Tuesday, May 31, 2011

(४९) परिपक्वता- कुछ और तथ्य...

पिछले कुछ लेखों में हमने सर्वांगीण रूप से विकसित व प्रौढ़ होने के संदर्भ में अनेक तथ्यों पर गौर किया। उसी क्रम में कुछ और तथ्य प्रस्तुत हैं। विश्व में बल्कि ब्रह्माण्ड में जितनी दूर तक हमारी दृष्टि व अवलोकन की पहुंच है, उसके अनुसार वैदिक ज्ञान प्राचीनतम ज्ञान है। मात्र उसी के विषय में कहा जाता है कि उसका रचियता कोई नहीं है; वह सिद्धांत रूप में सदा से ही ब्रह्माण्ड में विद्यमान था; हमारे कुछ प्राचीन ऋषियों ने उन सिद्धांतों को क्रमशः प्रत्यक्षतः अनुभूत किया व अपने शिष्यों को भी बताया। इस प्रकार धीरे-धीरे वह ज्ञान आगे की पीढ़ियों में अग्रसारित होता गया। संभवतः यह दुनिया का अकेला ऐसा शास्त्र है जिसका रचियता कोई मानव, संत, पैगम्बर या ऋषि नहीं वरन स्वयं ईश्वर हैं, ऐसा माना जाता है। हिंदु मतानुसार वेद अनादि तथा अनंत हैं। इन वेदों का भी यदि हम समग्र रूप से एवं निष्पक्ष या तटस्थ भाव से अवलोकन करें तो पाएंगे कि समय के साथ-साथ इनमें भी परिपक्वता आती गई। वेदों के आरंभिक भाग में जहां विविध कर्मकाण्डों को प्रधानता दी गई है, वहीं वेदों के शीर्ष भाग अर्थात् वेदान्त या उपनिषद् में सूक्ष्म आध्यात्मिक साधना पर बल दिया गया है। अर्थात् हम देखते हैं कि आरंभ में ईश्वर ने भी मनुष्य को साधना की ओर उन्मुख करने के लिए प्रथमतः स्थूल साधनों को अपनाने को कहा, जिससे उचित भाव की निर्मिति सहजता से संभव हो सके; और भाव निर्मिति हो जाने के पश्चात् ईश्वर ने मनुष्य को क्रमशः अगली कक्षाओं में जाने के लिए तैयार किया और इसके लिए साधना-पद्धति को क्रमशः विकसित एवं सूक्ष्म किया; और वेदान्त में यह सूक्ष्मता संभवतः अपने चरम पर थी। इस प्रकार हमने देखा कि ईश्वर ने जड़-बुद्धि मनुष्य को विकसित एवं परिपक्व करने हेतु एक योजनाबद्ध सैद्धांतिक कार्यक्रम को कुछ ऋषियों की अनुभूतियों के माध्यम से प्रकट किया। और ईश्वर की यह योजना स्पष्ट रूप से हमें प्रगति की राह दिखाती है। एक जड़-बुद्धि या आरंभिक स्तर पर खड़े साधक को ज्ञान पाने का क्रम निम्नतम कक्षा से ही आरंभ करना होता है। वहीं से प्रारंभ कर उसे क्रमशः ज्ञान की उच्चतर कक्षाओं में जाना होता है। इस 'आध्यात्मिक ज्ञान विश्वविद्यालय' में किसी भी समय विशेष पर कोई साधक किसी आरंभिक कक्षा में ही है, तो कोई अन्य साधक उससे काफी ऊपर की कक्षा में है। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है; हर किसी को निरन्तर ज्ञान की ऊपरी कक्षा में जाना ही होगा, वह जाएगा ही, इसका सतत प्रयत्न व इसपर विश्वास हर किसी को होना चाहिए। आगे को बढ़ते हुए हमें कुछ चीजों को पीछे छोड़ना ही पड़ता है, त्यागना ही पड़ता है। यहां छोड़ने या त्यागने का अर्थ यह नहीं कि हम उससे घृणा करके या उसे तुच्छ जानकर ऐसा कर रहे हैं वरन यह कि आगे बढ़ने के क्रम में एक