Monday, April 29, 2013

(५०) विज्ञान से अध्यात्म तक

२३ अप्रैल, २०१३ के 'दैनिक जागरण' में प्रीतीश नंदी का एक ट्वीट पढ़ने को मिला- "फोर्ब्स पत्रिका ने महिलाओं के लिए सबसे खतरनाक देशों की सूची में भारत को टॉप पांच देशों में शामिल किया है। इस सूची में पहले स्थान पर अफगानिस्तान है। इसके बाद कांगो, पाकिस्तान, भारत और सोमालिया। भारत को कितनी शानदार कंपनी मिली है।"

निकट अतीत में एक के बाद एक बलात्कार की अनेकों पाशविक घटनाओं ने जन-मानस को बुरी तरह से झकझोर दिया है। दिल्ली में अनेकों विरोध प्रदर्शन हो रहे हैं, पत्र-पत्रिकाओं, टेलिविज़न चैनलों, सोशल वेबसाइटों पर नित नवीन विचारोत्तेजक लेख पढ़ने को मिल रहे हैं। इन सब में निचोड़ यही कि लोग अब मानने लगे हैं कि भारत में नैतिक गुणों में ज़बरदस्त गिरावट आ गई है। अपने-अपने अनुसार हर कोई नैतिक गुणों के पतन के लिए जिम्मेदार कारणों की व्याख्या कर रहा है, परन्तु उनके पुनरुत्थान हेतु कोई ठोस एवं प्रभावकारी सुझाव सामने नहीं आ रहा। सुझावों में मुख्य रूप से अभी तक यही सामने आया है कि ऐसे अपराधों के लिए कानून को कड़ा किया जाए, न्यायालयिक प्रक्रिया तेज की जाए और मृत्युदंड तक दिया जाए; इससे अपराधियों में खौफ बढ़ेगा, फलतः अपराधों में कमी आएगी।

मेरा भी यह मानना है कि त्वरित उपचार के तौर पर यह सही रहेगा। परन्तु क्या हम बीमार और बीमारी को मात्र फर्स्टएड के भरोसे छोड़कर निश्चिन्त हो सकते हैं? फर्स्टएड और त्वरित जटिल ऑपरेशन के बाद भी शेष बचे अपेक्षाकृत कम बीमार लोगों के लिए हमें कोई प्रभावकारी परन्तु सरल चिकित्सा-पद्धति विकसित करनी होगी और इससे भी बढ़कर यह कि हमें बीमारी के पैदा होने के कारणों को नष्ट करना होगा, ..और सबसे बढ़कर यह कि हमें रोगियों सहित आमजनों के भीतर ऐसी प्रतिरक्षण प्रणाली (immune system) विकसित करने की आवश्यकता है जिससे तथाकथित रोगाणुओं की उपस्थिति मात्र से कोई रोगी न बन पाए। चिकित्सा-विज्ञान यही पद्धति अपनाता है, और विज्ञान के प्रति हमारी वर्तमान आस्था हमें शत-प्रतिशत आश्वस्त करती है कि विज्ञान झूठ नहीं बोलता, ऐसा होता ही है।

