Friday, January 1, 2016

(६३) सचेतक टिप्पणी संग्रह- ६

मेरे और पाठकों के बीच संवादों की एक श्रृंखला

(१)
पूरा दोष आयातित संस्कृति का नहीं, बल्कि दोष हमारे विवेक का है कि हम उस संस्कृति का केवल आधा-अधूरा वह ही अंश ग्रहण करते हैं जो हानिकारक है; सकारात्मक पक्ष को हम प्रायः अनदेखा करते हैं. विदेशी संस्कृति की भोग, विलास, आराम से जुडी हुई चीजें ही हमें भाती हैं, जो हमें अकर्मण्य, भ्रष्ट या व्यर्थ में ही व्यस्त करती हैं यानी मानसिकता को दूषित करती हैं; जबकि उसी आयातित संस्कृति के कर्म, कर्तव्य, अनुशासन, जिम्मेदारी, शिष्टाचार आदि से जुड़े सार्थक पहलुओं को हम अनदेखा ही कर देते हैं.
यदि हमें वास्तव में आगे बढ़ना है तो किसी भी विकसित सभ्यता के सकारात्मक पक्ष को आंकना आना चाहिए. किसी भी ठोस विकास के पीछे नकारात्मकता से अधिक अंश में सकारात्मकता होती है. सकारात्मकता के अधिक होने पर ही चरित्र व राष्ट्र का विकास संभव होता है. ...और वह हम भारतवासियों को दिखती नहीं, यही आज की त्रासदी है!

(२)
आमतौर पर बचपन में हमारा ६० प्रतिशत से अधिक समय घर पर पारिवारिक सदस्यों के बीच ही गुजरता है और हमें 'अच्छा या बुरा' मानसिक पोषण वहीँ से अधिक मात्रा में मिलता है, तदनुरूप व्यक्तित्व की बुनियाद बनती है. ..और यदि उसमें प्रदूषण अधिक हुआ तो आने वाली पीढ़ी की, वर्तमान से भी अधिक भ्रष्ट होने की प्रबल सम्भावना बनती है. ..हमारे यहाँ उत्तरोत्तर ऐसा ही हो रहा है. हमें सचेत होना होगा और कुछ ठोस कदम उठाना भी होगा.

(३)
वैचारिक मतभेद तो होगा ही यदि हम मन में पहले से कोई धारणा बनाकर चलते हैं, ..और प्रत्येक सामान्य व्यक्ति के मन में कोई न कोई पूर्वस्थापित धारणा होती अवश्य है- कम-ज्यादा मात्रा में हो सकती है. ..कुछ लेखों को पढ़ने का मजा तभी है जब हम उन धारणाओं को कुछ समय के लिए एक किनारे रखें, और कुछ नई अनुभूति महसूस करें; क्योंकि ऐसे लेख मात्र कुछ लिखने के लिए ही नहीं लिखे जाते, वरन वे अनुभवों और अनुभूतियों पर आधारित होते हैं.

(४)
आपने पीछे छुपे बीज या मंतव्य को खूब पहचाना. एक निर्विवादित ग्लोबल धर्म की संभावनाएं टटोलना और स्मूथली उस तक पहुंचना, यही लक्ष्य है. पार्शियल होने का कोई प्रश्न ही नहीं, पर अभियान की कहीं से तो शुरुआत करनी ही पड़ती है, और इस कारण प्रारंभ में वह (अभियान) कुछ पार्शियल प्रतीत हो सकता है. परन्तु विश्वास दिलाता हूँ कि उत्तरोत्तर सार्वभौमिक नैतिक गुणों की छाया में इसमें प्रासंगिक विज्ञान का दखल भी बढ़ेगा. चूँकि इरादे नेक हैं, अतः कुछ सार्थक होने की आशा बलवती है. अंकुरण कब होगा यह तो मालुम नहीं, परन्तु होगा तो अवश्य यह दृढ़ विश्वास.

