Saturday, May 22, 2010

(३३) धनी और निर्धन

  • जिसकी जितनी अधिक आवश्यकताएं शेष हैं, वह उतना ही अभावग्रस्त है, और उतना ही गरीब भी।
  • अभावों की निरंतर अनुभूति ही घोर निर्धनता का लक्षण है। यदाकदा अभाव महसूस करना मध्यम स्थिति है। और कामनारहित व्यक्ति या स्वयं को वास्तव में अभावहीन समझने वाला व्यक्ति धनी है, भले ही उसके पास फूटी कौड़ी भी न हो!
  • जो मन से धनी है अर्थात् संतोषी है, वह सुखी है, क्योंकि उसका मन शांत है। और मानसिक रूप से निर्धन अर्थात् अशांत तथा स्वयं को सदैव अभावग्रस्त समझने वाला व्यक्ति बहुधा दुःखी ही रहता है।
  • नित नवीन भोगों को प्राप्त करने की इच्छा, विलासिता के संसाधनों को जुटाने की अभिलाषा एवं येनकेनप्रकारेण संग्रह की वृत्ति वास्तव में मन की गरीबी ही है।
  • कामनापूर्ति से संभवतः सुख की प्राप्ति संभव नहीं क्योंकि कामनाओं का तो अंत नहीं। किसी एक बिंदु पर यथार्थतः संतोष कर लेने पर ही सुख का अनुभव होना आरंभ होता है।
  • जिसको अपनी वर्तमान स्थिति पर संतोष है, जिसकी अभिलाषाएं अनासक्त हैं, जो अन्यों के ऐश्वर्य की उन्नति के प्रति ईर्ष्यालु नहीं; वह सदैव शांत व सुखी रहता है।
  • जो व्यक्ति चकाचौंध, तड़क-भड़क, अनाप-शनाप अधिकाधिक खर्च और ऊपरी दिखावे को ही परम-आवश्यक, गौरवशाली व सुख का कारण मानता है, वह इन सब कृत्यों से कभी भी खरा सुख नहीं पा सकता।
  • जो व्यक्ति अपनी आवश्यकताओं को मानसिक स्तर पर भी न्यूनतम कर लेता है, व्यथित नहीं होता; वह ही सुख को समीप से अनुभूत कर पाता है।
  • संतोष सुख का जनक है और सुखी व्यक्ति ही धनी है। असंतोष तो दुःख को ही जन्म देता है, और दुःखी व्यक्ति अर्थात् निर्धन ही! जो सही मायनों में संतोषी है, उसको किसी भी वस्तु का अभाव कभी क्षुब्ध नहीं कर सकता; सामान्य सांसारिक दृष्टि से कदाचित निर्धन व अभावग्रस्त दिखने के बावजूद वह परम शक्ति, शांति एवं सुख का निरंतरता से अनुभव करता है।
  • मानसिक व आध्यात्मिक रूप से धनी व्यक्ति में ही मानवता पायी जाती है। मानवीयता का प्रकाश व्यक्ति को त्याग, कर्तव्यनिष्ठा व कर्तव्यपालन आदि के लिए उकसाता है, तब वह सांसारिक धन और अधिकार के प्रति आसक्ति को छोड़ त्याग एवं कर्तव्यपालन हेतु उद्यत होता है।
  • त्याग का अर्थ यह नहीं कि किसी वस्तु का एकदम से त्याग कर दिया जाये, वरन ऐसा हो जाये कि किसी प्रकार से उस वस्तु के प्रति हमारी आसक्ति शून्य हो जाये। वस्तु या उसके प्रति आसक्ति के त्याग के पश्चात् हमारे मन में यह कदापि न रहे कि हमने कोई बड़ा महान कार्य किया है! यदि ऐसी धारणा रहती है तो त्याग तो हुआ ही नहीं!
  • आसक्ति के त्याग और आवश्यकताओं के न्यूनतम होते ही अमीरी आ जाती है; परन्तु जिसकी आवश्यकताएं व आकांक्षाएं अनंत हैं उसकी गरीबी कभी नहीं मिटती, चाहे उसकी भौतिक स्थिति कितनी भी उन्नत क्यों न हो जाये! और जब तक गरीबी है, दुःख बना ही रहेगा!

