Saturday, April 30, 2016

(७०) सचेतक टिप्पणी संग्रह- १३

मेरे और पाठकों के बीच संवादों की एक श्रृंखला

(१)
प्राथमिक कक्षाओं के समस्त संकल्पों-विकल्पों को क्रमशः त्याग कर ही हम सर्वोच्च कक्षा तक पहुँच सकते हैं; काश, यह सबको पता चल जाए और बिना पुनः गिरे हम इस सच पर स्थिर रह पाएं! ऐसा हो जाए तो फिर कलियुग का अंत निश्चित है और सतयुग बाहें फैलाकर हमारा स्वागत करेगा!

(२)
धर्मोपदेशक या मजहबी-शिक्षक का कार्य बहुत ऊंचे दर्जे का है व समाज भी इनके प्रति विशिष्ट आदर-भाव रखता है, थोड़ा लोभ और भय मिश्रित ही सही। तो इन धर्मोपदेशकों का मूल उद्देश्य यही होना चाहिए और यही होता भी था प्राचीनकाल में कि सामान्य लोगों को लोभ व भय से परे ले जाकर, दण्ड-परितोष की भावना से मुक्त करा कर, संघ में सच्चे धर्म (righteousness) की स्थापना करना तथा उसकी खराई को अक्षुण्ण रखना; स्वयं के एवं अन्यों के ज्ञान में लगातार वृद्धि कर निरंतर अल्लाह या प्रकृति के नियमों के और अधिक समीप पहुँचते जाना; धर्म के वाह्य स्वरूप के अवांछित तत्वों व भय-मिश्रित अंधविश्वासों की बेड़ियों को लगातार काटना, आदि-आदि। सारांश में यह कि ज्ञान की अगली कक्षाओं में अनवरत अग्रसर होते / करते जाना।
परन्तु आज ऐसा कुछ भी नहीं दिखाई पड़ रहा है। विभिन्न मजहबी संगठन खुदा व धर्म को और अधिक जटिल बनाने व दुरूह साबित करने में लगे हैं। बजाय अंधविश्वासों को दूर करने के, वे और अधिक अंधविश्वास बढ़ाने में लगे हैं। कारण स्पष्ट है कि आम लोगों को जब धर्म बहुत जटिल व साथ ही भौतिक लाभ पहुंचाने वाला लगेगा तब वे लोभवश इसकी ओर सहज ही आकृष्ट होंगे तथा दुरुहता जान पड़ने के कारण माध्यम बनेंगे आज के तथाकथित मजहबी संगठन व उनसे सम्बद्ध व्यवसायिक धर्मगुरु।
आखिर कब हम सचेत होंगे?

(३)
गलत के खिलाफ आपका रोष जायज है एवं साथ ही आपका दर्द भी समझा जा सकता है.
मोबाइल कम्पनियों की भी होड़, आक्रामक विज्ञापन, अन्य निरुपयोगी सुविधाओं की आदत डलवाना, छुपे खर्च, कामचलाऊ गुणवत्ता, आदि किसी से छुपे नहीं हैं. बेवकूफ बना कर पैसा बटोरने का खेल चल ही रहा है, तो बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ भी क्यों पीछे रहेंगी? जिस मूल देश से वे सम्बन्ध रखती हैं वहां तो उनका कार्य साफ-सुथरा है, पर भारत में चूँकि भ्रष्टाचार खूब है, अतः यहाँ वे भी चाँदी काट रहीं हैं. बहती गंगा में सब हाथ धो रहे हैं. ..और तो और, हमारे देश की मौजूदा प्रतिभाएं भी इसमें उनकी सहायक सिद्ध हो रही हैं, उदाहरण के लिए बिज़नस मैनेजमेंट (MBA) की पढाई किये लोगों को आज प्राइवेट सेक्टर में जो नौकरियां मिल रही हैं, उनमें अधिकांशतः उनका काम यही होता है कि झूठ-फरेब से भरी मनमोहक और पेचीदा प्रमोशनल स्कीमें कैसे बनाई जायें! ...कैसे भी हो पर पैसा आना चाहिए, भारी टर्नओवर होना चाहिए, चाहे इसके लिए कितने ही झूठे सब्जबाग क्यों न दिखाने पड़ें! भारत में आज यह व्यापार का मूल सिद्धांत बन गया है! ..कहीं न कहीं हमारी या हमारे कुछ अपनों की भी इस कुचक्र में सहभागिता है, ..और वह भी हमारी सहमती से! तटस्थ भाव से ईमानदार अवलोकन की आवश्यकता है!