तो फिर मानसिक और सामाजिक रूप से सौ प्रतिशत स्वस्थ रहने के लिए हम अपने वर्तमान आराध्य 'विज्ञान' का सहारा क्यों नहीं लेते, जबकि ईश्वरीय विज्ञान अर्थात् 'अध्यात्म' पर से तो हमारा विश्वास हमारे तथाकथित धर्मगुरुओं के अनर्गल प्रलाप से लगभग पूरी तरह से उठ चुका है! विज्ञान तो आखिर विज्ञान ही होता है, हमारे हित के लिए ही होता है; तो फिर चाहे वह अध्यात्मशास्त्र हो या आधुनिक विज्ञान, कोई अंतर नहीं पड़ता। अंतर पड़ता है तो केवल एक चीज से कि हम कितना विश्वासी हैं! और सच्चाई यह है कि हम भारतवासी विश्वासी हैं ही नहीं! विश्वास में कमी के कारण ही हमने अपने श्रेष्ठ प्राचीन आध्यात्मिक विज्ञान अर्थात् 'उपनिषद्' या 'वेदांत' की शिक्षा को नहीं समझा और अब पराकाष्ठा यह कि आधुनिक विज्ञान पर भी आज हमारा कोई विशेष विश्वास नहीं है। जहां कोई तर्क-वितर्क करना हो वहां पुरानी सोच के लोग 'अध्यात्म' और नई सोच के लोग 'विज्ञान' का सहारा लेते हैं, परन्तु यह विचार किसी के मन में नहीं आता कि इन दोनों के सिद्धांत हम पर भी लागू होते हैं। अध्यात्म के बाद अब विज्ञान ने भी हमें जहां एक ओर 'प्रवृत्ति' के लिए उकसाया, वहीं दूसरी ओर 'निवृत्ति' का भी पाठ पढ़ाया। परन्तु हम तो सदा से आधा पाठ्यक्रम (syllabus) समझने के आदी रहे हैं, तो फिर हममें मानसिक और सामाजिक विकृति कैसे न हो? हमने 'प्रवृत्ति' यानी धन, प्रतिष्ठा, पद, सांसारिक वस्तुएं आदि कमाने, अपनाने वगैरह पर तो जोर दिया परन्तु उनके साइड इफेक्ट्स से बचने, संतुलित मात्रा में अपनाने, आवश्यकता एवं समयानुसार त्यागने अर्थात् 'निवृत्ति' सम्बन्धी सलाहों की ओर हमारा ध्यान कभी गया ही नहीं!

एक बात जो बहुत शिद्दत से मुझे बेचैन करती है कि आज भी बहुसंख्य भारतीय व्यावहारिक रूप से अशिक्षित ही हैं बावजूद इसके कि अध्यात्म और विज्ञान दोनों ने ही मानव को बहुत ही बुनियादी तौर पर लगातार यह समझाने का प्रयास किया है कि "उसका जीवन क्यों है? कैसे है? उसका उद्देश्य क्या है? उसके करने योग्य कर्म क्या हैं? किससे वह गहराई से अच्छा महसूस कर सकता है? जीवन के प्रारंभिक दौर से लेकर मृत्यु तक तथा उससे भी पहले या बाद में संभवतः क्या हुआ और क्या हो सकता है? प्रकृति में सब कुछ जिस सिस्टम के अंतर्गत होता है यद्यपि वह सिस्टम बहुत पेचीदा है फिर भी मोटे-मोटे तौर पर वह क्या है? आदि-आदि।" आधुनिक आस्था केन्द्र 'विज्ञान' ने ब्रह्माण्ड के सिस्टम से सम्बन्धी कुछ मूलभूत सिद्धांत बताए। इनमें ऊर्जा की अक्षुण्णता का सिद्धांत यानी ऊर्जा कभी नष्ट नहीं होती बल्कि किसी अन्य स्वरूप में बदल जाती है, तथा क्रिया के फलस्वरूप प्रतिक्रिया का सिद्धांत, ये दो सिद्धांत बहुत महत्वपूर्ण हैं और जीवन से जुड़े लगभग सभी अनुत्तरित प्रश्नों के उत्तर देने में सक्षम हैं। इन दोनों सिद्धांतों को यदि हम मिला दें और फिर मार्गदर्शन खोजें, तो जीवन के प्रत्येक प्रसंग से सम्बंधित मोटा-मोटा, धुंधला सा लेकिन आश्वस्त करने वाला उत्तर हमें मिलेगा। धुंधला सा फिर भी आश्वस्त करने वाला इसलिए क्योंकि हमें 'विज्ञान' और उसके सिद्धांतों पर पूर्ण विश्वास है! तो फिर सिद्धांत जिस ओर भी इशारा करे, जिसकी भी सम्भावना जताए, हमें वह स्वीकार्य होना चाहिए।