(५)
आपकी बातों से या उनके मंतव्य से मैं सहमत नहीं. यदि कोई व्यक्ति मात्र 'दुरूह कर्मकाण्ड' कर देश का प्रधानमंत्री बन सकता है तो देश में ऐसे-ऐसे सिरफिरे बैठे हैं जो इस अभीष्ट की प्राप्ति हेतु अपना, आपका या मेरा शीश भी काटने में तनिक भी न हिचकेंगे, यदि उस कर्मकाण्ड की अधिकतम मांग यह भी है तो!
यदि ऐसा होना संभव होता तो पता नहीं इस देश का (में) क्या होता?
मेरे विचार से 'कर्मकांड' वह धार्मिक कृत्य है जो हमें कतिपय परिस्थितियों में योग्य कर्म हेतु प्रेरणा, साहस व संकल्प देता है. ..और हम निर्भय होकर प्रयास (कर्म) करते हैं और एक दिन अभीष्ट की प्राप्ति में सफल होते हैं.
यानी अभीष्ट की प्राप्ति हेतु कदाचित् प्रेरणा या आत्मबल तो कर्मकाण्ड प्रदान कर सकता है, परन्तु उसके पश्चात् "योग्य कर्म" (योग्य प्रयास, मेहनत, क्रिया) करना हमारे लिए अत्यावश्यक होता है.
..और यदि हम "कर्मकाण्ड" जैसे अवलंब के बिना ही "योग्य कर्म" के लिए प्रेरित हो सकें तो कितना अच्छा! ...और दिखावटी कर्मकांडों से तो हमें बहुत दूरी बनाने की आवश्यकता!
कोई भी बैसाखी के सहारे नहीं चलना चाहता, तो फिर हम क्यों चलें? बच्चे को भी १-२ वर्ष की अवस्था तक सहारा दिया जाता है, फिर वह स्वयं चल सकता है! ..और यदि समर्थता आ जाने के बाद भी वह सहारा लेकर ही चलता है तो लोग उसपर हँसते हैं!
हम बलवान हैं, हमें झूठे सहारों की आवश्यकता नहीं! यह वाक्य अहंकार नहीं वरन गर्व का सूचक है!

(६)
भावना व निष्ठा की बात खूब कही आपने! मैं सहमत हूँ आपसे.
प्रत्येक स्थान पर सुधार होने के बजाय दोष घुस आने की बात भी सही है आपकी.
हर विकसित देश आज इसीलिए विकसित है क्योंकि सुधार, संकल्प, भावना व निष्ठा से ही असली विकास होता है और वे वहां होंगे अवश्य, यह अलग बात कि हम न मानें!

(७)
क्षमा चाहता हूँ एक धृष्टता के लिए, कि समय काटने के लिए कोरे तर्क-वितर्क करना मेरी फितरत में नहीं!
हाँ, सार्थक बिंदु तक पहुँचने हेतु जितने भी तर्क-वितर्क हों, उतना ही अच्छा.

(८)
"यदि कुछ लोग कहते हैं कि वे अपेक्षाकृत सूक्ष्मतर आध्यात्मिक जगत में पहुंच चुके हैं, तो मैं बेहिचक उनसे कहूँगा कि वे अब कर्मकाण्डों का परित्याग कर दें, परन्तु उन कर्मकाण्डों के प्रति हीन भावना न रखें"
जी बिलकुल, क्योंकि हम सभी एक-एक कक्षा कर ऊपर की ओर बढ़ते हैं! और पिछली कक्षाओं के अध्यापकों और विद्यार्थियों के लिए अच्छी भावना रखते हैं. अच्छे नम्बरों से उत्तीर्ण होने के बाद भी उसी कक्षा में रुके रहने की जिद करना नादानी या बेवकूफी कही जाती है! हाँ, शीर्ष पर कुछ देर रुकने का मन अवश्य करता है और रुकना भी चाहिए; पर नीचे वालों के लिए दिल में आदर लिए.