Tuesday, January 19, 2016

(६५) सचेतक टिप्पणी संग्रह- ८

मेरे और पाठकों के बीच संवादों की एक श्रृंखला

(१)
आपने कहा- "वे अपने माता पिता का दुःख दर्द तो समझ सकती हैं पर सास ससुर का क्यों नहीं शायद इसलिए वे कभी २४ घंटे सास ससुर के पास हैं और मायके कभी कभी आती हैं इसलिए उन्हें अपने माता पिता का दुःख तो नजर आ जाता है पर सास ससुर का नहीं ?"
..मेरे विचार से वास्तव में ऐसा नहीं है क्योंकि विवाह से पहले बेटी २४ घंटे अपने माता-पिता के साथ वर्षों तक रही होती है, उनके प्रति उसका स्नेह बचपन से बना होता है जबकि सास-ससुर के साथ उसकी भेंट और रहना उसके लिए एक नई शुरुआत होती है. इसमें बहुत सारी समझदारी, परिपक्वता और मानवीय संवेदनाओं को समझने की आवश्यकता होती है- माता-पिता, सास-ससुर, पति, बहू इन सब को. ..अशुभ तब होता है जब इनमें से कोई एक भी परस्पर रिश्तों की गहराई को समझने-समझाने का, त्याग का, परस्पर स्नेह का, एक-दूसरे की परवाह का, मानवीयता के मान रखने का गंभीर प्रयत्न नहीं करता. उपरोक्त रिश्तों में तीन स्त्रियाँ हैं और तीन पुरुष. इनमें से कोई भी आग लगा सकता है और कोई भी आग लगने के समस्त कारणों को समाप्त कर सकता है, यदि वह ठान ले तो..! ..और क्या ही अच्छा हो कि इसकी शिक्षा हमें (लड़का-लड़की दोनों को) बचपन से ही सुसंस्कार के रूप में मिले. ..सचेत रहें कि बचपन में दिए गए या मिले अच्छे या बुरे संस्कार सुकोमल मनों पर शीघ्रता से और दीर्घकाल के लिए अंकित हो जाते हैं, ..और हमारी वृत्ति वैसी ही बन जाती है, और वह वृत्ति हमारे प्रत्येक क्रियाकलाप में प्रतिबिंबित होती है.

(२)
उपरोक्त कुछएक अपवादों को छोड़ दें तो हमारे उत्तरप्रदेश व अन्य कुछ हिन्दीभाषी प्रदेशों के अधिकांश लोग बचपन से रिटायरमेंट तक का जीवन यंत्रवत व औपचारिक रूप से बिताते हैं, लगभग मूल्य-विहीन! ..तो बुढ़ापे में शारीरिक और मानसिक दुर्बलताओं के बीच क्या खाक नई शुरुआत कर पाएंगे वे ? अधिकांश को जवानी में जब अच्छी व सकारात्मक सोच अपनाने को कहो तो कहते हैं अभी कमा-धमा लें, यह सब रिटायरमेंट के बाद देखेंगे! ..और बाद में कुछ भी नया और खासतौर पर वह जो आपकी वृत्ति के विपरीत हो, शुरू करना बहुत कठिन होता है. ..पुनः यह ध्यान रहे कि वृत्ति नींव बहुधा बचपन में ही पड़ती है.

(३)
आपने ठीक कहा. निश्चित ही पुरुषों में भी भावनाएं व कोमलताएं कूट-कूट कर भरी होती हैं, ..परन्तु बीज रूप में ! दुर्भाग्य कि हमारे मौजूदा समाज में इन बीजों को पोषक वातावरण देने की परंपरा नहीं है, जिससे इनका अंकुरण संभव हो सके. ..यही कारण है कि 'हमारे' समाज के अधिसंख्य पुरुष 'घातक मानसिकता' के होते / दीखते हैं. ..अब तो स्त्रियाँ भी इसी राह पर चल पड़ी हैं, उनमें भी साइकोसोमेटिक रोगों की संख्या में बढ़ोत्तरी हो रही है!

