Thursday, April 7, 2011

(४३) एक आध्यात्मिक केन्द्र के दौरे का ताजा संस्मरण

जिस आध्यात्मिक केन्द्र के दौरे और वहां लगभग साढ़े तीन दिन के प्रवास के दौरान हुए अनुभवों का वर्णन करने जा रहा हूँ, उससे मैं पिछले आठ वर्षों से थोडा-बहुत जुड़ा हुआ हूँ। वह इसलिए कि मेरी आध्यात्मिक यात्रा का आरंभ इसी संस्था के एक साधक के निःस्वार्थ एवं समर्पित प्रयास द्वारा संभव हुआ था। संभवतः इसीलिए इस संस्था के बहुत से कृत्यों से सहमत न होते हुए भी मेरा इस केन्द्र से भावनात्मक लगाव अवश्य है। वैसे यह संस्था अपने कार्यकर्ताओं/साधकों के अनुशासन, समर्पणभाव और कर्तव्यनिष्ठा इत्यादि के लिए जानी जाती है। इसके संस्थापक डॉ. ******** जी के लिए कहा जाता है कि वह सांसारिक यश, धन, प्रतिष्ठा आदि के मोह-जंजाल से कोसों दूर हैं और सर्व जिज्ञासु आगंतुकों को सहज उपलब्ध रहते हैं। ... परन्तु भूतकाल में मुझे इस संस्था, इसके साधकों, मार्गदर्शकों एवं संस्थापक जी के विषय में अनेकों ऐसे खट्टे अनुभव हुए थे, जो इस केन्द्र व इससे जुड़े लोगों की तथाकथित विशेषताओं से बिलकुल विपरीत थे। मेरे विचार से प्रारब्धवश इस संस्था को उच्च स्तर के संसाधन और साधक प्राप्त हुए हैं, इसकी भूमिकारूप-व्यवस्था बेजोड़ है। क्वचित्‌ ही ऐसा होता है। अतः मैं हृदय से चाहता था और चाहता हूँ भी, कि यह केन्द्र केवल प्रारब्ध पर ही निर्भर न रहकर अब अपने क्रियमाण के बल पर भी उत्तरोत्तर प्रगति करे। मैं बहुत ही आशावान रहता था कि एक दिन सब कुछ ठीक हो जायेगा। .... अब तक मैं इस संस्था के मुख्य केन्द्र में कभी भी नहीं गया था, मेरा समस्त विश्लेषण एवं आंकलन मात्र कुछ अनुभवों और चिंतन रूपी सूक्ष्म निरीक्षण पर ही आधारित था। इस कारण कभी-कभी मुझे यह लगता था कि कहीं मैं स्वयं ही कुछ निरर्थक आशंकाओं से ग्रस्त तो नहीं हूँ! मेरी धारणाएं भी मिथ्या, निर्मूल या गलत हो सकती हैं। सो संस्था के प्रति मेरे और मेरे प्रति संस्था के सम्भ्रम के निवारण और स्थिति को सुस्पष्ट करने हेतु तथा सीमित आयुष्य के शेष बचे समय के अधिकतम सुव्यवस्थित उपयोग के लिए ठोस नियोजन हेतु मैंने संस्था के मुख्यालय का दौरा करने का निश्चय किया। यह इतना सरल न था, अनुमति मिलना बहुत कठिन था। इसका अनुभव मुझे पूर्व में भी दिसम्बर २००४ में हो चुका था। तब एक बार बिलकुल समीप के नगर में होते हुए भी मुझे केन्द्र के दौरे की अनुमति नहीं मिल पायी थी। खैर ..... इस बार ऐसा नहीं हुआ। मैंने दौरे के लगभग दो माह पूर्व ०२ फरवरी २०११ को अनुमति मांगी और वह मुझे सरलता से मिल गई।

केन्द्र में प्रवास की अवधि २८ मार्च की दोपहर से ३१ मार्च की अर्धरात्रि तक की थी; ०१ अप्रैल को प्रातः ०३.४० की गाड़ी से मुझे वापस आना था। मैंने यात्रा का विस्तृत विवरण फरवरी में ही ईमेल द्वारा भेज दिया था, और यात्रा से लगभग एक सप्ताह पूर्व मुख्यालय को इस सम्बन्ध में ईमेल द्वारा पुनः सूचित किया; गाड़ी संख्या, डिब्बा क्रमांक इत्यादि विस्तार से लिखा, जिससे सबकुछ सुव्यवस्थित रहे। ईमेल की प्राप्ति-सूचना भी आ गई। अब मैं निश्चिंत था।