साधन का कार्य समाप्त हो जाने पर हम उसे धन्यवाद देते हैं, उसके प्रति कृतज्ञता व्यक्त करते हैं, और फिर उससे अधिक परिष्कृत साधन का अवलंबन लेकर आगे को अग्रसर होते हैं। यदि हमारा ज्ञान ठोस है और हम निश्चित रूप से परिपक्वता की ओर अग्रसर हैं, तो हम त्याग दिए गए साधन के प्रति कोई हीन या तुच्छ भावना कदापि नहीं रखते हैं। क्या सामान्य स्कूली शिक्षा में हम ऐसा तुच्छ दृष्टिकोण रखते हैं? कदापि नहीं! वहां प्राथमिक शिक्षा के लिए अति सामान्य पाठ्यक्रम होता है और उच्चतर कक्षाओं के लिए अपेक्षाकृत अत्यधिक परिष्कृत पाठ्यक्रम होता है; इसके बावजूद कभी भी किसी भी विद्यार्थी के मन में कोई उच्च या निम्न भावना नहीं पनपती है। नीचे की कक्षा का छात्र जानता है कि एक दिन वह भी ऊपर की कक्षा में पहुंचेगा और वहीं ऊपर की कक्षा का छात्र भी भली-भांति यह जानता है कि वह भी निम्नतर कक्षाओं को पार करता हुआ चरणबद्ध ढंग से ऊपर तक पहुंचा है। सीनियर एवं जूनियर, सभी एक-दूसरे का ध्यान रखते हैं; परस्पर अनोखा सौहार्द रहता है। .... परन्तु आज धर्म या अध्यात्म के क्षेत्र में क्या ऐसा है??

धर्म के क्षेत्र में पता है क्या हो रहा है?? वहां आज ज्ञान के शिखर पर पहुंचे हुए ऐसे व्यक्ति बहुत ही कम हैं जो अन्य स्तरों पर खड़े लोगों के प्रति सहिष्णु रह सकें! अधिकांश व्यक्ति आज ज्ञान की निम्नतम, निम्नतर या मध्यम कक्षाओं में हैं और संभवतः कोई विरला ही होगा जो 'आध्यात्मिक ज्ञान विश्वविद्यालय' के वास्तविक उदार चरित्र, नियमावली और भाईचारे के नियमों से भली-भांति परिचित हो! आखिर हम क्यों नहीं समझते कि यह 'आध्यात्मिक ज्ञान विश्वविद्यालय' भी सामान्य जागतिक विषयों के एक महाविद्यालय की भांति ही है! जिस प्रकार एक बड़े या विशाल महाविद्यालय में प्राथमिक कक्षाओं से लेकर विविध विधाओं पर आधारित उच्चतर पाठ्यक्रम भी रहते हैं; कोई प्राथमिक कक्षा में है, कोई माध्यमिक में, तो कोई डॉक्टरी पढ़ रहा है, कोई इंजीनियरिंग, तो कोई अन्य कोई कोर्स कर रहा है। सब अपने-आप में मगन हैं, सब जानते हैं कि अपनी-अपनी भूमिका का निर्वहन वे भली-भांति कर रहे हैं। प्रत्येक को अपनी पढ़ाई, अपनी कक्षा, अपनी विधा आदि पर गर्व है। गर्व है, परन्तु घमंड नहीं! इसीलिए वे सब एक परिवार की भांति रहते हैं, मिलजुल कर, एक-दूसरे का ध्यान रखते हुए। अहं का कोई भी टकराव नहीं होता है उनके मध्य! .... परन्तु धर्म के क्षेत्र में लोगों के विविध कृत्यों को समग्र रूप से यदि 'आध्यात्मिक ज्ञान विश्वविद्यालय' की विविध कक्षाओं के रूप में देखा जाए तो आज हमें यहां किसी भी प्रकार के भाईचारे या सौहार्द के दर्शन नहीं होते। इसके लिए इस विश्वविद्यालय के अध्यापक, लेक्चरर, प्रोफेसर, प्रधानाचार्य, प्रबंधक, अभिभावक आदि प्रमुख रूप से दोषी हैं। कदाचित् ये सब स्वयं ही इन पदों के योग्य नहीं हैं, या हों भी तो भी इतना तो