Saturday, October 7, 2017

(८२) चर्चाएं ...भाग - 1

एक आध्यात्मिक वेबसाइट के चर्चा सेक्शन पर उपस्थित ज्ञानियों, साधकों और जिज्ञासुओं के द्वारा छेड़ी गयी कुछ चर्चाओं पर मैं भी कुछ प्रतिक्रियाएं देने का प्रयास करता रहता हूँ. उन्हीं को संकलित कर कुछ ब्लॉग-पोस्ट्स के रूप में प्रस्तुत कर रहा हूँ.

(१) क्या इस संसार में केवल दुःख ही दुःख है?
आधुनिक विज्ञान के अनुसार भी, "कोई भी घटना अकारण नहीं होती (दुःख और सुख भी)." जो कोई भी जिस किसी भी अवस्था (दुःख-सुख) को महसूस कर रहा है, उस अवस्था के उत्पन्न होने के लिए परोक्ष अथवा अपरोक्ष रूप से उसका भी एक बड़ा योगदान रहता है. क्रिया-प्रतिक्रिया के वैज्ञानिक सिद्धांत के रूप में न्यूटन जी का भी यही कहना है (प्रतिक्रिया त्वरित अथवा विलंबित भी हो सकती है). अतः वैज्ञानिक रूप से भी यह सिद्ध होता है कि दुःख और सुख हमारे ही कारण (क्रिया अनुसार) आता है और मात्र अपने 'कर्म' से ही हम उसे नियंत्रित कर सकते हैं.

(२) मानव अनंत आनंद चाहता है पर वह यह नहीं जानता कि उसे कैसे और कहाँ से प्राप्त करें!?
देखिए सच तो यह है कि पढ़े-लिखे लोगों को अब भलीभांति यह "ज्ञान" है कि आनंद कहाँ और कैसे मिलेगा! लेकिन जब तक उस "ज्ञान" को अप्लाई नहीं किया जायेगा, इम्प्लीमेंट नहीं होगा, तब तक व्यक्ति उसे वस्तुतः पा नहीं पाएगा! "मैं तैराकी से सम्बंधित कितनी भी किताबें पढ़ लूं, कितना भी ज्ञान हासिल कर लूं; वो मुझे तैराकी नहीं सिखा पाएगा! ..तैराक बनने के लिए मुझे पानी में उतरकर ज्ञान को व्यवहार में उतारना ही पड़ेगा!" निचोड़ यह कि मात्र पढ़कर, सीखकर और ढेर सारा ज्ञान बटोरकर हम आनंदित नहीं हो सकते, ...हाँ, ब्रह्मराक्षस (अहंकारी ज्ञानी) अवश्य बन सकते हैं.

(३) अपने को कैसे जाना जा सकता है?
व्यक्ति में स्वयं को जानने की पर्याप्त भूख यानी प्रबल जिज्ञासा या तड़प होनी चाहिए. ऐसा होने पर अपने भीतर से ही या अन्यत्र कहीं से आपको समुचित जवाब अवश्य मिलेगा. स्वयं को जानने की प्रक्रिया में शाब्दिक ज्ञान होना पर्याप्त नहीं, अनुभूति होनी आवश्यक है. और साधना में उपरोक्त लिखित गुण होने से ही "असली" अनुभूति होनी संभव होती है. वैसे हम अधिकांशतः कोरी भावना के स्तर पर ही रह जाते हैं अतः हमारी अनुभूतियाँ भी मन के स्तर की ही होती हैं, आत्मा या सूक्ष्म के स्तर की नहीं होतीं, अर्थात यथार्थ नहीं होतीं! यथार्थ अनुभूति न होने या मन के स्तर पर ही रह जाने या कोरी भावना में बहने का मुख्य कारण यह होता है कि आज के युग में व्यक्ति कोई संकट या दुःख आने पर ही अध्यात्म की ओर मुड़ता है. आर्त या परेशान व्यक्ति बहुधा भावुक ही होता है, उसकी साधना 'सकाम' होती है! अतः स्वयं या ईश्वर की खोज की साधना सदैव 'निष्काम' भाव से हो तो ही सफलता मिलती है.

(४) आत्मज्ञान के बिना योगी भोगी बन जाता है?
जिनके पास आत्मज्ञान नहीं, जो आध्यात्मिक गुणों में लीन नहीं, केवल वे ही तो छद्म (नकली या आभासी) आध्यात्मिक साम्राज्य बनाते हैं! आध्यात्मिक गुणों के अभाव में ऐसे योगी केवल धन-यश की कामना से जनसाधारण को बड़े-बड़े सपने दिखाते हैं, उन्हें ईश्वर-प्राप्ति का लालच देते हैं, उन्हें सांसारिक आकांक्षाओं की पूर्ति का लालच देते हैं, परीक्षा में उत्तीर्ण होने, नौकरी पाने, धन पाने आदि का उपाए सुझाते हैं या वरदान देते हैं. जबकि वास्तव में खरा आत्मज्ञानी कभी भी अपना या अपने बड़े होने का, या ईश्वर के किसी विशिष्ट रूप का, या रिद्धि-सिद्धि आदि का "प्रचार" नहीं करता, वो केवल सादगी से धर्म (राइटियसनेस) का "प्रसार" करता है! आत्मज्ञान रहित योगी, एक भोगी की भांति भौतिक संसाधन एकत्रित करके अपना साम्राज्य विस्तारित करता रहता है, उसमें लोकहित की भावना केवल दिखाने के लिए होती है, वस्तुतः वह अपना स्वहित ही साध रहा होता है; एक सामान्य जन को उससे मुलाकात करना सरलता से संभव नहीं होता. जबकि एक आत्मज्ञानी कभी भी भौतिक संग्रहण में विश्वास नहीं रखता, और वह सबको सहज ही उपलब्ध होता है (उससे कोई भी कभी भी मिल सकता है)! बहुत बड़े मूलभूत अंतर हैं ये इन दोनों के! लेकिन आमजन को यह देखने की फुर्सत कहाँ, ...भौतिकतावाद के इस युग में वह तो केवल तड़क-भड़क की ओर ही आकर्षित होता है!

(५) आज धर्म के नाम पर बढ़ते अपराधों के लिए कौन उत्तरदायी है...?
इसके लिए दोषी हैं-- (१) आम आदमी के निजी स्वार्थ, लालच, निकम्मापन, कोरी भावुकता, अशिक्षा, अंधश्रद्धा, भेड़चाल, फालतू के कामों में व्यस्तता, अच्छी बातों को केवल सुनना लेकिन अमल नहीं करना, नैतिक रूप से कमजोर होना, केवल स्वकेंद्रित होना. ..(२) राजनेताओं का घोर अवसरवादी होना, अति भ्रष्ट होना, सत्तालोलुप होना, वोट बैंक की खातिर सांप्रदायिक (पक्षपाती) होना, देख-सुन कर भी आफतों के हल के लिए समय पर कोई कदम ना उठाना, धन-यश का जबरदस्त लालच होना और हासिल कर लेने के बाद पतितता की सीमाएं लांघना. ..(३) सभी धर्मों के धार्मिक मार्गदर्शकों का प्रसिद्धि या/और धन के लिए अत्यधिक लोभी होना, धन-यश को पाने के लिए अनुयायियों को अनेकों काल्पनिक सब्जबाग दिखाना, अपने आप को स्वयंभू गुरु और ईश्वर तक घोषित करना, धन और यश के प्राप्त हो जाने पर उनमें विभिन्न पतित इच्छाएं उत्पन्न होना और फलतः जघन्य पाप करना.

