Saturday, October 22, 2016

(७६) हमें चीन से खतरा क्यों

आजकल टीवी और सोशल मीडिया में एक मुद्दा जोरों पर है कि "चीन से भारत को गंभीर खतरा है। चीन पाकिस्तान को मदद कर रहा है। चीन को अमीर बनाने में चीनी उत्पाद खरीदने के रूप में भारत का बहुत योगदान हो रहा है; चीनी चीजों का बहिष्कार किया जाये।"
भय का एक वातावरण बन गया है। आननफानन में बयानबाजियां और विभिन्न आन्दोलनों जैसी गतिविधियाँ चल रही हैं। इस विषय में पिछली ब्लॉग पोस्ट में मैंने भी कुछ लिखा था।

जरा सोचिए, डर हमें किससे लगता है; या कौन हमें डरा सकता है? उत्तर होगा, "हमसे अधिक शक्तिशाली व्यक्ति या संघ"।

इस डर से मुक्त होने के लिए हम क्या कर सकते हैं? उत्तर में संभावित विकल्प होंगे-
(१) उस शक्तिशाली को मार ही डालें या किसी से मरवा दें।
(२) उसे किसी प्रकार से शक्तिहीन अथवा बीमार कर या करवा दें।
(३) कूटनीति से उसे अलग-थलग कर दें।
(४) हम स्वयं को इतना पुष्ट एवं शक्तिशाली बनायें कि हमें उससे भय ही न लगे, या वो हमें डराने अथवा क्षति पहुँचाने से पहले दस बार सोचे!

मेरे विचार से उल्टा क्रम अपनाना उचित रहेगा। यानी सबसे पहले विकल्प संख्या (४), फिर (३), फिर (२), और अंतिम विकल्प के रूप में (१)।
लेकिन हमारा वर्तमान क्रम जो मुझे लोगों के कथनों से दिखता है, वो है- (२), (३), (१), (४)।
चौथा विकल्प अंतिम पायदान पर क्यों? उस पर विश्वास दिखाने जैसे सन्देश तो दिखते नहीं हैं मीडिया में! क्या आपको दिखते हैं?

इसमें किसी को भी संदेह न होगा कि 'वर्तमान' में चीन हमसे अधिक विकसित देश है। कुछ वर्ष पूर्व का सफल ओलंपिक आयोजन, सड़कों और तीव्रगामी  ट्रेनों का संजाल, हर प्रकार के उत्पादों के अत्याधुनिक कल-कारखाने, विशाल उत्पादक क्षमता, गुणवत्ता, अनुशासन, बेहतर सिस्टम, हमारे यहाँ की अपेक्षा काफी कम भ्रष्टाचार, काफी हद तक आत्मनिर्भरता, सच्चा राष्ट्रप्रेम, बोलने से अधिक करने की प्रवृत्ति, आदि कुछ मोटे मुद्दे इस बात की पुष्टि करते हैं।

तो अब उचित तो यही होगा कि हम पड़ोसी की इन उपरोक्त वर्णित खूबियों को अपने यहाँ विकसित ‌करें ओर साथ ही नीतिवान भी बनें। जो शक्तिशाली हो और साथ ही नीतिवान भी, बहुतायत उसी का अनुसरण व अनुगमन करती है; यह एक जाना-माना सत्य है। और हमारा राष्ट्र भारत, दुनिया का नेतृत्व कर सकता है; और वो करेगा। अतएव ऊपर दिए चार विकल्पों में से चौथे विकल्प पर सबसे अधिक विश्वास दिखाएं और उसपर अमल करने में जुट जाएं।
सकारात्मक निर्माण की बात सोचेंगे और करेंगे तो शक्तिशाली बनेंगे, और साथ ही विध्वंस की बात को त्यागेंगे या निचली वरीयता पर रखेंगे तो नीतिवान भी कहलायेंगे।
स्मरण रहे कि प्राकृतिक संसाधन, क्षेत्रफल, युवा जनसंख्या, मेधा आदि की दृष्टि से हम किसी भी प्रकार से चीन से कमतर नहीं हैं। कमतर हैं तो मानसिकता में ही, जैसे-अति भावुकता (उन्माद की हद तक पहुंचना), बहुत बोलना, कम काम को भी बढचढ कर दिखाना, पर्याप्त ईमानदारी का अभाव, स्वहित तक सीमित रहना, समय का उचित प्रबंधन न करना, अनुशासनबद्धता की कमी, इन्टरनेट मोबाइल जैसे गैजेट्स का अकारण व अत्यधिक प्रयोग, आभासी दुनिया में लीनता, नैतिक मूल्यों की कम समझ या न समझने की प्रवृत्ति, रिश्तों के प्रति उदासीनता, यंत्रवत जीवनशैली, भ्रष्ट एवं बेहद धीमी गति का सरकारी सिस्टम, बिना अपेक्षित गुणवत्ता दिए मात्र लाभ पर ही केन्द्रित निजी कम्पनियां, बुनियादी शिक्षा एवं चिकित्सा आदि का बीमार एवं भ्रष्ट ढांचा, अंतिम समय पर काम करने की प्रवृत्ति, गांवों और कृषिकार्य से ग्रामीणों की विमुखता आदि।
और इन सब की तह में एक ही कारणभूत कारण है, वो है- हमारे समग्र समाज में असल जीवन से जुड़े आध्यात्मिक अथवा नैतिक मूल्यों का ह्रास या घटाव।
व्हाट्सएप पर केवल सन्देश फैलाने से कुछ नहीं होगा। सभी कुछ करेंगे तभी सब ऊपर उठेंगे, राष्ट्र शक्तिशाली होगा नैतिकता की छाँव में! फिर चीन का भय भी जाता रहेगा। इति।