निश्चित है कि ये अपनी-अपनी भूमिकाओं व कर्तव्यों का ईमानदारी से निर्वहन नहीं कर रहे हैं। आज इस 'आध्यात्मिक ज्ञान विश्वविद्यालय' में घनघोर अव्यवस्था का साम्राज्य है। अध्यापन का स्तर इतना गिरा हुआ है कि कई-कई वर्षों से विद्यार्थी एक ही कक्षा में ही रुके हुए हैं, उत्तीर्ण होकर अगली कक्षाओं में जा ही नहीं पा रहे हैं। ऐसा नहीं है कि विद्यार्थियों में प्रतिभा की कमी है, अपितु वहां ऐसा कोई भी मार्गदर्शक नहीं है जो उनको अगली कक्षाओं का महत्व समझा सके। सभी गुरु निम्नतर कक्षाओं में ही अपने शिष्यों को यह घुट्टी पिला रहे हैं कि उनके लिए यही कक्षा सर्वश्रेष्ठ है, सालों-साल इसी कक्षा में रहकर ही वे डॉक्टरेट की डिग्री प्राप्त कर लेंगे! वे शिष्यों को समझाते हैं कि अन्य कक्षाएं या पाठ्यक्रम बिलकुल निम्न या निकृष्ट हैं, उनके विद्यार्थियों के समीप भी न जाओ! शिक्षा व शिक्षण को सूक्ष्मतर करने के बजाय वे इसको निरन्तर स्थूलता की ओर ढकेल रहे हैं; कारण एक ही है कि वे नहीं चाहते कि उनका प्रभुत्व कम हो। प्रभुत्व कम होगा तो धन और यश का मिलना भी तो कम हो जाएगा!

परन्तु ऐसा नहीं है! सामान्य भौतिक शिक्षण की श्रेष्ठ संस्था (स्कूल-कॉलेज) में हम देखते हैं कि वहां का प्रशासन प्राइमरी कक्षाओं के अध्यापकों को उच्चतर कक्षाओं के अध्यापकों से कम वेतन या कम मान-सम्मान नहीं देता है। वहां के विद्यार्थी भी सभी शिक्षकों के लिए समान रवैया रखते हैं, बल्कि कुछ मामलों में तो प्राथमिक कक्षाओं के शिक्षकों को अधिक मान-सम्मान मिलता है, क्योंकि यह माना जाता है कि बच्चे की जड़ों को मजबूती प्राथमिक शिक्षक ही देते हैं। यह सब इसलिए होता है क्योंकि देने और पाने का मोल सब जानते हैं। शिक्षकों को बिना मांगे सबकुछ मिल जाता है और विद्यार्थी व अभिभावकों के मन में शिक्षक के प्रति कृतज्ञता स्वतः ही उमड़ती है। क्रिया के फलस्वरूप एवं क्रिया के अनुसार प्रतिक्रिया निश्चित होती है, संभवतः अधिकांश भारतीय आध्यात्मिक गुरु यह भूल गए हैं! आज वे प्रतिक्रियात्मक लाभ जबरन अपने स्वार्थानुसार पाना चाहते हैं, इसीलिए उनके मन, विचार और कृत्य इतने संकुचित हैं। स्कूल-कॉलेज की पढ़ाई में हम देखते हैं कि कोई शिष्य अपने अध्यापक से भी आगे निकल जाता है, उनसे भी योग्य व ऊंचे पद पर पहुंच जाता है, तदपि वह अपने अध्यापक को नहीं भूलता; और अध्यापक को भी अपने ऐसे शिष्यों पर सदैव गर्व रहता है, समय आने पर अक्सर वे निःसंकोच अपने भूतपूर्व शिष्यों से परामर्श मांगने जाते हैं! धर्म या अध्यात्म के क्षेत्र में आपने विगत कुछ वर्षों में ऐसा सुना है क्या?? .... सब मिलेगा और बढ़कर मिलेगा, शर्त बस यह है कि पहले कुछ दिया जाए! .... रासायनिक उर्वरकों और कीटनाशकों के बल पर अधिक फसल तो प्राप्त की जा सकती है, परन्तु उससे प्राप्त अनाज गुणविहीन या हानिकारक ही होगा! कुछ उत्तेजक औषधियां और