Friday, March 20, 2009

(२) समष्टि हेतु प्रथम प्रबोधन

आज हम सभी को अपनी अतिव्यस्त दिनचर्या में से कुछ क्षण निकाल कर यह विचार करना चाहिए कि क्या हमारे देश में, प्रदेश में या हमारे अपने ही नगर में सब कुछ ठीक-ठाक चल रहा है? क्या हम अपने आज के वर्तमान जीवन से पूर्णतया संतुष्ट हैं?? गम्भीरता एवं ईमानदारी से विचार करने पर हमें यह महसूस होगा कि हाँ, वस्तुतः सब कुछ ठीक-ठाक नहीं चल रहा। ... आज प्रत्येक व्यक्ति भौतिकता के पीछे अन्धा होकर दौड़ रहा है पागलों की भाँति। आज हमने अपनी भौतिक आवश्यकताएं इतनी अधिक बढ़ा लीं हैं कि उनको पूरा करते-करते कैसे सुबह से रात हो जाती है, पता ही नहीं चलता। क्या इस हद तक मशीनी ज़िन्दगी से उच्च कोटि का सुख हमें वास्तव में प्राप्त हो रहा है? आज एक आवश्यकता या लालसा पूरी करते हैं, तो कल कोई दूसरी लालसा जाग जाती है, और परसों कोई अन्य। इच्छाओं, लालसाओं व आवश्यकताओं का अंत ही नहीं होता है। अंत तभी तो नहीं होता क्योंकि ये सब हमारे मन द्वारा ही तो उपजती हैं। भौतिक लालसाओं और सुख-सुविधाओं को जल्दी से जल्दी पा लेने की कोशिश में लोग अंधे होते जा रहे हैं। तनिक भी विचार नहीं करते कि उनको पाने का मार्ग सही है या नहीं, कहीं दूसरों के अधिकारों पर अतिक्रमण तो नहीं हो रहा है? अपने लक्ष्यों यानी सुख-सुविधाओं को पाने के लिए लोग सभी पुरानी मान्यताओं व नैतिकता को तिलांजलि देने में कतई देर नहीं करते। आज का प्रचलित सिद्धाँत यही हो गया है कि भौतिक रूप से ऊँचा उठने के सभी कुछ उचित है, जायज है। भौतिक प्रगति की राह पर चलते-चलते, मार्ग में यदि कोई अपना सगा-संबंधी, मित्र या कोई नैतिक मूल्य आड़े आता है, तो लोग उनको नजरंदाज करने में भी कतई नहीं हिचकते। निज स्वार्थ सिद्धि के लिए हममें से अधिकांश, सभी नैतिक मूल्यों को ताक पर रखने के अतिरिक्त अन्यों के प्रति द्वेष को भी बढ़ाते हैं। दूसरे की प्रगति पर हमें जलन होती है, नफरत होती है, द्वेष होता है, भले ही वह परोक्ष हो अथवा अपरोक्ष। हममें स्पर्धा की भावना भर जाती है व हम दूसरों से आगे निकलने के लिए किसी जंगली जानवर की तरह नथुने फुला कर तैयार हो जाते हैं। इस प्रकार अपनी आवश्यकताएं बढ़ने या बढ़ाने हेतु हम स्वयं ही उत्तरदायी हैं।

गंभीरता से विचार करें तो हमारी मूलभूत भौतिक आवश्यकताएं आखिर हैं क्या? शरीर का पोषण, सर ढकने के लिए छत, व थोड़ा-बहुत स्वस्थ मनोरंजन, .. बस। यानी रोटी, कपडा और मकान व थोड़ा स्वस्थ मनोरंजन। अब लोग इन तीन-चार मूलभूत आवश्यकताओं को ही अत्यधिक विस्तार दे देते हैं सर्वप्रथम। फिर इनके अतिरिक्त न जाने कितनी ही आवश्यकताएं स्वयं ही सृजित कर लेते हैं। लालसाओं का कहीं कोई अंत भी होता है? अब लालसा जाग ही गयी तो पूर्ति जरुरी है, तो पूर्ति हेतु जो भी सही-गलत मार्ग मिला वह अपना लिया, ऊपर से शर्त यह कि 'शॉर्टकट' होना चाहिए, अधिक विलंब अब बर्दाश्त नहीं। कितना एकत्रित करेंगे, कितना संग्रह करेंगे?? ध्यान से देखें तो अधिकाँश बड़े-बड़े घरों में ज्यादातर सामान मात्र शोभा या संग्रह की वस्तु बन कर रह जाता है। उनका सदुपयोग तो छोड़िये, साधारण प्रयोग भी नहीं होता होगा शायद। प्रत्येक व्यक्ति