विज्ञान के अनुसार- सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड का क्रियाकलाप क्रमबद्ध (systematic) है और उससे जुड़ी हर घटना एक पद्धति, क्रम या व्यवस्था यानी एक सिस्टम के अंतर्गत होती है। हमारी पृथ्वी और उससे जुड़ी घटनाएं भी इसी सिस्टम का एक बहुत छोटा सा भाग हैं। जन्म है तो मृत्यु भी अवश्यम्भावी है, फिर भी ऊर्जा अक्षुण्ण है! फ्रीज़र में बर्फ ठोस है, उससे बाहर सामान्य तापमान पर वह जल में बदल जाती है, आंच पर चढ़ाते हैं तो वाष्प बनकर दृष्टि से ओझल हो जाती है; पर उसका अस्तित्व तो विद्यमान रहता ही है, बस वाह्य रूप-रंग-आकार बदल जाता है और परिस्थितियां बदलने पर उसी वाष्प का उन्हीं प्रॉपर्टीज़ के साथ पुनः घनीकरण संभव होता है। खुशुबुदार धनिए का बीज बोने पर धनिए का पौधा निकलता, मिर्ची का बीज बोने पर मिर्ची का ही पौधा निकलता है। हम किसी को गाली देते हैं तो बदले में अनेक प्रकार की प्रतिक्रियाएं संभव हैं- १. दूसरा व्यक्ति तुरंत हमें गाली दे, २. वह हमें तमाचा या घूंसा जड़ दे, ३. वह अनेक वर्ष बाद हमें कुछ सबक सिखाए, ४. शायद वह किसी अन्य के माध्यम से हमें कोई क्षति पहुंचाए, ५. वह कुछ भी न करे परन्तु कभी भविष्य में जब हमें उसकी मदद की आवश्यकता हो तो वह मदद न करे, ६. भविष्य में जब हमारे साथ किसी अन्य प्रसंग में कुछ अनहोनी हो तो लोग कहें या हमें स्वयं लगे कि परोक्ष रूप से यह घटना हमारी क्रिया के फलस्वरूप बदली अवस्था में आयी एक प्रतिक्रिया! किसी जगह स्वच्छ जल या नदी आदि में जब हम प्रदूषण फैलाते हैं तो अनेक प्रकार से कम-ज्यादा मात्रा में तुरंत या विलंब से कुछ न कुछ नकारात्मक क्रिया होती अवश्य है यानी हमारी किसी भी क्रिया के फलस्वरूप उसी प्रकृति की प्रतिक्रिया होती है। प्रतिक्रिया त्वरित भी हो सकती है और विलंबित भी। हम पहाड़ों पर अंधाधुंध पेड़ काटते हैं तो भूस्खलन की सम्भावना को जन्म दे देते हैं, किसी गंजे पहाड़ पर वृक्षारोपण करते हैं तो उसे पुष्ट करने की बुनियाद रखते हैं; हमारी क्रिया की प्रतिक्रिया कब आएगी इसकी सही-सही गणना करने में हम अक्षम हैं, परन्तु विज्ञान के सिद्धांत हमें नकारात्मक सोच या कार्य करने की दशा में सचेत करते हैं कि देर-सवेर नकारात्मक प्रतिक्रिया झेलने के लिए तैयार रहना, वहीं दूसरी ओर सकारात्मक क्रिया की दशा में हमें सकारात्मक प्रतिक्रिया मिलने का १००% आश्वासन देते हैं। विज्ञान के सिद्धांतों से ही यह सिद्ध होता है कि हमारा सम्पूर्ण जीवनचक्र एक गूंज (echo) के समान है।

