्बार सुधारों के बजाय हम नित नए-नए चित्र तैयार करते हैं। हमारी हर रचना अपने आप में अनूठी होती है।
आजकल अधिक माल खपाने की वृत्ति भी व्यापार-जगत में खूब है। विडम्बना ही है कि किसी राष्ट्र की उन्नति या विकसित होने का पैमाना (मापदंड) भी आज यही है कि उस देश में कितना अधिक सामान उपभोग किया जाता है। अरे, ... कोई एक सीमा तक ही अपने मनपसंद लड्डू खा सकता है, या एक हद तक ही पानी पी सकता है; सीमा से परे उपभोग करने से अस्वस्थ होना निश्चित ही होता है।
अब थोड़ा अतीत से ....
अंग्रेजों के भारत आने से पूर्व हमारा भौतिक विकास लगभग थमा हुआ था। शारीरिक रूप से हम आलसी व सुस्त थे, बस विभिन्न धार्मिक विचार-विमर्शों तक ही सीमित थे। जबकि उस समय अन्य विकासशील व विकसित देश निरन्तर चलायमान थे, वे समय के साथ-साथ क्रमबद्ध भौतिक प्रगति व परिवर्तनों के प्रति जागरूक थे। भारत में जब अंग्रेजों का आधिपत्य हो रहा था, उसी समय यहाँ पर भी भौतिक परिवर्तन का दौर आरम्भ हुआ। पहले बाहर के देशों के उत्पाद यहाँ आने शुरू हुए, तदुपरांत अपने यहाँ भी आधुनिक कल-कारखाने लगने शुरू हुए। हम उन उत्पादों से पहले से अधिक परिचित नहीं थे। या परिचित संभवतः हों भी पर प्रयोग करने के अभ्यस्त नहीं थे। अचानक ही इतनी सुख-सुविधाओं के सामान आ गए कि हम उनकी चकाचौंध में खो से गए। अन्य राष्ट्रों ने तो अपना भौतिक विकास कई वर्षों में धीरे-धीरे निज श्रम से किया था; प्रगति, अनुसंधानों, खोजों व उत्पादों के सम्पर्क में धीरे-धीरे आये थे, अतः वे तो संतुलित थे। परन्तु हमें वह सब अनायास ही बिना किसी विशेष श्रम के एकदम से यूं ही मिल रहा था। हम मदमस्त हो गए।
वैसे हमने ही ऐसे संयोग उत्पन्न किये कि अंग्रेज व्यापारियों को भारत पर आधिपत्य जमाने का अवसर प्राप्त हुआ। वे संख्या में हमसे बहुत कम थे पर सुसंगठित थे और हम संख्या में उनसे कई गुना अधिक होने पर भी असंगठित थे, राग-द्वेष में डूबे थे, अशिक्षा व अविद्या की बेड़ियों में जकड़े थे। यदि ऐसा न होता तो हमारी भौतिक व आध्यात्मिक प्रगति इतने लम्बे समय थमी न रहती। अध्यात्म के क्षेत्र में विपुल वाद-विवाद व मंत्रणायें होते रहने के बावजूद हम अध्यात्म का व्यावहारीकरण करने में अक्षम सिद्ध हुए। इन्हीं सब कमजोरियों के कारण पिछले काफी वर्षों से न तो हमने अपने भौतिक विकास पर ध्यान दिया था और न ही आध्यात्मिक विकास पर। हम जड़ व स्थिर थे।
भले ही अंग्रेजों ने हमें वर्षों गुलाम बनाये रखा, तब भी कुछ मायनों में हमें उनके प्रति आभारी भी होना पड़ेगा, क्योंकि उनके कारण ही हमारी व हमारे देश की भौतिक जड़ता कुछ हद तक समाप्त हुयी। परिवर्तन की दृष्टि से देखें तो उन्होंने ही हमारे देश में वैज्ञानिक युग का पुनः सूत्रपात किया। भौतिक शिक्षा व स्वास्थ्य के क्षेत्र में उन्होंने हमारी बहुत मदद की। आधुनिक भारत का निर्माण उसी काल में आरम्भ हुआ। हमारे देश में मैदानी व विशेषकर पहाड़ी क्षेत्रों में रास्तों व सड़कों का निर्माण, रेलपथ का निर्माण, विभिन्न कल-कारखानों का निर्माण उन्हीं