ढेर सारी आशाओं के साथ अपने गृहनगर से लगभग २५०० किमी० की यात्रा कर पूर्वनिर्धारित कार्यक्रमानुसार मैं रेलगाड़ी द्वारा २८ मार्च की दोपहर लगभग १.३० बजे संस्था के मुख्य केन्द्र के नगर के बिलकुल समीप पहुँच चुका था। तब मैंने मुख्यालय के कार्यालय में यह जानने के लिए फोन किया कि मैं रेलवे स्टेशन से केन्द्र तक कैसे पहुंचूंगा, क्योंकि मैं नगर के भूगोल और वहां की स्थानीय यातायात व्यवस्था से सर्वथा अनभिज्ञ था। मेरी फोनकॉल को एक वरिष्ठ मार्गदर्शक डॉ. कु. **** ***** जी के पास स्थानांतरित किया गया; उन्होंने बताया कि आपको लेने स्टेशन पर साधक गए हैं, वे आपको वहां पर मिलेंगे। तब मैंने उनको अपना डिब्बा क्रमांक आदि एक बार पुनः स्मरण कराए और बिलकुल निश्चिन्त हो गया। लगभग १.५५ बजे गाड़ी स्टेशन पर पहुँच गई। मैं डिब्बे की उस खिड़की के पास सरक गया जोकि प्लेटफॉर्म की तरफ थी। गाड़ी वहां पर १० मिनट रुकती थी। लगभग छः-सात मिनट की प्रतीक्षा के उपरांत मैं डिब्बे से बाहर आकर वहीँ प्लेटफॉर्म पर खड़ा हो गया। तभी फोन की घंटी बजी। केन्द्र से किसी साधक का फोन था। उन्होंने कहा कि आपको लेने कोई साधक आ रहे हैं, कृपया आप निकास द्वार से निकलकर बाहर खड़े हों, बाहर वे आपको मिल जायेंगे। हम एक-दूसरे को कैसे पहचानेंगे इस पर कोई बात नहीं और फोन कट गया। रेलगाड़ी भी जा चुकी थी। मैं स्टेशन से बाहर आ गया। तभी पुनः घंटी बजी। अब यह फोन मुझे लेने आने वाले साधक का था। उन्होंने बताया कि वह अबसे लगभग १० मिनट में स्टेशन पहुँच रहे हैं, उन्होंने अपनी गाड़ी की पहचान एवं नंबर आदि बताया। और कुछ समय उपरांत लगभग २.३० पर वह साधक स्टेशन पहुँच गए। औपचारिक अभिवादन आदि के बाद उन्होंने बताया कि उनको अभी कुछ समय पूर्व ही यह सूचना मिली थी कि स्टेशन पर किसी को लेने जाना है, अतः कुछ विलम्ब हो गया। हम गाड़ी में बैठ गए और केन्द्र की ओर चल दिए। मार्ग में उन्होंने मुझसे भोजन करने के सम्बन्ध में पूछा। मेरे स्वीकृति देने पर उन्होंने केन्द्र पर फोन करके इस सम्बन्ध में सूचित किया। कुछ समय में ही हम केन्द्र के मुद्रणालय भवन पहुँच गए। वहां मैंने भोजन आदि कर मुद्रणालय देखा। तदोपरांत कुछ समय पश्चात् हम मुख्य केन्द्र की ओर चल दिए। यहाँ मैं यह बता देना उचित समझता हूँ कि इतनी सुस्पष्ट दो-तीन सूचनाओं के बावजूद भी मेरे आने की सूचना व्यवस्थापन भुला बैठा था , यह ऊपर दिए विवरण से आपको स्पष्ट हो गया होगा। स्टेशन पर लेने आने का नियोजन मेरी १.३० पर की गई फोनकॉल के पश्चात् आननफानन में किया गया और भोजन आदि का नियोजन मेरे गाड़ी में बैठने के बाद किया गया; जबकि इस प्रकार के नियोजन इस संस्था में समय से काफी पहले ही हो जाते हैं, ऐसा कहा जाता है। यद्यपि यह कोई बहुत गम्भीर प्रसंग या प्रकरण नहीं था, फिर भी इससे केन्द्र की अनुशासन और नियोजन के सम्बन्ध में दुर्बलता प्रतिबिंबित होती है।

