Saturday, November 27, 2010

(४२) सर्व साधकों को चाहिए कि ... (भाग २)

प्रथम भाग से आगे --

(१) साधकों को सदैव ध्यान में रखना चाहिए कि उनकी आत्मशक्ति भी विश्व के महानतम महापुरुषों के समतुल्य ही है। दृढ़ निश्चय, अनुशासन, उत्साह और समर्पणभाव से साधना करने पर अंतर्मन साफ़ होता जायेगा और आत्मिक शक्ति प्रकट होती जायेगी।

(२) साधक का प्रमुख लक्ष्य 'योग' है, 'योग' अर्थात् ईश्वर के साथ बिलकुल जुड जाना, एक हो जाना, आत्मा के सच्चे स्वरूप को पा लेना, आत्मस्थ हो जाना। इसके लिए हमारे प्रयत्न जिस क्रिया के साथ जुड़ते हैं, वही योग बन जाता है। उदाहरणार्थ- कर्मयोग, ज्ञानयोग, भक्तियोग, ध्यानयोग, सांख्ययोग, राजयोग, मन्त्रयोग, लययोग, हठयोग आदि। हमारे पूर्व व वर्तमान संस्कारवश जिसमें हमारी रुचि हो, प्रथमतः उसी को ईश्वरप्राप्ति का मार्ग मानकर सादर ग्रहण करना चाहिए।

(३) आगे ध्यान देने की बात यह है कि उपरोक्त योगमार्गों में भक्तियोग, ज्ञानयोग और निष्काम कर्मयोग को छोड़कर अन्य योगमार्गों में शारीरिक क्रियाओं अथवा मन्त्र-तन्त्रादि का अत्यधिक समावेश है। इनमें बहुत से विधि-निषेध लागू होते हैं और ये योगक्रियाएं बिना योग्य मार्गदर्शन के करना खतरे से खाली नहीं, लाभ के बजाय हानि संभव है। अर्थात् इनके लिए योग्य सगुण गुरु की आवश्यकता होती है, और इनका आज कितना अभाव है यह सब जानते ही हैं। अतः भक्तियोग, ज्ञानयोग, कर्मयोग जैसे अपेक्षाकृत सरल योगमार्ग चुनना अधिक श्रेयस्कर रहेगा।

(४) वैसे तो भक्तियोग, ज्ञानयोग तथा कर्मयोग आदि मार्गों में भी पथप्रदर्शकों की आवश्यकता रहती ही है, परन्तु फिर भी इन मार्गों में इतनी तो सरलता है ही कि आजकल के पाखंडी और दिखावटी गुरुओं की शरण में जाये बिना 'गीताप्रेस' सरीखे प्रकाशनों के निर्मल साहित्य को पढ़कर, उनसे प्रेरित होकर, अपने शुद्ध मनन, दृढ़ निश्चय, श्रद्धा, भक्ति, शरणागति, सदाचरण आदि के योग द्वारा मजबूत क़दमों से आगे बढ़ा जा सकता है। किसी ढोंगी स्वयंभू गुरु की शरण लेना या सच्चे गुरु से मिलन की प्रतीक्षा में यूँ ही बैठे रहना ठीक नहीं।

(५) साधकों को विभिन्न योगमार्गों पर चलने से मिलने वाली तथाकथित सिद्धियों के प्रलोभन में कतई नहीं पड़ना है। सबसे सच्ची सिद्धि तो अंतःकरण की वह शुद्ध स्थिति है, जिसमें भगवान के अतिरिक्त कुछ शेष नहीं रह जाता। यह अत्यंत दुःखद है कि आज अधिकांश गुरु और उनके अनुयायी रिद्धि-सिद्धि या सांसारिक अभिलाषाओं के निमित्त ही एक-दूसरे के संपर्क में आते हैं, यह सब जानते हैं। साधक इनसे बचें।