के काल में व उन्हीं के सौजन्य से सम्भव हो पाया। आज भी हम उस काल में संपन्न हुए जटिल उपयोगी कार्यों को अपने समक्ष पाते हैं, उनकी उपयोगिता गुणवत्ता के साथ आज भी हमारे सामने है, जैसे कालका-शिमला पहाड़ी रेलपथ। देखा जाये तो स्वतंत्रता के वर्षों बाद भी इतनी वैज्ञानिक प्रगति के बावजूद हम उस स्तर की 'गुणवत्ता' व उपयोगिता के अन्य कार्य करने में अत्यंत मंद रहे हैं। यहाँ तक कि कभी-कभी तो ऐसा प्रतीत होता है कि उस काल के उपयोगी कार्य या निर्माण के रख-रखाव में भी हम अक्षम सिद्ध हो रहे हैं!
आज भी हमारा वही असंतुलन जारी है, हम प्रवृत्तियों में ही, भोगने में ही डूबे हैं। आज भी अनेकों भौतिक उपलब्धियाँ हमें अपने सामर्थ्य से नहीं वरन अन्य राष्ट्रों की कृपा से प्राप्त हो रही हैं। उदाहरण के तौर पर मोबाइल फोन, विभिन्न इलेक्ट्रॉनिक उत्पादों, स्वास्थ्य से सम्बंधित नवीनतम उपकरणों आदि को ही देख लें तो अत्यधिक उच्च गुणवत्ता का सामान आज भी विदेशों से ही आता है या उनकी तकनीक बाहर से आती है, बस उत्पादन ही यहाँ होता है और उस पर भी यह संशय बना रहता है कि उत्पाद पूरी तरह से मानकों के अनुरूप है अथवा नहीं। आज हमारा लक्ष्य बेहतर गुणवत्ता का सामान बनाना नहीं वरन केवल मुनाफा देने वाला सामान बनाना है। जैसे निर्माण करने में, वैसे ही प्रयोग करने में भी हम नीतिहीन ही हैं।
हम विज्ञान के विभिन्न पहलुओं की जड़ों से अनभिज्ञ हैं या बहुत कम जानते हैं। अधिकांशतः हमारा ज्ञान सतही है। विदेशियों के सौजन्य से हमारा थोड़ा-बहुत वैज्ञानिक व भौतिक विकास तब शुरू हुआ था जब शेष विश्व अनुसंधानों के कई चरणों को पार कर चुका था। अतः हमें नकल का अवसर ही प्राप्त हुआ, सो विषयों को जड़ से जानने की हमारी जिज्ञासा ही लगभग समाप्त हो गयी या आज भी आलसी वृत्ति के होने के कारण हम उनको ठीक से समझना ही नहीं चाहते हैं।
अंग्रेजी सभ्यता लालच की थी पर उन्होंने अपने आप को परिष्कृत व परिमार्जित कर नीतिमान व धर्मभीरु बना लिया। उनकी सोच व कार्यों की गुणवत्ता पहले की तुलना में और अधिक श्रेष्ठ हो चुकी है। मात्र पैसा ही अब उनका उद्देश्य नहीं है, .. पर हमारा उद्देश्य?? हमारे यहाँ तो आज नैतिक मूल्य इतने रसातल में जा चुके हैं कि उनकी खुल कर व्याख्या करने में भी लज्जा का अनुभव होता है।
लाख बुराइयों के बाद भी अंग्रेज मेहनती व अनुशासित थे। उन्होंने अपने ये गुण हमें देने की भरपूर कोशिश की, परन्तु हमने उनके कुछ और बुरे गुण तो अपना लिए, पर मेहनत व अनुशासन से अभी भी मुँह चुराते हैं।
जब हम सीखने की या आगे बढ़ने की प्रक्रिया में होते हैं तो हमें स्वयं की तुलना सदैव अपने से उच्च अर्थात् उन्नत व श्रेष्ठ लोगों से करनी चाहिए, निचली अवस्था के लोगों से नहीं! हम बारम्बार अपनी तुलना पाकिस्तान जैसे छोटे, कमजोर व अपरिपक्व देश से करते रहते हैं एवं खुश होते रहते हैं। परन्तु जहाँ चीन जैसे विकसित या अपेक्षाकृत उन्नत विकासशील देशों से तुलना की बात होती है, वहाँ हम उनकी समृद्धि के अनेकों अन्य कारण गिना देते हैं!