(४)
आपका कहना है- "अभिजातवर्ग ही आगे क्यों आये पहल करने?" ..'क्यों?' ..यह शब्द बहुत सरल सा है किसी भी चर्चा को आगे बढ़ाने हेतु!
यदि आप अपने परिवार की एक बड़ी, समझदार, जिम्मेदार एवं साथ ही सामर्थ्यशाली सदस्य हैं और आपको परिवार की फ़िक्र है तो फिर निश्चित ही परिवार की 'सर्वांगीण' उन्नति हेतु आप आगे आयेंगी ही. किसी भी टीम या जहाज का कप्तान भी तो यही करता है. वह आगे बढ़कर जिम्मेदारी लेता है और शेष टीम को लीड करता है उसे सर्वोच्चता या लक्ष्य तक तक पहुँचाने के लिए. वह समझता है कि उसके श्रम, मेहनत और किस्मत के गठजोड़ से उसे यह जिम्मेदारी मिल पाई है सो उसे लगनपूर्वक निभाता है जिससे कि उसके पद और उसकी जिम्मेदारी की सार्थकता सिद्ध हो सके. गरिमा के अनुकूल कार्य संपादन से उसे आन्तरिक सुखद अनुभूति होती है और दुनिया भी उसे चिरकाल तक याद रखती है. ..यदि उसके कोई इष्ट भगवान् हों तो अवश्य ही वह भी उसके इन्हीं कृत्यों से वास्तव में प्रसन्न होते हैं! संक्षेप में प्रथमतः इन्हीं बातों पर गौर करके अभिजात वर्ग अपना कर्तव्य निबाहने को उद्यत हो सकता है. ..वैसे इसके बाद भी अनेकों "क्यों?" की गुंजाइश रहती है और रहेगी, यदि हम प्रत्येक बात में अबोध बने रहते हैं!

(५)
आपने बिलकुल सही कहा कि "मानवीय अधिकार को रुढिवादिता और अंध श्रध्दा के नाम पर किसी चीज़ को किसी पर थोपे जाने से रोकने तक नहीं सीमित किया जाना चाहिए, बल्कि प्रत्येक व्यक्ति को (एक हद तक) उसकी परंपरा संस्कृति और और धर्म का पालन करने का भी पूरा अधिकार होता है."
...परन्तु हर किसी व्यक्ति को इस बात का भी ध्यान रखना चाहिए कि क्या वह दूसरे की सभ्यता, संस्कृति व धार्मिक विश्वास का आदर भी करता है या नहीं? ...और वह उसके घर जाकर उसके माहौल के हिसाब से रहने का प्रयास भी करता है या नहीं? ...यदि हम दूसरे की सभ्यता को कुछ नहीं समझते, उसको सदैव तुच्छ साबित करने की कोशिश में रहते हैं, और अपने से जुडी हर चीज को ही सर्वोत्तम मानते हैं तो हम अन्धश्रद्ध कट्टर कहलाते हैं, ..और तब परस्पर सहिष्णुता को कमजोर करने का कारण बनते हैं!
मेरे हिसाब से कोई भी प्राचीन धर्म वहां के लोगों की उस समय की ज़रूरत के हिसाब से लिखे नीतिवचन हैं. प्राचीनकाल में प्रत्येक स्थान के लोगों की परिस्थितियों में भिन्नताएं थीं, सो प्रत्येक समुदाय के नीतिवचनों में शिक्षाएं, वरीयताएं भिन्न थीं.
पहले साधारण मानव अति सीमित था- शायद केवल अपने कबीले तक, ..अब सम्पूर्ण विश्व के लोग एक-दूसरे के सम्पर्क में आ चुके हैं. ...धार्मिक विश्वासों के रूप में अपनी-अपनी प्राचीन धरोहरें भी सबके पास हैं, ...परन्तु अधिकांश अभी तक बेड़ियों में जकड़े हैं, अपने ज्ञान को विस्तार ही नहीं देना चाहते, ..कुछ की पूर्वकाल में रही 'देह उघाड़ने' की संस्कृति भी बढ़ रही है और कुछ की 'पर्दे' की संस्कृति भी! प्रत्येक जन कुंए का मेंढक बना बैठा है. अब वर्तमान में हमारी वास्तविक आवश्यकता क्या है जो हमें असल सुकून दे पाए, इस पर किसी का ध्यान नहीं!
..शायद नीतिवचनों को समयानुसार फिर से लिखे जाने की ज़रूरत है!