(६) व्यक्ति कब और कैसे सही रूप से जागरूक होता है...? क्या केवल शिक्षा द्वारा जागरूकता संभव है?
शिक्षा द्वारा पर्याप्त जागरूकता संभव है, ...कहा तो यही जाता है ..और दुनिया के अधिकांश भूभाग पर यह बात खरी उतरी भी है. ..परन्तु हम भारतवासी खासतौर पर हिन्दीभाषी बेल्ट इसका अपवाद है! हमारे नीति-नियंताओं (राजनीतिज्ञों) की असीम कृपा से देश के लोगों में जब "पिछड़ा" बनने की होड़ हो तब हमारा देश आगे कैसे बढेगा? इस स्थिति में तो कितना भी पढ़-लिख कर भी हम पिछड़े या विकासशील का तमगा ही सदा के लिए लगाये रखेंगे! अगड़ा व जागरूक होने की रीढ़ तोड़ने की रही-सही कसर तथाकथित बाबा और धार्मिक गुरु पूरी किये दे रहे हैं! निचोड़ यह कि अवसरवादी राजनेताओं और ढोंगी बाबाओं की छत्रछाया में शिक्षा भी हमें कभी जागरूक नहीं कर सकती!!! उम्र गुजारने के साथ यह तजुर्बा हुआ है कि "वस्तुतः हमारी जागरूकता का ग्राफ नीचे को ही जा रहा है. हमें प्राप्त व्हाट्सएप एवं अन्य मीडिया संदेशों में इसकी छवि साफतौर पर दिखती है." और तो और..., हमारे इसी उन्नत कहे जाने वाले मंच पर उठाये जाने वाले सवालों को टटोल लें! ...क्या आपने ऐसा अनुभव किया?

(७) कट्टर धर्मान्धता अध्यात्म पथ पर सबसे बड़ी रूकावट है ...क्या आप इस मत से सहमत हैं...?
जी हाँ मैं सहमत हूँ आपसे. यह बहुत त्रासद है कि अन्धश्रद्ध कट्टरपन दिनोंदिन बढ़ रहा है और खरे अध्यात्म से लोग विमुख हो रहे हैं! विभिन्न तथाकथित बाबा, गुरु आदि तो इसके लिए जिम्मेदार हैं ही, हम आम जनता भी कोई कम दोषी नहीं! सर्वत्र लोभ एवं स्वार्थों का बोलबाला है! बाबा जैसे लोग यदि झूठे सब्जबाग दिखाते हैं तो हम भी तो लालच के मारे उसमें फंस जाते हैं और वांछित पाने के लिए कुछ भी करने को तैयार हो जाते हैं! लोभ और लालच ने हमारे बुद्धि-विवेक को हर लिया है! खरा अध्यात्म चूंकि हमें स्वच्छ आईना दिखाता है तो इसीलिए हम उससे बचते हैं! मजे की बात यह कि खरा अध्यात्म बहुत सरल और अल्प लेकिन शक्तिशाली सिद्धांतों वाला है और लगभग सब उससे परिचित भी हैं लेकिन लोभ एवं स्वार्थों के चलते हम इतने भ्रष्ट हो गए हैं कि उसे पहचानने व जानने से इंकार कर देते हैं; ऐसे अभिनय करते हैं मानों वह (अध्यात्म) बहुत दुरूह है और हमारे लिए नहीं बना!!! बहुत हास्यास्पद और त्रासद है यह स्थिति!

(८) जीवन में सुधार किस आयु से आना ज़रूरी है...? अधिकाँश लोग यौवन तक जीवन को केवल मौज मस्ती का ही एक भाग मानते हैं!?
यह प्रश्न अपने में ही बेहद हास्यास्पद है! सुधार यानी इम्प्रूवमेंट की कहीं कोई आयु अथवा समय होता है!? किसी भी व्यक्ति को इम्प्रूवमेंट की भूख हमेशा होनी चाहिए और वो कभी सेचुरेट नहीं होनी चाहिए. ...और हाँ..., यदि आपके अनुसार यदि अधिकांश लोग यौवन तक जीवन को केवल मौज-मस्ती का ही एक भाग मानते हैं, ..तो मेरे अनुसार मौज-मस्ती कोई पाप नहीं यदि वह समझदारी से मानवता, उचित मर्यादा और सामाजिक गरिमा का ध्यान रखते हुए की गयी है! मैं तो कहता हूँ कि व्यक्ति को किसी भी आयु में खिलंदड़ा (खुशमिजाज और भरपूर मस्त) रहना चाहिए! क्या गंभीरता ओढ़ लेना ही व्यक्तित्व में सुधार या इम्प्रूवमेंट का परिचायक है?! संक्षेप में उत्तर यह कि मौज-मस्ती करते हुए भी समानांतर रूप से पर्याप्त सुधार संभव हैं और उनका आरंभ शैशवावस्था से ही होना चाहिए तथा जीवनभर जारी रहना चाहिए.