दुःख की बात है कि हमारे भारत में आज लगभग प्रत्येक क्षेत्र के अगुवाओं की यही दशा है - न्यूनतम प्रयास कर येनकेन-प्रकारेण अधिकतम प्राप्त करने की वृत्ति! जब अगुआ ऐसे तो फिर अनुगामी तो तदनुसार होंगे ही! कागजों पर, आंकड़ों में निश्चित रूप से हम अपने राष्ट्र को काफी आगे दिखाने में सफल हो गए हैं परन्तु अपने सामने हम अनावृत हैं। प्रगति की आपाधापी में हम संतुलन खोते जा रहे हैं। प्रवृत्ति और निवृत्ति जैसे शब्दों और उनके अर्थों को भुला बैठे हैं। अनर्गल विकास और प्रगति की दौड़ ने हमें क्रमशः आत्मिक प्राणी से शारीरिक प्राणी और फिर शारीरिक प्राणी से संवेदनहीन मशीन में परिवर्तित कर दिया! देखा जाये तो यह भी एक प्रकार का परिवर्तन ही है, और लोग तर्क देते हुए यह चिरपरिचित पंक्ति पुनः कहेंगे कि 'परिवर्तन ही शाश्वत सत्य है'!!
प्रकृति में, मानव देह में, उसकी मूलभूत आवश्यकताओं में, गुणधर्मों में तो विगत हजारों वर्षों से कोई परिवर्तन नहीं आया है, फिर हम क्यों अपने जीवन में नित इतना अधिक परिवर्तन करने की चाहत रखते हैं?? यह अत्यधिक चाहत ही हमें बीमार बना रही है। स्वयं भी एक प्राकृतिक वस्तु होने के कारण हमारा प्रथम कर्तव्य बनता है कि प्रकृति ने जिस मूल रूप में एवं उद्देश्य से हमें बनाया, हम उसे जानने और खोजने की चेष्टा करें तथा उसे बनाये रखने का प्रयत्न करें। मेरा विचार है कि प्राकृतिक सिस्टम अपरिवर्तनीय है! हम जबरन उसे हिलाने का प्रयास करेंगे तो खुद ही हिल जायेंगे! क्या नित ऐसा होते नहीं देख रहे हैं हम??
ऐसी खोजों, परिवर्तनों आदि का स्वागत होना चाहिए जो हमें प्राकृतिक रूप से उन्नत होने में मदद करें। प्राकृतिक रूप से तात्पर्य है कि बिना हमारे मूल रूप, गुणधर्म और स्वभाव को छेड़े; बिना हमारे दिलों पर स्वाभाविक रूप से अंकित नैतिकता को छेड़े। अर्थात् हम भौतिक रूप से उन्नत अवश्य हों पर बिना राक्षस या असुर बने। जो भौतिक प्रगति हमें इंसान से देवता बनाने के बजाए आसुरी वृत्ति की ओर ले कर जाये उसे फिर से जांचना अति आवश्यक!