पहले के लोग आधुनिक विज्ञान से परिचित न होने के कारण यही बातें थोड़ी देहाती भाषा में कहते थे परन्तु उनमें अध्यात्म का पुट होता था, जैसे- किसी ८० वर्ष के बूढ़े को अच्छा दिखाई या सुनाई देने या उसके शारीरिक रूप से काफी स्वस्थ होने की दशा में तर्क सुनने को मिलते थे कि इसने बहुत सत्कर्म यानी अच्छी क्रियाएं की होंगी तभी तो बुढ़ापे में भी स्वस्थ है; किसी भ्रष्ट राजनेता या भ्रष्ट पुलिस वाले के आकस्मिक निधन पर यह सुनने को मिलता था कि पापी को उसके कर्म की सजा मिली; अनवरत क्रियाशील और ईमानदार व्यक्ति भी जब असफल रहता था और उसकी मृत्यु हो जाती थी, तब कहा जाता था कि उसके किए प्रयत्न व्यर्थ नहीं जायेंगे, एक दिन अवश्य रंग लायेंगे, वह फिर किसी अन्य रूप में लौटेगा और अपना कार्य अंजाम तक पहुंचायेगा। इन सब बातों के समर्थन में कोई तर्क या सबूत नहीं होते थे उस देहाती के पास, परन्तु अब वे सब हैं विज्ञान के पास। यद्यपि विज्ञान भी अभी तक उस सीमा तक नहीं पहुंचा कि सभी घटनाओं की व्याख्या स्पष्टतः कर सके, फिर भी उसके वर्तमान सिद्धांत प्रत्येक क्रिया से उपजने वाली प्रतिक्रिया की धुंधली तस्वीर प्रस्तुत करने के साथ ही ठोस आश्वासन देने में पर्याप्त रूप से समर्थ हैं। आध्यात्मिक सिद्धांत भी कभी यही किया करते थे। वे सिद्धांत यही कहते थे कि "हे मानव तू अभी इतना विकसित नहीं कि मेरी बारीकियों को ठीक से समझ पाए, परन्तु तू निःसंकोच हम पर विश्वास कर सकता है।" वेदांत में परमेश्वर ने और गीता में श्रीकृष्ण ने यही सब तो कहा था, परन्तु न तब हम समझदार थे और न अब तक हुए हैं। समस्या का मूल हमारा अहंकार था और है। अहंकारवश तब हम यह समझते रहे कि मैं ईश्वरीय सिस्टम की परिधि में नहीं आता शायद, और आज भी इसी ग़लतफ़हमी में हैं कि विज्ञान चाहे लाख सिद्धांत बता दे ब्रह्माण्ड व प्रकृति के सिस्टम के, परन्तु मैं तो इनकी परिधि से बाहर हूँ! इसी अहंकार के कारण हम जानकर भी अनजान हैं, जीवन जीने की वास्तविक कला से अनभिज्ञ और वंचित हैं। जिनमें अहंकार कम है या नहीं है केवल वे ही सचेत हैं और प्रकृति के नियमों की कद्र कर रहे हैं, क्योंकि वे जानते हैं कि प्रकृति का सिस्टम सबसे बड़ा और महत्वपूर्ण सिस्टम है; जो इस सिस्टम को सपोर्ट करेगा, उसे यह सिस्टम सपोर्ट करेगा और जो इसके खिलाफ जायेगा वह अंततः मिट जायेगा। बाइबल और कुरान में यह बहुत अच्छे से समझाया गया है, परन्तु जिन राष्ट्रों के लोगों ने भावार्थ समझा वे विकास की सीढ़ियाँ चढ़ रहे हैं और जो केवल शब्दार्थ तक सीमित रहे, वहां आज भी जंगलराज है।

पर एक बात निःसंकोच कहूंगा कि हम भारतीयों के पास उपरोक्त दोनों से श्रेष्ठ श्रेणी का और बहुत आगे का एडवांस ज्ञान मौजूद था। ध्यान से देखें तो ऊपर दिए विज्ञान के दो महत्वपूर्ण सिद्धांत भारतीय आध्यात्मिक ज्ञान का अनुसरण करते प्रतीत होंगे, कुछ नया नहीं है उनके पास कहने को; परन्तु एक बात तो है कि आज बुद्धिजीवी वर्ग की थोड़ी-बहुत जो भी श्रद्धा है किसी के प्रति, तो वह विज्ञान ही है! परन्तु आज हम थोड़ा विपरीत दिशा में जायेंगे- अध्यात्म की ओर! आगे को जाना हो तो इसका अन्य कोई विकल्प नहीं! हमारा अध्यात्मज्ञान पाश्चात्य आध्यात्मिक सिद्धांतों और विज्ञान से कई कदम आगे जाकर हमें सम्पूर्ण रूप से सचेत, सम्पूर्ण रूप से आश्वस्त, सम्पूर्ण रूप से आशावादी, सम्पूर्ण रूप से निर्भय करने के साथ ही जीवनचक्र को समझने में हमारी मदद करता है, जीवन जीने की कला सिखाता है। यह मृत्यु के प्रति हमारे भय को सदा के लिए समाप्त करता है और साथ ही रोगों, बुढ़ापे के कष्टों को दूर ढकेलने में भी हमारी मदद करता है, किसी भी परिस्थिति में हमको दुविधा और अवसाद में नहीं जाने देता, और सबसे बढ़कर यह कि अनवरत अच्छे कार्यों के लिए प्रोत्साहित करता है क्योंकि निश्चित ही सुखद घटनाओं के रूप में लगातार सकारात्मक प्रतिक्रियाएं हमें ऐसे ही कार्यों से मिल सकती हैं। और इन प्रतिक्रियाओं के हम तक आने की समयावधि तुरंत से लेकर अनंत तक हो सकती है। जैसे बैंक में हम जो भी जमा करते हैं, वह हमारे ट्रांसफर होने की दशा में हमारे साथ ही स्थानांतरित हो जाता है, वह हमें कभी भी मिल सकता है; बैंक के लॉकर में जो भी वस्तुएं हम रखते हैं, अच्छी हों या बुरी, वे हमारी ही घोषित होती हैं, उनसे लाभ या हानि, यश या अपयश हमें ही मिलेगा। ठीक इसी प्रकार हमारे कोई भी क्रिया करते ही उससे मिलने वाली प्रतिक्रिया भी निश्चित हो जाती है, अब वह कब मिलेगी और किस रूप में, इसकी गणना करने में हम मानव असमर्थ हैं। यह ठीक वैसे ही है कि प्रकृति के नियमों के साथ खिलवाड़ करने पर या भू-संसाधनों का अंधाधुंध दोहन करने पर किस प्राकृतिक आपदा के रूप में कब हम पर प्रतिक्रियात्मक बिजली गिरेगी, इसका ठीक-ठीक अनुमान लगा पाना या गणना कर पाना बहुत कठिन है, परन्तु विज्ञान हमें इतना तो बताता ही है कि ऐसा होना निश्चित है।