(९) भगवान् के न्याय पर कब प्रश्नचिन्ह लगाने को हम मजबूर हो जाते हैं? क्या ऐसा करना उचित भी है...?
गर्भावस्था में ही अथवा जन्मते ही नवजात अबोध शिशु की मृत्यु; इसके अलावा सूखे, बाढ़, भुखमरी, प्राकृतिक आपदा, युद्ध, आतंकी हमलों अथवा किसी दुर्घटना के कारण निर्दोषों या मासूमों की मृत्यु. ये सब देखकर एक सामान्य व्यक्ति को यही लगता है कि ईश्वर के न्याय में कहीं गड़बड़ है, उसका विश्वास डगमगाता है, वह ईश्वर को कोसता भी है. तब बड़े-बूढ़े या अन्य समझदार परिजन यह कहकर उन्हें सांत्वना देते हैं कि "शायद ईश्वर की यही मर्जी थी!" यह सुनकर दुखियों का मन शांत तो हो जाता है, पर सवाल यह उठता है किक्या इस प्रकार की सांत्वना देकर हम भगवान् के न्याय पर प्रश्नचिन्ह नहीं लगा रहे!? जिस पूजा-आराधना का हवाला देकर कोसते हुए हम यह कहते हैं कि सारी उपासना-अनुष्ठान बेकार गए, तो क्या हम यह समझते हैं कि पूजा-आराधना ही हमारी सुरक्षा की गारंटी है!? अध्यात्म के अनुसार और आधुनिक विज्ञान के अनुसार भी सच तो यही है कि कोई एक्सीडेंट भी एक्सिडेंटली नहीं होता! मूल में कोई कारण तो अवश्य होता है! ...और वह कारण भगवान्, प्रकृति, या कुदरत के नियमों का निष्ठुर होना तो बिलकुल भी नहीं है! यह तो सब मानते ही हैं कि कोई सिस्टम तो है जिसके अंतर्गत समस्त गतिविधियाँ चल रही हैं; पहले अध्यात्म ने और अब विज्ञान ने उस सिस्टम की अनेकों परतें तो आम आदमी के लिए खोल ही दी हैं. तो फिर क्या ही अच्छा हो कि हम उस सिस्टम को फ़ॉलो करें. हम सिस्टम के अनुसार चलेंगे तो सुख से रहेंगे और विरुद्ध जायेंगे तो सिस्टम के अनुसार ही हम कुछ नकारात्मक भी पायेंगे, यह सोच आज नदारद है. सिस्टम को आप कोई घूस नहीं दे सकते! हमारी ज्यादातर आराधनाओं को हम ईश्वर को दिया उपहार या घूस ही तो समझते हैं और उसकी एवज में उससे बच्चों समान अपेक्षाएं रखते हैं! ....आदर्श रूप से हमारी किसी भी पूजा-अर्चना का मूल उद्देश्य यही होना चाहिए कि ईश्वर तू हमें अपने गुणों से सराबोर कर हमें अपने समान ही नेकी और न्यायपूर्ण पथ पर चला. जब हम ऐसे हो जायेंगे तो फिर भविष्य के दिन या जन्म अच्छे ही होंगे!

(१०) क्या अध्यात्म मार्ग पर चल कर व्यक्ति दोष रहित हो जाता है?
अध्यात्म के मार्ग पर चलने से व्यक्ति सही और गलत में वास्तविक अंतर को समझता है, अपने लिए सही को चुन सकता है. इससे धीरे-धीरे दोष कम होते हैं या फिर दोषों की तीव्रता घटती है. दोषरहित हो जाना तो बहुत बड़ी बात है, बहुत-बहुत मुश्किल है, ...लेकिन असंभव नहीं!

(११) अध्यात्म पथ पर चलने में सबसे बड़ी चुनौती कौन सी आती है और क्यों....? कहते हैं कि अध्यात्म का मार्ग सबसे कठिन मार्ग है...!?
सबसे पहले ईश्वर के सार्वभौमिक गुणों या ईश्वर-निर्मित प्रकृति के सिद्धांतों पर विश्वास दृढ़ करने की चुनौती! क्योंकि अक्सर हम सिद्धांत जानते तो हैं, पर स्वयं को उन सिद्धांतों की परिधि से बाहर मानते हैं! ..तो विश्वास तो खोखला हो गया हमारा! अध्यात्म में मात्र "भाव" (विकल्परहित विश्वास) का ही महत्व है. ...दूसरी चुनौती सामने आती है- अध्यात्म और व्यवहार (प्रतिदिन के कार्यों) के मध्य संतुलन बैठाने की, ..क्योंकि अध्यात्म, ईश्वर या प्रकृति के नैसर्गिक सिद्धांत कुछ कह रहे होते हैं और सामान्य समाज (आमजन) कुछ अन्य कर रहा होता है! यह देखकर अत्यधिक मानसिक अंतर्द्वद्व होता है! ...इसके अलावा अध्यात्म का मार्ग सबसे कठिन होने का भ्रम इसलिए है क्योंकि हममें से निन्यानवे प्रतिशत लोग हर काम में मात्र अनुयायी हैं (पहल करना नहीं जानते या करना नहीं चाहते), और चूंकि आज समाज के व्यवहार में हमें खरी आध्यात्मिकता देखने को नहीं मिलती है तो इस कारण हम प्रेरित नहीं हो पाते अध्यात्म का अनुसरण करने के लिए!

(१२) कहते हैं- आशा तृष्णा न मिटी , मिट मिट गए शरीर, ...क्या हम अपनी इच्छाओं पर विजय पा सकते है ? यदि हाँ तो कैसे...?
इच्छाओं को मारना और इच्छाओं को नियंत्रित करना, ये दो अलग-अलग बातें हैं. यदि इच्छाओं को नियंत्रित करना ही इच्छाओं पर विजय प्राप्त करना है, तो जी हाँ यह संभव है. लेकिन समस्त इच्छाओं (सात्त्विक, राजसिक और तामसिक) को मारना या पूर्ण रूप से समाप्त कर देना ही इच्छाओं पर विजय प्राप्त करना है तो वह तो मनुष्यों के लिए संभव नहीं! आत्मा जब तक मानव देह में है, उसकी कुछ मूलभूत आवश्यकताएं तो रहेंगी ही और उनको पूरा करने के लिए इच्छा उठना तो स्वाभाविक ही है. इच्छा उठेगी तो प्रयास होगा, प्रयास होगा तो ही आवश्यकता की पूर्ति होगी. अब कोई यह कहे कि भौतिक देह में रहकर कोई भौतिक आवश्यकता या लालसा न हो तो वह झूठ होगा. हाँ, लालसाओं को कम करना व नियंत्रित करना मानव के वश में है. जो "सही में मूलभूत" आवश्यकताएं हों बस उन्हीं पर ही फोकस कर उन्हें न्यायोचित ढंग से प्राप्त करने का निरंतर अभ्यास मनुष्य को यह विजय प्राप्त करा सकता है.