Friday, May 7, 2010

(३२) गतांक से आगे

पिछले लेख में एक महत्त्वपूर्ण बिंदु पर चर्चा छूट गयी थी - वह थी ब्रह्माण्ड रूपी शरीर की नियंत्रक-सत्ता या विश्व की समस्त नियंत्रक सत्ताओं से ऊपर की नियंत्रक-सत्ता यानी परमेश्वर के विषय में। बहुत से लोगों का विचार होगा कि "मानवीय सरकारों से भूलें कदाचित संभव हैं, लेकिन परिपूर्ण परमेश्वर परिस्थितियों को क्यों बिगड़ने देता है? वह समय पर क्यों नहीं उचित नियंत्रण स्थापित करता जिससे विश्व या ब्रह्माण्ड रूपी शरीर व उसके अंग स्वस्थ रहें?" प्रश्न बिलकुल प्रासंगिक जान पड़ता है और इसके उत्तर भी पिछले कुछ लेखों में टुकड़ों-टुकड़ों में विद्यमान हैं। फिर भी पुनः इस बिंदु पर मनन कर लेते हैं।

जैसा कि वैज्ञानिक भी मानते हैं कि इस प्रकृति के कुछ अकाट्य नियम हैं, सिद्धांत हैं। उन्हीं नियमों-सिद्धांतों के अंतर्गत समस्त घटनाएं व गतिविधियां घटित होती हैं; जैसे - मौसम में परिवर्तन, वर्षा, बाढ़, भूस्खलन, ज्वारभाटा आदि। गुरुत्वाकर्षण का नियम, क्रिया के फलस्वरूप प्रतिक्रिया, ऊर्जा की अक्षुण्णता आदि जैसे अनेकों सैद्धांतिक नियम भी इसमें शामिल हैं ही। विभिन्न अन्वेषणों तथा प्रयोगों के पश्चात् जिन-जिन घटनाओं का कारणभाव हमारी समझ में आता चला गया, वे विज्ञान की परिधि में आ गयीं और कुछ घटनाओं का कारण अभी भी ठीक से ज्ञात न हो पाने के कारण वे अभी भी अध्यात्म के अंतर्गत ही हैं। यद्यपि विज्ञान आज भी बहुत सी घटनाओं को समझने-समझाने के लिए विभिन्न संकल्पनाओं का सहारा लेता है, कोई ठोस तथ्य नहीं होते उसके पास। उसी प्रकार अनेकों अनबूझी घटनाओं को 'भौतिक रूप से' समझाने के लिए अध्यात्मशास्त्र को भी अनेकों संकल्पनाओं का आश्रय लेना पड़ता है, यद्यपि है तो यह अनुभूतिजन्य शास्त्र ही!

इन्हीं में सर्वप्रथम बात आती है - प्रकृति के नियमों की। संकल्पना यही है कि परमेश्वर ने सभी घटनाओं के निमित्त कुछ अकाट्य नियम-सिद्धांत बनाये। देखा जाता है कि जब व्यक्ति उन नियम-सिद्धांतों के अनुरूप कार्य करता है तो खरा सुख प्राप्त करता है अन्यथा दुःख। वैज्ञानिक भी जानते हैं कि पर्वतों पर जब पेड़-पौधों का रक्षण किया जाता है तो पर्वतीय क्षेत्र मजबूत रहता है, वहीं उनकी अंधाधुंध कटान से भूस्खलन होता है, दुर्घटनाएं होती हैं। इस प्रकार के सैकड़ों अन्य प्रसंग हैं, सब जानते ही होंगे। तो फिर से हम वहीं पर आते हैं कि - परमेश्वर भी उन नियम-सिद्धांतों से बद्ध है; उसकी भूमिका इतनी है कि योग्य या अयोग्य कर्मानुसार सभी को यथायोग्य परितोष या दंड मिले, यह सुनिश्चित करना। दंड या परितोष के पीछे कोई राग-द्वेष नहीं छुपा है, वरन सिद्धांतों से बद्धता के कारण ऐसा होता है।