इन सब तथ्यों से एक बात तो ठोस रूप से उभर कर आती ही है कि मोटे तौर पर केवल दो तरह की क्रियाएं होती हैं- सही या गलत अर्थात् अच्छी या बुरी यानी सकारात्मक या नकारात्मक; और उनके फलस्वरूप तदनुरूप प्रतिक्रियाओं की निश्चित सम्भावना बनती है, और सही वक्त पर सही माध्यम के द्वारा उनका प्रकटीकरण होता है, समयावधि एवं माध्यम से हम लगभग अनभिज्ञ ही रहते हैं। अध्यात्म और विज्ञान दोनों एक स्वर में यह बात बोलते हैं। तो फिर हम इतने अहंकार में क्यों हैं, इतना अचेत क्यों हैं? जैसे पहले हम भगवान को भी धोखा देने की कोशिश करते आए हैं, सौ चूहे खाकर बिल्ली हज को जाती रही है, ठीक वैसे ही आज हम विज्ञान के अकाट्य सिद्धांतों को अपने ऊपर लागू करने से कतरा रहे हैं। अरे, हम कहीं तो फंसें- आध्यात्मिकी सिद्धांतों में या फिर वैज्ञानिक सिद्धांतों में! मैं किसी परिधि में नहीं आता, ऐसा बोलना तो अतिरेक है, यह आसुरी अहंकार का द्योतक है। अंत में एक प्रश्न जोर से कौंधता है कि क्या सही है और क्या गलत; क्या सकारात्मक है और क्या नकारात्मक? सारांश में उत्तर यह कि- "ऐसा कोई भी कार्य एवं सोच, जो स्वयं सहित समस्त अन्य लोगों को अपरोक्ष अथवा परोक्ष रूप से बलात् शारीरिक, मानसिक, सामाजिक या आध्यात्मिक आघात पहुंचाए, वह गलत है; शेष सब ठीक है।" एक तीसरे व्यक्ति के रूप में बिलकुल तटस्थ होकर अपने विचारों एवं कार्यों का आंकलन करें, तो आपको स्वयं एहसास होगा कि अब तक क्या होता रहा, और यह भी एहसास होगा कि अब क्या होना चाहिए जो अध्यात्म और विज्ञान दोनों या किसी एक की ही सिफारिशों, सलाहों, संस्तुति व अनुमोदनों के अनुरूप हो। शेष विस्तार से जानकारी आप विशुद्ध आध्यात्मिक बैठकों यानी खरे सत्संगों में जाकर या फिर विज्ञान को गहराई से समझकर बखूबी ले सकते हैं। आगे परिणाम इस पर निर्भर करता है कि आप कितनी मात्रा में उस समझ को अपने जीवन में लागू करते हैं, और लागू करना इस पर निर्भर करता है कि आप कितना अधिक वास्तविकता में जीते हैं, और वास्तविकता में रहना इस पर निर्भर करता है कि आप अपने अहंकार को कितना न्यून करते हैं। इति।