समाज बदल रहा है या बुराइयों की गर्त में जा रहा है...? ..परिवर्तन ही जीवन का नियम है तो अपनी सोच में परिवर्तन क्यों नहीं कर पाते सभी? प्रत्येक व्यक्ति आज कुछ अपने कुछ विशिष्ट संस्कारों (इम्प्रेशंस) और धारणाओं के अधीन है। इनके चलते उसकी सोच इतनी दृढ़ सी हो गयी है कि अचानक किसी परिवर्तन की बात पर वह भड़कता है, आसानी से राजी नहीं होता, या चाह कर भी खुद को बदल नहीं पाता। मेरे विचार से किसी को 'परिवर्तित' होने के लिए कहना उसे उसकी पूर्वस्थापित सोच और अहं के विरुद्ध लगता है। ...'परिवर्तन' के स्थान पर यदि 'शोधन', 'परिष्करण', 'निखारना' (रिफाइनमेंट) आदि के लिए कहा जाये तो व्यक्ति के अहंकार पर कोई चोट नहीं होती! ..सत्य भी तो यही है कि हम यदि व्यक्तित्व और सोच आदि में 'निखार' लाने की कोशिश करें तो इस क्रम में जरूरी परिवर्तन भी स्वतः हो ही जाते हैं! व्यक्ति, समाज या सोच की असली उन्नति के लिए 'परिवर्तन' की नहीं, बल्कि 'रिफाइनमेंट' या 'निखारने' की आवश्यकता है। 'परिवर्तन' शब्द में शायद आलोचना का पुट लगता है जबकि 'रिफाइनमेंट' या 'बेटरमेंट/इम्प्रूवमेंट' (और ज्यादा अच्छा बनो) शब्द जोश पैदा करते हैं। जरा सोचकर देखिये कि स्वयं की या अपने किसी करीबी की सोच को बदलने के लिए इनमें से कौन से शब्द मनोवैज्ञानिक तौर पर अधिक कारगर हैं?! इति।

Thursday, July 18, 2019

(१११) आखिर हम कहाँ जा रहे हैं...

वर्तमान में मैं ५६ वर्ष का हूँ. ..बचपन से आज तक के विभिन्न दृश्य व प्रसंग मेरे मनमस्तिष्क में घुमड़ रहे हैं. इनमें से अधिकांश को अपनी ज्ञानेन्द्रियों एवं आत्मा के द्वारा अनुभव-अनुभूत किया है, और कुछएक सुने-सुनाए और कुछ लेखों के माध्यम से ज्ञात हुए हैं.

निःसंदेह सम्पूर्ण विश्व प्रगति एवं उत्कृष्टता की चाह रखता है, ..हम भारतवासी भी रखते हैं! लेकिन हमारी प्रगति बहुत ही विचित्र ढंग से और विचित्र मार्गों द्वारा हो रही है. प्रगति की दौड़ और होड़ में हम भी भाग तो रहे हैं पर अस्तव्यस्त से! इस क्रम में हमारी सामान्य नैतिकता, कर्तव्यनिष्ठा, सादगी, सरलता, सहजता, उपलब्धता एवं निश्छलता आदि का ग्राफ निरंतर नीचे को गिरता जा रहा है. निश्चित रूप से यही वे मूल कारण हैं जो हमें ठोस प्रगति से रोक रहे हैं और भारत की गणना अभी तक एक 'विकासशील' राष्ट्र के रूप में होती है (५० वर्ष पूर्व मेरे बचपन की किताबों में भी मैंने अपने राष्ट्र के विषय में यही 'विकासशील' शब्द ही पढ़ा था)!