अब बात आती है कि "वह अपने शरीर के अंगों को यानी मानव को मनमानी करने ही क्यों देता है? क्यों नहीं यह सुनिश्चित करता कि सभी के मन में केवल सिद्धांतों के अनुरूप ही विचार जन्म लें, इससे सदैव खुशहाली रहेगी?!" इसे समझने के लिए हमें फिर से मनुष्य के आध्यात्मिक प्रारूप पर गौर करना पड़ेगा। आध्यात्मिक रूप से मनुष्य 'आत्मा' है और आत्मा रूपी ऊर्जा परमात्मा रूपी बड़े ऊर्जा-स्रोत का एक छोटा सा भाग है; उसके गुण-विशेषताएं बिलकुल परमेश्वर के समतुल्य हैं। तो फिर मनुष्य से गलती होने की कोई गुंजाईश ही नहीं! फिर भी गलतियाँ होती हैं; क्योंकि इस आत्मा पर मन, बुद्धि, संस्कारों आदि का आवरण है। ये सब उस प्रकाशवान आत्मा का प्रकाश बाहर आने ही नहीं देते। इसी मन, बुद्धि व संस्कारों के कारण मनुष्य गलतियाँ करता है, गिरता है, भुगतता है। अब अच्छी मानवीय सरकारें या राष्ट्राध्यक्ष आदि अपने अंगों यानी प्रजा को लगातार मानसिक रूप से समझाते रहते हैं, उन्हें नियंत्रित करने के लिए संविधान, नियम, कानून आदि बनाते रहते हैं, जिससे वे प्यार से अथवा भय से नियंत्रण में रहें एवं खुशहाली बनी रहे। इसमें वे काफी हद तक सफल भी हुए हैं। ... परन्तु परमेश्वर ने क्या किया? ... परमेश्वर के भी तो कुछ नियम हैं जिन्हें हम प्राकृतिक एवं उपरोक्त वर्णित वैज्ञानिक नियमों-सिद्धांतों के रूप में प्रत्यक्षतः देखते हैं। इसके अतिरिक्त जो सबसे बड़ी चीज परमेश्वर ने हमें प्रदान की है वह है - साक्षात् धर्म (righteousness) रूपी आत्मा। इसका प्रज्ञावान प्रकाश कुछ भी गलत होते समय हमें संकेत भी देता रहता है, जिससे हम सचेत हो जायें। कई बार हम सचेत हो जाते हैं, कई बार हम गलत तो काम कर बैठते हैं पर बाद में पश्चात्ताप करते हैं और कई बार हम धड़ल्ले से गलत काम कर आंतरिक चेतावनी को हवा में उड़ा देते हैं।

मानुषिक शरीर में सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह है कि अब तक ज्ञात जीव प्रजातियों में मनुष्य का मन-मस्तिष्क सबसे अधिक विकसित माना गया है और प्रकृति या परमेश्वर का यह सिद्धांत भी हमें ज्ञात है ही कि कर्म करने के लिए हम पर कोई प्राकृतिक प्रतिबन्ध नहीं है। हाँ, कर्मानुसार (क्रिया के अनुसार) संचित या प्रतिफल (प्रतिक्रिया) का प्रावधान अवश्य है, ... और इसका कोई प्रत्यक्ष प्रमाण न होने के कारण इस पर हम विश्वास करते नहीं! कितना त्रासद है यह कि वैज्ञानिक समर्थन होते हुए भी हम इस तथ्य को अनदेखा करते हैं! अब वस्तुस्थिति से परिचित होते हुए भी हम क्यों वर्तमान अराजक स्थिति के लिए परमेश्वर पर दोष मढ़ते हैं कि उसने समय पर हमें मार्गदर्शित नहीं किया और हम भटक गए, अब भुगत रहे हैं?! ... सही में हम बहुत चतुर हैं! हमारा मन व बुद्धि बहुत बड़े और विकसित हैं, इसीलिए न। .... परमेश्वर ने भी हमारा पर्याप्त मार्गदर्शन किया है। अव्वल तो हम सब भेदों से परिचित हैं ही, बस बनते हैं कि हम अनभिज्ञ हैं; तदपि समय-समय पर ईश्वरीय प्रेरणा से लिखे गए अनेकों नीति व धर्म सम्बन्धी साहित्य हम सबको सहज उपलब्ध है। 'बाइबल का नया नियम' तो विश्व का नंबर एक ग्रन्थ है और ध्यान से देखें तो चेतने के लिए उसके तीन-चार शुरुआती लेख ही पर्याप्त हैं। विश्व में बाइबल के अनुयायी सर्वाधिक हैं, फिर भी पूछा जाता है कि क्यों परमेश्वर ने इतनी अव्यवस्था फैलने दी? हम भारतीयों को तो वैदिक व पौराणिक वृहद आध्यात्मिक ज्ञान सहज ही उपलब्ध है, स्वामी विवेकानंद जी ने वेदांत की कितनी सरल व्याख्या की है तदपि हम अनेकों प्रश्न उठाते हैं! गलतियाँ हम करते हैं, हमें पता होता है कि हम गलती कर रहे हैं; और नकारात्मक नतीजा सामने आने पर दोष परमेश्वर पर मढ़ने लगते हैं, उसपर जिम्मेदारी डालने लगते हैं।