(६) जबकि हमको पता है कि सभी साधनों अर्थात् योगमार्गों का लक्ष्य मोक्ष (सर्वोच्च आनंद की सतत अनुभूति) है और योग्य मार्गदर्शक की अनुपस्थिति में रुकने, फिसलने या गिरने का भय है, तो फिर बिलकुल निरापद स्थिति यह होगी कि हम तत्त्व या सिद्धांत के प्रति अपनी शरणागति बढ़ाएं। तत्त्व या सिद्धांत के प्रति अपनी शरणागति बढ़ाना अर्थात् वेदान्त, गीता आदि में प्रतिपादित अकाट्य आध्यात्मिकी सिद्धांतों पर पूर्ण निष्ठा।

(७) जब हम अक्षुण्ण आत्मा-परमात्मा, पुनर्जन्म, कर्मफल, प्रारब्ध आदि आध्यात्मिकी सिद्धांतों पर इनसे मिलते-जुलते भौतिकी सिद्धांतों जैसे ऊर्जा की अक्षुण्णता, ऊर्जा का किसी अन्य रूप में रूपान्तरण, क्रिया के फलस्वरूप प्रतिक्रिया आदि की भांति ही अनन्य विश्वास करते हैं, और इन्हें जीवनचक्र से पूरी तरह जोड़कर अनुभूत करते हैं तो हम देखते हैं कि जीवन की अनेकों गुत्थियां सुलझने लगती हैं।

(८) उपरोक्त सिस्टम पर अर्थात् सृष्टि सम्बन्धी अकाट्य सिद्धांतों पर पूर्ण आस्था का भाव स्थापित होते ही हम स्वतः सही मायनों में 'धार्मिक' (righteous) हो जाते हैं, स्वतः ही योग्य पथ पर चलते हैं, उचित निर्णय लेते हैं, हममें निर्भयता आ जाती है और निराशा का हमारे जीवन में कोई स्थान नहीं रहता। हमारा पूरा नजरिया ही बदल जाता है। रोजमर्रा के काम से विरक्त हुए बिना, सब कुछ करते हुए भी हममें आश्चर्यजनक संतुलन आ जाता है। अनुकूलता में हम अतिउत्साहित नहीं होते और प्रतिकूलता में हताश नहीं होते।

(९) उपरोक्त कथित संतुलन ही हमें मानव देह में रहते हुए मोक्ष को प्राप्त कराता है। मोक्ष अर्थात् सतत रहने वाली सर्वोच्च आनंदानुभूति अर्थात् आत्मानुभूति ही।

(१०) फिर से कहूँगा कि इस स्थिति के निर्माण के लिए साधकों को स्थूल-निष्ठा त्यागकर तत्त्व-निष्ठावान बनना होगा। तत्त्व सूक्ष्म है और तत्त्व ही यथार्थ है। स्थूल में विकार आ सकते हैं, सूक्ष्म में नहीं। सिद्धांत बताने वाले में विकार संभव है, सिद्धांत में नहीं। अतः सिद्धांत को समझकर उसके प्रति पूर्ण विश्वास उपजाने की साधना सर्वप्रथम करें, फिर सबकुछ स्वयं होता चला जायेगा। सांसारिक धन, यश या सम्मान के अभिलाषी दम्भी गुरुओं से दूर रहकर भी यथार्थ धर्म (righteousness) और उसपर आधारित अर्थ, काम, मोक्ष आदि को पाना सभी के लिए संभव है।
(क्रमशः)

Thursday, November 25, 2010

(४१) अवसाद (डिप्रेशन)