(१३) देश में नारी वर्ग कब और कैसे सुरक्षित अनुभव कर पायेगा....?? नारी को लेकर देश में राजनीति तो बहुत हो रही है किन्तु दुर्भाग्यवश स्थिति दिन प्रतिदिन बद से बदतर होती जा रही है, ....क्यों?
संकोचों को त्यागकर हमें समस्या की जड़ में जाना आवश्यक. हमारे समाज में दिन-प्रतिदिन अनाचार व व्याभिचार (विवाहेतर सम्बन्ध) बढ़ रहा है जिसके फलस्वरूप दुराचार भी बढ़ रहा है. आयु बढ़ने के साथ होने वाले हार्मोनल परिवर्तनों के कारण स्त्री और पुरुष दोनों में दैहिक आकर्षण जन्म लेता है. इस तृष्णा की सम्मानजनक और गरिमामय पूर्ति हेतु सभी सम्प्रदायों के धार्मिक ग्रंथों में कुछ नियमों, आज्ञाओं के तहत एक उपयुक्त आयु में विवाह संस्कार की व्यवस्था बताई गयी है. इन्हीं में अन्य संतुतियों के माध्यम से अन्य अनेक रिश्तों (जैसे माता-पिता, भाई-बहन, भाभी, देवर आदि) की भी व्याख्या की गयी है. समाज जब तक इन संतुतिओं और निर्बंधों को 'धर्म' या 'अकाट्य नियम' जानकर मानता रहा, तब तक सब 'लगभग' ठीक रहा. धार्मिक अगुवाओं की ही मेहरबानी से अब जब समस्त धर्म-व्यवस्था ध्वस्त हो चुकी है तो नैतिकता की अनुपस्थिति में लड़के और लड़कियां दोनों निरंकुश से हो गए हैं. विवाहेतर (विवाह से पूर्व एवं पश्चात्) सम्बन्ध बढ़ते जा रहे हैं. ...इस अनैतिकता के दौर में शारीरिक गठन अधिक पुष्ट होने के कारण पुरुष अधिक आक्रामक हो गया है. स्त्री-पुरुष के बीच परस्पर सहमति से भी यदि व्यभिचार होता है तो भी उसके पश्चात् एक स्त्री को ही उसका दुष्प्रभाव झेलना पड़ता है. कारण यह कि व्यभिचार पश्चात् पुरुष में कोई भी शारीरिक प्रभाव-दुष्प्रभाव नहीं पड़ता, जबकि स्त्री की देह में अवश्य ही अनेक परिवर्तन होते हैं. दिखाई और महसूस हो सकने वाले दैहिक प्रभावों की वजह से स्त्री के मन-मस्तिष्क पर भी गहरा प्रभाव पड़ता है. यदि वह बहुत ही दुश्चरित्र न हो तो अवश्य ही वह गहरे सदमे और डिप्रेशन में चली जाती है, जबकि सम्बंधित पुरुष ऐसा कोई भी परिवर्तन या प्रभाव नहीं झेलता. मात्र यही कारण है कि पुरुष अधिक आक्रामक और कामी और ढीठ हो गया है. ऐसे पाप वो अतीत में भी करता था पर उसका आधिक्य अब इसलिए भी हो गया है क्योंकि स्त्रियों का भी उकसावा उसे अब अधिक मात्रा में मिलता है. 'लिव-इन' परंपरा इसका एक ज्वलंत उदाहरण है. महानगरों में पढ़ने और नौकरी करने वाले लड़के-लड़कियों के बीच इसका चलन बढ़ता जा रहा है. प्रचलित विवाह-व्यवस्था से इतर अन्य ढंग ढूँढने से आरंभ में तो आजादी महसूस होती है, परन्तु सुख के निरंतरता की गारंटी जैसी चीज नदारद रहती है, एक ठोस सामाजिक जीवन से वह युगल वंचित रह जाता है. इनके अलावा सस्ता होता इन्टरनेट डाटा और इन्टरनेट पर बढती पोर्नोग्रफिक सामग्री भी व्यभिचार और दुराचार की एक बड़ी वजह है. उसके कारण अब ११-१२ वर्ष की अवस्था में ही यौन सम्बन्ध बनने लग गए हैं या कम से कम उनकी पूरी जानकारी तो हो ही जाती है. लोग कहते हैं कि परिवर्तन अपरिहार्य होता है! क्या प्रकृति के नियमों-सिद्धांतों में, या हमारी देह में कोई परिवर्तन आया है पिछले सैकड़ों वर्षों में?? क्या धरती पर गुरुत्वाकर्षण के मान 9.8 में कोई बदलाव आया है? क्या हमारा शरीर बदल कर बन्दर जैसा हो गया है? क्या भगवान बदल गए हैं? क्या नैतिक मूल्यों की परिभाषा बदल गयी है? ...जब यह सब नहीं बदला तो क्यों हम प्राचीन अकाट्य और आज भी प्रासंगिक नियमों को तोड़ने हेतु इतना व्यग्र हैं? पुरानी परम्पराएं तोडिये..., पर केवल वो, जो आज अप्रासंगिक हैं, कमजोर हो गयी हैं, बूढी हो गयी हैं! स्त्रियों को स्वयं, और पुरुषों को भी स्त्रियों की उपर्लिखित शारीरिक और मानसिक कोमलताओं को समझकर तदनुसार श्रेष्ठ एवं गरिमामय आचरण करना सीखना होगा. एक माँ को भी आज आगे आकर बाल्यकाल से ही अपनी संतानों को इसका पाठ पढ़ाना होगा.

(१४) धर्म को लेकर आज लोगों के मन में बहुत से प्रश्न उठ रहे हैं, क्यों? क्या यदि धर्म न होता तो इंसान जानवरों जैसा व्यवहार करता?
मुझे लग रहा है कि 'धर्म' शब्द से आपका आशय रिलिजन है, तो विभिन्न रिलिजन पर से विश्वास उठने का एक बड़ा कारण उनमें आ गयी कट्टरता ही है. अंधी कट्टरता तो अन्यों के साथ भेदभाव और वैमनस्य को बढ़ा रही है. इसके अलावा बहुत सारे अन्धविश्वास और पाखंड, पाखंडी भी घुस गए हैं सभी पंथों के शीर्ष में! इनके बीच असली 'धर्म', जो सर्वथा योग्य और न्यायप्रिय आचरण का स्रोत है, वह कहीं खो गया है.असली 'धर्म' (राइटियसनेस) तो वैसे सभी पंथों के केंद्र में बीजस्वरूप विद्यमान है, किन्तु उसे देखने और पोषण देने का कार्य कोई भी पंथ आज करता नहीं दिखता (सबसे सहिष्णु हिन्दू भी नहीं, वे भी आज दिग्भ्रमित हैं), ...तो फिर एक जाग्रत नागरिक इन सब तथाकथित धर्मों (पंथों) के जंजाल से उकता चुका है. उसे यथार्थ "धर्म" से कोई परेशानी नहीं है और वो उसके भीतर ही है, और वही तो व्यक्ति को इन पंथिक जंजालों से मुक्त करवाना चाहता है.आपके दूसरे प्रश्न का उत्तर है कि यथार्थ "धर्म" तो सार्वभौमिक है, विभिन्न पंथों या किसी विशेष जीवन पद्धति (जैसी कि हिन्दू शब्द की व्याख्या हो रही है) से भी परे है. यथार्थ 'धर्म' (विशुद्ध ईश्वरीय ज्ञान) तो सभी मानवों के भीतर नैसर्गिक रूप से विद्यमान है. अतः यदि तथाकथित धर्म अर्थात पंथिक ज्ञान उपलब्ध न होता तो भी इन्सान आध्यात्मिक विकास के क्रम में आगे को बढ़ता ही.