हमसे कहीं अच्छे तो पशु ही हैं, जिनके पास दिमाग कम है, लगभग संस्कारविहीन व बुद्धिविहीन हैं। तभी तो वे जो करते हैं, उसे कहा जाता है कि यह उनकी सहज बुद्धि या स्वाभाविक वृत्ति (innate intelligence or natural instinct) है। ... सही बात है कि वे आत्मिक या प्राकृतिक निर्देशों का पालन ही बहुधा करते हैं क्योंकि संस्कारों, मन एवं बुद्धि का आवरण उनकी आत्मा पर होता ही नहीं! मनुष्य की तरह वे पैसे, जमीन-जायदाद आदि के भक्त नहीं हैं। वे अपनी स्वाभाविक वृत्ति के अनुरूप कार्य करते हैं और उससे उन्हें यथायोग्य पोषण प्राप्त हो जाता है। संग्रह में उनकी कोई रुचि नहीं होती। अपने जीवन में जो कष्ट वे उठाते हैं, अधिकतर मामलों में उसका कारण हम मनुष्य ही होते हैं। स्वार्थी होते हैं न हम! यह सब राग-द्वेष, स्वार्थ, लालच, संग्रह की वृत्ति आदि इसीलिए कि हमारे पास दिमाग है, भौतिक ज्ञान है, मन है, बुद्धि है, विवेक है!

पर हम भूल जाते हैं कि हम एक सर्वाधिक प्रज्ञावान आत्मिक प्राणी हैं; हमारे पास आत्मिक ज्ञान का ठोस स्रोत भी है, जो परमेश्वर या प्रकृति द्वारा प्रदत्त है। क्या हम उसका प्रयोग निरंतरता से करते हैं? हम जानते हैं और हमारे प्राचीन ग्रन्थ भी हमें सचेत करते ही हैं कि हम उस आत्मिक स्तर तक पहुंचें, अविद्या का आवरण नष्ट करें। परन्तु हम इस बात को हंसी में उड़ा देते हैं और मनमानी करते हैं तथा अंत में विपदाओं से घिर जाने के बाद हम परमेश्वर की ओर निहारते हैं, उससे शिकायत करते हैं, प्रार्थना भी करते हैं - एक अबोध बच्चे की भांति। आखिर कब हम परिपक्व होंगे? क्रिया के फलस्वरूप प्रतिक्रिया के सिद्धांत से हम भलीभांति परिचित हैं और यह भी जानते हैं कि प्रतिक्रिया का सही समय व स्वरूप जानने में हम लगभग असमर्थ हैं। सिद्धांत विरुद्ध कार्यों का अम्बार लग जाने पर युद्धों और विनाश के अनेकों प्रसंग पौराणिक ग्रंथों में मिलते हैं। विभिन्न प्राकृतिक आपदाएं और बड़े विनाश भी शायद उसी प्रतिक्रिया का हिस्सा हैं। कोई भी घटना अकारण नहीं होती, उसके पीछे कोई न कोई ठोस कारण होता है, यह हमें पता है। सब कुछ पता होने पर भी जाने क्यों ...?? ... कोई सरकारी कानून जानता हो और तब भी वह कोई अपराध करे; इसपर पुलिस गिरफ्तार करके ले जाये और सजा हो जाये, तिसपर भी वह यह कहे कि नियंत्रक-सत्ता (सरकार) ने मेरे अपराध करने से पहले मुझे चेताया क्यों नहीं?, तो इस प्रकार के वक्तव्य को हम हास्यास्पद ही कहेंगे।

फिर भी मैं पुनः इस बात को दोहराना चाहूँगा कि एक मानवीय नियंत्रक-सत्ता को यह नहीं भूलना चाहिए कि वह इसीलिए अस्तित्व में है क्योंकि सभी लोग शिक्षित, ज्ञानी और अपने कर्तव्यों के प्रति जागरूक नहीं हैं। जब तक सब लोग भीतर से जागरूक नहीं हो जाते तब तक समाज-व्यवस्था को उत्तम बनाये रखने के लिए वह एक वैकल्पिक व्यवस्था के तौर पर है क्योंकि मेधा और ज्ञान में कदाचित् वह औरों से ऊपर है। अतः उसका यह कर्तव्य हो जाता है कि वह अपने शरीर के अबोध अंगों (प्रजा) को सहेज कर रखे और उनमें कोई रोग पनपने ही न दे। कितना अच्छा हो कि एक नियंत्रक-सत्ता स्वयं को इस धरा पर परमेश्वर के सगुण दूत समान समझे। इति।