बहुत गहरे इतिहास में न जा कर गाँधी जी से ही आरंभ करते हैं. उस समय अंग्रेज आक्रांताओं का बहुत जुल्म और बर्बरता थी. उनके लिए किसी को मृत्युदंड देना तक भी बहुत सरल था. किन्तु फिर भी अंग्रजों के घनघोर विरोधी होने के बावजूद अंग्रेजों ने गाँधी जी की हत्या नहीं की, और न ही कभी ऐसा कोई षड्यंत्र किया. हाँ, उन्हें जेल में बहुत डाला! देश-विदेश में इतने प्रख्यात होने एवं संत का दर्जा तक मिलने के बावजूद भी उनकी जीवनशैली में एक निष्कपट सरलता थी. सभी को वह सहज भाव से मिलते थे और सर्वसाधारण के लिए उनकी वैयक्तिक उपलब्धता बहुत सरल थी. ...क्या आजकल के बड़े मार्गदर्शकों, गुरुओं, संतों, स्वामियों और साध्वियों आदि से सामान्य जन की प्रत्यक्ष भेंट सरल व सहज रह गयी है?? अहिंसा और सादगी का पाठ पढ़ने-पढ़ाने वाले बड़े लोग आज अपने घर पर भी और बाहर भी सशस्त्र अंगरक्षकों के घेरे में कैद हैं. कभी-कभार सामान्यजन हेतु वे प्रकट होते हैं, लेकिन उनका संवाद बहुधा एकपक्षीय (one way) ही होता है. किसी सामान्य जन को उनसे व्यक्तिगत रूप से मिलना हो तो सचिवों के इतने घेरे हैं कि उनको पार करना किसी चाटुकार के बस की ही बात है! हाँ, यदि भौतिक जगत में आप कुछ ख़ास साख रखते हैं तो फिर तो मिलना बहुत ही आसान है!

विगत अनेक वर्षों से अभी चार-पांच वर्ष पूर्व तक भी सरकारी और निजी संस्थानों द्वारा सामान्य जन को जब कोई क्षति पहुंचती थी या कोई धोखा होता था, तो शिकायतों के निवारण हेतु अनेक सरकारी पटल थे, जैसे-- National Consumer Helpline (NCH), Centralized Public Grievance Redress And Monitoring System (CPGRAMS), Directorate of Public Grievances (DPG). जिन पर आप ऑनलाइन या ऑफलाइन शिकायत दर्ज कर सकते थे. और यदि आपका केस सच्चा और प्रमाण-युक्त है, तो तयशुदा समयावधि के भीतर आपको खरा न्याय मिल जाता था. ये पोर्टल अब भी हैं, लेकिन बेअसर हो चुके हैं. मैंने स्वयं अतीत में इनकी सहायता ली थी और न्याय का प्रतिशत सौ फीसदी रहा था, जबकि वर्तमान (निकट-अतीत) में यह आंकड़ा शून्य का आ गया! क्यों?? क्योंकि रसूखदारों के प्रति सत्ता की भी खुशामद अब बहुत बढ़ गयी है. सनद रहे कि ये उपरोक्त पोर्टल विभिन्न मंत्रालयों व विभागों से सम्बद्ध हैं.