(१५) "निवृत्ति" और जिम्मेदारियों से भागने के बीच क्या अंतर है?
प्रश्न अच्छा पूछना चाहा है आपने! ..."निवृत्ति" का अर्थ है कार्यमुक्ति, रिटायरमेंट, या परित्याग! ..."निवृत्ति" का अर्थ जिम्मेदारियों से मुक्ति या जिम्मेदारियों का परित्याग कदापि नहीं है और ना ही इसका अर्थ किसी लक्ष्य के प्रति प्रयासों को छोड़ देना है! "निवृत्ति" सदैव ही "प्रवृत्ति" पश्चात् होती है! पहले 'प्रवृत्ति'..., उसके बाद ही 'निवृत्ति'! "प्रवृत्ति" अर्थात् टेंडेंसी, रुझान, उन्मुखता, और प्रवणता. यानी प्रयास करके कुछ प्राप्त करना, वह भी पूरी तरह से! ...आधे वाक्य या आधी शिक्षा से हमेशा नुकसान ही हुआ है! सच तो यह है कि त्याग उसी का संभव है जो आलरेडी मेरे पास है या मुझे सहज ही प्राप्य है! प्राचीन नीतिवचनों में कभी भी किसी लक्ष्य की ओर उन्मुख होने (प्रवृत्ति) को मना नहीं किया गया है, बल्कि हर सही और न्यायपूर्ण लक्ष्य को गंभीर व न्यायोचित पुरुषार्थ (श्रम) से हासिल करने पर जोर दिया गया है. हम (आत्मा) एक भौतिक देह में हैं तो कुछ भौतिक आवश्यकताएं होना भी अवश्यम्भावी ही है; तो फिर उन्हें प्राप्त करना (प्रवृत्ति) तो अत्यावश्यक; ..पुनः, चूंकि हम मूलतः एक आध्यात्मिक देह हैं और एक समयकाल के पश्चात् यह भौतिक देह त्यागने का समय निकट आता ही है, ...तो यह समय निकट आते-आते हमें अपने श्रम से प्राप्त भौतिक वस्तुओं के प्रति आसक्ति (अटैचमेंट) के त्याग (यानी 'निवृत्ति') की भी गंभीर जरूरत! निचोड़ यह कि फिजिकल शरीर व जीवन के लिए कुछ आवश्यक सांसारिक चीजों को प्राप्त करना आवश्यक ताकि हम (भौतिक शरीर) भलीभांति और सुख से जीवित रह सकें. लेकिन इस भौतिक शरीर की एक मर्यादा, सीमा या आयु और उसके बाद हमारा आध्यात्मिक जीवन ही शेष रह जायेगा; तो फिर उस यात्रा की तैयारी भी बहुत जरूरी! उस यात्रा में भौतिक वस्तुओं का फिर कोई रोल (भूमिका) नहीं! तो आवश्यकता के अनुरूप ही प्रयास आवश्यक होते हैं. आवश्यकता न होने पर भी हम कुछ चीजों को यदि अपने साथ ढोते हैं तो वे बोझ बन जाती हैं! तो इस भौतिक जगत में प्रवेश करते ही "प्रवृत्ति" आवश्यक, ..फिर इस जगत से निकासी का समय आते-आते "निवृत्ति" भी आवश्यक! कितना ही अच्छा हो कि प्रत्येक "प्रवृत्ति"के साथ-साथ समानांतर रूप से हमें "निवृत्ति" का भी भान रहे! पुनः स्पष्ट कर दें कि "निवृत्ति" का अर्थ किसी वस्तु या व्यक्ति का 'त्याग' नहीं बल्कि उसके प्रति 'आसक्ति' (अटैचमेंट) का त्याग है! आशा है सब स्पष्ट हो गया होगा, अन्यथा आगे और प्रश्न कर सकते हैं.

(१६) आत्मा कौन है? आत्मा के विषय में जानकारी, आत्मा का स्वरूप!? आध्यात्मिक साधना क्या?
अच्छा आध्यात्मिक प्रश्न पूछा आपने! अध्यात्म अर्थात् आत्मा के विषय में! अपने भीतर की चेतना अथवा चैतन्य को हम आत्मा कह सकते हैं, जिसके कारण हम जीवित हैं या अस्तित्व में हैं. यही वह शक्ति है जो हमें वास्तविक धर्म (सर्वथा योग्य एवं न्यायपूर्ण आचरण) का परिचय कराती है या करा सकती है. यदि हम एक शब्द में आत्मा के मूल गुण को बताएं तो वह है- "सच्चिदानंद" अर्थात् सत् (सतत/सदैव रहने वाली) चित् (चैतन्यमय) आनंद (आनंदमय)! इसका कोई आकार या स्वरूप नहीं है जिसे हम आँखों से देख सकें. आँखों से ना दिखाई देने वाली फिर भी बहुत महत्त्वपूर्ण, विज्ञान की भाषा में बोलें तो यह हमारे भौतिक (स्थूल) शरीर का सॉफ्टवेयर है. हमारा भौतिक या स्थूल शरीर यानी हार्डवेयर, और आत्मा अर्थात् शरीर रूपी हार्डवेयर का ऑपरेटिंग सॉफ्टवेयर!! इस दुनिया के कार्यकलापों को संपन्न करने-कराने हेतु ये हार्डवेयर और सॉफ्टवेयर एक-दूसरे के लिए पूरक हैं. पर अधिक महत्वपूर्ण सॉफ्टवेयर ही है! क्योंकि यदि यह निकल गया तो ऊपर से ठीकठाक दिखने वाला शरीर भी मृत घोषित होता है. ...और शरीर भंगुर है, धीरे-धीरे बूढ़ा होकर नष्ट होता है जबकि आत्मा नित-नवीन है! यह तो मात्र सरलता से समझने हेतु एक उदाहरण था. वास्तव में आत्मा का महत्त्व कहीं अधिक है. ..और आत्मा को पूरी तरह से जानने-समझने व इसे शुद्ध रूप में प्रकट करने का (यानी इसके ऊपर जमी धूल-गर्त साफ करने का) कार्य हम अध्यात्मशास्त्र (आध्यात्मिक साधना) द्वारा करते हैं. भलीभांति स्मरण रहे कि एक खरी आध्यात्मिक साधना, कुछ भी प्राप्त नहीं करवाती, कोई चमत्कार नहीं करती, कोई रिद्धि-सिद्धि प्रदान नहीं करती; वरन वह केवल आत्मा के ऊपर के विकारों, गन्दगी और धूल-गर्त आदि को साफ करती है! पश्चात् आत्मा सर्वथा समर्थ होती है! विज्ञान की भाषा में आध्यात्मिक साधना एक एंटीवायरस के समान है जो आत्मा रूपी ऑपरेटिंग सिस्टम को हानिकारक वायरसों से मुक्त कराता है. इससे सिस्टम अपने मूल रूप में अधिक दक्षता से काम करता है!

