Saturday, May 7, 2011

(४८) प्रौढ़ता

पीछे हमने चर्चा की थी (मिलीजुली बातें - १ में), कि "हमें क्रमशः प्रौढ़ (परिपक्व) होना चाहिए। हमारी साधना भी हमारी मानसिक व बौद्धिक प्रौढ़ता के साथ-साथ प्रौढ़ होनी चाहिए। विद्यालय में एक ही कक्षा में वर्षों तक बैठे रहना ठीक नहीं!" उसी क्रम को आगे बढ़ाते हुए कहना चाहूँगा कि आखिर आज तक हमें यह ठीक से पता क्यों नहीं चल पाया कि हमारे देवताओं, इष्टों और उनकी प्रेरणा से रचित धर्मग्रंथों की शिक्षाओं में भेद क्यों हैं!? पिछले कुछ वर्षों से विज्ञान की प्रगति की अपेक्षा आध्यात्मिक ज्ञान की प्रगति बहुत ही कम हुई है। हम साधना की पुरानी रूढ़ियों में ही अटके हुए हैं, जड़ हैं, और विस्थापन या उन्नति चाहते ही नहीं शायद!!

यदि हम मनुष्य के मानसिक एवं बौद्धिक विकास पर दृष्टि डालें तो पाते हैं कि हम पहले की तुलना में अत्यधिक उन्नत हो चुके हैं, हमारा भौतिक जीवन-स्तर पहले की अपेक्षा बहुत ऊपर आ गया है; लेकिन हमारे आध्यात्मिक ज्ञान का क्या?? वहां तो हम स्थिर हैं या पहले की तुलना में पतन ही हुआ है हमारा! पिछले कुछ वर्षों में पुराने अन्धविश्वास बढ़ते-बढ़ते विभिन्न विधि-विधानों की विपुल राशि के रूप में परिणत व स्थापित हो गए हैं। उन्हें छाती से लगाये विभिन्न सम्प्रदाय अपने में ही मदमस्त हैं और अन्य मतावलम्बियों के प्रति शंकालु एवं असहिष्णु रहते हैं, उनके मतों में कमजोरियां व विरोधाभास खोजते रहते हैं।

विभिन्न धार्मिक शिक्षाओं में वाह्यतः अनेकों भेद एवं विरोधाभास क्यों रहे, इसे समझने के लिए एक उदाहरण प्रस्तुत है -- हमारा कोई बहुत छोटा सा भाई-बहन अथवा संतान आदि है। हम आमतौर पर उससे क्या अपेक्षा करते हैं? यदि हम उसे बिलकुल अपना समझते हैं तो यही अपेक्षा करते हैं कि वह ठीक रास्ते पर चले, उसके विचारों व कार्यों में उत्कृष्टता रहे, कमी व अति से बचते हुए वह सदैव 'संतुलित' व्यवहार करे। यहां 'संतुलित' शब्द पर इसलिए जोर दिया कि इसमें सब कुछ शामिल हो जाता है। इसके लिए हम 'आमतौर' पर क्या प्रयत्न करते हैं? ... जब वह बहुत छोटा बच्चा होता है तो उसे योग्य कार्य करने के लिए प्रेरित करने हेतु 'उसके' स्तर पर जाकर प्यार से समझाते हैं; उससे अच्छा कार्य करवाने के लिए कभी टॉफी, गुब्बारे, खिलौने आदि जैसे पुरस्कार का प्रलोभन भी देते हैं; और कभी अत्यधिक जिद करने पर या कहना न मानने पर उसे धमकाते भी हैं कि तुम्हें चूहे, बिल्ली या कटखने बन्दर वाली कोठरी में बन्द कर देंगे! यद्यपि परितोष का लोभ एवं दंड का भय दिखाना गलत है, और हम यह समझते भी हैं; तद्यपि हम ऐसा करते हैं। क्योंकि हम जानते हैं कि हम ये सब इसलिए कर रहे हैं कि हमारी संतान आगे जाकर योग्य व संतुलित बने। कोई पूर्वाग्रह नहीं होता है हमारे मन में। .... लेकिन कुछ वर्षों बाद अब वह बच्चा कुछ बड़ा हो चुका है। अब वह जानता है कि कोठरी में कोई कटखना चूहा, बिल्ली या बन्दर नहीं है; आपके परितोष रूपी हथकंडों से भी वह परिचित हो चुका है| अर्थात् उसका बौद्धिक व मानसिक विकास पहले की तुलना में कुछ उन्नत हो गया है। अब आपके समझाने के तौर-तरीके बदल जाते हैं, वे भी कुछ परिपक्व हो जाते हैं! पर समझाने का लक्ष्य, आशय या उद्देश्य तब भी वही है कि संतान योग्य व संतुलित बने। ..... फिर एक दिन आपकी संतान व्यस्क हो जाती है; अब उसका बौद्धिक व मानसिक स्तर काफी बढ़ चुका है। अब आप उसे मित्रवत् समझते हैं; आपके समझाने में पारदर्शिता होती है, सत्य का आलंबन होता है; क्योंकि आपको पता है कि बचकानी हरकतें अब नहीं चलेंगी, व्यवहार में प्रौढ़ता लानी ही पड़ेगी, अन्यथा दाल नहीं गलेगी! यानी हमने देखा कि समय के साथ-साथ हमारी वाह्य क्रियाएं बदलती चली गयीं, परन्तु हमारा मूल उद्देश्य वही रहा कि हमारी संतान क्रमशः प्रौढ़ बने, संतुलित बने।