Thursday, May 6, 2010

(३१) शरीर और उसके अंगों का महत्त्व

कुछ दिन पहले श्री हनुमानप्रसाद पोद्दार जी की एक पुस्तक पढ़ रहा था। उसमें उन्होंने शरीर के विभिन्न अंगों के महत्त्व के विषय में बहुत सुन्दर लिखा था। उनका आशय कुछ इस प्रकार से था कि - "शरीर के अंगों के आकार-प्रकार तथा उनके कार्यों में बड़ा भेद है। हाथ का कार्य कुछ है, पैरों का कार्य उससे भिन्न है, आँखों, कानों, दांतों, जीभ, मुख, जननेंद्रिय, गुदा आदि के कार्य भी परस्पर भिन्न हैं, उनका आकार-प्रकार भी एक-दूसरे से बिलकुल भिन्न है; फिर भी अपनी-अपनी जगह सबका अपना निराला ही महत्त्व है। व्यक्ति भी इस बात को जानता है, तभी तो वह दांतों के द्वारा जीभ कट जाने पर दांतों को दंड नहीं देता है वरन भविष्य में सावधानी बरतता है; किसी भी अंग को छोटा-बड़ा न समझते हुए सबका समान रूप से ध्यान रखता है। इसी प्रकार व्यक्ति को यह भी समझना चाहिए कि समाज के अन्य व्यक्ति, संप्रदाय, संघ आदि भी वाह्य विषमताएं रखते हैं; उनके रंग-रूप, प्रकृति, स्वभाव, रुचि-अरुचि, संस्कृति आदि में भिन्नता होती है। फिर भी इन अनिवार्य विषमताओं में भी जो व्यक्ति आत्मिक समता देखता है, व्यवहार-भेद होने पर भी जिसके मन में राग-द्वेष या मोह-घृणा का अभाव है; देश, जाति, व्यक्ति, योनि आदि विभिन्न भेदों को जो एक ही शरीर के विभिन्न अवयवों के भेदों की भांति मानकर सबका समान रूप से ध्यान रखता है - वही सही अर्थों में मानव है।"

इसी बात पर हम यहाँ कुछ और विस्तार से चर्चा करेंगे, कुछ अन्य पहलुओं को भी देखेंगे। ... बात बिलकुल ठीक है, जितना ध्यान हम अपने मुख का रखते हैं उतना गुदा का भी रखते हैं, कोई भेद-भाव नहीं रखते। किसी भी अंग को जब कष्ट होता है तो 'हमें' यानी 'देह की नियंत्रक-सत्ता' यानी 'सूक्ष्म जीव' (आत्मा+अविद्या) को 'स्थूल कार्य' निर्विघ्न रूप से सम्पादित करने में बाधा पहुँचती है। इससे उसे (हमें) दुःख भी होता है और यह दुःख अधिकांशतः प्रत्येक अंग के कष्ट के लिए समान रूप से होता है। इसी कारण बहुधा हम विभिन्न अंगों के कष्टों या बीमारियों को अनदेखा नहीं करते और उनके समाधान, चिकित्सा आदि पर समान रूप से ध्यान देते हैं। यह बात तो उस परिपेक्ष्य की हो गयी जब हमारा 'स्व' केवल हम तक ही सीमित है। आगे जब हम अपने 'स्व' को विस्तृत करते हैं, तो हममें उदारता बढ़ती है और तब हमारी देह या शरीर का आकार बढ़ जाता है। तब हम अपने संघ को एक बड़ा शरीर मानते हैं तथा स्वयं व अन्य नागरिकों को उसका एक अंग। हम विभिन्न सामाजिक एवं सांस्कृतिक विषमताओं को गहराई से समझने लगते हैं, हमारी सोच की परिधि बड़ी हो जाती है। अपनी परिपक्वता एवं प्रौढ़ बुद्धि-विवेक की मदद से हम उन वाह्य विषमताओं की जड़ तक पहुँचने में समर्थ होते हैं। जड़ तक पहुँचने पर हमें उन विषमताओं का ठोस एवं तार्किक कारण समझ में आता है। परिणामतः हमारे समाज रूपी देह की परिधि बड़ी हो जाती है। तब हम विश्व के समस्त लोगों को बाहरी भिन्नताएं होने के बावजूद बराबरी का दर्जा देते हैं। तब वह स्थिति बनती है कि हम अन्यों के सुख-दुःख को भी अपना समझने लगते हैं।

