Thursday, May 5, 2011

(४७) मिलीजुली बातें - २

  • विश्व के सभी प्रमुख धर्म-मतों का यह मानना है कि मनुष्य आरंभ में निष्पाप व पवित्र था, परन्तु बाद में वह क्रमशः पतित होता गया।
  • यदि हम हिंदु शास्त्रों में उल्लेखित विभिन्न युगों (सतयुग, त्रेतायुग, द्वापरयुग व कलियुग) की अवधारणा को देखें तो भी उपरोक्त कथन की ही पुष्टि होती है।
  • बाइबल में भी समय के साथ-साथ लोगों के चारित्रिक पतन के विषय में कुछ ऐसा ही उल्लेख है। उसमें प्रथम नर व नारी (आदम व हव्वा) को ईश्वर के समान ही गुणों वाला बताया गया है। पर यह भी बताया गया है कि समय के साथ गलतियाँ करते-करते क्रमशः उनका पतन होता गया।
  • ये अवधारणाएं स्पष्ट रूप से यही इंगित करती हैं कि मनुष्य मूल रूप से सर्वथा पवित्र व गुणी है, परन्तु उस पर अर्थात् उसके मन पर बहुत से अयोग्य संस्कारों की मैल जम गई है; और यह मैल उत्तरोत्तर बढ़ती ही जा रही है।
  • विश्व के प्रमुख धर्म-मतों के प्राचीन शास्त्रों में भूलोक पर भ्रष्टता के अत्यधिक बढ़ जाने पर प्रलय या प्राकृतिक विनाश आने का भी वर्णन मिलता है। अर्थात् अति अंततः विनाश का कारण बनती है।
  • क्रिया के फलस्वरूप प्रतिक्रिया का सिद्धांत तो विज्ञानी भी मानते ही हैं। क्रिया व्यक्तिगत भी हो सकती है और समष्टिगत भी; तो प्रतिक्रिया भी तदनुरूप होनी निश्चित होती है।
  • जब यह कहा जाता है कि मूलरूप से व्यक्ति पवित्र व ज्ञानी है, तो वहां व्यक्ति से आशय होता है कि संस्कार-रहित जीव; जिसके मन पर अभी दुनियावी संस्कार अंकित नहीं हुए हैं।
  • जब व्यक्ति का मन संस्कार-रहित होगा, तो फिर उस व्यक्ति के समस्त क्रियाकलाप किसकी मदद से होंगे? तब उसके कृत्य आत्मा के निर्देशानुसार सम्पादित होंगे; और आत्मा तो परमात्मा का ही एक अंश है, उसी के तुल्य है। यही कारण था कि आरंभ के नर-नारी पवित्रता लिए थे; क्योंकि सृष्टि के आरंभ में या सतयुग के आरंभ में वे लगभग संस्कार-विहीन थे।
  • पिछले अनेक लेखों में उल्लेखित अनेक विश्लेषणों से हम इस बात से तो भली-भांति परिचित एवं सहमत ही होंगे कि हमारी देह का असली सॉफ्टवेर (software) आत्मा ही है और यह सर्वथा पवित्र, ज्ञानमय एवं अक्षुण्ण है। और मन के विषय में अधिक जानकारी आप 'मन' नामक लेख से ले सकते हैं।
  • हिंदु मतानुसार, जब हमारा शरीर नाश हो जाता है, तब इस स्थूल शरीर से एक सूक्ष्म शरीर बाहर निकलता है। इसे आध्यात्मिक भाषा में जीव, लिंगदेह, सूक्ष्मदेह, आंतरिक देह इत्यादि शब्दों से सम्बोधित किया जाता है।
  • अब हम चर्चा करते हैं इस सूक्ष्मदेह की, जो सूक्ष्म है, आँखों से नहीं दिखाई पड़ती और विभिन्न अनुसंधानों व खोजों से इसे थोड़ा-बहुत जान पाए हैं। सूक्ष्मदेह के घटकों में केवल मन एवं बुद्धि ही ऐसे हैं, जिन्हें विज्ञान आंशिक रूप से समझ पाया है, क्योंकि कुछ हद तक ये स्थूल मस्तिष्क (brain) से सम्बन्ध रखते हैं। अतः हम देखते हैं कि अनेक मानसिक कष्टों/बीमारियों का इलाज हम वैज्ञानिक रीतियों से कर सकते हैं। पर सूक्ष्मदेह के कई और भी भाग हैं, जिन्हें हम केवल अध्यात्म अर्थात् सूक्ष्म के ज्ञान से ही समझने का प्रयास कर सकते हैं। शब्दों में व्यक्त करें तो - ... वर्तमान में सूक्ष्मदेह के दो घटक हैं - (१) आत्मा, (२) अविद्या (सृष्टि के आरम्भ में एक ही घटक था - वह था आत्मा)।