अनाप-शनाप व्यायाम हमारे शरीर-सौष्ठव को आकर्षक तो बना सकते हैं, परन्तु भीतर से हमारा शरीर खोखला होता जाएगा। आज जनभावनाओं को भड़काकर विभिन्न सम्प्रदाय स्वयं को विशाल और सामर्थ्यवान बनाने की चेष्टा अवश्य कर रहे हैं, परन्तु उनके इस कृत्य से जनसाधारण आध्यात्मिक रूप से निरन्तर पतन की कगार पर जा रहा है। परिपक्वता की स्थिति में तो सहिष्णुता बढ़ती है, परन्तु आज वह घट रही है तो इसका सीधा सा अर्थ यही है कि हम पुनः शैशवावस्था की ओर जा रहे हैं। आपको याद होगा कि पहले के समय में प्रचलन के बिलकुल विरुद्ध कुछ कहने वाले को भी कौतूहल की दृष्टि से देखा जाता था और लोग उसकी बात सुनते थे, समझ में आने पर मान्य भी करते थे; उसकी आवाज को बलात् दबाया नहीं जाता था। उदाहरण के लिए- कर्मकाण्ड आधारित आरंभिक वेद शिक्षा के प्रत्ययन के कुछ उपरांत उद्भवित ज्ञानकाण्ड आधारित वेदान्त/उपनिषद् शिक्षाएं, बुद्ध द्वारा निरीश्वरवाद की शिक्षा देने के बावजूद तत्कालीन हिंदुओं द्वारा उन्हें विष्णु का अवतार घोषित करना, बाइबल के पुराने नियम के बाद यीशु मसीह की शिक्षाओं पर आधारित नया नियम प्रतिपादित होना और उसे प्रचंड सामाजिक मान्यता मिलना, चार्वाक जैसे ऋषि को भी सम्मान मिलना, गुरुनानकदेव जी की वेदान्त आधारित शिक्षा को अपार समर्थन मिलना, कबीर की निर्भीक, कटाक्षपूर्ण एवं निर्गुण भक्ति आधारित शिक्षाओं को हृदयों में बड़ा स्थान मिलना आदि। यह सब इसलिए सम्भव हुआ कि उस समय के धार्मिक अगुवा अपेक्षाकृत परिपक्व थे। परन्तु आज रूढ़िवादिता इतनी बढ़ गई है कि सत्य को प्रकाशित करने वाले व्यक्ति को तथाकथित स्वयंभू धर्मरक्षकों के हिंसात्मक विरोध का सामना करना पड़ता है। हमारे वर्तमान धर्मगुरु नवीन आचार पद्धतियों या विकास के कट्टर विरोधी हैं। वे नवान्वेषी सत्यों या वेदान्त सरीखे पुरातन सत्य-स्रोतों से दूर भागते व भगाते हैं, उनकी सदैव निंदा करते हैं और इस प्रकार आध्यात्मिक विकास को अवरुद्ध करने का कार्य कर रहे हैं। उदाहरण के लिए हाल ही में एक निर्भीक संत को एक तथाकथित धर्मरक्षक ने इसलिए शारीरिक आघात पहुँचाया क्योंकि उन्होंने कहा था कि "अमरनाथ में बनने वाला बर्फ का शिवलिंग एक स्वाभाविक प्राकृतिक क्रिया है, उसमें चमत्कार जैसा कुछ भी नहीं।" यह बिलकुल सत्य है और इसका वैज्ञानिक आधार भी है, यह हमारी सरकार भी जानती है और अमरनाथ की प्रबंधक संस्था भी। फिर भी कुछ वर्ष पूर्व प्रदूषण और जलवायु परिवर्तन के कारण प्राकृतिक रूप से शिवलिंग न बन पाने की दशा में कृत्रिम रूप से शिवलिंग का निर्माण कराया गया। एक ही बार इस प्रकार का रहस्योद्घाटन हो पाया, परन्तु पता नहीं कितनी बार....!? आस्था को जीवित रखने के इस प्रकार के प्रयास को आप क्या कहेंगे?? आखिर हम कब अध्यात्म के मूल भाग को जानेंगे?? कब तक हम निवृत्त हो चुके गौण भागों को पकड़े रखेंगे?? हम कब परिपक्व होंगे?? इति।