पहले भी और अब भी, जब कभी भी आपकी संतान का संतुलन बिगड़ने को हुआ, उसके व्यवहार में, आचरण में, किसी बात की कमी या अति दिखाई दी तो आपने तुरंत योग्य कदम उठाया। परिस्थिति अनुसार कभी नरम तो कभी गरम! जब कभी किसी कर्म विशेष के लिए हमारी संतान सुस्त दिखती है तो हम उसका उत्साह बढ़ाते हैं, उसे वह करने के लिए उकसाते हैं; और कभी-कभी उसके प्रयासों में जान फूंकने के लिए हमारे उकसाने का परिमाण बहुत अधिक हो जाता है। यद्यपि ऐसा करना समय की मांग होती है, परन्तु कभी-कभी इसका दुष्परिणाम भी देखने में आता है कि हमारे जोश दिलाने पर संतान उस कर्म विशेष को इतना अधिक करने लग जाती है कि अन्य कार्य बाधित होने लगते हैं; संतुलन बिगड़ने लगता है। एक जागरूक और प्यार करने वाले अभिभावक को तुरंत इसका भान होता है और अब वह अपनी संतान से कहता है कि "बहुत हुआ; अब रुको, रुको!" अर्थात् एक कुशल अभिभावक स्थितियों को नियंत्रण में रखने के लिए कभी कुछ तो कभी कुछ समझाते रहते हैं। आपके सुझावों में, शिक्षाओं में और क्रियाओं में कभी-कभी जबरदस्त विरोधाभास दिखता है। परन्तु उस विरोधाभास का एकमात्र कारण यही होता है कि स्थितियां नियंत्रण में रहें और हमारी संतान निरन्तर परिपक्वता को प्राप्त करे।

हम जानते हैं कि 'संतुलन' की कोई भी स्थिति कभी भी परम, चरम या अंतिम (ultimate) नहीं हो सकती; सुधार की गुंजाईश सदैव बनी रहती है, जबतक कि हम ईश्वर तुल्य न हो जाएं। परन्तु यह सोचकर हम केवल हाथ पर हाथ रखकर नहीं बैठते और निरन्तर आगे को उन्नत होने के लिए प्रयत्नशील रहते हैं। और यह सब हम इसीलिए करते हैं क्योंकि हम निरन्तर आशान्वित रहते हैं कि कभी तो हम चरम पर पहुंच ही सकते हैं, या कम से कम उसके निकट तो पहुंच ही सकते हैं।