आध्यात्मिक संस्थाओं में धुआंधार सुनाया व रटाया जा रहा है. किन्तु सर्व शिक्षा मन व बुद्धि के स्तर पर सीमित है! ...गहरे विवेक अथवा आत्मा के स्तर पर कोई भी कार्य नहीं हो रहा है. राजनीतिक संस्थाएं आमजन को डराने और दहशत में डालने और बड़ी व चाटुकार प्रभावशाली कारोबारी हस्तियों को उठाने में लगी हैं. व्यावसायिक संस्थाएं केवल बड़े मुनाफे के लिए दिन-रात एक किये हुए हैं, गुणवत्ता व ईमानदारी कम होती चली जा रही है. विज्ञापनों, पैकिंग्स और लुभावने वादों, आमंत्रण आदि में महीन अक्षरों में छुपी हुई पेचीदा 'टर्म्स एंड कंडीशन्स' निरंतर बढ़ती जा रही हैं. इससे व्यवसाय में पारदर्शिता व भरोसा कम होता जा रहा है. नोटबंदी के बाद से अंधाधुंध किये गए बेतरतीब डिजिटलीकरण ने हमारे देश की शिक्षा संस्थाओं व वैज्ञानिक संस्थाओं के गिरते चरित्र को भी उजागर कर दिया है. देश के शीर्षस्थ शिक्षा संस्थानों से निकली बिजनेस मैनेजमेंट स्नातकों और सॉफ्टवेयर इंजीनियरों की नयी पौध ने व्यवसाय व उपभोक्ता जगत में ऐसी-ऐसी नयी स्कीमों, मोबाइल एप्लीकेशन्स का संजाल खड़ा कर दिया है, जिससे समय की अनावश्यक बर्बादी के साथ ही जोड़-तोड़ की बिक्री-खरीदी का जोर निरंतर बढ़ रहा है. ईमानदारी से यदि कहूं तो इस अजीबोगरीब डिजिटलीकरण से बजाय सरलता होने के, कठिनाईयां व जटिलताएं ही बढ़ी हैं. छोटे व्यवसाई/दुकानदार समाप्त हो रहे हैं, स्वरोजगार के स्थान पर वे अब छोटी-मोटी नौकरी ढूढ़ रहे हैं; ..पेमेंट करना व पाना तो अवश्य सरल हुआ है, पर इसके साथ ही विभिन्न मोबाइल एप्लीकेशन्स से निजता का हनन, असुरक्षित वेबसाइट्स के अलावा सुरक्षित माने जाने वाले एप्लीकेशन्स एवं साइट्स से असंख्य पॉपअप्स उभरना, उनसे प्रविष्ट होते खतरनाक वायरस और चोर सॉफ्टवेयर, सिस्टम की हैकिंग, बैंक खाता सम्बन्धी गोपनीय जानकारी का लीक होना, एटीएम कार्ड क्लोनिंग, आदि ये कुछ ऐसी नकारात्मक चीजें बढ़ी हैं जिनसे साधारण मानवीय मूल्यों का अस्तित्व आज संकट में है. इस अंधाधुंध डिजिटलीकरण के बाद, बिग बाज़ार जैसे किसी भी बड़े स्टोर से खरीदारी की प्रक्रिया में समय की बर्बादी और मानसिक जोड़तोड़ से उपजी मानसिक थकावट बहुत बढ़ गयी है. उदाहरण के लिए-- एक लेने पर ५०० का, दो लेने पर ८०० का और तीन लेने पर १००० का, तीन या चार के साथ एक फ्री, ....फ्री वो जो सबसे कम दाम का होगा, चुनिन्दा सामानों पर कुछ छूट आपके फ्यूचर पे डिजिटल वॉलेट में कुछ-कुछ रुपए प्रति माह जाएगी, उसी माह में उसे प्रयोग करना होगा अन्यथा वॉलेट में आया पैसा जब्त हो जायेगा, इसके अलावा आपके मोबाइल नंबर पर कूपन कोड आते रहते हैं, उनकी भी कुछ दिनों की एक्सपायरी डेट होती है. इनकी टर्म्स एंड कंडीशन्स इतनी छुपी होती हैं कि आप धोखे और लालच में आकर स्टोर चले जाते हो, असली तथ्य आपको वहां बिलिंग के समय पता चलते हैं, जिनसे आप तनाव में आ सकते हो. इसके अतिरिक्त पे-बेक पॉइंट्स कार्ड, प्रॉफिट क्लब कार्ड, और न जाने कितने ही पेचीदा प्रलोभन....., ये सभी की उस पिपासा को बढ़ा रहे हैं, जो अंत में आपको साधारण मानवीय नैतिक मूल्यों और नैसर्गिक जीवनशैली से दूर ले जाती है, और समय की बर्बादी व मानसिक तनाव बोनस में अलग से मिलते हैं. ...वैसे अनेक आध्यात्मिक संस्थाओं के व्यावसायिक प्रतिष्ठान भी अब इसी राह पर अग्रसर हो चुके हैं!!!