(६)
कमेंट्स के रूप में चर्चा बहुत अच्छी हो रही है. ...मेरे विचार से लोगों की खान-पान पद्धति पर जलवायु और कार्य की परिस्थितियों का बहुत गहरा असर पड़ता है। कुछ गर्म परन्तु तटीय क्षेत्रों में, मरुस्थलों में , बंजर भूभागों में व पर्वतीय क्षेत्रों आदि में खेती बहुत दुरूह या असंभव होती है, अतः वहां के निवासियों को अनाज, दालें, खाद्य वनस्पतियाँ सरलता से उपलब्ध नहीं होतीं और वे अधिकतर सामिष भोजन पर ही निर्भर रहते हैं। कार्य की परिस्थितियों, जैसे- जो सात्त्विक माहौल में रहते हैं, ब्राह्मण वर्ण का कार्य करते हैं, धर्म-शिक्षण या विद्यादान आदि की सेवा करते हैं, उन्हें शारीरिक श्रम अधिक नहीं करना पड़ता, अतः वे सामान्य निरामिष भोजन पर आश्रित रह अपने शरीर को स्वस्थ रख सकते हैं। सामिष भोजन व तम्बाकू, मद्य आदि रज-तमात्मक हैं। संभवतः इसीलिए संस्कृति व धर्मानुसार भी ब्राह्मण वर्ण में सामिष भोजन व धूम्र / मद्यपान आदि वर्जित माना गया है! पर जिन लोगों को लगातार रज और तम की परिस्थितियों में रहकर कठोर श्रम करना पड़ता है, उन्हें रज व तम के प्रभाव से जूझने हेतु रज-तमात्मक भोजन की आवश्यकता पड़ती है। पुरानी कहावत है - लोहे को लोहा ही काट सकता है! बहुत अधिक शारीरिक श्रम एवं कठोर व विषम कार्य परिस्थितियों के बीच कार्य करने वाले व्यक्तियों को तुंरत व अधिक बल-उर्जा आदि हेतु सामिष भोजन व अन्य मद्य, तम्बाकू जैसे उत्तेजक पदार्थों का सीमित सेवन करना कभी-कभी अपरिहार्य हो जाता है। पर जागरूक, सुसंस्कृत व सचेत रहने वाले इन पदार्थों के 'अनिष्टकारी पहलुओं' से यथासंभव बचे रहते हैं। इन परिस्थितियों में कार्य करने वालों के उदाहरण के रूप में हम मुख्यतः सैनिकों व अन्य क्षात्र-वर्ग तथा कुछ हद तक वैश्य व शूद्र-वर्ग को भी ले सकते हैं। परन्तु गौर करें कि भारत में रज-तमात्मक परिस्थितियों में कार्य करने वालों में मुख्यतः या केवल भारतीय सेना के लोग ही स्थिति-अनुरूप आवश्यक रज-तमात्मक वस्तुओं का नियमित सेवन करने के बावजूद 'सुसभ्य व जागरूक' हैं; अन्य क्षात्र वर्ग, वैश्य वर्ग या शूद्र वर्ग में सेवन के मामले में 'अनुशासनहीनता व अति' दिखाई पड़ती है। संभवतः यह हमारी संस्कृति की ही कमी है या हम परिपक्व नहीं हैं।