(४)
कुरीतियों के खिलाफ आपका रोष, विरोध एवं विद्रोह बिलकुल जायज है. ..जिन रीतियों का आज के परिपेक्ष्य में कोई औचित्य नहीं और उनको बस किसी प्रकार से निभाना, लकीर के फ़क़ीर बनने समान है. बदलावों हेतु आपने बहुत ही अच्छे सुझाव दिए हैं. मेरा सल्यूट!
परन्तु, कुछ बदलने के लिए यदि हम क्रोध में दूसरे के कृत्य को कोसते हुए कुछ अलग बात रखेंगे तो हमारी बात कोई नहीं मानेगा! क्योंकि हर एक व्यक्ति की अपनी कुछ न कुछ इगो (अहं) है और जब वह हर्ट होती है तो सामने वाला अपने दिमाग के सभी खिड़की-दरवाजे बंद कर लेता है! ...अपने बच्चों को समझाते हुए क्या हम इस बात का ध्यान नहीं रखते? उनके अपरिपक्व स्वभाव को बदलने हेतु हम कोमलता से सुतर्क देते हैं, सही बात को विभिन्न कोणों से समझाते हैं, और इस प्रकार धीरे-धीरे वे परिपक्व सोच के धनी हो जाते हैं.
हमें धैर्य और कोमलता, नम्रता आदि का दामन नहीं छोड़ना है और अपनी बात भी रखनी है, और सामने वाले के स्तर का भी ध्यान रखना है. ...और यह सब साधते हुए सब सध सकता है, इस उम्मीद को बरक़रार रखना है.
सभी अपने ही हैं, कोई पराया नहीं; कोई आज किसी निचली कक्षा में पढ़ रहा है तो आप जैसा कोई ऊपर की कक्षा में पहुँच चुका है, बहुत से लोग बीच की कक्षाओं में भी हैं. कुछ एक ही कक्षा में बहुत दिन से रुके हुए हैं तो कई निरंतर आगे की कक्षाओं में अग्रसर होते जा रहे हैं. ...हम ऐसे सोचें तो बिना किसी द्वेष के हम समस्त जनों को ऊपर की ओर ले जाने में अवश्य कामयाब होंगे.

(५)
आपने एक बात कही कि "एक चिकित्सक को भी मरीज के हित के लिये शरीर की चीर-फाड [आपरेशन] भी करना पड़ता है, भले ही मरीज उसको पसंद न करे!"
इसमें थोड़ा सा सकारात्मक एवं आशावादी संशोधन-
मरीज को भी जब अपने किसी एक सड़े अंग से यह खतरा बन जाता है कि उसके कारण उसका शेष शरीर भी इन्फेक्टेड हो सकता है तो वह स्वेच्छा से उस अंग को कटवाने सर्जन के पास पहुँच जाता है.
हमें सड़ांध के प्रति जाग्रति लानी होगी, फिर व्यक्ति स्वयं जागरूक होकर परिष्कृत होने का यत्न करेगा ही. किसी अंग के काटे जाने की नौबत आने से पूर्व ही उसे ठीक करने या करवाने का प्रयास करेगा.
इसी प्रकार सामाजिक कुरीतियों को भी बलात् दूर करने का प्रयास उत्तम नहीं, बल्कि उत्तम यह होगा कि हम लेखक संजीदगी के साथ ऐसा आईना पेश करें, जिसमें दाग दिखाई पड़ें. ..जब दाग दिखाई पडेंगे, समझ में आयेंगे, तो व्यक्ति उन्हें स्वतः ही साफ़ करेगा या करवाएगा.
सड़े दांत को कोई भी डेंटिस्ट निकाल सकता है, परन्तु काबिल डेंटिस्ट वही कहलाता है जिसने अपने प्रोफेशनल जीवन में न्यूनतम दांतों को निकाला और अधिकतम दांतों को सुधारा.
पूरी तरह से सड़े दांतों को निकालिए, कोई हर्ज नहीं; पर कुछ दांतों को पूरी तरह से सड़ने के पूर्व सुधारिए भी!
अब उत्तर में यह न कहियेगा कि "मैं कोई डेंटिस्ट नहीं!"