प्रथम यह विचार क्यों नहीं करता कि अमुक वस्तु या सुविधा क्या वास्तव में मेरी आवश्यकता है?? क्या उसके बिना भी काम चल सकता है? ... मेरे ऐसा कहने पर अधिकाँश लोग कहेंगे कि क्या साधु-फकीर आदि बन जायें? क्या संसार, सांसारिक वस्तुएं, विलासिता आदि त्याग दें? उत्तर होगा -- कतई नहीं। ... अपनाने में कतई हर्ज़ नहीं, भोगने में कोई हर्ज़ नहीं, पर पागलों समान उनमें आसक्ति रखना .. यह गलत है। विलासिता को जल्दी से जल्दी पा लेने के लिए सफेदपोश वहशी बन जाना गलत है। सही तरीके से, सही मार्ग अपनाया जाये, मिले तो ठीक, न मिले तो ठीक, इस प्रकार की संतुलित अवस्था रखी जाये मन की, तो सब ठीक है। अन्यों के साथ राग-द्वेष न पालें व किसी के अधिकारों का हनन न करें, लूटें नहीं, खसौटे नहीं, बेवकूफ न बनाएं किसी को, सबके प्रति सच्चा प्यार रखें, ईमानदारी रखें, तो सब जायज है, सब विलासिता ठीक है। क्या हम यह सब कर सकते हैं या करते हैं वास्तव में?? उदाहरण के लिए -- आज के या सर्व कालीन सबसे 'नोबेल प्रोफेशन' को ही ले लें यानी कि 'डॉक्टरी'। पढ़ाई समाप्त होते ही शपथ लेने वाला डॉक्टर यानी आज का भगवान् क्या शपथानुसार समर्पित है अपने पेशे के प्रति?? ... इसी प्रकार शपथ लेने वाले वकील, जज, गवाह, नेता, समाज-सेवी आदि क्या अपने कर्तव्यों के प्रति वास्तव में ईमानदार हैं?? ... अब आप यह कहेंगे कि जब शपथ लेने वाले ही ईमानदार नहीं, तो साधारण व्यक्ति से कैसी अपेक्षा?? ... अरे! आपने मान तो लिया कि आप भी कहीं न कहीं से गलत हैं, तभी तो साधारण व्यक्ति से अपेक्षा पर प्रश्नचिह्न उठाया। जरा विचार कीजिये कि भौतिकता की इस प्रकार की अंधाधुंध दौड़ में शामिल होकर हम अपनी अगली पीढ़ी को विरासत में क्या दे रहे हैं? देखा जाये तो आज की पीढ़ी कम्प्यूटर, मोबाइल फोन, बाईक, अत्याधुनिक इलेक्ट्रॉनिक गेजेट्स, विचित्र परिधानों, पार्टियों आदि में ही उलझती जा रही है। विलासिता का ज्वर नयी पीढ़ी को और अधिक तीव्रता से चढ़ रहा है। इस ज्वर का पोषण करने वाले उनके माता-पिता ही हैं, जो इस समय सिर्फ और सिर्फ संसाधन जुटाने में लगे हैं, विलासिता का अम्बार लगाने में लगे हैं। कर्तव्यों का, मानवता का, प्रेम का, नैतिकता का बोध ही नहीं है उन्हें। सबसे बढ़ कर जीवन की नश्वरता का बोध भी नहीं है उन्हें। अरे 70-75 साल की जिंदगी है मात्र। यह जीवन मानव की तरह जियें, मशीन की तरह नहीं। अपने नैसर्गिक गुण - सच्चे आपसी प्रेम को जिंदा रखें। अच्छाई कमाएं, बुराई नहीं। ऐसे कर्म करें कि जीते जी भी दूसरों की प्रशंसा के पात्र बनें, व मरणोपरांत भी। दूसरों की प्रशंसा छोडें, वह शायद न भी मिले, पर अपनी आत्मा से यदा-कदा पूछें कि क्या वह भी प्रशंसा करती है हमारी?? ... एक बार सोच लें कि अब से कोई तो साधना करनी है, धर्म यानी righteousness के मार्ग पर चलना है, न कुछ गलत करना है और न कुछ गलत होने देना है, व्यर्थ के दिखावों और ढकोसलों से दूर रहना है, यथासंभव संतुलित रहना है। एक बार सभी लोग मिल कर एकत्रित प्रयास करें उपरोक्त साधनाओं का, कर्तव्य पालन का, दृढ़ता का, ईमानदारी का, धार्मिकता (righteousness) का, फिर महसूस करें कि पहले अच्छा था या अब ...?