जैसे मानव शरीर की नियंत्रक-सत्ता हम स्वयं हैं, उसी प्रकार किसी विद्यालय रूपी शरीर की नियंत्रक-सत्ता वहाँ का प्रधानाचार्य या प्रबंधक है, उसी प्रकार और अधिक बड़े शरीर अर्थात् किसी समुदाय, प्रदेश, देश आदि की नियंत्रक-सत्ता वहाँ की सरकारें और उनके अध्यक्ष आदि हैं। इसी प्रकार सम्पूर्ण सृष्टि रूपी शरीर की नियंत्रक-सत्ता परमेश्वर है। ध्यान से देखें तो प्रत्येक शरीर के मामले में हमें कुछ न कुछ नियमों-सिद्धांतों आदि का अस्तित्व नजर आता है; प्रत्येक नियंत्रक-सत्ता भी उन नियमों-सिद्धांतों से बद्ध नजर आती है। किसी भी नियंत्रक-सत्ता के लिए उससे सम्बंधित शरीर के सभी अंग समान रूप से महत्त्वपूर्ण होते हैं।

... अतः किसी भी शरीर की नियंत्रक-सत्ता (जैसे केवल हमारी देह के मामले में हमारा निज-विवेक, किसी राष्ट्र के परिपेक्ष्य में वहाँ का राष्ट्राध्यक्ष, ब्रह्माण्ड के सन्दर्भ में परमेश्वर) का यह प्रमुख कार्य होता है कि वह ध्यान रखे कि उसके सब अंग-प्रत्यंग स्वस्थ रहें; भौतिक रूप से सामर्थ्यवान रहने व निरंतर उन्नत होने तथा सभी कार्यों को निर्विघ्न रूप से सम्पादित करने हेतु यह परम आवश्यक है। सब अंग-प्रत्यंग सही होते हैं तभी शरीर स्वस्थ माना जाता है। इसके लिए सबसे बढ़िया उपाय है - अपने भीतर जबरदस्त प्रतिरोधक क्षमता का विकास करना। जब शरीर उत्तम प्रतिरोधक क्षमता से युक्त होगा तो आसपास के दूषित वातावरण से उसके अवयवों पर कोई विपरीत प्रभाव नहीं पड़ेगा। दूसरा उपाय यह हो सकता है कि अंगों का बराबर ध्यान रखा जाये, उनकी उचित सफाई आदि नियमित रूप से होती रहे, उन्हें पुष्ट करने का प्रयास किया जाये, उचित व्यायाम आदि की मदद भी ली जाये। तीसरा उपाय यह हो सकता है कि शरीर व उसके अंग गंदगी और अस्वच्छ वातावरण से दूर ही रहें, जिससे किसी रोग के संक्रमण की सम्भावना कम से कम रहे। चौथा उपाय यह कि सभी सावधानियों के बावजूद भी यदि शरीर के किसी अंग में कोई रोग हो जाये तो उसका उचित इलाज समय से किया जाये, उसे उपेक्षित न किया जाये। रोग को अनदेखा कर देने से या इलाज में हीला-हवाली करने से रोग धीरे-धीरे बढ़ता जाता है और अंत में वह असाध्य हो सकता है। ... प्रयास यही होना चाहिए कि रोग प्राकृतिक रूप से ठीक हो जाये, परन्तु यदि ऐसा संभव न हो तो कड़वी दवा का प्रयोग भी होना चाहिए और यदि उससे भी काम न बने तो शल्यचिकित्सा यानी ऑपरेशन का विकल्प भी खुला रखना चाहिए; और यदि उससे भी बात न बने तो कई बार अंततः वह अंग काटना ही पड़ता है अन्यथा रोग का जहर शरीर के शेष अंगों में फैलने का खतरा बन जाता है।