  • सूक्ष्मदेह या आतंरिक देह का प्रमुख घटक 'आत्मा' है। आत्मा का मूल गुणधर्म है - सच्चिदानंद (सत्+चित्+आनंद)। सत् अर्थात् सदैव रहने वाला, चित् अर्थात् चैतन्यमय तथा आनंद अर्थात् सुखमय। यह परमात्मा का ही एक अंश है। वर्तमान में इस आत्मा के चारों ओर जो एक आवरण है, उसे अविद्या कहते हैं। पुनः अविद्या के चार प्रमुख घटक हैं - (१) मन (वाह्य मन), (२) चित्त (अंतर्मन), (३) बुद्धि, (४) अहं। 'मन' वाह्य इन्द्रियों से सम्पर्क साधता है और उनसे प्राप्त स्पंदनों को चित्त तक ले जाता है तथा पुनः चित्त में निर्मित क्रिया-निर्देशों को वाह्य इन्द्रियों तक पहुंचाता है । 'चित्त' (अंतर्मन) में विभिन्न संस्कार एकत्रित रहते हैं। 'बुद्धि' को हम विवेक भी कहते हैं, बुद्धि अंतर्मन में विद्यमान बड़े संस्कारों या वृत्ति पर निर्भर है; यह बाहर से आए स्पंदनों या चित्त के संस्कारों से, या इन दोनों से क्रिया-निर्देश को बनाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है। और 'अहं' अर्थात् जीव को परमेश्वर से भिन्न समझना।
  • अध्यात्म में मन एवं बुद्धि को भी वाह्य माना जाता है, बस आत्मा को ही आन्तरिक माना जाता है। पर चूँकि मन एवं बुद्धि आत्मा के चारों ओर अविद्या का आवरण निर्माण करने के लिए उत्तरदायी हैं, अतः इनका भी अध्ययन हम अध्यात्म के अंतर्गत करते हैं, जिससे इनके कुप्रभावों को हम आध्यात्मिक उपायों द्वारा कम या दूर कर सकें। इनका प्रभाव दूर करने पर ही वस्तुतः हमारी सूक्ष्मदेह अपने शुद्ध मूल दिव्य रूप में प्रकट होगी; तब हम वास्तव में धर्म मार्ग पर चल सकेंगे, क्योंकि आत्मा के तीन मूल गुणधर्मों में एक 'चैतन्य' है।
  • सारांश में, लिंगदेह या सूक्ष्मदेह के दो मुख्य घटक हैं- (१) आत्मा, (२) अविद्या। 'अविद्या' अर्थात् मन के समस्त संस्कार, बुद्धि, अहं आदि।
  • स्थूल शरीर के नाश के उपरांत उससे निकली सूक्ष्मदेह भूलोक से ऊपर को उठती है। उसके ऊपर उठने की गति और ऊंचाई उसके भार पर निर्भर करती है। भार अविद्या का ही होता है, आत्मा तो भारहीन होती है। और फिर सूक्ष्मदेह को उसके भारानुसार ऊपर के लोकों (कक्षाओं, orbits) में स्थान मिलता है। ऊपर के लोकों से तात्पर्य है कि भूलोक की अपेक्षा क्रमशः अधिक अच्छे लोक। और सर्वोच्च लोक को जाना अर्थात् परमेश्वर के सीधे सान्निध्य में पहुंचना अर्थात् आत्मा का परमात्मा में विलय। यह तभी संभव है जब व्यक्ति की अविद्या पूर्णतया मिट चुकी हो।
  • भूलोक पर अगले स्थूल जन्म से पूर्व, सूक्ष्मदेह अपने भारानुसार विभिन्न सूक्ष्म लोकों में प्रवास करतीं हैं, और फिर उचित समय आने पर अपने पूर्व संचित के अनुसार विभिन्न योनियों एवं परिस्थितियों में पुनः भूलोक पर जन्म लेतीं हैं। अर्थात् आगामी जन्म की अनुकूल या प्रतिकूल परिस्थितियां एवं योनि-निर्धारण हमारे पूर्वजन्मों के कर्मों के संचित पर निर्भर करता है।
  • सभी लोकों में केवल भूलोक ही आत्मा की कर्मभूमि कही गई है। अच्छा या बुरा कर्म यहीं पर होता है, समस्त पाप व पुण्य यहीं पर होते हैं; ... और ये सब भी मनुष्य-योनि में ही सम्भव हैं। साधना कर संस्कारों का नाश करना व पूर्णत्व को प्राप्त करना भी मानव-योनि में ही सम्भव है। अन्य योनियों में तो केवल प्रारब्ध को भोगा जाता है।