मुद्रणालय से चलकर हम कुछ ही मिनटों में सायंकाल लगभग ५ बजे मुख्य केन्द्र पहुँच गए। वहां मुझे पहले अतिथि-कक्ष में ले जाया गया और फिर तुरंत ही मुझे केन्द्र के भवन के तृतीय तल पर स्थित एक कक्ष में ले जाया गया। यहां मुझे प्रवास की कालावधि तक निवास करना था। अतिथि-कक्ष से तृतीय तल तक जाते समय मार्ग में पहले से भली-भांति परिचित एक-दो साधक-साधिका मिले, परन्तु उनसे मात्र औपचारिक अभिवादन ही हो पाया। उन्होंने अचानक मुझे वहां देख न तो कोई कौतुहल प्रकट किया और न ही अपनत्व प्रकट किया। मैं अपने कक्ष में पहुंचा दिया गया। वहां पहले से ही एक साधक उपस्थित थे, जो उस कक्ष के ही स्थाई वासी थे। औपचारिक अभिवादन के आदान-प्रदान के पश्चात् उन्होंने बताया कि उनके अतिरिक्त इस कक्ष में तीन स्थाई निवासी साधक और भी हैं जो अभी विभिन्न सेवाओं में व्यस्त हैं। कुछ क्षणों में वह साधक भी चले गए। मैंने स्नान आदि किया और तरोताजा हो गया। मैं कक्ष के फर्श पर बैठकर ध्यानादि का प्रयास करने लगा। उसी बीच कक्ष के कुछ अन्य वासी साधक भी वहां आए, वह सायंकाल की चाय-अल्पाहार आदि का समय था शायद! उनसे भी औपचारिकता का आदान-प्रदान हुआ बस! और कुछ क्षणों में वे चले गए। मैं फिर से कक्ष में अकेला था। मुझे कुछ भी नहीं बताया गया था कि मुझे क्या, कब और कैसे करना है! अर्थात् मेरे लिए किये गए नियोजन से मैं सर्वथा अनभिज्ञ था या फिर अभी नियोजन किया ही नहीं गया था! खाली बैठे-बैठे रात्रि के ८.३० बज गए। मैं स्वयं ही साहस कर अपने कक्ष से बाहर निकला और द्वितीय तल पर स्थित भोजन-कक्ष की ओर बढ़ चला।

भोजन-कक्ष में काफी चहल-पहल थी। मैं वहां प्रविष्ट हुआ और एक प्लेट उठा कर उसमें कुछ भोजन लिया और एक स्थान पर बैठ कर खाने लगा। मैं वहां स्वयं को नितांत अपरिचित महसूस कर रहा था। तभी वहां एक पहले से परिचित साधक दिखाई दिए। वह मेरे पास आ गए और आत्मीयता से कुशलक्षेम पूछी। अब मुझे कुछ अच्छा लगा। तभी वहां लगभग २०-२२ वर्षीय एक अपरिचित साधक मेरे पास आए और बोले कि 'कृपया भोजन कर ९ बजे आप भोजन-कक्ष के बाहर रखी बेंच पर बैठ जाएं, वहां से आपको कुछ अभ्यास और प्रयोग आदि के लिए ले जाया जायेगा।' वह बिसाल भैया थे। मैंने शीघ्रता से भोजन समाप्त किया और बाहर पहुँच गया, परन्तु वहां पर कोई भी न था। इधर-उधर पूछने पर पता चला कि मुझे ध्यान-कक्ष में जाना चाहिए। मैं शीघ्रता से ध्यान-कक्ष पहुंचा।