(१७) गुरु कैसा होना चाहिए? और हम कितने गुरु बना सकते हैं एक, दो या फिर जितने चाहो उतने?? कोई वैदिक उदाहरण?
सच्चे स्थूल (मानव देह) गुरु में अहंकार, धन या यश की भूख आदि किंचित मात्र भी नहीं होते. सीधा, सच्चा और सरल जीवन व्यतीत करते हैं. आडम्बरों और औपचारिकताओं से कोसों दूर रहते हैं. सबसे बड़ी बात कि वह प्रत्येक शिष्य या जिज्ञासु को सहज एवं सदैव उपलब्ध रहते हैं. ...रही बात गुरु धारण करने की तो हम सच तो यह है कि अध्यात्म में शिष्य गुरु को धारण नहीं करता, अपितु गुरु शिष्य को धारण करते हैं! शिष्य या जिज्ञासु में योग्यता या पात्रता देखकर ही एक खरा गुरु उसे स्वीकारता है. ..वैसे गुरु के सीधे संपर्क में न रहते हुए भी एकलव्य समान एक लगनशील शिष्य किसी भी गुरु से बहुत कुछ सीख सकता है! उत्तरोत्तर सीखते जाने के लिए व्यक्ति क्रमशः कितने भी गुरुओं की सहायता ले सकता है, यदि उसे अनंत के लिए उड़ान भरनी है! मेरे विचार से, प्रगति के इस क्रम में शिष्य के जीवन में आने वाले सभी गुरु अपने उस शिष्य से बहुत प्रसन्न होंगे! ...और अंत में बात किसी वैदिक उदाहरण की..., तो श्रीमान्, वो तो मेरे पास नहीं! शब्दों, विश्लेषणों और उदाहरणों के चक्रव्यूह में फंसकर मात्र इतिहासकार बन जाने को मैं अध्यात्म-साधना नहीं समझता हूँ. ..कहीं पढ़ा था कि, आध्यात्मिक-साधना सदैव हमें आगे की कक्षाओं में जाने को प्रेरित करती है, निरंतर चलाएमान रहने की अपेक्षा करती है; यहाँ तक कि "वेद" भी हमें यह कहते हैं कि "जब तुम हमें समझ जाओ और हृदयंगम कर चुको, तो हमें भी त्यागकर और आगे को..., हमसे भी आगे...., अनंत की तरफ बढ़ो!"

(१८) गुरु शरीर है या ज्ञान है?
अध्यात्म के संदर्श में "गुरु" एक सूक्ष्म, निर्गुण, निराकार "तत्त्व" (एलिमेंट या सब्सटेंस) है. यह तत्त्व हमें सूक्ष्म (कंसाईज़) तरीके से आत्मज्ञान सिखाता या सिखा सकता है. ...कभी किसी स्थूल देह के माध्यम से यदि यह तत्त्व कार्य करता है, तो वह देह सगुण (व्यक्ति रूप) गुरु कहलाती है. मेरे अनुभव के अनुसार 'निन्यानवे प्रतिशत' मामलों में केवल सूक्ष्म निराकार 'गुरु-तत्त्व' ही कार्य करता है! ...यह तत्त्व, वातावरण में सदैव एवं सहज ही उपलब्ध रहता है (जैसे मोबाइल फोन की तरंगें), ...हमें ही पर्याप्त जिज्ञासा व तड़प से अपनेआप को ट्यून करना पड़ता है जिससे हम इन्हें ग्रहण कर पाएं. आध्यात्मिक ज्ञानप्राप्ति हेतु (यानी स्वयं और भगवान् को पता करने व प्राप्त करने के लिए) जब हममें पर्याप्त जिज्ञासा और तड़प जन्म लेती है तब हम इस गुरु-तत्त्व को ग्रहण करने योग्य बनते हैं.

(१९) भगवान कहां है कोई बता सकता है क्या, और कहां रहते हैं?
बचपन से हरेक व्यक्ति ने अपने-अपने धर्म (विश्वास) की वजह से भगवान् की किसी न किसी खास आकृति या/और नाम के रूप में कल्पना अवश्य की है. बड़े होने पर कन्फ्यूजन होना स्वाभाविक है कि इतने सारे भगवान् तो होने संभव नहीं, सच्चा भगवान् आखिर है कौन सा? प्रत्येक धर्म (विश्वास) के पदाधिकारी जब अपने-अपने भगवान् को ही सच्चा भगवान् ठहराते हैं तो दिमाग और घूम जाता है!!! इस कन्फ्यूज्ड दिमाग से ही यथार्थ भगवान् की खोज शुरू होती है. ...आप भी प्रबल जिज्ञासा लेकर अपने पैरों (प्रयासों) से खोजिये, उत्तर अवश्य मिलेगा. आध्यात्मिक (मैं और भगवान् सम्बन्धी) ज्ञान की यात्रा दूसरे के पैरों से होना संभव ही नहीं! आपकी स्वयं की अनुभूति ही आपको 'पक्का' यकीन दिला सकती है कि भगवान् मायने यह...! मेरी या अन्यों की अनुभूतियाँ या ज्ञान आपको और अधिक कंफ्यूज ही करेगा, क्योंकि सबके अलग-अलग उत्तर होंगे. ...क्योंकि सच तो यही है कि कुछेक को छोडकर अधिकांश ज्ञानियों की व्याख्या अभी भी अनुभूति रहित ज्ञान से उपजी है! भगवान् को जानना है तो प्रबल इच्छा, तड़प और समर्पण भाव से आत्ममंथन व गहरे चिंतन की आवश्यकता है वो भी खुद से, बिना किसी अवलम्बन के! किसी गुरु या समझदार व्यक्ति से केवल कुछ मार्गदर्शन मिल सकता है, मंजिल नहीं! जिम-ट्रेनर या कोई कोच हमें कुछ टिप्स मात्र देता है, व्यायाम हमें खुद ही करना पड़ता है! किसी की भी कसरत से सिर्फ उसी का शरीर बलवान बनता है! ऐसा संभव ही नहीं कि जिम-ट्रेनर व्यायाम करे और सिक्स-पैक्स आपके बन जायें! आप कोई बल प्राप्त करते हैं तो उस बल को भीतर से केवल आप ही महसूस कर सकते हैं कोई दूसरा नहीं (इसी को अनुभूति कहते हैं)! माना कि यदि कोई ईश्वर को प्राप्त भी कर चुका है तो उसकी अनुभूति वह आपको कैसे करा सकता है?! अच्छे से स्मरण रहे, अध्यात्म का मूलभूत सिद्धांत है-- "जितने व्यक्ति, उतनी प्रकृतियाँ (स्वभाव), उतने ही साधना-मार्ग!" अतः आपसे यदि कोई यह कहे कि अमुक (फलाने) मार्ग पर चलकर मैंने ईश्वर को प्राप्त किया, तो जरूरी नहीं कि उसी मार्ग से आपको भी वह अनुभूति हो सके!