Tuesday, October 4, 2016

(७५) हमारी भेड़चाल

हमारे यहाँ सोशल मीडिया विशेषकर व्हाट्सएप आदि पर अक्सर कुछ अंधविश्वासों को बढ़ावा देने वाले अथवा भय या अफवाहों को बढ़ावा देने वाले संदेश दिखाई पड़ जाते हैं। उदाहरण के लिए कोई धार्मिक सन्देश, जिसके अंत में यह लिखा होता है कि "इसे कम से कम १० लोगों या ग्रुप्स में भेजो अन्यथा आपके साथ कोई अनिष्ट होगा।" या, "अमुक तारीख को रात्रि में अमुक समय अपने मोबाइल फोन को बंद रखें, उस समय उससे हानिकारक तरंगें प्रेषित होंगी।" या, "१० रुपये का सिक्का बंद हो चुका है, उसे स्वीकार न करें।" या, "चीन के बने उत्पादों को न खरीदें, चीनी सरकार उनसे हुए मुनाफे का प्रयोग आतंकियों को पोषित करने में करती है।" आदि-आदि।
और इस प्रकार के सन्देश बहुत तेजी से फैलते हैं। इनके निर्माण के लिए नहीं तो कम से कम इनके तीव्र प्रचार-प्रसार के लिए बहुधा हम ही उत्तरदाई होते हैं। आंखें बंद करके अंतर्मुख होकर विचार कीजिये कि बहुतायत ऐसा करती है या नहीं? निश्चित ही ईमानदार उत्तर आएगा कि "हाँ"।
एक तरफ हम शिक्षित, विकसित और विज्ञानी होने का दम भरते हैं, और दूसरी तरफ इस प्रकार के मिथ्या या आधारहीन संदेशों का कहीं न कहीं, किसी न किसी प्रकार समर्थन भी करते हैं!!!
अभी भीतर का अहंकार तिलमिला कर प्रत्युत्तर देगा कि "चलिए कि माना ऊपर आपके दिए उदाहरणों में से प्रथम तीन मिथ्या या आधारहीन होने से सम्बंधित हैं, लेकिन अंतिम उदाहरण का क्या जो चीन से सम्बंधित है!!"
अब मेरा उत्तर यह है कि आपने माना तो सही कि प्रथम तीन उदाहरण अंधविश्वास, भय अथवा अफवाह से सम्बंधित हैं!!!
अभी-अभी एक दिलचस्प वाकया हुआ कि यह पोस्ट लिखते-लिखते अचानक किसी ने मेरे घर का दरवाजा जोर से खटखटाया और कॉल-बेल भी बजाई। ऊपर का दरवाजा खोलकर मैंने नीचे झाँका तो पाया कि कुछ स्त्री-पुरुषों का एक दल भिक्षा (चंदे) की मांग कर रहा था। उनके साथ एक टेम्पो (तिपहिया गाड़ी) पर एक मोबाइल मंदिर चल रहा था, जिसपर लाउडस्पीकर पर भजन चल रहे थे और वाहन के ऊपर ही पीछे की ओर गाय की एक बछिया (calf/heifer) बंधी थी, जिसके चार सामान्य टांगों के अतिरिक्त एक आगे की ओर और एक पीछे की ओर एक-एक टांग और भी थीं, जो अधूरी सी विकसित थीं (पढ़े-लिखे लोग सरलता से समझ सकते हैं कि ऐसा क्यों? यह एक शारीरिक विकृति का मामला था, जुड़वां भ्रूण का ठीक से विकसित न हो पाना अथवा अन्य कोई बायोलॉजिकल कारण)। गाय की इस बछिया के साथ वहां साईं बाबा की एक फोटो भी स्थापित थी। धूप-बत्ती आदि जल रही थी। अधिकांश लोग इस मोबाइल मंदिर को प्रणाम कर सहर्ष भिक्षा दे रहे थे!!!
हाँ, अब इस प्रसंग ने मेरे इस विचार को और अधिक बल दिया कि कहीं न कहीं हम पढ़े-लिखे लोग भी अन्धविश्वासी हैं।
यदि हम अन्धविश्वास का विरोध नहीं कर सकते तो कम से कम समर्थन तो न करें। तो फिर हम मिथ्या संदेशों पर विश्वास कर क्यों उन्हें फॉरवर्ड करते हैं!!