आज अवसाद (डिप्रेशन) शब्द से लगभग सभी लोग परिचित हैं, और साथ ही एक बड़ी संख्या में लोग इसका शिकार भी हैं। अवसाद, हताशा, उदासी, गहरी निराशा और इनसे सम्बंधित रोग चिकित्सीय जगत में मेजर डिप्रेशन (Major depression), डिस्थाइमिया (Dysthymia), बायपोलर डिसऑर्डर या मेनिक डिप्रेशन (Bipolar disorder or manic depression), पोस्टपार्टम डिप्रेशन (Postpartum depression), सीज़नल अफेक्टिव डिसऑर्डर (Seasonal affective disorder), आदि नामों से जाने जाते हैं। वैसे हर किसी के जीवन में ऐसे पल आते हैं, जब उसका मन बहुत उदास होता है। इसलिए शायद हर एक को लगता है कि हम गहरी निराशा के विषय में सब कुछ जानते हैं। परन्तु ऐसा नहीं है। कुछ के लिए तो यह निराशावादी स्थिति एक लंबे समय के लिए बनी रहती है; जिंदगी में अचानक, बिना किसी विशेष कारण के निराशा के काले बादल छा जाते हैं और लाख प्रयासों के बाद भी वे बादल छंटने का नाम नहीं लेते। अंततः हिम्मत जवाब दे जाती है और बिलकुल समझ में नहीं आता कि ऐसा क्यों हो रहा है। इन परिस्थितियों में जीवन बोझ समान लगने लगता है और निराशा की भावना से पूरा शरीर दर्द से कराह उठता है। कुछ का तो बाद में बिस्तर से उठ पाना भी लगभग असंभव सा हो जाता है। इसलिए प्रारंभिक अवस्था में ही इस बात का ध्यान रखा जाना चाहिए कि वह व्यक्ति हद से ज्यादा उदासी में न डूब जाये। समय रहते लक्षणों को पहचान कर किसी विशेषज्ञ डॉक्टर से तुरंत परामर्श लेना चाहिए व तदनुसार इलाज करवाना चाहिए। डिप्रेशन के प्रकारानुसार एलोपैथी चिकित्सा प्रणाली में अवसादरोधी दवाओं (Antidepressant medications), साइकोथेरेपी (Psychotherapies), विद्युत-आक्षेपी थेरेपी (Electroconvulsive therapy) आदि माध्यमों से चिकित्सा की जाती है। डॉक्टर के परामर्श के अनुसार दवा लेने, दिनचर्या में बदलाव लाने, खानपान में फेरबदल करने तथा व्यायाम आदि से अच्छे परिणाम मिलते हैं। ध्यान रहे, डॉक्टर से बिना पूछे दवाइयाँ बंद करने के बुरे परिणाम हो सकते हैं तथा व्यक्ति की बीमारी और अधिक गंभीर हो सकती है।

यह तो थी चर्चा निराशा, अवसाद, डिप्रेशन आदि के लक्षणों एवं उनके चिकित्सीय निदान की। यद्यपि अध्यात्मशास्त्र शारीरिक चिकित्सा का शास्त्र नहीं है, तदपि देखा गया है कि अध्यात्मशास्त्रज्ञों एवं साधक वर्ग में मनोदैहिक (Psychosomatic) और मानसिक (Psychic) रोगों की मात्रा लगभग नगण्य होती है। अधिकांश मनोदैहिक एवं मानसिक रोग मन से सम्बंधित विकारों तथा कुछ अन्य आध्यात्मिक कारणों से होते हैं; गंभीर मानसिक रोग तो बहुधा आध्यात्मिक कारणों से ही होते हैं। परन्तु उचित साधना से उपजी संतुलित मनःस्थिति एवं आध्यात्मिक बलिष्ठता के कारण साधक वर्ग इन सब से बचा रहता है। साधक वर्ग से तात्पर्य यहाँ ऐसे वर्ग से है जो वेदान्त व भगवत्गीता आदि में उल्लेखित तथा स्वामी विवेकानंद, श्री हनुमानप्रसाद पोद्दार और पं. श्रीराम शर्मा आचार्य सरीखे वर्तमानकाल के विद्वानों द्वारा बताई गयी आत्मा, परमात्मा, कर्म, कर्मफल, पुनर्जन्म, संचित, प्रारब्ध, मोक्ष जैसे शब्दों की व्याख्या पर पूर्ण विश्वास करता है एवं पूर्ण आस्था के साथ जीवन के प्रत्येक प्रसंग को इन सिद्धांतों के साथ जोड़कर देखता व करता है।