(२०) प्रकृति, पुरुष और परमात्मा मे क्या अंतर है? हम स्थूल रूप में प्रकृति को ही गुरु मानते है क्योकि, हम मनुष्य की हर विज्ञान की खोज अधिकतर प्रकृति का सूक्ष्म अवलोकन कर निकाली है, क्या प्रकृति मनुष्य के वश है या मनुष्य प्रकृति के वश या सब परमात्मा के अधीन है या परमात्मा भी इस प्रकृति के अधीन है??
आदरणीय श्रीमान् जी, सादर प्रणाम. कुछ कहने से पहले स्पष्ट कर दूं कि मैंने अध्यात्म का कोई भी ज्ञान शास्त्रीय पद्धति से नहीं पाया है; अध्यात्म को जितना भी आजतक समझा है वह सब स्वयं ही गिरते-पड़ते, और वह भी विज्ञान के चश्मे से! "...(१) सॉफ्टवेयर के रूप में कोई तो ऑपरेटिंग सिस्टम या ऊर्जा इस देह के भीतर विद्यमान होती है, जिससे हमारा शरीर जिन्दा व चलायमान रहता है, अध्यात्म में जिसे आत्मा का नाम दिया गया है. ...(२) सभी देहों में समान प्रॉपर्टीज़ (गुणधर्म) के साथ आत्मा का एक ही स्वरूप विद्यमान होता है. ...(३) देह एवं मस्तिष्क (ब्रेन) तथा उसमें उपस्थित संस्कार, वृत्ति आदि प्रत्येक में (उसकी अपनी सोच और कर्म के अनुसार) भिन्न-भिन्न होती है, इसी कारण उनका आचरण, व्यवहार आदि भिन्नता लिए होता है. ...(४) बूंद रूपी इतनी सारी आत्माएं हैं, तो विशाल सागर (परमात्मा) भी अवश्य होगा, जिसमें से विलग होकर ये देहों में आई हैं! आत्मा यदि निराकार, अदृश्य और सनातन (सदैव अस्तित्व में, अविनाशी) है तो परमात्मा भी ऐसा ही होगा/है. ...(५) आत्मा की सफल अनुभूति के अतिरिक्त हमें एक बात और समझ में आती है (जिसका अनुमोदन विज्ञान भी करता है) कि हमारी पृथ्वी सहित सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड एक 'सिस्टम' के अधीन है, इस सिस्टम को हम प्रकृति का सिस्टम या प्रकृति के नियम भी कहते हैं! जैसे गुरुत्वाकर्षण का नियम, क्रिया-प्रतिक्रिया का नियम, ऊर्जा की अक्षुण्णता का सिद्धांत (यानी ऊर्जा नष्ट नहीं होती), ..आदि-आदि. ...(६) यह सब है तो इनका निर्माणकर्ता कोई तो अवश्य होगा (जिसको हम परमात्मा कहते हैं) अर्थात् परमात्मा की सफल अनुभूति हमें प्रकृति और उसके अकाट्य नियम व सिद्धांत कराते हैं! ...(७) परमात्मा ने समस्त ब्रह्माण्ड रचा, एक ही बार में बहुत सारे चिरस्थाई नियम-सिद्धांत बनाये (जिनको हम विज्ञान द्वारा धीरे-धीरे जान रहे हैं), मानव सहित बहुत सारे जीवों को जन्म दिया, उनकी भौतिक देहों के जीवित रहने के लिए उनके ऑपरेटिंग सिस्टम के तौर पर अपने कुछ सनातन अंशों (आत्माओं) को उनमें स्थापित किया; ...(८) सबसे बड़ी बात कि शरीरों को भौतिक और भंगुर बनाया.. ...(९) ..और मानव शरीर को कुछ ख़ास ही बनाया जिसमें उत्कृष्ट हार्डवेयर प्रयुक्त किया गया, पांच ज्ञानेन्द्रियों और पांच कर्मेन्द्रियों के अतिरिक्त इस हार्डवेयर (देह) का एक विशिष्ट हिस्सा बहुत उन्नत ब्रेन (मस्तिष्क) भी है.., जो हमारे विचारों, संस्कारों और वृत्ति (प्रवृत्ति) का कारखाना व वेयरहाउस (गोदाम) है. हमारे अधिकतर काम और सोच आज इसी के द्वारा नियंत्रित होती है! ...(१०) परमात्मा ने यह सब रचकर, नियम-कानून (प्रकृति के सिद्धांत) बनाकर हमें स्वतंत्र छोड़ दिया (सोचने और करने की स्वतंत्रता देकर). ...(११) इसके बाद वह है..., लेकिन बंधा है अपने ही नियमों-सिद्धांतों के अंतर्गत सब होता देखने के लिए. ..वह है..., लेकिन हस्तक्षेप बिलकुल भी नहीं करता क्योंकि उसके नियम-सिद्धांत पर्याप्त हैं स्वतः न्याय होने देने के लिए. ..वह है..., उन्हीं सब गुणधर्मों के साथ, जो आत्मा के हैं, इसलिए जब भी हम कातर होकर उससे विनय-अनुनय करते हैं तो वह बदले में केवल यह कृपा करता है कि हमें आत्मा (परमात्मा) के मूल गुणों से बारम्बार परिचित कराता रहता है..., क्योंकि मात्र उन्हीं गुणों को जीवन में उतार कर (अमल करके) हम आनंदित रह सकते हैं और मोक्ष (चिरस्थाई आनंद) का अनुभव जीते जी और दैहिक मृत्यु के पश्चात् भी कर सकते हैं. .....(क्रमशः... फिर कभी)
...सार्वभौमिक रूप से विश्व में व्याप्त एवं मान्य नैतिक गुण ही परमात्मा के मूल गुणधर्म हैं (क्योंकि दुनियावी संस्कारों को एक किनारे कर देने पर प्रत्येक की शुद्ध आत्मा से भी ऐसी ही ध्वनि आती है)! परमात्मा निराकार होते हुए भी प्रकृति के रूप में व्यक्त होता है. परमात्मा के नियम-सिद्धांत आदि भी प्रकृति के जाने-अनजाने नियम-सिद्धांतों के रूप में हमारे समक्ष हैं. व्यक्ति प्रकृति के अधीन है; यदि वह प्रकृति के नियमों को सम्मान देकर उनपर चलता है तो सुख में रहता है, अन्यथा संकट में पड़ता है. परमात्मा यद्यपि रचियता है इस प्रकृति का और इससे जुड़े प्रत्येक नियम का, ...तथापि प्रकृति का "संविधान" रचने के बाद वह भी इससे बद्ध है.