यह ध्यान रखना चाहिए कि ऊपर दिए उपाय क्रमानुसार यानी चरणबद्ध ढंग से किये जायें। पहले हम सरल या नम्र तरीका अपनाते हैं और फिर व्याधि या परिस्थिति अनुसार क्रमशः कठोर होते जाते हैं और अगले-अगले उपाय पर आते जाते हैं। किसी अंग में कोई भी व्यवधान आने पर नियंत्रक-सत्ता यह प्रयास करती है कि शीघ्र से शीघ्र उस अंग की व्याधि दूर हो ताकि सब काम कुशलता से चलते रहें। फिर भी किसी दांत में यदि कीड़ा लग जाता है और अथक प्रयासों के बाद भी वह ठीक नहीं होता वरन यह आशंका जन्म लेती है कि शेष दांत भी उसके कारण खराब हो सकते हैं या खाने-पीने में बहुत कष्ट होता है, तो नियंत्रक-सत्ता उस दांत को निकलवाने में ही भलाई समझती है और वह दांत उखड़वा दिया जाता है। कुछ ऐसा ही हम अन्य कुछ व्याधियों के सम्बन्ध में भी करते हैं। पहले तो हम प्रयास करते हैं कि आवश्यक सावधानी बरती जाये जिससे वह व्याधि जन्म ही न ले, फिर भी यदि किसी कारणवश वह व्याधि उत्पन्न हो जाती है तो उसे दूर करने के लिए अथक गंभीर प्रयास करते हैं जिससे वह ठीक हो जाती है; फिर भी कभी-कभी अथक प्रयास करने पर भी वह बीमारी ठीक नहीं होती बल्कि सम्बंधित अंग में 'कैंसर' का रूप ले लेती है, तब हम शेष शरीर की रक्षा हेतु उस अंग को कटवाने में भी हिचकिचाते नहीं हैं। यद्यपि यह कार्य अत्यंत मजबूरी में किया जाता है, फिर भी देखा जाये तो अति विकट स्थिति आ जाने पर इसका अन्य कोई विकल्प भी नहीं बचता।

यह तो हो गया हमारे अपने शरीर यानी स्थूल देह के अंगों की देखभाल के विषय में। अब सोच को व्यापक कर देश रूपी शरीर के विषय में समझने के लिए प्रथमतः भारत को ही उदाहरणस्वरूप ले लें, तो यहाँ संस्कृतियों और भाषाओँ आदि में विभिन्नताएं लिए अलग-अलग प्रकृति के लोग भारत रूपी शरीर के अंग-प्रत्यंग हुए। सभी का अपना-अपना रंग-रूप, आकार-प्रकार, कार्य व महत्त्व है। सभी की कुछ न कुछ आवश्यकताएं भी हैं। अब यदि हम किसी एक की भी उपेक्षा करेंगे तो बात नहीं बनेगी, शरीर का संतुलन बिगड़ जायेगा। खुशहाली के लिए शरीर बलिष्ठ रहना अत्यंत आवश्यक है। ऐसा तभी संभव है जब नियंत्रक-सत्ता सभी अंगों का समान रूप से ध्यान रखे और उनके मध्य सौहार्द बना रहे। परन्तु भारत में शायद ऐसा नहीं हो रहा है। हमारे यहाँ आज जो इतनी आर्थिक व सामाजिक समस्याएं हैं, नक्सलवाद है, क्षेत्रीय आतंकवाद है, भ्रष्टाचार है, धार्मिक क्षेत्र में भी भारी असहिष्णुता है, लोलुपता है; इन सबका कारण रोग की आरंभिक अवस्था में विभिन्न नियंत्रक-सत्ताओं द्वारा बरती गयी लापरवाही है। ग्राम, शहर, प्रदेश और देश की नियंत्रक-संस्थाएं जब ढीली-ढाली या पक्षपाती हो जाती हैं, सामान्य नीति-आचार से दूर चली जाती हैं, तो समाज के कुछ अंग उपेक्षित हो जाते हैं। तदुपरांत इन उपेक्षित अंगों में विभिन्न प्रकार के रोग लगने शुरू हो जाते हैं। समस्या की लगातार उपेक्षा से अंग विशेष में हुआ रोग असाध्य रूप धारण कर लेता है, और फिर एक दिन वह धरना-प्रदर्शन, आगजनी, लूटपाट, बमविस्फोट, क्षेत्रीय आतंकवाद, नक्सलवाद आदि के भयावह रूप में सामने आता है, और तब स्थिति यह बन जाती है कि तथाकथित नियंत्रक-सत्ता का उस पर कोई नियंत्रण नहीं रह जाता है तथा शरीर का वह रोगग्रस्त अंग शेष आबादी यानी अन्य अंगों को कष्ट पहुँचाने लगता है। प्रदेश या देश रूपी सारा शरीर दुखने लगता है, भयंकर कष्ट में आ जाता है, त्राहि-त्राहि कर उठता है। तब जाकर सरकार की नींद खुलती है; मगर तब तक बहुत देर हो चुकी होती है और उस समय यही उपाय दिखाई पड़ रहा होता है कि उस अंग की शल्यचिकित्सा की जाये। वह की जाती है। शल्यचिकित्सा सफल हो जाती है, परन्तु हाथ क्या आता है? शरीर का एक अंग कम हो जाता है, शरीर की क्षमता कम हो जाती है, शरीर कमजोर हो जाता है। काफी खून बह जाने से क्षतिपूर्ति हेतु बहुत उपाय करने पड़ते हैं। काफी धन एवं समय खर्च होता है। सब कुछ ठीक हो जाने पर भी अंततः निशान बाकी रह ही जाते हैं। न जाने ऐसे कितने ही प्रसंगों से इतिहास भरा पड़ा है। वर्तमान में तो स्थिति और भी शोचनीय है, फिर भी हमारी नियंत्रक-सत्ता सावधान होकर प्रारंभिक उपाय समय से नहीं अपनाती! आखिर इतनी उपेक्षा क्यों?? क्यों हम सचेत नहीं होते हैं?? ... ऐसा नहीं कि विश्व की सभी नियंत्रक सत्ताएं ऐसी ही अचेतावस्था में हों! बहुत सी सत्ताएं सचेत हैं। हमें उनसे सीखना होगा। हमें उनकी व्यापक सोच व समय से उठाये गए सावधानी भरे क़दमों को देखना आना चाहिए। अधिकांश बुद्धिजीवी व नेता यह कहेंगे - "अजी हर जगह यही हाल है।" यह वाक्य वे नहीं वरन उनका खिसियाया दंभ बोलता है। सीखने वाले के लिए आज भी ऐसे असंख्य प्रसंग हैं जिनसे सीखकर वह जागृत हो सकता है और समय से अपने शरीर व उसके अंगों को पुष्ट एवं निरोगी बना सकता है।

