Wednesday, April 20, 2011

(४४) ढाढस

कभी-कभी कुछ लोग मुझसे और कभी-कभी मैं खुद भी स्वयं से यह प्रश्न कर बैठता हूँ कि इस ब्लॉग के लेखों को तो बहुत ही कम व्यक्ति पढते होंगे और पढ़ने वालों में से भी बहुत कम ही इनसे कुछ ग्रहण करने की चेष्टा करते होंगे। इसी प्रकार 'सचेतक' केन्द्र पर आने वालों व सही मायनों में लाभ उठाने वालों की संख्या भी बहुत कम ही है। तो फिर मैं इस सीमित आयुष्य की जो इतनी ऊर्जा खर्च कर रहा हूँ क्या उसका सदुपयोग हो रहा है? या ऐसा करना क्या प्रासंगिक है? या इतनी कम फल-निष्पत्ति होते हुए भी इतनी ऊर्जा व समय खर्च करना क्या न्यायसंगत है? ... मेरी इस संभ्रमित सोच को आज कुछ ढाढस मिला जब मैंने इन्टरनेट पर एक लघु कथा पढ़ी। संक्षेप में यह कुछ इस प्रकार से थी-

सागर की वापस जाती हुई लहरें किनारे पर बहुत सी मछलियों को छोड़कर जा रहीं थीं। सूरज भी ढलने वाला था। वहीं एक व्यक्ति एक-एक मछली को उठाकर वापस सागर के पानी में डाल रहा था। यह दृश्य देख रहे एक अन्य व्यक्ति ने उससे कहा, "यहां हजारों मछलियाँ किनारे पर मरणासन्न पड़ीं हैं और फिर सूर्यास्त भी निकट है, कुछ ही देर में अँधेरा छा जायेगा, तब तक तुम केवल कुछ ही मछलियाँ वापस जल में छोड़ पाओगे, तुम्हारे इस परिश्रम से कुछ बहुत लाभ होने वाला नहीं।" इस पर पहला व्यक्ति एक मछली को वापस जल में छोड़ता हुआ बोला, "देखो, कम से कम इस मछली की जिंदगी तो मेरे कर्म (क्रियमाण) से बदल ही गई न! अतः जब तक संभव होगा तब तक जो भी योग्य क्रियमाण मेरे वश में है, कर्तव्य समझकर करता रहूँगा।"

आगे का विश्लेषण यह कि वह व्यक्ति इस पर अधिक विचार नहीं करेगा कि बहुत सी मछलियाँ फिर भी तड़प-तड़प कर मर गयीं, क्योंकि वह जानता है कि ऐसा होना उन मछलियों के प्रारब्ध एवं उनकी सहायता करने में सक्षम कुछ सामर्थ्यवानों की अकर्मण्यता के संयोग (गुणनफल) का परिणाम है (प्रारब्धXकर्म = फल)। अतः वह केवल इस पर ध्यान देगा कि उसका कर्म कितनी मछलियों के प्रारब्ध के साथ मिलकर फलीभूत हो पाता है। वैसे तो वांछित फलप्राप्ति अधिकांशतः स्वयं किये जाने वाले क्रियमाण पर आधारित है, फिर भी किसी-किसी अवसर पर कोई व्यक्ति किनारे पर पड़ी मछली की भांति बेबस हो जाता है, तब किसी अन्य द्वारा किया गया क्रियमाण उस व्यक्ति के प्रारब्ध के साथ मिलकर फल प्रदान करता है। ... समाज के विभिन्न घटक अर्थात् समष्टि। मत भूलें कि हम एक सामाजिक प्राणी हैं और एक-दूसरे पर निर्भर हैं। ... और मात्र क्रियमाण कर्म ही हमारे वश में है। तो मिलकर प्रयास करें कि वह कर्म योग्य व न्यायप्रिय हो और हम उससे विमुख न हों। इति।