इसके अतिरिक्त देश की सुरक्षा से जुड़े आयुध निर्माण जैसे कि एक विवादित युद्धक विमान के निर्माण जैसे कार्यों का अनुबंध अब सरकारी सुस्थापित कंपनी को छोड़कर ऐसी निजी कंपनियों को दिया जा रहा है जो पहले से ही दिवालियेपन की कगार पर हैं! डॉक्टरी व इंजिनीयरिंग जैसी मानव-हित से जुड़ी विधाएं तेजी से मुनाफे वाली व्यावसायिकता की ओर अग्रसर हैं. हवाई यात्रा के उपरांत अब आमजन की रेल यात्रा की सीटों का भी अब मांग बढ़ने व उपलब्धता घटने के साथ किराया बढ़ जाता है. किसी की गरीबी, इमरजेंसी या विवशता का ध्यान किसे है भाई, ..सारा जोर मुनाफे पर है अब! देशी सामान व सेवा की गुणवत्ता हाशिये पर जाती जा रही है.

११वीं कक्षा में आने पर सन् १९७८ में जब अपने शहर लखनऊ में ही घर से दूर कॉलेज में साइकिल से जाना शुरू किया तो तब यहाँ के केंद्रीय चौराहे पर पैदल सड़क पार करने वालों के लिए बाकायदा रोड सिग्नल लाइट्स होती थीं. पैदल वालों की लाइट हरी होते ही उस छोर के वाहन रुक जाते थे और पैदल सड़क पार करने वाले जेब्रा लाइन्स पर से आराम से सड़क पार कर लेते थे. दक्षिण भारत में यह अब भी है. लेकिन हमारे यहाँ अब जेब्रा लाइन्स तो हैं पर मात्र दिखावट के लिए! उनपर वाहनों का अधिक्रमण रहता है. और पैदल पार करने वालों के लिए न तो कोई लाइट्स हैं, न अंडर पास, न ही ओवर ब्रिज और न ही कोई सहानुभूति! समय के साथ हम आगे को गए या पीछे को, कोई तो समझा दे!

पूर्व में हम साधारण सरकारी स्कूलों में पढ़कर ही कुछ बन गए, अस्वस्थ होने पर साधारण सरकारी चिकित्सालयों में ही जा कर स्वस्थ हो गए; लेकिन अब क्या ऐसा है?? हम आगे को बढ़े या नीचे गिर गए? ...पहले उधार का खाना हमारी आम संस्कृति नहीं थी. लेकिन आगे बढ़ने के क्रम में हम शहरी लोग तो चतुर-चालाक हुए ही, साथ ही अब भोले ग्रामीण व खेतिहर भी चुस्त हो गए हैं! जिसे पहले कहने या प्रकट करने में सकुचाहट होती थी, उस कर्ज को लेना अब आम बात हो गयी है! उस पर भी तुर्रा यह कि चुकाने से पहले सरकारी माफी या एक-मुश्त समाधान योजना की प्रतीक्षा रहती है! यह जीवनशैली तो हमारी पहचान न थी कभी!