अब बात करते हैं चीन से सम्बंधित उदाहरण की।
सोचिए कि किसी अन्य देश (चीन) का सामान (मोबाइल फोन, लेपटॉप, टीवी, माइक्रोवेव, इंडक्शन, ए सी, खिलौने, स्पोर्ट्स मटेरियल एवं अन्य बहुत सा उपभोक्ता सामान) इतनी प्रचुर मात्रा में हमारे देश में आ पाना कैसे संभव होता है? हमारे यहाँ के किसी प्रतिष्ठित स्टोर (या दुकान) में वह सामान वैधानिक रसीद के साथ बिकना कैसे संभव हो सकता है? अर्थात् उपलब्धता और तत्पश्चात बिक्री कैसे संभव होती है? गैरकानूनी माध्यम से तो इतना व्यापार संभव नहीं अब!!
ईमानदार एवं तार्किक उत्तर आएगा कि बिना सरकार या कानून की सहमति के तो यह संभव नहीं!
इम्पोर्ट लाइसेंस कौन जारी करता है? आसमान से तो चीन बरसाता नहीं यह सब!! बात स्पष्ट हो गयी होगी अब आपको।
हम हों या हमारे आका, अपनी कमजोरियों को दूसरे पर मढ़ना खूब आता है हमें! ..और फिर शुरू हो जाते हैं उन्मादियों की तरह!! उन्माद ही तो है इससे सम्बंधित संदेशों को सोशल मीडिया में उछल-उछल कर फॉरवर्ड करना।
क्या हमारी सरकार ने देशवासियों से कोई अपील की है कि चीनी उत्पादों का बहिष्कार करो? यदि किसी का उत्तर है, "हाँ", तो फिर वह सरकार से क्यों नहीं अपील करता कि चीन से समस्त व्यापारिक सम्बन्ध एवं संधियाँ तोड़ दिए जायें, समस्त इम्पोर्ट लाइसेंस रद्द कर दिए जायें, प्रतिष्ठानों पर चीनी सामान की बिक्री पर प्रतिबन्ध लगा दिया जाये, आदि-आदि!
मेरे इस कथन पर एक महोदय ने कहा कि "हमारी सरकार तो निकम्मी है, देशवासियों का ही कर्तव्य बनता है चीनी बहिष्कार का"!!
निकम्मी है तो चुनी किसने है??? कौन इसको गिरा सकता है? न्यायालयों का क्या? आंदोलनों का क्या? इन सब पर ध्यान न देकर आपने उन्मादी ढंग से सरकार को निकम्मा और चीनी सामान को बहिष्कृत घोषित कर दिया!! क्या यह बुद्धिमत्ता है?
क्या तर्कों का अंत होता है कभी! मैंने जब कहा कि यदि कुछ गलत है मंतव्य अथवा गुणवत्ता, तो चीज मार्केट में ही नहीं आनी चाहिए, उसके आरंभिक स्रोत पर ही रोक लगनी चाहिए; तो उन महोदय का कहना था कि सिगरेट-बीड़ी आदि भी तो ठीक नहीं फिर भी बिकती है, तो क्या हम भी पीने लगें! मेरा जवाब था कि उनके पैकेट पर वैधानिक चेतावनी लिखी होती है, पर मोबाइल के डिब्बे पर क्या चीन की मंशा लिखी होती है?! तर्क-वितर्क का कहीं कोई अंत होता है! मैसेज बनाने वाला तो मंद-मंद मुस्कुरा रहा होगा कि लगा दिया सबको काम पर!!!
कृपया निरर्थक संदेशों को बेवजह उन्मादी ढंग से फॉरवर्ड करके उनको बनाने वाले लोगों को हम पर हंसने का मौका न दें। भेड़चाल से बचें। इति।