अब प्रश्न यह उठता है कि उपर्लिखित बातों या दृष्टिकोण को और अधिक व्यापक कर क्या हम ईश्वर की कल्पना एक अभिभावक के रूप में नहीं कर सकते? भारत में हम देखते हैं कि हम उत्तर भारतीय अपनी संतान को यहीं की परिस्थितियों के हिसाब से तौर-तरीके सिखाते हैं और हिंदी में समझाते हैं; वहीं कर्नाटक राज्य का अभिभावक अपनी संतान को कन्नड़ भाषा में वहां के तौर-तरीकों के अनुसार विकसित करने का प्रयत्न करता है। हर स्थान पर परिस्थितियां भिन्न हैं; विदेशों में भी। भाषाएँ, रहन-सहन, सामाजिक तौर-तरीके, धार्मिक मान्यताएं, इष्ट, आदि सब कुछ ही भिन्न है। तो फिर हर स्थान के अभिभावकों के अपनी संतान को 'संतुलित' बनाने के तरीके भिन्न क्यों न होंगे? पर हाँ, लक्ष्य या कारण वही होगा जो आपका है कि संतान योग्य, न्यायप्रिय एवं संतुलित बने। हाँ, इस अच्छेपन की परिभाषा व सीमा कदाचित् भिन्न-भिन्न हो सकती है क्योंकि हम भगवान नहीं! पर भगवान तो बहुत शक्तिशाली व योग्य हैं न! उनसे कभी कोई गलती हो सकती है क्या? चलिए, हम भगवान को नहीं मानते तो भी कोई बात नहीं, पर इतना तो मानेंगे ही कि समय-समय पर समाज विशेष के योग्य व्यक्तियों ने उस समाज को उस काल की परिस्थितियों के अनुसार मार्गदर्शित करने का प्रयास किया। उनका वही प्रयास विभिन्न धर्मग्रंथों के रूप में आज हमारे समक्ष है। सभी स्थानों पर परिस्थितियां भिन्न थीं; भाषाओं, तौर-तरीकों आदि में भी भिन्नताएं थीं, विशेष बात यह कि कालानुसार एवं स्थानानुसार लोगों का मानसिक व बौद्धिक स्तर काफी भिन्न था; तो फिर समाधान रूपी उपायों या वचनों में सर्वकाल एकरूपता सम्भव हो सकती थी क्या?? यह बिलकुल असंभव है। पर गौर से, सहिष्णु दृष्टि से और तटस्थता से देखा जाए तो मार्गदर्शक या अवतार की भूमिका में रहे तत्कालीन ज्ञानी जनों का आशय व लक्ष्य वही था कि उनकी संतान सरीखे सभी आम लोग क्रमशः योग्य व संतुलित होते जाएं। आम प्रजा में कभी किसी चीज या गुण की कमी दिखने पर उन्होंने कुछ कृत्यों द्वारा उसे बढ़ाने के लिए उकसाया; और फिर कभी जब उनकी प्रजा असंतुलित होकर वह कृत्य अत्यधिक व मनमाने ढंग से करने लग गई और अति के कारण उसके अन्य कार्यों की उत्कृष्टता में कमी आने लगी, तो पुनः किसी अन्य अवतार रूप में भगवान ने उन्हें वह कृत्य करने के लिए एकदम से रोका भी! यानी, कभी किसी अवतार रूप में कहा कि यह करो; और कभी किसी अवतार रूप में यह कहा कि ऐसा अब न करो! वाह्यता यह विरोधाभास जान पड़ता है, परन्तु उद्देश्य पर गौर करें तो ऐसा कदापि नहीं! जब किसी ईश्वरावतार ने कुछ करने को कहा तो उद्देश्य यही था कि वह कृत्य कर उसकी संतान अच्छा व संतुलित बनने के लिए प्रेरित हो। उसकी संतान वह कृत्य करने से संतुलित भी हो गई; पर उसके पश्चात् भी जब उसकी संतान आंखें बन्द कर वही कृत्य 'रूढ़ियों' के रूप में करने लगी तथा शेष कार्य बाधित होने लगे, तो ईश्वर ने पुनः किसी अन्य अवतार के रूप में प्रकट होकर कहा कि, "बस करो, बस करो; अब बहुत हुआ!" पुनः, इस शिक्षा का भी उद्देश्य यही था कि उसकी संतान अच्छी व योग्य बने। जैसे-जैसे हम उन्नत होते गए, भगवान द्वारा और अधिक उन्नत ज्ञान की वर्षा होने लगी; तथा साथ ही ऊपर उठने के बाद जब-जब हम पतन की ओर गए, तब-तब हमें ईश्वर की झिड़की मिली। अब हम ध्यान से देखें तो हमारे धर्मग्रंथों की शिक्षाओं में ऊपर मनन की गई सभी बातों के प्रमाण मिलते हैं।

अब तो हमें समझ ही जाना चाहिए कि वेद, उपनिषद, पुराण, बौद्ध शिक्षा, बाइबल, कुरान आदि सब अपने-अपने स्थान पर ठीक हैं और उनसे सम्बंधित ईश्वरावतारों का उद्देश्य भी एक ही था। वे एक ही परमेश्वर के अनेक रूप थे जो अपनी संतानों के हितार्थ परिस्थिति अनुसार भिन्नताएं लिए प्रकट हुए और उनका योग्य मार्गदर्शन किया। हम कौन होते हैं जो उनके कार्यों और सोच पर अंगुली उठाएं? हम उस काल को अनुभूत नहीं कर सकते, मात्र कल्पना ही कर सकते हैं। अतः अपनी सीमाओं को पहचान कर संतुलन, सौहार्द एवं सहिष्णुता का परिचय दें व उनके द्वारा सम्पादित कार्यों पर अपनी सीमित बुद्धि द्वारा प्रश्नचिन्ह न लगाएं, वरन सम्पूर्ण दृश्य को सकारात्मक एवं व्यापक दृष्टिकोण से देखने का प्रयत्न करें, सब स्पष्ट हो जाएगा। हम यह जान लें कि ईश्वर ने मार्गदर्शन देते-देते आज हमें इस स्थिति में पहुंचा दिया है कि आज हम अपने वर्तमान और भविष्य की साधना एवं सोच का निर्धारण स्वयं कर सकते हैं। कदाचित् हमें और अधिक मार्गदर्शित करने अब कोई नया अवतार नहीं आएगा, जो नए सिरे से नीतियों को परिभाषित करे। विज्ञान के विकास और वैश्वीकरण के चलते हम सभी आज एक-दूसरे के बहुत समीप आ चुके हैं। विभिन्न समूहों, संघों या देशों के व्यक्तियों को अब तक मिला ईश्वरीय ज्ञान और समस्त नीतिवचन हमारे समक्ष हैं, वहां की तत्कालीन भौगोलिक, सामाजिक, सांस्कृतिक एवं धार्मिक परिस्थितियों से भी हम पूरी तरह से अवगत हैं। अब हमें सब कुछ सकारात्मक एवं परिपक्व दृष्टि से देखना आना चाहिए। आइये ..., अपनी प्रौढ़ता, परिपक्वता को प्रकाशित करें और उन्नति के पथ पर आगे को बढ़ें। बहुत दिन स्थिर व संकुचित रह चुके, अब व्यापक बनें। इति।