यहाँ आज लगभग सभी काम करने वाले अब डिजिटल क्रांति (मोबाइल एप्स) के जबरदस्त शिकंजे में हैं. इससे भी कार्य के प्रति समर्पण, सेवाभाव, गुणवत्ता आदि बहुत प्रभावित हुए हैं. कारण यह कि इसकी खोज, बनाने आदि में हमारा कोई भी योगदान नहीं रहा, अन्यथा इसकी असल कीमत व महत्त्व हम जानते! बाजार के वैश्वीकरण के दौर में हमें तो यह अनायास मिल गया! जब रोटी, दाल, सब्जी हम कमाकर खुद बनाते हैं तो उसकी कीमत जानते हैं, उसकी इज्जत करते हैं; लेकिन येनकेनप्रकारेण वह हमें अनायास मिल जाये तो हम आधा खाते हैं, आधा बर्बाद करते हैं. मुझे तो नहीं लगता कि उपग्रह प्रक्षेपण व अन्तरिक्ष विज्ञान के अतिरिक्त किसी अन्य वैज्ञानिकी क्षेत्र में हमने कोई ठोस व अभिनव प्रयास कर कोई उपलब्धि हासिल की हो! यहाँ तक कि हमारी अकूत आध्यात्मिक विरासत में भी हमने कोई ठोस प्रगति की चाह कभी भी नहीं दिखाई! हमारे सनातन वेद, उपनिषद् आदि जहाँ हमें उनसे भी आगे जाने को प्रेरित करते हैं, वहीं हम उनको लेकर बगल में दबाये अभी भी उन्हें श्रवण, कंठस्थ आदि करने के स्तर पर ही हैं! वेदों ने तो हमें क्रमशः स्थूल से सूक्ष्म, सूक्ष्मतर व आगे सूक्ष्मतम होने को प्रेरित किया, परन्तु हम अभी तक असंख्य स्थूल विधि-निषेधों में ही उलझे हैं! हम क्रमशः मन के, विवेक के, हृदय के, आत्मा के स्तर पर आखिर कब जायेंगे? यहाँ एक धर्मग्रन्थ में लिखी बड़े पते की बात बताना चाहता हूँ, अपने अनुयायियों को संबोधित करते हुए वहां लिखा था, "तुम सब इस धर्मग्रन्थ को पढ़ो, इसे याद करो, इसे धारण करो, इसके अनुसार वर्तन करो; ..लेकिन कभी तुम ऐसा भी पाओगे कि, कभी तुम किसी अन्य भूभाग के अपरिचित से व्यक्तियों से मिलोगे, जो इस धर्मग्रन्थ को बिलकुल भी नहीं जानते, फिर भी उनके आचरण से तुम्हें ऐसा महसूस होगा कि वे इस धर्मग्रन्थ में लिखी शिक्षा के अनुसार ही चल रहे हैं! अजीब सा है न यह!! क्योंकि परमेश्वर ने सभी को वह विद्या दी है हमेशा से ही, ...कोई पढ़कर, कंठस्थ करके 'शायद' वहां तक पहुँचता है, और कोई अनपढ़ होते हुये भी! शब्द महत्वपूर्ण नहीं बल्कि आचरण महत्वपूर्ण है, संवेदनाएं महत्वपूर्ण हैं, मन/अंतर् में चलने वाले विचार/भाव महत्वपूर्ण हैं!"

अब अंत में मेरे मन को विचलित कर देने वाली एक बात, ...मैं जीवन में अब तक सदैव सत्य का समर्थन व गलत का शालीन विरोध दर्ज करता रहा. उम्र बीतने के साथ-साथ जब मैंने पाया कि हमारे समाज में नैतिकता का ग्राफ लगातार नीचे को गिरता जा रहा है, तो मैंने कुछ वरिष्ठ लोगों से मार्गदर्शन लेना चाहा कि अब क्या कर्तव्य बनता है. अधिकांश ने परामर्श दिया कि, "यहाँ प्रयास करने से कोई लाभ नहीं, भगवान् सबको अपनी करनी का फल समय आने पर अवश्य देंगे!" ...बड़े लोगों की यह सोच निश्चित ही पलायनवादी है! ....क्या निर्गुण परमात्मा के हम छोटे-छोटे मनुष्य रूपी सगुण अवतारों का जन्म इसीलिए हुआ है कि मशीन की भांति यह भूलोक प्रवास मात्र भोगें, जब तक कि देह में हैं! क्या हमारी कोई भूमिका या कर्तव्य नहीं?