(२१) यदि अंतरात्मा की आवाज़ होती है तो वे सब को सुनाई क्यों नहीं देती...?
एक जलते हुए यानी प्रकाशित बल्ब के ऊपर यदि हम एक मोटा तौलिया, कंबल या कोई आवरण डालकर उसे ढक दें, तो उस जलते बल्ब का प्रकाश अस्तित्व में होते हुए भी हमें दिखाई नहीं पड़ता या कपड़े की मोटाई के अनुसार वह प्रकाश हमें हल्का सा दिखाई पड़ता है। ...समझने के लिए बल्ब यानी आत्मा; प्रकाश यानी आत्मिक प्रकाश (आत्मा की आवाज या मार्गदर्शन); बल्ब के ऊपर आवरण यानी हमारे मन पर अंकित संस्कार (वर्तमान एवं पूर्व के भी), हमारे स्वभाव-केंद्र, हमारी प्रवृत्ति, सोच, आदि। ..इस मानसिक आवरण के कारण आत्मा के दिशा-निर्देश हमारी ज्ञानेन्द्रियों या कर्मेन्द्रियों तक नहीं पहुंच पाते और हमारे अधिकतर निर्णय या कार्य मन में विद्यमान संस्कारों के निर्देशानुसार होते हैं! ...इससे एक अन्य प्रश्न का भी उत्तर मिलता है कि "आत्मा सबकी एक परंतु सोच व कर्म अलग कैसे?" उत्तर होगा-- आत्मा सबमें एक पर आवरण का प्रकार प्रत्येक पर भिन्न-भिन्न! यही कारण है हमारी भिन्नता का!

(२२) क्यों हम अपने द्वारा किये गए हर कर्म के उत्तरदायी होते है? हम लोग अक्सर भावना के शिकार हो जाते है हमारे आपने लोग कभी कभी हमें गलत काम करने के किये विवश कर देत्ते है और कभी कभी परिस्थिति के शिकार भी हो जाते है!?
चूंकि प्रत्येक कार्य को करने के लिए फैसला हमें ही लेना होता है, तब भी यदि हम यह जानते हुए भी कोई वह कार्य करते हैं जिसको हम भलीभांति समझ रहे हैं कि वो गलत काम है, ...तो उसके उत्तरदाई पूरी तरह से हम ही होते हैं। इसमें कोई भी संदेह नहीं! ....हाँ, यदाकदा किसी आपातकाल में "धर्म" यानी 'सही' की रक्षा हेतु कोई गलत काम भी करते हैं तो वो कोई अपराध नहीं! लेकिन ध्यान रखें कि सत्य की रक्षा होते ही उस गलत काम को छोड़कर वापस हमें 'सही' मार्ग पर 'तुरंत' लौटना होगा, अन्यथा फिर हम उत्तरदाई होंगे। इसे 'आपदधर्म' भी कह सकते हैं. ..पुनः, सचेत रहें कि 'आपदधर्म' केवल 'अल्पकाल' के लिए, केवल 'धर्मरक्षा' के लिए (सत्य एवं न्याय की रक्षा के लिए) होता है, और कार्य पूर्ण होते ही उसे (आपदधर्म को) त्यागकर 'सामान्य सही मार्ग' पर तुरंत लौटना आवश्यक होता है, अन्यथा हम पाप के भागी बनते हैं!

(२३) आम जीवनयापन के अतिरिक्त जीवन का मुख्य उद्देश्य क्या होना चाहिए?
आध्यात्मिक गुणों का व्यवहारिक अमल कर अच्छा इंसान और बेहतर नागरिक बनना; इसके लिए शैशवकाल से ही अच्छे लोगों और उत्कृष्ट साहित्य की संगत जरूरी।

(२४) क्रोध मनुष्य का सबसे बड़ा शत्रु है, इसपर कैसे विजय पाएं...?
अबतक के विचार-मंथन से हमने मोटे तौर पर यह तो निष्कर्ष निकाल ही लिया होगा कि 'क्रोध' हमारे (यानी आत्मा के) मूल गुणधर्म का हिस्सा नहीं!!! यह एक आगंतुक संस्कार है, जब हम ऐसा समझ लेंगे तो धीरे-धीरे उसपर नियंत्रण पा लेंगे. ...बड़ा हठी होता है 'क्रोध', लेकिन है तो अनचाहा आगंतुक ही, ...तो निपटा जा सकता है उससे जैसे हम अपने घर में घुस आए किसी अनचाहे उचक्के आततायी से निपटते हैं. ...एक अन्य उपाय-- ...जैसे निरंतर प्रकाश के सान्निध्य में रहकर हम अंधकार से दूर रह सकते हैं वैसे ही अच्छी संगति, अच्छे विचारों और आत्मा के करीब रहकर हम क्रोध से परे रह सकते हैं.
उपरोक्त प्रयास हम पहले स्वयं करें तदोपरांत इसके लिए पर्याप्त जनजागृति भी करें तो हमारे समाज में आत्मिक गुण बढ़ेंगे, फलतः हिंसा व अपराध भी कम होंगे.

(२५) क्रोध से बचने का क्या उपाय है?
सात्त्विक विचारों के सान्निध्य में सतत रहना ही क्रोध को टालने या नियंत्रित करने का एकमात्र उपाय है, जैसे कोई दीपक प्रज्जवलित करने पर ही अंधकार का नाश संभव होता है.

(२६) क्या कारण है हम हमेशा सही होते है और दूसरे गलत?
हमारा "अहंकार" ही हमें हमेशा यह बताता और जताता है कि दूसरे गलत या हीन हैं और केवल हम ही श्रेष्ठ! आध्यात्मिक (धार्मिक) जगत में भी यह बीमारी बहुत है.

(२७) सुखी होने का मूल मंत्र क्या है?
आत्मा और आत्मा के गुणों को खोजते रहें, उन्हें जानते-पहचानते रहें, ...फिर सबसे बड़ी बात कि उनपर अमल भी करते चलें। अवश्य ही हम खरा सुख प्राप्त करेंगे ही।

(२८) भगवान में न्याय और कृपा- दोनों पूरे-के-पूरे हैं, वे कृपा करते ही रहते हैं, कृपा करना उनका स्वभाव है! हम उन्हें दोषी क्यों बनाते हैं?
हम मूर्ख और मूढ़बुद्धि हैं इसीलिये! ..यह बात नहीं कि ईश्वर के बारे में पता नहीं हमको, फिर भी.....!! ..शायद ईश्वर और ईश्वर निर्मित प्रकृति के अकाट्य नियमों पर हमारा विश्वास खोखला है, और ईश्वर के तथाकथित ढोंगी मीडिएटर्स पर हम कुछ ज्यादा ही आश्रित हैं!

(२९) सकारात्मक कर्म नकारात्मक को काटता है?
नहीं, एक-दूसरे से कटते नहीं है! सकारात्मक और नकारात्मक दोनों तरह के कर्मों के फल कर्म की प्रकृति के अनुसार अलग-अलग प्राप्त होते हैं। अच्छे के बदले अच्छा, और बुरे के बदले बुरा! ...दोनों का खाता अलग-अलग होता है।