ध्यान-कक्ष में पहले से ही संभवतः मेरे जैसे ही कुछ अन्य लोग भी बैठे थे और शायद नामजप कर रहे थे। मुझे कुछ भी बताया नहीं गया कि आपको क्या करना है और क्या होगा! मैं मन ही मन नामजप करते हुए स्थिति का आंकलन करने लगा। कुछ-कुछ क्षणों के बाद बारम्बार कक्ष का द्वार खुलता था, कभी बिसाल भैया और कभी लगभग उन्हीं की आयु की एक साधिका द्वार से भीतर आते और किसी-किसी साधक को बुला कर अन्यत्र कहीं ले जाते। अंततः मेरे सहित कक्ष में बचे तीन लोगों को भी इशारे से बुलाया गया और एक अन्य कक्ष में ले जाया गया। ध्यान-कक्ष में से पहले ले जाये गए अन्य लोग वहां पर उपस्थित थे। आश्चर्यचकित सा मैं वहां बैठ गया। मुझे कुछ नहीं पता था कि मुझे क्या करना है और यहां क्या होना है! कई साधक-साधिकाएं रहस्यमय ढंग से कक्ष में आ-जा रहे थे। तभी एक साधिका ने एक कुर्सी लाकर उस कक्ष में रखी और कई निर्देश दिए। उन निर्देशों में एक यह था कि कोई परमपूज्य गुरुदेव के जाने के पश्चात् उस कुर्सी को भावनावश छुएगा नहीं। इस निर्देश से मुझे पता चला कि वहां संस्था के संस्थापक प.पू. डॉ. ******** जी आने वाले हैं। फिर एक साधिका ने सभी आगंतुकों को अपना परिचय देने के लिए कहा। सभी की भांति मैंने भी सारांश में अपना परिचय दिया। मेरे परिचय देते ही बिसाल भैया की सह-साधिका ने मुझे इशारे से बुलाया और कहा कि मैं आज गुरुदेव से नहीं मिल सकता, क्योंकि मैं हिंदी भाषी हूँ; आज मात्र मराठी भाषियों के लिए बैठक होगी। यद्यपि परिचय-सत्र के दौरान मुझे यह ज्ञात हुआ था कि मेरे अतिरिक्त कम से कम दो आगंतुक और भी ऐसे हैं जो मराठी नहीं जानते हैं, तदपि मात्र मुझे ही कक्ष से बाहर का रास्ता दिखाया गया! प.पू. गुरुदेव से भेंट के अगले समय के विषय में मेरे प्रश्न करने पर मुझे बताया गया कि देखेंगे! मुझे बड़ा अटपटा सा लगा। ... मैं अकेला ही भारी क़दमों से अपने कक्ष की ओर बढ़ चला और कुछ देर बाद निद्रा में लीन हो गया।

अगले दिन २९ मार्च को सुबह का अल्पाहार भी अकेले ही लिया। उसके बाद बिसाल भैया मेरे पास आए और एक अन्य कक्ष में ले गए। यहां उन्होंने मुझे एक वीडियो सी डी लगा दी और उसके बाद देखने के लिए चार अन्य सी डी भी वहां पर रख दीं तथा ये सब सी डी देखने के लिए कहा। ये सी डी संस्था के ६०% से ऊपर के आध्यात्मिक स्तर के साधकों के साक्षात्कार की थीं। ये सी डी हिंदी भाषा में थीं। २९ मार्च को भोजनावकाश के अतिरिक्त शेष पूरे समय मैं अकेला ये सब सी डी देखता रहा। हाँ, इस बीच सायंकाल कुछ समय के लिए बिसाल भैया मुझे लेकर केन्द्र के हिंदी विभाग गए। वहां मात्र कुछ मिनट की सेवा के बाद छुट्टी! मैं फिर से खाली और अकेला! हिंदी विभाग से पूछने पर बताया गया कि मेरे जैसे आगंतुकों के लिए नियोजन व्यवस्थापन विभाग करता है, वे अर्थात् हिंदी विभाग नहीं! मैं अपने कक्ष में लौट आया और सो गया।