आज वास्तव में धार्मिक (righteous) व्यक्ति असंगठित हैं व अधार्मिक संगठित हैं, इसीलिए इतना भ्रष्टाचार पनप रहा है। यदि धार्मिक (righteous) भी संगठित हो जायेंगे तो अधर्म को भागना ही पड़ेगा। प्रकाश के आगे अन्धकार का अस्तित्व नहीं होता। स्वयं में बदलावों के लिए निरंतर कुछ न कुछ सीखने की आवश्यकता होती है। तो सीखने के लिए आवश्यकता है कि हम स्वयं जैसी विचारधारा वाले व्यक्तियों को संगठित कर आपस में नियमित रूप से मिलें, सप्ताह में कम से कम एक बार तो अवश्य। अच्छी तरह से नियोजन कर एक निश्चित समय पर नियमित रूप से बैठक करें। नियमित बैठक के कुछ लाभ इस प्रकार से हैं -- बैठक में शामिल होने वाला प्रत्येक व्यक्ति नम्रता से, लचीलेपन के साथ, कुछ सीखने की दृष्टि से ही आता है, जिससे व्यक्ति का अहम् कुछ कम हो जाता है। जब बैठक में सभी व्यक्तियों का उद्देश्य यही होता है तो एक-दूसरे को देख कर धर्ममार्ग पर चलने के लिए सभी का हौसला बढ़ता है। यह सहारा मिलता है व ढाढ़स बंधता है, कि इस पथ पर मैं अकेला ही नहीं हूँ और भी बहुत से हैं। बैठक में कई ऐसे प्रगति-प्राप्त व्यक्तियों का साथ मिलता है, जो प्रेरणा-स्रोत बनते हैं हमारे लिए। ऐसी बैठक के वातावरण में चैतन्य रहता है; अतः वहां पर, उस वातावरण में, अन्य लोगों का भी सोया चैतन्य जागृत होता है या हो सकता है। चैतन्य जागृत होने पर ही हमें यह पता चलता है कि वास्तविक जीवन अर्थात् क्या, वास्तविक सुख या आनंद अर्थात् क्या! ये दोनों ही अनुभूति के विषय हैं, शाब्दिक व्याख्या से बिलकुल परे। केवल इस प्रकार की सात्त्विक बैठक में ही या बैठक के पश्चात् ही अधिकांश लोगों को इसकी अनुभूति संभव है। एक बार जब हमारा चैतन्य जागृत होने लगेगा, तदनुसार हम धर्म (righteousness) के मार्ग पर चलने लगेंगे, तो फिर हमें वस्तुतः सब कुछ ठीक-ठाक लगने लगेगा। समझ में आ जायेगा कि साधना अर्थात् क्या, सही व न्यायपूर्ण आचरण अर्थात् क्या, धर्माचरण अर्थात् क्या, प्रेम अर्थात् क्या, मन की संतुलित अवस्था अर्थात् क्या! जीवन का वास्तविक उद्देश्य पता चलेगा, जीने की कला आयेगी, वास्तविक कर्तव्य का बोध होगा। यह प्रथम सोपान होगा सही मायनों में मानव बनने के लिए। ... यहाँ तक की स्थिति के लिए हम सब को स्वयं ही प्रयास करना पड़ेगा क्योंकि ईश्वर की ओर से प्रत्येक मनुष्य स्वतंत्र है अपनी इच्छानुसार कर्म करने के लिए। परन्तु ईश्वर या प्रकृति की अपेक्षा यही है कि प्रत्येक मानव धर्ममार्ग पर चले। एक बार जब हम ईश्वरेच्छानुरूप इस प्रकार की बैठक की शुरुआत करेंगे तो आगे के लिए आवश्यक ऊर्जा हमें स्वयं ईश्वर ही प्रदान करेंगे। इति।