.... राष्ट्रीय या अंतर्राष्ट्रीय आतंकवाद तो रोग की पराकाष्ठा है। उसकी जड़ में जाने में समय गंवाने से बेहतर है कि उसका समूल नाश किया जाये और आज अनेक राष्ट्र इसके लिए प्रयत्नशील हैं। राम ने रावण को मारा या कृष्ण ने महाभारत रचा या आज के कुछ राष्ट्र आतंकवाद के विरुद्ध लड़ रहे हैं और खून बहा रहे हैं, इन सब प्रसंगों के समर्थन या विरोध में कोई कुछ भी कहे मगर यह सत्य है कि इन सब का कारण वही है कि योग्य नियंत्रक-सत्ता का प्रयास यही होता है कि सब कार्य सुचारू ढंग से चलें, स्वस्थ अंगों का स्वास्थ्य अक्षुण्ण रहे; यह सब सुनिश्चित करने हेतु यदि कुछ हिंसा भी होती है तो वह सामाजिक रूप से सदा से मान्य है। पर यह अच्छे से ध्यान में रखना होगा कि अंतिम इलाज के रूप में यह हिंसात्मक कार्रवाई केवल योग्य हाथों द्वारा संपन्न हो। जैसे शल्यचिकित्सा केवल योग्य शल्यचिकित्सक ही कर सकता है, अन्य कोई और नहीं। इसी प्रकार समाज रूपी शरीर के किसी सड़े अंग को काटने का निर्णय व इस कार्य का संपादन किसी योग्य व्यक्ति के द्वारा ही होना चाहिए। कोई भी साधारण व्यक्ति शल्यचिकित्सक बनने का यूं ही प्रयास न करे। बाइबल में भी कहा गया है जिसका आशय यह है कि - वैसे तो परमेश्वर के राज्य से बढ़कर कुछ और नहीं, वही सर्वश्रेष्ठ एवं परम है; फिर भी जब तक वह नहीं आता, तब तक हमें मानव निर्मित सरकारों व राष्ट्राध्यक्षों के बनाये कानूनों को मानना और उनके अनुसार चलना होगा; क्योंकि वर्तमान स्थिति में शायद वे ही श्रेष्ठ हैं!

इस बात का निचोड़ यह कि शरीर के विभिन्न अंगों के प्रति सहिष्णुता का भाव तो सर्वोपरि है ही, इसमें कोई संदेह नहीं; हमें सभी अंगों के स्वास्थ्य के प्रति सतत जागरूक रहना होगा और यह ध्यान रखना होगा कि उनमें कोई रोग न पनपे। स्थूल कार्यों की सूची में यह सबसे ऊपर होना चाहिए। पर इसके साथ ही निकृष्ट स्थिति में यदि शेष शरीर की रक्षा हेतु किसी अंग विशेष को कटवाना या निकलवाना पड़े, तो इसके लिए मन में किसी राग या रोष की भावना नहीं आनी चाहिए। ऐसा समझना चाहिए कि इस स्थिति में यही आवश्यक था। इस स्थिति में हमें तटस्थता या दृष्टा का भाव रखना आना चाहिए। क्रमशः ...