अगले दिन ३० मार्च को सुबह के अल्पाहार के समय बिसाल भैया पुनः भोजन-कक्ष में मिले और उन्होंने पुनः सी डी वाले कक्ष में आने को कहा। उन्होंने मुझे फिर से एक सी डी लगा कर दी और उसके बाद देखने के लिए दो-तीन अन्य सी डी भी वहां रख दी। ये सी डी भी हिंदी भाषा में थीं। आज वहां मेरे अतिरिक्त दो नवागंतुक और भी थे। ये कर्नाटक राज्य से आयीं दो साधिकाएं थीं। इनमें से एक को हिंदी का थोडा सा भी ज्ञान नहीं था और कुछ भी समझ में न आने के कारण वह उंघा रही थीं। अब तक मैं यह समझ चुका था कि नवागंतुकों की देखभाल के लिए व्यवस्थापन ने बिसाल भैया को नियुक्त किया है। सो उस कन्नड़ दीदी की मदद हेतु मैं बिसाल भैया को ढूँढते हुए हिंदी विभाग तक पहुंचा। हिंदी विभाग ने बिसाल भैया से मेरी भेंट होने में सहायता की। तब मैंने उनसे कोई कन्नड़ सी डी लगाने का आग्रह किया और बताया कि मैं तो कल से अनवरत हिंदी सी डी देख रहा हूँ और अब उन कन्नड़ दीदी को उनकी क्षेत्रीय भाषा की सी डी की आवश्यकता है। इस पर वह बोले कि उनके पास कोई भी कन्नड़ सी डी नहीं है।

तब तक दोपहर के भोजन का समय हो चला था, सो मैं भोजन कक्ष की ओर चल दिया। भोजन के पश्चात् मैंने पुनः बिसाल भैया को खोजा और थोड़े कटु स्वर में उनसे कहा कि 'आखिर मेरे लिए क्या नियोजन है; मैं यहां लगभग साढ़े तीन दिन के लिए आया था जिनमें से लगभग दो दिन निकल चुके हैं और मैंने मात्र कुछ सी डी ही देखीं हैं; न तो मेरी भेंट प.पू. गुरुदेव से हुई और न ही उसका कोई नियोजन मुझे बताया जा रहा है; न तो किसी संकलनकर्ता आदि से मेरी भेंट कराई गई और न ही किसी का सत्संग आदि ही मुझे अब तक प्राप्त हुआ है; टी.बी. के रोगी की भांति अलग-थलग पड़ा हूँ, कोई कार्यसेवा भी नहीं कर रहा हूँ, कोई निरीक्षण भी नहीं कर रहा हूँ, और मेरा समय एवं ऊर्जा ऐसे ही बेकार जा रहे हैं; मेरी भेंट प.पू. गुरुदेव से कब होगी?' इस पर बिसाल भैया कुछ सक्रिय हुए और उन्होंने तुरंत इधर-उधर कई फोन किये। अंततः मुझे बताया कि मैं फिलहाल हिंदी विभाग में कुछ सेवाकार्य करूँगा, तत्पश्चात मुझे केन्द्र के भवन का भ्रमण कराया जायेगा; और कल अर्थात् मेरे प्रवास के अंतिम दिन ३१ मार्च को प्रातःकाल भवन से लगी भूमि पर की जा रही खेती का निरीक्षण कराया जायेगा तथा दोपहर पश्चात् कुछ समय के लिए नगर के भ्रमण को ले जाया जायेगा। प.पू. गुरुदेव से भेंट के विषय में पुनः पूछने पर बताया कि वह व्यवस्थापन से पूछकर बतायेंगे। इस पर मैंने कहा कि क्या मैं स्वयं व्यवस्थापन से बात कर सकता हूँ, तो वह बोले कि नहीं, इस विषय में हम ही उनसे बात कर आपको सूचित करेंगे। परन्तु अंत समय तक इस सम्बन्ध में कोई भी सूचना उनके पास देने को न थी!

... इसी प्रकार मात्र औपचारिकताओं को निभाते हुए, किसी प्रकार खानापूरी करते हुए संस्था के मुख्य केन्द्र ने मेरे प्रवास का अगला और अंतिम दिन अर्थात् ३१ मार्च भी येन-केन-प्रकारेण व्यतीत करा दिया, और १ अप्रैल २०११ को भोर होने से पूर्व ही मैं लगभग खाली हाथ वापस लखनऊ को चल दिया। इति।