यद्यपि अध्यात्म व इसके सिद्धांतों को तर्क से सिद्ध करने का प्रयास एक निम्न श्रेणी की धृष्टता ही है, फिर भी कहूँगा कि सच्चे आध्यात्मिक सिद्धांतों में कुछ भी ऐसा दुविधापूर्ण नहीं जो वर्तमान विज्ञान की कसौटी पर खरा न उतरता हो, सब कुछ स्पष्ट एवं तर्कपूर्ण है। जैसे ऊर्जा की अक्षुण्णता का सिद्धांत और किसी क्रिया के फलस्वरूप तदनुसार प्रतिक्रिया का सिद्धांत, ये दो वैज्ञानिक सिद्धांत ही आत्मा के अमरत्व सम्बन्धी तथा कर्मफल एवं प्रारब्ध के निर्माण सम्बन्धी आध्यात्मिक सिद्धांतों की पुष्टि हेतु पर्याप्त हैं। इन्हीं दो सिद्धांतों को भली-भांति आत्मसात् कर साधक वर्ग शुद्ध मानसिकता व कर्मों के प्रति सदैव एवं स्वतः सचेत रहता है, यथार्थ में रहता है। उसे यह अच्छी तरह से ज्ञात होता है कि प्रारब्ध कोई शून्य से टपकी वस्तु नहीं, अपितु उसी के द्वारा किये गए कर्मों (क्रिया) के फलस्वरूप उपजा प्रतिक्रियात्मक कोष है, अतः उसका रुझान अनवरत योग्य कर्म के प्रति ही रहता है। कर्म करते हुए शारीरिक रूप से थक जाने पर या असफलता के क्षणों में भी निराशा उस पर हावी नहीं होती। उसे आत्मा रूपी अक्षुण्ण ऊर्जा का भी ठीक से ज्ञान होता है और इससे सम्बंधित भौतिक तत्वों का भी। इस ब्लॉग के अन्य लेखों में इस सम्बन्ध में विस्तार से खोजा जा सकता है। उपरोक्त सभी कारणों से साधक वर्ग प्रत्येक स्थिति में शांत, आनंदित एवं संतोषी रहता है और अवसाद या डिप्रेशन जैसी मानसिक व्याधि का शिकार नहीं बनता।

आत्मा-परमात्मा की सत्ता पर तथा कर्मानुसार संचित एवं प्रारब्ध के निर्माण पर अगाध विश्वास करने से न केवल हमारे कर्मों और मानसिकता की गुणवत्ता में सुधार होता है, बल्कि साथ ही जीवन के असंख्य अनसुलझे, अबूझे प्रसंगों की पहेलियाँ भी सुलझती हैं। इससे न केवल हम मनोदैहिक व मानसिक रोगों से बचे रहते हैं बल्कि व्यर्थ की उद्विग्नता से परे एक शांत व संतोषी जीवन व्यतीत करते हैं। हमारे न मानने या न स्वीकार करने से इन सिद्धांतों का अस्तित्व समाप्त नहीं हो जाता। हाँ, इनके सीधे लाभ से हम वंचित रह जाते हैं। विज्ञान समर्थित इन अकाट्य आध्यात्मिक सिद्धांतों को स्वीकार करने व इन पर चलने से शुभ-कर्म होंगे, पाप-कर्म से दूर रहेंगे। आत्मा, परमात्मा, कर्मफल आदि की सत्ता यदि न भी हो तो भी हम सांसारिक सुख्याति व प्रतिष्ठा तो प्राप्त करेंगे ही, हमें लाभ ही होगा। परन्तु इन सिद्धांतों को न मानने पर और इन पर न चलने से हम स्वेच्छाचारी बनकर दुष्कर्मों में प्रवृत्त होंगे, फलतः कुख्याति को प्राप्त करेंगे; और यदि इन सिद्धांतों का अस्तित्व हुआ तो दुष्कर्मों (क्रिया) के फलस्वरूप ऋणात्मक प्रतिक्रिया संचित कर हम अपना प्रारब्ध बिगाड़ लेंगे, हमारी बहुत हानि होगी। इति।